24. अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान कैसे करें और शुद्धि कैसे प्राप्त करें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
कई हजार सालों की भ्रष्टता के बाद, मनुष्य संवेदनहीन और मंदबुद्धि हो गया है; वह एक दानव बन गया है जो परमेश्वर का इस हद तक विरोध करता है कि परमेश्वर के प्रति मनुष्य की विद्रोहशीलता इतिहास की पुस्तकों में दर्ज की गई है, यहाँ तक कि मनुष्य खुद भी अपने विद्रोही आचरण का पूरा लेखा-जोखा देने में असमर्थ है—क्योंकि मनुष्य शैतान द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट किया जा चुका है, और उसके द्वारा रास्ते से इतना भटका दिया गया है कि वह नहीं जानता कि कहाँ जाना है। आज भी मनुष्य परमेश्वर को धोखा देता है : मनुष्य जब परमेश्वर को देखता है तब उसे धोखा देता है, और जब वह परमेश्वर को नहीं देख पाता, तब भी उसे धोखा देता है। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो परमेश्वर के शापों और कोप का अनुभव करने के बाद भी उसे धोखा देते हैं। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य की समझ ने अपना मूल कार्य खो दिया है, और मनुष्य की अंतरात्मा ने भी अपना मूल कार्य खो दिया है। ... ऐसी गंदी जगह में जन्म लेकर मनुष्य समाज द्वारा बुरी तरह संक्रमित कर दिया गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित हो गया है, और उसे “उच्चतर शिक्षा संस्थानों” में पढ़ाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन के बारे में क्षुद्र दृष्टिकोण, सांसारिक आचरण के घृणित फलसफे, बिल्कुल बेकार अस्तित्व, भ्रष्ट जीवन-शैली और रिवाज—इन सभी चीजों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर घुसपैठ कर ली है, उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। दिन-प्रतिदिन मनुष्य का स्वभाव और अधिक शातिर बन रहा है, और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए कुछ भी त्याग करे, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रति समर्पण करे, इसके अलावा, न ही एक भी व्यक्ति ऐसा है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रकटन की खोज करे। इसके बजाय, इंसान शैतान की सत्ता में रहकर, आनंद का अनुसरण करने के सिवाय कुछ नहीं करता और कीचड़ की धरती पर खुद को देह की भ्रष्टता में डुबा देता है। सत्य सुनने के बाद भी जो लोग अंधकार में जीते हैं, उसे अभ्यास में लाने का कोई विचार नहीं करते, न ही वे परमेश्वर का प्रकटन देख लेने के बावजूद उसे खोजने की ओर उन्मुख होते हैं। इतनी भ्रष्ट मानवजाति को उद्धार का मौका कैसे मिल सकता है? इतनी पतित मानवजाति प्रकाश में कैसे जी सकती है?
मनुष्य के स्वभाव में बदलाव अपने सार के ज्ञान से और अपनी सोच, प्रकृति और मानसिक दृष्टिकोण में बदलाव के माध्यम से—मूलभूत परिवर्तनों से शुरू होता है। केवल इसी ढंग से मनुष्य के स्वभाव में सच्चे बदलाव प्राप्त किए जा सकेंगे। मनुष्य में उत्पन्न होने वाले भ्रष्ट स्वभावों का मूल कारण शैतान द्वारा गुमराह किया जाना, उसकी भ्रष्टता और जहर है। मनुष्य को शैतान द्वारा बाँधा और नियंत्रित किया गया है, और शैतान ने उसकी सोच, नैतिकता, अंतर्दृष्टि और समझ को जो गंभीर नुकसान पहुँचाया है, उसे वह भुगतता है। शैतान ने इंसान की मूलभूत चीजों को भ्रष्ट कर दिया है, और वे बिल्कुल भी वैसी नहीं हैं जैसा परमेश्वर ने मूल रूप से उन्हें बनाया था, ठीक इसी वजह से मनुष्य परमेश्वर का विरोध करता है और सत्य को नहीं स्वीकार पाता। इसलिए मनुष्य के स्वभाव में बदलाव उसकी सोच, अंतर्दृष्टि और समझ में बदलाव के साथ शुरू होना चाहिए, जो परमेश्वर और सत्य के बारे में उसके ज्ञान को बदलेगा। जो लोग अधिकतम गहराई से भ्रष्ट देशों में जन्मे हैं, वे इस बारे में और भी अधिक अज्ञानी हैं कि परमेश्वर क्या है, या परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है। लोग जितने अधिक भ्रष्ट होते हैं, वे उतना ही कम परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में जानते हैं, और उनकी समझ और अंतर्दृष्टि उतनी ही खराब होती है। परमेश्वर के प्रति मनुष्य के विरोध और उसकी विद्रोहशीलता का स्रोत शैतान द्वारा उसकी भ्रष्टता है। शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिए जाने के कारण मनुष्य की अंतरात्मा सुन्न हो गई है, वह अनैतिक हो गया है, उसके विचार पतित हो गए हैं, और उसका मानसिक दृष्टिकोण पिछड़ा हुआ है। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने से पहले मनुष्य स्वाभाविक रूप से परमेश्वर को समर्पित था और उसके वचनों को सुनने के बाद उनके प्रति समर्पण करता था। उसमें स्वाभाविक रूप से सही समझ और विवेक था, और उसमें सामान्य मानवता थी। शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद उसकी मूल समझ, विवेक और मानवता मंद पड़ गई और शैतान द्वारा बिगाड़ दी गई। इस प्रकार, उसने परमेश्वर के प्रति अपना समर्पण और प्रेम खो दिया है। मनुष्य की समझ पथभ्रष्ट हो गई है, उसका स्वभाव जानवरों के स्वभाव के समान हो गया है, और परमेश्वर के प्रति उसकी विद्रोहशीलता और भी अधिक बढ़ गई है और गंभीर हो गई है। लेकिन मनुष्य इसे न तो जानता है और न ही पहचानता है, बस आँख मूँदकर विरोध और विद्रोह करता है। मनुष्य का स्वभाव उसकी समझ, अंतर्दृष्टि और अंतःकरण की अभिव्यक्तियों में प्रकट होता है; और चूँकि उसकी समझ और अंतर्दृष्टि सही नहीं हैं, और उसका अंतःकरण अत्यंत मंद पड़ गया है, इसलिए उसका स्वभाव परमेश्वर के प्रति विद्रोही है। यदि मनुष्य की समझ और अंतर्दृष्टि बदल नहीं सकती, तो फिर उसके स्वभाव में परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बदलाव होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि मनुष्य की समझ सही नहीं है, तो वह परमेश्वर की सेवा नहीं कर सकता और वह परमेश्वर द्वारा उपयोग के अयोग्य है। “सामान्य समझ” का अर्थ है परमेश्वर के प्रति समर्पण करना और उसके प्रति निष्ठावान होना, परमेश्वर के लिए तरसना, परमेश्वर के प्रति पूर्ण होना, और परमेश्वर के प्रति विवेकशील होना। यह परमेश्वर के साथ एकचित्त और एकमन होने को दर्शाता है, जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करने को नहीं। पथभ्रष्ट समझ का होना ऐसा नहीं है। चूँकि मनुष्य शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था, इसलिए उसने परमेश्वर के बारे में धारणाएँ बना ली हैं, और उसमें परमेश्वर के लिए कोई निष्ठा या तड़प नहीं है, परमेश्वर के प्रति विवेकशीलता की तो बात ही छोड़ो। मनुष्य जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करता और उस पर दोष लगाता है, और इसके अलावा, यह स्पष्ट रूप से जानते हुए भी कि वह परमेश्वर है, उसकी पीठ पीछे उस पर अपशब्दों की बौछार करता है। मनुष्य स्पष्ट रूप से जानता है कि वह परमेश्वर है, फिर भी उसकी पीठ पीछे उस पर दोष लगाता है; वह परमेश्वर के प्रति समर्पण करने का कोई इरादा नहीं रखता, बस परमेश्वर से अंधाधुंध माँग और अनुरोध करता रहता है। ऐसे लोग—वे लोग जिनकी समझ भ्रष्ट होती है—अपने घृणित स्वभाव को जानने या अपनी विद्रोहशीलता पर पछतावा करने में अक्षम होते हैं। यदि लोग अपने आप को जानने में सक्षम होते हैं, तो उन्होंने अपनी समझ को थोड़ा-सा पुनः प्राप्त कर लिया होता है; परमेश्वर के प्रति अधिक विद्रोही लोग, जो अभी तक अपने आप को नहीं जान पाए, वे उतने ही कम समझदार होते हैं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है
लोग अपना स्वभाव स्वयं परिवर्तित नहीं कर सकते; उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन से गुजरना होगा, या उसके वचनों द्वारा अनुशासित और काट-छाँट किया जाना होगा। इन सब के बाद ही वे परमेश्वर के प्रति विश्वसनीयता और समर्पण प्राप्त कर सकते हैं और उसके प्रति बेपरवाह होना बंद कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के शोधन के द्वारा ही मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। केवल उसके वचनों के संपर्क में आने से, उनके न्याय, अनुशासन और काट-छाँट से, वे कभी लापरवाह नहीं होंगे, बल्कि शांत और संयमित बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के मौजूदा वचनों और उसके कार्यों का पालन करने में सक्षम होते हैं, भले ही यह मनुष्य की धारणाओं से परे हो, वे इन धारणाओं को नज़रअंदाज करके अपनी इच्छा से पालन कर सकते हैं। पहले स्वभाव में बदलाव की बात मुख्यतः स्वयं के खिलाफ विद्रोह करने, शरीर को कष्ट सहने देने, अपने शरीर को अनुशासित करने, और अपने आप को शारीरिक प्राथमिकताओं से दूर करने के बारे में होती थी—जो एक तरह का स्वभाव परिवर्तन है। आज, सभी जानते हैं कि स्वभाव में बदलाव की वास्तविक अभिव्यक्ति परमेश्वर के मौजूदा वचनों के प्रति समर्पण करने में है, और साथ ही साथ उसके नए कार्य को सच में समझने में है। इस प्रकार, परमेश्वर के बारे में लोगों का पूर्व ज्ञान जो उनकी धारणा से रंगी थी, वह मिटाई जा सकती है और वे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान और समर्पण प्राप्त कर सकते हैं—केवल यही है स्वभाव में बदलाव की वास्तविक अभिव्यक्ति।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं
अपने जीवन में, यदि मनुष्य शुद्ध होकर अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहता है, यदि वह एक सार्थक जीवन बिताना चाहता है, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना चाहता है, तो उसे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करना चाहिए, और उसे परमेश्वर के अनुशासन और प्रहार को अपने-आपसे दूर नहीं होने देना चाहिए, ताकि वह खुद को शैतान की चालाकी और प्रभाव से मुक्त कर सके, और परमेश्वर के प्रकाश में जीवन बिता सके। यह जान लो कि परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है। मनुष्य शैतान के प्रभाव में रहता है, और देह में जीता है; यदि उसे शुद्ध न किया जाए और उसे परमेश्वर की सुरक्षा प्राप्त न हो, तो वह और भी ज्यादा भ्रष्ट हो जाएगा। यदि वह परमेश्वर से प्रेम करना चाहता है, तो उसे शुद्ध होना और उद्धार पाना होगा। पतरस ने प्रार्थना की, “परमेश्वर, जब तू मुझ पर दया दिखाता है तो मैं प्रसन्न हो जाता हूँ, और मुझे सुकून मिलता है; जब तू मुझे ताड़ना देता है, तब मुझे और भी ज्यादा सुकून और आनंद मिलता है। यद्यपि मैं कमजोर हूँ, और अकथनीय कष्ट सहता हूँ, यद्यपि मेरे जीवन में आँसू और उदासी है, लेकिन तू जानता है कि यह उदासी मेरे विद्रोहीपन और मेरी कमजोरी के कारण है। मैं रोता हूँ क्योंकि मैं तेरी इच्छा को संतुष्ट नहीं कर पाता, मुझे दुख और पछतावा है, क्योंकि मैं तेरी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा हूँ, लेकिन मैं इस आयाम को हासिल करने के लिए तैयार हूँ, मैं तुझे संतुष्ट करने के लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ। तेरी ताड़ना ने मुझे सुरक्षा दी है, और मेरा श्रेष्ठतम उद्धार किया है; तेरा न्याय तेरी सहनशीलता और धीरज को ढँक देता है। तेरी ताड़ना और न्याय के बगैर, मैं तेरी दया और करूणा का आनंद नहीं ले पाऊँगा। आज, मैं और भी अधिक देख रहा हूँ कि तेरा प्रेम स्वर्ग से भी ऊँचा उठकर अन्य सभी चीजों पर छा गया है। तेरा प्रेम मात्र दया और करूणा नहीं है; बल्कि उससे भी बढ़कर, यह ताड़ना और न्याय है। तेरी ताड़ना और न्याय ने मुझे बहुत कुछ दिया है। तेरी ताड़ना और न्याय के बगैर, एक भी व्यक्ति शुद्ध नहीं हो सकता, और एक भी व्यक्ति सृष्टिकर्ता के प्रेम को अनुभव नहीं कर सकता।”
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान
परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते समय, चाहे तुम कितनी भी बार असफल हुए हो, गिरे हो, तुम्हारी काट-छाँट की गई हो या उजागर किए गए हो, ये बुरी चीजें नहीं हैं। भले ही तुम्हारी कैसी भी काट-छाँट की गई हो, चाहे किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने किया हो या तुम्हारे भाई-बहनों ने, ये सब अच्छी चीजें होती हैं। तुम्हें यह बात याद रखनी चाहिए : चाहे तुम्हें कितना भी कष्ट हो, तुम्हें असल में इससे लाभ होता है। कोई भी अनुभव वाला व्यक्ति इसकी पुष्टि कर सकता है। चाहे कुछ भी हो जाए, काट-छाँट होना या उजागर किया जाना हमेशा अच्छा होता है। यह कोई निंदा नहीं है। यह परमेश्वर का उद्धार है और तुम्हारे लिए स्वयं को जानने का सर्वोत्तम अवसर है। यह तुम्हारे जीवन अनुभव को गति दे सकता है। इसके बिना, तुम्हारे पास न तो अवसर होगा, न ही परिस्थिति, और न ही अपनी भ्रष्टता के सत्य की समझ तक पहुँचने में सक्षम होने के लिए कोई प्रासंगिक आधार होगा। अगर तुम सत्य को सचमुच समझते हो, और अपने दिल की गहराइयों में छिपी भ्रष्ट चीजों का पता लगाने में सक्षम हो, अगर तुम स्पष्ट रूप से उनकी पहचान कर सकते हो, तो यह अच्छी बात है, इससे जीवन प्रवेश की एक बड़ी समस्या हल हो जाती है, और यह स्वभाव में बदलाव के लिए भी बहुत लाभदायक है। स्वयं को सही मायने में जानने में सक्षम होना, तुम्हारे लिए अपने तरीकों में बदलाव कर एक नया व्यक्ति बनने का सबसे अच्छा मौका है; तुम्हारे लिए यह नया जीवन पाने का सबसे अच्छा अवसर है। एक बार जब तुम सच में खुद को जान लोगे, तो तुम यह देख पाओगे कि जब सत्य किसी का जीवन बन जाता है, तो यह निश्चय ही अनमोल होता है, तुममें सत्य की प्यास होगी, तुम सत्य का अभ्यास करोगे और वास्तविकता में प्रवेश करोगे। यह कितनी बड़ी बात है! यदि तुम इस अवसर को थाम सको और ईमानदारी से मनन कर सको, तो कभी भी असफल होने या नीचे गिरने पर स्वयं के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हो, तब तुम नकारात्मकता और कमज़ोरी में भी फिर से खड़े हो सकोगे। एक बार जब तुम इस सीमा को लांघ लोगे, तो फिर तुम एक बड़ा कदम उठा सकोगे और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे।
यदि तुम परमेश्वर के शासन में विश्वास करते हो, तो तुम्हें यह विश्वास करना होगा कि हर दिन जो भी अच्छा-बुरा होता है, वो यूँ ही नहीं होता। ऐसा नहीं है कि कोई जानबूझकर तुम पर सख्त हो रहा है या तुम पर निशाना साध रहा है; यह सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और आयोजित है। परमेश्वर इन चीज़ों को किस लिए आयोजित करता है? यह तुम्हारी वास्तविकता प्रकट करने या तुम्हें उजागर करके बाहर निकालने के लिए नहीं है; तुम्हें उजागर करना अंतिम लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य तुम्हें पूर्ण बनाना और बचाना है। परमेश्वर तुम्हें पूर्ण कैसे बनाता है? वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से अवगत कराने और तुम्हें तुम्हारी प्रकृति, सार, तुम्हारे दोषों और कमियों से अवगत कराने से शुरुआत करता है। उन्हें साफ तौर पर समझकर और जानकर ही तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो और धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर सकते हो। यह परमेश्वर का तुम्हें एक अवसर प्रदान करना है। यह परमेश्वर की अनुकंपा है। तुम्हें यह जानना होगा कि इस अवसर को कैसे पाया जाए। तुम्हें परमेश्वर का विरोध नहीं करना चाहिए, उसके साथ लड़ाई में उलझना या उसे गलत नहीं समझना चाहिए। विशेष रूप से उन लोगों, घटनाओं और चीज़ों का सामना करते समय, जिनकी परमेश्वर तुम्हारे लिए व्यवस्था करता है, सदा यह मत सोचो कि चीजें तुम्हारे मन के हिसाब से नहीं हैं; हमेशा उनसे बच निकलने की मत सोचो, परमेश्वर को दोष मत दो या उसे गलत मत समझो। अगर तुम लगातार ऐसा कर रहे हो तो तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो, और इससे तुम्हारे लिए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। ऐसी कोई भी समस्या आए जिसे तुम समझ न पाओ, तो तुम्हें समर्पण करना सीखना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करनी चाहिए। इस तरह, इससे पहले कि तुम जान पाओ, तुम्हारी आंतरिक स्थिति में एक बदलाव आएगा और तुम अपनी समस्या को हल करने के लिए सत्य की तलाश कर पाओगे। इस तरह तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर पाओगे। जब ऐसा होगा तो, तुम्हारे भीतर सत्य की वास्तविकता गढ़ी जायेगी, और इस तरह से तुम प्रगति करोगे और तुम्हारे जीवन की स्थिति का रूपांतरण होगा। एक बार जब ये बदलाव आएगा और तुममें सत्य की वास्तविकता होगी, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा, और आध्यात्मिक कद के साथ जीवन आता है। यदि कोई हमेशा भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के आधार पर जीता है, तो फिर चाहे उसमें कितना ही उत्साह या ऊर्जा क्यों न हो, उसे आध्यात्मिक कद, या जीवन धारण करने वाला नहीं माना जा सकता है। परमेश्वर हर एक व्यक्ति में कार्य करता है, और इससे फर्क नहीं पड़ता है कि उसकी विधि क्या है, सेवा करने के लिए वो किस प्रकार के लोगों, चीज़ों या मामलों का प्रयोग करता है, या उसकी बातों का लहजा कैसा है, परमेश्वर का केवल एक ही अंतिम लक्ष्य होता है : तुम्हें बचाना। और वह तुम्हें कैसे बचाता है? वह तुम्हें बदलता है। तो तुम थोड़ी-सी पीड़ा कैसे नहीं सह सकते? तुम्हें पीड़ा तो सहनी होगी। इस पीड़ा में कई चीजें शामिल हो सकती हैं। सबसे पहले तो, जब लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार हैं, तो उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। जब परमेश्वर के वचन बहुत कठोर और मुखर होते हैं और लोग परमेश्वर के वचनों की गलत व्याख्या करते हैं—और धारणाएँ भी रखते हैं—तो यह भी पीड़ाजनक हो सकता है। कभी-कभी परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता उजागर करने के लिए, और उनसे चिंतन करवाने के लिए कि वे खुद को समझें, उनके आसपास एक परिवेश बना देता है, और तब उन्हें कुछ पीड़ा भी होती है। कई बार जब लोगों की सीधी काट-छाँट की जाती है और उन्हें उजागर किया जाता है, तब उन्हें पीड़ा सहनी ही चाहिए। यह ऐसा है, जैसे वे शल्यचिकित्सा से गुजर रहे हों—अगर कोई कष्ट नहीं होगा, तो कोई प्रभाव भी नहीं होगा। यदि जब भी तुम्हारी काट-छाँट होती है, और किसी परिवेश द्वारा तुम्हें उजागर कर दिया जाता है, इससे तुम्हारी भावनाएँ जागती हैं और तुम्हारे अंदर जोश पैदा होता है, तो इस प्रक्रिया के माध्यम से तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश करोगे और तुम्हारा आध्यात्मिक कद होगा। यदि, हर बार काटे-छांटे जाने, निपटारा किए जाने, और किसी परिवेश द्वारा उजागर किए जाने पर, तुम्हें थोड़ी-भी पीड़ा या असुविधा महसूस नहीं होती और कुछ भी महसूस नहीं होता, यदि तुम परमेश्वर के सामने उसकी इच्छा की तलाश नहीं करते, न प्रार्थना करते हो, न ही सत्य की खोज करते हो, तब तुम वास्तव में बहुत संवेदनहीन हो! यदि तुम्हारी आत्मा को कुछ महसूस नहीं होता, यदि इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तो परमेश्वर तुममें कार्य नहीं करता। परमेश्वर कहेगा, “यह व्यक्ति ज़्यादा ही संवेदनहीन है, और बहुत गहराई से भ्रष्ट किया गया है। मैं चाहे जैसे उसे अनुशासित करूँ, उससे निपटूँ या उसे नियंत्रण में रखने की कोशिश करूँ, फिर भी मैं अभी तक उसके दिल को प्रेरित नहीं कर पाया हूँ, न ही मैं उसकी आत्मा को जगा पाया हूँ। यह व्यक्ति परेशानी में पड़ेगा; इसे बचाना आसान न होगा।” यदि परमेश्वर तुम्हारे लिए विशेष परिवेशों, लोगों, चीज़ों और वस्तुओं की व्यवस्था करता है, या यदि वह तुम्हारी काट-छाँट करता है; यदि तुम इससे सबक सीखते हो, और तुमने परमेश्वर के सामने आना सीख लिया है, तुमने सत्य की तलाश करना सीख लिया है, अनजाने में, प्रबुद्ध और रोशन हुए हो और तुमने सत्य को प्राप्त कर लिया है; यदि तुमने इन परिवेशों में बदलाव का अनुभव किया है, पुरस्कार प्राप्त किए हैं और प्रगति की है; यदि तुम परमेश्वर की इच्छा की थोड़ी-सी समझ प्राप्त करना शुरू कर देते हो और शिकायत करना बंद कर देते हो, तो इन सबका मतलब यह होगा कि तुम इन परिवेशों के परीक्षण के बीच में अडिग रहे हो, और तुमने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। इस तरह से तुमने इस कठिन परीक्षा को पार कर लिया होगा। इम्तिहान में खरे उतरने वालों को परमेश्वर किस नज़र से देखेगा? परमेश्वर कहेगा कि उनका हृदय सच्चा है और वे इस तरह का कष्ट सहन कर सकते हैं, और अंतर्मन में वे सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य को पाना चाहते हैं। अगर परमेश्वर का तुम्हारे बारे में ऐसा आकलन है, तो क्या तुम कद-काठी वाले नहीं हो? फिर क्या तुम में जीवन नहीं है? और यह जीवन कैसे प्राप्त हुआ है? क्या यह परमेश्वर द्वारा प्रदत्त है? परमेश्वर तुम्हें कई तरह से आपूर्ति करता है और तुम्हें प्रशिक्षित करने के लिए विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का इस्तेमाल करता है। यह बिल्कुल ऐसा जैसे परमेश्वर खुद तुम्हें भोजन और जल प्रदान कर रहा हो, खुद खाने की विभिन्न वस्तुएँ तुम तक पहुँचा रहा हो ताकि तुम पेट भरकर खाओ और आनंदित रहो; तभी तुम मजबूती से खड़े हो सकते हो। इसी तरह से तुम्हें चीजों का अनुभव करना और समझना चाहिए; इसी तरह से तुम्हें परमेश्वर के पास से आने वाली हर चीज के प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्हारे पास इसी प्रकार की मनोदशा और रवैया होना चाहिए, और तुम्हें सत्य खोजना सीखना चाहिए। तुम्हें अपनी परेशानियों के लिए हमेशा बाहरी कारण नहीं खोजते रहना चाहिए और दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए, न ही लोगों में गलतियाँ खोजनी चाहिए; तुम्हें परमेश्वर की इच्छा की स्पष्ट समझ होनी चाहिए। बाहर से, ऐसा लग सकता है कि कुछ लोगों की तुम्हारे बारे में धारणाएं हैं या पूर्वाग्रह हैं, लेकिन तुम्हें इस रूप में चीज़ों को नहीं देखना चाहिए। अगर तुम इस तरह के दृष्टिकोण से चीज़ों को देखोगे, तो तुम केवल बहाने बनाओगे, और तुम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकोगे। तुम्हें चीज़ों को वस्तुगत ढंग से देखना चाहिए; और परमेश्वर से सब कुछ स्वीकार करना चाहिए। जब तुम चीजों को इस तरीके से देखते हो तो तुम्हारे लिए परमेश्वर के कार्य का आज्ञापालन करना आसान हो जाता है, और तुम सत्य को पाने और परमेश्वर की इच्छा को समझने में सक्षम हो जाते हो। जब तुम्हारे दृष्टिकोण और मनोदशा का परिशोधन हो जाएगा, तब तुम सत्य को प्राप्त कर सकोगे। तो, तुम ऐसा कर क्यों नहीं देते? तुम प्रतिरोध क्यों करते हो? अगर तुम प्रतिरोध करना बंद कर दोगे, तुम सत्य प्राप्त कर लोगे। अगर तुम प्रतिरोध करोगे, तब तुम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकोगे, और तुम परमेश्वर की भावनाओं को चोट पहुंचाओगे और उसे निराश करोगे। परमेश्वर क्यों निराश होगा? क्योंकि तुम सत्य नहीं स्वीकारते, तुम्हें उद्धार की कोई आशा नहीं होती, और परमेश्वर तुम्हें ग्रहण नहीं कर पाता, तो वह निराश कैसे नहीं होगा? जब तुम सत्य को स्वीकार नहीं करते हो तो यह खुद परमेश्वर द्वारा तुम्हें परोसे गए भोजन को दूर हटाने के समान होता है। तुम कहते हो कि तुम्हें भूख नहीं है और तुम्हें इसकी जरूरत नहीं है; परमेश्वर तुम्हें खाने के लिए बार-बार प्रोत्साहित करने की कोशिश करता है, लेकिन तुम फिर भी खाना नहीं चाहते। इसके बजाय तुम भूखे रहना पसंद करोगे। तुम सोचते हो कि तुम्हारा पेट भरा है, जबकि वास्तव में तुम्हारे पास बिल्कुल कुछ भी नहीं है। ऐसे लोगों में समझ का बहुत अभाव होता है, और वे बहुत दंभी होते हैं; कोई अच्छी देखकर वे पहचान नहीं पाते कि वह अच्छी है, वे सभी लोगों में सबसे अधिक दरिद्र और दयनीय होते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों से सीखना चाहिए
अगर तुम भ्रष्टता से स्वच्छ होना चाहते हो और अपने जीवन-स्वभाव में बदलाव से गुजरते हो, तो तुममें सत्य के लिए प्रेम करने और सत्य को स्वीकार करने की योग्यता होनी चाहिए। सत्य स्वीकार करने का क्या अर्थ है? सत्य स्वीकारने का यह अर्थ है कि चाहे तुममें किसी भी प्रकार का भ्रष्टाचारी स्वभाव हो या बड़े लाल अजगर के जो विष—शैतान के विष—तुम्हारी प्रकृति में हों जब परमेश्वर के वचन इन चीजों को उजागर करते हैं, तो तुम्हें उन्हें स्वीकारना और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए, तुम कोई और विकल्प नहीं चुन सकते, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार खुद को जानना चाहिए। इसका मतलब है परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकारने में सक्षम होना। चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे, चाहे उसके कथन कितने भी कठोर हों, चाहे वह किन्हीं भी वचनों का उपयोग करे, तुम इन्हें तब तक स्वीकार कर सकते हो जब तक कि वह जो भी कहता है वह सत्य है, और तुम इन्हें तब तक स्वीकार कर सकते हो जब तक कि वे वास्तविकता के अनुरूप हैं। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को कितनी गहराई से समझते हो, तुम इनके प्रति समर्पित हो सकते हो, तुम उस रोशनी को स्वीकार कर सकते हो और उसके प्रति समर्पित हो सकते हो जो पवित्र आत्मा द्वारा प्रकट की गयी है और जिसकी तुम्हारे भाई-बहनों द्वारा सहभागिता की गयी है। जब ऐसा व्यक्ति सत्य का अनुसरण एक निश्चित बिंदु तक कर लेता है, तो वह सत्य को प्राप्त कर सकता है और अपने स्वभाव के रूपान्तरण को प्राप्त कर सकता है। अगर सत्य से प्रेम न करने वाले लोगों में थोड़ी-बहुत इंसानियत है, वे नेक कार्य कर सकते हैं, देह-सुख त्यागकर परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकते हैं, पर वे सत्य को लेकर भ्रमित हैं और उसे गंभीरता से नहीं लेते, तो उनका स्वभाव कभी नहीं बदलता। तुम देख सकते हो कि पतरस में भी अन्य शिष्यों जैसी ही इंसानियत थी, लेकिन सत्य के अपने उत्कट अनुसरण में वह दूसरों से अलग था। यीशु ने चाहे जो भी कहा, उसने उस पर गंभीरता से चिंतन किया। यीशु ने पूछा, “हे शमौन, योना के पुत्र, क्या तुम मुझसे प्रेम करते हो?” पतरस ने ईमानदारी से उत्तर दिया, “मैं केवल उस पिता से प्रेम करता हूँ जो स्वर्ग में है, अभी तक मैंने पृथ्वी के प्रभु से प्रेम नहीं किया है।” बाद में उसने समझा, यह सोचते हुए, “यह सही नहीं है, पृथ्वी का परमेश्वर स्वर्ग का परमेश्वर है। क्या स्वर्ग और पृथ्वी दोनों का परमेश्वर एक ही नहीं है? अगर मैं केवल स्वर्ग के परमेश्वर से प्रेम करता हूँ, तो मेरा प्रेम वास्तविक नहीं है। मुझे पृथ्वी के परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए, तभी मेरा प्रेम वास्तविक होगा।” इस प्रकार, पतरस ने यीशु के वचनों से परमेश्वर के वचनों का सच्चा अर्थ जाना। परमेश्वर से प्रेम करने के लिए, और इस प्रेम के वास्तविक होने के लिए, व्यक्ति को पृथ्वी पर देहधारी परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए। किसी अज्ञात और अदृश्य परमेश्वर से प्रेम करना न तो यथार्थपरक है और न ही व्यावहारिक, जबकि व्यावहारिक, दृश्यमान परमेश्वर से प्रेम करना सत्य है। यीशु के वचनों से पतरस ने सत्य को हासिल किया और परमेश्वर की इच्छा की समझ प्राप्त की। स्पष्टतः, पतरस का परमेश्वर में विश्वास केवल सत्य की तलाश पर केंद्रित था। अंततः, उसने व्यावहारिक परमेश्वर का प्रेम प्राप्त किया—पृथ्वी के परमेश्वर का। सत्य की तलाश में पतरस विशेष रूप से ईमानदार था। जब भी यीशु ने उसे सलाह दी, उसने उत्साहपूर्वक यीशु के वचनों पर चिंतन किया। शायद पवित्र आत्मा द्वारा उसे प्रबुद्ध किए जाने और उससे परमेश्वर के वचनों का सार समझ पाने से पहले उसने महीनों, एक वर्ष, यहाँ तक कि वर्षों तक चिंतन किया। इस तरह, पतरस ने सत्य में प्रवेश किया, और जब उसने ऐसा किया, तो उसके जीवन के स्वभाव का रूपांतरण और नवीनीकरण हुआ।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें
भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए व्यक्ति को पहले सत्य स्वीकारने में सक्षम होना चाहिए। सत्य स्वीकारना परमेश्वर का न्याय और ताड़ना स्वीकारना है; यह उसके उन वचनों को स्वीकारना है जो मनुष्य की भ्रष्टता का सार उजागर करते हैं। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के आधार पर अपने भ्रष्टता के उद्गार, अपनी भ्रष्ट अवस्थाएँ, और अपने भ्रष्ट इरादे और व्यवहार जानकर उनका विश्लेषण कर लेते हो, और अपनी समस्याओं के सार से पर्दा हटाने में सक्षम हो जाते हो, तो तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कर लोगे, और उसे हल करने की प्रक्रिया शुरू कर दोगे। दूसरी ओर, अगर तुम इस तरह से अभ्यास नहीं करते, तो न सिर्फ तुम अपना हठधर्मी स्वभाव हल करने में असमर्थ होगे, बल्कि तुम्हारे पास अपने भ्रष्ट स्वभाव को मिटाने का भी कोई उपाय नहीं होगा। प्रत्येक व्यक्ति में अनेक भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। व्यक्ति को उन्हें कहाँ से सुलझाना शुरू करना चाहिए? पहले, व्यक्ति को अपनी हठधर्मिता का समाधान करना चाहिए, क्योंकि हठधर्मी स्वभाव लोगों को परमेश्वर के करीब आने, सत्य खोजने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने से रोकता है। हठधर्मिता मनुष्य के परमेश्वर से प्रार्थना और संगति करने में सबसे बड़ी बाधा है; परमेश्वर के साथ मनुष्य के सामान्य संबंध में सबसे अधिक हस्तक्षेप यही करती है। जब तुम अपने हठधर्मी स्वभाव का समाधान कर लेते हो, तो दूसरों का समाधान करना आसान हो जाएगा। भ्रष्ट स्वभाव का समाधान आत्मचिंतन और आत्मज्ञान से शुरू होता है। तुम जिन भी भ्रष्ट स्वभावों के बारे में जानते हो, उनका समाधान करो—जितना अधिक तुम उनका ज्ञान प्राप्त करोगे, उतना ही तुम समाधान कर पाओगे; उनके बारे में तुम्हारा ज्ञान जितना गहरा होगा, उतनी ही अच्छी तरह से उनका समाधान कर सकोगे। यह भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने की प्रक्रिया है; यह परमेश्वर से प्रार्थना करके, आत्मचिंतन करके और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से खुद को जानकर और अपने भ्रष्ट स्वभाव के सार का विश्लेषण करके किया जाता है, तब तक जब तक कि व्यक्ति अपनी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह और सत्य का अभ्यास करने में सक्षम नहीं हो जाता। अपने भ्रष्ट स्वभाव का सार जानना कोई आसान काम नहीं है। खुद को जानना मोटे तौर पर यह कहना नहीं है, “मैं एक भ्रष्ट व्यक्ति हूँ; मैं दानव हूँ; मैं शैतान की संतान, बड़े लाल अजगर का वंशज हूँ; मैं परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी और शत्रुतापूर्ण हूँ; मैं उसका दुश्मन हूँ।” जरूरी नहीं कि ऐसी बातों का मतलब है कि तुम्हें अपनी भ्रष्टता का सही ज्ञान है। हो सकता है कि तुमने ये शब्द किसी और से सीख लिए हों और अपने बारे में ज्यादा न जानते हो। सच्चा आत्म-ज्ञान मनुष्य के सीखने या आलोचनाओं पर आधारित नहीं होता, यह परमेश्वर के वचनों पर आधारित होता है—यह भ्रष्ट स्वभावों के परिणाम और उनके परिणामस्वरूप अनुभव की गई पीड़ा को देखना है यह महसूस करना है कि भ्रष्ट स्वभाव न केवल तुम्हें, बल्कि दूसरे लोगों को भी नुकसान पहुँचाता है। यह तथ्य समझना है भ्रष्ट स्वभाव शैतान में उत्पन्न होते हैं, वे शैतान के जहर और फलसफे हैं, और वे पूरी तरह से सत्य और परमेश्वर के शत्रु हैं। जब तुम इस समस्या को समझ लोगे, तो तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव का पता चल जाएगा। कुछ लोग यह मान लेने के बाद कि वे दुष्ट और शैतान हैं, अपनी काट-छाँट स्वीकार नहीं करते। वे यह स्वीकार नहीं करते कि उन्होंने कुछ गलत किया है या सत्य का उल्लंघन किया है। उनकी समस्या क्या है? वे अभी भी खुद को नहीं जानते। कुछ लोग कहते हैं कि वे दुष्ट और शैतान हैं, फिर भी अगर तुम उनसे पूछो कि “तुम खुद को दुष्ट और शैतान क्यों बताते हो?” तो वे उत्तर नहीं दे पाएँगे। इससे साबित होता है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव या प्रकृति सार को नहीं जानते। अगर वे यह देख पाते कि उनकी प्रकृति शैतान की प्रकृति है, कि उनका भ्रष्ट स्वभाव शैतान का स्वभाव है, और वे यह स्वीकार पाते कि इसीलिए वे दुष्ट और शैतान हैं, तो वे अपने प्रकृति सार को जान चुके होते। सच्चा आत्म-ज्ञान परमेश्वर के वचनों के खुलासे, न्याय, अभ्यास और अनुभव के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। यह सत्य समझने से प्राप्त होता है। अगर कोई सत्य नहीं समझता, तो वह अपने आत्मज्ञान के बारे में चाहे जो कुछ भी कहे, वह खोखला और अव्यावहारिक होता है, क्योंकि वे उन चीजों को खोज या समझ नहीं पाते हैं, जो मूल में हैं और आवश्यक हैं। स्वयं को जानने के लिए व्यक्ति यह स्वीकारना होगा कि उसने किसी विशिष्ट परिस्थिति में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए, उसका इरादा क्या था, उसने कैसे व्यवहार किया, उसमें किस चीज की मिलावट थी, और वह सत्य क्यों नहीं स्वीकार सका। उसे ये चीजें स्पष्ट रूप से बताने में सक्षम होना चाहिए, तभी वह खुद को जान सकता है। जब कुछ लोगों को काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, तो वे स्वीकार करते हैं कि वे सत्य-विमुख हो चुके हैं, कि उन्हें परमेश्वर के बारे में संदेह और गलतफहमियाँ हैं, और वे उससे सतर्क रहते हैं। वे यह भी स्वीकारते हैं कि मनुष्य का न्याय करने और उसे उजागर करने वाले परमेश्वर के सभी वचन तथ्यपरक हैं। यह दर्शाता है कि उन्हें थोड़ा आत्म-ज्ञान है। लेकिन चूँकि उन्हें परमेश्वर या उसके कार्य का ज्ञान नहीं है, चूँकि वे उसकी इच्छा नहीं समझते, इसलिए उनका यह आत्म-ज्ञान काफी उथला होता है। अगर कोई सिर्फ अपनी भ्रष्टता स्वीकारता है लेकिन समस्या की जड़ नहीं खोज पाया, तो क्या परमेश्वर के प्रति उसके संदेहों, गलतफहमियों और सतर्कता का समाधान किया जा सकता है? नहीं, वे नहीं कर सकते। यही कारण है कि आत्म-ज्ञान व्यक्ति द्वारा अपनी भ्रष्टता और समस्याओं की स्वीकृति मात्र से बढ़कर है—उसे सत्य भी समझना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का जड़ से समाधान करना चाहिए। अपनी भ्रष्टता के सत्य को देखने और सच्चा पश्चात्ताप करने का यही तरीका है। जब सत्य से प्रेम करने वाले स्वयं को जान जाते हैं, तो वे सत्य खोजने और समझने और अपनी समस्याओं का समाधान करने में भी सक्षम हो जाते हैं। केवल इसी तरह का आत्म-ज्ञान परिणाम देता है। जब भी सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति परमेश्वर के वचनों का ऐसा वाक्यांश पढ़ता है जो मनुष्य को उजागर कर उसका न्याय करता है, तो सबसे पहले वह विश्वास करता है कि मनुष्य को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचन वास्तविक और तथ्यपरक हैं, कि मनुष्य का न्याय करने वाले परमेश्वर के वचन सत्य हैं और वे परमेश्वर की धार्मिकता दर्शाते हैं। सत्य के प्रेमियों को कम से कम इतना तो पहचान पाना चाहिए। अगर कोई परमेश्वर के वचन पर विश्वास ही नहीं करता, और यह नहीं मानता कि इंसान को उजागर और उसका न्याय करने वाले परमेश्वर के वचन, तथ्य और सत्य हैं, तो क्या वह उसके वचनों के आधार पर स्वयं को जान सकता है? निश्चित रूप से नहीं—वह चाहे तो भी ऐसा नहीं कर सकता। अगर तुम अपने विश्वास में दृढ़ हो सकते हो कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, और उन सभी पर विश्वास कर सकते हो, चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे या उसके बोलने का तरीका कैसा भी हो, अगर तुम परमेश्वर के वचनों को न समझने पर भी, उन पर विश्वास करने और उन्हें स्वीकार करने में सक्षम हो, तो तुम्हारे लिए उनके द्वारा आत्म-चिंतन करना और खुद को जानना आसान होगा। आत्मचिंतन सत्य पर आधारित होना चाहिए। यह संदेह से परे है। केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं—मनुष्य का कोई भी शब्द और शैतान की कोई भी बात सत्य नहीं है। शैतान हजारों वर्षों से मानवजाति को तमाम तरह के ज्ञानार्जन, शिक्षाओं और सिद्धांतों से भ्रष्ट कर रहा है, और लोग इतने सुन्न और मंदबुद्धि हो गए हैं कि उन्हें न केवल जरा-सा भी आत्मज्ञान नहीं है, बल्कि वे पाखंडों और भ्रांतियों को भी मानते हैं और सत्य स्वीकारने से मना करते हैं। इस तरह के मनुष्य बचाए नहीं जा सकते। जो लोग परमेश्वर पर सच्ची आस्था रखते हैं, वे मानते हैं कि केवल उसके वचन ही सत्य हैं, वे परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर खुद को जानने में सक्षम होते हैं और इस तरह वे सच्चा पश्चात्ताप हासिल कर सकते हैं। कुछ लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते; वे केवल मनुष्य के सीखने के आधार पर आत्म-चिंतन करते हैं, और वे पापपूर्ण व्यवहार से अधिक कुछ भी स्वीकार नहीं करते, और इस दौरान, वे अपने भ्रष्ट सार की असलियत देखने में असमर्थ रहते हैं। ऐसा आत्म-ज्ञान एक निष्फल प्रयास होता है और यह कोई परिणाम नहीं देता। व्यक्ति को आत्म-चिंतन परमेश्वर के वचनों के आधार पर करना चाहिए, और चिंतन के बाद, धीरे-धीरे वे भ्रष्ट स्वभाव जानने चाहिए जिन्हें वह प्रकट करता है। व्यक्ति को अपनी कमियाँ, अपना मानवता सार, चीजों पर अपने विचार, अपना जीवन-दृष्टिकोण और मूल्य सत्य के आधार पर मापने और जानने में सक्षम होना चाहिए, और फिर इन सभी चीजों के बारे में सटीक मूल्यांकन और फैसले पर पहुँचना चाहिए। इस प्रकार वह धीरे-धीरे आत्म-ज्ञान प्राप्त कर सकता है। लेकिन आत्म-ज्ञान व्यक्ति द्वारा जीवन में अधिक अनुभव प्राप्त करने पर अधिक गहरा हो जाता है, और सत्य प्राप्त करने से पहले, व्यक्ति के लिए अपने प्रकृति सार की असलियत को पूरी तरह से जानना असंभव है। अगर कोई वास्तव में स्वयं को जानता है, तो वह देख सकता है कि भ्रष्ट मनुष्य वास्तव में शैतान की संतान और उसके मूर्त रूप हैं। वह महसूस करेगा कि वह परमेश्वर के सामने जीने लायक नहीं है और वह उसके प्रेम और उद्धार के अयोग्य है, और उसके सामने पूर्णतया दंडवत कर पाएगा। केवल इस स्तर का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम लोग ही वास्तव में खुद को जानते हैं। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए आत्म-ज्ञान एक पूर्व-शर्त है। अगर कोई सत्य का अभ्यास करना और वास्तविकता में प्रवेश करना चाहता है, तो उसे खुद को जानना होगा। सब लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और न चाहते हुए भी वे इन भ्रष्ट स्वभावों से बँधकर इनके काबू में रहते हैं। वे सत्य का अभ्यास करने या परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में असमर्थ हैं। इसलिए अगर वे ये चीजें करना चाहते हैं, तो उन्हें पहले खुद को जानना चाहिए और अपने भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करना चाहिए। अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने की प्रक्रिया के माध्यम से ही व्यक्ति सत्य समझ सकता है और परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सकता है; केवल तभी व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकता है और उसकी गवाही दे सकता है। इसी तरह व्यक्ति सत्य प्राप्त करता है। सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने की प्रक्रिया अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने की प्रक्रिया है। तो, अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए व्यक्ति को क्या करना चाहिए? पहले, व्यक्ति को अपना भ्रष्ट सार जानना चाहिए। खास तौर से, इसका मतलब यह जानना है कि व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव कैसे उत्पन्न हुआ, और उनके द्वारा स्वीकार किए गए शैतान के किन झूठों और भ्रांतियों ने इसे जन्म दिया। जब व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के आधार पर ये मूल कारण पूरी तरह से समझ और पहचान लेता है, तो वह फिर अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीने को तैयार नहीं होगा, और सिर्फ परमेश्वर के प्रति समर्पित होना और उसके वचनों के अनुसार जीना चाहेगा। जब भी कोई भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करेगा, तो वह उसे पहचानने, नकारने और अपनी दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करने में सक्षम होगा। इस तरह अभ्यास और अनुभव करने से, वह धीरे-धीरे अपने सभी भ्रष्ट स्वभाव त्याग देगा।
—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1)
तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों में मौजूद सबसे प्रमुख और स्पष्ट चीजें पहचाननी चाहिए, जैसे कि अहंकार, कपट या दुष्टता। इन भ्रष्ट स्वभावों से शुरु करते हुए चिंतन करो, विश्लेषण करो और आत्मज्ञान प्राप्त करो। अगर तुम सच्चा आत्-ज्ञान और खुद से घृणा हासिल कर सकते हो, तो तुम्हारे लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव छोड़ना और सत्य को अभ्यास में लाना आसान होगा। तो, इसका विशेष रूप से अभ्यास कैसे किया जाए? आओ, अहंकारी स्वभाव के उदाहरण का इस्तेमाल करते हुए इसके बारे में सरल ढंग से संगति करें। अपने दैनिक जीवन में, बोलते, आचरण करते और मामले सँभालते समय, अपना कर्तव्य निभाते हुए, दूसरों के साथ संगति आदि करते हुए, मामला चाहे जो भी हो, या तुम कहीं भी हो, या जो भी परिस्थितियाँ हों, तुम्हें हर समय यह जाँचने पर ध्यान देना चाहिए कि तुमने किस प्रकार का अहंकारी स्वभाव दिखाया है। तुम्हें अहंकारी स्वभाव से आने वाले उन सभी उद्गारों, विचारों और भावों को खोद-खोदकर निकालना चाहिए जिनके बारे में तुम जानते हो और जिन्हें अनुभव कर सकते हो, साथ ही अपने इरादों और लक्ष्यों को भी—विशेष रूप से, हमेशा ऊँचाई से दूसरों को भाषण देने की इच्छा रखना; किसी की आज्ञा न मानना; खुद को दूसरों से बेहतर समझना; दूसरे जो कहते हैं उसे स्वीकार न करना, चाहे वे कितने भी सही क्यों न हों; खुद गलत होने पर भी दूसरों से अपनी बात मनवाना और उसके प्रति समर्पण करवाना; दूसरों की अगुआई करने की सतत प्रवृत्ति होना; अगुआओं और कार्यकर्ताओं द्वारा तुम्हारी काट-छाँट किए जाने पर झूठा कहकर उनकी निंदा करते हुए अवज्ञाकारी होना और औचित्य पेश करना; हमेशा दूसरों की निंदा करना और खुद को ऊपर उठाना; हमेशा यह सोचना कि तुम अन्य सबसे बेहतर हो; हमेशा एक प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित व्यक्ति बनने की इच्छा रखना; हमेशा दिखावा करना पसंद करना, ताकि दूसरे तुम्हें सम्मान दें और तुम्हारी आराधना करें…। भ्रष्टता के इन उद्गारों पर चिंतन करने और उनका विश्लेषण करने के अभ्यास के जरिये तुम जान सकते हो कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कितना भद्दा है, और तुम खुद को नापसंद करते हुए खुद से घृणा कर सकते हो, और अपने अहंकारी स्वभाव से और भी ज्यादा नफरत कर सकते हो। इस तरह तुम इस बात पर विचार करने के इच्छुक होगे कि तुमने सभी मामलों में अहंकारी स्वभाव दिखाया है या नहीं। इसका एक हिस्सा इस बात पर चिंतन करना है कि तुम्हारे बोलने में कौन-से अहंकारी और आत्म-तुष्ट स्वभाव प्रवाहित होते हैं—तुम कितनी शेखी भरी, अहंकारी, मूर्खतापूर्ण बातें कहते हो। दूसरा हिस्सा इस बात पर चिंतन करना है कि अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हुए तुम कितनी बेतुकी, मूर्खतापूर्ण चीजें करते हो। केवल इस तरह का आत्मचिंतन ही आत्मज्ञान उत्पन्न कर सकता है। जब तुम सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के वचनों में एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए अभ्यास के मार्ग और सिद्धांत खोजने चाहिए, और फिर अभ्यास करना चाहिए, अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों में बताए गए मार्गों और सिद्धांतों के अनुसार दूसरों से संपर्क और बातचीत करनी चाहिए। कुछ समय, शायद एक-दो महीने, इस तरह से अभ्यास कर लेने पर तुम इसे लेकर दिल में एक उजाला महसूस करोगे, और तुम्हें इससे कुछ हासिल होगा और तुम सफलता का स्वाद चख लोगे। तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे पास एक ईमानदार, समझदार व्यक्ति बनने का मार्ग है, और तुम बहुत अधिक स्थिरचित्त महसूस करोगे। हालाँकि तुम अभी सत्य के विशेष रूप से गहन ज्ञान के बारे में बात नहीं कर पाओगे, पर तुमने उसके बारे में कुछ बोधात्मक ज्ञान और साथ ही अभ्यास का एक मार्ग भी प्राप्त कर लिया होगा। हालाँकि तुम इसे शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाओगे, फिर भी तुम्हें इस बात की थोड़ी समझ होगी कि अहंकारी स्वभाव लोगों को क्या नुकसान पहुँचाता है और कैसे उनकी मानवता विकृत कर देता है। उदाहरण के लिए, अहंकारी, आत्म-तुष्ट लोग अक्सर डींग मारने वाली, जंगली बातें कहते हैं, और दूसरों को धोखा देने के लिए झूठ बोलते हैं; वे आडंबरपूर्ण शब्द बोलते हैं, नारे लगाते हैं और लंबी-चौड़ी बातें करते हैं। क्या ये अहंकारी स्वभाव की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं? क्या ये अहंकारी स्वभाव दिखाना बहुत मूर्खतापूर्ण नहीं है? अगर तुम वास्तव में यह समझने में सक्षम हो कि तुमने ऐसा अहंकारी स्वभाव दिखाया है तो जरूर तुमने अपना सामान्य इंसानी विवेक खो दिया होगा, और अहंकारी स्वभाव के भीतर जीने का मतलब है कि तुम मानवता के बजाय दानवता को जी रहे हो, तो तुमने वास्तव में पहचान लिया होगा कि भ्रष्ट स्वभाव एक शैतानी स्वभाव है, और तुम शैतान और भ्रष्ट स्वभावों से दिल से घृणा करने में सक्षम होगे। छह महीने या साल भर के ऐसे अनुभव के बाद, तुम सच्चा आत्म-ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हो जाओगे, और अगर तुम फिर से अहंकारी स्वभाव प्रदर्शित करोगे, तो तुरंत उसके बारे में जान जाओगे, और उसके खिलाफ विद्रोह कर उसे त्यागने में सक्षम हो जाओगे। तुम बदलना शुरू कर चुके होगे, और धीरे-धीरे अपना अहंकारी स्वभाव छोड़ने में सक्षम हो जाओगे, और सामान्य रूप से दूसरों के साथ हिल-मिलकर रह पाओगे। तुम ईमानदारी से और दिल से बोल पाओगे; तुम अब झूठ नहीं बोलोगे या अहंकारी बातें नहीं कहोगे। तब क्या तुममें थोड़ा-सा विवेक और कुछ ईमानदार व्यक्ति की समानता नहीं होगी? क्या तुम वह प्रवेश प्राप्त नहीं कर चुके होगे? यह वह क्षण है, जब तुम कुछ हासिल करना शुरू करोगे। जब तुम इस तरह ईमानदार होने का अभ्यास करोगे, तो तुम चाहे किसी भी तरह का अहंकारी स्वभाव क्यों न दिखाओ, सत्य खोजने और आत्मचिंतन करने में सक्षम होगे, और कुछ समय तक इस तरह से एक ईमानदार व्यक्ति होने का अनुभव करने के बाद तुम अनजाने ही और धीरे-धीरे एक ईमानदार व्यक्ति होने के बारे में सत्यों और परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों को समझने लगोगे। और जब तुम अपने अहंकारी स्वभाव का विश्लेषण करने के लिए उन सत्यों का उपयोग करते हो, तो तुम्हारे हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के वचनों की प्रबुद्धता और रोशनी होगी, और तुम्हारा हृदय उज्ज्वल महसूस करने लगेगा। तुम स्पष्ट रूप से वह भ्रष्टता देख सकोगे जो अहंकारी स्वभाव लोगों में लाता है, और वह कुरूपता देखोगे, जिसे जीने के लिए वह उन्हें मजबूर करता है, और उन सभी भ्रष्ट अवस्थाओं को समझने में सक्षम होगे, जिनमें लोग स्वयं को तब पाते हैं जब वे अहंकारी स्वभाव प्रकट करते हैं। अधिक विश्लेषण करने पर तुम शैतान की कुरूपता और अधिक स्पष्ट रूप से देखोगे, और तुम शैतान से और भी अधिक घृणा करोगे। इस तरह तुम्हारे लिए अपना अहंकारी स्वभाव त्यागना आसान हो जाएगा।
—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (2)
सच्चा पश्चात्ताप हासिल करने के लिए व्यक्ति को अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने चाहिए। तो अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए व्यक्ति को खास कर कैसे अभ्यास और प्रवेश करना चाहिए? एक उदाहरण पेश है। लोगों के कपटपूर्ण स्वभाव होते हैं, वे हमेशा झूठ बोलते और धोखा देते रहते हैं। अगर तुम यह बात मानते हो, तो अपने कपट का समाधान करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल और सबसे सीधा सिद्धांत एक ईमानदार व्यक्ति बनना, सच बोलना और ईमानदार चीजें करना है। प्रभु यीशु कहते हैं, “परन्तु तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो।” एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए व्यक्ति को परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। यह सरल अभ्यास सबसे प्रभावी है, साथ ही इसे समझना और अमल में लाना भी आसान है। लेकिन, चूँकि लोग बहुत गहराई तक भ्रष्ट हैं, चूँकि उन सभी की शैतानी प्रकृति है और वे शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं, इसलिए उनके लिए सत्य का अभ्यास करना काफी कठिन है। वे ईमानदार होना चाहेंगे, लेकिन हो नहीं सकते। वे झूठ बोलने और छल-कपट में लिप्त रहने से खुद को रोक नहीं पाते, और हो सकता है इसका पता चलने के बाद उन्हें ग्लानि महसूस हो, फिर भी वे अपने भ्रष्ट स्वभाव की बाधाएँ दूर नहीं कर पाएंगे, और वे पहले की तरह झूठ बोलते और धोखा देते रहेंगे। इस समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? इसका एक हिस्सा यह जानना है कि व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव का सार बदसूरत और घिनौना होता है, और अपने दिल से इससे नफरत करने में सक्षम होना है; दूसरा भाग है खुद को इस सत्य सिद्धांत के अनुसार अभ्यास करने के लिए प्रशिक्षित करना, “परन्तु तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो।” जब तुम इस सिद्धांत का अभ्यास कर रहे होते हो, तो तुम अपने कपटी स्वभाव का समाधान करने की प्रक्रिया में होते हो। स्वाभाविक रूप से, अगर तुम अपना कपटपूर्ण स्वभाव दूर करते हुए सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास कर लेते हो, तो यह तुम्हारे खुद को बदलने और सच्चे पश्चात्ताप की शुरुआत की अभिव्यक्ति है, और परमेश्वर इसे मंजूरी देता है। इसका अर्थ यह है कि जब तुम खुद को बदलोगे, तो परमेश्वर तुम्हारे बारे में अपने विचार बदलेगा। वास्तव में, परमेश्वर का ऐसा करना मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों और विद्रोहशीलता के लिए एक प्रकार की क्षमा है। वह लोगों को क्षमा कर देता है और उनके पाप या अपराध याद नहीं रखता। क्या यह पर्याप्त विशिष्ट है? क्या तुम लोग इसे समझ गए हो? एक उदाहरण और है। मान लो, तुम्हारा स्वभाव अहंकारी है, और तुम्हारे साथ चाहे कुछ भी हो जाए, तुम बहुत हठीले रहते हो—तुम हमेशा चाहते हो कि फैसले तुम करो, और दूसरे तुम्हारी बात मानें और वही करें जो तुम उनसे करवाना चाहते हो। फिर वह दिन आता है, जब तुम यह महसूस करते हो कि यह एक अहंकारी स्वभाव के कारण हुआ है। तुम्हारा यह स्वीकार करना कि यह एक अहंकारी स्वभाव है, आत्म-ज्ञान की ओर पहला कदम है। यहाँ से तुम्हें परमेश्वर के वचनों के उन कुछ अंशों की तलाश करनी चाहिए, जो अहंकारी स्वभाव का खुलासा करते हों, जिनसे तुम्हें अपनी तुलना करनी चाहिए, और आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए। अगर तुम पाते हो कि तुलना पूरी तरह से उपयुक्त है, और तुम स्वीकार करते हो कि परमेश्वर द्वारा उजागर किया गया अहंकारी स्वभाव तुममें मौजूद है, और फिर यह समझते और प्रकाश में लाते हो कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव कहाँ से आता है, और यह क्यों उत्पन्न होता है, और शैतान के कौन-से जहर, विधर्म और भ्रांतियाँ इसे नियंत्रित करती हैं, तो, इन सभी प्रश्नों का मर्म देखने के बाद, तुम अपने अहंकार की जड़ तक पहुँच चुके होगे। यही सच्चा आत्म-ज्ञान है। जब तुम्हारे पास इसकी अधिक सटीक परिभाषा होगी कि कैसे तुम यह भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हो, तो यह तुम्हारे लिए अपने बारे में गहन और अधिक व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करना सुगम बनाएगा। तुम्हें आगे क्या करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के वचनों में सत्य सिद्धांतों की तलाश करनी चाहिए और समझना चाहिए कि किस प्रकार का मानवीय आचरण और बोली सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं। अभ्यास का मार्ग पा लेने के बाद तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, और जब तुम्हारा हृदय बदल जाएगा, तब तुम सच में पश्चात्ताप कर लोगे। न केवल तुम्हारे बोलने और कार्य करने में सिद्धांत होंगे, बल्कि तुम इंसानी सदृशता को भी जी रहे होगे और धीरे-धीरे अपना भ्रष्ट स्वभाव छोड़ रहे होगे। दूसरे लोग तुम्हें एक नए व्यक्ति के रूप में देखेंगे : तुम वह पुराना, भ्रष्ट व्यक्ति नहीं रहोगे जो तुम कभी थे, बल्कि परमेश्वर के वचनों में पुन: जन्मा व्यक्ति होगे। ऐसा व्यक्ति वह होता है जिसका जीवन-स्वभाव बदल गया है।
—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1)
स्वभावगत बदलाव लाने के लिए व्यक्ति को सबसे पहले खुद अपना भ्रष्ट स्वभाव पहचानने में सक्षम होना चाहिए। खुद को वास्तव में जानने का मतलब है अपनी भ्रष्टता के सार की असलियत समझना और इसका पूरी तरह विश्लेषण करना, साथ ही उन तमाम दशाओं को पहचानना जो भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होती हैं। जब कोई व्यक्ति अपनी भ्रष्ट दशाओं और भ्रष्ट स्वभाव को साफ तौर पर समझ लेता है, तभी वह अपनी दैहिक इच्छाओं से और शैतान से नफरत कर पाएगा, जिससे ही फिर स्वभावगत बदलाव आता है। अगर वह इन दशाओं को नहीं पहचान सकता, इनसे कड़ियाँ जोड़कर अपना मिलान नहीं कर पाता तो क्या उसका स्वभाव बदल सकता है? यह नहीं बदल सकता। स्वभावगत बदलाव के लिए व्यक्ति को अपने भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होने वाली विभिन्न दशाओं को पहचानने की जरूरत पड़ती है; उसे एक ऐसे मुकाम पर पहुँचना होता है जहाँ वह अपने भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित न हो और सत्य को अभ्यास में लाता हो—तब जाकर उसका स्वभाव बदलना शुरू होगा। अगर वह अपनी भ्रष्ट दशाओं के उद्गम को नहीं पहचानता, और जिन वचनों और सिद्धांतों को वह समझता है उन्हीं के अनुसार बेबस बना रहता है तो भले ही वह कुछ सद्व्यवहार अपना ले और बाहरी तौर पर थोड़ा-सा बदल जाए लेकिन इसे स्वभावगत बदलाव नहीं माना जाएगा। चूँकि इसे स्वभावगत बदलाव नहीं माना जा सकता तो फिर अपना कर्तव्य निभाने के लिए दौरान लोगों की क्या भूमिका होती है? यह एक सेवाकर्मी की भूमिका होती है; वे सिर्फ परिश्रम करते हैं और खुद को काम में व्यस्त रखते हैं। भले ही वे अपना कर्तव्य भी निभा रहे हैं, लेकिन अधिकांश समय वे सिर्फ काम निपटाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, वे सत्य की खोज नहीं करते बल्कि सिर्फ मेहनत करते हैं। कभी-कभी जब उनकी मनःस्थिति अच्छी होती है तो वे अतिरिक्त मेहनत करेंगे और जब मनःस्थिति खराब होती है तो थोड़ा-सा सुस्त पड़ जाते हैं। लेकिन बाद में आत्म-परीक्षण करने पर उन्हें ग्लानि होती है, इसलिए वे दुबारा और ज्यादा प्रयास करते हैं और सोचते हैं कि यही पश्चात्ताप है। दरअसल, यह सच्चा बदलाव नहीं है, न यह सच्चा पश्चात्ताप है। सच्चा पश्चात्ताप खुद को जानने से शुरू होता है; यह व्यवहार में बदलाव से शुरू होता है। एक बार किसी का व्यवहार बदल गया, उसने अपनी दैहिक इच्छाएँ त्याग दीं, सत्य को अमल में ले आया, और व्यवहार के मामले में सिद्धांतों के अनुरूप दिखने लगा तो इसे ही सच्चा पश्चात्ताप कहते हैं। फिर धीरे-धीरे वह उस मुकाम पर पहुँच जाता है जहाँ वह सिद्धांतों के अनुसार बोलने और कार्य करने में सक्षम है, और पूरी तरह सत्य के अनुरूप है। यही वह समय है जब जीवन स्वभाव में बदलाव शुरू होता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है
यदि तुम किसी मामले में भ्रष्टता दिखाते हो, तो क्या इसका एहसास होते ही, तुम तुरंत सत्य का अभ्यास कर सकते हो? नहीं। समझ के इस स्तर पर, तो दूसरे तुम्हारी काट-छाँट करते हैं, और तब परिवेश तुम्हें बाध्य करके सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करने के लिए मजबूर करता है। कभी-कभी तुम ऐसा करने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाते और तुम अपने आपसे कहते हो, “क्या मुझे इसे ऐसे ही करना पड़ेगा? मैं इसे अपने हिसाब से क्यों नहीं कर सकता? मुझे हमेशा सत्य का अभ्यास करने के लिए क्यों कहा जाता है? मैं यह नहीं करना चाहता, मैं इससे थक चुका हूँ!” परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के लिए निम्न प्रक्रिया से गुजरना होता है : सत्य का अभ्यास करने का अनिच्छुक होने से लेकर सहर्ष सत्य का अभ्यास करने तक; नकारात्मकता और कमजोरी से लेकर सशक्त बनने और दैहिक इच्छाओं से विद्रोह कर पाने की क्षमता तक। जब लोग अनुभव के एक निश्चित बिंदु तक पहुँच जाते हैं और फिर कुछ परीक्षणों और शोधन से गुजरकर अंततः परमेश्वर की इच्छा और कुछ सत्य समझने लगते हैं, तब वे थोड़े खुश होकर सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने को तैयार हो जाते हैं। शुरू में लोग सत्य पर अमल करने को तैयार नहीं होते। उदाहरण के तौर पर, निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्यों के निर्वहन को ही लो : तुम्हारे अंदर अपने कर्तव्य निभाने और परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होने की कुछ समझ है, तुम्हें सत्य की भी थोड़ी समझ है, लेकिन तुम पूरी तरह निष्ठावान कब होगे? नाम और कर्म में तुम अपने कर्तव्यों का निर्वहन कब कर सकोगे? इसमें प्रक्रिया की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया के दौरान तुम्हें कई कठिनाइयों को झेलना पड़ सकता है। शायद कुछ लोग तुम्हारी काट-छाँट करें, कुछ तुम्हारी आलोचना करें। सबकी निगाहें तुम पर लगी रहेंगी, तुम्हें परख रही होंगी, केवल तब जाकर तुम्हें एहसास होगा कि तुम गलत हो, तुम ही हो जिसने अच्छा काम नहीं किया, कि कर्तव्य के निर्वहन में निष्ठा न होना अस्वीकार्य है और यह भी कि तुम्हें अनमना नहीं होना चाहिए! पवित्र आत्मा तुम्हें भीतर से प्रबुद्ध करता है और जब तुम कोई भूल करते हो, तो वह तुम्हें फटकारता है। इस प्रक्रिया के दौरान तुम अपने बारे में कुछ बातें समझने लगोगे और जान जाओगे कि तुममें बहुत सारी अशुद्धियाँ हैं, तुम्हारे अंदर निजी इरादे भरे पड़े हैं और अपने कर्तव्य निभाते समय तुम्हारे अंदर बहुत सारी अनियंत्रित इच्छाएँ होती हैं। जब तुम इन चीजों के सार को समझ जाते हो, तब अगर तुम परमेश्वर के समक्ष आकर उससे प्रार्थना कर सच्चा प्रायश्चित कर सकते हो, तो तुम्हारी वे भ्रष्ट चीजें शुद्ध की जा सकती हैं। यदि इस तरह अपनी व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करने के लिए तुम अक्सर सत्य की खोज करोगे, तो तुम आस्था के सही मार्ग पर कदम बढ़ा सकोगे; तुम्हें सच्चे जीवन-अनुभव होने लगेंगे और धीरे-धीरे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध होने लगेगा। तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव जितना शुद्ध होता जाएगा, तुम्हारा जीवन स्वभाव उतना ही रूपांतरित होगा।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए
अगर लोगों का भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं हुआ तो वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। अगर वे यही नहीं जान पाए कि उनमें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं या उनका अपना ही शैतानी प्रकृति सार क्या है, तो क्या वे सचमुच यह स्वीकार कर सकेंगे कि वे स्वयं भ्रष्ट मनुष्य हैं? (नहीं।) अगर लोग सच्चाई से यह स्वीकार नहीं कर पाएँगे कि वे शैतानी स्वभाव के हैं, कि वे भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हैं, तो क्या वे सचमुच पश्चात्ताप कर सकते हैं? (नहीं।) अगर वे सचमुच पश्चात्ताप नहीं कर सकते तो क्या वे अक्सर यह नहीं सोचेंगे कि वे उतने बुरे नहीं हैं, बल्कि मान-सम्मान और पद-प्रतिष्ठा वाले हैं? क्या अक्सर उनके ऐसे विचार और ऐसी दशाएँ नहीं होंगी? (होंगी।) तो फिर ये दशाएँ क्यों उत्पन्न होती हैं? सारी बात एक ही जगह पहुँचती है : अगर लोगों के भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं होते हैं तो उनका मन हमेशा उद्वेलित रहता है और उनके लिए सामान्य दशा प्राप्त करना मुश्किल है। अर्थात्, अगर किसी भी दृष्टि से तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का कोई समाधान नहीं होता तो तुम्हारे लिए नकारात्मक दशा के प्रभाव से मुक्त होना बहुत ही मुश्किल है, और तुम्हारे लिए उस नकारात्मक दशा से बाहर निकलना बहुत ही मुश्किल है, इतना ज्यादा कि तुम शायद यह भी सोचने लगो कि तुम्हारी यह दशा सही, उचित और सत्य के अनुरूप है। तुम इसे थामे रहोगे, इस पर टिके रहोगे और स्वाभाविक रूप से इसमें फँस जाओगे, इसलिए इससे बाहर निकलना बहुत मुश्किल होगा। फिर एक दिन, जब तुम सत्य को समझ लोगे, तो तुम्हें एहसास होगा कि इस प्रकार की स्थिति तुम्हें परमेश्वर को गलत समझने और उसका विरोध करने की राह पर ले जाती है, तुम्हें परमेश्वर के विरोध और आलोचना की ओर ले जाती है, इस हद तक कि तुम्हें परमेश्वर के वचनों के सत्य होने पर संदेह होने लगे, परमेश्वर के कार्य पर संदेह होने लगे, परमेश्वर के सभी पर संप्रभु होने को लेकर संदेह होने लगे, और इस बात पर भी संदेह होने लगे कि परमेश्वर ही सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता और इनका मूल है। तुम देखोगे कि तुम्हारी दशा अत्यधिक खतरनाक है। इस दुष्परिणाम का कारण यह है कि तुम्हें वास्तव में इन शैतानी फलसफों, विचारों और सिद्धांतों का ज्ञान नहीं था। अब जाकर तुम देख सकोगे कि शैतान कितना भयावह और दुर्भावनापूर्ण है; शैतान लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करने में बिल्कुल सक्षम है जिसके कारण वे परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसे धोखा देने के रास्ते पर चलते हैं। अगर भ्रष्ट स्वभाव दूर न किए जाएँ, तो इसके गंभीर दुष्परिणाम होते हैं। अगर तुम यह जान सकते हो, इसका एहसास कर सकते हो तो यह पूरी तरह तुम्हारी सत्य की समझ और परमेश्वर के वचनों के तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करने का फल है। जो लोग सत्य को नहीं समझते हैं, वे यह नहीं समझ सकते कि शैतान लोगों को कैसे भ्रष्ट करता है, कैसे गुमराह करता है और उन्हें परमेश्वर विरोधी बनाता है; यह दुष्परिणाम खास तौर पर खतरनाक है। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हुए अगर लोग यह नहीं जानते कि आत्म-चिंतन कैसे करना है, नकारात्मक चीजों या शैतानी फलसफों को कैसे पहचानना है तो उनके पास शैतान के बहकावे और भ्रष्टता से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं रहता है। परमेश्वर क्यों चाहता है कि लोग उसके ज्यादा से ज्यादा वचन पढ़ें? ऐसा इसलिए है ताकि लोग सत्य को समझ सकें, खुद को समझ सकें, स्पष्ट रूप से यह जान सकें कि उनकी भ्रष्ट दशाएँ किस कारण उत्पन्न होती हैं, और यह भी समझें कि उनके विचार, दृष्टिकोण, और बोलने, व्यवहार करने और मामलों से निपटने के तरीके कहाँ से आते हैं। जब तुम यह जान जाते हो कि तुम जिन दृष्टिकोणों से चिपके हुए हो, वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं, वे उस सब के विरुद्ध हैं जो परमेश्वर ने कहा है, और वे वह नहीं हैं जिसकी वह अपेक्षा करता है; जब परमेश्वर तुमसे अपेक्षाएँ रखता है, जब उसके वचन तुम पर प्रकट होते हैं, और जब तुम्हारी दशा और मानसिकता तुम्हें न तो परमेश्वर के प्रति समर्पण करने देती है, न उसके द्वारा आयोजित परिस्थिति के प्रति समर्पण करने देती है, न ही तुम्हें परमेश्वर की उपस्थिति में स्वतंत्र और मुक्त होकर जीने और उसे संतुष्ट करने देती है—यह सब साबित करता है कि तुम जिस दशा को जकड़े बैठे हो, वह गलत है। क्या तुम लोग इस प्रकार की स्थिति में पहले भी रह चुके हो : तुम उन चीजों के अनुसार जीते हो जिन्हें तुम सकारात्मक और अपने लिए सबसे उपयोगी मानते हो; लेकिन जब अचानक तुम्हारे साथ चीजें घटित होती हैं तो तुम जिन चीजों को सबसे सही मानते हो, उनका अक्सर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है—इसके उलट वे तुम्हारे मन में परमेश्वर के प्रति संदेह जगाती हैं, तुम्हें निरुपाय कर देती हैं, परमेश्वर को लेकर तुममें गलतफहमियाँ पैदा करती हैं और परमेश्वर के प्रति विरोध को जन्म देती हैं—क्या तुम इस दौर से गुजरे हो? (हाँ।) बेशक, तुम उन चीजों को थामे नहीं रहोगे जिन्हें तुम गलत समझते हो; तुम केवल उन्हीं चीजों को थामे रहोगे और उन पर कायम रहोगे जिन्हें सही समझते हो, और सदा ऐसी ही दशा में जीते रहोगे। जब एक दिन तुम सत्य समझ लेते हो, केवल तभी तुम्हें यह एहसास होता है कि तुम जिन चीजों को थामे बैठे हो वे सकारात्मक नहीं हैं—वे बिल्कुल गलत हैं, ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोग सही समझते हैं लेकिन जो सत्य नहीं हैं। कितनी बार ऐसा होता है कि तुम लोग यह एहसास करते और इससे अवगत होते हो कि तुम जिन चीजों को लेकर बैठे हो वे गलत हैं? अगर तुम अवगत हो कि ये अधिकांश समय गलत होती हैं, फिर भी तुम चिंतन नहीं करते, तुम्हारे मन में प्रतिरोध रहता है, तुम सत्य को स्वीकार नहीं पाते हो, इन चीजों का सही तरह सामना नहीं कर पाते हो और तुम अपने बचाव में तर्क-वितर्क करते हो—अगर इस प्रकार की गलत दशा को पूरी तरह बदला न जाए तो यह बहुत खतरनाक होती है। हमेशा इस प्रकार की चीजों को थामे रहने के कारण तुम आसानी से दुःखी होते रहते हो, आसानी से ठोकरें खाते और नाकाम होते रहते हो, यही नहीं, तुम सत्य वास्तविकता में भी प्रवेश नहीं कर पाओगे। जब लोग अपने बचाव में हमेशा तर्क-वितर्क करते रहते हैं तो यह विद्रोह है; इसका अर्थ है कि उनमें कोई विवेक नहीं है। भले ही वे कोई चीज जोर-शोर से न कहें, अगर वे इन्हें दिल में भी रखते हैं, तो इसका मतलब है कि मूल समस्या अभी भी हल नहीं हुई है। तो फिर तुम परमेश्वर का विरोध न करने में कब सक्षम होगे? तुम्हें अपनी दशा को पूरी तरह बदलना होगा और इस संबंध में अपनी समस्याओं का समूल समाधान करना होगा; तुम्हें स्पष्ट जानना होगा कि तुम्हारे दृष्टिकोण में गलती कहाँ है; तुम्हें इसकी छानबीन करनी होगी और इसके निराकरण के लिए सत्य खोजना होगा। केवल तभी तुम सही दशा में जी सकते हो। जब तुम सही दशा में रहते हो, तो परमेश्वर के प्रति तुम्हारे मन में कोई गलतफहमी नहीं होगी, तुम उसका विरोध नहीं करोगे, तुममें धारणाएँ उत्पन्न होने की संभावना तो और भी कम रहेगी। तब इस संबंध में तुम्हारा विद्रोही स्वभाव खत्म हो जाएगा। जब यह खत्म हो जाएगा और तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कार्य करना जान लोगे, तो उस समय क्या तुम्हारे कार्यकलाप परमेश्वर के अनुरूप नहीं हो जाएँगे? अगर तुम इस मामले में परमेश्वर के अनुरूप हो जाते हो तो फिर तुम्हारे सारे कार्य क्या उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं हो जाएँगे? कार्य और अभ्यास की जो नीतियाँ परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होती हैं, क्या वे सत्य के अनुरूप नहीं होतीं? जब तुम इस मामले में अडिग रहते हो तो तुम सही दशा में जीने लगते हो। जब तुम सही दशा में जीने लगते हो तो फिर तुम जिसे प्रकट करते और जीते हो, वह भ्रष्ट स्वभाव नहीं होता है; तुम सामान्य मानवता को जीने में सक्षम होते हो, तुम्हारे लिए सत्य को अभ्यास में लाना आसान रहता है, और तुम वास्तव में आज्ञाकारी बन जाते हो।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने से ही सच्चा बदलाव आ सकता है
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भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने का तरीका मुझे पता है