17. बीमारी और दर्द से कैसे निपटें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

सबसे पहले, लोगों को यह समझना चाहिए कि उनके पूरे जीवन में जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु की पीड़ा कहाँ से आती है और मनुष्य ये चीजें क्यों झेलता है। क्या ये तब थीं जब मनुष्य पहली बार सृजित किया गया था? ये पीड़ाएँ कहाँ से आईं? ये पीड़ाएँ तब पैदा हुईं जब मनुष्य को शैतान ने लालच देकर भ्रष्ट बना दिया और फिर उसका पतन हो गया। मनुष्य की देह की पीड़ा, परेशानियाँ और खोखलापन, और मनुष्य की दुनिया में सभी अधम चीजें—ये सभी शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किए जाने के बाद प्रकट हुईं। शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किए जाने के बाद, शैतान ने मनुष्य को पीड़ा देना शुरू कर दिया, और इस तरह मनुष्य और भी ज्यादा गिर गया, उसकी बीमारी और भी ज्यादा गंभीर हो गई, उसकी पीड़ा और भी ज्यादा बढ़ गई, और उसे इस बात का अधिकधिक एहसास हुआ कि दुनिया खोखली और दुखद है, कि इस दुनिया में जीवित रहना असंभव है, और इस दुनिया में रहना अधिकाधिक निराशाजनक है। तो मनुष्य के लिए यह पीड़ा शैतान लाया और यह सारी पीड़ा तब पैदा हुई जब वह शैतान के हाथों भ्रष्ट बनकर पतित हो गया।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर द्वारा जगत की पीड़ा का अनुभव करने का अर्थ

कुछ लोग अक्सर बीमार पड़ जाते हैं, लेकिन चाहे वे परमेश्वर से कितनी भी प्रार्थना करें, फिर भी वे ठीक नहीं होते। चाहे वे अपनी बीमारी से कितना भी छुटकारा पाना चाहें, लेकिन नहीं पा सकते। कभी-कभी, उन्हें जानलेवा परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ सकता है और उन्हें इन परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। दरअसल, यदि किसी के हृदय में वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास है, तो उसे सबसे पहले यह जान लेना चाहिए कि व्यक्ति का जीवनकाल परमेश्वर के हाथों में है। व्यक्ति के जन्म और मृत्यु का समय परमेश्वर ने पूर्व नियत किया है। जब परमेश्वर लोगों को बीमारी देता है, तो उसके पीछे कोई कारण होता है—उसका अर्थ होता है। यह उन्हें बीमारी जैसा लगता है, लेकिन वास्तव में यह बीमारी नहीं, अनुग्रह है। लोगों को पहले इस तथ्य को पहचानना चाहिए और इसके बारे में सुनिश्चित होना चाहिए, और इसे गंभीरता से लेना चाहिए। जब लोग बीमारी से पीड़ित होते हैं, तो वे अक्सर परमेश्वर के सामने आ सकते हैं, और विवेक और सावधानी के साथ, वह करना सुनिश्चित कर सकते हैं जो उन्हें करना चाहिए, और दूसरों की तुलना में अधिक सावधानी और परिश्रम के साथ अपना कर्तव्य निभा सकते हैं। जहाँ तक लोगों का सवाल है, यह एक सुरक्षा है, बंधन नहीं। यह चीजों को सँभालने का नकारात्मक तरीका है। इसके अलावा, हर व्यक्ति का जीवन परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित किया गया है। चिकित्सीय दृष्टिकोण से कोई बीमारी प्राणांतक दिखाई दे सकती है, लेकिन परमेश्वर के नजरिये से अगर तुम्हारा जीवन अभी बाकी है और तुम्हारा समय अभी नहीं आया है, तो तुम चाहकर भी नहीं मर सकते। अगर परमेश्वर ने तुम्हें कोई आदेश दिया है, और तुम्हारा मिशन अभी तक पूरा नहीं हुआ है, तो तुम उस बीमारी से भी नहीं मरोगे जो प्राणघातक है—परमेश्वर अभी तुम्हें मरने नहीं देगा। भले ही तुम प्रार्थना न करो, सत्य की तलाश न करो या अपनी बीमारी का इलाज न कराओ—या भले ही तुम अपना इलाज स्थगित कर दो—फिर भी तुम मरोगे नहीं। यह खास तौर से उन लोगों पर लागू होता है जिन्होंने परमेश्वर से एक आदेश प्राप्त किया है : जब तक उनका मिशन पूरा नहीं होता, उन्हें चाहे कोई भी बीमारी हो जाए, वे तुरंत नहीं मरेंगे; वे तब तक जियेँगे जब तक कि उनका मिशन पूरा नहीं हो जाता। क्या तुम्हें यह विश्वास है? यदि तुम ऐसा नहीं करते हो, तो तुम परमेश्वर से केवल कुछ दिखावटी प्रार्थनाएँकरोगे और कहोगे, “परमेश्वर! मुझे तुम्हारा आदेश पूरा करना है। मैं अपने अंतिम दिन तुम्हारी प्रगाढ़ भक्ति में बिताना चाहता हूँ, ताकि मुझे कोई पछतावा न रहे। तुम्हें मेरी रक्षा करनी होगी!” यद्यपि तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो, लेकिन यदि तुम सत्य पाने के लिए पहल नहीं करते हो, तो तुम्हारे पास अपनी निष्ठा निभाने की इच्छाशक्ति और ताकत नहीं होगी। चूँकि वास्तविक कीमत चुकाने की तुम्हारी इच्छा नहीं है, इसलिए तुम अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करने और उसके साथ मोलभाव करने के लिए इस तरह के बहाने और तरीके आजमाते हो—क्या यह व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है? यदि तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाए, तो क्या तुम वास्तव में अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा पाओगे? जरूरी नहीं। सच तो यह है कि चाहे तुम्हारी सौदेबाजी अपनी बीमारी ठीक करने और खुद को मरने से बचाने के लिए हो, या इसमें तुम्हारा कोई और इरादा या लक्ष्य हो, परमेश्वर के नजरिये से, अगर तुम अपने कर्तव्य को पूरा कर सकते हो और अभी भी काम के हो, अगर परमेश्वर ने तय किया है कि वह तुम्हारा इस्तेमाल करेगा, तो तुम नहीं मरोगे। अगर तुम मरना भी चाहो तो नहीं मर सकते। लेकिन अगर तुम कोई परेशानी खड़ी करते हो, दुनिया भर के बुरे काम करते हो परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करते हो, तो तुम तुरंत मर जाओगे; तुम्हारे जीवन को छोटा कर दिया जाएगा। दुनिया को बनाने से पहले ही परमेश्वर ने सभी की जीवन अवधि तय कर दी थी। यदि लोग परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों का पालन करें, तो फिर चाहे बीमारी आए चाहे न आए, उनका स्वास्थ्य अच्छा हो या खराब हो, वे उतने वर्ष तो जियेँगे ही जितने परमेश्वर ने पहले ही तय किए हैं। क्या तुम्हें यह विश्वास है? यदि तुम इसे केवल धर्म-सिद्धांत के आधार पर स्वीकार करते हो, तो तुम्हें सच्चा विश्वास नहीं है, और कानों को अच्छे लगने वाले शब्द कहना बेकार है; यदि तुम अपने हृदय की गहराई से पुष्टि करते हो कि परमेश्वर ऐसा करेगा, तो तुम्हारा दृष्टिकोण और अभ्यास करने का तरीका स्वाभाविक रूप से बदल जाएगा। बेशक, भले ही लोग बीमार हों या नहीं, उन्हें अपने जीवनकाल में अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के बारे में कुछ सामान्य समझ होनी चाहिए। यह वह सहज प्रवृत्ति है जो परमेश्वर ने मनुष्य को दी है। यही वह तर्क और सामान्य समझ है जो उस स्वतंत्र इच्छा के अंतर्गत व्यक्ति के पास होनी चाहिए जो परमेश्वर ने उसे दी है। जब तुम बीमार पड़ जाते हो, तो इस बीमारी से निपटने के लिए देखभाल और उपचार के बारे में कुछ सामान्य समझ तुममें होनी चाहिए—तुम्हें यही करना चाहिए। परंतु, इस तरह से बीमारी का इलाज करने का मतलब परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए निर्धारित जीवनकाल को चुनौती देना नहीं है, न ही इसका मतलब यह वादा है कि तुम उस जीवनकाल को पूरा जी सकते हो जो उसने तुम्हारे लिए निर्धारित किया है। इसका अर्थ क्या है? इसे इस तरह से समझाया जा सकता है : निष्क्रिय दृष्टि से, यदि तुम अपनी बीमारी को गंभीरता से नहीं लेते हो, यदि तुम अपना कर्तव्य जिस तरह से भी निभाना चाहिए निभाते हो, और दूसरों की तुलना में थोड़ा अधिक आराम करते हो, यदि तुमने अपना कर्तव्य निभाने में देरी नहीं की है, तो तुम्हारी बीमारी और नहीं बढ़ेगी, और यह तुम्हें मार नहीं पाएगी। सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि परमेश्वर क्या करता है। दूसरे शब्दों में, यदि परमेश्वर की दृष्टि में तुम्हारा पूर्व-नियत जीवनकाल अभी तक पूरा नहीं हुआ है, तो भले ही तुम बीमार पड़ जाओ, वह तुम्हें मरने नहीं देगा। यदि तुम्हारी बीमारी लाइलाज नहीं है, लेकिन तुम्हारा समय आ गया है, तो परमेश्वर जब चाहे तुम्हें ले जाएगा। क्या यह पूरी तरह से परमेश्वर की दया पर निर्भर नहीं है? यह उसके पूर्वनिर्धारण पर ही निर्भर है! तुम्हें इस मामले को इसी तरह से देखना चाहिए। तुम अपना काम कर सकते हो और डॉक्टर के पास जा सकते हो, कुछ दवाएँ ले सकते हो, अपने स्वास्थ्य की देखभाल कर सकते हो और व्यायाम कर सकते हो, लेकिन तुम्हें गहराई से यह समझने की जरूरत है कि व्यक्ति का जीवन परमेश्वर के हाथों में है, व्यक्ति का जीवनकाल परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है, और परमेश्वर ने जो पूर्वनिर्धारित कर दिया है उससे आगे कोई नहीं जा सकता। यदि तुम्हारे पास इतनी-सी भी समझ नहीं है, तो तुम्हें सच्चा विश्वास नहीं है, और तुम वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

सर्वशक्तिमान परमेश्वर, समस्त पदार्थों का मुखिया, अपने सिंहासन से अपनी राजसी शक्ति का निर्वहन करता है। वह समस्त ब्रह्माण्ड और सब वस्तुओं पर राज और सम्पूर्ण पृथ्वी पर हमारा मार्गदर्शन करता है। हम हर क्षण उसके समीप होंगे, और एकांत में उसके सम्मुख आयेंगे, एक पल भी नहीं खोयेंगे और हर समय कुछ न कुछ सीखेंगे। हमारे इर्द-गिर्द के वातावरण से लेकर लोग, विभिन्न मामले और वस्तुएँ, सबकुछ उसके सिंहासन की अनुमति से अस्तित्व में हैं। किसी भी वजह से अपने दिल में शिकायतें मत पनपने दो, अन्यथा परमेश्वर तुम्हें अनुग्रह प्रदान नहीं करेगा। बीमारी का होना परमेश्वर का प्रेम ही है और निश्चित ही उसमें उसके नेक इरादे निहित होते हैं। हालाँकि, हो सकता है कि तुम्हारे शरीर को कुछ पीड़ा सहनी पड़े, लेकिन कोई भी शैतानी विचार मन में मत लाओ। बीमारी के मध्य परमेश्वर की स्तुति करो और अपनी स्तुति के मध्य परमेश्वर में आनंदित हो। बीमारी की हालत में निराश न हो, खोजते रहो और हिम्मत न हारो, और परमेश्वर तुम्हें अपने प्रकाश से रोशन करेगा। अय्यूब का विश्वास कैसा था? सर्वशक्तिमान परमेश्वर एक सर्वशक्तिशाली चिकित्सक है! बीमारी में रहने का मतलब बीमार होना है, परन्तु आत्मा में रहने का मतलब स्वस्थ होना है। जब तक तुम्हारी एक भी सांस बाकी है, परमेश्वर तुम्हें मरने नहीं देगा।

पुनरुत्थित मसीह का जीवन हमारे भीतर है। निस्संदेह, परमेश्वर की उपस्थिति में हममें विश्वास की कमी रहती है : परमेश्वर हममें सच्चा विश्वास जगाये। परमेश्वर के वचन निश्चित ही मधुर हैं! परमेश्वर के वचन गुणकारी दवा हैं! वे दानवों और शैतान को शर्मिन्दा करते हैं! परमेश्वर के वचनों को समझने से हमें सहारा मिलता है। उसके वचन हमारे हृदय को बचाने के लिए शीघ्रता से कार्य करते हैं! वे शेष सब बातों को दूर कर सर्वत्र शान्ति बहाल करते हैं। विश्वास एक ही लट्ठे से बने पुल की तरह है : जो लोग घृणास्पद ढंग से जीवन से चिपके रहते हैं उन्हें इसे पार करने में परेशानी होगी, परन्तु जो आत्म बलिदान करने को तैयार रहते हैं, वे बिना किसी फ़िक्र के, मज़बूती से कदम रखते हुए उसे पार कर सकते हैं। अगर मनुष्य कायरता और भय के विचार रखते हैं तो ऐसा इसलिए है कि शैतान ने उन्हें मूर्ख बनाया है क्योंकि उसे इस बात का डर है कि हम विश्वास का पुल पार कर परमेश्वर में प्रवेश कर जायेंगे। शैतान अपने विचारों को हम तक पहुँचाने में हर संभव प्रयास कर रहा है। हमें हर पल परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें अपने प्रकाश से रोशन करे, अपने भीतर मौजूद शैतान के ज़हर से छुटकारा पाने के लिए हमें हर पल परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए। हमें हमेशा अपनी आत्मा के भीतर यह अभ्यास करना चाहिए कि हम परमेश्वर के निकट आ सकें और हमें अपने सम्पूर्ण अस्तित्व पर परमेश्वर का प्रभुत्व होने देना चाहिए।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6

अगर बीमारी आ जाए तो तुम्हें इसका अनुभव कैसे करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के इरादे जानने और टटोलने चाहिए; तुम्हें अपनी जाँच करनी चाहिए कि तुमने ऐसा क्या कर दिया जो सत्य के विरुद्ध है, और तुम्हारी कौन-सी भ्रष्टता दूर नहीं हुई है। कष्ट भोगे बिना तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं हो सकता है। कष्टों की आँच से तपकर ही लोग स्वच्छंद नहीं बनेंगे और हर घड़ी परमेश्वर के समक्ष रह सकेंगे। जब कोई कष्ट भोगता है तो वह हमेशा प्रार्थना में लगा रहता है। तब उसे खान-पान, कपड़े-लत्तों और दूसरी सुख-सुविधाओं की सुध नहीं रहती; वह मन ही मन प्रार्थना करता रहता है, हमेशा आत्म-परीक्षण करता है कि कहीं वह कुछ गलत तो नहीं कर बैठा या कहीं सत्य के विरुद्ध तो नहीं चला गया। आम तौर पर जब तुम किसी गंभीर या अजीब बीमारी का सामना करते हो और बेहद पीड़ा झेलते हो तो ऐसा संयोगवश नहीं होता। चाहे तुम बीमार हो या खूब तंदुरुस्त हो, इसके पीछे परमेश्वर की इच्छा होती है। जब पवित्र आत्मा कार्य करता है और तुम शारीरिक रूप से स्वस्थ होते हो, तो तुम आम तौर परमेश्वर को खोज सकते हो, लेकिन बीमार पड़ने पर और कष्ट भोगते हुए तुम परमेश्वर को खोजना बंद कर देते हो, और नहीं जानते कि उसे कैसे खोजना है। तुम बीमारी भोगते हुए हमेशा यही सोचते रहते हो कि कौन-से इलाज से जल्द से जल्द ठीक हो सकते हो। तुम उन लोगों से जलने लगते हो जो ऐसे समय में बीमार नहीं हैं, और जितनी जल्दी हो सके तुम अपनी बीमारी और पीड़ा से मुक्ति पाना चाहते हो। ये नकारात्मकता और प्रतिरोध की भावनाएँ हैं। जब लोग बीमार पड़ते हैं तो कभी-कभी सोचते हैं, “क्या मैं अपनी अज्ञानता के कारण इस बीमारी को बुलावा दे बैठा, या फिर यह परमेश्वर की इच्छा है?” वे यह पता लगा ही नहीं पाते। दरअसल, कुछ बीमारियाँ सामान्य होती हैं, जैसे सर्दी-जुकाम, सूजन या बुखार। जब तुम्हें कोई बड़ी बीमारी लगती है जो तुम्हें अचानक पस्त कर दे, तुम इसे झेलने के बजाय मरना चाहो, ऐसी बीमारी संयोग से नहीं आती है। जब तुम्हें बीमारी या पीड़ा होती है तो क्या तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे कुछ माँगते हो? पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा मार्गदर्शन और अगुआई कैसे करता है? क्या वह तुम्हें केवल प्रबुद्ध और रोशन करता है? यह उसका अकेला तरीका नहीं है; वह तुम्हारी परीक्षा भी लेता है और तुम्हारा शोधन भी करता है। परमेश्वर लोगों की परीक्षा कैसे लेता है? क्या वह पीड़ा देकर लोगों की परीक्षा नहीं लेता? परीक्षा के साथ-साथ पीड़ा भी होती है। अगर यह परीक्षा न होती तो मनुष्य पीड़ा क्यों सहता? पीड़ा सहे बिना लोग बदल कैसे सकते हैं? परीक्षा के साथ-साथ पीड़ा भी होती है—यही पवित्र आत्मा का कार्य है। कभी-कभी परमेश्वर लोगों को कुछ कष्ट देता है, वरना उन्हें ब्रह्मांड में अपनी औकात का पता ही नहीं रहता और वे ढीठ बन जाते। केवल सत्य पर संगति करके किसी भ्रष्ट स्वभाव को पूरी तरह दूर नहीं किया जा सकता। दूसरे लोग तुम्हारी समस्याओं को बता सकते हैं और तुम भी खुद उन्हें जान सकते हो, लेकिन तुम उन्हें बदल नहीं सकते। खुद को नियंत्रित करने के लिए तुम अपनी इच्छाशक्ति पर चाहे कितना ही भरोसा कर लो, अपने गाल पर थप्पड़ मारने, अपना सिर ठोकने, दीवार से पटकने और अपनी देह को चोट पहुँचाने से भी तुम्हारी समस्याएँ हल नहीं होंगी। चूँकि तुम्हारे भीतर बैठा शैतानी स्वभाव तुम्हें लगातार पीड़ा देता है, परेशान करता है और तुम्हें तमाम तरह के विचार और धारणाएँ देता है, इसलिए इस भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा हो जाएगा। अगर तुम इसे दूर नहीं कर सकते तो तुम्हें क्या करना चाहिए? बीमारी के जरिए तुम्हारा शोधन होना चाहिए। कुछ लोगों को इस शोधन के दौरान इतना अधिक कष्ट होता है कि वे इसे सह नहीं पाते, और प्रार्थना और खोज में जुट जाते हैं। जब तुम बीमार नहीं होते, तो बहुत स्वच्छंद और बेहद अहंकारी होते हो। जब बीमार पड़ जाते हो, तो तुम्हारी हेकड़ी उतर जाती है—क्या तुम तब भी बेहद अहंकारी हो सकते हो? जब तुममें कुछ बोलने भर का दम नहीं होता, तो क्या तुम दूसरों को भाषण दे सकते हो या अहंकारी हो सकते हो? ऐसे समय में तुम कोई माँग नहीं करते हो; तुम खान-पान, कपड़ों या मौज-मस्ती की चिंता किए बिना केवल अपने कष्टों से छुटकारा पाना चाहते हो। तुममें से अधिकतर लोगों को अभी यह अनुभूति नहीं हुई है, पर जब ऐसा होगा तो तुम समझ जाओगे। कुछ लोग अब ऐसे भी हैं जो पद के लिए, देह के सुखों के लिए और अपने हितों के लिए लड़ते हैं। इसकी वजह सिर्फ यह है कि वे बहुत आरामपरस्त हैं, उन्होंने बहुत कम कष्ट सहे हैं और वे मर्यादाहीन हैं। आगे इन लोगों का कष्ट और शोधन से पाला पड़ने वाला है!

कभी-कभी परमेश्वर तुम्हारे लिए कोई परिस्थिति खड़ी करेगा, तुम्हारे आसपास मौजूद लोगों के जरिए तुम्हारी काट-छाँट करेगा और कष्ट दिलाएगा, तुम्हें सबक सिखाएगा और सत्य को समझने और चीजों की असलियत जाने का अवसर देगा। परमेश्वर अभी यही कार्य कर रहा है, तुम्हारी देह को कष्ट दे रहा है, ताकि तुम अपना सबक सीख सको और भ्रष्ट स्वभाव दूर कर अपना कर्तव्य निभा सको। पौलुस अक्सर कहता था कि उसकी देह में काँटा है। यह कौन-सा काँटा था? यह एक बीमारी थी और वह इससे बच नहीं सकता था। वह बखूबी जानता था कि यह कौन-सी बीमारी है, कि यह उसके स्वभाव और प्रकृति से जुड़ी है। अगर वह इस काँटे का मारा न होता, अगर उसे यह बीमारी न लगी होती तो वह शायद कहीं भी और कभी भी अपना राज्य स्थापित कर सकता था, लेकिन इस बीमारी के कारण उसके पास ताकत नहीं बची थी। इसलिए अधिकांश समय बीमारी लोगों के लिए एक प्रकार की “सुरक्षा छतरी” होती है। अगर तुम बीमार नहीं होते, बल्कि ताकत से भरे होते हो, तो तुम कोई भी बुराई कर सकते हो और कोई भी मुसीबत बुला सकते हो। जब लोग बेहद अहंकारी और स्वच्छंद होते हैं तो आसानी से अपना विवेक गँवा सकते हैं। बुराई कर चुकने के बाद वे पछताएँगे, लेकिन तब तक वे अपनी मदद करने में लाचार हो चुके होंगे। इसीलिए थोड़ी-सी बीमारी होना लोगों के लिए अच्छी चीज है, एक सुरक्षा कवच है। तुम दूसरे लोगों की सारी समस्याएँ दूर करने में समर्थ हो सकते हो और तुम अपने ख्यालों में सारी दिक्कतें ठीक कर सकते हो, लेकिन जब तक तुम खुद किसी बीमारी से नहीं उबर लेते, तुम कुछ भी नहीं कर सकते। बीमार पड़ना वास्तव में तुम्हारे बस के बाहर की चीज है। अगर तुम बीमार पड़ जाते हो और इसके उपचार का कोई तरीका नहीं होता है, तब तुम्हें पीड़ा सहनी चाहिए। इससे छुटकारा पाने की कोशिश मत करो; तुम पहले समर्पण करो, परमेश्वर से प्रार्थना करो और परमेश्वर के इरादे खोजो। कहो : “हे परमेश्वर, जानता हूँ कि मैं भ्रष्ट हूँ और मेरी प्रकृति बुरी है। मैं ऐसी चीजें करने में सक्षम हूँ जो तुमसे विद्रोह और तुम्हारा प्रतिरोध करती हैं, जो तुम्हें आहत करती हैं और कष्ट देती हैं। कितनी अच्छी बात है कि तुमने मुझे यह बीमारी दे दी है। मुझे इसके प्रति समर्पण करना चाहिए। मुझे प्रबुद्ध करो, अपनी इच्छा समझने दो, और यह भी कि तुम मुझमें क्या बदलाव देखना चाहते हो और क्या पूर्ण करना चाहते हो। मेरी यही विनती है कि तुम मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं सत्य को समझ सकूँ और जीवन के सही मार्ग पर चल सकूँ।” तुम्हें खोज और प्रार्थना करनी चाहिए। तुम यह गलत सोच नहीं पाल सकते कि बीमार पड़ना कुछ नहीं होता, कि यह परमेश्वर को रुष्ट करने के बदले तुम्हें अनुशासित करने की प्रक्रिया नहीं हो सकती है। जल्दबाजी में फैसले मत करो। अगर तुम सचमुच ऐसे व्यक्ति हो जिसके हृदय में परमेश्वर है तो फिर तुम जिस चीज का भी सामना करते हो, उसकी अनदेखी मत करो। तुम्हें प्रार्थना और खोज करनी चाहिए, हर मामले में परमेश्वर की इच्छा देखनी चाहिए और परमेश्वर को समर्पण करना सीखना चाहिए। जब परमेश्वर यह देख लेता है कि तुम समर्पण कर सकते हो और तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति समर्पण है, तो वह तुम्हारी पीड़ा कम कर देगा। परमेश्वर पीड़ा और शोधन के जरिए ऐसे प्रभाव पैदा करता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है

कुछ लोगों को कोई बड़ी बीमारी और असहनीय कष्ट झेलने पड़ते हैं, और कुछ मृत्यु का भी सामना करते हैं। उन्हें इस तरह की स्थिति को कैसे देखना चाहिए? कई मामलों में परमेश्वर के परीक्षण एक बोझ होते हैं जो वह लोगों को देता है। परमेश्वर तुम्हें कितना भी भारी बोझ क्यों न दे, तुम्हें उस बोझ का भार उठाना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर तुम्हें समझता है, और यह जानता है कि तुम वह बोझ उठा पाओगे। परमेश्वर तुम्हें जो बोझ देता है, वह तुम्हारी कद-काठी, या तुम्हारी सहनशक्ति की अधिकतम सीमा से अधिक नहीं होगा; इसलिए तुम निश्चित रूप से उसे वहन करने में सक्षम होगे। परमेश्वर चाहे तुम्हें किसी भी तरह का बोझ या किसी भी तरह का परीक्षण दे, एक बात याद रखो : प्रार्थना करने के बाद चाहे तुम परमेश्वर की इच्छा को समझ पाओ या नहीं, चाहे तुम पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश प्राप्त कर पाओ या नहीं; और इस परीक्षण द्वारा परमेश्वर चाहे तुम्हें अनुशासित कर रहा हो या तुम्हें चेतावनी दे रहा हो, अगर तुम इसे नहीं समझ पाते हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में देर नहीं करते और निष्ठापूर्वक उसका निर्वाह करते रहते हो, तो परमेश्वर तुमसे संतुष्ट रहेगा और तुम अपनी गवाही में मजबूती से खड़े रहोगे। यह देखकर कि वे किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हैं और मरने वाले हैं, कुछ लोग मन ही मन सोचते हैं, “मैंने मौत से बचने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया था—लेकिन ऐसा लगता है कि इतने वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद भी वह मुझे मरने देगा। मुझे अपने काम से मतलब रखना चाहिए, वही चीजें करनी चाहिए जो मैं हमेशा से करना चाहता था, और इस जीवन में उन चीजों का आनंद लेना चाहिए जिनका मैंने आनंद नहीं लिया है। मैं अपना कर्तव्य निभाना छोड़ सकता हूँ।” यह क्या रवैया है? तुम इतने वर्षों से अपना कर्तव्य निभा रहे हो, तुमने ये तमाम उपदेश सुने हैं, और फिर भी तुमने सत्य को नहीं समझा। एक परीक्षण तुम्हें डगमगा देता है, तुम्हें घुटनों पर ले आता है, और तुम्हें बेनकाब कर देता है। क्या इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर द्वारा देखभाल किए जाने के योग्य है? (वे योग्य नहीं हैं।) उनमें जरा-सी भी निष्ठा नहीं है। तो इतने वर्षों तक उन्होंने अपना जो कर्तव्य निभाया है, उसे क्या कहते हैं? इसे “सेवा करना” कहते हैं, और वे सिर्फ मेहनत करते रहे हैं। अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो, “परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे आज्ञापालन करना चाहिए, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—आज्ञापालन—को अभ्यास में लाना चाहिए, मुझे इसे कार्यान्वित करना और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की वास्तविकता को जीना ही चाहिए। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए,” क्या यह गवाही देना नहीं है? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। ऐसे समय में तुम मन ही मन सोचोगे, “परमेश्वर ने मुझे यह साँस दी है, उसने इन तमाम वर्षों में मेरा पोषण और मेरी रक्षा की है, उसने मुझसे बहुत-सा दर्द लिया है और मुझे बहुत-सा अनुग्रह और बहुत-से सत्य दिए हैं। मैंने ऐसे सत्यों और रहस्यों को समझा है, जिन्हें लोग कई पीढ़ियों से नहीं समझ पाए हैं। मैंने परमेश्वर से इतना कुछ पाया है, इसलिए मुझे भी परमेश्वर को कुछ लौटाना चाहिए! पहले मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, मैं कुछ भी नहीं समझता था, और मैं जो कुछ भी करता था, उससे परमेश्वर को दुख पहुँचता था। हो सकता है, मुझे परमेश्वर को लौटाने का भविष्य में और अवसर न मिले। मेरे पास जीने के लिए जितना भी समय बचा हो, मुझे अपनी बची हुई थोड़ी-सी शक्ति अर्पित करके परमेश्वर के लिए वह सब करना चाहिए जो मैं कर सकता हूँ, ताकि परमेश्वर यह देख सके कि उसने इतने वर्षों से मेरा जो पोषण किया है, वह व्यर्थ नहीं गया, बल्कि फलदायक रहा है। मुझे परमेश्वर को और दुखी या निराश करने के बजाय उसे सुख पहुँचाना चाहिए।” इस तरह सोचने के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? यह सोचकर अपने आपको बचाने और कतराने की कोशिश न करो कि “यह बीमारी कब ठीक होगी? जब यह ठीक हो जाएगी, तो मैं अपना कर्तव्य निभाने का भरसक प्रयास करूँगा और आज्ञाकारी रहूँगा। मैं बीमार होते हुए आज्ञाकारी कैसे रह सकता हूँ? मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?” जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम नहीं हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम परमेश्वर को शर्मिंदा न करने में सक्षम हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, जब तक तुम्हारा मस्तिष्क स्वस्थ है, क्या तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत न करने में सक्षम हो? (हाँ।) अभी “हाँ” कहना बड़ा आसान है, पर यह उस समय इतना आसान नहीं होगा जब यह सचमुच तुम्हारे साथ घटेगा। और इसलिए, तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करना चाहिए, अकसर सत्य पर कठिन परिश्रम करना चाहिए, और यह सोचने में ज्यादा समय बिताना चाहिए कि “मैं परमेश्वर की इच्छा पूरी कैसे कर सकता हूँ? मैं परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान कैसे कर सकता हूँ? मैं सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?” सृजित प्राणी क्या होता है? क्या सृजित प्राणी का कर्तव्य सिर्फ परमेश्वर के वचनों को सुनना है? नहीं—उसका कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को जीना है। परमेश्वर ने तुम्हें इतना सारा सत्य दिया है, इतना सारा मार्ग और इतना सारा जीवन दिया है, ताकि तुम इन चीजों को जी सको और उसकी गवाही दे सको। यही है, जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए, यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है। तुम्हें इन चीजों के बारे में अक्सर सोच-विचार करते रहना चाहिए। अगर तुम इनके बारे में हमेशा चिंतन-मनन करते रहोगे, तो तुम सत्य के सभी पहलुओं की गहराई में पहुँच जाओगे।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है

कुछ लोग अपनी बीमारियों के इलाज के लिए भिन्न-भिन्न तरीके आजमाते हुए हर संभव प्रयास करते हैं, लेकिन चाहे कोई भी उपचार किया जाए, उन्हें ठीक नहीं किया जा सकता है। जितना अधिक उनका इलाज किया जाता है, बीमारी उतनी ही गंभीर होती जाती है। बीमारी के साथ वास्तव में क्या हो रहा है इसका पता लगाने और मूल कारण की तलाश करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने के बजाय, वे मामले को अपने हाथों में लेते हैं। वे बहुत सारे तरीके अपनाते हैं और काफी पैसा भी खर्च करते हैं, लेकिन फिर भी उनकी बीमारी ठीक नहीं होती है। और फिर, जब उन्होंने इलाज करना छोड़ दिया, तो कुछ समय बाद बीमारी अप्रत्याशित रूप से अपने आप ठीक हो जाती है, और उन्हें पता भी नहीं चलता कि यह कैसे हुआ। कुछ लोगों को कोई मामूली-सी बीमारी हो जाती है और वे इसकी ज्यादा चिंता नहीं करते, लेकिन एक दिन उनकी हालत बिगड़ जाती है और वे अचानक मर जाते हैं। यह क्या हो रहा है? लोग इसकी थाह पाने में असमर्थ हैं; वास्तव में, परमेश्वर के दृष्टिकोण से, ऐसा इसलिए है क्योंकि इस दुनिया में उस व्यक्ति का मिशन पूरा हो गया था, इसलिए परमेश्वर उसे ले गया। लोग अक्सर कहते हैं कि “यदि लोग बीमार नहीं हैं तो वे मरते नहीं हैं।” क्या वास्तव में ऐसा ही है? ऐसे लोग भी हैं जिन्हें अस्पताल में जाँच के बाद पता चला कि उन्हें कोई बीमारी नहीं है। वे अत्यंत स्वस्थ थे लेकिन कुछ ही दिनों में उनकी मृत्यु हो गई। इसे कहते हैं बिना बीमारी के मरना। ऐसे बहुत से लोग हैं। इसका मतलब यह है कि व्यक्ति अपने जीवनकाल के अंत तक पहुँच चुका है, और उसे आध्यात्मिक दुनिया में वापस ले जाया जा चुका है। कुछ लोग कैंसर और तपेदिक से बच गए हैं और सत्तर या अस्सी की उम्र में अभी भी जीवित हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं। यह सब परमेश्वर के विधान पर निर्भर है। इस समझ का होना ही परमेश्वर में सच्चा विश्वास है। यदि तुम शारीरिक रूप से बीमार हो और तुम्हें स्वस्थ होने के लिए कुछ दवा लेने की आवश्यकता है, तो तुम्हें नियमित रूप से दवा लेनी चाहिए या व्यायाम करना चाहिए, और शांत भाव से आराम कर इस स्थिति को संभालना चाहिए। यह कैसा दृष्टिकोण है? यह परमेश्वर में सच्चे विश्वास का दृष्टिकोण है। मान लो कि तुम दवा नहीं लेते, टीके नहीं लगवाते, व्यायाम नहीं करते, अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखते, और फिर भी तुम मृत्यु को लेकर चिंतित रहते हो, हर समय प्रार्थना करते हो : “हे परमेश्वर, मुझे अपने कर्तव्य ठीक से निभाने हैं, मेरा मिशन पूरा नहीं हुआ है, मैं मरने के लिए तैयार नहीं हूँ। मैं अपने कर्तव्य पूरा करना चाहता हूँ और तुम्हारा आदेश पूरा करना चाहता हूँ। अगर मैं मर गया तो तुम्हारा आदेश पूरा नहीं कर पाऊँगा। मैं अपने पीछे कोई पछतावा नहीं छोड़ना चाहता। परमेश्वर, मेरी प्रार्थना सुन; मुझे जीवित रहने दे ताकि मैं अपने कर्तव्य निभा सकूँ और तुम्हारा आदेश पूरा कर सकूँ। मैं सदैव तुम्हारी प्रशंसा करना चाहता हूँ और यथाशीघ्र तुम्हारी महिमा का दिन देखना चाहता हूँ।” बाहर से देखने में, तुम दवा नहीं लेते या कोई टीका नहीं लगवाते, और तुम बहुत मजबूत और परमेश्वर में विश्वास से भरे लगते हो। वास्तव में, तुम्हारी आस्था राई के दाने से भी छोटी है। तुम मौत से डरे हुए हो, और तुम्हें परमेश्वर पर कतई आस्था नहीं है। ऐसा कैसे है कि तुम्हें कतई आस्था नहीं है? यह कैसे हुआ? मानव सृष्टिकर्ता के रवैये, सिद्धांतों और उसके सृजित प्राणियों के साथ व्यवहार करने के तरीकों को समझते ही नहीं, इसलिए वे अपने सीमित परिप्रेक्ष्य, धारणाओं और कल्पनाओं के सहारे यह अटकल लगाते हैं कि परमेश्वर क्या करेगा। क्या परमेश्वर उन्हें ठीक कर लंबा जीवन जीने देगा या नहीं, यह देखने के लिए वे उसके साथ बाजी लगाना चाहते हैं। क्या यह मूर्खता नहीं है? यदि परमेश्वर तुम्हें जीवित रहने की अनुमति देता है, तो चाहे तुम कितने भी बीमार पड़ जाओ, तुम नहीं मरोगे। यदि परमेश्वर तुम्हें जीवित रहने की अनुमति नहीं देता है, तो भले ही तुम बीमार न हो, फिर भी अगर मरना बदा है तो तुम मरोगे। तुम्हारा जीवनकाल परमेश्वर द्वारा पूर्व निर्धारित है। यह जानना ही सच्चा ज्ञान और सच्चा विश्वास है। तो, क्या परमेश्वर बिना सोचे-समझे लोगों को बीमार कर देता है? यह बिना सोचे-समझे नहीं है; यह उनकी आस्था को परिष्कृत करने का एक तरीका है। यह दुख लोगों को सहना ही चाहिए। यदि वह तुम्हें बीमार करता है, तो उससे बचने की कोशिश न करो; यदि वह ऐसा नहीं करता, तो इसके लिए अनुरोध न करो। सब सृष्टिकर्ता के हाथों में है, और लोगों को यह सीखना चाहिए कि प्रकृति को उसकी राह पर चलने दें। प्रकृति क्या है? प्रकृति में कुछ भी बिना सोचे-समझे नहीं होता; यह सब परमेश्वर से आता है। यह सत्य है। एक ही बीमारी से पीड़ित लोगों में से कुछ मर जाते हैं और अन्य जीवित रहते हैं; यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्व निर्धारित कर दिया गया था। यदि तुम जीवित रह सकते हो, तो यह साबित करता है कि तुमने अभी तक वह लक्ष्य पूरा नहीं किया है, जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया था। तुम्हें उसे पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए और इस समय को सँजोना चाहिए; इसे बरबाद मत करो। बात इतनी ही है। यदि तुम बीमार हो, तो इससे बचने की कोशिश न करो, और यदि तुम बीमार नहीं हो, तो इसके लिए अनुरोध न करो। किसी भी मामले में, तुम केवल अनुरोध करके वह प्राप्त नहीं कर सकते, जो तुम चाहते हो, और न ही तुम किसी बात से इसलिए बच सकते हो कि तुम बचना चाहते हो। परमेश्वर ने जो करने का निश्चय किया है, उसे कोई नहीं बदल सकता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

कुछ लोग यह कहते हुए अपने रोग को लेकर हमेशा चिंतित रहते हैं, “मेरा रोग बढ़ गया तो क्या मैं सह पाऊँगा? अगर मेरी हालत बिगड़ गई तो क्या मैं मर जाऊँगा? क्या मुझे ऑपरेशन करवाना पड़ेगा? अगर मेरा ऑपरेशन हुआ, तो कहीं मैं ऑपरेशन टेबल पर मर न जाऊँ? मैंने समर्पण कर दिया है। क्या इस रोग के चलते परमेश्वर मेरे प्राण ले लेगा?” ये बातें सोचने का क्या तुक है? अगर तुम ये बातें सोचे बिना नहीं रह सकते, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। खुद पर भरोसा करना बेकार है, तुम इसे सहन करने में बिल्कुल असमर्थ रहोगे। कोई भी नहीं चाहता कि उसे रोग हो, और बीमार पड़ने पर कोई भी मुस्कुराता नहीं, बहुत खुश होकर उत्सव नहीं मनाता। ऐसा कोई भी नहीं है क्योंकि यह सामान्य मानवता नहीं है। आम लोग बीमार होने पर हमेशा कष्ट में डूबे रहकर उदास हो जाते हैं, और उनके सहन करने की एक सीमा होती है। वैसे एक बात ध्यान देने की है : अगर लोग बीमार पड़ने पर बीमारी से छुटकारा पाकर बच निकलने के लिए हमेशा अपनी शक्ति पर निर्भर रहने की सोचें, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? अपने रोग के साथ क्या वे और ज्यादा कष्ट नहीं झेलेंगे, और ज्यादा उदास नहीं हो जाएँगे? इसलिए लोग रोग से जितना ज्यादा घिरे हुए हों, उतना ही उन्हें परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होने के लिए सत्य और अभ्यास करने का मार्ग खोजना चाहिए। लोग जितना ज्यादा बीमारी से घिरे हुए हों, उतना ही उन्हें परमेश्वर के समक्ष आकर अपनी भ्रष्टता और परमेश्वर से की जाने वाली अपने नावाजिब माँगों को जानना चाहिए। तुम बीमारी से जितने ज्यादा घिरे हुए हो, उतनी ही ज्यादा तुम्हारी सच्ची आज्ञाकारिता की परख होती है। इसलिए, बीमार पड़ने पर, परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित रहने और अपनी शिकायतों और नावाजिब माँगों को त्यागते रहने की तुम्हारी काबिलियत दिखाती है कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जो सचमुच सत्य का अनुसरण कर परमेश्वर का आज्ञापालन करता है, तुम गवाही देते हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारी वफादारी और आज्ञाकारिता सच्ची है और परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकती है, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी वफादारी और आज्ञाकारिता महज नारेबाजी और सिद्धांत नहीं हैं। बीमार होने पर लोगों को इस बात पर अमल करना चाहिए। जब तुम बीमार पड़ते हो, तो यह तुम्हारी नावाजिब माँगों और परमेश्वर के प्रति अवास्तविक कल्पनाओं और धारणाओं का खुलासा करने के लिए होता है, यह परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति आज्ञाकारिता की परीक्षा लेने के लिए भी होता है। अगर तुम इन चीजों की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हो, तो तुम्हारे पास परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति तुम्हारी वफादारी और आज्ञाकारिता की सच्ची गवाही और असली प्रमाण है। परमेश्वर यही चाहता है, एक सृजित प्राणी के पास यह होना चाहिए और उसे इसे जीना चाहिए। क्या ये सारी चीजें सकारात्मक नहीं हैं? (जरूर हैं।) लोगों को इन सभी चीजों का अनुसरण करना चाहिए। इसके अलावा, अगर परमेश्वर तुम्हें बीमार पड़ने देता है, तो क्या वह कभी भी कहीं भी तुमसे तुम्हारा रोग ले नहीं सकता? (जरूर ले सकता है।) परमेश्वर कभी भी कहीं भी तुम्हारा रोग तुमसे ले सकता है, तो क्या वह ऐसा नहीं कर सकता कि तुम्हारा रोग तुममें बना रहे और तुम्हें कभी न छोड़े? (जरूर कर सकता है।) अगर परमेश्वर ऐसा कुछ करता है कि यह रोग तुम्हें कभी न छोड़े, तो क्या तब भी तुम अपना कर्तव्य निभा पाओगे? क्या तुम परमेश्वर में अपनी आस्था रख पाओगे? क्या यह परीक्षा नहीं है? (हाँ है।) अगर तुम बीमार पड़कर कई महीने बाद ठीक हो जाओ, तो परमेश्वर में तुम्हारी आस्था और उसके प्रति तुम्हारी वफादारी और आज्ञाकारिता की परीक्षा नहीं होती, और तुम्हारे पास कोई गवाही नहीं होती। कुछ महीने तक रोग सहना आसान है, लेकिन अगर तुम्हारा रोग दो-तीन साल चले, और तुम्हारी आस्था और परमेश्वर के प्रति वफादार और आज्ञाकारी बने रहने की तुम्हारी कामना बदलने के बजाय और सच्ची हो जाए, तो क्या यह नहीं दिखाता कि तुम जीवन में विकसित हो चुके हो? क्या तुम्हें इसका फल नहीं मिलेगा? (हाँ।) तो सत्य का सच्चा अनुसरण करने वाला कोई व्यक्ति बीमार होने पर अपने रोग से आए विविध लाभों से गुजर कर उनका खुद अनुभव करता है। वह व्याकुल होकर अपने रोग से बच निकलने की कोशिश नहीं करता, न ही चिंता करता है कि रोग के लंबा खिंचने पर नतीजा क्या होगा, उसके कारण कौन-सी समस्याएँ पैदा होंगी, कहीं रोग बदतर तो नहीं हो जाएगा, या कहीं वह मर तो नहीं जाएगा—वह ऐसी चीजों के बारे में चिंता नहीं करता। ऐसी चीजों की चिंता न करने के साथ-साथ ऐसे लोग सकारात्मक रुख रख पाते हैं, परमेश्वर में सच्ची आस्था रखकर उसके प्रति आज्ञाकारी और वफादार रह पाते हैं। इस तरह अभ्यास करके, वे गवाही हासिल कर पाते हैं, यह उन्हें उनके जीवन-प्रवेश और स्वभावगत परिवर्तन में बड़ा लाभ प्रदान करता है, और यह उनकी उद्धार-प्राप्ति की ठोस बुनियाद बना देता है। यह कितना अद्भुत है! इसके अलावा, रोग बड़ा भी हो सकता है और छोटा भी। मगर चाहे यह छोटा हो या बड़ा, हमेशा लोगों को शुद्ध करता है। किसी रोग से गुजर कर लोग परमेश्वर में अपनी आस्था नहीं खोते, वे आज्ञाकारी होते हैं, शिकायत नहीं करते, उनका व्यवहार बुनियादी तौर पर स्वीकार्य होता है, और फिर रोग के चले जाने के बाद उन्हें कुछ लाभ मिलते हैं, वे बड़ी खुशी महसूस करते हैं—साधारण बीमारी का सामना करने के बाद लोगों के साथ ऐसा ही होता है। वे ज्यादा लंबे समय तक बीमार नहीं रहते, और उसे सहने में समर्थ होते हैं, और बुनियादी तौर पर यह रोग सहने में वे सक्षम होते हैं। लेकिन कुछ रोग ऐसे होते हैं, जो कुछ समय इलाज से बेहतर होने के बावजूद दोबारा हो जाते हैं, और बदतर हो जाते हैं। ऐसा बार-बार होता है, जब तक कि आखिर रोग इस हद तक बढ़ जाता है कि उसका इलाज नहीं हो सकता, और आधुनिक चिकित्सा में उपलब्ध कोई साधन काम नहीं आता। रोग किस हद तक पहुँच जाता है? यह उस हद तक पहुँच जाता है कि बीमार व्यक्ति कभी भी कहीं भी मर सकता है। यह क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि उस व्यक्ति का जीवन सीमित है। यह वह समय नहीं है जब वह बीमार न हो और मृत्यु उससे बहुत दूर हो, और उसका कोई अंदेशा नहीं है, मगर इसके बजाय व्यक्ति को आभास हो जाता है कि उसकी मृत्यु का दिन करीब है, और मृत्यु उसके सामने है। मृत्यु का सामना किसी व्यक्ति के जीवन का सबसे मुश्किल और सबसे अहम पल होता है। तो तुम क्या करते हो? ... मृत्यु सबसे ज्यादा दर्दनाक चीज है, और जब वे इस बारे में सोचते हैं, तो लगता है जैसे कोई उनके दिल को छुरा घुमा-घुमा कर छलनी कर रहा हो, और उनके पूरे शरीर की तमाम हड्डियाँ लुगदी बन गई हों। मृत्यु के बारे में सोचकर उन्हें दुख होता है, वे रोना चाहते हैं, बिलखना चाहते हैं, और वे सचमुच रोते-बिलखते हैं, और आहत होते हैं कि वे अब मरनेवाले हैं। वे सोचते हैं, “मैं क्यों नहीं मरना चाहता? मैं मृत्यु से इतना डरता क्यों हूँ? पहले जब मैं गंभीर रूप से बीमार नहीं था, मुझे मृत्यु भयावह नहीं लगती थी। कौन मृत्यु का सामना नहीं करता? कौन नहीं मरता? तो चलो मैं मर ही जाता हूँ! उस बारे में अब सोचता हूँ, तो यह कहना उतना आसान नहीं है, और जब मृत्यु सच में आ जाती है, तो उसका समाधान करना उतना आसान नहीं होता। मुझे इतना दुख क्यों हो रहा है?” क्या तुम मृत्यु के बारे में सोचकर दुखी होते हो? जब भी तुम मृत्यु के बारे में सोचते हो, दुख और पीड़ा का अनुभव करते हो, और यह चीज जो तुम्हें सबसे ज्यादा व्याकुल और चिंतित करती है वह आखिरकार आ जाती है। इसलिए, तुम इस तरह जितना ज्यादा सोचते हो, उतना ही भयभीत और बेबस होते हो, उतना ही कष्ट सहते हो। तुम्हारा दिल बेआराम है, और तुम मरना नहीं चाहते। मृत्यु के इस मामले को कौन सुलझा सकता है? कोई भी नहीं, और निश्चित रूप से तुम खुद तो इसे सुलझा ही नहीं सकते। तुम मरना नहीं चाहते, तो फिर क्या कर सकते हो? तुम्हें मरना तो पड़ेगा ही, कोई भी मृत्यु से बच नहीं सकता। मृत्यु लोगों को घेर लेती है; वे दिल से मरना नहीं चाहते, मगर बस हमेशा मृत्यु के बारे में ही सोचते हैं, क्या यह उनके सचमुच मरने से पहले ही मर जाने का मामला नहीं है? क्या वे सचमुच मर सकते हैं? कौन यह पक्के तौर पर कहने की हिम्मत कर सकता है कि वह कब मरेगा या उसकी मृत्यु किस वर्ष होगी? कौन ये बातें जान सकता है? कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अपना भविष्य पढ़वा लिया है, मैं अपनी मृत्यु का वर्ष, माह और दिन जानता हूँ, यह भी जानता हूँ कि मेरी मृत्यु कैसी होगी।” क्या तुम इसे पक्के तौर पर कह सकते हो? (नहीं।) तुम इसे पक्के तौर पर नहीं कह सकते। तुम्हें नहीं मालूम तुम कब मरोगे—यह गौण बात है। अहम बात यह है कि जब तुम्हारा रोग तुम्हें सचमुच मौत की दहलीज पर ले आए, तब तुम कौन-सा रवैया अपनाओगे। इस प्रश्न पर तुम्हें चिंतन कर सोचना चाहिए। क्या तुम मृत्यु का सामना समर्पण के रवैये के साथ करोगे, या मृत्यु को तुम प्रतिरोध, अस्वीकृति या अनिच्छा के रवैये से देखोगे? तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए? (समर्पण का रवैया।) सिर्फ कह देने भर से यह समर्पण प्राप्त नहीं हो सकता, व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। तुम यह समर्पण कैसे प्राप्त कर सकते हो? स्वेच्छा से समर्पण प्राप्त करने से पहले तुम्हें कैसी समझ की जरूरत है? यह सरल नहीं है, है न? (नहीं, यह सरल नहीं है।) तो बताओ तुम्हारे दिल में क्या है? (अगर मैं गंभीर रूप से बीमार हो जाऊँ, तो सोचूँगा कि अगर मैं सचमुच मर भी जाऊँ, तो यह परमेश्वर के संप्रभुता के अधीन और उसके द्वारा व्यवस्थित किया गया होगा। मनुष्य इतनी गहराई से भ्रष्ट हो चुका है कि अगर मेरी मृत्यु होनी है, तो परमेश्वर की धार्मिकता से होगी। ऐसा नहीं है कि मुझे जीवित रहना ही चाहिए; मनुष्य परमेश्वर से ऐसी माँग करने योग्य नहीं है। इसके अलावा, मेरे ख्याल से अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए चाहे जो हो जाए, मैंने जीवन का सही मार्ग देख लिया है, अनेक सत्य समझ लिए हैं, कि मैं जल्दी मर भी गया तो यह सार्थक होगा।) क्या ऐसा सोचना सही है? क्या यह कोई खास समर्थक सिद्धांत बनाता है? (जरूर बनाता है।) और कौन बोलना चाहता है? (हे परमेश्वर, अगर किसी दिन मैं सचमुच बीमार हो गया, और शायद मेरी मृत्यु हो जाए, तो वैसे भी मृत्यु से बच पाने का कोई तरीका नहीं है। यह परमेश्वर का पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता है, मैं चाहे जितनी फिक्र या चिंता करूँ, कोई फायदा नहीं। अपना बचा-खुचा समय मुझे इस बात पर ध्यान देने में लगाना चाहिए कि अपना कर्तव्य मैं अच्छे से कैसे निभाऊँ। अगर मैं सचमुच मर भी गया, तो भी मुझे कोई पछतावा नहीं होगा। बिल्कुल अंत में परमेश्वर और उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर पाना भय और आतंक में जीने से बेहतर है।) इस समझ के बारे में तुम्हारी क्या सोच है? क्या यह थोड़ी बेहतर नहीं है? (हाँ।) सही है, मृत्यु के विषय को तुम्हें इसी तरह लेना चाहिए। सभी को इस जीवन में मृत्यु का सामना करना होगा, यानी अपनी जीवनयात्रा के अंत में सबको मृत्यु का सामना करना होगा। लेकिन मृत्यु की बहुत-सी तरह-तरह की खासियतें हैं। उनमें से एक यह है कि परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित समय पर तुम अपना उद्देश्य पूरा कर लेते हो, परमेश्वर तुम्हारे दैहिक जीवन के नीचे एक लकीर खींच देता है, और तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाता है, हालाँकि इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा जीवन खत्म हो गया है। जब कोई व्यक्ति बिना शरीर का हो, तो उसका जीवन समाप्त हो जाता है—क्या बात ऐसी ही है? (नहीं।) मृत्यु के बाद जिस रूप में तुम्हारे जीवन का अस्तित्व होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जीवित रहते समय, तुमने परमेश्वर के कार्य और वचनों के साथ कैसा बर्ताव किया—यह बहुत महत्वपूर्ण है। मृत्यु के बाद तुम्हारा अस्तित्व जिस रूप में होता है, या तुम्हारा अस्तित्व होगा भी या नहीं, यह जीवित रहते समय परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करेगा। अगर जीवित रहते हुए मृत्यु और हर तरह के रोगों का सामना करने पर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया विद्रोह, विरोध और सत्य से घृणा का हो, तो तुम्हारे दैहिक जीवन की समाप्ति का वक्त आने पर मृत्यु के बाद तुम किस रूप में अस्तित्व में रहोगे? तुम पक्के तौर पर किसी दूसरे रूप में रहोगे, और तुम्हारा जीवन निश्चित रूप से जारी नहीं रहेगा। इसके विपरीत, अगर जीवित रहते हुए, तुम्हारे शरीर में जागरूकता होने पर, सत्य और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया आज्ञाकारिता और वफादारी का हो और तुम सच्ची आस्था रखते हो, तो भले ही तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाए, तुम्हारा जीवन किसी और संसार में एक अलग रूप धारण कर अस्तित्व में बना रहेगा। मृत्यु का यह एक स्पष्टीकरण है। एक और भी बात ध्यान देने की है, और वह यह है कि मृत्यु के विषय की प्रकृति वही है जो दूसरे विषयों की होती है। इसका चयन लोग खुद नहीं कर सकते, और इसे मनुष्य की इच्छा से बदलना तो दूर की बात है। मृत्यु भी जीवन की किसी दूसरी महत्वपूर्ण घटना जैसी ही है : यह पूरी तरह से सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता के अधीन है। अगर कोई मृत्यु की भीख माँगे, तो जरूर नहीं कि वह मर जाए; अगर कोई जीने की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह जीवित रहे। ये सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण के अधीन हैं, और परमेश्वर के अधिकार, उसके धार्मिक स्वभाव और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं से ही इसे बदला जा सकता है। इसलिए, मान लो कि तुम्हें कोई गंभीर रोग, संभावित घातक गंभीर रोग हो जाता है, तो जरूरी नहीं कि तुम्हारी मृत्यु हो जाए—तुम मरोगे या नहीं इसका फैसला कौन करता है? (परमेश्वर।) परमेश्वर फैसला लेता है। और चूँकि परमेश्वर निर्णय लेता है, और लोग ऐसी चीज का फैसला नहीं कर सकते, तो लोग किस बात को लेकर व्याकुल और संतप्त हैं? यह ऐसा ही है, जैसे तुम्हारे माता-पिता कौन हैं, तुम कब और कहाँ पैदा होते हो—ये चीजें भी तुम नहीं चुन सकते। इन मामलों में सबसे बुद्धिमान यह चुनाव है कि चीजों को कुदरती ढंग से होने दिया जाए, समर्पण किया जाए, चुना न जाए, इस विषय पर कोई विचार न किया जाए या ऊर्जा न खपाई जाए, और इसे लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित न हुआ जाए। चूँकि लोग खुद नहीं चुन सकते, इसलिए इस विषय पर इतनी ऊर्जा और विचार खपाना बेवकूफी और अविवेकपूर्ण है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4)

कुछ लोग जब पहली बार बीमार पड़ते हैं तो हरदम प्रार्थना करते रहते हैं, लेकिन बाद में, प्रार्थना से खुद को ठीक न होते देखकर वे अपनी बीमारी में डूब जाते हैं, हरदम शिकायत करते हुए मन ही मन कुढ़ते हैं, “परमेश्वर पर विश्वास करके मेरा कोई भला नहीं हुआ। मैं बीमार हूँ और परमेश्वर मुझे ठीक करने से रहा!” यह सच्ची आस्था नहीं है। इसमें कतई भी समर्पण नहीं है, और जब वे शिकायतों से भर जाते हैं तो आखिर मृत्यु ही हाथ लगती है। इस तरह परमेश्वर उनकी देह को खत्म कर नरक भेज देता है; यह उनके लिए सर्वनाश है। इस जीवन में उनके पास उद्धार का कोई अवसर नहीं बचता और उनकी आत्मा को नरक में ही जाना होगा। मानवता को बचाने के लिए परमेश्वर के कार्य का यह अंतिम चरण है और अगर किसी को निकाल दिया जाता है, तो उसके पास कभी भी दूसरा अवसर नहीं रहेगा! अगर तुम उस दौरान मरते हो जब परमेश्वर उद्धार के अपने कार्य में जुटा है, तो यह सामान्य मृत्यु नहीं, बल्कि दंड है। जो दंड के रूप में मृत्यु पाते हैं, उनके पास बचाए जाने का मौका नहीं होता। क्या नरक के कुंड में पौलुस को निरंतर दंड नहीं मिल रहा है? दो हजार साल बीत चुके हैं और वह अब भी वहीं है, दंड भुगत रहा है! जानबूझकर कुछ गलत करना तो और भी बुरा है, और तब दंड भी और गंभीर मिलता है!

कुछ लोग कहते हैं, “मैं हमेशा बीमार पड़ा रहा हूँ, हमेशा कष्टों में रहा हूँ और पीड़ा भुगतता आया हूँ। मेरे इर्द-गिर्द हमेशा कुछ हालात खड़े होते रहे हैं, लेकिन मैंने कभी भी पवित्र आत्मा के कार्य का अनुभव नहीं किया।” यह सही है। पवित्र आत्मा अधिकांश समय इसी तरह कार्य करता है—तुम्हें इसका पता नहीं चलता। यह शोधन है। कभी-कभी पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करेगा और संगति के जरिए तुम्हें कोई सत्य समझाएगा। कभी-कभी वह तुम्हारे माहौल के जरिए किसी चीज का बोध कराएगा, तुम्हारी परीक्षा लेगा, तपाएगा, और उस माहौल में तुम्हें प्रशिक्षित करेगा, ताकि तुम प्रगति कर सको—इसी तरह पवित्र आत्मा कार्य करता है। पहले जब तुम लोग चीजों का अनुभव करते थे तो तुम्हें कोई ज्ञान नहीं था, क्योंकि तुमने अपने दिल में सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया। जब कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझता है, तो वह कुछ नहीं जान पाता कि माजरा क्या है और वह उसकी समझ हमेशा विकृत रहती है। ठीक उसी तरह जैसे जब कोई बीमार हो जाता है और मानता है कि परमेश्वर उसे अनुशासित कर रहा है, जबकि वास्तव में कुछ बीमारियाँ मानव निर्मित होती हैं और जीवन जीने के नियमों की समझ की कमी के कारण पैदा होती हैं। जब तुम ठूँस-ठूँसकर खाते हो और तंदुरुस्त रहना नहीं जानते, तो हर तरह से बीमार पड़ जाते हो। फिर भी तुम कहते हो कि यह परमेश्वर का अनुशासन है, जबकि हकीकत में यह तुम्हारी अज्ञानता का नतीजा है। लेकिन, कोई भी बीमारी चाहे मनुष्य की अपनी करनी का फल हो या पवित्र आत्मा की देन, आखिर यह परमेश्वर की विशेष मेहरबानी है; इसका उद्देश्य यह है कि तुम सबक सीखो, और इसके लिए परमेश्वर को धन्यवाद दो, न कि शिकायतें करो। तुम्हारी हर शिकायत एक दाग छोड़ जाती है, और यह ऐसा पाप है जो धोया नहीं जा सकता! जब तुम कोई शिकायत करते हो, तो तुम्हें अपनी दशा पूरी तरह बदलने में कितना समय लगेगा? अगर तुम थोड़े निराश होते हो, तो एक महीने बाद ठीक हो सकते हो। जब तुम कोई शिकायत करते हो और किसी निराशा की भावना को व्यक्त करते हो, तो तुम एक साल बाद भी ठीक नहीं हो सकते, और पवित्र आत्मा तुम पर काम नहीं करेगा। अगर तुम हमेशा शिकायतें करते रहे, तो तुम्हारे लिए बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी और पवित्र आत्मा का कार्य हासिल करना तो और भी कठिन हो जाएगा। अपनी मानसिकता सही रखने और पवित्र आत्मा का थोड़ा-बहुत कार्य प्राप्त करने के लिए कमर कसकर प्रार्थना करनी पड़ती है। मानसिकता को पूरी तरह बदलना आसान नहीं है। ऐसा सिर्फ सत्य खोजकर और पवित्र आत्मा का प्रबोधन और प्रकाश पाकर किया जा सकता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है

मनुष्य की इस बूढ़ी देह की बात आने पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोगों को कौन-सा रोग हुआ है, वह ठीक हो सकता है या नहीं, या उसे किस हद तक सहना होगा, ये सब उसके हाथ में नहीं है—परमेश्वर के हाथ में है। बीमार पड़ने पर अगर तुम परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करते हो, और इस सच्चाई को स्वीकार करने और सहने को तैयार हो जाते हो, तब भी तुम्हें यह रोग रहेगा; अगर तुम इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करते, तो भी तुम इस रोग से छुटकारा नहीं पा सकते—यह एक तथ्य है। तुम अपना रोग एक दिन तक सकारात्मक होकर झेल सकते हो, या एक दिन तक नकारात्मक होकर। यानी तुम्हारा रवैया चाहे जो हो, तुम इस तथ्य को नहीं बदल सकते कि तुम बीमार हो। विवेकशील लोग कौन-सा विकल्प चुनते हैं? ... जब सत्य का अनुसरण करने वाले लोग बीमार होते हैं, तो क्या वे संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाओं में घिर जाते हैं? (नहीं।) वे बीमारी के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखेंगे? (पहले, वे समर्पण कर पाते हैं, फिर बीमार पड़ने पर वे परमेश्वर की इच्छा को समझने का प्रयास करते हैं और इस बात पर चिंतन करते हैं कि उनमें कौन-से भ्रष्ट स्वभाव हैं।) क्या ये कुछ शब्द समस्या दूर कर सकते हैं? अगर वे बस चिंतन ही करते हैं, तो क्या उन्हें अब अपनी बीमारी का इलाज करवाने की जरूरत नहीं? (वे इलाज भी करवाएँगे।) हाँ, अगर यह ऐसा रोग है जिसका इलाज होना चाहिए, एक बड़ा रोग है, या इलाज न करवाने पर इसके बदतर हो जाने की संभावना है, तो इसका इलाज होना चाहिए—विवेकशील लोग यही करते हैं। मूर्ख लोग बीमार न होने पर भी हमेशा चिंता करते हैं, “ओह, क्या मैं बीमार हूँ? अगर मैं बीमार हूँ, तो क्या यह रोग बदतर हो जाएगा? क्या मुझे वह रोग लग जाएगा? और अगर वह रोग लग गया, तो क्या वक्त से पहले मर जाऊँगा? मरते वक्त क्या मुझे बहुत पीड़ा होगी? क्या मैं खुशहाल जीवन जियूँगा? अगर मुझे वह रोग लग गया, तो क्या मुझे अपनी मृत्यु की तैयारी कर लेनी चाहिए, और जल्द-से-जल्द जीवन के मजे ले लेने चाहिए?” मूर्ख लोग ऐसी चीजों को लेकर अक्सर संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करते हैं। वे कभी सत्य या इस मामले में जो सत्य उन्हें समझने चाहिए उन्हें नहीं खोजते। लेकिन विवेकशील लोगों को इस मामले की थोड़ी समझ और अंतर्दृष्टि तब होती है जब कोई दूसरा बीमार पड़ता है या वे अब तक बीमार न पड़े हों। तो उनमें कैसी समझ और अंतर्दृष्टि होनी चाहिए? सबसे पहले, क्या संतप्त, व्याकुल और चिंतित होने के कारण बीमारी किसी व्यक्ति को छुए बिना ही गुजर जाएगी? (नहीं।) मुझे बताओ, क्या पहले से किसी के भाग्य में यह नहीं लिखा है कि वह कब किस रोग से बीमार पड़ेगा, किस उम्र में उसकी सेहत कैसी रहेगी, और क्या वह कोई बड़ा या गंभीर रोग पकड़ लेगा? मेरी बात मानो, बिल्कुल लिखा हुआ है, और यह पक्का है। हम अभी इस पर चर्चा नहीं करेंगे कि परमेश्वर तुम्हारे लिए चीजें कैसे पूर्वनिर्धारित करता है; लोगों का रंग-रूप, नाक-नक्श, डील-डौल और उनकी जन्मतिथि सबको साफ तौर पर पता होती है। अविश्वासी भविष्य बताने वाले, ज्योतिषी और नक्षत्र और लोगों की हथेलियाँ पढ़ सकने वाले, लोगों की हथेलियाँ, चेहरे और जन्मतिथियाँ देखकर यह बता सकते हैं कि उन पर विपत्ति कब टूटेगी, और दुर्भाग्य उन पर कब बरसेगा—ये चीजें पहले से पूर्व-निर्धारित हैं। तो जब कोई बीमार होता है, तो ऐसा लग सकता है कि यह थकान, क्रोध-भाव या गरीबी और कुपोषण के कारण हुआ—ऊपर से ऐसा लग सकता है। यह स्थिति सब पर लागू होती है, तो फिर एक ही आयु-वर्ग के कुछ लोगों को यह रोग क्यों होता है, जबकि दूसरों को नहीं होता? क्या भाग्य में ऐसा लिखा है? (हाँ।) आम आदमी की भाषा में यह भाग्य में लिखा है। हम इसे उन शब्दों में कैसे कह सकते हैं जो सत्य के अनुरूप हैं? ये सब प्रभु की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन हैं। इसलिए तुम्हारा खाना-पीना, घर और जीने का माहौल चाहे जैसे हों, इनका तुम कब बीमार पड़ोगे और तुम्हें कौन-सा रोग होगा, इससे कोई लेना-देना नहीं है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, वे हमेशा वस्तुपरक दृष्टिकोण से कारण ढूँढ़ते हैं, और हमेशा यह कहकर बीमारी के कारणों पर जोर देते हैं, “तुम्हें ज्यादा व्यायाम करना चाहिए, ज्यादा साग-सब्जियां और कम माँस खाना चाहिए।” क्या सचमुच ऐसा ही है? जो लोग कभी भी माँस नहीं खाते, उन्हें भी उच्च रक्तचाप और मधुमेह हो सकता है, और शाकाहारियों का भी कोलेस्ट्रोल बढ़ सकता है। आयुर्विज्ञान ने इन चीजों के लिए कोई सही और वाजिब स्पष्टीकरण नहीं दिया है। मेरी बात सुनो, परमेश्वर ने जो विविध भोजन मनुष्य के लिए रचे हैं, वे मनुष्य के खाने के लिए हैं; बस इन्हें ज्यादा नहीं, संयम से खाओ। अपनी सेहत की देखभाल का तरीका सीखना जरूरी है, लेकिन हमेशा बीमारी की रोकथाम के बारे में पढ़ते रहना गलत है। जैसा हमने अभी कहा, किसी की सेहत किस उम्र में कैसी रहेगी और क्या उसे कोई बड़ा रोग होगा, ये सब परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हैं। अविश्वासी परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते और वे हथेलियाँ, जन्मतिथियाँ और चेहरे दिखाकर ये बातें जानने के लिए किसी को ढूँढ़ते फिरते हैं, और वे इन बातों पर यकीन करते हैं। तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो और अक्सर सत्य पर धर्मोपदेश और संगतियाँ सुनते हो, फिर अगर तुम उनमें विश्वास न रखो, तो तुम एक गैर-विश्वासी के सिवाय कुछ नहीं हो। अगर तुम सच में मानते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथ में है, तो तुम्हें विश्वास करना होगा कि ये चीजें—गंभीर रोग, बड़े रोग, मामूली रोग, और सेहत—सभी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के अधीन हैं। किसी गंभीर रोग का आना और किसी खास उम्र में किसी की सेहत कैसी रहती है, ये संयोग से नहीं होते, और इसे समझना एक सकारात्मक और सही समझ रखना है। क्या यह सत्य के अनुरूप है? (हाँ।) यह सत्य के अनुरूप है, यही सत्य है, तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए, और इस मामले में तुम्हारा रवैया और सोच परिवर्तित होना चाहिए। इन चीजों के परिवर्तित हो जाने के बाद कौन-सी चीज दूर हो जाती है? क्या संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी भावनाएँ दूर नहीं हो जातीं? कम-से-कम, रोग को लेकर संताप, व्याकुलता और चिंता की तुम्हारी नकारात्मक भावनाएँ सैद्धांतिक रूप से तो दूर हो ही जाती हैं। चूँकि तुम्हारी समझ ने तुम्हारे विचारों और सोच को परिवर्तित कर दिया है, इसलिए यह तुम्हारी नकारात्मक भावनाओं को दूर कर देता है। यह एक पहलू है : कोई बीमार पड़ेगा या नहीं, उसे कौन-सा गंभीर रोग होगा, और जीवन के प्रत्येक चरण में उसकी सेहत कैसी होगी, उसे मनुष्य अपनी इच्छा से नहीं बदल सकता, बल्कि ये सब परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित होते हैं। कुछ लोग कहते हैं, “मैं बीमार न पड़ना चाहूँ, तो क्या यह ठीक है? क्या यह ठीक है कि मैं परमेश्वर से रोग दूर कर देने की विनती करूँ? क्या यह ठीक है कि मैं परमेश्वर से इस विपत्ति और दुर्भाग्य से मुझे बाहर निकाल देने को कहूँ?” तुम क्या सोचते हो? क्या ये चीजें ठीक हैं? (नहीं।) तुम यह बात इतनी निश्चितता से कह रहे हो, मगर कोई भी इन चीजों को स्पष्टता से नहीं समझ पा रहा है। शायद कोई वफादारी से अपना कर्तव्य निभा रहा है, उसमें सत्य का अनुसरण करने का दृढ़ संकल्प है, वह परमेश्वर के घर में किसी कार्य के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है, और संभवतः परमेश्वर उसके कर्तव्य, उसके कार्य, उसकी शारीरिक ऊर्जा और शक्ति को प्रभावित करने वाले इस गंभीर रोग को उससे दूर कर देता है, क्योंकि परमेश्वर अपने कार्य की जिम्मेदारी उठाता है। लेकिन क्या ऐसा कोई व्यक्ति है? ऐसा कौन है? तुम नहीं जानते, है न? शायद ऐसे लोग हैं। अगर सचमुच ऐसे लोग होते, तो क्या परमेश्वर उनके रोगों और दुर्भाग्य को सिर्फ एक वचन से दूर नहीं कर देता? क्या परमेश्वर यह सिर्फ एक विचार से करने में समर्थ नहीं होता? परमेश्वर विचार करेगा : “इस व्यक्ति को इस उम्र में, इस महीने में एक रोग होगा। वह फिलहाल अपने कार्य में बहुत व्यस्त है, तो उसे यह बीमारी नहीं होगी। उसे इस बीमारी का अनुभव करने की जरूरत नहीं। इसे उसके पास से गुजर जाने दो।” ऐसा न होने का कोई कारण नहीं है, और इसके लिए परमेश्वर से सिर्फ एक वचन की जरूरत होगी, है ना? लेकिन ऐसा आशीष कौन पा सकेगा? जिस किसी में ऐसा दृढ़ संकल्प और वफादारी होगी और जो परमेश्वर के कार्य में यह काम कर सके, वैसे ही व्यक्ति के लिए ऐसा आशीष पाना संभव होगा। हमें इस विषय पर बात करने की जरूरत नहीं है, इसलिए हम फिलहाल इस बारे में चर्चा नहीं करेंगे। हम रोग के बारे में चर्चा कर रहे हैं; यह ऐसी चीज है जिसका ज्यादातर लोग अपने जीवन में अनुभव करेंगे। इसलिए, लोगों के शरीरों को कैसा रोग, किस वक्त, किस उम्र में पकड़ेगा, और उनकी सेहत कैसी होगी, ये सारी चीजें परमेश्वर व्यवस्थित करता है और लोग इन चीजों का फैसला खुद नहीं कर सकते; उसी तरह जैसे लोग अपने जन्म का समय स्वयं तय नहीं कर सकते। तो क्या जिन चीजों के बारे में तुम फैसला नहीं ले सकते, उनको लेकर तुम्हारा संतप्त, व्याकुल और चिंतित होना बेवकूफी नहीं है? (हाँ, है।) लोगों को उन चीजों को सुलझाने में लगना चाहिए जिन्हें वे खुद सुलझा सकें, और जो चीजें वे नहीं सुलझा सकते, उनके लिए उन्हें परमेश्वर की प्रतीक्षा करनी चाहिए; लोगों को चुपचाप आज्ञापालन करना चाहिए, और परमेश्वर से उनकी रक्षा करने की विनती करनी चाहिए—लोगों की मनःस्थिति ऐसी ही होनी चाहिए। जब रोग सचमुच जकड़ ले और मृत्यु सचमुच करीब हो, तो लोगों को समर्पण कर देना चाहिए, परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत या विद्रोह नहीं करना चाहिए, परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं करनी चाहिए या उस पर हमला करने वाली बातें नहीं कहनी चाहिए। इसके बजाय, लोगों को सृजित प्राणियों की तरह परमेश्वर से आने वाली हर चीज का अनुभव कर उसकी सराहना करनी चाहिए—उन्हें अपने लिए चीजों को खुद चुनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यह तुम्हारे जीवन को संपन्न करने वाला एक विशिष्ट अनुभव होना चाहिए, और यह अनिवार्य रूप से कोई बुरी चीज नहीं है, है ना? इसलिए रोग की बात आने पर, लोगों को पहले रोग के उद्गम से जुड़े अपने गलत विचारों और सोच को ठीक करना चाहिए, और तब उन्हें उसकी चिंता नहीं होगी; इसके अलावा लोगों को ज्ञात-अज्ञात चीजों का नियंत्रण करने का कोई हक नहीं है, न ही वे उन्हें नियंत्रित करने में सक्षम हैं, क्योंकि ये तमाम चीजें परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन हैं। लोगों के पास जो अभ्यास का सिद्धांत और रवैया होना चाहिए, वह प्रतीक्षा और समर्पण का है। समझने से लेकर अभ्यास करने तक, सब-कुछ सत्य सिद्धांतों के अनुरूप किया जाना चाहिए—यह सत्य का अनुसरण करना है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4)

चाहे तुम बीमार हो या पीड़ा में, जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, जब तक तुम जिंदा हो, जब तक तुम चल-फिर और बोल सकते हो, तब तक तुममें अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा है, और तुम्हें विवेकशील होकर अपने कर्तव्य-निर्वाह में सुव्यवहार दिखाना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, या सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें दी गई जिम्मेदारी का परित्याग नहीं करना चाहिए। जब तक तुम अभी मरे नहीं हो, तुम्हें अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए, और अच्छी तरह पूरा करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “तुम्हारी ये बातें बहुत अधिक विचारशील नहीं हैं। मैं बीमार हूँ और मेरे लिए बर्दाश्त करना मुश्किल है!” जब तुम्हारे लिए यह मुश्किल हो, तब तुम आराम कर सकते हो, अपनी देखभाल कर सकते हो, और इलाज करवा सकते हो। अगर तुम अभी भी अपना कर्तव्य निभाना चाहते हो, तो तुम अपने काम का बोझ घटाकर कोई उपयुक्त कर्तव्य निभा सकते हो, जो तुम्हारे स्वास्थ्य-लाभ को प्रभावित न करे। इससे साबित होगा कि तुमने अपने दिल से अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं किया है, कि तुम्हारा दिल परमेश्वर से नहीं भटका है, कि तुमने अपने दिल से परमेश्वर के नाम को नहीं नकारा है, और तुमने अपने दिल से एक उचित सृजित प्राणी बनने की आकांक्षा का परित्याग नहीं किया है। कुछ लोग कहते हैं, “मैंने यह सब किया है, तो क्या परमेश्वर मेरी यह बीमारी मुझसे ले लेगा?” क्या वह लेगा? (जरूरी नहीं।) परमेश्वर तुमसे वह बीमारी ले या न ले, परमेश्वर तुम्हें ठीक करे या न करे, तुम्हें वही करना चाहिए जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए। तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम हो या नहीं, तुम कोई काम सँभाल सको या नहीं, तुम्हारी सेहत तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने दे या नहीं, तुम्हारे दिल को परमेश्वर से दूर नहीं भटकना चाहिए, और तुम्हें अपने दिल से अपने कर्तव्य का परित्याग नहीं करना चाहिए। इस प्रकार तुम अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और अपना कर्तव्य निभा सकोगे—तुम्हें यह वफादारी कायम रखनी होगी। सिर्फ इसलिए कि तुम अपने हाथों से काम नहीं कर सकते, और अब बोल नहीं सकते, या अब तुम्हारी आँखें देख नहीं सकतीं, या अब तुम चल-फिर नहीं सकते, तुम्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि परमेश्वर को तुम्हें ठीक करना ही होगा, और अगर वह तुम्हें चंगा नहीं करता, तो तुम अपने अंतरतम में उसे नकारना चाहते हो, अपने कर्तव्य का परित्याग करना चाहते हो, और परमेश्वर को पीछे छोड़ देना चाहते हो। ऐसे कर्म की प्रकृति क्या है? (यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात है।) यह विश्वासघात है! कुछ लोग बीमार न होने पर अक्सर परमेश्वर के समक्ष आकर उससे प्रार्थना करते हैं, और बीमार होने पर जब वे आशा करते हैं कि परमेश्वर उन्हें ठीक कर देगा, खुद को पूरी तरह परमेश्वर पर छोड़ देते हैं, वे तब भी परमेश्वर के समक्ष आएँगे, और उसका परित्याग नहीं करेंगे। हालाँकि कुछ वक्त गुजरने के बाद भी अगर परमेश्वर ने उनका इलाज न किया, तो वे परमेश्वर से निराश हो जाते हैं, वे दिल की गहराई से परमेश्वर का परित्याग कर देते हैं, और अपने कर्तव्यों का परित्याग कर देते हैं। जब उनकी बीमारी उतनी ज्यादा नहीं होती, और परमेश्वर उन्हें ठीक नहीं करता, तो कुछ लोग परमेश्वर का परित्याग नहीं करते; लेकिन जब उनकी बीमारी गंभीर हो जाती है, और मौत उनके सामने होती है, तब वे जान लेते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया है, वे इतने वक्त से सिर्फ मौत की प्रतीक्षा करते रहे हैं, और इसलिए वे अपने दिलों से परमेश्वर का परित्याग कर उसे नकार देते हैं। वे मानते हैं कि अगर परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया है, तो फिर परमेश्वर को अस्तित्व में नहीं होना चाहिए; अगर परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया है, तो फिर परमेश्वर को परमेश्वर ही नहीं होना चाहिए, और वह विश्वास रखने लायक है ही नहीं। चूँकि परमेश्वर ने उन्हें ठीक नहीं किया इस कारण उन्हें अब तक परमेश्वर में विश्वास रखने पर खेद होता है, और वे उसमें विश्वास रखना बंद कर देते हैं। क्या यह परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं है? यह परमेश्वर के साथ गंभीर विश्वासघात है। इसलिए तुम्हें उस रास्ते बिल्कुल नहीं जाना चाहिए—सिर्फ वही लोग जो मृत्यु आने तक परमेश्वर की आज्ञा मानते हैं, उन्हीं में सच्ची आस्था होती है।

जब बीमारी दस्तक दे, तो लोगों को किस पथ पर चलना चाहिए? उन्हें कैसे चुनना चाहिए? लोगों को संताप, व्याकुलता और चिंता में डूबकर अपने भविष्य की संभावनाओं और रास्तों के बारे में सोच-विचार नहीं करना चाहिए। इसके बजाय लोग खुद को जितना ज्यादा ऐसे वक्त और ऐसी खास स्थितियों और संदर्भों में, और ऐसी फौरी मुश्किलों में पाएँ, उतना ही ज्यादा उन्हें सत्य खोजकर उसका अनुसरण करना चाहिए। ऐसा करके ही पहले तुमने जो धर्मोपदेश सुने हैं और जो सत्य समझे हैं, वे बेकार नहीं होंगे, और उनका प्रभाव होगा। तुम खुद को जितना ज्यादा ऐसी मुश्किलों में पाते हो, तुम्हें उतना ही अपनी आकांक्षाओं को छोड़कर परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। तुम्हारे लिए ऐसी स्थिति बनाने और इन हालात की व्यवस्था करने में परमेश्वर का प्रयोजन तुम्हें संताप, व्याकुलता और चिंता की भावनाओं में डुबोना नहीं है, यह इस बात के लिए भी नहीं है कि तुम परमेश्वर की परीक्षा ले सको कि क्या वह बीमार पड़ने पर तुम्हें ठीक करेगा, या उस मामले का सत्य जानने की कोशिश करो; परमेश्वर तुम्हारे लिए ये विशेष स्थितियाँ या हालात इसलिए बनाता है कि तुम ऐसी स्थितियों और हालात में सत्य में गहन प्रवेश पाने और परमेश्वर को समर्पण करने के लिए व्यावहारिक सबक सीख सको, ताकि तुम ज्यादा स्पष्ट और सही ढंग से जान सको कि परमेश्वर सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को कैसे आयोजित करता है। मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों में होता है, और लोग इसे भाँप सकें या नहीं, वे इस बारे में सचमुच अवगत हों या न हों, उन्हें आज्ञा माननी चाहिए, प्रतिरोध नहीं करना चाहिए, ठुकराना नहीं चाहिए और निश्चित रूप से परमेश्वर की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। किसी भी हालत में तुम्हारी मृत्यु हो सकती है, और अगर तुम प्रतिरोध करते हो, ठुकराते हो और परमेश्वर की परीक्षा लेते हो, तो यह कहने की जरूरत नहीं कि तुम्हारा अंत कैसा होगा। इसके विपरीत अगर उन्हीं स्थितियों और हालात में तुम यह खोज पाओ कि किसी सृजित प्राणी को सृष्टिकर्ता के आयोजनों के प्रति कैसे समर्पण करना चाहिए, यह खोज पाओ कि तुम्हें कौन-से सबक सीखने हैं, परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए पैदा की गई स्थितियों में कौन-से भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें जानने हैं, ऐसी स्थितियों में परमेश्वर की इच्छा को समझना है, और परमेश्वर की माँगें पूरी करने के लिए अपनी गवाही अच्छी तरह देनी है, तो तुम्हें बस यही करना चाहिए। जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, और बीमारी से होने वाली तकलीफों और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर की इच्छा को कैसे महसूस करें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारी विविध योजनाओं, फैसलों और चालों को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें। ... बीमारी झेलते वक्त तुम सक्रिय रूप से इलाज की कोशिश कर सकते हो, मगर तुम्हें इसके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। तुम्हारी बीमारी का चाहे जितना इलाज हो पाए, यह ठीक हो या नहीं, और अंत में चाहे जो हो, तुम्हें हमेशा समर्पण करना चाहिए, शिकायत नहीं। तुम्हें यही रवैया अपनाना चाहिए, क्योंकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तुम्हारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। तुम यह नहीं कह सकते, “अगर इस बीमारी से मैं ठीक हो गया, तो मैं विश्वास कर लूँगा कि यह परमेश्वर की महान सामर्थ्य है, लेकिन अगर मैं ठीक नहीं हो पाया, तो परमेश्वर से प्रसन्न नहीं होऊँगा। परमेश्वर ने मुझे यह बीमारी क्यों दी? वह यह बीमारी ठीक क्यों नहीं करता? यह बीमारी मुझे ही क्यों हुई, किसी और को क्यों नहीं? मुझे यह नहीं चाहिए! इतनी छोटी उम्र में, इतनी जल्दी मेरी मृत्यु क्यों होनी चाहिए? दूसरे लोग कैसे जीते रहते हैं? क्यों?” मत पूछो क्यों, यह परमेश्वर का आयोजन है। कोई कारण नहीं है, और तुम्हें नहीं पूछना चाहिए कि क्यों? सवाल उठाना विद्रोहपूर्ण बात है, और यह प्रश्न किसी सृजित प्राणी को नहीं पूछना चाहिए। मत पूछो क्यों, क्यों का प्रश्न ही नहीं है। परमेश्वर ने इस तरह चीजों की व्यवस्था की है, चीजों को यूँ नियोजित किया है। अगर तुम पूछोगे क्यों, तो फिर केवल यही कहा जा सकता है कि तुम बहुत ज्यादा विद्रोही हो, बहुत हठी हो। जब तुम किसी बात से असंतुष्ट होते हो, या परमेश्वर तुम्हारे चाहे अनुसार नहीं करता, या तुम्हें अपनी मनमानी नहीं करने देता, तो तुम नाखुश हो जाते हो, नाराज हो जाते हो, और हमेशा पूछते हो क्यों। तो परमेश्वर तुमसे पूछता है, “एक सृजित प्राणी के रूप में तुमने अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से क्यों नहीं निभाया? तुमने वफादारी से अपना कर्तव्य क्यों नहीं निभाया?” फिर तुम उसका क्या जवाब दोगे? तुम कहते हो, “क्यों का प्रश्न नहीं है। मैं बस ऐसा ही हूँ।” क्या यह स्वीकार्य है? (नहीं।) परमेश्वर के लिए तुमसे इस तरह बात करना स्वीकार्य है, मगर तुम्हारा परमेश्वर से इस तरह बात करना स्वीकार्य नहीं है। तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है, तुम बेहद नासमझ हो। कोई सृजित प्राणी चाहे जैसी मुश्किलों का सामना करे, यह पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है कि तुम्हें सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए। मिसाल के तौर पर, तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया, बड़ा किया, और तुम उन्हें माता-पिता कहते हो—यह पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है, और ऐसा ही होना चाहिए; क्यों का प्रश्न ही नहीं उठता। तो परमेश्वर तुम्हारे लिए इन सब चीजों का आयोजन करता है, तुम आशीष का आनंद पाते हो या तकलीफें सहते हो, यह भी पूरी तरह स्वाभाविक और न्यायोचित है, और इस बारे में तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं है। अगर तुम बिल्कुल अंत तक समर्पण कर सकते हो, तो पतरस की तरह उद्धार प्राप्त कर सकते हो। हालाँकि अगर तुम किसी अस्थायी बीमारी के कारण परमेश्वर को दोष दो, उसका परित्याग करो और उसके साथ विश्वासघात करो, तो पहले तुमने जो कुछ छोड़ा, खपाया, अपना कर्तव्य निभाया और कीमत चुकाई, वह व्यर्थ हो जाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि पहले की तुम्हारी कड़ी मेहनत ने एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने या एक सृजित प्राणी के रूप में उचित स्थान धारण करने के लिए कोई बुनियाद नहीं रखी होगी, और इससे तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं बदला होगा। फिर बीमारी के कारण यह तुम्हें परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने की ओर बढ़ाएगा, और तुम्हारा अंत पौलुस जैसा होगा, अंत में दंड पाओगे। इस दृढ़ता का कारण यह है कि तुमने पहले जो कुछ भी किया वह एक ताज पाने और आशीष पाने की खातिर था। आखिर जब तुम बीमारी और मृत्यु का सामना करते हो, अगर तब भी तुम बिना किसी शिकायत के समर्पण कर सकते हो, तो इससे साबित होता है कि पहले तुमने जो कुछ किया वह परमेश्वर के लिए निष्ठा से और इच्छापूर्वक किया था। तुम परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी हो, और आखिर तुम्हारी आज्ञाकारिता परमेश्वर में तुम्हारी आस्था के जीवन का पूर्ण अंत अंकित करेगी, और परमेश्वर इसकी सराहना करता है। इसलिए बीमारी तुम्हें अच्छा अंत दे सकती है, या फिर बुरा अंत; तुम्हें जो अंत मिलता है, वह तुम्हारे अनुसरण के पथ और परमेश्वर के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करता है।

—वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3)

ऐसा कोई इंसान नहीं होता जिसका पूरा जीवन दुखों से मुक्त हो। किसी को पारिवारिक परेशानी, किसी को काम-धंधे की, किसी को शादी-विवाह की और किसी को शारीरिक –व्याधि की परेशानी। हर कोई कष्ट झेलता है। कुछ लोग कहते हैं, “लोगों को कष्ट क्यों उठाना पड़ता है? अगर हमारा पूरा जीवन सुख-शांति से बीतता, तो कितना अच्छा होता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दुख ही न आएँ?” नहीं—सभी को दुख भोगने होंगे। दुख इंसान को जीवन की असंख्य संवेदनाओं का अनुभव कराते हैं, फिर चाहे ये संवेदनाएं सकारात्मक हों, नकारात्मक हों, सक्रिय हों या निष्क्रिय हों; दुख तुम्हारे अंदर तरह-तरह के एहसास और समझ पैदा करता है, जो तुम्हारे पूरे जीवन का अनुभव होते हैं। यदि तुम सत्य की खोज करके इनसे परमेश्वर की इच्छा का पता लगा सको, तो तुम उस मानक के करीब पहुँच जाओगे, जिसकी परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है। यह एक पहलू है और यह लोगों को अधिक अनुभवी बनाने के लिए भी है। दूसरा पहलू वह जिम्मेदारी है जो परमेश्वर मनुष्य को देता है। कौन-सी जिम्मेदारी? तुम्हें इस पीड़ा से गुजरना होगा, इस पीड़ा को सहना होगा, और यदि तुम इसे सह पाओ, तो यह गवाही है, कोई शर्मनाक चीज नहीं है। अगर किसी को कोई रोग हो जाए तो वह इस बात से डरता है कि यदि लोगों को पता चल गया तो यह बड़े शर्म की बात होगी, जबकि इसमें शर्म वाली कोई बात नहीं है। एक सामान्य इंसान के नाते, अगर बीमारी के चलते, तुम परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित विभिन्न प्रकार के दुख झेलते हुए भी सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभा पाते हो, परमेश्वर द्वारा सामान्य तौर पर तुम्हें दिए गए आदेशों को पूरा कर पाते हो, तो यह गवाही है और इससे शैतान शर्मिंदा और पराजित होता है। इसलिए हर सृजित प्राणी और हर व्यक्ति को किसी भी प्रकार के कष्ट को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। तुम्हें इसे इस तरह समझना चाहिए, यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है और यही परमेश्वर का इरादा है। परमेश्वर हर सृजित प्राणी के लिए इनकी व्यवस्था करता है। परमेश्वर द्वारा तुम्हें इन स्थितियों और हालात में डालने का अर्थ तुम्हें जिम्मेदारी, दायित्व और आदेश देने के बराबर ही है। इसलिए तुम्हें उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए। क्या यह सत्य नहीं है? यदि यह परमेश्वर की ओर से आता है, यदि परमेश्वर तुमसे ऐसी अपेक्षा करता है, तो यही सत्य है। इसे सत्य क्यों कहा जाता है? क्योंकि यदि तुम इन वचनों को सत्य के तौर पर स्वीकार कर लेते हो, तो जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आएगी, तब ये वचन तुम्हारी अवधारणाओं और विद्रोह को दूर कर पाएँगे, तुम उनके कारण समस्या से आसानी से निकलकर गवाही दे पाओगे, वे तुम्हें परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध नहीं जाने देंगे या परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करने देंगे। यदि तुम परमेश्वर द्वारा प्रस्तुत स्थितियों और हालात के प्रति समर्पित हो पाते हो, तो तुम सत्य समझते हो, और यदि तुम ऐसी गवाही दे पाओ, तो तुम शैतान को शर्मिंदा करते हो।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपनी धारणाओं का समाधान करके ही व्यक्ति परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चल सकता है (1)

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

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