22. जीवन और मृत्यु को कैसे देखें
बाइबल से उद्धृत परमेश्वर के वचन
“जो शरीर को घात करते हैं, पर आत्मा को घात नहीं कर सकते, उनसे मत डरना; पर उसी से डरो, जो आत्मा और शरीर दोनों को नरक में नष्ट कर सकता है” (मत्ती 10:28)।
“जो अपने प्राण बचाता है, वह उसे खोएगा; और जो मेरे कारण अपना प्राण खोता है, वह उसे पाएगा” (मत्ती 10:39)।
“वे मेम्ने के लहू के कारण और अपनी गवाही के वचन के कारण उस पर जयवन्त हुए, और उन्होंने अपने प्राणों को प्रिय न जाना, यहाँ तक कि मृत्यु भी सह ली” (प्रकाशितवाक्य 12:11)।
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
ब्रह्मांड और आकाश की विशालता में अनगिनत जीव रहते और प्रजनन करते हैं, जीवन के चक्रीय नियम का पालन करते हैं, और एक अटल नियम का अनुसरण करते हैं। जो मर जाते हैं, वे अपने साथ जीवित लोगों की कहानियाँ लेकर चले जाते हैं, और जो लोग जी रहे हैं, वे खत्म हो चुके लोगों के त्रासद इतिहास को ही दोहराते हैं। और इसलिए, मानवजाति खुद से पूछे बिना नहीं रह पाती : हम क्यों जीते हैं? और हमें मरना क्यों पड़ता है? इस संसार को कौन नियंत्रित करता है? और इस मानवजाति को किसने बनाया? क्या मानवजाति को वास्तव में प्रकृति माता ने बनाया? क्या मानवजाति वास्तव में अपने भाग्य की नियंत्रक है? ... ये वे सवाल हैं, जो मानवजाति ने हजारों वर्षों से निरंतर पूछे हैं। दुर्भाग्य से, जितना अधिक मनुष्य इन सवालों से ग्रस्त हुआ है, उसमें उतनी ही अधिक प्यास विज्ञान के लिए विकसित हुई है। विज्ञान देह की संक्षिप्त तृप्ति और अस्थायी आनंद प्रदान करता है, लेकिन वह मनुष्य को उसकी आत्मा के भीतर की तन्हाई, अकेलेपन, बमुश्किल छिपाए जा सकने वाले आतंक और लाचारी से मुक्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है। मानवजाति केवल उसी वैज्ञानिक ज्ञान का उपयोग करती है, जिसे वह अपनी खुली आँखों से देख सकती है और अपने मस्तिष्क से समझ सकती है, ताकि अपने हृदय को चेतनाशून्य कर सके। फिर भी यह वैज्ञानिक ज्ञान मानवजाति को रहस्यों की खोज करने से रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है। मानवजाति यह नहीं जानती कि ब्रह्मांड और सभी चीज़ों का संप्रभु कौन है, और मानवजाति के प्रारंभ और भविष्य के बारे में तो वह बिल्कुल भी नहीं जानती। मानवजाति केवल इस व्यवस्था के बीच विवशतापूर्वक जीती है। इससे कोई बच नहीं सकता और इसे कोई बदल नहीं सकता, क्योंकि सभी चीज़ों के बीच और स्वर्ग में अनंतकाल से लेकर अनंतकाल तक वह एक ही है, जो सभी चीज़ों पर अपनी संप्रभुता रखता है। वह एक ही है, जिसे मनुष्य द्वारा कभी देखा नहीं गया है, वह जिसे मनुष्य ने कभी नहीं जाना है, जिसके अस्तित्व पर मनुष्य ने कभी विश्वास नहीं किया है—फिर भी वह एक ही है, जिसने मनुष्य के पूर्वजों में साँस फूँकी और मानवजाति को जीवन प्रदान किया। वह एक ही है, जो मानवजाति का भरण-पोषण करता है और उसका अस्तित्व बनाए रखता है; और वह एक ही है, जिसने आज तक मानवजाति का मार्गदर्शन किया है। इतना ही नहीं, वह और केवल वह एक ही है, जिस पर मानवजाति अपने अस्तित्व के लिए निर्भर करती है। वह सभी चीज़ों पर संप्रभुता रखता है और ब्रह्मांड के सभी जीवित प्राणियों पर राज करता है। वह चारों मौसमों पर नियंत्रण रखता है, और वही है जो हवा, ठंड, हिमपात और बारिश लाता है। वह मानवजाति के लिए सूर्य का प्रकाश लाता है और रात्रि का सूत्रपात करता है। यह वही था, जिसने स्वर्ग और पृथ्वी की व्यवस्था की, और मनुष्य को पहाड़, झीलें और नदियाँ और उनके भीतर के सभी जीव प्रदान किए। उसके कर्म सर्वव्यापी हैं, उसकी सामर्थ्य सर्वव्यापी है, उसकी बुद्धि सर्वव्यापी है, और उसका अधिकार सर्वव्यापी है। इन व्यवस्थाओं और नियमों में से प्रत्येक उसके कर्मों का मूर्त रूप है और प्रत्येक उसकी बुद्धिमत्ता और अधिकार को प्रकट करता है। कौन खुद को उसके प्रभुत्व से मुक्त कर सकता है? और कौन उसकी अभिकल्पनाओं से खुद को छुड़ा सकता है? सभी चीज़ें उसकी निगाह के नीचे मौजूद हैं, और इतना ही नहीं, सभी चीज़ें उसकी संप्रभुता के अधीन रहती हैं। उसके कर्म और उसकी सामर्थ्य मानवजाति के लिए इस तथ्य को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं छोड़ती कि वह वास्तव में मौजूद है और सभी चीज़ों पर संप्रभुता रखता है। उसके अतिरिक्त कोई ब्रह्मांड पर नियंत्रण नहीं रख सकता, और मानवजाति का निरंतर भरण-पोषण तो बिल्कुल नहीं कर सकता। चाहे तुम परमेश्वर के कर्मों को पहचानने में सक्षम हो या न हो, और चाहे तुम परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हो या न करते हो, इसमें कोई शक नहीं कि तुम्हारा भाग्य परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है, और इसमें भी कोई शक नहीं कि परमेश्वर हमेशा सभी चीज़ों पर अपनी संप्रभुता रखेगा। उसका अस्तित्व और अधिकार इस बात से निर्धारित नहीं होता कि वे मनुष्य द्वारा पहचाने और समझे जाते हैं या नहीं। केवल वही मनुष्य के अतीत, वर्तमान और भविष्य को जानता है, और केवल वही मानवजाति के भाग्य का निर्धारण कर सकता है। चाहे तुम इस तथ्य को स्वीकार करने में सक्षम हो या न हो, इसमें ज्यादा समय नहीं लगेगा, जब मानवजाति अपनी आँखों से यह सब देखेगी, और परमेश्वर जल्दी ही इस तथ्य को साकार करेगा। मनुष्य परमेश्वर की आँखों के सामने जीता है और मर जाता है। मनुष्य परमेश्वर के प्रबंधन के लिए जीता है, और जब उसकी आँखें आखिरी बार बंद होती हैं, तो इस प्रबंधन के लिए ही बंद होती हैं। मनुष्य बार-बार, आगे-पीछे, आता और जाता रहता है। बिना किसी अपवाद के, यह परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी अभिकल्पना का हिस्सा है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है
यदि किसी व्यक्ति का जन्म उसके पिछले जीवन पर नियत था, तो उसकी मृत्यु उस नियति के अंत को चिह्नित करती है। यदि किसी का जन्म इस जीवन में उसके ध्येय की शुरुआत है, तो उसकी मृत्यु उसके उस ध्येय के अंत को चिह्नित करती है। चूँकि सृजनकर्ता ने किसी व्यक्ति के जन्म के लिए परिस्थितियों का एक निश्चित समुच्चय निर्धारित किया है, इसलिए स्पष्ट है कि उसने उसकी मृत्यु के लिए भी परिस्थितियों के एक निश्चित समुच्चय की व्यवस्था की है। दूसरे शब्दों में, कोई भी व्यक्ति संयोग से पैदा नहीं होता है, किसी भी व्यक्ति की मृत्यु अकस्मात नहीं होती है, और जन्म और मृत्यु दोनों ही अनिवार्य रूप से उसके पिछले और वर्तमान जीवन से जुड़े हैं। किसी व्यक्ति की जन्म और मृत्यु की परिस्थितियाँ दोनों ही सृजनकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित की जाती हैं; यह व्यक्ति की नियति है, और व्यक्ति का भाग्य है। चूँकि किसी व्यक्ति के जन्म के बारे में बहुत सारे स्पष्टीकरण होते हैं, वैसे ही यह भी सच है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु भी विशेष परिस्थितियों के एक भिन्न समुच्चय में होगी। लोगों के अलग-अलग जीवनकाल और उनकी मृत्यु होने के अलग-अलग तरीके और समय होने का यही कारण है। कुछ लोग ताकतवर और स्वस्थ होते हैं, फिर भी जल्दी मर जाते हैं; कुछ लोग कमज़ोर और बीमार होते हैं, फिर भी बूढ़े होने तक जीवित रहते हैं, और बिना कोई कष्ट पाए मर जाते हैं। कुछ की मृत्यु अस्वाभाविक कारणों से होती है, और कुछ की मृत्यु स्वाभाविक कारणों से होती है। कुछ का जीवन उनके घर से दूर समाप्त होता है, कुछ अपने प्रियजनों के साथ उनके सानिध्य में आखिरी साँस लेते हैं। कुछ आसमान में मरते हैं, कुछ धरती के नीचे। कुछ पानी के अन्दर डूब जाते हैं, कुछ आपदाओं में अपनी जान गँवा देते हैं। कुछ सुबह मरते हैं, कुछ रात्रि में। ... हर कोई एक शानदार जन्म, एक बहुत बढ़िया ज़िन्दगी, और एक गौरवशाली मृत्यु की कामना करता है, परन्तु कोई भी व्यक्ति अपनी नियति से परे नहीं जा सकता है, कोई भी सृजनकर्ता की संप्रभुता से बचकर नहीं निकल सकता है। यह मनुष्य का भाग्य है। मनुष्य अपने भविष्य के लिए अनगिनत योजनाएँ बना सकता है, परन्तु कोई भी अपने जन्म के तरीके और समय की और संसार से अपने प्रस्थान की योजना नहीं बना सकता है। यद्यपि लोग मृत्यु को टालने और उसको रोकने की भरसक कोशिश करते हैं, फिर भी, उनके जाने बिना, मृत्यु चुपचाप पास आ जाती है। कोई नहीं जानता है कि वह कब मरेगा या वह कैसे मरेगा, और यह तो बिलकुल भी नहीं जानता कि वह कहाँ मरेगा। स्पष्ट रूप से, न तो मानवजाति के पास जीवन और मृत्यु की सामर्थ्य है, न ही प्राकृतिक संसार में किसी प्राणी के पास, केवल अद्वितीय अधिकार वाले सृजनकर्ता के पास ही यह सामर्थ्य है। मनुष्य का जीवन और उसकी मृत्यु प्राकृतिक संसार के किन्हीं नियमों का परिणाम नहीं है, बल्कि सृजनकर्ता के अधिकार की संप्रभुता का परिणाम है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III
व्यक्ति जितना मृत्यु के नज़दीक पहुँचने लगता है, वह उतना ही अधिक यह समझना चाहता है कि वास्तव में जीवन किस बारे में है; व्यक्ति जितना मृत्यु के नज़दीक पहुँचने लगता है, उसे उतना ही अधिक अपना हृदय खाली महसूस होने लगता है; व्यक्ति जितना मृत्यु के नज़दीक पहुँचने लगता है, वह उतना ही अधिक असहाय महसूस करने लगता है; और इस प्रकार मृत्यु के बारे में उसका भय दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है। जब मनुष्य मृत्यु के नज़दीक पहुँचता है तो उसके अंदर इस तरह की भावनाएँ प्रदर्शित होने के दो कारण होते हैं : पहला, वह अपनी प्रसिद्धि और संपत्ति को खोने ही वाले होते हैं जिन पर उनका जीवन आधारित था, वह हर चीज़ जो वे इस संसार में देखते हैं, उसे पीछे छोड़ने वाले होते हैं; और दूसरा, वे नितांत अकेले एक अनजान संसार का सामना करने वाले होते हैं, एक रहस्यमयी, अज्ञात दुनिया का सामना करने वाले होते हैं जहाँ वे कदम रखने से भी डरते हैं, जहाँ उनका कोई प्रियजन नहीं होता है और सहारे का किसी प्रकार का साधन नहीं होता है। इन दो कारणों की वजह से, मृत्यु का सामना करने वाला हर एक व्यक्ति बेचैनी महसूस करता है, अत्यंत घबराहट और लाचारी के एहसास का अनुभव करता है, ऐसा एहसास जिसे उसने पहले कभी नहीं महसूस किया था। जब लोग वास्तव में इस मोड़ पर पहुँचते हैं केवल तभी उन्हें समझ आता है कि जब कोई इस पृथ्वी पर कदम रखता है, तो सबसे पहली बात जो उसे अवश्य समझनी चाहिए, वह है कि मानव कहाँ से आता है, लोग जीवित क्यों हैं, कौन मनुष्य के भाग्य का निर्धारण करता है, कौन मानव का भरण-पोषण करता है और किसके पास उसके अस्तित्व के ऊपर संप्रभुता है। यह ज्ञान ही वह सच्चा माध्यम है जिसके द्वारा कोई जीवन जीता है, मानव के जीवित बचे रहने के लिए आवश्यक आधार है—न कि यह सीखना कि किस प्रकार अपने परिवार का भरण-पोषण करें या किस प्रकार प्रसिद्धि और धन-संपत्ति प्राप्त करें, किस प्रकार सबसे विशिष्ट लगें या किस प्रकार और अधिक समृद्ध जीवन बिताएँ, और यह तो बिलकुल नहीं कि किस प्रकार दूसरों से आगे बढ़ें और उनके विरुद्ध सफलतापूर्वक प्रतिस्पर्धा करें। यद्यपि जीवित बचे रहने के जिन विभिन्न कौशल पर महारत हासिल करने के लिए लोग अपना जीवन गुज़ार देते हैं वे भरपूर भौतिक सुख दे सकते हैं, लेकिन वे किसी मनुष्य के हृदय में कभी भी सच्ची शान्ति और तसल्ली नहीं ला सकते हैं, बल्कि इसके बदले वे लोगों को निरंतर उनकी दिशा से भटकाते हैं, लोगों के लिए स्वयं पर नियंत्रण रखना कठिन बनाते हैं, और उन्हें जीवन का अर्थ सीखने के हर अवसर से वंचित कर देते हैं; उत्तरजीविता के ये कौशल इस बारे में उत्कंठा का एक अंतर्प्रवाह पैदा करते हैं कि किस प्रकार सही ढंग से मृत्यु का सामना करें। इस तरह से, लोगों के जीवन बर्बाद हो जाते हैं। सृजनकर्ता सभी के साथ निष्पक्ष ढंग से व्यवहार करता है, सभी को उसकी संप्रभुता का अनुभव करने और उसे जानने का जीवनभर का अवसर प्रदान करता है, फिर भी, जब मृत्यु नज़दीक आती है, जब मौत का साया उस पर मंडराता है, केवल तभी मनुष्य उस रोशनी को देखना आरंभ करता है—और तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
लोग अपना जीवन धन-दौलत और प्रसिद्धि का पीछा करते हुए बिता देते हैं; वे इन तिनकों को यह सोचकर कसकर पकड़े रहते हैं, कि केवल ये ही उनके जीवन का सहारा हैं, मानो कि उनके होने से वे निरंतर जीवित रह सकते हैं, और मृत्यु से बच सकते हैं। परन्तु जब मृत्यु उनके सामने खड़ी होती है, केवल तभी उन्हें समझ आता है कि ये चीज़ें उनकी पहुँच से कितनी दूर हैं, मृत्यु के सामने वे कितने कमज़ोर हैं, वे कितनी आसानी से बिखर जाते हैं, वे कितने एकाकी और असहाय हैं, और वे कहीं से सहायता नही माँग सकते हैं। उन्हें समझ आ जाता है कि जीवन को धन-दौलत और प्रसिद्धि से नहीं खरीदा जा सकता है, कि कोई व्यक्ति चाहे कितना ही धनी क्यों न हो, उसका पद कितना ही ऊँचा क्यों न हो, मृत्यु के सामने सभी समान रूप से कंगाल और महत्वहीन हैं। उन्हें समझ आ जाता है कि धन-दौलत से जीवन नहीं खरीदा जा सकता है, प्रसिद्धि मृत्यु को नहीं मिटा सकती है, न तो धन-दौलत और न ही प्रसिद्धि किसी व्यक्ति के जीवन को एक मिनट, या एक पल के लिए भी बढ़ा सकती है। लोग जितना अधिक इस प्रकार महसूस करते हैं, उतनी ही अधिक उनकी जीवित रहने की लालसा बढ़ जाती है; लोग जितना अधिक इस प्रकार महसूस करते हैं, उतना ही अधिक वे मृत्यु के पास आने से भयभीत होते हैं। केवल इसी मोड़ पर उन्हें वास्तव में समझ में आता है कि उनका जीवन उनका नहीं है, और उनके नियंत्रण में नहीं है, और किसी का इस पर वश नहीं है कि वह जीवित रहेगा या मर जाएगा—यह सब उसके नियंत्रण से बाहर है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III
जिस क्षण किसी व्यक्ति का जन्म होता है, तब एक एकाकी आत्मा पृथ्वी पर जीवन का अपना अनुभव आरंभ करती है, सृष्टिकर्ता के अधिकार का अपना अनुभव आरंभ करती है, जिसे सृष्टिकर्ता ने उसके लिए व्यवस्थित किया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि, यह उस व्यक्ति—उस आत्मा—के लिए सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का ज्ञान अर्जित करने का, और उसके अधिकार को जानने का और उसे व्यक्तिगत रूप से अनुभव करने का सर्वोत्तम अवसर है। लोग सृष्टिकर्ता द्वारा उनके लिए लागू किए गए भाग्य के नियमों के अनुसार अपना जीवन जीते हैं जिसे, और किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए जिसके पास विवेक है, पृथ्वी पर कई दशकों तक जीवन गुज़ारने के बाद, सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को स्वीकार करना और उसके अधिकार को जान जाना कोई कठिन कार्य नहीं है। इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति के लिए, कई दशकों के अपने जीवन-अनुभवों के द्वारा, यह समझना बहुत आसान है कि सभी मनुष्यों के भाग्य पूर्वनियत होते हैं, और यह समझना या इस बात का सार निकालना बहुत सरल होना चाहिए कि जीवित होने का अर्थ क्या है। जब कोई व्यक्ति जीवन की इन सीखों को आत्मसात करता है, तो धीरे-धीरे उसकी समझ में आने लगता है कि जीवन कहाँ से आता है, यह समझने लगता है कि हृदय को सचमुच किसकी आवश्यकता है, कौन उसे जीवन के सही मार्ग पर ले जाएगा, मनुष्य के जीवन का ध्येय और लक्ष्य क्या होना चाहिए। धीरे-धीरे वह समझने लगेगा कि यदि वह सृष्टिकर्ता की आराधना नहीं करता है, यदि वह उसके प्रभुत्व के अधीन आत्मसमर्पण नहीं करता है, तो जब मृत्यु का सामना करने का समय आएगा—जब उसकी आत्मा एक बार फिर से सृष्टिकर्ता का सामना करने वाली होगी—तब उसका हृदय असीमित भय और बेचैनी से भर जाएगा। यदि कोई व्यक्ति इस संसार में कई दशकों तक जीवित रहा है और फिर भी नहीं जान पाया है कि मानव जीवन कहाँ से आता है, न ही यह समझ पाया है कि किसकी हथेली में मनुष्य का भाग्य निहित है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वह शान्ति से मृत्यु का सामना नहीं कर पाएगा। जिस व्यक्ति ने जीवन के कई दशकों का अनुभव करने के बाद सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह ऐसा व्यक्ति है जिसके पास जीवन के अर्थ और मूल्य की सही समझ है। ऐसे व्यक्ति के पास सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के वास्तविक अनुभव और समझ के साथ जीवन के उद्देश्य का गहन ज्ञान है, और उससे भी बढ़कर, वह सृष्टिकर्ता के अधिकार के समक्ष समर्पण कर सकता है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के द्वारा मानवजाति के सृजन का अर्थ समझता है, वह समझता है कि मनुष्य को सृष्टिकर्ता की आराधना करनी चाहिए, कि जो कुछ भी मनुष्य के पास है, वह सृष्टिकर्ता से आता है और वह निकट भविष्य में ही किसी दिन उसके पास लौट जाएगा। ऐसा व्यक्ति समझता है कि सृष्टिकर्ता मनुष्य के जन्म की व्यवस्था करता है और मनुष्य की मृत्यु पर उसकी संप्रभुता है, और जीवन व मृत्यु दोनों सृष्टिकर्ता के अधिकार द्वारा पूर्वनियत हैं। इसलिए, जब कोई व्यक्ति वास्तव में इन बातों को समझ लेता है, तो वह शांति से मृत्यु का सामना करने, अपनी सारी संसारिक संपत्तियों को शांतिपूर्वक छोड़ने, और जो होने वाला है, उसे खुशी से स्वीकार व समर्पण करने, और सृष्टिकर्ता द्वारा व्यवस्थित जीवन के अंतिम मोड़ का स्वागत करने में सक्षम होगा न कि आँखें मूँदकर उससे डरेगा और संघर्ष करेगा। यदि कोई जीवन को सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का अनुभव करने के एक अवसर के रूप में देखता है और उसके अधिकार को जानने लगता है, यदि कोई अपने जीवन को सृजित मनुष्य के रूप में अपना कर्तव्य निभाने और अपना ध्येय पूरा करने के एक दुर्लभ अवसर के रूप में देखता है, तो जीवन के बारे में उसके पास निश्चित ही सही दृष्टिकोण होगा, और वह ऐसा जीवन बिताएगा जिसमें सृष्टिकर्ता का आशीष और मार्गदर्शन होगा, वह निश्चित रूप से सृष्टिकर्ता की रोशनी में चलेगा, वह निश्चित रूप से सृष्टिकर्ता की संप्रभुता को जानेगा, वह निश्चित रूप से उसके प्रभुत्व के अधीन आत्मसमर्पण करेगा, और निश्चित रूप से उसके अद्भुत कर्मों और उसके अधिकार का गवाह बनेगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि, निश्चित रूप से, ऐसा व्यक्ति सृष्टिकर्ता के द्वारा प्रेम पाएगा और स्वीकार किया जाएगा, और केवल ऐसा व्यक्ति ही मृत्यु के प्रति एक शांत दृष्टिकोण रख सकता है, और जीवन के अंतिम मोड़ का स्वागत प्रसन्नतापूर्वक कर सकता है। एक ऐसा व्यक्ति जो स्पष्ट रूप से मृत्यु के प्रति इस प्रकार का दृष्टिकोण रखता था, वह अय्यूब था। अय्यूब जीवन के अंतिम मोड़ को प्रसन्नता से स्वीकार करने की स्थिति में था, और अपनी जीवन यात्रा को एक सहज अंत तक पहुँचाने के बाद, जीवन में अपने ध्येय को पूरा करने के बाद, वह सृष्टिकर्ता के पास लौट गया।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III
धर्मग्रंथ में अय्यूब के बारे में लिखा गया है कि : “अन्त में अय्यूब वृद्धावस्था में दीर्घायु होकर मर गया” (अय्यूब 42:17)। इसका अर्थ है कि जब अय्यूब की मृत्यु हुई, तो उसे कोई पछतावा नहीं था और उसने कोई पीड़ा महसूस नहीं की, बल्कि स्वाभाविक रूप से इस संसार से चला गया। जैसे कि हर किसी को पता है, अय्यूब ऐसा मनुष्य था जो अपने जीवन में परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था। परमेश्वर ने उसके धार्मिकता के कार्यों की सराहना की थी, लोगों ने उन्हें स्मरण रखा, और कहा जा सकता है कि उसका जीवन किसी भी अन्य इंसान से बढ़कर मूल्यवान और महत्वपूर्ण था। अय्यूब ने परमेश्वर के आशीषों का आनंद लिया और परमेश्वर के द्वारा उसे पृथ्वी पर धार्मिक कहा गया था, और परमेश्वर ने उसकी परीक्षा ली और शैतान ने भी प्रलोभन दिया। वह परमेश्वर का गवाह बना और उसके द्वारा वह धार्मिक पुरुष कहलाने के योग्य था। परमेश्वर के द्वारा परीक्षा लिए जाने के बाद कई दशकों तक, उसने ऐसा जीवन बिताया जो पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण, अर्थपूर्ण, स्थिर, और शान्तिपूर्ण था। उसके धार्मिक कर्मों की वजह से, परमेश्वर ने उसकी परीक्षा ली, उसके धार्मिक कर्मों की वजह से ही, परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ और सीधे उससे बात की। इसलिए, उसकी परीक्षा लिए जाने के बाद के वर्षों के दौरान अय्यूब ने अधिक यथार्थपूर्ण ढंग से जीवन के मूल्यों को समझा और उनको सराहा, सृजनकर्ता की संप्रभुता की और अधिक गहन समझ प्राप्त की, और किस तरह सृजनकर्ता अपने आशीष देता है और वापस ले लेता है, इस बारे में और अधिक सटीक और निश्चित ज्ञान प्राप्त किया। अय्यूब की पुस्तक में दर्ज है कि यहोवा परमेश्वर ने अय्यूब को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक आशीषें प्रदान कीं, सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानने के लिए और मृत्यु का शान्ति से सामना करने के लिए उसने अय्यूब को और भी बेहतर स्थिति में रखा था। इसलिए अय्यूब, जब वृद्ध हुआ और उसका सामना मृत्यु से हुआ, तो वह निश्चित रूप से अपनी संपत्ति के बारे में चिंतित नहीं हुआ होगा। उसे कोई चिन्ता नहीं थी, पछताने के लिए कुछ नहीं था, और निस्संदेह वह मृत्यु से भयभीत नहीं था, क्योंकि उसने अपना संपूर्ण जीवन परमेश्वर का भय मानते हुए और बुराई से दूर रहते हुए बिताया था। उसके पास अपने स्वयं के अंत के बारे में चिंता करने का कोई कारण नहीं था। आज कितने लोग हैं जो वैसे व्यवहार कर सकते हैं जैसे अय्यूब ने किया था जब उसने अपनी मृत्यु का सामना किया? क्यों कोई भी व्यक्ति इस प्रकार के सरल बाह्य आचरण को बनाए रखने में सक्षम नहीं है? केवल एक ही कारण है : अय्यूब ने अपना जीवन विश्वास का अनुसरण करने, परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकारने, एवं समर्पण करने की आत्मपरक खोज में बिताया था, और इसी विश्वास, स्वीकृति और समर्पण के साथ उसने अपने जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ों को पार किया था, अपने जीवन के अंतिम वर्षों को जिया था, और अपने जीवन के अंतिम मोड़ का स्वागत किया था। अय्यूब ने चाहे जो भी अनुभव किया हो जीवन में उसकी खोज और लक्ष्य पीड़ादायक नहीं थे, वरन सुखद थे। वह केवल उन आशीषों या प्रशंसाओं की वजह से खुश नहीं था जो सृजनकर्ता के द्वारा उसे प्रदान की गईं थीं, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण रूप से, अपनी खोजों और जीवन के लक्ष्यों की वजह से, परमेश्वर से भय रखने और बुराई से दूर रहने के कारण अर्जित सृजनकर्ता की संप्रभुता के लगातार बढ़ने वाले ज्ञान और उसकी वास्तविक समझ की वजह से वह खुश था, और यही नहीं, सृजनकर्ता की संप्रभुता के अधीन होने के व्यक्तिगत अनुभवों की वजह से, परमेश्वर के अद्भुत कर्मों की वजह से, और मनुष्य और परमेश्वर के सह-अस्तित्व, परिचय, और पारस्परिक समझ के नाज़ुक, फिर भी, अविस्मरणीय अनुभवों और स्मृतियों की वजह से वह खुश था। अय्यूब उस आराम और प्रसन्नता की वजह से खुश था जो सृजनकर्ता के इरादों को जानने से आई थी; उस भय की वजह से जो यह देखने से बाद उभरा था कि परमेश्वर कितना महान, अद्भुत, प्यारा एवं विश्वसनीय है। अय्यूब बिना किसी कष्ट के अपनी मृत्यु का सामना इसलिए कर पाया, क्योंकि वह जानता था कि मरने के बाद वह सृजनकर्ता के पास लौट जाएगा। जीवन में उसके लक्ष्यों और जो उसने हासिल किया था, उनकी वजह से ही सृजनकर्ता द्वारा उसके जीवन को वापस लेने के समय वह शान्ति से मृत्यु का सामना कर पाया, और इतना ही नहीं, शुद्ध और चिंतामुक्त होकर, वह सृजनकर्ता के सामने खड़ा हो पाया था। क्या आजकल लोग उस प्रकार की प्रसन्नता को प्राप्त कर सकते हैं जो अय्यूब के पास थी? क्या तुम लोगों के पास वैसी परिस्थितियाँ हैं जो ऐसा करने के लिए आवश्यक हैं? चूँकि लोग आजकल ऐसा करने की स्थिति में हैं, तो वे अय्यूब के समान खुशी से जीवन बिताने में असमर्थ क्यों हैं? वे मृत्यु के भय के कष्ट से बच निकलने में असमर्थ क्यों हैं? मृत्यु का सामना करते समय, कुछ लोगों का पेशाब निकल जाता है; कुछ काँपते हैं, मूर्छित हो जाते हैं, स्वर्ग और मनुष्य के विरुद्ध समान रूप से घोर निंदा करते हैं, यहाँ तक कि कुछ रोते और विलाप करते हैं। ये किसी भी तरह से स्वाभाविक प्रतिक्रियाएँ नहीं हैं जो अचानक तब घटित होती हैं जब मृत्यु नजदीक आने लगती है। लोग मुख्यतः ऐसे शर्मनाक तरीकों से इसलिए व्यवहार करते हैं क्योंकि भीतर ही भीतर, अपने हृदय की गहराई में, वे मृत्यु से डरते हैं, क्योंकि उन्हें परमेश्वर की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं के बारे में स्पष्ट ज्ञान और समझ नहीं है, और सही मायने में वे उनके प्रति समर्पण तो बिल्कुल नहीं करते हैं। लोग इस तरह व्यवहार इसलिए करते हैं, क्योंकि वे केवल स्वयं ही हर चीज की व्यवस्था और उसे संचालित करना चाहते हैं, अपने भाग्य, अपने जीवन और मृत्यु को नियंत्रित करना चाहते हैं। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं कि लोग कभी भी मृत्यु के भय से बच नहीं पाते हैं।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III
जब किसी के पास सृजनकर्ता की संप्रभुता और उसकी व्यवस्थाओं का स्पष्ट ज्ञान और अनुभव नहीं होगा, तो भाग्य और मृत्यु के बारे में उसका ज्ञान आवश्यक रूप से असंगत होगा। लोग स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हैं कि हर चीज़ परमेश्वर के हाथ में है, वे यह नहीं समझ सकते कि हर चीज़ परमेश्वर के नियंत्रण और संप्रभुता के अधीन है, यह नहीं समझ सकते हैं कि मनुष्य ऐसी संप्रभुता को फेंक नहीं सकता है या उससे बच नहीं सकता है। और इसी कारण, जब उनका मृत्यु का सामना करने का समय आता है, उनके आखिरी शब्दों, चिंताओं एवं पछतावों का कोई अन्त नहीं होता है। वे अत्यधिक बोझ, अत्यधिक अनिच्छा, अत्यधिक भ्रम से दबे होते हैं। इसी वजह से वे मृत्यु से डरते हैं। क्योंकि कोई भी व्यक्ति जिसने इस संसार में जन्म लिया है, उसका जन्म आवश्यक है और उसकी मृत्यु अनिवार्य है; जो कुछ घटित होता है, उससे परे कोई नहीं जा सकता है। यदि कोई इस संसार से बिना किसी पीड़ा के जाना चाहता है, यदि कोई जीवन के इस अंतिम मोड़ का बिना किसी अनिच्छा या चिंता के सामना करना चाहता है, तो इसका एक ही रास्ता है कि वो कोई पछतावा न रखे। और बिना किसी पछतावे के संसार से जाने का एकमात्र मार्ग है सृजनकर्ता की संप्रभुता को जानना, उसके अधिकार को जानना, और उनके प्रति समर्पण करना। केवल इसी तरह से कोई व्यक्ति मानवीय लड़ाई-झगड़ों, बुराइयों, और शैतान के बंधन से दूर रह सकता है; और केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति अय्यूब के समान, सृजनकर्ता के द्वारा निर्देशित और आशीष-प्राप्त जीवन जी सकता है, ऐसा जीवन जो स्वतंत्र और मुक्त हो, ऐसा जीवन जिसका मूल्य और अर्थ हो, ऐसा जीवन जो सत्यनिष्ठ और खुले हृदय का हो। केवल इसी तरह कोई अय्यूब के समान, सृजनकर्ता के द्वारा परीक्षा लिए जाने और वंचित किए जाने के प्रति, सृजनकर्ता के आयोजनों और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकता है; केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति जीवन भर सृजनकर्ता की आराधना कर सकता है और उसकी प्रशंसा अर्जित कर सकता है, जैसा कि अय्यूब ने किया था, और उसकी आवाज़ को सुन सकता है, और उसे अपने समक्ष प्रकट होते हुए देख सकता है। केवल इसी तरह से ही कोई व्यक्ति, अय्यूब के समान, बिना किसी पीड़ा, चिंता और पछतावे के प्रसन्नता के साथ जी और मर सकता है। केवल इसी तरह से कोई व्यक्ति, अय्यूब के समान प्रकाश में जीवन बिता सकता है और अपने जीवन के हर मोड़ में प्रकाश से होकर गुज़र सकता है, अपनी यात्रा को प्रकाश में बिना किसी व्यवधान के पूरा कर सकता है, और अनुभव करने, सीखने, और एक सृजित प्राणी के रूप में सृजनकर्ता की संप्रभुता के बारे में जानने के अपने ध्येय को सफलतापूर्वक प्राप्त कर सकता है—और प्रकाश में मृत्यु को प्राप्त कर सकता है, और उसके पश्चात् एक सृजित किए गए प्राणी के रूप में हमेशा सृजनकर्ता की तरफ़ खड़ा हो सकता है, और उसकी सराहना पा सकता है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III
लोग चाहे किसी भी मामले से निपट रहे हों, उन्हें इसे हमेशा सक्रिय और सकारात्मक रवैये के साथ देखना चाहिए, बात अगर मृत्यु की हो तो यह और भी ज्यादा सच है। सक्रिय, सकारात्मक रवैया होने का अर्थ मृत्यु के साथ जाना, मृत्यु की प्रतीक्षा करना या सकारात्मक और सक्रिय तरीके से मृत्यु का अनुसरण करने की कोशिश करना नहीं है। अगर इसका अर्थ मृत्यु का अनुसरण करना, मृत्यु के साथ जाना या मृत्य की प्रतीक्षा करना नहीं है, तो फिर क्या है? (समर्पित होना।) समर्पण मृत्यु के विषय के प्रति एक तरह का रवैया है, और इससे निपटने का सबसे अच्छा तरीका मृत्यु को जाने देना और उसके बारे में न सोचना है। कुछ लोग कहते हैं, “इस बारे में क्यों न सोचें? अगर मैं इस बारे में अच्छी तरह से न सोचूँ, तो क्या इससे जीत पाऊँगा? अगर मैं इस बारे में अच्छी तरह से न सोचूँ, तो क्या मैं इसे जाने दे पाऊँगा?” हाँ, जरूर। भला ऐसा क्यों? मुझे बताओ, जब तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया, तो जन्म लेने का विचार क्या तुम्हारा था? तुम्हारा रंग-रूप, तुम्हारी उम्र, जिस उद्योग में तुम काम करते हो, यह तथ्य कि तुम यहाँ बैठे हो, और अभी तुम जैसा महसूस कर रहे हो—क्या तुम्हारे सोचने से यह सब हुआ है? तुम्हारे सोचने से यह सब नहीं हुआ है, ये सब दिन, महीने गुजरने, और तुम्हारे दिन-ब-दिन, एक के बाद एक दिन का सामान्य जीवन जीने के जरिये हुआ है, यहाँ तुम्हारे पहुँचने तक, जहाँ आज तुम हो, और यह बहुत कुदरती है। मृत्यु भी बस वही है। तुम अनजाने ही बड़े होकर वयस्क और फिर अधेड़ हो जाते हो, बूढ़े हो जाते हो, अपने अंतिम वर्षों में पहुँच जाते हो, और फिर मृत्यु आती है—इस बारे में मत सोचो। तुम जिन चीजों के बारे में नहीं सोचते उनके बारे में न सोचने से तुम उनसे बच नहीं सकते, न ही सोचने से वे जल्दी आ जाती हैं; उन्हें मनुष्य अपनी इच्छा से नहीं बदल सकता, ठीक? उनके बारे में मत सोचो। “उनके बारे में मत सोचो” से मेरा तात्पर्य क्या है? चूँकि अगर यह चीज निकट भविष्य में सचमुच होनी है, तो हमेशा उस बारे में सोचते रहने से तुम अपने ऊपर एक अदृश्य दबाव महसूस करोगे। यह दबाव तुममें जीवन और जीवनयापन के प्रति डर पैदा कर देगा, तुम्हारा रवैया सक्रिय और सकारात्मक नहीं रहेगा, और इसके बजाय तुम और भी ज्यादा अवसादग्रस्त हो जाओगे। चूँकि मृत्यु का सामना करने वाले व्यक्ति को किसी भी चीज में रुचि नहीं होती या किसी भी चीज के प्रति उसका रवैया सकारात्मक नहीं होता, इसलिए वह सिर्फ अवसाद-ग्रस्त रहता है। वह मरने वाला है, सब-कुछ खत्म हो गया है, किसी भी चीज का अनुसरण करने या कोई भी काम करने का कोई अर्थ नहीं रहा, उसके लिए कोई संभावना या अभिप्रेरणा नहीं रही, और वह जो भी करता है, वह मृत्यु की तैयारी और मृत्यु की दिशा में जाने के लिए है, तो वह जो कुछ भी करता है, उसका क्या अर्थ है? इसलिए, उसके सभी कामों से नकारात्मकता और मृत्यु के तत्व और उसकी प्रकृति जुड़ी होती है। तो क्या तुम मृत्यु के बारे में नहीं सोच सकते? क्या इसे हासिल करना आसान है? अगर यह मामला सिर्फ तुम्हारे मानसिक तर्क और कल्पना का नतीजा है, तो तुमने खुद के लिए एक नकली खतरे की घंटी बजाई है, तुम खुद को डराते हो, और यह निकट भविष्य में होगा ही नहीं, तो तुम इसके बारे में भला क्यों सोच रहे हो? इस कारण मृत्यु के बारे में सोचना और भी बेकार है। जो होना है वह होकर रहेगा; जो नहीं होना है, उसके बारे में चाहे जैसे सोचो, वह नहीं होगा। इससे डरना वैसे ही बेकार है, जैसे इसके बारे में चिंता करना। मृत्यु की चिंता करके उससे नहीं बचा जा सकता, न ही सिर्फ तुम्हारे डरने के कारण यह तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएगा। इसलिए एक पहलू यह है कि तुम्हें अपने दिल से मृत्यु के विषय को जाने देना चाहिए, और इसे महत्व नहीं देना चाहिए; तुम्हें इसे परमेश्वर को सौंप देना चाहिए, मानो मृत्यु का तुमसे कोई लेना-देना न हो। यह एक ऐसी चीज है जिसकी व्यवस्था परमेश्वर करता है, तो परमेश्वर को व्यवस्थित करने दो—तब क्या यह सरल नहीं हो जाता? दूसरा पहलू यह है कि तुम्हें मृत्यु के प्रति सक्रिय और सकारात्मक रवैया रखना चाहिए। बताओ भला, पूरी दुनिया में खरबों लोगों के बीच कौन इतना धन्य है कि परमेश्वर के इतने सारे वचन सुन पाए, जीवन के इतने सत्य और इतने सारे रहस्य समझ पाए? उन सबमें कौन निजी तौर पर परमेश्वर का मार्गदर्शन, उसका पोषण, देखभाल और रक्षा प्राप्त कर सकता है? कौन इतना धन्य है? बहुत कम लोग। इसलिए तुम थोड़े-से लोगों का आज परमेश्वर के घर में जीवनयापन करने, उसका उद्धार पाना, और उसका पोषण पाने में समर्थ होना, ये सब तुम तुरंत मर जाओ तो भी सार्थक है। तुम अत्यंत धन्य हो, क्या यह सही नहीं है? (हाँ।) इस नजरिये से देखें, तो लोगों को मृत्यु के विषय से इतना अधिक भयभीत नहीं होना चाहिए, न ही इससे बेबस होना चाहिए। भले ही तुमने दुनिया की किसी महिमा या धन-दौलत के मजे न लिए हों, फिर भी तुम्हें सृष्टिकर्ता की दया मिली है, और तुमने परमेश्वर के इतने सारे वचन सुने हैं—क्या यह आनंददायक नहीं है? (जरूर है।) इस जीवन में तुम चाहे जितने साल जियो, ये सब इस योग्य है और तुम्हें कोई खेद नहीं, क्योंकि तुम परमेश्वर के कार्य में निरंतर अपना कर्तव्य निभाते रहे हो, तुमने सत्य समझा है, जीवन के रहस्यों को समझा है, और जीवन में जिस पथ और लक्ष्यों का तुम्हें अनुसरण करना चाहिए उन्हें समझा है—तुमने बहुत कुछ हासिल किया है! तुमने सार्थक जीवन जिया है! भले ही तुम इसे साफ तौर पर समझा न पाओ, तुम कुछ सत्यों पर अमल करने और कुछ वास्तविकता रखने में समर्थ हो, और इससे साबित होता है कि तुमने जीवन का थोड़ा पोषण प्राप्त किया है, और परमेश्वर के कार्य से कुछ सत्यों को समझा है। तुमने बहुत कुछ हासिल किया है—सच्ची प्रचुरता हासिल की है—और यह कितना महान आशीष है! मानव इतिहास के आरंभ से ही, सभी युगों के दौरान, कभी किसी ने इस आशीष का आनंद नहीं लिया, मगर तुम इसका आनंद ले रहे हो। क्या अब तुम मरने के लिए तैयार हो? ऐसी तत्परता के साथ मृत्यु के प्रति तुम्हारा रवैया सचमुच समर्पण करने वाला होगा, है ना? (हाँ।) एक पहलू यह है कि लोगों को सच्ची समझ होनी चाहिए, उन्हें सकारात्मक और सक्रिय सहयोग देना चाहिए, सचमुच समर्पित होना चाहिए, और मृत्यु के प्रति उनका रवैया सही होना चाहिए। इस तरह से, क्या लोगों की संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाएँ काफी कम नहीं हो जातीं? (जरूर हो जाती हैं।) वे बहुत कम हो जाती हैं। ...
मृत्यु एक ऐसी समस्या नहीं है जिसे हल करना आसान हो, यह मनुष्य की सबसे बड़ी मुश्किल है। अगर कोई तुमसे कहे, “तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव बहुत गहरा है और तुम्हारी मानवता भी अच्छी नहीं है। अगर तुम सच्चे दिल से सत्य का अनुसरण न करके भविष्य में अनेक दुष्कर्म करोगे, तो नरक में दंडित किए जाओगे!” तो इसके बाद तुम थोड़ी देर परेशान रहोगे। तुम शायद इस पर चिंतन करो, रात भर सो लेने के बाद काफी बेहतर महसूस करो, और तब तुम उतने परेशान न रहो। लेकिन अगर तुम एक घातक रोग से ग्रस्त हो जाते हो, तुम्हारे जीने का ज्यादा समय न बचा हो, तो यह ऐसी चीज नहीं है जो रात भर सो लेने से ठीक हो जाए, और इसे उतनी आसानी से जाने नहीं दिया जा सकेगा। इस मामले में तुम्हें कुछ वक्त तपने की जरूरत है। सत्य का सच्चे दिल से अनुसरण करने वाले लोग इस विषय को पीछे छोड़ पाते हैं, सभी चीजों में सत्य खोज सकते हैं, और इसे दूर करने के लिए सत्य का प्रयोग कर सकते हैं—ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे वे हल नहीं कर सकते। लेकिन अगर लोग मनुष्य के तरीके इस्तेमाल करें, तो आखिरकार वे मृत्यु को लेकर सिर्फ निरंतर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते रहेंगे। जिन चीजों का समाधान नहीं किया जा सकता, वे उन्हें सुलझाने की कोशिश में अतिवादी तरीके काम में लेते हैं। कुछ लोग यह कहकर अवसादग्रस्त और नकारात्मक नजरिया अपनाते हैं, “तो मैं बस मर जाऊँगा। मौत से कौन डरता है? मृत्यु के बाद, मैं पुनर्जन्म लेकर फिर से जियूँगा!” क्या तुम इसका सत्यापन कर सकते हो? तुम्हें बस सुकून देने वाले कुछ वचनों की तलाश है, और इससे समस्या हल नहीं होती। दृश्य या अदृश्य, भौतिक या अभौतिक, तमाम चीजें और हर चीज सृष्टिकर्ता के हाथों नियंत्रित और शासित होती हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी नियति का नियंत्रण नहीं कर सकता, मनुष्य को बीमारी या मृत्यु, दोनों के प्रति बस एक ही रवैया अपनाना चाहिए, और वह है समझ, स्वीकार्यता, और समर्पण का; लोगों को अपनी कल्पनाओं या धारणाओं के भरोसे नहीं रहना चाहिए, उन्हें इन चीजों से बाहर निकलने का रास्ता नहीं ढूँढ़ना चाहिए, और इन चीजों को ठुकराना या उनका प्रतिरोध तो बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। अगर तुम अपने ही तरीकों से आँखें बंद करके बीमारी और मृत्यु के मसलों को दूर करने की कोशिश करोगे, तो तुम जितना लंबा जिओगे उतना ही ज्यादा कष्ट सहोगे, उतना ही अवसादग्रस्त हो जाओगे, और उतना ही फँसा हुआ अनुभव करोगे। अंत में, तब भी तुम्हें मृत्यु के पथ पर चलना पड़ेगा, तुम्हारा अंत सचमुच तुम्हारी मृत्यु जैसा ही होगा—तुम सचमुच मर जाओगे। अगर तुम सक्रिय होकर सत्य खोज सको, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित रोग या मृत्यु की समझ को लेकर तुम सकारात्मक और सक्रिय ढंग से सत्य खोज सको, इस प्रकार की बड़ी घटना के बारे में सृष्टिकर्ता के आयोजनों, संप्रभुता और व्यवस्थाओं को खोज सको, और सच्चा समर्पण कर पाओ, तो यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। अगर तुम ये तमाम चीजें झेलने के लिए मनुष्य की शक्ति और तरीकों के भरोसे रहो, इन्हें ठीक करने या इनसे बच निकलने की जबरदस्त कोशिश करो, तो भले ही तुम न मरो, अस्थायी रूप से मृत्यु की मुश्किल से बचने का प्रबंध कर लो, तो भी परमेश्वर और सत्य के प्रति सच्ची समझ, स्वीकार्यता और समर्पण न होने से तुम इस मामले में गवाही नहीं दे पाओगे, और इसका अंतिम परिणाम यह होगा कि जब तुम उसी मसले का दोबारा सामना करोगे, तब भी यह तुम्हारे लिए एक बड़ी परीक्षा बना रहेगा। तुम्हारे लिए अब भी परमेश्वर के साथ विश्वासघात कर गिर पड़ने की संभावना होगी, और बेशक तुम्हारे लिए यह खतरनाक चीज होगी। इसलिए, अगर तुम फिलहाल रोग या मृत्यु का सचमुच सामना कर रहे हो, तो मैं बता दूँ, सत्य को खोज कर इस मामले को जड़ से मिटा देने के लिए अभी इस व्यावहारिक स्थिति का फायदा उठाना बेहतर है, बजाय इसके कि मृत्यु के सचमुच एकाएक आ जाने की प्रतीक्षा करो, खोया हुआ, विकल और बेसहारा महसूस करो जिससे तुम ऐसी चीजें करो कि तुम्हें जीवन भर पछताना पड़े। अगर तुम ऐसे काम करते हो जिनके लिए तुम्हें खेद और पछतावा होता है, तो यह तुम्हें विनाश की ओर बढ़ा सकता है। इसलिए, मसला चाहे जो भी हो, तुम्हें हमेशा उस विषय की समझ के साथ और जो सत्य तुम्हें समझने चाहिए, उनके साथ ही अपना प्रवेश प्रारंभ करना चाहिए। अगर तुम रोग जैसी चीजों को लेकर निरंतर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हो, और ऐसी नकारात्मक भावनाओं में घिरे रहते हो, तो तुम्हें तुरंत सत्य की खोज शुरू कर देनी चाहिए, और जल्द-से-जल्द इन समस्याओं को दूर करना चाहिए।
—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4)
लोग अपनी मृत्यु से निपटना नहीं जानते, और न ही सार्थक तरीके से जीना जानते हैं। तो चलो अब हम लोगों की मृत्यु से निपटने को लेकर परमेश्वर के रवैये को देखते हैं। चाहे कर्तव्य निर्वहन का कोई भी पहलू हो, लोगों के लिए अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में परमेश्वर का लक्ष्य सत्य को समझना, उसे अभ्यास में लाना, अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करना, एक सामान्य मनुष्य की छवि को जीना, और सीधे मृत्यु की ओर भागने के बजाय उद्धार प्राप्त करने के मानक तक पहुँचना होता है। कुछ लोगों को गंभीर बीमारी या कैंसर हो जाता है और वे सोचते हैं, “परमेश्वर मुझसे मरने और अपना जीवन त्यागने के लिए कह रहा है, तो मैं ऐसा ही करूँगा!” वास्तव में परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा, न ही उसके मन में ऐसा कोई विचार आया। यह सिर्फ लोगों की गलतफहमी है। तो परमेश्वर क्या चाहता है? हरेक व्यक्ति कुछ वर्षों तक जीता है, लेकिन उनका जीवनकाल अलग-अलग होता है। हरेक इंसान तभी मरता है जब परमेश्वर इसे निर्धारित करता है, और यह सही समय और सही स्थान पर होता है। यह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। वह ऐसा उस व्यक्ति के जीवनकाल और उसकी मृत्यु के निर्धारित स्थान और तरीके के अनुसार करता है, न कि किसी को मनमाने तरीके से मरने देता है। परमेश्वर किसी व्यक्ति के जीवन को बहुत महत्वपूर्ण मानता है, वह उसकी मृत्यु और उसके भौतिक जीवन के अंत को भी बहुत महत्वपूर्ण मानता है। यह सब परमेश्वर द्वारा निर्धारित है। इस दृष्टिकोण से देखने पर चाहे परमेश्वर लोगों से अपने कर्तव्यों का पालन करने या उसका अनुसरण करने की अपेक्षा करता हो या नहीं, वह लोगों से मृत्यु की ओर तेजी से भागने के लिए तो नहीं ही कहता। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि परमेश्वर तुमसे यह अपेक्षा नहीं करता कि तुम अपना कर्तव्य निभाने या परमेश्वर के लिए खुद को खपाने या उसके आदेश की खातिर किसी भी समय अपना जीवन त्यागने के लिए तैयार रहो। तुम्हें ऐसी तैयारी करने, ऐसी मानसिकता रखने, और यकीनन इस तरह से योजना बनाने या सोचने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि परमेश्वर तुम्हारी जान नहीं लेना चाहता। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? जाहिर है कि तुम्हारा जीवन परमेश्वर का है, उसी ने ही इसे तुम्हें दिया है, तो वह इसे वापस क्यों लेना चाहेगा? क्या तुम्हारा जीवन मूल्यवान है? परमेश्वर के दृष्टिकोण से सवाल इसके मूल्यवान होने या न होने का नहीं, बल्कि सवाल सिर्फ परमेश्वर की प्रबंधन योजना में तुम्हारी भूमिका का है। जहाँ तक तुम्हारे जीवन का सवाल है, यदि परमेश्वर इसे छीनना चाहता, तो वह इसे किसी भी समय, किसी भी स्थान पर और किसी भी पल छीन सकता था। इसलिए किसी भी व्यक्ति का जीवन उसके लिए महत्वपूर्ण है, और उसके कर्तव्यों, दायित्वों और जिम्मेदारियों के साथ-साथ परमेश्वर के आदेश के लिए भी महत्वपूर्ण है। बेशक यह परमेश्वर की संपूर्ण प्रबंधन योजना में उनकी भूमिका के लिए भी महत्वपूर्ण है। भले ही यह महत्वपूर्ण है, पर परमेश्वर को तुम्हारा जीवन छीनने की कोई जरूरत नहीं। क्यों? जब तुमसे तुम्हारा जीवन छीन लिया जाता है, तो तुम एक मृत व्यक्ति बन जाते हो, और तुम्हारा कोई इस्तेमाल नहीं रहता। केवल जब तुम जीवित रहते हो, उस मानव जाति के बीच होते हो जिस पर परमेश्वर शासन करता है, तभी तुम वह भूमिका निभा सकोगे जो तुम्हें इस जीवन में निभानी चाहिए, और उन जिम्मेदारियों, दायित्वों और कर्तव्यों को भी पूरा कर पाओगे जो तुम्हें इस जीवन में पूरे करने हैं। इस तरह जीवित रहकर ही तुम्हारा जीवन मूल्यवान हो सकता है और उसके मूल्य का सही उपयोग हो सकता है। तो “परमेश्वर के लिए मरना” या “परमेश्वर के कार्य के लिए अपना जीवन त्यागना” जैसी बातों को लापरवाही से मत मत दोहराओ, न ही उन्हें अपने मन में या अपने दिल की गहराइयों में रखो; यह अनावश्यक है। जब कोई व्यक्ति लगातार परमेश्वर की खातिर मरना और अपने कर्तव्य के लिए खुद को अर्पित करना और अपना जीवन त्यागना चाहता है, तो यह सबसे घटिया, बेकार और घृणित बात होती है। क्यों? यदि तुम्हारा जीवन समाप्त हो जाएगा, और तुम देह में नहीं रहोगे, तो तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य कैसे पूरा कर पाओगे? यदि सभी लोग मर गए तो परमेश्वर अपने कार्य के जरिए किसे बचाएगा? यदि ऐसे मनुष्य ही नहीं होंगे जिन्हें बचाने की आवश्यकता है, तो परमेश्वर की प्रबंधन योजना का कार्यान्वयन कैसे होगा? क्या मानव जाति को बचाने का परमेश्वर का कार्य अभी भी अस्तित्व में रहेगा? क्या यह तब भी जारी रहेगा? इन पहलुओं से गौर करें, तो क्या लोगों के लिए अपने शरीर की अच्छी देखभाल करना और स्वस्थ जीवन जीना महत्वपूर्ण बात नहीं है? क्या यह सार्थक नहीं है? यह यकीनन सार्थक है और लोगों को ऐसा ही करना चाहिए। जहाँ तक उन बेवकूफों की बात है जो लापरवाही से कहते हैं, “यदि बद से बदतर समय आया, तो मैं परमेश्वर के लिए जान दे दूँगा,” और जो लापरवाही से मुत्यु को महत्वहीन बना सकते हैं, अपना जीवन त्याग सकते हैं, अपने शरीर को हानि पहुँचा सकते हैं, वे किस तरह के लोग हैं? क्या वे विद्रोही लोग हैं? (हाँ।) ये सबसे विद्रोही लोग हैं, और इनका तिरस्कार कर इन्हें ठुकरा देना चाहिए। जब कोई व्यक्ति लापरवाही से यह कह पाता है कि वह परमेश्वर के लिए जान दे देगा, तो हो सकता है वह बिना सोचे अपना जीवन समाप्त करने, अपना कर्तव्य छोड़ने, परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए आदेश को छोड़ने, और अपने भीतर परमेश्वर के वचनों को पूरा नहीं होने देने के बारे में सोच रहा है। क्या यह चीजों को करने का मूर्खतापूर्ण तरीका नहीं है? तुम लापरवाही से और आसानी से अपना जीवन त्यागकर यह कह सकते हो कि तुम इसे परमेश्वर को अर्पित करना चाहते हो, लेकिन क्या परमेश्वर को तुमसे ऐसा करवाने की जरूरत है? तुम्हारा जीवन परमेश्वर का ही है, और वह जब चाहे इसे छीन सकता है, तो फिर उसे अपना जीवन अर्पित करने का क्या मतलब? यदि तुम इसे अर्पित नहीं करते हो, मगर परमेश्वर को इसकी जरूरत है, तो क्या वह इसके लिए तुमसे विनती करेगा? क्या उसे इस बारे में तुमसे बात करनी होगी? नहीं, वह ऐसा नहीं करेगा। लेकिन परमेश्वर तुम्हारा जीवन किसलिए चाहेगा? यदि परमेश्वर ने तुम्हारा जीवन वापस ले लिया, तो तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा पाओगे, और परमेश्वर की प्रबंधन योजना से एक व्यक्ति गायब हो जाएगा। क्या वह इससे खुश और संतुष्ट होगा? वास्तव में इससे कौन खुश और संतुष्ट होगा? (शैतान।) अपना जीवन त्यागकर तुम क्या हासिल कर पाओगे? और तुम्हारा जीवन छीनकर परमेश्वर को क्या हासिल हो पाएगा? यदि तुम बचाए जाने का अवसर खो देते हो, तो इससे परमेश्वर का फायदा होगा या नुकसान? (नुकसान।) परमेश्वर के लिए यह कोई फायदा नहीं बल्कि नुकसान है। परमेश्वर तुम्हें एक सृजित प्राणी के रूप में, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने देने के लिए, एक सृजित प्राणी का जीवन जीने और इसका स्थान ग्रहण करने देता है, और ऐसा करके परमेश्वर तुम्हें सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने, उसके प्रति समर्पित होने, उसकी इच्छा समझने और उसे जानने, उसकी इच्छा के अनुसार चलने, मानव जाति को बचाने के उसके कार्य को पूरा करने में उसके साथ सहयोग करने और अंत तक उसका अनुसरण करने की अनुमति देता है। यही धार्मिकता है और यही तुम्हारे जीवन के अस्तित्व का मूल्य और अर्थ है। यदि तुम्हारा जीवन इसके लिए है, और तुम इसके लिए ही स्वस्थ जीवन जीते हो, तो यह सबसे सार्थक चीज है, और जहाँ तक परमेश्वर की बात है, यही सच्चा समर्पण और सहयोग है—उसके लिए यह सबसे संतोषजनक चीज है। परमेश्वर अपनी ताड़ना और न्याय के जरिए देह में रहने वाले सृजित प्राणी को अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागते, शैतान द्वारा उसमें डाले गए अनगिनत भ्रामक विचारों को ठुकराते, परमेश्वर के सत्यों और अपेक्षाओं को स्वीकारते, सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के प्रति पूरी तरह समर्पित होते, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते, और एक सच्चा सृजित प्राणी बनने में सक्षम देखना चाहता है। परमेश्वर यही देखना चाहता है, और यही मानव जीवन के अस्तित्व का मूल्य और अर्थ है। इसलिए किसी भी सृजित प्राणी के लिए मृत्यु अंतिम मंजिल नहीं है। मानव जीवन के अस्तित्व का मूल्य और अर्थ मरना नहीं है, बल्कि परमेश्वर के लिए जीना है, परमेश्वर के लिए और अपने कर्तव्य के लिए जीवित रहना है, एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए जीवित रहना है, परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चलना और शैतान को नीचा दिखाना है। यही एक सृजित प्राणी के जीवन का मूल्य है, और यही उसके जीवन का अर्थ भी है।
जहाँ तक लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं का संबंध है, परमेश्वर लोगों के जीवन और मृत्यु के साथ जिस तरह का व्यवहार करता है वह परंपरागत संस्कृति में “कार्य में मेहनत से जुटो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” वाली कहावत से पूरी तरह अलग है। शैतान लगातार चाहता है कि लोग मर जाएँ। लोगों को जीवित देखकर उसे असहज महसूस होता है, और वह लगातार यही सोचता रहता है कि उनकी जान कैसे ली जाए। एक बार जब लोग शैतान की परंपरागत संस्कृति के भ्रामक विचारों को स्वीकार लेते हैं, तो वे केवल अपने देश और राष्ट्र के लिए, या अपने करियर के लिए, प्यार के लिए, या अपने परिवार के लिए अपना जीवन त्याग देना चाहते हैं। वे लगातार अपने जीवन का तिरस्कार करते हैं, कहीं भी और किसी भी समय मरने और अपना जीवन त्यागने के लिए तैयार रहते हैं, और परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए जीवन को सबसे कीमती चीज और ऐसी चीज नहीं मानते जिसे संजोया जाना चाहिए। परमेश्वर द्वारा उन्हें मिले जीवन को जीते हुए भी वे अपने जीवनकाल के दौरान अपने कर्तव्यों और दायित्वों को पूरा करने में असमर्थ रहते हैं, बल्कि वे शैतान की भ्रांतियों और निरर्थक बातों को स्वीकारते हैं, हमेशा अपने कार्य के लिए मेहनत से जुटने और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने में लगे रहते हैं और किसी भी समय परमेश्वर की खातिर मरने के लिए खुद को तैयार करते रहते हैं। तथ्य यह है कि यदि तुम वाकई मर जाते हो, तो यह परमेश्वर के लिए नहीं बल्कि शैतान के लिए होगा, और परमेश्वर तुम्हें याद नहीं रखेगा। क्योंकि केवल जीवित व्यक्ति ही परमेश्वर का गुणगान कर सकते हैं और उसकी गवाही दे सकते हैं, और केवल जीवित व्यक्ति ही सृजित प्राणियों का उचित स्थान ग्रहण करके अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकते हैं, और इस तरह उन्हें कोई पछतावा नहीं होता, और वे शैतान को नीचा दिखाने में सक्षम होते हैं, और सृष्टिकर्ता के चमत्कारिक कर्मों और उसकी संप्रभुता की गवाही देते हैं—केवल जीवित लोग ही ये काम कर सकते हैं। यदि तुम्हारे पास जीवन ही नहीं है, तो इन सबका कोई अस्तित्व ही नहीं होगा। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ।) इसलिए नैतिक आचरण की इस कहावत को सामने रखकर, “कार्य में मेहनत से जुटो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो,” शैतान निस्संदेह मानव जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहा है और उसे रौंद रहा है। शैतान मानव जीवन का सम्मान नहीं करता, बल्कि लोगों से “कार्य में मेहनत से जुटो और मरते दम तक सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करो” जैसे विचारों को मनवाकर उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करता है। लोग ऐसे विचारों के अनुसार जीते हैं, और जीवन को नहीं संजोते या उसे मूल्यवान नहीं मानते हैं, तो वे लापरवाही से अपना जीवन त्याग देते हैं, जो परमेश्वर द्वारा लोगों को दी गई सबसे कीमती चीजों में से एक है। यह छल-कपट और अनैतिक बात है। जब तक परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए निर्धारित समय-सीमा पूरी नहीं होती, तब तक तुम्हें महत्वहीन ढंग से यूँ ही अपना जीवन त्यागने की बात नहीं करनी चाहिए। जब तक तुम में साँस बाकी है, तब तक हार मत मानो, अपना कर्तव्य मत त्यागो, और परमेश्वर का तुम्हें सौंपे गया दायित्व और आदेश छोड़कर मत भागो। क्योंकि किसी भी सृजित प्राणी का जीवन केवल सृष्टिकर्ता के लिए और केवल उसकी संप्रभुता, आयोजन और व्यवस्थाओं के लिए होता है, और यह केवल सृष्टिकर्ता की गवाही देने और मानव जाति को बचाने के उसके कार्य को पूरा करने और उसका मूल्य चुकाने के लिए ही अस्तित्व में होता है। तुम देख सकते हो कि मानव जीवन के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण शैतान के नजरिये से बिल्कुल अलग है। तो वास्तव में मानव जीवन को कौन संजोता है? (परमेश्वर।) केवल परमेश्वर ऐसा करता है, जबकि लोग खुद अपने जीवन को संजोना नहीं जानते। केवल परमेश्वर ही मानव जीवन को संजोता है। हालाँकि मनुष्य प्यारे या प्यार करने के योग्य नहीं हैं, और वे गंदगी, विद्रोहीपन और शैतान द्वारा उनमें डाले गए कई प्रकार के बेतुके विचारों और नजरियों से भरे हुए हैं, और भले ही वे शैतान को आदर्श मानते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, यहाँ तक कि इसके लिए परमेश्वर का विरोध भी करते हैं, फिर भी क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर ने सृजित किया है, और वह उन्हें साँस और जीवन देता है, केवल वही मानव जीवन को संजोता है, केवल वही लोगों से प्रेम करता है, और केवल वही मानव जाति की निरंतर देखभाल करता और उसे संजोता है। परमेश्वर मनुष्यों को संजोता है—उनके शरीरों को नहीं बल्कि उनके जीवन को संजोता है, क्योंकि केवल वे मनुष्य जिन्हें परमेश्वर ने जीवन दिया है, आखिर में उसकी आराधना करने वाले सृजित प्राणी बन सकते हैं और उसके लिए गवाही दे सकते हैं। लोगों और इन सृजित प्राणियों के लिए परमेश्वर के पास कार्य, आदेश और अपेक्षाएँ होती हैं। इसलिए परमेश्वर उनके जीवन को संजोता और बचाकर रखता है। यह सत्य है। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) तो एक बार जब लोग सृष्टिकर्ता परमेश्वर की इच्छा को समझ जाते हैं, तो उन्हें अपने शारीरिक जीवन के साथ कैसा व्यवहार करना है, और अपना जीवन जीने के नियमों और जरूरतों से कैसे निपटना है, इसके लिए सिद्धांत नहीं होने चाहिए? ये सिद्धांत किस पर आधारित हैं? वे परमेश्वर के वचनों पर आधारित हैं। इनका अभ्यास करने के सिद्धांत क्या हैं? निष्क्रिय रूप में लोगों को शैतान द्वारा उनमें डाले गए कई प्रकार के भ्रामक विचारों को त्याग देना चाहिए, शैतान के विचारों की भ्रामकता को उजागर करना और पहचानना चाहिए—जैसे कि यह कहावत “कार्य में मेहनत से जुटना और अपने मरते दम तक अपनी पूरी कोशिश करना”—जो लोगों को शक्तिहीन कर देती है, उन्हें नुकसान पहुँचाती और सीमित करती है, उन्हें इन विचारों को त्याग देना चाहिए; इसके अलावा सक्रिय रूप में उन्हें सटीक रूप से समझना चाहिए कि मानव जाति के लिए सृष्टिकर्ता परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, और परमेश्वर के वचनों को अपने हर कार्य का आधार बनाना चाहिए। इस तरह लोग भटकाव के बिना सही तरीके से अभ्यास करने में सक्षम होंगे, और सही मायनों में सत्य का अनुसरण कर सकेंगे।
—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (12)
यदि कोई व्यक्ति मूल्यवान और सार्थक जीवन जीना चाहता है, तो उसे सत्य का अनुसरण करना चाहिए। सबसे पहले, जीवन के प्रति उसका नजरिया सही होना चाहिए, साथ ही, अपने जीवन में और जीवन पथ में सामने आने वाले विभिन्न बड़े-छोटे मसलों पर उसके विचार और दृष्टिकोण भी सही होने चाहिए। उसे अपने जीवनकाल के दौरान या अपने दैनिक जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं को चरम या कट्टरपंथी विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग करके देखने के बजाय इन सभी मसलों को सही परिप्रेक्ष्य और रुख से देखना चाहिए। बेशक, उसे इन चीजों को सांसारिक परिप्रेक्ष्य से भी नहीं देखना चाहिए, बल्कि ऐसे नकारात्मक और गलत विचारों और दृष्टिकोणों को त्याग देना चाहिए। ... उदाहरण के लिए, मान लो कि किसी व्यक्ति को कैंसर हो गया है और वह मरने से डरता है। वह मृत्यु को स्वीकारने से इनकार करता है और लगातार परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि उसे मृत्यु से बचाए और उसका जीवन कुछ और वर्षों के लिए बढ़ा दे। वह हर गुजरते दिन के साथ, दुख, चिंता और व्यग्रता की नकारात्मक भावनाओं को साथ लेकर चलता है; भले ही वह कुछ और वर्षों तक जीवित रहने, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने और मृत्यु को टालने से मिलने वाली खुशी का अनुभव करने में कामयाब होता है। वह खुद को भाग्यशाली मानता है और विश्वास करता है कि परमेश्वर बहुत अच्छा है, वह वाकई शानदार है। अपने प्रयासों, बार-बार की गई विनती, खुद से प्रेम और खुद की देखभाल से, वह मृत्यु से बच जाता है, और अंत में, अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीने लगता है। वह परमेश्वर के संरक्षण, अनुग्रह, प्रेम और दया के लिए आभार व्यक्त करता है। हर दिन वह परमेश्वर का धन्यवाद करता है और इसके लिए स्तुति करने उसके समक्ष आता है। वह भजन गाते समय और परमेश्वर के वचनों पर विचार करते समय अक्सर रो पड़ता है और सोचता है कि परमेश्वर कितना अद्भुत है : “वाकई जीवन और मृत्यु पर परमेश्वर का नियंत्रण है; उसने मुझे जीने का अवसर दिया।” हर दिन अपने कर्तव्य को पूरा करते समय, वह अक्सर इस बात पर विचार करता है कि दुख को पहले और सुख को आखिर में कैसे रखा जाए, और हर चीज में दूसरों से बेहतर कैसे किया जाए, ताकि वह अपना जीवन सुरक्षित रख सके और मृत्यु से बच सके—अंत में वह कुछ और वर्षों तक जीवित रहता है और काफी संतुष्ट और खुश महसूस करता है। लेकिन फिर एक दिन, उसकी बीमारी बढ़ जाती है, और डॉक्टर उसे आखिरी चेतावनी देते हुए अंत के लिए तैयार रहने को कहता है। अब वह मृत्यु का सामना कर रहा है; वास्तव में वह मौत की कगार पर है। उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? उसका सबसे बड़ा डर अब सामने आ गया है, उसकी सबसे बड़ी चिंता असलियत बन गई है। वो दिन आ गया है जिसे वह कभी देखना या अनुभव करना नहीं चाहता था। एक पल में उसका दिल बैठ जाता है और उसकी मनोदशा बिगड़ जाती है। उसका मन अब अपना कर्तव्य निभाने का नहीं करता है, और उसके पास परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए कोई शब्द भी नहीं बचे हैं। वह अब परमेश्वर की स्तुति नहीं करना चाहता, न उसके कोई वचन सुनना चाहता है और न ही चाहता है कि वो कोई सत्य प्रदान करे। वह अब यह विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर प्रेम, धार्मिकता, दया और उदारता का नाम है। साथ ही, उसे पछतावा भी होता है, “इतने बरसों तक मैं अच्छा खाना खाना और खाली समय में घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करना भूल गया। अब मेरे पास वो सब करने का मौका ही नहीं है।” उसका मन शिकायतों और विलापों से भर जाता है, और उसका दिल पीड़ा के साथ-साथ परमेश्वर के लिए शिकायतों, नाराजगी और इनकार से भर जाता है। फिर उसी पछतावे के साथ वह इस दुनिया से चला जाता है। उसके जाने से पहले, क्या परमेश्वर उसके दिल में मौजूद था? क्या उसे अभी भी परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास था? (वह अब विश्वास नहीं करता था।) यह परिणाम कैसे आया? क्या इसकी शुरुआत उन गलत दृष्टिकोणों से नहीं हुई जो वह शुरू से ही जीवन और मृत्यु के प्रति रखता था? (हाँ।) उसने न केवल शुरु से ही गलत विचार और दृष्टिकोण रखे, बल्कि इससे भी गंभीर बात यह है कि इसके बाद भी वह अपने विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार ही चलता रहा और उनके अनुरूप ही बना रहा। उसने कभी हार नहीं मानी और पीछे मुड़कर देखे बिना बड़ी तेजी से गलत रास्ते पर आगे बढ़ता रहा। नतीजतन, आखिरकार, परमेश्वर से उसका विश्वास उठ गया—इस प्रकार उसकी आस्था की यात्रा समाप्त हो गई और उसका जीवन भी समाप्त हो गया। क्या उसे सत्य प्राप्त हुआ? क्या परमेश्वर ने उसे प्राप्त किया? (नहीं।) जब उसकी मृत्यु हुई, तो मृत्यु के प्रति जिन परिप्रेक्ष्यों और रवैयों पर वह अड़ा हुआ था, क्या वे बदल गए? (नहीं।) वह आराम, खुशी और शांति से मरा या फिर अफसोस, अनिच्छा और कड़वाहट के साथ? (वह अनिच्छा और कड़वाहट के साथ मरा।) उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। उसने सत्य प्राप्त नहीं किया और न ही परमेश्वर ने उसे प्राप्त किया। तो क्या तुम लोग यह कहोगे कि ऐसे व्यक्ति को उद्धार प्राप्त हुआ है? (नहीं।) उसे बचाया नहीं गया है। अपनी मृत्यु से पहले, क्या उसने बहुत भागदौड़ नहीं की और काफी हद तक खुद को नहीं खपाया? (हाँ, बिल्कुल।) दूसरों की तरह, वह भी परमेश्वर में विश्वास रखता और अपना कर्तव्य निभाता था, बाहरी तौर पर, उसके और किसी और के बीच कोई अंतर नहीं मालूम पड़ता था। जब उसने बीमारी और मृत्यु का अनुभव किया, तो उसने परमेश्वर से प्रार्थना की और तब भी अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा। वह उसी स्तर पर काम करता रहा, जिस पर पहले करता था। लेकिन, एक बात लोगों को समझनी और पहचाननी चाहिए : इस व्यक्ति के विचार और दृष्टिकोण लगातार नकारात्मक और गलत बने रहे। उसके कष्टों की सीमा चाहे जो भी रही हो या अपना कर्तव्य निभाते हुए उसने जो भी कीमत चुकाई हो, उसने अपने अनुसरण में इन गलत विचारों और दृष्टिकोणों को बरकरार रखा। वह लगातार उनके काबू में रहा और अपनी नकारात्मक भावनाओं को अपने कर्तव्य में लाता रहा, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, जीवित रहने के बदले उसने परमेश्वर के साथ अपने कर्तव्य निर्वहन का सौदा करना चाहा। उसके अनुसरण का लक्ष्य सत्य समझना या उसे प्राप्त करना नहीं था, न ही उसका लक्ष्य परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना था। उसके अनुसरण का लक्ष्य इसके ठीक विपरीत था। वह अपनी इच्छा और जरूरतों के अनुसार जीना चाहता था, जिसका वह अनुसरण कर रहा था उसे पाना चाहता था। वह अपने भाग्य और यहाँ तक कि अपने जीवन और मृत्यु को भी खुद ही व्यवस्थित और आयोजित करना चाहता था। और इसलिए, रास्ता खत्म होने पर उसका परिणाम यह हुआ कि उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। उसे सत्य प्राप्त नहीं हुआ और आखिर में उसने परमेश्वर को नकार दिया और उसमें विश्वास खो दिया। यहाँ तक कि जब मृत्यु निकट आ गई, तब भी वो यह समझने में असफल रहा कि लोगों को कैसे जीना चाहिए और एक सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति कैसा व्यवहार करना चाहिए। यही ऐसे लोगों की सबसे दयनीय और दुखद बात है। मृत्यु की कगार पर भी, वो इस बात को समझने में असफल रहा कि व्यक्ति के पूरे जीवन में, सब-कुछ सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और व्यवस्था के अधीन है। यदि सृष्टिकर्ता चाहता है कि तुम जीवित रहो, तो भले ही तुम किसी घातक बीमारी से पीड़ित हो, तब भी तुम नहीं मरोगे। यदि सृष्टिकर्ता तुम्हारी मृत्यु चाहता है, तो भले ही तुम जवान, स्वस्थ और मजबूत हो, जब तुम्हारा समय आएगा, तो तुम्हें मरना ही होगा। सब-कुछ परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के अधीन है, यह परमेश्वर का अधिकार है, और कोई भी इससे ऊपर नहीं उठ सकता। वह इतने सरल तथ्य को समझने में असफल रहा—क्या यह दयनीय स्थिति नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर में विश्वास रखने, सभाओं में भाग लेने, धर्मोपदेश सुनने और अपना कर्तव्य पूरा करने और परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखने के बाद भी, उसने बार-बार इस बात को नकारा कि जीवन, मृत्यु और मनुष्य का भाग्य उसकी इच्छा के अनुसार नहीं चलता, बल्कि यह परमेश्वर के हाथों में है। कोई भी केवल इसलिए नहीं मरता क्योंकि वह मरना चाहता है, और कोई भी केवल इसलिए जीवित नहीं रहता क्योंकि वह जीना चाहता है और मृत्यु से डरता है। वह इतने सरल तथ्य को समझने में विफल रहा, आसन्न मृत्यु का सामना करने पर भी वह इसे नहीं समझ पाया और यह भी नहीं जान पाया कि किसी व्यक्ति का जीवन और मृत्यु उसके हिसाब से निर्धारित नहीं होते, बल्कि सृष्टिकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित होते हैं। क्या यह दुखद नहीं है? (दुखद है।)
—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6)
यदि तुम यह स्वीकारते हो कि तुम सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें सुसमाचार फैलाने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करने और अपना कर्तव्य समुचित रूप से निभाने की खातिर कष्ट भुगतने और कीमत चुकाने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। यह कीमत कोई शारीरिक बीमारी या कठिनाई या बड़े लाल अजगर के उत्पीड़न या सांसारिक लोगों की गलतफहमियाँ, और साथ ही वे क्लेश सहना भी हो सकती है जिनसे सुसमाचार फैलाते समय व्यक्ति गुजरता है : जैसे विश्वासघात किया जाना, पिटाई और डाँट-फटकार किया जाना; निंदा किया जाना—यहाँ तक कि घेरकर हमला किया जाना और मृत्यु के खतरे में डाल दिया जाना। सुसमाचार फैलाने के दौरान, यह संभव है कि परमेश्वर का कार्य पूरा होने से पहले ही तुम्हारी मृत्यु हो जाए, और तुम परमेश्वर की महिमा का दिन देखने के लिए जीवित न बचो। तुम्हें इसके लिए तैयार रहना चाहिए। इसका उद्देश्य तुम लोगों को भयभीत करना नहीं है; यह सच्चाई है। अब जब मैंने यह स्पष्ट कर दिया है, और तुमने इसे समझ लिया है, यदि अब भी तुम लोगों की यही आकांक्षा है और तुम सुनिश्चित हो कि यह बदलेगी नहीं और तुम मृत्यु तक वफादार रहोगे, तो यह सिद्ध करता है कि तुम्हारा एक निश्चित आध्यात्मिक कद है। यह मानकर मत चलो कि धार्मिक स्वतंत्रता और मानव अधिकारों वाले इन समुद्रपार राष्ट्रों में सुसमाचार का प्रसार खतरे से खाली होगा, और तुम जो करोगे वह सब कुछ सुचारू ढंग से होता जाएगा, यह कि इन सभी को परमेश्वर की आशीष मिलेगी और उसके महान सामर्थ्य और अधिकार का साथ मिलेगा। यह मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं की एक बात है। फरीसी भी परमेश्वर में विश्वास करते थे, फिर भी उन्होंने देहधारी परमेश्वर को सलीब पर चढ़ा दिया। तो मौजूदा धार्मिक संसार देहधारी परमेश्वर के साथ कौन-सी बुरी चीजें करने में सक्षम है? उन्होंने बहुत-सी बुरी चीजें की हैं—परमेश्वर की आलोचना करना, परमेश्वर की निंदा करना, परमेश्वर का तिरस्कार करना—ऐसी कोई भी बुरी चीज नहीं है जो वे करने में सक्षम नहीं हैं। भूलो मत कि जिन्होंने प्रभु यीशु को सलीब पर चढ़ाकर मार डाला, वे विश्वासी थे। केवल उन्हीं के पास इस प्रकार का काम करने का मौका था। अविश्वासी इन चीजों की परवाह नहीं करते थे। ये विश्वासी ही थे जिन्होंने प्रभु यीशु को सलीब पर चढ़ाकर मार डालने के लिए सरकार के साथ साँठ-गाँठ की थी। इतना ही नहीं, प्रभु यीशु के उन अनुयायियों की मौत कैसे हुई? उनमें ऐसे अनुयायी थे जिन्हें पत्थरों से मार डाला गया, घोड़े से बाँध कर घसीटा गया, सूली पर उलटा लटका दिया गया, पाँच घोड़ों से खिंचवाकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए—हर प्रकार की मौत उन पर टूटी। उनकी मृत्यु का कारण क्या था? क्या उन्हें उनके अपराधों के लिए कानूनी तौर पर फाँसी दी गई थी? नहीं। उनकी भर्त्सना की गई, पीटा गया, डाँटा-फटकारा गया और मार डाला गया, क्योंकि उन्होंने प्रभु का सुसमाचार फैलाया था और उन्हें इस संसार के लोगों ने ठुकरा दिया था—इस तरह वे शहीद हुए। हम उन शहीदों के निर्णायक अंत की, या उनके व्यवहार की परमेश्वर की परिभाषा की बात न करें, बल्कि यह पूछें : जब उनका अंत आया, तब जिन तरीकों से उनके जीवन का अंत हुआ, क्या वह मानव धारणाओं के अनुरूप था? (नहीं, यह ऐसा नहीं था।) मानव धारणाओं के परिप्रेक्ष्य से, उन्होंने परमेश्वर के कार्य का प्रसार करने की इतनी बड़ी कीमत चुकाई, लेकिन अंत में इन लोगों को शैतान द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। यह मानव धारणाओं से मेल नहीं खाता, लेकिन उनके साथ ठीक यही हुआ। परमेश्वर ने ऐसा होने दिया। इसमें कौन-सा सत्य खोजा जा सकता है? क्या परमेश्वर द्वारा उन्हें इस प्रकार मरने देना उसका श्राप और भर्त्सना थी, या यह उसकी योजना और आशीष था? यह दोनों ही नहीं था। यह क्या था? अब लोग अत्यधिक मानसिक व्यथा के साथ उनकी मृत्यु पर विचार करते हैं, किन्तु चीजें इसी प्रकार थीं। परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग इसी तरीके से मारे गए, इसे कैसे समझाया जाए? जब हम इस विषय का जिक्र करें, तो तुम लोग स्वयं को उनकी स्थिति में रखो, क्या तब तुम लोगों के हृदय उदास होते हैं, और क्या तुम भीतर ही भीतर पीड़ा का अनुभव करते हो? तुम सोचते हो, “इन लोगों ने परमेश्वर का सुसमाचार फैलाने का अपना कर्तव्य निभाया, इन्हें अच्छा इंसान माना जाना चाहिए, तो फिर उनका अंत, और उनका परिणाम ऐसा कैसे हो सकता है?” वास्तव में, उनके शरीर इसी तरह मृत्यु को प्राप्त हुए और चल बसे; यह मानव संसार से प्रस्थान का उनका अपना माध्यम था, तो भी इसका यह अर्थ नहीं था कि उनका परिणाम भी वैसा ही था। उनकी मृत्यु और प्रस्थान का साधन चाहे जो रहा हो, या यह चाहे जैसे भी हुआ हो, यह वैसा नहीं था जैसे परमेश्वर ने उनके जीवन को, उन सृजित प्राणियों के अंतिम परिणाम को परिभाषित किया था। तुम्हें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए। इसके विपरीत, उन्होंने इस संसार की भर्त्सना करने और परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए ठीक उन्हीं साधनों का उपयोग किया। इन सृजित प्राणियों ने अपने सर्वाधिक बहुमूल्य जीवन का उपयोग किया—उन्होंने परमेश्वर के कर्मों की गवाही देने के लिए अपने जीवन के अंतिम क्षण का उपयोग किया, परमेश्वर के महान सामर्थ्य की गवाही देने के लिए उपयोग किया, और शैतान तथा इस संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए किया कि परमेश्वर के कर्म सही हैं, प्रभु यीशु परमेश्वर है, वह प्रभु है, और परमेश्वर का देहधारी शरीर है। यहां तक कि अपने जीवन के बिल्कुल अंतिम क्षण तक उन्होंने प्रभु यीशु का नाम कभी नहीं छोड़ा। क्या यह इस संसार के ऊपर न्याय का एक रूप नहीं था? उन्होंने अपने जीवन का उपयोग किया, संसार के समक्ष यह घोषित करने के लिए, मानव प्राणियों के समक्ष यह पुष्टि करने के लिए कि प्रभु यीशु प्रभु है, प्रभु यीशु मसीह है, वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है, कि समस्त मानवजाति के लिए उसने जो छुटकारे का कार्य किया, उसी के कारण मानवता जीवित है—यह सच्चाई कभी बदलने वाली नहीं है। जो लोग प्रभु यीशु के सुसमाचार को फैलाने के लिए शहीद हुए, उन्होंने किस सीमा तक अपने कर्तव्य का पालन किया? क्या यह अंतिम सीमा तक किया गया था? यह अंतिम सीमा कैसे परिलक्षित होती थी? (उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया।) यह सही है, उन्होंने अपने जीवन से कीमत चुकाई। परिवार, सम्पदा, और इस जीवन की भौतिक वस्तुएँ, सभी बाहरी उपादान हैं; स्वयं से संबंधित एकमात्र चीज जीवन है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के लिए, जीवन सर्वाधिक सहेजने योग्य है, सर्वाधिक बहुमूल्य है, और असल में कहा जाए तो ये लोग मानव-जाति के प्रति परमेश्वर के प्रेम की पुष्टि और गवाही के रूप में, अपनी सर्वाधिक बहुमूल्य चीज अर्पित कर पाए, और वह चीज है—जीवन। अपनी मृत्यु के दिन तक उन्होंने परमेश्वर का नाम नहीं छोड़ा, न ही परमेश्वर के कार्य को नकारा, और उन्होंने जीवन के अपने अंतिम क्षणों का उपयोग इस तथ्य के अस्तित्व की गवाही देने के लिए किया—क्या यह गवाही का सर्वोच्च रूप नहीं है? यह अपना कर्तव्य निभाने का सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा है; अपना उत्तरदायित्व इसी तरह पूरा किया जाता है। जब शैतान ने उन्हें धमकाया और आतंकित किया, और अंत में, यहां तक कि जब उसने उनसे अपने जीवन की कीमत अदा करवाई, तब भी उन्होंने अपनी जिम्मेदारी नहीं छोड़ी। यह उनके कर्तव्य-निर्वहन की पराकाष्ठा है। इससे मेरा क्या आशय है? क्या मेरा आशय यह है कि तुम लोग भी परमेश्वर की गवाही देने और उसका सुसमाचार फैलाने के लिए इसी तरीके का उपयोग करो? तुम्हें हूबहू ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु तुम्हें समझना होगा कि यह तुम्हारा दायित्व है, यदि परमेश्वर ऐसा चाहे, तो तुम्हें इसे अपने बाध्यकारी कर्तव्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए। आज लोगों के मन में भय और चिंता व्याप्त है, किंतु ये अनुभूतियां किस काम की हैं? यदि परमेश्वर तुमसे ऐसा करने के लिए न कहे, तो इसके बारे में चिंता करने का क्या लाभ है? यदि परमेश्वर को तुमसे ऐसा कराना है, तो तुम्हें इस उत्तरदायित्व से न तो मुँह मोड़ना चाहिए और न ही इसे ठुकराना चाहिए। तुम्हें आगे बढ़कर सहयोग करना और निश्चिंत होकर इसे स्वीकारना चाहिए। मृत्यु चाहे जैसे हो, किंतु उन्हें शैतान के सामने, शैतान के हाथों में नहीं मरना चाहिए। यदि मरना ही है, तो उन्हें परमेश्वर के हाथों में मरना चाहिए। लोग परमेश्वर से आए हैं, और उन्हें परमेश्वर के पास ही लौटना है—यही समझ और प्रवृत्ति सृजित प्राणियों की होनी चाहिए। यही अंतिम सत्य है, जिसे सुसमाचार फैलाने और अपने कर्तव्य के निर्वहन में हर किसी को समझना चाहिए—देहधारी परमेश्वर द्वारा अपना कार्य करने और मानवजाति के उद्धार के सुसमाचार को फैलाने और उसकी गवाही देने के लिए इंसान को अपने जीवन की कीमत चुकानी ही होगी। यदि तुम्हारे मन में यह अभिलाषा है, यदि तुम इस तरह गवाही दे सकते हो, तो बहुत अच्छी बात है। यदि तुम्हारे मन में अभी तक इस प्रकार की अभिलाषा नहीं है, तो तुम्हें इतना तो करना ही चाहिए कि अपने सामने उपस्थित इस दायित्व और कर्तव्य को अच्छी तरह पूरा करो, और बाकी सब परमेश्वर को सौंप दो। शायद तब, ज्यों-ज्यों महीने और वर्ष बीतेंगे और तुम्हारे अनुभव और आयु में बढ़ोतरी होगी, और सत्य की तुम्हारी समझ गहरी होती जाएगी, तो तुम्हें एहसास होगा कि अपने जीवन के अंतिम पल तक भी, परमेश्वर के सुसमाचार को फैलाने के कार्य के लिए अपना जीवन न्योछावर कर देना तुम्हारा दायित्व और जिम्मेदारी है।
अब इन विषयों पर चर्चा शुरू करने का सही समय है क्योंकि राज्य के सुसमाचार का प्रसार शुरू हो चुका है। इससे पहले, व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग में, कुछ प्राचीन पैगंबरों और संतों ने सुसमाचार फैलाने में अपना जीवन न्योछावर कर दिया था, तो अंत के दिनों में पैदा हुए लोग भी इस मकसद के लिए अपना जीवन न्योछावर कर सकते हैं। यह कोई नई या अचानक हुई बात नहीं है, यह कोई अतिशय आवश्यकता भी नहीं है। यह वह कर्तव्य है जिसे सृजित प्राणियों को निभाना और पूरा करना चाहिए। यह सत्य है; यह सर्वोच्च सत्य है। अगर तुम सिर्फ यह नारा लगाते हो कि तुम परमेश्वर के लिए क्या करना चाहते हो, तुम अपना कर्तव्य कैसे पूरा करना चाहते हो, और तुम परमेश्वर के लिए खुद को कितना खपाना चाहते हो, तो यह बेकार है। जब वास्तविकता तुम्हारे सामने आएगी, जब तुमसे अपना जीवन बलिदान करने को कहा जाएगा, तो क्या तुम अंतिम क्षण में शिकायत करोगे, क्या तुम इच्छुक होगे, क्या तुम वास्तव में समर्पण करोगे? यह तुम्हारे आध्यात्मिक कद की परीक्षा है। अगर अपनी मृत्यु के क्षण में, तुम सहज हो, इच्छुक हो और बिना किसी शिकायत के समर्पण करते हो, अगर तुम्हें लगता है कि तुमने अंत तक अपनी जिम्मेदारियाँ, दायित्व, और कर्तव्य निभाए हैं, अगर तुम्हारा दिल आनंदित और शांत है—अगर तुम्हारी मृत्यु इस तरह होगी, तो परमेश्वर के लिए, तुम कभी नहीं मरोगे। बल्कि, तुम दूसरे लोक में और दूसरे रूप में रह रहे होगे। तुमने बस अपने जीने का तरीका बदल लिया होगा। तुम वास्तव में मरे तो बिल्कुल भी नहीं होगे। मनुष्य के हिसाब से, “यह व्यक्ति इतनी कम उम्र में चल बसा, कितने दुख की बात है!” मगर परमेश्वर की नजर में तुम न तो मरे हो, न ही दुख भोगने गए हो। इसके बजाय, तुम आशीष का आनंद लेने गए हो और परमेश्वर के करीब आए हो। क्योंकि, एक सृजित प्राणी के रूप में, तुम पहले ही परमेश्वर की नजरों में अपना कर्तव्य पर्याप्त ढंग से पूरा कर चुके हो, तो अब तुम्हारा काम पूरा हो गया है, परमेश्वर को अब सृजित प्राणियों के बीच इस कर्तव्य को निभाने के लिए तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर के लिए, तुम्हारे “जाने” को “जाना” नहीं कहा जाएगा, बल्कि तुम्हें “दूर लाया जाना,” “ले जाया जाना,” या “मार्ग दिखाना” कहा जाएगा, और यह एक अच्छी चीज है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सुसमाचार का प्रसार करना सभी विश्वासियों का गौरवपूर्ण कर्तव्य है
मानव धारणाओं के अनुसार, अच्छाई को पुरस्कार दिया जाता है और बुराई को दंड दिया जाता है, अच्छे लोगों को अच्छा प्रतिफल मिलता है और दुष्ट व्यक्तियों को बुराई का प्रतिफल मिलता है, और जो बुराई नहीं करते उन सभी को अच्छाई का प्रतिफल मिलता है और आशीष प्राप्त होता है। ऐसा लगेगा कि ऐसे सभी मामलों में जहाँ लोग दुष्ट नहीं हैं, उन्हें अच्छाई का प्रतिफल दिया जाना चाहिए; केवल यही परमेश्वर की धार्मिकता है। क्या यह लोगों की धारणा नहीं है? लेकिन अगर वे अच्छा प्रतिफल प्राप्त करने में असफल हो जाते हैं तो क्या? फिर क्या तुम कहोगे कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? उदाहरण के लिए, नूह के समय में, परमेश्वर ने नूह से कहा : “सब प्राणियों के अन्त करने का प्रश्न मेरे सामने आ गया है; क्योंकि उनके कारण पृथ्वी उपद्रव से भर गई है, इसलिये मैं उनको पृथ्वी समेत नष्ट कर डालूँगा” (उत्पत्ति 6:13)। तब उसने नूह को नाव बनाने का आदेश दिया। जब नूह ने परमेश्वर का आदेश स्वीकार कर नाव बना ली, तब चालीस दिनों और रातों तक धरती पर भारी मूसलाधार वर्षा हुई, पूरी दुनिया बाढ़ में डूब गई और, नूह और उसके परिवार के सात सदस्यों को छोड़कर, परमेश्वर ने उस युग के सभी मनुष्यों को नष्ट कर दिया। तुम लोग इससे क्या समझते हो? क्या तुम लोग कहोगे कि परमेश्वर स्नेही नहीं है? जहाँ तक मनुष्य का संबंध है, मानवजाति चाहे कितनी ही भ्रष्ट हो, अगर परमेश्वर मानवजाति को नष्ट करता है, तो इसका मतलब है कि वह स्नेही नहीं है—क्या ऐसा मानना सही है? क्या यह मानना बेतुका नहीं है? परमेश्वर ने जिन लोगों का विनाश किया उनसे वह प्रेम नहीं करता था, लेकिन क्या तुम ईमानदारी से कह सकते हो कि वह उन लोगों से प्यार नहीं करता था जो बच गए और जिन्होंने उसका उद्धार प्राप्त किया? पतरस परमेश्वर से अनंत प्रेम करता था और परमेश्वर भी पतरस से प्रेम करता था—क्या तुम सच में कह सकते हो कि परमेश्वर स्नेही नहीं है? परमेश्वर उनसे प्रेम करता है जो उससे वास्तव में प्यार करते हैं और वह उन लोगों से नफरत करता है और उन्हें श्राप देता है जो उसका विरोध करते हैं और पश्चात्ताप करने से इनकार करते हैं। परमेश्वर में प्रेम और घृणा दोनों है, यही सत्य है। लोगों को अपनी धारणाओं या कल्पनाओं के अनुसार परमेश्वर के बारे में अपनी राय नहीं बनानी चाहिए या उसे संकीर्ण खानों में नहीं रखना चाहिए, क्योंकि मनुष्य की धारणाएँ और कल्पनाएँ उसका चीजों को देखने का तरीका है, और इसमें बिल्कुल भी सच्चाई नहीं होती है। परमेश्वर को मनुष्य के प्रति उसके रवैये, उसके स्वभाव और सार के आधार पर जाना जाना चाहिए। परमेश्वर जो भी करता है और जिन चीजों का समाधान करता है उन्हें बाहर से देखकर व्यक्ति को परमेश्वर के सार को परिभाषित करने का प्रयास बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। मानवजाति को शैतान ने बहुत ज्यादा भ्रष्ट कर दिया है; वे भ्रष्ट मानवजाति के प्रकृति-सार को नहीं जानते, इस बारे में तो बिल्कुल भी जानते कि भ्रष्ट मानवजाति परमेश्वर के समक्ष क्या है, न ही यह जानते हैं कि उसके धार्मिक स्वभाव के अनुसार उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। अय्यूब को ही देखो, वह एक धार्मिक व्यक्ति था और परमेश्वर ने उसे आशीष दी। यह परमेश्वर की धार्मिकता थी। शैतान ने यहोवा के साथ एक शर्त लगाई : “क्या अय्यूब परमेश्वर का भय बिना लाभ के मानता है? क्या तू ने उसकी, और उसके घर की, और जो कुछ उसका है उसके चारों ओर बाड़ा नहीं बाँधा? तू ने तो उसके काम पर आशीष दी है, और उसकी सम्पत्ति देश भर में फैल गई है। परन्तु अब अपना हाथ बढ़ाकर जो कुछ उसका है, उसे छू; तब वह तेरे मुँह पर तेरी निन्दा करेगा” (अय्यूब 1:9-11)। यहोवा परमेश्वर ने कहा, “जो कुछ उसका है, वह सब तेरे हाथ में है; केवल उसके शरीर पर हाथ न लगाना” (अय्यूब 1:12)। तब शैतान अय्यूब के पास गया और अय्यूब को प्रलोभन दिया, और अय्यूब ने परीक्षणों का सामना किया। उसके पास मौजूद सब कुछ छिन गया—उसने अपने बच्चे और अपनी संपत्ति खो दी, और उसका पूरा शरीर छालों से भर गया। अब, क्या अय्यूब की परीक्षाओं में परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव था? तुम लोग स्पष्ट रूप से नहीं कह सकते, है ना? अगर तुम एक धार्मिक व्यक्ति भी हो, तो भी परमेश्वर को तुम्हें परीक्षण का भागी बनाने और अपनी गवाही देने की अनुमति देने का अधिकार है। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है; वह सबके साथ समान व्यवहार करता है। ऐसा नहीं है कि धार्मिक लोगों को फिर परीक्षणों से गुजरने की जरूरत नहीं है भले ही वे इन्हें बर्दाश्त कर सकते हैं या फिर उनकी रक्षा की ही जानी चाहिए; यह बात नहीं है। परमेश्वर को धार्मिक लोगों को परीक्षणों में डालने का अधिकार है। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का प्रकाशन है। अंत में, अय्यूब के परीक्षणों से गुजरने और यहोवा की गवाही देने के बाद, यहोवा ने उसे पहले से भी अधिक आशीष दी, पहले से बेहतर आशीष दी और उसने दोगुनी आशीष दी। इतना ही नहीं, यहोवा ने उसे दर्शन दिए, और हवा में से उससे बातें कीं, और अय्यूब ने उसे आमने-सामने देखा। यह परमेश्वर द्वारा उसे दी गई आशीष थी। यह परमेश्वर की धार्मिकता थी। जब अय्यूब परीक्षण से गुजर चुका और यहोवा ने देखा कि कैसे अय्यूब ने शैतान की मौजूदगी में उसकी गवाही दी और शैतान को लज्जित किया, तब अगर यहोवा उसे अनदेखा कर मुड़कर चला जाता, और बाद में अय्यूब को आशीष नहीं मिलती—तो क्या इसमें परमेश्वर की धार्मिकता होती? परीक्षणों के बाद अय्यूब को आशीष मिली या नहीं, या यहोवा ने उसे दर्शन दिए या नहीं, इन सब में परमेश्वर की सदिच्छा शामिल है। अय्यूब को दर्शन देना परमेश्वर की धार्मिकता थी, और उसे दर्शन न देना भी परमेश्वर की धार्मिकता होती। तुम—सृजित प्राणी—किस आधार पर परमेश्वर से माँग करते हो? लोग परमेश्वर से माँगें करने के योग्य नहीं हैं। परमेश्वर से माँगें करने से ज्यादा अनुचित कुछ नहीं है। वह वही करेगा जो उसे करना ही चाहिए, और उसका स्वभाव धार्मिक है। धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्हें तुम्हारे हक का हिस्सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। हालाँकि, लोग भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; लेकिन परमेश्वर चाहे जैसे उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। अगर तुम लोग परमेश्वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्ट कर दिया होता, तब भी क्या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, होती। तुम इसे तथ्यों से इस समय भले न पहचान सको, लेकिन तुम्हें धर्म-सिद्धांत में इसे समझना ही चाहिए। तुम लोग क्या कहोगे—परमेश्वर द्वारा शैतान का विनाश क्या उसकी धार्मिकता की अभिव्यक्ति है? (हाँ।) अगर उसने शैतान को बने रहने दिया होता, तब तुम क्या कहते? तुम हाँ कहने का दुस्साहस तो नहीं करते? परमेश्वर का सार धार्मिकता है। हालाँकि वह जो करता है उसे बूझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं। जब परमेश्वर ने पतरस को शैतान के सुपुर्द कर दिया था, तब पतरस की प्रतिक्रिया क्या थी? “तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्हारी सदिच्छा समाई है; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्भव है कि मैं तुम्हारी बुद्धि और कर्मों की सराहना न करूँ?” अब तुम्हें यह देखना चाहिए कि मनुष्य के उद्धार के समय परमेश्वर द्वारा शैतान को नष्ट न किए जाने का कारण यह है कि मनुष्य स्पष्ट रूप से देख सकें कि शैतान ने उन्हें कैसे और किस हद तक भ्रष्ट किया है, और परमेश्वर कैसे उन्हें शुद्ध करके बचाता है। अंततः, जब लोग सत्य समझ लेंगे और शैतान का घिनौना चेहरा स्पष्ट रूप से देख लेंगे, और शैतान द्वारा उन्हें भ्रष्ट किए जाने का राक्षसी पाप देख लेंगे, तो परमेश्वर उन्हें अपनी धार्मिकता दिखाते हुए शैतान को नष्ट कर देगा। जब परमेश्वर शैतान को नष्ट करेगा, वह समय परमेश्वर के स्वभाव और बुद्धि से भरा होगा। वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। भले ही लोग परमेश्वर की धार्मिकता को समझ न पाएँ, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक अतर्कसंगत हो रहे हैं। तुम देखो कि पतरस ने पाया कि कुछ चीजें अबूझ थीं, लेकिन उसे पक्का विश्वास था कि परमेश्वर की बुद्धिमता विद्यमान थी और उन चीजों में उसकी इच्छा थी। मनुष्य हर चीज की थाह नहीं पा सकते; इतनी सारी चीजें हैं जिन्हें वे समझ नहीं सकते। इस तरह, परमेश्वर के स्वभाव को जानना आसान बात नहीं है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन
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