21. शैतान के प्रलोभनों से कैसे उबरें
अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
राज्य के निर्माण का प्रत्यक्ष रूप से आध्यात्मिक क्षेत्र पर लक्षित है। अर्थात, आध्यात्मिक क्षेत्र की लड़ाई की दशा-दिशा मेरे सभी लोगों के बीच प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट कर दी जाती है, और यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि न केवल कलीसिया के भीतर, बल्कि उससे भी अधिक राज्य के युग में भी, प्रत्येक व्यक्ति निरंतर युद्धरत है। उनके भौतिक शरीरों के बावज़ूद, आध्यात्मिक क्षेत्र प्रत्यक्ष रूप से प्रकट किया जाता है, और वे आध्यात्मिक क्षेत्र के जीवन के साथ संपर्क में आ जाते हैं। इस प्रकार, जब तुम लोग निष्ठावान होना आरंभ करते हो, तब तुम्हें मेरे कार्य के अगले भाग के लिए समुचित रूप से तैयार होना ही चाहिए। तुम्हें अपना संपूर्ण हृदय दे देना चाहिए; केवल तभी तुम मेरे हृदय को संतुष्ट कर सकते हो। मुझे ज़रा परवाह नहीं कि पहले कलीसिया में क्या हुआ; आज, यह राज्य में है। मेरी योजना में, शैतान आरंभ से ही, प्रत्येक कदम का पीछा करता आ रहा है। मेरी बुद्धि की विषमता के रूप में, हमेशा मेरी वास्तविक योजना को बाधित करने के तरीक़े और उपाय खोजने की कोशिश करता रहा है। परंतु क्या मैं उसके कपटपूर्ण कुचक्रों के आगे झुक सकता हूँ? स्वर्ग में और पृथ्वी पर सब कुछ मेरी सेवा करते हैं; शैतान के कपटपूर्ण कुचक्र क्या कुछ अलग हो सकते हैं? ठीक यही वह जगह है जहाँ मेरी बुद्धि बीच में काटती है; ठीक यही वह है जो मेरे कर्मों के बारे में अद्भुत है, और यही मेरी पूरी प्रबंधन योजना के परिचालन का सिद्धांत है। राज्य के निर्माण के युग के दौरान भी, मैं शैतान के कपटपूर्ण कुचक्रों से बचता नहीं हूँ, बल्कि वह कार्य करता रहता हूँ जो मुझे करना ही चाहिए। ब्रह्माण्ड और सभी वस्तुओं के बीच, मैंने अपनी विषमता के रूप में शैतान के कर्मों को चुना है। क्या यह मेरी बुद्धि का आविर्भाव नहीं है? क्या यह ठीक वही नहीं है जो मेरे कार्यों के बारे में अद्भुत है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 8
वह सब जो परमेश्वर करता है आवश्यक है और असाधारण महत्व रखता है, क्योंकि वह मनुष्य में जो कुछ करता है उसका सरोकार उसके प्रबंधन और मनुष्यजाति के उद्धार से है। स्वाभाविक रूप से, परमेश्वर ने अय्यूब में जो कार्य किया वह भी कोई भिन्न नहीं है, फिर भले ही परमेश्वर की नजरों में अय्यूब पूर्ण और खरा था। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर चाहे जो करता हो या वह जो करता है उसे चाहे जिन उपायों से करता हो, क़ीमत चाहे जो हो, उसका ध्येय चाहे जो हो, किंतु उसके कार्यकलापों का उद्देश्य नहीं बदलता है। उसका उद्देश्य है मनुष्य में परमेश्वर के वचनों, और साथ ही मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाओं और उसके प्रति परमेश्वर के इरादों को आकार देना; दूसरे शब्दों में, यह मनुष्य के भीतर उस सबको आकार देना है जिसे परमेश्वर अपने सोपानों के अनुसार सकारात्मक मानता है, जो मनुष्य को परमेश्वर का हृदय समझने और परमेश्वर का सार बूझने में समर्थ बनाता है, और मनुष्य को परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने देता है, इस प्रकार मनुष्य को परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना प्राप्त करने देता है—यह सब परमेश्वर जो करता है उसमें निहित उसके उद्देश्य का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि चूँकि शैतान परमेश्वर के कार्य में विषमता और सेवा की वस्तु है, इसलिए मनुष्य प्रायः शैतान को दिया जाता है; यह वह साधन है जिसका उपयोग परमेश्वर लोगों को शैतान के प्रलोभनों और हमलों में शैतान की दुष्टता, कुरूपता और घृणास्पदता को देखने देने के लिए करता है, इस प्रकार लोगों में शैतान के प्रति घृणा उपजाता है और उन्हें वह जानने और पहचानने में समर्थ बनाता जो नकारात्मक है। यह प्रक्रिया उन्हें शैतान के नियंत्रण से और आरोपों, विघ्नों और हमलों से धीरे-धीरे स्वयं को स्वतंत्र करने देती है—जब तक कि परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर के प्रति अपने ज्ञान और समर्पण, और परमेश्वर के प्रति अपनी आस्था और परमेश्वर का भय मानने की बदौलत वे शैतान के हमलों और आरोपों पर विजय नहीं पा लेते हैं; केवल तभी वे शैतान की सत्ता से पूर्णतः मुक्त कर दिए गए होंगे। लोगों की मुक्ति का अर्थ है कि शैतान को हरा दिया गया है; इसका अर्थ है कि वे अब और शैतान के मुँह का भोजन नहीं हैं—उन्हें निगलने के बजाय, शैतान ने उन्हें छोड़ दिया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे लोग खरे हैं, क्योंकि उनमें परमेश्वर के प्रति आस्था, समर्पण और भय है, और क्योंकि उन्होंने शैतान के साथ पूरी तरह नाता तोड़ लिया है। वे शैतान को लज्जित करते हैं, वे शैतान को कायर बना देते हैं, और वे शैतान को पूरी तरह हरा देते हैं। परमेश्वर का अनुसरण करने में उनका दृढ़विश्वास, और परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका भय शैतान को हरा देता है, और उन्हें पूरी तरह छोड़ देने के लिए शैतान को विवश कर देता है। केवल इस जैसे लोग ही परमेश्वर द्वारा सच में प्राप्त किए गए हैं, और यही मनुष्य को बचाने में परमेश्वर का चरम उद्देश्य है। यदि वे बचाए जाना चाहते हैं, और परमेश्वर द्वारा पूरी तरह प्राप्त किए जाना चाहते हैं, तो उन सभी को जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं शैतान के बड़े और छोटे दोनों प्रलोभनों और हमलों का सामना करना ही चाहिए। जो लोग इन प्रलोभनों और हमलों से उभरकर निकलते हैं और शैतान को पूरी तरह परास्त कर पाते हैं ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा बचा लिया गया है। कहने का तात्पर्य यह, वे लोग जिन्हें परमेश्वर पर्यंत बचा लिया गया है ये वे लोग हैं जो परमेश्वर की परीक्षाओं से गुजर चुके हैं, और अनगिनत बार शैतान द्वारा लुभाए और हमला किए जा चुके हैं। वे जिन्हें परमेश्वर पर्यंत बचा लिया गया है परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं को समझते हैं, और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाते हैं, और वे शैतान के प्रलोभनों के बीच परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को नहीं छोड़ते हैं। वे जिन्हें परमेश्वर पर्यंत बचा लिया गया है वे ईमानदारी से युक्त हैं, वे उदार हृदय हैं, वे प्रेम और घृणा के बीच अंतर करते हैं, उनमें न्याय की समझ है और वे तर्कसंगत हैं, और वे परमेश्वर की परवाह कर पाते और वह सब जो परमेश्वर का है सँजोकर रख पाते हैं। ऐसे लोग शैतान की बाध्यता, जासूसी, दोषारोपण या दुर्व्यवहार के अधीन नहीं होते हैं, वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं, उन्हें पूरी तरह मुक्त और रिहा कर दिया गया है। अय्यूब बिल्कुल ऐसा ही स्वतंत्र मनुष्य था, और ठीक यही परमेश्वर द्वारा उसे शैतान को सौंपे जाने का महत्व था।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II
अभी जब लोगों को बचाया नहीं गया है, तब शैतान के द्वारा उनके जीवन में प्रायः विघ्न डाला, और यहाँ तक कि उन्हें नियंत्रित भी किया जाता है। दूसरे शब्दों में, वे लोग जिन्हें बचाया नहीं गया है शैतान के क़ैदी होते हैं, उन्हें कोई स्वतंत्रता नहीं होती, उन्हें शैतान द्वारा छोड़ा नहीं गया है, वे परमेश्वर की आराधना करने के योग्य या पात्र नहीं हैं, शैतान द्वारा उनका क़रीब से पीछा और उन पर क्रूरतापूर्वक आक्रमण किया जाता है। ऐसे लोगों के पास कहने को भी कोई खुशी नहीं होती है, उनके पास कहने को भी सामान्य अस्तित्व का अधिकार नहीं होता, और इतना ही नहीं, उनके पास कहने को भी कोई गरिमा नहीं होती है। यदि तुम डटकर खड़े हो जाते हो और शैतान के साथ संग्राम करते हो, शैतान के साथ जीवन और मरण की लड़ाई लड़ने के लिए शस्त्रास्त्र के रूप में परमेश्वर में अपनी आस्था और समर्पण, और परमेश्वर के भय का उपयोग करते हो, ऐसे कि तुम शैतान को पूरी तरह परास्त कर देते हो और उसे तुम्हें देखते ही दुम दबाने और भीतकातर बन जाने को मजबूर कर देते हो, ताकि वह तुम्हारे विरुद्ध अपने आक्रमणों और आरोपों को पूरी तरह छोड़ दे—केवल तभी तुम बचाए जाओगे और स्वतंत्र हो पाओगे। यदि तुमने शैतान के साथ पूरी तरह नाता तोड़ने का ठान लिया है, किंतु यदि तुम शैतान को पराजित करने में तुम्हारी सहायता करने वाले शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित नहीं हो, तो तुम अब भी खतरे में होगे। समय बीतने के साथ, जब तुम शैतान द्वारा इतना प्रताड़ित कर दिए जाते हो कि तुममें रत्ती भर भी ताक़त नहीं बची है, तब भी तुम गवाही देने में असमर्थ हो, तुमने अब भी स्वयं को अपने विरुद्ध शैतान के आरोपों और हमलों से पूरी तरह मुक्त नहीं किया है, तो तुम्हारे उद्धार की कम ही कोई आशा होगी। अंत में, जब परमेश्वर के कार्य के समापन की घोषणा की जाती है, तब भी तुम शैतान के शिकंजे में होगे, अपने आपको मुक्त करने में असमर्थ, और इस प्रकार तुम्हारे पास कभी कोई अवसर या आशा नहीं होगी। तो, निहितार्थ यह है कि ऐसे लोग पूरी तरह शैतान की दासता में होंगे।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II
जब अय्यूब पहले-पहल अपनी परीक्षाओं से गुजरा, तब उसकी सारी संपत्ति और उसके सभी बच्चों को उससे छीन लिया गया था, परंतु इसके परिणामस्वरूप वह गिरा नहीं या उसने ऐसा कुछ नहीं कहा जो परमेश्वर के विरुद्ध पाप था। उसने शैतान के प्रलोभनों पर विजय प्राप्त कर ली थी, और उसने अपनी भौतिक संपत्ति, अपनी संतान और अपनी समस्त सांसारिक संपत्तियों को गँवाने की परीक्षा पर विजय प्राप्त कर ली थी, जिसका तात्पर्य यह है कि वह उस समय परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में समर्थ था जब उसने चीजें उससे ली थीं, और परमेश्वर ने जो किया उसके लिए वह परमेश्वर को धन्यवाद देने और उसकी स्तुति करने में समर्थ था। ऐसा था अय्यूब का आचरण शैतान के प्रथम प्रलोभन के दौरान, और ऐसी ही थी अय्यूब की गवाही भी परमेश्वर के प्रथम परीक्षण के दौरान। दूसरी परीक्षा में, अय्यूब को पीड़ा पहुँचाने के लिए शैतान ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, और हालाँकि अय्यूब ने इतनी अधिक पीड़ा अनुभव की जितनी उसने पहले कभी महसूस नहीं की थी, तब भी उसकी गवाही लोगों को अचंभित कर देने के लिए काफी थी। उसने एक बार फिर शैतान को हराने के लिए अपनी सहनशक्ति, दृढ़विश्वास और परमेश्वर के प्रति समर्पण का, और साथ ही परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय का उपयोग किया, और उसका आचरण और उसकी गवाही एक बार फिर परमेश्वर द्वारा अनुमोदित और उपकृत की गई। इस प्रलोभन के दौरान, अय्यूब ने अपने वास्तविक आचरण का उपयोग करते हुए शैतान के समक्ष घोषणा की कि देह की पीड़ा परमेश्वर के प्रति उसकी आस्था और समर्पण को पलट नहीं सकती है या परमेश्वर के प्रति उसकी निष्ठा और परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय को छीन नहीं सकती है; इसलिए कि मृत्यु उसके सामने खड़ी है वह न तो परमेश्वर को त्यागेगा, न ही स्वयं अपनी पूर्णता और खरापन छोड़ेगा। अय्यूब के दृढ़संकल्प ने शैतान को कायर बना दिया, उसकी आस्था ने शैतान को भीतकातर और कँपकँपाता छोड़ दिया, जीवन और मरण की लड़ाई के दौरान वह शैतान के विरुद्ध जितनी उत्कटता से लड़ा था उसने शैतान के भीतर गहरी घृणा और रोष उत्पन्न कर दिया; उसकी पूर्णता और खरेपन ने शैतान की ऐसी हालत कर दी कि वह उसके साथ और कुछ नहीं कर सकता था, ऐसे कि शैतान ने उस पर अपने आक्रमण तज दिए और अपने वे आरोप छोड़ दिए जो उसने अय्यूब के विरुद्ध यहोवा परमेश्वर के समक्ष लगाए थे। इसका अर्थ था कि अय्यूब ने संसार पर विजय पा ली थी, उसने देह पर विजय पा ली थी, उसने शैतान पर विजय पा ली थी, और उसने मृत्यु पर विजय पा ली थी; वह पूर्णतः और सर्वथा ऐसा मनुष्य था जो परमेश्वर का था। इन दो परीक्षाओं के दौरान, अय्यूब अपनी गवाही पर डटा रहा, और उसने अपनी पूर्णता और खरेपन को सचमुच जिया, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के अपने जीवन जीने के सिद्धांतों का दायरा व्यापक कर लिया। इन दोनों परीक्षाओं से गुजरने के पश्चात्, अय्यूब में एक अधिक समृद्ध अनुभव ने जन्म लिया, और इस अनुभव ने उसे और भी अधिक परिपक्व तथा तपा हुआ बना दिया, इसने उसे और मजबूत, और अधिक दृढ़विश्वास वाला बना दिया, और इसने जिस सत्यनिष्ठा पर वह दृढ़ता से डटा रहा था उसकी सच्चाई और योग्यता के प्रति उसे अधिक आत्मविश्वासी बना दिया। यहोवा परमेश्वर द्वारा ली गई अय्यूब की परीक्षाओं ने उसे मनुष्य के प्रति परमेश्वर की चिंता की गहरी समझ और बोध प्रदान किया, और उसे परमेश्वर के प्रेम की अनमोलता को समझने दिया, जिस बिंदु से परमेश्वर के उसके भय में परमेश्वर के प्रति सोच-विचार और उसके लिए प्रेम भी जुड़ गए थे। यहोवा परमेश्वर की परीक्षाओं ने न केवल अय्यूब को उससे पराया नहीं किया, बल्कि वे उसके हृदय को परमेश्वर के और निकट ले आईं। जब अय्यूब द्वारा सही गई दैहिक पीड़ा अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई, तब परमेश्वर यहोवा से जो सरोकार उसने महसूस किया था उसने उसे अपने जन्म के दिन को कोसने के अलावा कोई विकल्प नहीं दिया। ऐसे आचरण की योजना बहुत पहले से नहीं बनाई गई थी, बल्कि यह उसके हृदय के भीतर से परमेश्वर के प्रति सोच-विचार का और उसके लिए प्रेम का स्वाभाविक प्रकाशन था, यह एक स्वाभाविक प्रकाशन था जो परमेश्वर के प्रति उसके सोच-विचार और उसके लिए उसके प्रेम से आया था। कहने का तात्पर्य यह है कि चूँकि वह स्वयं से घृणा करता था, और वह परमेश्वर को यंत्रणा देने का अनिच्छुक था, और यह सहन नहीं कर सकता था, इसलिए उसका सोच-विचार और प्रेम निःस्वार्थता के बिंदु पर पहुँच गए थे। इस समय, अय्यूब ने परमेश्वर के लिए अपनी लंबे समय से चली आती श्रद्धा और ललक को और परमेश्वर के प्रति निष्ठा को सोच-विचार और प्रेम करने के स्तर तक ऊँचा उठा दिया था। साथ ही साथ, उसने परमेश्वर के प्रति अपनी आस्था और समर्पण और परमेश्वर के प्रति भय को सोच-विचार और प्रेम करने के स्तर तक ऊँचा उठा दिया था। उसने स्वयं को ऐसा कोई कार्य नहीं करने दिया जो परमेश्वर को हानि पहुँचाता, उसने स्वयं को ऐसे किसी आचरण की अनुमति नहीं दी जो परमेश्वर को ठेस पहुँचाता, और उसने अपने को स्वयं अपने कारणों से परमेश्वर पर कोई दुःख, संताप या यहाँ तक कि अप्रसन्नता लाने की अनुमति नहीं दी। परमेश्वर की नजरों में, यद्यपि अय्यूब अब भी वह पहले वाला अय्यूब ही था, फिर भी अय्यूब की आस्था, समर्पण और परमेश्वर से भय ने परमेश्वर को पूर्ण संतुष्टि और आनन्द पहुँचाया था। इस समय, अय्यूब ने वह पूर्णता प्राप्त कर ली थी जिसे प्राप्त करने की अपेक्षा परमेश्वर ने उससे की थी; वह परमेश्वर की नजरों में सचमुच “पूर्ण और खरा” कहलाने योग्य व्यक्ति बन गया था। उसके धार्मिक कर्मों ने उसे शैतान पर विजय प्राप्त करने दी और परमेश्वर की अपनी गवाही पर डटे रहने दिया। इसलिए, उसके धार्मिक कर्मों ने उसे पूर्ण भी बनाया, और उसके जीवन के मूल्य को पहले किसी भी समय से अधिक ऊँचा उठाने, और श्रेष्ठतर होने दिया, और उन्होंने उसे वह सबसे पहला व्यक्ति भी बना दिया जिस पर शैतान अब और न हमले करेगा और न लुभाएगा। चूँकि अय्यूब धार्मिक था, इसलिए शैतान द्वारा उस पर दोष मढ़े गए और उसे प्रलोभित किया गया था; चूँकि अय्यूब धार्मिक था, इसलिए उसे शैतान को सौंपा गया था; चूँकि अय्यूब धार्मिक था, इसलिए उसने शैतान पर विजय प्राप्त की और उसे हराया था, और वह अपनी गवाही पर डटा रहा था। अब से, अय्यूब ऐसा पहला व्यक्ति बन गया जिसे फिर कभी शैतान को नहीं सौंपा जाएगा, वह सचमुच परमेश्वर के सिंहासन के सम्मुख आ गया और उसने, शैतान की जासूसी या तबाही के बिना, परमेश्वर की आशीषों के अधीन प्रकाश में जीवन जिया...। वह परमेश्वर की नजरों में सच्चा मनुष्य बन गया था, उसे स्वतंत्र कर दिया गया था...।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II
अय्यूब ने शैतान के विध्वंस झेले थे, किंतु फिर भी उसने यहोवा परमेश्वर का नाम नहीं तजा। उसकी पत्नी पहली थी जो बाहर आई और, मनुष्य की आँखों को दिखाई दे सकने वाले रूप में शैतान की भूमिका निभाते हुए, उसने अय्यूब पर आक्रमण किया। मूल पाठ इसका वर्णन इस प्रकार करता है : “तब उसकी स्त्री उससे कहने लगी, ‘क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा’” (अय्यूब 2:9)। ये वे शब्द थे जो मनुष्य के छद्मभेष में शैतान के द्वारा कहे गए थे। वे एक आक्रमण, और एक आरोप, और साथ ही फुसलावा, एक प्रलोभन, और कलंक भी थे। अय्यूब की देह पर आक्रमण करने में विफल होने पर, फिर शैतान ने उसकी सत्यनिष्ठा पर सीधा हमला किया, वह इसका उपयोग अय्यूब से उसकी सत्यनिष्ठा छुड़वाने, परमेश्वर का त्याग करवाने, और जीते नहीं रहने देने के लिए करना चाहता था। इसलिए शैतान भी अय्यूब को उकसाने के लिए ऐसे वचनों का उपयोग करना चाहता था : यदि अय्यूब यहोवा का नाम त्याग देता, तो उसे ऐसी यंत्रणा सहने की आवश्यकता नहीं होती, वह अपने को देह की यंत्रणा से मुक्त कर सकता था। अपनी पत्नी की सलाह का सामना करने पर, अय्यूब ने यह कहकर उसे झिड़का, “तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है, क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” (अय्यूब 2:10)। अय्यूब लंबे समय से इन वचनों को जानता था, परंतु इस समय उनके बारे में अय्यूब के ज्ञान का सत्य सिद्ध हो गया था।
जब उसकी पत्नी ने उसे परमेश्वर को कोसने और मर जाने की सलाह दी, तो उसका आशय था : “तेरा परमेश्वर तुझसे ऐसा ही बर्ताव करता है, तो तू उसे कोसता क्यों नहीं? अभी भी जीवित रहकर तू क्या कर रहा है? तेरा परमेश्वर तेरे प्रति इतना अनुचित है, फिर भी तू कहता है कि ‘यहोवा का नाम धन्य है’। जब तू उसके नाम को धन्य कहता है तो वह तेरे ऊपर आपदा कैसे ला सकता है? जल्दी कर और उसका नाम त्याग दे, और अब से उसका अनुसरण मत करना। इसके बाद, तेरी परेशानियाँ समाप्त हो जाएँगी।” इसी पल, वह गवाही उत्पन्न हुई जो परमेश्वर अय्यूब में देखना चाहता था। कोई साधारण मनुष्य ऐसी गवाही नहीं दे सकता था, न ही हम इसके बारे में बाइबल की किसी अन्य कहानी में पढ़ते हैं—परंतु परमेश्वर ने अय्यूब द्वारा ये वचन कहे जाने के बहुत पहले ही यह देख लिया था। परमेश्वर ने तो इस अवसर का उपयोग बस अय्यूब को सबके सामने यह साबित करने देने के लिए करना चाहा था कि परमेश्वर सही था। अपनी पत्नी की सलाह का सामना करने पर, अय्यूब ने न केवल अपनी सत्यनिष्ठा को नहीं छोड़ा या परमेश्वर को नहीं त्यागा, बल्कि उसने अपनी पत्नी से यह भी कहा : “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” क्या ये वचन बहुत महत्व रखते हैं? यहाँ, केवल एक ही तथ्य इन वचनों का महत्व सिद्ध करने में सक्षम है। इन वचनों का महत्व यह है कि उन्हें परमेश्वर द्वारा अपने हृदय में स्वीकार किया गया है, ये वे वचन हैं जो परमेश्वर द्वारा वांछित थे, ये वे वचन हैं जिन्हें परमेश्वर सुनना चाहता था, और ये वे परिणाम हैं जिन्हें परमेश्वर देखने को लालायित था; ये वचन अय्यूब की गवाही के तत्व भी हैं। इसमें, अय्यूब की पूर्णता, खरापन, परमेश्वर का भय, और बुराई से दूर रहना प्रमाणित हुए थे। अय्यूब की अनमोलता इसमें निहित है कि जब उसे प्रलोभित किया गया था, और यहाँ तक कि जब उसका पूरा शरीर दुःखदायी फोड़ों से ढँक गया था, जब उसने अत्यधिक यंत्रणा सही थी, और जब उसकी पत्नी और कुटुंबियों ने उसे सलाह दी थी, तब भी उसने ऐसे वचन कहे थे। इसे दूसरे ढँग से कहें, तो अपने हृदय में वह मानता था कि, चाहे जो भी प्रलोभन हों, या दारुण दुःख या यंत्रणा चाहे जितनी भी कष्टदायी हो, यहाँ तक कि उसके ऊपर यदि चाहे मृत्यु ही आनी हो, तब भी वह परमेश्वर को नहीं त्यागेगा या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मार्ग नहीं ठुकराएगा। तो, तुम देखो, कि परमेश्वर उसके हृदय में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता था, और उसके हृदय में केवल परमेश्वर ही था। यही कारण है कि हम पवित्र शास्त्र में उसके बारे में ऐसे विवरण पढ़ते हैं : इन सब बातों में भी अय्यूब ने अपने मुँह से कोई पाप नहीं किया। उसने न केवल अपने होंठों से पाप नहीं किया, बल्कि अपने हृदय में उसने परमेश्वर के बारे में कोई शिकायत भी नहीं की। उसने परमेश्वर के बारे में ठेस पहुँचाने वाले वचन नहीं कहे, न ही उसने परमेश्वर के विरुद्ध पाप किया। न केवल उसके मुँह ने परमेश्वर के नाम को धन्य किया, बल्कि अपने हृदय में भी उसने परमेश्वर के नाम को धन्य किया; उसका मुँह और हृदय एक जैसे थे। यह परमेश्वर द्वारा देखा गया सच्चा अय्यूब था, और बिल्कुल यही वह कारण था कि क्यों परमेश्वर ने अय्यूब को सँजोकर रखा था।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II
अय्यूब की आस्था, उसका समर्पण और शैतान पर विजय पाने की उसकी गवाही लोगों के लिए अत्यधिक सहायता और प्रोत्साहन का स्रोत रहे हैं। वे अय्यूब में अपने स्वयं के उद्धार की आशा देखते हैं, और देखते हैं कि परमेश्वर के प्रति आस्था, समर्पण और उसके भय के माध्यम से शैतान को हराना और शैतान के ऊपर हावी होना पूरी तरह संभव है। वे देखते हैं कि जब तक वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करते हैं, और जब तक सब कुछ खो देने के बाद भी परमेश्वर को न छोड़ने का दृढ़संकल्प और आस्था उनमें है, तब तक वे शैतान को लज्जित और पराजित कर सकते हैं, और वे देखते हैं कि शैतान को भयभीत करने और हड़बड़ी में पीछे हटने को मजबूर करने के लिए, उन्हें केवल अपनी गवाही पर डटे रहने की धुन और लगन की आवश्यकता है—भले ही इसका अर्थ अपने प्राण गँवाना हो। अय्यूब की गवाही बाद की पीढ़ियों के लिए चेतावनी है, और यह चेतावनी उन्हें बताती है कि यदि वे शैतान को नहीं हराते हैं, तो वे शैतान के दोषारोपणों और विघ्नों से कभी अपना पीछा नहीं छुड़ा पाएँगे, न ही वे कभी शैतान के दुर्व्यवहार और हमलों से बचकर निकल पाएँगे। अय्यूब की गवाही ने बाद की पीढ़ियों को प्रबुद्ध किया है। यह प्रबुद्धता लोगों को सिखाती है कि यदि वे पूर्ण और खरे हैं, केवल तभी वे परमेश्वर का भय मान पाएँगे और बुराई से दूर रह पाएँगे; यह उन्हें सिखाती है कि यदि वे परमेश्वर का भय मानते और बुराई से दूर रहते हैं, केवल तभी वे परमेश्वर के लिए ज़ोरदार और गूँजती हुई गवाही दे सकते हैं; यदि वे परमेश्वर के लिए ज़ोरदार और गूँजती हुई गवाही देते हैं, केवल तभी वे शैतान द्वारा कभी नियंत्रित नहीं किए जा सकते हैं और परमेश्वर के मार्गदर्शन तथा सुरक्षा में रहते हैं—केवल तभी उन्हें सचमुच बचा लिया गया होगा। अय्यूब के व्यक्तित्व और जीवन के उसके अनुसरण की बराबरी हर उस व्यक्ति को करनी चाहिए जो उद्धार का अनुसरण करता है। अपने संपूर्ण जीवन के दौरान उसने जो जिया और अपनी परीक्षाओं के दौरान उसका आचरण उन सब लोगों के लिए अनमोल ख़ज़ाना है जो परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करते हैं।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II
पतरस कई वर्षों तक मेरे प्रति निष्ठावान था, किंतु वह कभी बड़बड़ाया नहीं और न ही उसे कोई शिकायत थी; यहाँ तक कि अय्यूब भी उसके बराबर नहीं था, और, युगों-युगों के दौरान सभी संत, पतरस से बहुत कमतर रहे हैं। उसने न केवल मुझे जानने की खोज की, बल्कि उस समय के दौरान मुझे जान भी पाया जब शैतान अपने कपटपूर्ण कुचक्र पूरे कर रहा था। इसके फलस्वरूप पतरस ने कई वर्षों तक सदैव मेरी इच्छा के अनुरूप रहते हुए मेरी सेवा की, और इसी कारण, वह शैतान द्वारा कभी शोषित नहीं किया गया था। पतरस ने अय्यूब की आस्था से सबक सीखे, साथ ही उसकी कमियों को भी स्पष्ट रूप से जाना। यद्यपि अय्यूब अत्यधिक आस्था से परिपूर्ण था, किंतु उसमें आध्यात्मिक क्षेत्र के विषयों के ज्ञान का अभाव था, इसलिए उसने कई वचन कहे जो वास्तविकता से मेल नहीं खाते थे; यह दर्शाता है कि अय्यूब का ज्ञान उथला था, और पूर्णता के अयोग्य था। इसलिए, पतरस ने हमेशा आत्मा की समझ प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित किया था, और हमेशा आध्यात्मिक क्षेत्र की गतिकी का अवलोकन करने पर ध्यान दिया था। परिणामस्वरूप, वह न केवल मेरी इच्छाओं के बारे में कुछ बातों को सुनिश्चित कर पाया, बल्कि उसे शैतान के कपटपूर्ण कुचक्रों का भी अल्पज्ञान था। इसके कारण, मेरे बारे में उसका ज्ञान युगों-युगों के दौरान किसी भी अन्य की अपेक्षा अधिकाधिक बढ़ता गया।
पतरस के अनुभव से, यह देख पाना कठिन नहीं है कि यदि मानव मुझे जानना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी आत्माओं के भीतर ध्यानपूर्वक सोच-विचार करने पर ध्यान केंद्रित करना ही चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि तुम बाहर से मेरे प्रति एक निश्चित मात्रा में “समर्पित” रहो; यह चिंता का गौण विषय है। यदि तुम मुझे नहीं जानते हो, तो तुम जिस विश्वास, प्रेम और निष्ठा की बात करते हो वह सब केवल भ्रम हैं, वे व्यर्थ बकवाद हैं, और तुम निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो मेरे सामने बड़ी-बड़ी डींगें हाँकता है किंतु स्वयं को भी नहीं जानता है। ऐसे में, तुम एक बार फिर शैतान के द्वारा फँसा लिए जाओगे और अपने आपको छुड़ा नहीं पाओगे; तुम तबाही के पुत्र और विनाश की वस्तु बन जाओगे। परंतु यदि तुम मेरे वचनों के प्रति उदासीन और बेपरवाह हो, तो तुम निस्संदेह मेरा विरोध करते हो। यह तथ्य है, और अच्छा होगा कि तुम आध्यात्मिक क्षेत्र के द्वार के आर-पार उन बहुत-सी और भिन्न-भिन्न आत्माओं को देखो जिन्हें मेरे द्वारा ताड़ना दी गई है। उनमें से कौन, मेरे वचनों के सम्मुख आने पर, नकारात्मक, बेपरवाह और अस्वीकृति से भरा नहीं था? उनमें से कौन मेरे वचनों के बारे में दोषदर्शी नहीं था? उनमें से किसने मेरे वचनों में दोष ढूँढने की कोशिश नहीं की? उनमें से किसने मेरे वचनों का स्वयं को “बचाने” के लिए “रक्षात्मक हथियार” के रूप में उपयोग नहीं किया? उन्होंने मेरे वचनों की विषयवस्तु का उपयोग मुझे जानने के तरीक़े के रूप में नहीं, बल्कि खेलने के लिए मात्र खिलौनों की तरह किया। इसमें, क्या वे सीधे मेरा प्रतिरोध नहीं कर रहे थे? मेरे वचन कौन हैं? मेरा आत्मा कौन है? मैंने इतनी अधिक बार ऐसे प्रश्न तुम लोगों से पूछे हैं, फिर भी क्या कभी तुम लोग थोड़े भी उच्चतर और स्पष्ट हुए हो? क्या तुमने सच में कभी उनका अनुभव किया है? मैं तुम्हें एक बार फिर याद दिलाता हूँ : यदि तुम मेरे वचनों को नहीं जानते हो, न ही उन्हें स्वीकार करते हो, न ही उन्हें अभ्यास में लाते हो, तो तुम अपरिहार्य रूप से मेरी ताड़ना के लक्ष्य बनोगे! तुम निश्चित रूप से शैतान के शिकार बनोगे!
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 8
जब परमेश्वर ने कहा, “आध्यात्मिक क्षेत्र की लड़ाई की दशा-दिशा मेरे सभी लोगों के बीच प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट कर दी जाती है,” तो उसका मतलब था कि जब लोग सही रास्ते पर आते हैं और परमेश्वर को जानना शुरू करते हैं, तो न केवल प्रत्येक व्यक्ति को शैतान द्वारा भीतर से प्रलोभित किया जाता है, बल्कि उन्हें शैतान द्वारा स्वयं कलीसिया में भी प्रलोभित किया जा सकता है। फिर भी, यह वह रास्ता है, जिस पर हर व्यक्ति को चलना चाहिए, इसलिए किसी को भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। शैतान का प्रलोभन कई रूपों में आ सकता है। कोई व्यक्ति परमेश्वर द्वारा कही गई बातों की उपेक्षा या उनका त्याग कर सकता है, और अन्य लोगों की सकारात्मकता को कम करने के लिए नकारात्मक बातें कह सकता है; ऐसा व्यक्ति आम तौर पर अन्य लोगों को प्रभावित कर अपनी ओर नहीं कर पाएगा। इसे जानना मुश्किल है। इसका मुख्य कारण यह है : ऐसे व्यक्ति अभी भी सभाओं में भाग लेने में अग्रसक्रिय हो सकते हैं, किंतु वे दर्शनों के बारे में अस्पष्ट होते हैं। यदि कलीसिया उनसे सुरक्षा नहीं करती, तो पूरी कलीसिया उनकी नकारात्मकता से प्रभावित होकर परमेश्वर के प्रति उदासीन प्रतिक्रिया दे सकती है और इसके परिणामस्वरूप परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देना बंद कर सकती है—और इसका अर्थ होगा सीधे शैतान के प्रलोभन में पड़ना। ऐसे व्यक्ति शायद प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर का प्रतिरोध न करें, किंतु चूँकि वे परमेश्वर के वचनों की थाह नहीं पा सकते और परमेश्वर को नहीं जानते, इसलिए वे शिकायत करने या नाराजगी भरा दिल रखने की हद तक जा सकते हैं। वे कह सकते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें त्याग दिया है, इसलिए वे प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त करने में अक्षम हैं। वे छोड़ना चाह सकते हैं, किंतु वे थोड़ा डरते हैं, और वे कह सकते हैं कि परमेश्वर का कार्य परमेश्वर से नहीं आता, बल्कि वह दुष्ट आत्माओं का कार्य है।
परमेश्वर इतनी बार पतरस का उल्लेख क्यों करता है? और वह क्यों कहता है कि अय्यूब भी उसकी बराबरी के करीब नहीं पहुँचता? ऐसा कहना लोगों को न केवल पतरस के कर्मों पर ध्यान दिलाता है, बल्कि उनसे उन सभी उदाहरणों को भी एक ओर रखवा देता है जो उनके हृदयों में होते हैं, यहाँ तक कि अय्यूब का उदाहरण भी—जिसमें सबसे अधिक विश्वास था—नहीं चलेगा। केवल इसी तरह से एक बेहतर परिणाम प्राप्त किया जा सकता है, जिसमें लोग पतरस का अनुकरण करने के प्रयास में सब-कुछ एक ओर रखने में सक्षम हो सकते हैं और ऐसा करके परमेश्वर को जानने की दिशा में एक कदम और बढ़ा सकते हैं। परमेश्वर लोगों को अभ्यास का वह तरीका दर्शाता है, जिस पर परमेश्वर को जानने के लिए पतरस चला था, और ऐसा करने का लक्ष्य लोगों को संदर्भ का एक बिंदु देना है। फिर परमेश्वर यह कहकर उन तरीकों में से एक की भविष्यवाणी करता है, जिससे शैतान मनुष्यों को प्रलोभित करेगा, “परंतु यदि तुम मेरे वचनों के प्रति उदासीन और बेपरवाह हो, तो तुम निस्संदेह मेरा विरोध करते हो। यह तथ्य है।” इन वचनों में परमेश्वर उन शातिर तरकीबों की भविष्यवाणी करता है, जिनका उपयोग करने का शैतान प्रयास करेगा; ये एक चेतावनी की तरह हैं। यह संभव नहीं है कि हर कोई परमेश्वर के वचनों के प्रति उदासीन हो, फिर भी कुछ लोग इस प्रलोभन द्वारा वशीभूत कर लिए जाएँगे। इसलिए अंत में परमेश्वर जोर देकर दोहराता है, “यदि तुम मेरे वचनों को नहीं जानते हो, न ही उन्हें स्वीकार करते हो, न ही उन्हें अभ्यास में लाते हो, तो तुम अपरिहार्य रूप से मेरी ताड़ना के लक्ष्य बनोगे! तुम निश्चित रूप से शैतान के शिकार बनोगे!” यह मानवजाति के लिए परमेश्वर का परामर्श है—फिर भी अंत में, जैसा कि परमेश्वर ने भविष्यवाणी की थी, लोगों का एक हिस्सा अनिवार्य रूप से शैतान का शिकार बन जाएगा।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 8
मत्ती 4:8-11 फिर इब्लीस उसे एक बहुत ऊँचे पहाड़ पर ले गया और सारे जगत के राज्य और उसका वैभव दिखाकर उससे कहा, “यदि तू गिरकर मुझे प्रणाम करे, तो मैं यह सब कुछ तुझे दे दूँगा।” तब यीशु ने उससे कहा, “हे शैतान दूर हो जा, क्योंकि लिखा है : तू प्रभु अपने परमेश्वर को प्रणाम कर, और केवल उसी की उपासना कर।” तब शैतान उसके पास से चला गया, और देखो, स्वर्गदूत आकर उसकी सेवा करने लगे।
शैतान इब्लीस ने अपनी पिछली दो चालों में असफल होने के बाद एक और कोशिश की : उसने प्रभु यीशु को दुनिया के समस्त राज्य और उनका वैभव दिखाया और उससे अपनी आराधना करने के लिए कहा। इस स्थिति से तुम शैतान के वास्तविक लक्षणों के बारे में क्या देख सकते हो? क्या इब्लीस शैतान पूरी तरह से बेशर्म नहीं है? (हाँ, है।) वह कैसे बेशर्म है? सभी चीज़ें परमेश्वर द्वारा रची गई थीं, फिर भी शैतान ने पलटकर परमेश्वर को सारी चीज़ें दिखाईं और कहा, “इन सभी राज्यों की संपत्ति और वैभव देख। अगर तू मेरी उपासना करे, तो मैं यह सब तुझे दे दूँगा।” क्या यह पूरी तरह से भूमिका उलटना नहीं है? क्या शैतान बेशर्म नहीं है? परमेश्वर ने सारी चीज़ें बनाईं, पर क्या उसने सारी चीज़ें अपने उपभोग के लिए बनाईं? परमेश्वर ने हर चीज़ मनुष्य को दे दी, लेकिन शैतान उन सबको अपने कब्ज़े में करना चाहता था और उन्हें अपने कब्ज़े में करने के बाद उसने पमेश्वर से कहा, “मेरी आराधना कर! मेरी आराधना कर और मैं यह सब तुझे दे दूँगा।” यह शैतान का बदसूरत चेहरा है; वह पूर्णतः बेशर्म है! यहाँ तक कि शैतान “शर्म” शब्द का मतलब भी नहीं जानता। यह उसकी दुष्टता का सिर्फ एक और उदाहरण है। वह यह भी नहीं जानता कि “शर्म” क्या होती है। शैतान स्पष्ट रूप से जानता है कि परमेश्वर ने सारी चीज़ें बनाईं और कि वह सभी चीज़ों का प्रबंधन करता है और उन पर उसकी प्रभुता है। सारी चीज़ें मनुष्य की नहीं हैं, शैतान की तो बिलकुल भी नहीं हैं, बल्कि परमेश्वर की हैं, और फिर भी इब्लीस शैतान ने ढिठाई से कहा कि वह सारी चीज़ें परमेश्वर को दे देगा। क्या यह शैतान के एक बार फिर बेतुकेपन और बेशर्मी से कार्य करने का एक और उदाहरण नहीं है? इसके कारण परमेश्वर को शैतान से और अधिक घृणा होती है, है न? फिर भी, शैतान ने चाहे जो भी कोशिश की, पर क्या प्रभु यीशु उसके झाँसे में आया? प्रभु यीशु ने क्या कहा? (“तू प्रभु अपने परमेश्वर को प्रणाम कर, और केवल उसी की उपासना कर।”) क्या इन वचनों का कोई व्यावहारिक अर्थ है? (हाँ, है।) किस प्रकार का व्यवहारिक अर्थ? हम शैतान की वाणी में उसकी दुष्टता और बेशर्मी देखते हैं। तो अगर मनुष्य शैतान की उपासना करेंगे, तो क्या परिणाम होगा? क्या उन्हें सभी राज्यों का धन और वैभव मिल जाएगा? (नहीं।) उन्हें क्या मिलेगा? क्या मनुष्य शैतान जितने ही बेशर्म और हास्यास्पद बन जाएँगे? (हाँ।) तब वे शैतान से भिन्न नहीं होंगे। इसलिए, प्रभु यीशु ने ये वचन कहे, जो हर एक इंसान के लिए महत्वपूर्ण हैं : “तू प्रभु अपने परमेश्वर को प्रणाम कर, और केवल उसी की उपासना कर।” इसका अर्थ है कि प्रभु के अलावा, स्वयं परमेश्वर के अलावा, अगर तुम किसी दूसरे की उपासना करते हो, अगर तुम इब्लीस शैतान की उपासना करते हो, तो तुम उसी गंदगी में लोट लगाओगे, जिसमें शैतान लगाता है। तब तुम शैतान की बेशर्मी और उसकी दुष्टता साझा करोगे, और ठीक शैतान की ही तरह तुम परमेश्वर को प्रलोभित करोगे और उस पर हमला करोगे। तब तुम्हारा क्या अंत होगा? परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा, परमेश्वर तुम्हें मार गिराएगा, परमेश्वर तुम्हें नष्ट कर देगा। प्रभु यीशु को कई बार प्रलोभन देने में असफल होने के बाद क्या शैतान ने फिर कोशिश की? शैतान ने फिर कोशिश नहीं की और फिर वह चला गया। इससे क्या साबित होता है? इससे यह साबित होता है कि शैतान की दुष्ट प्रकृति, उसकी दुर्भावना, उसकी बेहूदगी और उसकी असंगतता परमेश्वर के सामने उल्लेख करने योग्य भी नहीं है। प्रभु यीशु ने शैतान को केवल तीन वाक्यों से परास्त कर दिया, जिसके बाद वह दुम दबाकर खिसक गया, और इतना शर्मिंदा हुआ कि चेहरा दिखाने लायक भी नहीं रहा, और उसने फिर कभी प्रभु को प्रलोभन नहीं दिया। चूँकि प्रभु यीशु ने शैतान के इस प्रलोभन को परास्त कर दिया, इसलिए अब वह आसानी से अपने उस कार्य को जारी रख सकता था, जो उसे करना था और जो कार्य उसके सामने पड़े थे। क्या इस परिस्थिति में जो कुछ प्रभु यीशु ने कहा और किया, अगर उसे वर्तमान समय में प्रयोग में लाया जाए, तो क्या प्रत्येक मनुष्य के लिए उसका कोई व्यावहारिक अर्थ है? (हाँ, है।) किस प्रकार का व्यावहारिक अर्थ? क्या शैतान को हराना आसान बात है? क्या लोगों को शैतान की दुष्ट प्रकृति की स्पष्ट समझ होनी चाहिए? क्या लोगों को शैतान के प्रलोभनों की सही समझ होनी चाहिए? (हाँ।) जब तुम अपने जीवन में शैतान के प्रलोभनों का अनुभव करते हो, अगर तुम शैतान की दुष्ट प्रकृति को आर-पार देखने में सक्षम हो, तो क्या तुम उसे हराने में सक्षम नहीं होगे? अगर तुम शैतान की बेहूदगी और असंगतता के बारे में जानते हो, तो क्या फिर भी तुम शैतान के साथ खड़े होगे और परमेश्वर पर हमला करोगे? अगर तुम समझ जाओ कि कैसे शैतान की दुर्भावना और बेशर्मी तुम्हारे माध्यम से प्रकट होती हैं—अगर तुम इन चीज़ों को स्पष्ट रूप से पहचान और समझ जाओ—तो क्या तुम फिर भी परमेश्वर पर इस प्रकार हमला करोगे और उसे प्रलोभित करोगे? (नहीं, हम नहीं करेंगे।) तुम क्या करोगे? (हम शैतान के विरुद्ध विद्रोह करेंगे और उसका परित्याग कर देंगे।) क्या यह आसान कार्य है? यह आसान नहीं है। ऐसा करने के लिए लोगों को लगातार प्रार्थना करनी चाहिए, उन्हें स्वयं को बार-बार परमेश्वर के सामने रखना चाहिए और स्वयं को जाँचना चाहिए। और उन्हें परमेश्वर के अनुशासन और उसके न्याय तथा ताड़ना को अपने ऊपर आने देना चाहिए। केवल इसी तरह से लोग धीरे-धीरे अपने आपको शैतान द्वारा गुमराह और नियंत्रण से मुक्त कर पाएँगे।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है V
वर्तमान में, क्या ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो इस समाज में रहने वालों को लुभा सकती हैं? प्रलोभन तुम्हें चारों ओर से घेर लेते हैं, सभी प्रकार की बुरी भावनाएँ, सभी प्रकार के प्रवचन, सभी प्रकार के विचार और दृष्टिकोण, सभी प्रकार के लोगों से सभी प्रकार के लालच और आकर्षण, सभी प्रकार के लोगों के सभी प्रकार के शैतानी चेहरे। ये सभी ऐसे प्रलोभन हैं जिनका तुम सामना करते हो। उदाहरण के लिए, लोग तुम पर एहसान कर सकते हैं, तुम्हें अमीर बना सकते हैं, तुम्हारे दोस्त बन सकते हैं, तुम्हारे साथ प्रेम-मिलाप के लिए जा सकते हैं, तुम्हें पैसे दे सकते हैं, कोई नौकरी दे सकते हैं, डांस करने के लिए बुला सकते हैं, तुम्हारे साथ अच्छा बर्ताव कर सकते हैं या तुम्हें तोहफें दे सकते हैं। ये सभी चीजें संभावित प्रलोभन हैं। अगर चीजें ठीक से नहीं हुईं, तो तुम जाल में फंस जाओगे। यदि तुम्हें कुछ सत्यों का ज्ञान नहीं है और तुम्हारे पास वास्तविक आध्यात्मिक कद नहीं है, तो तुम चीजों की असलियत को नहीं समझ पाओगे, और वे सभी तुम्हें फंसाने के लिए जाल और प्रलोभन होंगी। एक तरह से, यदि तुम्हारे पास सत्य नहीं है, तो तुम शैतान की चालों को नहीं समझ पाओगे और विभिन्न प्रकार के लोगों के शैतानी चेहरों को नहीं देख पाओगे। तुम शैतान पर विजय पाने, दैहिक इच्छाओं को त्यागने और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगे। दूसरे शब्दों में, सत्य की वास्तविकता के बिना, तुम सभी विभिन्न प्रकार की बुरी भावनाओं, बुरे दृष्टिकोणों, और बेतुके विचारों और कथनों का विरोध करने में असमर्थ होगे। जब इन चीजों से तुम्हारा सामना होगा, तो अचानक सब ठंडा पड़ जाएगा। हो सकता है कि तुम्हें केवल हल्का जुकाम हो, या शायद कुछ और गंभीर समस्या हो—तुम्हें शायद जानलेवा सर्दी का दौरा भी पड़ सकता है।[क] हो सकता है कि तुम पूरी तरह से अपना विश्वास खो दो। यदि तुम्हारे पास सत्य नहीं है, तो शैतान और अविश्वासियों की दुनिया के राक्षसों के कुछ शब्द ही तुम्हें बेचैन और भ्रमित कर देंगे। तुम सवाल करोगे कि तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए या नहीं और ऐसी आस्था रखना सही है या नहीं। हो सकता है कि आज की सभा में तुम अच्छी स्थिति में हो, लेकिन फिर कल तुम घर जाकर किसी टेलीविजन शो के दो एपिसोड देख लोगे। अब तुम बहकावे में आ चुके हो। रात में, तुम सोने से पहले प्रार्थना करना भूल जाते हो, और तुम्हारा मन पूरी तरह से उस टेलीविजन शो की कहानी में लगा है। यदि तुम दो दिन तक टेलीविजन देखते रहते हो, तो तुम्हारा दिल पहले से ही परमेश्वर से दूर हो गया है। अब तुम परमेश्वर के वचन पढ़ना या सत्य के बारे में संगति करना नहीं चाहते हो। तुम परमेश्वर से प्रार्थना भी नहीं करना चाहते हो। अपने दिल में, तुम हमेशा यही कहते हो, “मैं कब कुछ कर पाऊँगा? मैं कोई महत्वपूर्ण काम कब शुरू करूँगा? मेरा जीवन व्यर्थ नहीं होना चाहिए!” क्या यह हृदय परिवर्तन है? मूल रूप से, तुम सत्य के बारे में और अधिक समझना चाहते थे, ताकि सुसमाचार फैला सको और परमेश्वर की गवाही दे सको। अब तुम क्यों बदल गए हो? केवल फिल्में और टेलीविजन कार्यक्रम देखकर, तुमने शैतान को अपने दिल पर कब्जा करने दिया है। तुम्हारा आध्यात्मिक कद वाकई छोटा है। क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास इन बुरी भावनाओं का विरोध करने लायक आध्यात्मिक कद है? अब परमेश्वर तुम पर अनुग्रह करता है और कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हें अपने घर में लेकर जाता है। तुम अपना आध्यात्मिक कद मत भूलो। अभी, तुम ग्रीनहाउस में एक फूल जैसे हो, जो बाहर की हवा और बारिश का सामना नहीं कर सकता। यदि लोग इन प्रलोभनों को पहचान नहीं सकते और इनका सामना नहीं कर सकते, तो शैतान किसी भी समय, किसी भी स्थान पर उन्हें बंदी बना सकता है। ऐसा है मनुष्य का छोटा आध्यात्मिक कद और दयनीय अवस्था। क्योंकि तुम्हारे पास सत्य की वास्तविकता और सत्य की समझ नहीं है, इसलिए शैतान के सभी शब्द तुम्हारे लिए जहर के समान हैं। यदि तुम उन्हें सुनोगे, तो वे तुम्हारे दिल में अमिट छाप छोड़ जाएंगे। अपने दिल में तुम कहते हो, “मैं अपने कान और अपनी आँखें बंद कर लूँगा,” लेकिन तुम शैतान के प्रलोभन से बच नहीं सकते। तुम शून्य में नहीं रहते हो। यदि तुम शैतान के शब्दों को सुनते हो, तो उनका प्रतिरोध नहीं कर पाओगे। तुम जाल में फंस जाओगे। तुम्हारी प्रार्थनाओं और अपने आपको धिक्कारने का कोई फायदा नहीं होगा। तुम प्रतिरोध नहीं कर सकते। ऐसी चीजें तुम्हारे विचारों और कार्यों को प्रभावित कर सकती हैं। वे तुम्हारे सत्य के अनुसरण के मार्ग को बाधित कर सकती हैं। वे तुम्हें काबू में भी कर सकती हैं, तुम्हें परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से रोक सकती हैं, तुम्हें निष्क्रिय और कमजोर बना सकती हैं, और तुम्हें परमेश्वर से दूर रख सकती हैं। अंत में, तुम्हारा कोई मोल नहीं होगा और तुम्हारे लिए सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी होंगी।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है
फुटनोट :
क. परंपरागत चीनी चिकित्सा पद्धति में “सर्दी का दौरा” शब्द भीषण और जानलेवा अंदरूनी सर्दी के लिए प्रयोग किया जाता है, जो किन्हीं बाहरी तत्वों से पैदा होती है।
पृथ्वी पर, सब प्रकार की दुष्ट आत्माएँ हमेशा लुकछिपकर किसी विश्राम-स्थल की तलाश में लगी रहती हैं, और निरंतर मानव शवों की खोज करती रहती हैं, ताकि उनका उपभोग किया जा सके। मेरे लोगो! तुम्हें मेरी देखभाल और सुरक्षा के भीतर रहना चाहिए। कभी दुर्व्यसनी न बनो! कभी लापरवाही से व्यवहार न करो! तुम्हें मेरे घर में अपनी निष्ठा अर्पित करनी चाहिए, और केवल निष्ठा से ही तुम दानवों की चालों के विरुद्ध पलटवार कर सकते हो। किन्हीं भी परिस्थितियों में तुम्हें वैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए जैसा तुमने अतीत में किया था, मेरे सामने कुछ करना और मेरी पीठ पीछे कुछ और करना; यदि तुम इस तरह करते हो, तो तुम पहले ही छुटकारे से परे हो। क्या मैं इस तरह के वचन बहुत बार नहीं कह चुका हूँ? बिलकुल इसीलिए क्योंकि मनुष्य की पुरानी प्रकृति सुधार से परे है, मुझे लोगों को बार-बार स्मरण दिलाना पड़ा है। ऊब मत जाना! वह सब जो मैं कहता हूँ तुम लोगों की नियति सुनिश्चित करने के लिए ही है! गंदा और मैला-कुचैला स्थान ही वह स्थान होता है जो शैतान को चाहिए होता है; तुम जितने अधिक दयनीय ढँग से सुधार के अयोग्य होते हो, और जितने अधिक दुर्व्यसनी होते हो, और संयम के आगे समर्पण करने से इनकार करते हो, अशुद्ध आत्माएँ तुम्हारे भीतर घुसपैठ करने के किसी भी अवसर का उतना ही अधिक लाभ उठाएँगी। यदि तुम इस अवस्था तक पहुँच चुके हो, तो तुम लोगों की निष्ठा किसी भी प्रकार की सच्चाई से रहित कोरी बकवास के अलावा और कुछ नहीं होगी, और अशुद्ध आत्माएँ तुम लोगों का संकल्प निगल लेंगी और इसे विद्रोह और शैतानी षड़यंत्रों में बदल देंगी, ताकि इनका उपयोग मेरे कार्य में विघ्न डालने के लिए किया जा सके। वहाँ से, किसी भी समय मेरे द्वारा तुम पर प्रहार किया जा सकता है। कोई भी इस स्थिति की गंभीरता को नहीं समझता है; लोग सब कुछ सुनकर भी बहरे बने रहते हैं, और ज़रा भी चौकन्ने नहीं रहते हैं। मैं वह स्मरण नहीं करता जो अतीत में किया गया था; क्या तुम सच में अब भी एक बार और सब कुछ “भुलाकर” तुम्हारे प्रति मेरे उदार होने की प्रतीक्षा कर रहे हो? यद्यपि मानवों ने मेरा विरोध किया है, फिर भी मैं इसे उनके विरुद्ध स्मरण नहीं रखूँगा, क्योंकि वे बहुत छोटी कद-काठी के हैं, और इसलिए मैंने उनसे अत्यधिक ऊँची माँगें नहीं की हैं। मैं बस यही अपेक्षा करता हूँ कि वे दुर्व्यसनी न हों, और यह कि वे संयम के अधीन रहें। निश्चित रूप से इस एकमात्र पूर्वापेक्षा को पूरा करना तुम लोगों की क्षमता से बाहर नहीं है, है क्या?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 10
परमेश्वर द्वारा मनुष्य के भीतर किए जाने वाले कार्य के प्रत्येक चरण में, बाहर से यह लोगों के मध्य अंतःक्रिया प्रतीत होता है, मानो यह मानव-व्यवस्थाओं द्वारा या मानवीय विघ्न से उत्पन्न हुआ हो। किंतु पर्दे के पीछे, कार्य का प्रत्येक चरण, और घटित होने वाली हर चीज, शैतान द्वारा परमेश्वर के सामने चली गई बाजी है, और लोगों से अपेक्षित है कि वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग बने रहें। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब को आजमाया गया था : पर्दे के पीछे शैतान परमेश्वर के साथ दाँव लगा रहा था, और अय्यूब के साथ जो हुआ वह मनुष्यों के कर्म थे, और मनुष्यों का विघ्न था। परमेश्वर द्वारा तुम लोगों में किए गए कार्य के हर कदम के पीछे शैतान की परमेश्वर के साथ बाजी होती है—इस सब के पीछे एक संघर्ष होता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम अपने भाइयों और बहनों के प्रति पूर्वाग्रह रखते हो, तो तुम्हारे पास ऐसे वचन होंगे जो तुम कहना चाहते हो—ऐसे वचन, जो तुम्हें परमेश्वर को अप्रसन्न करने वाले लगते हैं—किंतु अगर तुम उन्हें न कहो तो तुम्हें भीतर से बेचैनी महसूस होगी, और उस क्षण तुम्हारे भीतर एक संघर्ष शुरू हो जाएगा : “मैं बोलूँ या नहीं?” यही संघर्ष है। इस प्रकार, हर उस चीज़ में, जिसका तुम सामना करते हो, एक संघर्ष है, और जब तुम्हारे भीतर एक संघर्ष चलता है, तो तुम्हारे वास्तविक सहयोग और पीड़ा के कारण, परमेश्वर तुम्हारे भीतर कार्य करता है। अंततः, अपने भीतर तुम मामले को एक ओर रखने में सक्षम होते हो और क्रोध स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाता है। परमेश्वर के साथ तुम्हारे सहयोग का ऐसा ही प्रभाव होता है। हर चीज जो लोग करते हैं, उसमें उन्हें अपने प्रयासों के लिए एक निश्चित क़ीमत चुकाने की आवश्यकता होती है। बिना वास्तविक कठिनाई के वे परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर सकते; वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के करीब तक भी नहीं पहुँचते और केवल खोखले नारे लगा रहे होते हैं! क्या ये खोखले नारे परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं? जब परमेश्वर और शैतान आध्यात्मिक क्षेत्र में संघर्ष करते हैं, तो तुम्हें परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करना चाहिए, और किस प्रकार उसकी गवाही में अडिग रहना चाहिए? तुम्हें यह पता होना चाहिए कि जो कुछ भी तुम्हारे साथ होता है, वह एक महान परीक्षण है और ऐसा समय है, जब परमेश्वर चाहता है कि तुम उसके लिए गवाही दो। हालाँकि ये बाहर से महत्त्वहीन लग सकती हैं, किंतु जब ये चीजें होती हैं तो ये दर्शाती हैं कि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो या नहीं। यदि तुम करते हो, तो तुम उसके लिए गवाही देने में अडिग रह पाओगे, और यदि तुम उसके प्रति प्रेम को अभ्यास में नहीं लाए हो, तो यह दर्शाता है कि तुम वह व्यक्ति नहीं हो जो सत्य को अभ्यास में लाता है, यह कि तुम सत्य से रहित हो, और जीवन से रहित हो, यह कि तुम भूसा हो! लोगों के साथ जो कुछ भी होता है, वह तब होता है जब परमेश्वर को आवश्यकता होती है कि लोग उसके लिए अपनी गवाही में अडिग रहें। भले ही इस क्षण में तुम्हारे साथ कुछ बड़ा घटित न हो रहा हो, और तुम बड़ी गवाही नहीं देते, किंतु तुम्हारे जीवन का प्रत्येक विवरण परमेश्वर के लिए गवाही का मामला है। यदि तुम अपने भाइयों और बहनों, अपने परिवार के सदस्यों और अपने आसपास के सभी लोगों की प्रशंसा प्राप्त कर सकते हो; यदि किसी दिन अविश्वासी आएँ और जो कुछ तुम करते हो उसकी तारीफ करें, और देखें कि जो कुछ परमेश्वर करता है वह अद्भुत है, तो तुमने गवाही दे दी होगी। यद्यपि तुम्हारे पास कोई अंतर्दृष्टि नहीं है और तुम्हारी क्षमता कमज़ोर है, फिर भी परमेश्वर द्वारा तुम्हारी पूर्णता के माध्यम से तुम उसे संतुष्ट करने और उसकी इच्छा के प्रति सचेत होने में समर्थ हो जाते हो और दूसरों को दर्शाते हो कि सबसे कमज़ोर क्षमता के लोगों में उसने कितना महान कार्य किया है। जब लोग परमेश्वर को जान जाते हैं और शैतान के सामने विजेता और परमेश्वर के प्रति अत्यधिक वफादार बन जाते हैं, तब किसी में इस समूह के लोगों से अधिक आधार नहीं होता, और यही सबसे बड़ी गवाही है। यद्यपि तुम महान कार्य करने में अक्षम हो, लेकिन तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम हो। अन्य लोग अपनी धारणाओं को एक ओर नहीं रख सकते, लेकिन तुम रख सकते हो; अन्य लोग अपने वास्तविक अनुभवों के दौरान परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकते, लेकिन तुम परमेश्वर के प्रेम को चुकाने और उसके लिए ज़बर्दस्त गवाही देने के लिए अपनी वास्तविक कद-काठी और कार्यकलापों का उपयोग कर सकते हो। केवल इसी को परमेश्वर से वास्तव में प्रेम करना माना जाता है। यदि तुम इसमें अक्षम हो, तो तुम अपने परिवार के सदस्यों के बीच, अपने भाइयों और बहनों के बीच, या संसार के अन्य लोगों के सामने गवाही नहीं देते। यदि तुम शैतान के सामने गवाही नहीं दे सकते, तो शैतान तुम पर हँसेगा, वह तुम्हें एक मजाक के रूप में, एक खिलौने के रूप में लेगा, वह बार-बार तुम्हें मूर्ख बनाएगा, और तुम्हें विक्षिप्त कर देगा। भविष्य में, महान परीक्षण तुम्हारे ऊपर पड़ेंगे—किंतु आज यदि तुम परमेश्वर को सच्चे हृदय से प्रेम करते हो, और चाहे आगे कितनी भी बड़ी परीक्षाएँ हों, चाहे तुम्हारे साथ कुछ भी होता जाए, तुम अपनी गवाही में अडिग रहते हो, और परमेश्वर को संतुष्ट कर पाते हो, तब तुम्हारे हृदय को सांत्वना मिलेगी, और भविष्य में चाहे कितने भी बड़े परीक्षण क्यों न आएँ, तुम निर्भय रहोगे। तुम लोग नहीं देख सकते कि भविष्य में क्या होगा; तुम लोग केवल आज की परिस्थितियों में ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। तुम लोग कोई भी महान कार्य करने में अक्षम हो, और तुम लोगों को वास्तविक जीवन में परमेश्वर के वचनों को अनुभव करने के माध्यम से उसे संतुष्ट करने, और एक मजबूत और ज़बर्दस्त गवाही देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जो शैतान के लिए शर्मिंदगी लाती है। यद्यपि तुम्हारी देह असंतुष्ट रहेगी और उसने पीड़ा भुगती होगी, लेकिन तुमने परमेश्वर को संतुष्ट कर दिया होगा और तुम शैतान के लिए शर्मिंदगी लाए होगे। यदि तुम हमेशा इस तरह से अभ्यास करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारे सामने एक मार्ग खोल देगा। किसी दिन जब कोई बड़ा परीक्षण आएगा, तो अन्य लोग गिर जाएँगे, लेकिन तुम तब भी अडिग रहने में समर्थ होगे : तुमने जो क़ीमत चुकाई है, उसकी वजह से परमेश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा, ताकि तुम अडिग रह सको और गिरो नहीं।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है
आज तुम लोग किन परीक्षणों का सामना करने में सक्षम हो? क्या तुममें यह कहने की हिम्मत है कि तुम्हारे पास एक नींव है, क्या तुम प्रलोभनों के सामने दृढ़ता से खड़े रहने में सक्षम हो? उदाहरण के लिए, क्या तुम लोग शैतान द्वारा पीछा किए जाने और सताए जाने के प्रलोभन या रुतबे और प्रतिष्ठा, विवाह या धन के प्रलोभनोंपर विजय पाने में सक्षम हो? (हम इनमें से कुछ प्रलोभनों पर कमोबेश काबू पा सकते हैं।) प्रलोभन के कितने स्तर होते हैं? और तुम लोग किस स्तर पर काबू पा सकते हो? जैसे, यह सुनकर शायद तुम्हें डर न लगे कि किसी को परमेश्वर में विश्वास करने के कारण गिरफ्तार किया गया है और शायद दूसरों को गिरफ्तार होते और सताये जाते देखकर भी तुम्हें डर न लगे—लेकिन जब तुम गिरफ्तार किए जाते हो, जब तुम खुद को इस स्थिति में पाते हो तब क्या तुम दृढ़ता से खड़े होने में सक्षम हो? यह एक बड़ा प्रलोभन है, है न? उदाहरण के लिए, मान लो तुम किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हो जो बहुत अच्छी मानवता वाला है, जो परमेश्वर में अपनी आस्था को लेकर भावुक है, जिसने अपना कर्तव्य निभाने के लिए परिवार और आजीविका को त्याग दिया है और बहुत-सी कठिनाइयों का सामना किया है : एक दिन अचानक परमेश्वर में विश्वास करने के कारण उसे गिरफ्तार करके जेल भेज दिया जाता है और तुम्हें पता चलता है कि बाद में उसे पीट-पीटकर मार दिया गया था। क्या यह तुम्हारे लिए प्रलोभन है? अगर तुम्हारे साथ ऐसा होता तो तुम क्या करते? तुम इसे कैसे अनुभव करते? क्या तुम सत्य खोजते? तुम सत्य कैसे खोजते? इस तरह के प्रलोभन के दौरान, तुम कैसे अपने आप को दृढ़ रख पाओगे, और परमेश्वर की इच्छा कैसे समझोगे, और इससे सत्य कैसे प्राप्त करोगे? क्या तुमने कभी ऐसी बातों पर विचार किया है? क्या ऐसे प्रलोभनों पर काबू पाना आसान है? क्या ये कुछ असाधारण चीजें हैं? असाधारण और मानवीय धारणाओं व कल्पनाओं का खंडन करने वाली चीजों का अनुभव कैसे किया जाना चाहिए? अगर तुम्हारे पास कोई रास्ता नहीं है तो क्या तुम शिकायत कर सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के वचनों में सत्य की खोज करने और समस्याओं का सार देखने में सक्षम हो? क्या तुम सत्य का उपयोग करके अभ्यास के सही सिद्धांतों का पता लगाने में सक्षम हो? क्या सत्य का अनुसरण करने वालों में यह गुण नहीं पाया जाना चाहिए? तुम परमेश्वर के कार्य को कैसे जान सकते हो? तुम्हें परमेश्वर के न्याय, शुद्धिकरण, उद्धार और पूर्णता का फल प्राप्त करने के लिए इसका अनुभव कैसे करना चाहिए? परमेश्वर के विरुद्ध लोगों की असंख्य धारणाओं और शिकायतों को दूर करने के लिए किन सत्यों को समझना चाहिए? वे कौन से सबसे उपयोगी सत्य हैं जिनसे तुम्हें खुद को सुसज्जित करना चाहिए, जो विभिन्न परीक्षणों के बीच दृढ़ता से डटे रहने में तुम्हारी मदद करेंगे? अभी तुम लोगों का आध्यात्मिक कद कितना बड़ा है? तुम किस स्तर के प्रलोभनों पर काबू पा सकते हो? क्या तुम्हें इसका थोड़ा सा भी अंदाजा है? अगर नहीं है, तो यह संदेहास्पद मामला है । तुम लोगों ने अभी-अभी कहा कि “इनमें से कुछ प्रलोभनों पर कमोबेश काबू पा सकते हैं।” ये भ्रामक शब्द हैं। तुम लोगों को अपने आध्यात्मिक कद के बारे में स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए, तुम लोगों ने अभी तक खुद को कितने सत्यों से सुसज्जित किया है, तुम किन प्रलोभनों पर काबू पा सकते हो, किन परीक्षणों को स्वीकार कर सकते हो और किस परीक्षण में तुम्हारे पास कौन-सा सत्य, परमेश्वर के कार्य की कौन-सी जानकारी होनी चाहिए, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कौन-सा मार्ग चुनना है—तुम्हें इन सबके बारे में अच्छी जानकारी होनी चाहिए। जब तुम्हारा सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो तुम्हारी धारणाओं और कल्पनाओं से मेल नहीं खाती तो तुम उसका अनुभव कैसे करोगे? ऐसे मामलों में तुम्हें कौन-से सत्य—और सत्य के कौन-से पहलू—पता होने चाहिए ताकि तुम न केवल अपनी धारणाओं का समाधान करते हुए, बल्कि परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त करते हुए सहज तरीके से प्रलोभनों पर काबू पा सको—क्या तुम्हें इसी की खोज नहीं करनी चाहिए? तुम लोग आम तौर पर किस प्रकार के प्रलोभनों का अनुभव करते हो? (रुतबा, प्रसिद्धि, धन, पैसा, पुरुष-महिलाओं में संबंध।) ये मूल रूप से सामान्य प्रलोभन हैं। और आज तुम्हारे आध्यात्मिक कद को देखा जाए तो तुम किन प्रलोभनों पर खुद काबू पाने और दृढ़ता से खड़े रहने में सक्षम हो? क्या तुम लोगों के पास इन प्रलोभनों पर काबू पाने के लिए सही आध्यात्मिक कद है? क्या तुम लोग वाकई यकीन दिला सकते हो कि अपना कर्तव्य ठीक से निभाओगे और ऐसा कुछ भी नहीं करोगे जो सत्य के खिलाफ हो या जो विघ्न-बाधा डालने वाला हो या जो अवज्ञाकारी और विद्रोही हो या जो परमेश्वर को नाराज करे? (नहीं।) तो अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए? पहली बात, तुम्हें सभी चीजों में खुद की जाँच करनी चाहिए जिससे यह पता लगे कि तुम्हारा कार्य सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं या नहीं, कहीं तुम्हारा बर्ताव लापरवाह तो नहीं और कहीं तुममें विद्रोही या विरोधी तत्व तो नहीं हैं। अगर ऐसा है तो उन्हें हल करने के लिए तुम्हें सत्य खोजना चाहिए। इसके अलावा, अगर कुछ ऐसी बातें हैं जो तुम्हें अपने बारे में नहीं पता हैं तो उनका समाधान करने के लिए भी तुम्हें सत्य खोजना चाहिए। अगर तुम्हारे साथ काट-छाँट होती है तो तुम्हें उसे स्वीकार करके समर्पण करना चाहिए। अगर लोग तथ्यों के अनुसार बात करते हैं तो तुम उनके साथ बिल्कुल भी बहस और कुतर्क नहीं कर सकते; केवल तभी तुम खुद को पहचानकर सच्चा पश्चात्ताप कर पाओगे। लोगों को इन दो पहलुओं की अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए और सच्चा प्रवेश करना चाहिए। इस तरह, वे सत्य की समझ प्राप्त कर सकते हैं और उसकी वास्तविकता में प्रवेश करके स्वीकार्य स्तर पर अपना कर्तव्य निभा सकते हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है
दैनिक जीवन में लोग तमाम तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आते हैं और अगर उनके पास सत्य नहीं है और वे प्रार्थना कर इसे खोजते नहीं हैं, तो फिर उनके लिए प्रलोभन छोड़ना मुश्किल होगा। चाहे स्त्री-पुरुषों के संबंधों का उदाहरण ही ले लो। कई लोग इस प्रकार के प्रलोभन नहीं छोड़ पाते, और इस तरह की स्थिति आते ही इसमें फँस जाते हैं। क्या इससे यह पता नहीं चलता कि उनका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है? जिन लोगों के पास सत्य नहीं होता है, वे ऐसे ही दयनीय होते हैं, और कोई गवाही नहीं दे पाते हैं। कुछ लोग पैसे से जुड़ी स्थितियों का सामना करते हुए प्रलोभन में फँस जाते हैं। जब वे दूसरे धनवान लोगों को देखते हैं तो शिकायत करने लगते हैं, “उनके पास इतना पैसा कैसे है और मैं इतना गरीब क्यों हूँ? यह अन्याय है!” जब उनके साथ ऐसा होता है तो वे शिकायत करते हैं, और वे इसे परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते या उसके आयोजनों और व्यवस्था के प्रति समर्पण नहीं कर पाते। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो हमेशा रुतबे पर ध्यान धरे रहते हैं, और ऐसे प्रलोभन सामने आने पर, इनसे बच नहीं पाते हैं। जैसे, कोई अविश्वासी उन्हें किसी आधिकारिक पद पर रखना चाहता है, उन्हें कई लाभ देना चाहता है, तो वे डिगे बिना नहीं रह पाते। वे सोचने लगते हैं, “क्या इसे स्वीकार करना चाहिए?” वे प्रार्थना करते हैं, मनन करते हैं, और फिर कहते हैं : “हाँ—मुझे स्वीकारना ही होगा!” वे अपना मन बना चुके होते हैं, उनके और आगे खोजने का कोई अर्थ नहीं होता है। वे इस आधिकारिक पद और लाभों को स्वीकारने का पक्का फैसला कर चुके होते हैं, लेकिन वे लौटकर परमेश्वर पर विश्वास भी करना चाहते हैं, उन्हें डर होता है कि वे परमेश्वर पर विश्वास से प्राप्त आशीष गँवा बैठेंगे। इसलिए वे उससे प्रार्थना करते हैं : “हे परमेश्वर, मेरी परीक्षा ले।” अब तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए बचा ही क्या है? तुम पहले ही अपना आधिकारिक ओहदा संभालने का मन बना चुके हो। तुम इस मामले में दृढ़ता से खड़े नहीं रह पाए, और पहले ही इस प्रलोभन में फँस चुके हो। क्या तुम्हें अब भी परीक्षा देने की जरूरत है? तुम परमेश्वर की परीक्षा देने लायक नहीं हो। तुम्हारा आध्यात्मिक कद पिद्दी भर है, क्या तुम परीक्षा दे भी पाओगे? कुछ दूसरे घिनौने लोग भी होते हैं जो कोई भी फायदा देखकर होड़ करने लगते हैं। पवित्र आत्मा ठीक उनके बगल में होता है, देखता रहता है कि वे क्या विचार व्यक्त करते हैं, उनका रवैया क्या है और वह उनकी परीक्षा लेने लगता है। कुछ लोग मन ही मन सोचते हैं, “भले ही परमेश्वर मुझ पर मेहरबानी कर रहा हो, मुझे यह नहीं चाहिए। मेरे पास पहले से बहुत है, और परमेश्वर पहले ही मुझ पर मेहरबान है। मुझे न तो अच्छे भोजन की परवाह है, न अच्छे कपड़ों की, मुझे तो बस सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर को हासिल कर सकने की चिंता है। मैंने जो सत्य हासिल किया है वह मुझे परमेश्वर ने मुफ्त में दिया है। मैं तो इन चीजों के लायक भी नहीं हूँ।” पवित्र आत्मा उनके दिलों की पड़ताल करके उन्हें और भी प्रबुद्ध करता है, उन्हें और समझने लायक बनाता है, उनमें और उत्साह भरता है, और उनके लिए सत्य को और भी समझने लायक बना देता है। लेकिन ऐसे घिनौने लोग किसी फायदे को देखकर सोचते हैं, “किसी और से पहले मैं इसे लपक लेता हूँ। अगर वे इसे किसी और को देते हैं तो मैं उन्हें डपटूँगा और मुसीबत खड़ी कर दूँगा। मैं उन्हें दिखा दूँगा कि मैं किस मिट्टी का बना हूँ, और फिर देखता हूँ कि वे अगली बार कैसे किसी और को देते हैं!” पवित्र आत्मा देखता है कि वे इस प्रकार के हैं और वह उनका खुलासा कर देता है। उनकी कुरूपता उजागर हो चुकी होती है, और ऐसे व्यक्तियों को दंड मिलना ही चाहिए। वे चाहे कितने ही साल से विश्वास करते आ रहे हों, यह उनके काम नहीं आएगा। उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा! कई बार पवित्र आत्मा लोगों पर तब दया दिखाता है जब उन्हें इसकी कोई उम्मीद नहीं होती है। अगर परमेश्वर तुम पर दया नहीं दिखाता है, तो तुम्हें दंड भी तब मिलेगा जब तुम्हें उम्मीद नहीं होगी। तो देख लो, सत्य का अनुसरण न करने वालों के लिए चीजें कितनी खतरनाक हैं।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है
अगर तुम सामने आने वाले प्रलोभनों के प्रति सचेत न रहो, उन्हें हल्के में संभालो और सही विकल्प न चुन सको, तो ये प्रलोभन तुम्हें संताप और दुःख देंगे। उदाहरण के लिए, भाई-बहनों के विशेष व्यवहार में तुम्हें रोटी, कपड़ा, मकान जैसे भौतिक लाभ और रोजमर्रा की जरूरतें मुहैया करना शामिल हैं। अगर तुम जिन चीजों का आनंद उठाते हो, वे उनकी दी हुई चीजों से बेहतर हैं, तो तुम उन्हें हेय दृष्टि से देखोगे, और शायद उनके उपहारों को ठुकरा दो। लेकिन अगर तुम किसी धनी व्यक्ति से मिले, और वह तुम्हें उम्दा सूट देकर कहे कि वह इसे नहीं पहनता, तो क्या तुम ऐसे प्रलोभन के सामने भी अडिग रह सकोगे? शायद तुम उस स्थिति पर सोच-विचार करो और खुद से कहो, “वह धनी है, उसके लिए ये कपड़े मायने नहीं रखते। वैसे भी वह ये कपड़े नहीं पहनता। अगर वह ये मुझे नहीं देगा, तो उठाकर किसी और को दे देगा। इसलिए मैं ही रख लेता हूँ।” इस फैसले का तुम क्या अर्थ निकालोगे? (वह पहले से हैसियत का आनंद उठा रहा है।) यह हैसियत के लाभों का आनंद उठाना कैसे है? (क्योंकि उसने उम्दा चीजें स्वीकार कर लीं।) क्या तुम्हें दी गईं उम्दा चीजें स्वीकार करना ही हैसियत का लाभ उठाना है? अगर तुम्हें कोई साधारण चीज दी जाए, मगर यह तुम्हारी जरूरत की चीज हो, तो क्या इसे भी हैसियत के लाभों का आनंद उठाना कहा जाएगा? (हाँ। जब भी वह अपनी स्वार्थपरक इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए दूसरों से चीजें स्वीकार करता है, इसे लाभ का आनंद उठाने में गिना जाएगा।) लगता है तुम इस बारे में स्पष्ट नहीं हो। क्या तुमने कभी इस बारे में सोचा है : अगर तुम अगुआ नहीं होते, तुम्हारी कोई हैसियत नहीं होती, तो क्या वह तब भी तुम्हें यह उपहार देता? (वह नहीं देता।) यकीनन वह नहीं देता। तुम्हारे अगुआ होने के कारण ही वह तुम्हें यह उपहार देता है। इस चीज की प्रकृति बदल चुकी है। यह सामान्य दान नहीं है, और समस्या इसी में है। अगर तुम उससे पूछोगे, “अगर मैं अगुआ न होता, सिर्फ एक भाई-बहन होता, तो क्या तब भी तुम मुझे यह उपहार देते? अगर इस चीज की किसी भाई-बहन को जरूरत होती, तो क्या तुम उसे यह चीज दे देते?” वह कहेगा, “मैं नहीं दे सकता। मैं किसी भी व्यक्ति को यूँ ही चीजें नहीं दे सकता। मैं तुम्हें इसलिए देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अगुआ हो। अगर तुम्हारी यह विशेष हैसियत नहीं होती, तो मैं ऐसा उपहार भला क्यों देता?” अब देखो, तुम स्थिति को किस तरह नहीं समझ पाए हो। उसके यह कहने पर कि उस उम्दा सूट की उसे जरूरत नहीं है, तो तुम्हें यकीन हो गया, मगर वह तुमसे छल कर रहा था। उसका प्रयोजन तुमसे उसका उपहार स्वीकार करवाना है, ताकि भविष्य में तुम उससे अच्छा बर्ताव करो, और उसका विशेष ख्याल रखो। यह उपहार देने के पीछे उसकी नीयत यही है। सच्चाई यह है कि तुम दिल से जानते हो कि तुम हैसियतवाले न होते, तो वह तुम्हें कभी भी ऐसा उपहार न देता, फिर भी तुम उसे स्वीकार कर लेते हो। अपनी जीभ से बुलवाते हो, “परमेश्वर का धन्यवाद। मैंने यह उपहार परमेश्वर से स्वीकार किया है। यह मुझ पर परमेश्वर की उदारता है।” न केवल तुम हैसियत के लाभों का आनंद उठाते हो, बल्कि तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों की चीजों में भी आनंद उठाते हो, मानो कि उचित रूप से वे तुम्हें ही मिलने थे। क्या यह बेशर्मी नहीं है? अगर इंसान को जमीर की समझ न हो, उसमें बिल्कुल शर्म न हो, तो यह एक समस्या है। क्या यह सिर्फ बर्ताव का मामला है? क्या दूसरों से चीजें स्वीकार कर लेना गलत है और इनकार कर देना सही? ऐसी स्थिति से सामना होने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें इस उपहार देने वाले से पूछना चाहिए कि क्या वे जो कर रहे हैं, वह सिद्धांतों के अनुरूप हैं। उनसे कहो, “आइए, हम परमेश्वर के वचनों, या कलीसिया के प्रशासनिक आदेशों में मार्गदर्शन ढूँढ़ें और देखें कि जो आप कर रहे हैं, वह सिद्धांतों के अनुरूप है या नहीं। अगर नहीं, तो मैं ऐसा उपहार स्वीकार नहीं कर सकता।” अगर उपहार देनेवाले को उन सूत्रों द्वारा सूचित किया जाता है कि उनका यह काम सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, फिर भी वे उपहार देना चाहते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए। साधारण लोग इससे उबर नहीं सकते। वे उत्सुकता से लालसा रखते हैं कि दूसरे उन्हें और ज्यादा दें, वे और अधिक विशेष व्यवहार का आनंद उठाना चाहते हैं। अगर तुम सही किस्म के इंसान हो, तो ऐसी स्थिति सामने आने पर तुम्हें फौरन यह कहकर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, “हे परमेश्वर, आज जिससे मेरा सामना हुआ है वह यकीनन तुम्हारी सदिच्छा है। यह मेरे लिए तुम्हारा निर्धारित सबक है। मैं सत्य खोजने और सिद्धांतों के अनुसार कर्म करने को तैयार हूँ।” हैसियतवाले लोगों के सामने आनेवाले प्रलोभन बहुत बड़े हैं, और एक बार प्रलोभन आने पर, उससे उबर पाना बहुत कठिन है। तुम्हें परमेश्वर से सुरक्षा और सहायता लेने की जरूरत है; तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए और अक्सर आत्मचिंतन करना चाहिए। इस प्रकार, तुम खुद को जमीन से जुड़ा और शांत महसूस करोगे। लेकिन अगर प्रार्थना करने के लिए तुम ऐसे उपहार मिलने तक प्रतीक्षा करोगे, तो क्या तुम इस तरह जमीन से जुड़ा हुआ और शांत महसूस करोगे? (तब नहीं करोगे।) तब परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या सोचेगा? क्या तुम्हारे कर्मों से परमेश्वर प्रसन्न होगा, या उनसे नफरत करेगा? वह तुम्हारे कर्मों से घृणा करेगा। क्या समस्या सिर्फ तुम्हारे किसी चीज को स्वीकार करने की है? (नहीं।) तो फिर समस्या कहाँ है? समस्या इस बात में है कि ऐसी स्थिति का सामना होने पर तुम कैसी राय और रवैया अपनाते हो। क्या तुम खुद फैसला कर लेते हो या सत्य खोजते हो? क्या तुम्हारा जमीर का कोई मानक है? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है भी? जब भी ऐसी स्थिति से सामना होता है, तो क्या तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो? क्या तुम पहले अपनी इच्छाएँ संतुष्ट करने की कोशिश करते हो, या पहले प्रार्थना कर परमेश्वर की इच्छा जानने की कोशिश करते हो? इस मामले में तुम्हारा खुलासा हो जाता है। तुम्हें ऐसी स्थिति को कैसे सँभालना चाहिए? तुम्हारे पास अभ्यास के सिद्धांत होने चाहिए। पहले बाहर से तुम्हें ऐसे विशेष भौतिक लाभों, इन प्रलोभनों को इनकार करना चाहिए। भले ही तुम्हें ऐसी कोई चीज दी जाए जो तुम्हें खास तौर पर चाहिए, या यह ठीक वही चीज हो जिसकी तुम्हें जरूरत है, तुम्हें इसी तरह उसे इनकार करना चाहिए। भौतिक चीजों का क्या अर्थ है? रोटी, कपड़ा और मकान, और रोजमर्रा जरूरत की तमाम चीजें इनमें शामिल हैं। इन विशेष भौतिक चीजों को जरूर इनकार करना चाहिए। तुम्हें इन्हें इनकार क्यों करना चाहिए? क्या ऐसा करना महज तुम्हारे कर्म का मामला है? नहीं; यह तुम्हारे सहयोगी रवैए का मामला है। अगर तुम सत्य पर अमल करना चाहते हो, परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हो, और प्रलोभन से दूर रहना चाहते हो, तो पहले तुम्हें सहयोगी रवैया अपनाना होगा। इस रवैए के साथ तुम प्रलोभन से दूर रह सकोगे, और तुम्हारा अंतःकरण शांत रहेगा। अगर तुम्हारी चाही कोई चीज तुम्हें दी जाए, और तुम उसे स्वीकार कर लो, तो तुम्हारा दिल कुछ हद तक तुम्हारे जमीर की फटकार महसूस करेगा। लेकिन अपने बहानों और मनगढ़ंत बातों के कारण तुम कहोगे कि तुम्हें यह चीज दी जानी चाहिए, यह तुम्हें देय है। और फिर, तुम्हारे जमीर की टीस उतनी सही या स्पष्ट व्यक्त नहीं होगी। कभी-कभी तुम्हारी सोच या विचार तुम्हारे जमीर को डुला सकते हैं, जिससे कि उसकी टीस उतनी स्पष्ट नहीं होगी। तो क्या तुम्हारा जमीर एक भरोसेमंद मानक है? यह नहीं है। यह अलार्म की घंटी है जो लोगों को चेतावनी देती है। यह कैसी चेतावनी देती है? यह कि सिर्फ जमीर की भावनाओं के सहारे रहने में कोई सुरक्षा नहीं है; व्यक्ति को सत्य सिद्धांत भी खोजने चाहिए। वही भरोसेमंद होता है। लोग, उन्हें रोकनेवाले सत्य के बिना, प्रलोभन में फँस सकते हैं, बहुतेरे कारण और बहाने बना सकते हैं जिससे कि हैसियत के लाभों का उनका लालच संतुष्ट हो सके। इसलिए एक अगुआ के रूप में, तुम्हें अपने दिल में इस एक सिद्धांत का पालन करना होगा : मैं हमेशा इनकार करूँगा, हमेशा दूर रहूँगा, और किसी भी विशेष व्यवहार को पूरी तरह से ठुकरा दूँगा। बुराई से दूर रहने की पहली शर्त इसे पूरी तरह से ठुकरा देना है। अगर तुम्हारे पास बुराई से दूर रहने की पहली शर्त मौजूद है, तो कुछ हद तक तुम पहले से ही परमेश्वर की रक्षा के अधीन हो। और अगर तुम्हारे पास अभ्यास के ऐसे सिद्धांत हैं, और उन्हें मजबूती से थामे रहते हो, तो तुम पहले से ही सत्य पर अमल कर रहे हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हो। तुम पहले से ही सही मार्ग पर चल रहे हो। जब तुम सही मार्ग पर चल रहे हो, और पहले से ही परमेश्वर को संतुष्टि दे रहे हो, तो क्या तुम्हें जमीर की परीक्षा देने की जरूरत है? सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना और सत्य पर अमल करना जमीर के मानकों से ऊँचा है। अगर किसी में सहयोग करने का संकल्प हो, और वह सिद्धांतों के अनुसार कर्म कर सकता हो तो वह पहले ही परमेश्वर को संतुष्ट कर चुका है। परमेश्वर मनुष्य से इसी मानक की अपेक्षा रखता है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, हैसियत के प्रलोभन और बंधन कैसे तोड़ें
तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सम्मुख आना चाहिए, उसके वचनों का खान-पान कर उस पर चिंतन-मनन करना चाहिए, उसके अनुशासन और मार्गदर्शन को स्वीकार करना चाहिए, और समर्पण का सबक सीखना चाहिए—यह बहुत जरूरी है। तुम्हें परमेश्वर द्वारा तैयार किए गए हर तरह के माहौल, लोगों, चीजों, और मामलों के सामने समर्पण करने में सक्षम होना चाहिए, और जब बात ऐसे मामलों की आए जिसकी थाह तक तुम न पहुँच सको, तो तुम्हें सत्य खोजते समय अक्सर प्रार्थना करनी चाहिए; केवल परमेश्वर की इच्छा को समझकर ही तुम आगे का रास्ता पा सकते हो। तुम्हें दिल से परमेश्वर का भय मानना चाहिए। तुम्हें अपना कार्य सावधानी और सतर्कता से करना चाहिए, और परमेश्वर के सामने समर्पण वाले दिल के साथ जीना चाहिए। उसके सामने अक्सर शांतचित्त होकर बैठो, स्वच्छंद न बनो। कम-से-कम, तुम्हारे साथ कुछ घटने पर, पहले मन को शांत करो, फिर फौरन प्रार्थना करो, और प्रार्थना, खोज और प्रतीक्षा करके परमेश्वर की इच्छा को समझो। क्या यह परमेश्वर का भय मानने का रवैया नहीं है? अगर तुम दिल से परमेश्वर का भय मानकर उसका आज्ञापालन करते हो, और उसके सामने शांतचित्त होने और उसकी इच्छा को समझने में सक्षम हो, तो इस तरह के सहयोग और अभ्यास से तुम्हारी रक्षा होगी, तुम प्रलोभित नहीं होगे, न ही ऐसा कुछ करोगे जिससे कलीसिया कार्य में गड़बड़ी या बाधा पैदा हो। जिन मामलों को तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, उनका सत्य खोजो। आँखें बंद करके आलोचना या निंदा मत करो। इस प्रकार परमेश्वर तुमसे घृणा नहीं करेगा, तुम्हें नहीं ठुकराएगा। अगर तुम्हारे मन में परमेश्वर का भय है तो तुम उसका अपमान करने से डरोगे, और तुम्हारे सामने कोई प्रलोभन आए, तो तुम परमेश्वर के सामने भय और संशय के साथ जियोगे, और हर चीज में उसकी आज्ञा का पालन करने और उसे संतुष्ट करने की लालसा रखोगे। जब एक बार तुम ऐसा अभ्यास करके अक्सर ऐसी दशा में जीने में सक्षम हो जाओगे, अक्सर परमेश्वर के सामने शांतचित्त हो सकोगे, और अक्सर उसके सामने आ सकोगे, तो तुम अनजाने ही प्रलोभन और दुष्कर्मों से दूर रहोगे। परमेश्वर से भय मानने वाले दिल के बिना, या ऐसे दिल के साथ जो उसके सामने नहीं है, तुम कुछ दुष्कर्म करने में सक्षम होगे। तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है और तुम उसे काबू में नहीं रख सकते, तो तुम दुष्कर्म करने में सक्षम होगे। अगर तुम गड़बड़ी या बाधा खड़ी करनेवाले दुष्कर्म करते हो, तो क्या उसके परिणाम गंभीर नहीं होंगे? कम-से-कम तुम्हारा निपटान कर तुम्हें काटा-छाँटा जाएगा, और अगर तुम्हारा किया कुछ गंभीर है, तो परमेश्वर तुमसे घृणा कर तुम्हें ठुकरा देगा, और तुम्हें कलीसिया से निष्कासित कर दिया जाएगा। लेकिन, अगर तुम दिल से परमेश्वर के प्रति समर्पण कर दो, तुम्हारा दिल अक्सर परमेश्वर के सामने शांतचित्त हो सके, और तुम परमेश्वर का भय मानते और उससे आतंकित होते हो, तो तब क्या तुम बहुत-से दुष्कर्मों से बहुत दूर नहीं रहोगे? अगर तुम परमेश्वर का भय मानकर कहोगे, “मैं परमेश्वर से आतंकित हूँ; मैं उसका अपमान करने से डरता हूँ, उसके कार्य को बाधित करने और उसकी घृणा का पात्र बनने से डरता हूँ,” तो क्या यह तुम्हारे अपनाने के लिए एक सामान्य रवैया, एक सामान्य दशा नहीं है? वह क्या चीज है जो तुम्हारे मन में आतंक को जन्म देती है? तुम्हारा आतंक परमेश्वर का भय मानने से उपजा होगा। अगर तुम्हारे दिल में परमेश्वर का आतंक है, तो सामने दिखाई पड़ने पर तुम बुरी चीजों से दूर रहोगे, उनसे बचोगे, और इस तरह तुम्हारी रक्षा होगी। क्या दिल में परमेश्वर का आतंक बिठाए बिना कोई उसका भय मानेगा? क्या वे बुराई से दूर रहेंगे? (नहीं।) परमेश्वर का भय न मान सकनेवाले और उससे आतंकित न होनेवाले दिलेर लोग नहीं हैं? क्या दिलेर लोग संयमित रह सकते हैं? (नहीं।) और जो लोग संयम में नहीं रह सकते, क्या वे उस पल की गर्मी में कुछ भी नहीं कर गुजरते? जब लोग अपनी इच्छा, अपने उत्साह, और अपने भ्रष्ट स्वभाव से कर्म करते हैं, तो वे क्या-क्या चीजें करते हैं? परमेश्वर की दृष्टि में वे बुरी चीजें हैं। तो, तुम्हें स्पष्ट रूप से देखना चाहिए कि मनुष्य के दिल में परमेश्वर का भय होना एक अच्छी बात है—इसके साथ वह परमेश्वर का भय मान सकता है। जब किसी के दिल में परमेश्वर होता है, और वह परमेश्वर का भय मान सकता है, तो वह बुरी चीजों से बहुत दूर रहने में सक्षम होगा। ये ऐसे लोग होते हैं, जिन्हें बचाए जाने की आशा होती है।
—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है
मनुष्य के चिरकालिक भरण-पोषण और सहारे के अपने कार्य के दौरान, परमेश्वर अपने इरादे और अपनी अपेक्षाएँ मनुष्य को संपूर्णता में बताता है, और मनुष्य को अपने कर्म, स्वभाव, और वह जो है और उसके पास जो है दिखाता है। उद्देश्य है मनुष्य को कद-काठी से सुसज्जित करना, और मनुष्य को परमेश्वर का अनुसरण करते हुए उससे विभिन्न सत्य प्राप्त करने देना—सत्य जो मनुष्य को परमेश्वर द्वारा शैतान से लड़ने के लिए दिए गए हथियार हैं। इस प्रकार सुसज्जित, मनुष्य को परमेश्वर की परीक्षाओं का सामना करना ही चाहिए। परमेश्वर के पास मनुष्य की परीक्षा लेने के लिए कई साधन और मार्ग हैं, किंतु उनमें से प्रत्येक को परमेश्वर के शत्रु, शैतान, के “सहयोग” की आवश्यकता होती है। कहने का तात्पर्य यह, शैतान से युद्ध करने के लिए मनुष्य को हथियार देने के बाद, परमेश्वर मनुष्य को शैतान को सौंप देता है और शैतान को मनुष्य की कद-काठी की “परीक्षा” लेने देता है। यदि मनुष्य शैतान की व्यूह रचनाओं को तोड़कर बाहर निकल सकता है, यदि वह शैतान की घेराबंदी से बचकर निकल सकता है और तब भी जीवित रह सकता है, तो मनुष्य ने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली होगी। परंतु यदि मनुष्य शैतान की व्यूह रचनाओं से छूटने में विफल हो जाता है, और शैतान के आगे झुक जाता है, तो उसने परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की होगी। परमेश्वर मनुष्य के जिस किसी भी पहलू की जाँच करता है, उसकी कसौटी यही होती है कि मनुष्य शैतान द्वारा आक्रमण किए जाने पर अपनी गवाही पर डटा रहता है या नहीं, और उसने शैतान द्वारा फुसलाए जाने पर परमेश्वर को त्याग दिया है या नहीं और शैतान के आगे हार मानकर आत्मसमर्पण कर लिया है या नहीं। कहा जा सकता है कि मनुष्य को बचाया जा सकता है या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि वह शैतान को परास्त करके उस पर विजय प्राप्त कर सकता है या नहीं, और वह स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि वह शैतान की दासता पर विजय पाने के लिए परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए हथियार, अपने दम पर, उठा सकता है या नहीं, शैतान को पूरी तरह आस तजकर उसे अकेला छोड़ देने के लिए विवश कर पाता है या नहीं। यदि शैतान आस तजकर किसी को छोड़ देता है, तो इसका अर्थ है कि शैतान फिर कभी इस व्यक्ति को परमेश्वर से लेने की कोशिश नहीं करेगा, फिर कभी इस व्यक्ति पर दोषारोपण और उसे परेशान नहीं करेगा, फिर कभी उन्हें निर्दयतापूर्वक यातना नहीं देगा या आक्रमण नहीं करेगा; केवल इस जैसे किसी व्यक्ति को ही परमेश्वर द्वारा सचमुच प्राप्त किया गया होगा। यही वह संपूर्ण प्रक्रिया है जिसके द्वारा परमेश्वर लोगों को प्राप्त करता है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II
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शैतान की परीक्षा में जीत हासिल करना
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