26. स्वभावगत बदलाव क्या है
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
परमेश्वर पर विश्वास करने वालों के लिए स्वभावगत बदलाव प्रमुख दर्शन है। स्वभाव बदल पाना कोई साधारण मामला नहीं है। वो इसलिए कि परमेश्वर ऐसे नव-सृजित मनुष्यों को नहीं बचा रहा है जो शैतान की भ्रष्टता से बचे हुए हैं, बल्कि ऐसे मनुष्यों के समूह को बचा रहा है जिन्हें यह गहराई तक भ्रष्ट कर चुका है, जो शैतानी विषों और शैतानी स्वभावों से ओतप्रोत हैं, जो बिल्कुल शैतान की तरह हैं, और परमेश्वर के खिलाफ प्रतिरोध और विद्रोह कर रहे हैं। किसी व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव बदलना ऐसा ही है जैसे किसी के कैंसर को ठीक करना। यह बड़ी जटिल प्रक्रिया है, है ना? इसके लिए सर्जरी करने, लंबे समय तक कीमोथेरेपी देने और एक अंतराल पर दुबारा जाँचने की जरूरत पड़ती है। यह प्रक्रिया वाकई जटिल है। इसलिए स्वभाव बदलने को साधारण मामला मत मानो। यह व्यवहार या चाल-चलन में बदलाव नहीं है, जैसा कि लोग मान लेते हैं। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो लोगों के चाहने भर से हो जाती हो। स्वभावगत बदलाव में कई प्रकार की प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं—वो प्रक्रियाएँ जिन्हें परमेश्वर के वचनों में बहुत की साफ ढंग से समझाया गया है। इसलिए परमेश्वर पर विश्वास करने के पहले दिन से ही तुम्हें यह समझना होगा कि परमेश्वर लोगों को कैसे बचाता है और उन्हें बचाकर वह कौन-सा प्रभाव हासिल करना चाहता है। अगर तुम सत्य का अनुसरण करना और अपना स्वभाव बदलना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास के अपने त्रुटिपूर्ण विचार भी बदलने होंगे। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए तुमसे सुसभ्य, नेक या कानून का पालन करने वाला व्यक्ति होने या ऐसे बहुत सारे नेक कर्म करने की जरूरत नहीं है जिन्हें दूसरे लोग सही ठहराते हों। अतीत में लोग सोचते थे कि परमेश्वर पर विश्वास करने और स्वभावगत बदलाव की कोशिश करने का मतलब चाटुकार होना है—यानी बाहरी तौर पर थोड़ा-सा मनुष्य जैसा व्यवहार, थोड़ी-सी शिष्टता, थोड़ा-सा सब्र होना, या फिर थोड़ी-सी सतही धर्मनिष्ठा होना और दूसरों से प्रेम करना, दूसरों की मदद करना और दान देना। दूसरे शब्दों में कहें, तो ऐसा इंसान बनना जिसे मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार नेक इंसान माना जाता है। हर इंसान के दिल में ऐसी धारणाएँ और बातें भरी होती हैं—यह शैतानी जहर का एक पहलू है। अतीत में परमेश्वर पर विश्वास करने वाला कोई भी व्यक्ति स्वभाव बदलने की समस्या को स्पष्ट रूप से नहीं समझा सका। ये लोग आस्था की बातों से अनजान थे—इसे वे न तो सहज रूप से समझते थे, न ईसाइयत में कुछ वर्षों के विश्वास के बाद ही समझ पाते थे। इसकी वजह यह थी कि परमेश्वर ने अपने कार्य का यह पहलू अभी पूरा नहीं किया था, न ही उसने सत्य का यह पहलू बताया था। इसी कारण बहुत सारे लोग अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर आस्था का मतलब यह मानते थे कि अपने बाहरी व्यवहार और अभ्यास में थोड़ा-सा बदलाव कर लो और अपने कुछ साफ दिखते गलत नजरिए बदल लो। कुछ तो ये भी मानते थे कि आस्था का मतलब बड़ी भारी मुसीबतें सहना, अच्छा भोजन न करना या बढ़िया कपड़े न पहनना है। ठीक वैसे ही जैसे पुराने जमाने में पश्चिमी देशों की कैथोलिक ननें मानती थीं कि परमेश्वर में आस्था रखने का सीधा सा मतलब है अपने जीवन में ज्यादा कष्ट सहना और कम से कम अच्छी चीजों का आनंद लेना—यानी जब अपने पास पैसा हो तो इसे गरीबों को दे देना या अधिक नेक कर्म करना और दूसरों की मदद करना। जीवन भर वे कष्ट सहने पर जोर देती रहती थीं। वे कुछ भी अच्छा खाना नहीं खाती थीं; अच्छे कपड़े नहीं पहनती थीं। जब उनकी मृत्यु होती थी तो उनके पास मामूली कीमत के कपड़े होते थे। हो सकता है कि उनके कर्म दुनिया भर की खबरों में छाए रहे हों। इसका क्या अर्थ है? इसका यही अर्थ है कि जनमानस में सिर्फ इसी तरह के लोग नेक और सदाचारी होते हैं; यह कि धार्मिक जगत में केवल इन्हीं लोगों को अच्छी चीजें और अच्छे कर्म करने वाला माना जाता है, और यह कि केवल ये ही खुद को बदल पाए हैं और वास्तव में इन्हीं में दृढ़ निश्चय है। और इसीलिए, तुम सब भी अपवाद नहीं हो सकते, शायद तुम भी मानते हो कि परमेश्वर में आस्था रखने का मतलब ही नेक इंसान होना है—यानी कोई ऐसा जो दूसरों को आहत या अपमानित न करे, जो गंदी भाषा न इस्तेमाल करे या बुरे काम न करे, जिसे लोग बाहरी तौर पर देख सकें कि वह परमेश्वर में विश्वास करता है और परमेश्वर की महिमा गा सकता है। यह मानसिक दशा ऐसे लोगों की होती है जिन्होंने परमेश्वर में विश्वास करना बस शुरू किया ही है। उन्हें लगता है कि यही स्वभावगत बदलाव है, और यही ऐसा व्यक्ति बनना है जिससे परमेश्वर प्रसन्न रहता है। क्या यह नजरिया सही है? जिन लोगों ने अभी-अभी आस्था रखने की शुरुआत की है, उन्हीं के ऐसे भोले विचार होते हैं। जब कोई व्यक्ति कुछ सत्य समझ लेता है तो इस तरह की सोच जल्द ही गायब हो जाती है। यह नजरिया तुम्हारे दिल में चाहे जितनी गहराई तक समाया हो, तुम लोगों ने अभी तक इसकी त्रुटियों और भटकावों का पता नहीं लगाया है। तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास करते चाहे कितने ही बरस हो चुके हों, इन गलत नजरियों का समाधान अभी तक नहीं हुआ है। इससे यह स्पष्ट है कि कम ही लोग वास्तव में यह समझते हैं कि स्वभावगत बदलाव क्या है, न वे यह समझते हैं कि सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखना क्या है, असली इंसान कैसे बनें, किस प्रकार के व्यक्ति से परमेश्वर प्रसन्न रहता है, या किस प्रकार का व्यक्ति परमेश्वर को स्वीकार्य है और किस प्रकार के व्यक्ति को परमेश्वर हासिल करना चाहता है। अगर तुम ये चीजें नहीं समझते हो, तो यह दिखाता है कि तुमने सच्चे मार्ग पर ठोस नींव नहीं रखी है। ये मानवीय धारणाएँ, कल्पनाएँ और व्यक्तिपरक विचार अभी भी तुम्हारी सोच और तुम्हारे दृष्टिकोणों पर हावी हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना स्वभाव बदलने के लिए अभ्यास का मार्ग
स्वभाव में परिवर्तन का क्या अर्थ है? यह तब होता है, जब सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति, परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए, उसके वचनों के न्याय और उसकी ताड़ना को स्वीकार करता है, और सभी तरह की पीड़ाओं और शोधन का अनुभव करता है। इस तरह का व्यक्ति अपने भीतर के शैतानी विषों से शुद्ध हो जाता है और अपने भ्रष्ट स्वभावों से पूरी तरह मुक्त हो जाता है, जिससे वह परमेश्वर के वचनों, उसके सारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो सके और कभी परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह या उसका प्रतिरोध न करे। यह स्वभाव में परिवर्तन है। ... स्वभाव में परिवर्तन का मतलब है कि व्यक्ति, सत्य से प्रेम करने और उसे स्वीकार सकने के कारण, अंततः अपनी परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी और परमेश्वर-विरोधी प्रकृति जान जाता है। वह समझता है कि मनुष्य गहराई से भ्रष्ट हैं, वह मनुष्य के बेतुकेपन और धोखाधड़ी को, और मनुष्य की खराब और दयनीय स्थिति को समझता है, और अंतत: वह मनुष्य की प्रकृति और सार समझ जाता है। यह सब जानकर वह स्वयं को पूरी तरह नकारकर त्यागने, परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने और सभी चीजों में सत्य का अभ्यास में समर्थ हो जाता है। यह ऐसा व्यक्ति होता है, जो परमेश्वर को जानता है और ऐसा व्यक्ति, जिसका स्वभाव बदल चुका है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें
स्वभावगत बदलाव व्यवहार या व्यक्तित्व में बदलाव नहीं है, न यह ऐसा कोई बदलाव है जिससे लोग ज्यादा ज्ञानी-ध्यानी बन जाएँ; परमेश्वर अपने वचनों से हर व्यक्ति के विचार और दृष्टिकोण बदलना चाहता है, और उसे सत्य समझने लायक बनाना चाहता है, ताकि वह चीजों को देखने का अपना तरीका बदल सके। यह एक पहलू है, जबकि दूसरा पहलू उन सिद्धांतों को बदलना है जिनके आधार पर लोग आचरण करते हैं, यह जीवन के प्रति उनके नजरिये में बदलाव है; एक और पहलू लोगों में दिखने वाली गहरी शैतानी प्रकृति और स्वभाव को बदलना है। आम तौर पर स्वभावगत बदलाव के ये तीन पहलू हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना स्वभाव बदलने के लिए अभ्यास का मार्ग
स्वभाव में रूपांतरण मुख्य रूप से एक व्यक्ति की प्रकृति में रूपांतरण को संदर्भित करता है। किसी व्यक्ति की प्रकृति की चीजों को बाहरी व्यवहारों से नहीं महसूस किया जा सकता। उनका सीधा संबंध लोगों के अस्तित्व की कीमत और महत्व से, जीवन के बारे में उनके दृष्टिकोण और उनके मूल्यों से है, उनमें लोगों की आत्मा की गहराई में स्थित चीजें और उनका सार शामिल हैं। अगर एक व्यक्ति सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता, तो वह इन पहलुओं में किसी भी रूपांतरण का अनुभव नहीं करेगा। केवल परमेश्वर के कार्य का पूरी तरह अनुभव करने, पूरी तरह से सत्य में प्रवेश करने, अस्तित्व और जीवन पर अपने मूल्यों और दृष्टिकोणों को बदलने, चीजों को लेकर अपने विचारों को परमेश्वर के वचनों के अनुरूप करने, और पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित और निष्ठावान होने पर ही कहा जा सकता है कि व्यक्ति का स्वभाव रूपांतरित हो गया है। वर्तमान में, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए तुम कुछ प्रयास करते और कठिनाई के सामने मजबूत प्रतीत हो सकते हो, तुम उच्च से मिली कार्य व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करने में सक्षम हो सकते हो, या तुम्हें जहाँ भी जाने के लिए कहा जाए वहाँ जाने में समर्थ हो सकते हो। ऊपर से ऐसा लग सकता है कि तुम कुछ हद तक आज्ञाकारी हो, लेकिन अगर कुछ ऐसा हो जाता है जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो तुम्हारा विद्रोह सामने आ जाता है। उदाहरण के लिए, तुम अपनी काट-छाँट किए जाने के प्रति समर्पित नहीं होते, और विपदा आने पर तो तुम और भी समर्पण नहीं करते; तुम परमेश्वर को लेकर शिकायत करने का दुस्साहस भी करते हो। इसलिए, वह थोड़ा-सा समर्पण और बाहरी बदलाव, बस व्यवहार में एक छोटा-सा बदलाव है। थोड़ा-सा बदलाव तो है, लेकिन यह तुम्हारे स्वभाव के रूपांतरण के रूप में गिने जाने के लिए पर्याप्त नहीं है। तुम कई रास्तों पर चलने में सक्षम हो सकते हो, कई कठिनाइयों का सामना कर सकते हो, और बहुत अपमान सह सकते हो; तुम खुद को परमेश्वर के बहुत करीब महसूस कर सकते हो, और पवित्र आत्मा तुम पर कुछ काम कर सकता है। लेकिन, जब परमेश्वर तुमसे कुछ ऐसा करने के लिए कहता है जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, तो शायद तुम अभी भी समर्पण न करो, बल्कि, हो सकता है तुम बहाने ढूंढ़ने लगो, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका प्रतिरोध करो, और गंभीर अवसरों पर सवाल-जवाब कर उसके खिलाफ लड़ने तक लगो। यह एक गंभीर समस्या होगी! यह दिखाएगा कि तुममें अभी भी परमेश्वर का विरोध करने वाली प्रकृति है, तुम वास्तव में सत्य नहीं समझते, और तुम्हारे जीवन-स्वभाव में बिल्कुल भी बदलाव नहीं आया है। बरखास्त किए जाने या हटा दिए जाने के बाद भी, कुछ लोग परमेश्वर की आलोचना करने और यह कहने का दुस्साहस करते हैं कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है। यहाँ तक कि वे परमेश्वर के साथ बहस करते और लड़ते भी हैं, जहाँ भी जाते हैं, परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएँ और परमेश्वर के प्रति अपना असंतोष फैलाते हैं। ऐसे लोग दानव हैं जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। दानवी प्रकृति वाले लोग कभी नहीं बदलेंगे और उन्हें छोड़ देना चाहिए। जो लोग हर स्थिति में सत्य खोज और उसे स्वीकार कर सकते हैं, और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित हो सकते हैं, केवल उनके पास ही सत्य पाने और स्वभाव में बदलाव प्राप्त करने की आशा होती है। अपने अनुभवों में, तुम्हें उन दशाओं के बीच अंतर करना सीखना चाहिए जो बाहर से सामान्य दिखाई देती हैं। तुम प्रार्थना के दौरान सुबक और रो सकते हो, या महसूस कर सकते हो कि तुम्हारा दिल परमेश्वर से बहुत प्रेम करता है, और उसके बहुत करीब है, फिर भी ये दशाएँ केवल पवित्र आत्मा का कार्य हैं और यह नहीं दर्शातीं कि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो। यदि तुम तब भी परमेश्वर से प्रेम और समर्पण कर सको, जब पवित्र आत्मा कार्य न कर रहा हो, और जब परमेश्वर तुम्हारी धारणाओं के विपरीत कार्य करता है, केवल तभी तुम वह व्यक्ति हो जो वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करता है। केवल तभी तुम वह व्यक्ति हो जिसका जीवन-स्वभाव बदल गया है। केवल ऐसे व्यक्ति में ही सत्य वास्तविकताएँ होती हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए
अगर किसी व्यक्ति का जीवन स्वभाव बदल गया है, तो जीवन के बारे में भी उसका नजरिया भी निश्चित रूप से बदल गया है। अब अलग मूल्यों के साथ, वे फिर कभी अपने लिए नहीं जिएँगे, और ना ही फिर कभी सिर्फ आशीष पाने के मकसद से परमेश्वर पर विश्वास करेंगे। ऐसे लोग यह कह सकते हैं, “परमेश्वर को जानना बहुत सार्थक है। परमेश्वर को जानने के बाद अगर मैं मर गया, तो वह बहुत बड़ी बात होगी! अगर मैं परमेश्वर को जानकर उसके प्रति समर्पित हो सकता हूँ, और एक सार्थक जीवन जी सकता हूँ, तो मेरा जीना व्यर्थ नहीं गया है, न ही मैं किसी पछतावे के साथ मरूँगा; मुझे कोई शिकायतें नहीं होगी।” जीवन के प्रति इस व्यक्ति का नजरिया बदल गया है। किसी व्यक्ति के जीवन स्वभाव में परिवर्तन का मुख्य कारण यह है कि उसके पास सत्य वास्तविकता है, और उसे परमेश्वर का ज्ञान है; इसलिए जीवन के प्रति उस व्यक्ति का नजरिया बदल गया है, और उसके मूल्य पहले के मुकाबले अलग हैं। परिवर्तन व्यक्ति के हृदय से और उसके जीवन के भीतर से शुरू होते हैं; यकीनन यह एक बाहरी परिवर्तन नहीं है। कुछ नए विश्वासी, परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करने के बाद, लौकिक संसार को पीछे छोड़ देते हैं। बाद में जब उनका सामना अविश्वासियों से होता है, तो उन विश्वासियों के पास कहने को कुछ नहीं होता, और वे अपने अविश्वासी रिश्तेदारों और दोस्तों से शायद ही कभी संपर्क करते हैं। अविश्वासी कहते हैं, “यह व्यक्ति बदल गया है।” फिर विश्वासी सोचते हैं, “मेरा जीवन स्वभाव बदल गया है; जबकि ये अविश्वासी कहते हैं कि मैं बदल गया हूँ।” क्या ऐसे व्यक्ति का स्वभाव वास्तव में बदल गया है? नहीं, यह नहीं बदला है। वे सिर्फ बाहरी बदलाव दिखाते हैं। उनके जीवन में कोई वास्तविक बदलाव नहीं आया है, और उनकी शैतानी प्रकृति उनके हृदय में जड़ें जमा चुकी है, जो पूरी तरह से अछूती है। कभी-कभी, लोग पवित्र आत्मा के कार्य की वजह से उत्साह से भरे होते हैं; ऐसे में कुछ बाहरी बदलाव हो सकते हैं, और वे कुछ अच्छे कर्म भी कर सकते हैं। हालाँकि, यह स्वभाव में परिवर्तन हासिल करने जैसा नहीं है। अगर तुम्हारे पास सत्य नहीं है और चीजों के बारे में तुम्हारा दृष्टिकोण नहीं बदला है, यहाँ तक कि यह अविश्वासियों से जरा भी अलग नहीं है, और अगर जीवन के प्रति तुम्हारे नजरिये और तुम्हारे मूल्यों में कोई बदलाव नहीं आया है, या, और अगर तुम्हारे अंदर परमेश्वर के प्रति श्रद्धा भी नहीं है—जो कम से कम तुममें होनी ही चाहिए—तो तुम स्वभाव में बदलाव हासिल करने के आस-पास भी नहीं हो।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
स्वभाव परिवर्तन के विषय में पहले जो तेरी समझ थी वह ये थी कि तू, जो आलोचना करने को इतना तत्पर है, परमेश्वर द्वारा अनुशासित किये जाने के कारण अब लापरवाही से नहीं बोलता है। पर यह परिवर्तन का सिर्फ एक पहलू है। अभी सबसे महत्वपूर्ण बात है पवित्र आत्मा के दिशा निर्देश में रहना : परमेश्वर की हर बात का अनुसरण करना और उसकी हर बात के प्रति समर्पण करना। लोग अपना स्वभाव स्वयं परिवर्तित नहीं कर सकते; उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन से गुजरना होगा, या उसके वचनों द्वारा अनुशासित और काट-छाँट किया जाना होगा। इन सब के बाद ही वे परमेश्वर के प्रति विश्वसनीयता और समर्पण प्राप्त कर सकते हैं और उसके प्रति बेपरवाह होना बंद कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के शोधन के द्वारा ही मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। केवल उसके वचनों के संपर्क में आने से, उनके न्याय, अनुशासन और काट-छाँट से, वे कभी लापरवाह नहीं होंगे, बल्कि शांत और संयमित बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के मौजूदा वचनों और उसके कार्यों का पालन करने में सक्षम होते हैं, भले ही यह मनुष्य की धारणाओं से परे हो, वे इन धारणाओं को नज़रअंदाज करके अपनी इच्छा से पालन कर सकते हैं। पहले स्वभाव में बदलाव की बात मुख्यतः स्वयं के खिलाफ विद्रोह करने, शरीर को कष्ट सहने देने, अपने शरीर को अनुशासित करने, और अपने आप को शारीरिक प्राथमिकताओं से दूर करने के बारे में होती थी—जो एक तरह का स्वभाव परिवर्तन है। आज, सभी जानते हैं कि स्वभाव में बदलाव की वास्तविक अभिव्यक्ति परमेश्वर के मौजूदा वचनों के प्रति समर्पण करने में है, और साथ ही साथ उसके नए कार्य को सच में समझने में है। इस प्रकार, परमेश्वर के बारे में लोगों का पूर्व ज्ञान जो उनकी धारणा से रंगी थी, वह मिटाई जा सकती है और वे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान और समर्पण प्राप्त कर सकते हैं—केवल यही है स्वभाव में बदलाव की वास्तविक अभिव्यक्ति।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं
स्वभावगत बदलाव का मतलब नियम या दस्तूर बदलना नहीं है, यह अपनी बाहरी वेश-भूषा या बाहरी व्यवहार, चाल-चलन या मिजाज बदलना तो और भी नहीं है। यह सुस्त मिजाज को तेज मिजाज में बदलना या उसका उलटा नहीं है, न ही यह अंतर्मुखी को बहिर्मुखी या किसी वाचाल को चुप्पे में बदलना है। यह कोई तरीका नहीं है, यह परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत अलग और बहुत ही दूर की बात है! जब कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास करना शुरू करता है, तो सत्य को न समझने के कारण वह हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार कार्य करता है। इसके फलस्वरूप वह सही मार्ग से भटक जाता है, कुछ भी वास्तविक चीज हासिल किए बिना अपने कई साल गँवा देता है। उस समय वह नहीं जानता कि उसे परमेश्वर में अपने विश्वास के तहत सत्य के अनुसरण के पथ पर चलना चाहिए। इसके कारण वह कई साल तक गलत मोड़ों पर मुड़ जाता है, और तब जाकर उसे यह एहसास होता है कि परमेश्वर में विश्वास में सबसे महत्वपूर्ण चीज तो उद्धार प्राप्त करने के लिए सत्य समझना और वास्तविकता में प्रवेश करना है, और यही सबसे अहम चीज है। केवल तभी वह समझ पाता है कि परमेश्वर जिस स्वभावगत बदलाव की बात करता है उसका अर्थ बाहरी व्यवहार में बदलाव नहीं है, बल्कि परमेश्वर लोगों से यह कह रहा है कि वे खुद को और अपने भ्रष्ट सार को समझें, इंसान के प्रकृति सार को समझने के प्रयास कर इसके मूल कारण खोजें, और फिर अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करें, सत्य पर अमल करें, और परमेश्वर की आज्ञा मानकर उसकी आराधना कर सकें। अपना जीवन स्वभाव बदलने का यही मतलब है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना स्वभाव बदलने के लिए अभ्यास का मार्ग
स्वभाव में बदलाव व्यवहार में बदलाव नहीं होता, न ही यह झूठा बाह्य परिवर्तन होता है, यह जोश में आकर अस्थायी बदलाव भी नहीं होता। ये परिवर्तन कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे जीवन स्वभाव में परिवर्तन का स्थान नहीं ले सकते, क्योंकि ये बाहरी परिवर्तन मानवीय प्रयासों से लाए जा सकते हैं, लेकिन जीवन स्वभाव में परिवर्तन केवल व्यक्ति के अपने प्रयासों से नहीं लाए जा सकते। इसके लिए परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन का अनुभव करना और साथ ही पवित्र आत्मा की पूर्णता आवश्यक है। भले ही परमेश्वर में विश्वास रखने वाले लोगों का व्यवहार थोड़ा अच्छा होता है, लेकिन उनमें से कोई भी वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करता, वास्तव में परमेश्वर से प्रेम नहीं करता या परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं चल सकता। ऐसा क्यों है? क्योंकि ऐसा करने के लिए जीवन स्वभाव में बदलाव की आवश्यकता होती है, केवल व्यवहार में बदलाव बिल्कुल भी काफी नहीं होता। स्वभाव में बदलाव का मतलब है कि तुम्हारे अंदर सत्य का ज्ञान और अनुभव है, सत्य तुम्हारा जीवन बन गया है, यह तुम्हारे जीवन और तुम्हारी हर चीज को यह निर्देशित कर सकता और उन पर इसका प्रभुत्व हो सकता है। यह तुम्हारे जीवन स्वभाव में आया बदलाव है। जिन लोगों के लिए सत्य जीवन बन गया है, केवल उनका ही जीवन स्वभाव बदला है। हो सकता है पहले कुछ सत्य ऐसे रहे हों जिन्हें तुमने समझ तो लिया था, लेकिन उन्हें व्यवहार में नहीं ला पाए, लेकिन अब तुम सत्य के हर उस पहलू को जिन्हें तुम समझते हो, बिना बाधाओं या कठिनाई के अभ्यास में ला सकते हो। जब तुम सत्य का अभ्यास करते हो, तो तुम खुद को शांति और प्रसन्नता से भरा महसूस करते हो, लेकिन यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, तो तुम्हें पीड़ा का अनुभव होता है और तुम्हारी अंतरात्मा विचलित हो जाती है। तुम हर चीज में सत्य का अभ्यास कर सकते हो, परमेश्वर के वचनों के अनुसार जी सकते हो और जीने का आधार पा सकते हो। इसका मतलब है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है। अब तुम आसानी से अपनी धारणाएँ, कल्पनाएँ, दैहिक प्राथमिकताएँ, लक्ष्य और ऐसी चीजें त्याग सकते हो जिन्हें तुम पहले नहीं छोड़ सकते थे। तुम्हें लगने लगता है कि परमेश्वर के वचन वास्तव में अच्छे हैं और सत्य का अभ्यास करना सबसे अच्छी बात है। इसका मतलब है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है। स्वभाव में परिवर्तन बहुत सरल लगता है, पर वास्तव में यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें काफी अनुभव की जरूरत होती है। इस अवधि में, लोगों को कई कठिनाइयाँ सहनी होती हैं, अपनी देह को वश में कर अपनी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करना होता है, उन्हें न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, परीक्षणों और शोधन से भी गुजरना होता है, इसके अलावा अपने हृदय में असफलताएँ, पतन, आंतरिक संघर्ष और पीड़ाएँ भी सहनी होती हैं। इन अनुभवों के बाद ही लोगों को अपनी प्रकृति की थोड़ी-बहुत समझ हो सकती है, लेकिन थोड़ी-बहुत समझ तुरंत पूरा परिवर्तन नहीं लाती; इससे पहले कि अंततः वे अपने भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे त्याग पाने में समर्थ हों, उन्हें एक लंबे अनुभव से गुजरना होता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए
स्वभाव में रूपांतरण लाना कोई आसान बात नहीं है; इसका मतलब महज व्यवहार में थोड़ा-सा बदलाव लाना और सत्य का थोड़ा ज्ञान हासिल कर लेना, सत्य के हर पहलू के बारे में अपने अनुभव पर थोड़ा बात कर लेना, या थोड़ा-सा बदल जाना, अनुशासित किए जाने के बाद थोड़ा-सा समर्पित हो जाना नहीं है। ये चीजें जीवन स्वभाव में रूपांतरण का अंग नहीं हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? भले ही तुम थोड़ा-बहुत बदल गए हो, लेकिन तुम अभी भी सही मायने में सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो। तुम शायद इस तरह से व्यवहार इसलिए करते हो क्योंकि तुम अस्थायी तौर पर उपयुक्त परिवेश में हो और यह स्थिति तुम्हें अनुमति देती है या तुम्हारी वर्तमान परिस्थितियों ने तुम्हें इस तरह से व्यवहार करने के लिए मजबूर किया है। इसके अलावा, जब तुम्हारी मनोदशा अच्छी होती है, जब तुम्हारी स्थिति सामान्य होती है, और जब तुममें पवित्र आत्मा का कार्य होता है, तो तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो। लेकिन मान लो तुम किसी परीक्षण से गुजर रहे हो, तुम परीक्षणों के बीच अय्यूब की तरह कष्ट उठा रहे हो या तुम्हारे सामने मौत का परीक्षण है। अगर ऐसी स्थिति आए, तो क्या तुम तब भी सत्य का अभ्यास कर और दृढ़ता से गवाही दे पाओगे? क्या तुम पतरस की तरह यह कह सकते हो, “अगर तुझे जानने के बाद मुझे मरना भी पड़े, तो मैं ऐसा हर्ष और प्रसन्नता के साथ कैसे नहीं कर सकता?” पतरस ने किस चीज को महत्व दिया? पतरस ने समर्पण को महत्व दिया, उसने परमेश्वर को जानने को सर्वाधिक महत्वपूर्ण समझा, तभी वह मृत्युपर्यंत समर्पण कर पाया। स्वभाव में परिवर्तन रातोंरात नहीं होता; इसमें जीवन भर का अनुभव लग जाता है। सत्य को समझना थोड़ा आसान होता है, लेकिन विभिन्न संदर्भों में सत्य का अभ्यास करना कठिन होता है। सत्य को व्यवहार में लाने में लोगों को हमेशा परेशानी क्यों होती है? वास्तव में, ये सभी कठिनाइयाँ सीधे तौर पर लोगों के भ्रष्ट स्वभावों से जुड़ी होती हैं और ये सारी बाधाएँ भ्रष्ट स्वभावों से आती हैं। इसलिए, सत्य को व्यवहार में लाने में समर्थ होने के लिए तुम्हें बहुत कुछ भुगतना पड़ता है और कीमत चुकानी पड़ती है। यदि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट न होता, तो तुम्हें सत्य का अभ्यास करने के लिए कष्ट सहने और कीमत चुकाने की आवश्यकता न होती। क्या यह स्पष्ट तथ्य नहीं है? ऐसा लग सकता है जैसे तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो, लेकिन वास्तव में, तुम्हारे कृत्यों की प्रकृति यह नहीं दर्शाती कि तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो। परमेश्वर का अनुसरण करने में कई लोग अपने परिवार और काम-धंधे त्याग करके अपने कर्तव्य निभाने में सक्षम होते हैं, इसलिए वे मानते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन वे कभी सच्ची अनुभवात्मक गवाही देने में सक्षम नहीं होते। यहाँ असल में क्या चल रहा है? मनुष्य की धारणाओं से उन्हें मापने पर वे सत्य का अभ्यास करते प्रतीत होते हैं, फिर भी परमेश्वर नहीं मानता कि वे जो कर रहे हैं, वह सत्य का अभ्यास करना है। अगर तुम्हारे कामों के पीछे व्यक्तिगत इरादे हों और वे दूषित हों, तो तुम सिद्धांतों से भटक सकते हो और यह नहीं कहा जा सकता कि तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो; यह सिर्फ एक तरह का आचरण है। वास्तव में, परमेश्वर तुम्हारे इस तरह के आचरण की शायद निंदा करेगा; वह इसे स्वीकृति नहीं देगा या इसका स्मरणोत्सव नहीं मनाएगा। इसका सार और जड़ तक विश्लेषण करें तो, तुम ऐसे व्यक्ति हो जो बुराई करता है, और तुम्हारे ये बाहरी व्यवहार परमेश्वर के विरोध के तुल्य हैं। बाहर से तुम कुछ भी गड़बड़ी नहीं कर रहे हो या बाधा नहीं डाल रहे हो और तुमने वास्तविक क्षति नहीं पहुंचाई है। यह न्यायसंगत और उचित लगता है, लेकिन अंदर से इसमें मानवीय संदूषण और इरादे हैं, और इसका सार बुराई करने और परमेश्वर का विरोध करने का है। इसलिए परमेश्वर के वचनों के प्रयोग से और अपने कृत्यों के पीछे के अभिप्रायों को देखकर तुम्हें निश्चित करना चाहिए कि क्या तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन हुआ है और क्या तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो। यह इस पर निर्भर नहीं करता कि तुम्हारे कृत्य इंसानी कल्पनाओं और विचारों के अनुरूप हैं या नहीं या वो तुम्हारी रुचि के उपयुक्त हैं या नहीं; ऐसी चीजें महत्वपूर्ण नहीं हैं। बल्कि, यह इस बात पर आधारित है कि परमेश्वर की नजरों में तुम उसकी इच्छा के अनुरूप चल रहे हो या नहीं, तुम्हारे कृत्यों में सत्य वास्तविकता है या नहीं, और वे उसकी अपेक्षाओं और मानकों को पूरा करते हैं या नहीं। केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं से तुलना करके अपने आप को मापना ही सही है। स्वभाव में रूपांतरण और सत्य को अभ्यास में लाना उतना सहज और आसान नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। क्या तुम लोग अब इस बात को समझ गए? क्या इसका तुम सबको कोई अनुभव है? जब समस्या के सार की बात आती है, तो शायद तुम लोग इसे नहीं समझ सकोगे; तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला रहा है। तुम लोग सुबह से शाम तक भागते-दौड़ते हो, तुम लोग जल्दी उठते हो और देर से सोते हो, फिर भी तुम्हारा स्वभाव रूपांतरित नहीं हुआ है, और तुम इस बात को समझ नहीं सकते कि स्वभावगत रूपांतरण क्या है। इसका अर्थ है कि तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला है, है न? भले ही तुम अधिक समय से परमेश्वर में आस्था रखते आ रहे हो, लेकिन हो सकता है कि तुम लोग स्वभाव में रूपांतरण के सार और उससे जुड़ी गहरी चीजों को महसूस न कर सको। क्या यह कहा जा सकता है कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है? तुम कैसे जानते हो कि परमेश्वर तुम्हें स्वीकृति देता है या नहीं? कम से कम, तुम अपने हर काम में जबरदस्त दृढ़ता महसूस करोगे और तुम महसूस करोगे कि जब तुम अपने कर्तव्य निभा रहे हो, परमेश्वर के घर में या आम तौर पर कोई भी काम कर रहे हो तो पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन और प्रबोधन कर रहा है और तुममें कार्य कर रहा है। तुम्हारा आचरण परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होगा, और जब तुम्हारे पास कुछ हद तक अनुभव हो जाएगा, तो तुम महसूस करोगे कि अतीत में तुमने जो कुछ किया वह अपेक्षाकृत उपयुक्त था। लेकिन अगर कुछ समय तक अनुभव प्राप्त करने के बाद, तुम महसूस करो कि अतीत में तुम्हारे द्वारा किए गए कुछ काम उपयुक्त नहीं थे, तुम उनसे असंतुष्ट हो, और तुम्हें लगे कि वे सत्य के अनुरूप नहीं थे, तो इससे यह साबित होता है कि तुमने जो कुछ भी किया, वह परमेश्वर के विरोध में था। यह साबित करता है कि तुम्हारी सेवा विद्रोह, प्रतिरोध और मानवीय व्यवहार से भरी हुई थी और तुम अपने अंदर बदलाव लाने में पूरी तरह से नाकाम रहे हो।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए
स्वभाव वे चीजें हैं जो किसी की प्रकृति से प्रकट होती हैं, और स्वभाव में बदलाव का अर्थ है कि उसके भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध कर सत्य से बदल दिया गया है। तब जो उजागर होता है वह भ्रष्ट स्वभाव नहीं होता, बल्कि सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति होती है। जब शैतान ने इंसान को भ्रष्ट कर दिया तो उसके बाद इंसान शैतान का मूर्त रूप बन गया, और ऐसी शैतानी चीज जैसा बन गया जो परमेश्वर का प्रतिरोध करती है और पूरी तरह उससे विश्वासघात करने में सक्षम है। परमेश्वर लोगों से अपना स्वभाव बदलने की अपेक्षा क्यों करता है? क्योंकि परमेश्वर लोगों को पूर्ण बनाना और हासिल करना चाहता है, अंततः मनुष्यों को ऐसा बनाना चाहता है जिनमें परमेश्वर को जानने की बहुत सारी अतिरिक्त वास्तविकताएँ हों, और सत्य के सभी पहलुओं की वास्तविकताएँ हों। इस प्रकार के लोग पूर्ण रूप से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होते हैं। अतीत में, लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होता था, और वे जब भी कुछ करते थे तो उसमें गलती करते थे या प्रतिरोध दिखाते थे, लेकिन अब लोग कुछ सत्य समझते हैं और कई ऐसी चीजें कर सकते हैं जो परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि लोग परमेश्वर से विश्वासघात नहीं करते हैं। लोग अब भी ऐसा कर सकते हैं। उनकी प्रकृति से प्रकट होने वाला एक हिस्सा बदला जा सकता है, और जो बदला जा सकता है वह वही हिस्सा है जिसमें लोग सत्य के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हैं। लेकिन सिर्फ इस कारण कि अब तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारी प्रकृति बदल चुकी है। यह वैसा ही है जैसे पहले लोग हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ रखते थे और उससे माँगें करते थे, और अब कई मामलों में वे ऐसा नहीं करते—लेकिन कुछ मामलों में अब भी उनमें धारणाएँ और माँगें हो सकती हैं, और वे अब भी परमेश्वर से विश्वासघात करने में सक्षम हैं। तुम कह सकते हो, “परमेश्वर चाहे जो करे, मैं उसके प्रति समर्पण कर सकता हूँ, और बिना शिकायत या माँग किए कई मामलों में समर्पण कर सकता हूँ,” लेकिन कुछ मामलों में तुम अभी भी परमेश्वर से विश्वासघात कर सकते हो। यद्यपि तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं करते, लेकिन जब तुम उसकी इच्छा नहीं समझते हो तो अब भी इसके विरुद्ध जा सकते हो। तो, जो हिस्सा बदल सकता है, उसका अर्थ क्या है? इसका यही अर्थ है कि जब तुम परमेश्वर की इच्छा समझते हो तो तुम समर्पण कर सकते हो, और जब तुम सत्य समझते हो तो तुम इसे अभ्यास में ला सकते हो। अगर तुम कुछ मामलों में सत्य या परमेश्वर की इच्छा नहीं समझते तो अब भी तुममें भ्रष्टता प्रकट करने की संभावना है। अगर तुम सत्य समझते हो लेकिन कुछ चीजों से विवश होने के कारण इसे अभ्यास में नहीं लाते तो फिर यह विश्वासघात है, और यह कुछ ऐसा है जो तुम्हारी प्रकृति में है। बेशक, तुम्हारा स्वभाव कितना बदल सकता है, इसकी कोई सीमा नहीं है। तुम जितने अधिक सत्य हासिल करते जाओगे, यानी परमेश्वर को लेकर तुम्हारा ज्ञान जितना गहरा होता जाएगा, तुम उसका प्रतिरोध और उससे विश्वासघात उतना ही कम करते जाओगे। अपना स्वभाव बदलने की कोशिश मुख्य रूप से सत्य के अनुसरण से पूरी होती है, और अपने प्रकृति सार की समझ सत्य को समझने से हासिल होती है। जब कोई सचमुच सत्य हासिल कर लेगा तो उसकी सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं
जिन लोगों ने अपने स्वभाव में परिवर्तन का अनुभव किया है, वे अलग हैं; उन्होंने सत्य समझ लिया है, वे सभी मुद्दों पर विवेकी होते हैं, वे जानते हैं कि कैसे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करना है, कैसे सत्य सिद्धांत के अनुसार कार्य करना है, कैसे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करना है, और वे उस भ्रष्टता की प्रकृति को समझते हैं जो वे प्रकट करते हैं। जब उनके अपने विचार और धारणाएँ प्रकट होती हैं, तो वे विवेकी बनकर देह की इच्छाओं को छोड़ सकते हैं। स्वभाव में परिवर्तन इसी तरह से दिखता है। जो लोग स्वभाव में परिवर्तन से गुज़रे हैं, उन लोगों की मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि उन्होंने स्पष्ट रूप से सत्य समझ लिया है, और कार्य करते समय तो वे सापेक्ष सटीकता के साथ सत्य का अभ्यास करते हैं और वे अक्सर भ्रष्टता नहीं दिखाते। आम तौर पर, जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे खासकर तर्कसंगत और विवेकपूर्ण प्रतीत होते हैं, और सत्य की अपनी समझ के कारण, वे उतनी आत्म-तुष्टि और दंभ नहीं दिखाते। वे अपनी प्रकट हुई भ्रष्टता में से काफ़ी कुछ समझ-बूझ लेते हैं, इसलिए उनमें अभिमान उत्पन्न नहीं होता। उन्हें कौन-सा स्थान लेना चाहिए और ऐसी कौन-सी चीजें करनी चाहिए जो उचित हो, कैसे कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए, क्या कहना और क्या नहीं कहना चाहिए, और किन लोगों से क्या कहना और क्या करना चाहिए, इस बारे में उन्हें एक विवेकपूर्ण समझ होती है। इस प्रकार जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे अपेक्षाकृत तर्कसंगत होते हैं और सही मायनों में ऐसे लोग ही इंसानियत को जीते हैं। क्योंकि उन्हें सत्य की समझ होती है, वे हमेशा सत्य के अनुरूप बोलने और चीज़ों को देखने में समर्थ होते हैं और वे जो भी करते हैं, सैद्धांतिक रूप से करते हैं; वे किसी व्यक्ति, मामले या चीज़ के प्रभाव में नहीं होते, उन सभी का अपना दृष्टिकोण होता है और वे सत्य सिद्धांत को कायम रख सकते हैं। उनका स्वभाव सापेक्षिक रूप से स्थिर होता है, वे असंतुलित नहीं होते, चाहे उनकी स्थिति कैसी भी हो, वे समझते हैं कि कैसे उन्हें अपने कर्तव्यों को सही ढंग से निभाना है और परमेश्वर की संतुष्टि के लिए कैसे व्यवहार करना है। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं वे इस पर ध्यान नहीं देते कि बाहरी तौर पर ऐसा क्या करना चाहिए ताकि दूसरे उनके बारे में अच्छा सोचें; परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए क्या करना है, इस बारे में उन्होंने आंतरिक स्पष्टता पा ली है। इसलिए, हो सकता है कि बाहर से वे इतने उत्साही न दिखें या ऐसा न लगे कि उन्होंने कोई महत्वपूर्ण काम किया है, लेकिन वो जो कुछ भी करते हैं वह सार्थक होता है, मूल्यवान होता है, और उसके परिणाम व्यावहारिक होते हैं। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं उनके अंदर निश्चित रूप से बहुत-सी सत्य वास्तविकताएँ होती हैं, और इस बात की पुष्टि चीज़ों के बारे में उनके दृष्टिकोण और उनके कार्यकलाप के सिद्धांतों के आधार पर की जा सकती है। जिन लोगों ने सत्य प्राप्त नहीं किया है, उनके स्वभाव में बिलकुल कोई परिवर्तन नहीं हुआ होता है। स्वभाव में परिवर्तन कैसे लाया जाता है? मनुष्यों को शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किया गया है, वे सभी परमेश्वर का विरोध करते हैं, परमेश्वर का प्रतिरोध करना उन सभी की प्रकृति है। जिनकी प्रकृति परमेश्वर का प्रतिरोध करना है और जो परमेश्वर का विरोध करते हैं, परमेश्वर उन सभी को अपना आज्ञापालन करने और भय मानने वाला बनाकर बचा लेता है। स्वभाव में बदलाव युक्त व्यक्ति होने का यही अर्थ है। कोई व्यक्ति कितना भी भ्रष्ट क्यों न हो या उसके पास कितने भी भ्रष्ट स्वभाव हों, अगर वह सत्य स्वीकार सकता है, परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकार सकता है, विभिन्न परीक्षण और शोधन स्वीकार सकता है, तो उसमें परमेश्वर की सच्ची समझ होगी, और साथ ही, वह स्पष्ट रूप से अपने प्रकृति-सार को भी देख पाएगा। जब वह स्वयं को वास्तव में जान लेगा, तो उसे स्वयं से और शैतान से घृणा हो जाएगी, और वह शैतान को त्यागने को तैयार हो जाएगा और पूरी तरह से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करेगा। एक बार जब किसी व्यक्ति में यह दृढ़ संकल्प आ जाता है, तो वह सत्य का अनुसरण कर सकता है। यदि लोगों को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान हो, यदि उनका शैतानी स्वभाव शुद्ध कर दिया जाए, और परमेश्वर के वचन उनके भीतर जड़ें जमा लेते हैं, और वे उनका जीवन और अस्तित्व का आधार बन जाते हैं, यदि वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीते हैं, पूरी तरह से बदलकर नए इंसान बन गए हैं—तो उसे उनके जीवन-स्वभाव में बदलाव माना जाता है। स्वभाव में बदलाव का मतलब परिपक्व और अनुभवी मानवता नहीं है, न ही यह है कि लोगों का बाहरी स्वभाव पहले की तुलना में विनम्र हो गया है, कि वे अभिमानी हुआ करते थे लेकिन अब तर्कसंगत ढंग से बोलते हैं, या वे पहले किसी की नहीं सुनते थे, लेकिन अब वे दूसरों की बात थोड़ा-बहुत सुन सकते हैं; ऐसे बाहरी परिवर्तन स्वभाव के रूपान्तरण नहीं कहे जा सकते। बेशक स्वभाव के परिवर्तन में ये लक्षण शामिल हैं, लेकिन सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि अंदर से उनका जीवन बदल गया है। यह पूरी तरह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर के वचनों और सत्य ने उनमें अंदर जड़ें जमा ली हैं, उन पर उनका शासन हो गया है और वे उनका जीवन बन गए हैं। चीजों पर उनके विचार भी बदल गए हैं। वे पूरी तरह समझ सकते हैं कि दुनिया में क्या चल रहा है और मानवजाति के साथ क्या हो रहा है, कैसे शैतान मानवजाति को भ्रष्ट करता है, कैसे बड़ा लाल अजगर परमेश्वर का विरोध करता है, वे बड़े लाल अजगर का सार देख सकते हैं। उन्हें बड़े लाल अजगर और शैतान से दिल से घृणा हो जाती है और वे पूरी तरह से परमेश्वर की ओर मुड़कर उसका अनुसरण करने लगते हैं। इसका अर्थ है कि उनका जीवन स्वभाव बदल गया है और उन्हें परमेश्वर ने प्राप्त कर लिया है। जीवन स्वभाव में परिवर्तन मौलिक परिवर्तन होता है, जबकि व्यवहार में परिवर्तन सतही होता है। जिन लोगों ने जीवन स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त कर लिया है, उन्हीं लोगों ने सत्य प्राप्त किया है और वही परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए गए हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
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स्वभाव में बदलाव है मुख्यत: प्रकृति में बदलाव