1. परमेश्वर में विश्वास करना क्या है, परमेश्वर का अनुसरण करना क्या है

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

यद्यपि बहुत सारे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन कुछ ही लोग समझते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का क्या अर्थ है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बनने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यद्यपि लोग “परमेश्वर” शब्द और “परमेश्वर का कार्य” जैसे वाक्यांशों से परिचित हैं, लेकिन वे परमेश्वर को नहीं जानते और उससे भी कम वे उसके कार्य को जानते हैं। तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे सभी, जो परमेश्वर को नहीं जानते, उसमें अपने विश्वास को लेकर भ्रमित रहते हैं। लोग परमेश्वर में विश्वास करने को गंभीरता से नहीं लेते और यह सर्वथा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करना उनके लिए बहुत अनजाना, बहुत अजीब है। इस प्रकार वे परमेश्वर की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। दूसरे शब्दों में, यदि लोग परमेश्वर और उसके कार्य को नहीं जानते, तो वे उसके इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं, और उसकी इच्छा पूरी करने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं। “परमेश्वर में विश्वास” का अर्थ यह मानना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर में विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे भी बढ़कर, यह मानना कि परमेश्वर है, परमेश्वर में सचमुच विश्वास करने जैसा नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक संकेतार्थों के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर में सच्चे विश्वास का अर्थ यह है : इस विश्वास के आधार पर कि सभी वस्तुओं पर परमेश्वर की संप्रभुता है, व्यक्ति परमेश्वर के वचनों और कार्यों का अनुभव करता है, अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करता है, परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है और परमेश्वर को जान पाता है। केवल इस प्रकार की यात्रा को ही “परमेश्वर में विश्वास” कहा जा सकता है। फिर भी लोग परमेश्वर में विश्वास को अकसर बहुत सरल और हल्के रूप में लेते हैं। परमेश्वर में इस तरह विश्वास करने वाले लोग, परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ गँवा चुके हैं और भले ही वे बिलकुल अंत तक विश्वास करते रहें, वे कभी परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं करेंगे, क्योंकि वे गलत मार्ग पर चलते हैं। आज भी ऐसे लोग हैं, जो परमेश्वर में शब्दों और खोखले धर्म-सिद्धांत के अनुसार विश्वास करते हैं। वे नहीं जानते कि परमेश्वर में उनके विश्वास में कोई सार नहीं है और वे परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त नहीं कर सकते। फिर भी वे परमेश्वर से सुरक्षा के आशीषों और पर्याप्त अनुग्रह के लिए प्रार्थना करते हैं। आओ रुकें, अपने हृदय शांत करें और खुद से पूछें : क्या परमेश्वर में विश्वास करना वास्तव में पृथ्वी पर सबसे आसान बात हो सकती है? क्या परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता है? क्या परमेश्वर को जाने बिना उसमें विश्वास करने वाले या उसमें विश्वास करने के बावजूद उसका विरोध करने वाले लोग सचमुच उसकी इच्छा पूरी करने में सक्षम हैं?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रस्तावना

परमेश्वर में आस्था की व्याख्या का सबसे सरल तरीका है इस भरोसे का होना कि एक परमेश्वर है, और इस आधार पर, उसका अनुसरण करना, उसका आज्ञा-पालन करना, संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकारना, उसके वचनों पर ध्यान देना, उसके वचनों के अनुसार जीवन जीना, हर चीज को उसके वचनों के अनुसार करना, एक सच्चा सृजित प्राणी बनना, और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना; केवल यही परमेश्वर में सच्ची आस्था होना है। परमेश्वर के अनुसरण का यही अर्थ होता है। तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन, अपने हृदय में, तुम परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करते, और उनके प्रति एक शंकालु रवैया रखते हो, और तुम उसकी संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार नहीं करते हो। यदि परमेश्वर जो करता है उसके बारे में तुम हमेशा धारणाएँ रखते हो, और गलतफहमियों के शिकार रहते हो, और इसके बारे में शिकायत करते हो, हमेशा असंतुष्ट रहते हो, और वह जो भी करे उसे तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का उपयोग करके मापते और देखते हो; अगर तुम्हारे पास हमेशा अपने खुद के विचार और समझ होती है—तो यह परेशानी का कारण बनेगा। यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना नहीं हुआ, और यह उसका सच्चा अनुसरण करने का तरीका नहीं है। यह परमेश्वर में आस्था रखना नहीं है।

असल में, परमेश्वर में आस्था होना क्या होता है? क्या धर्म में विश्वास परमेश्वर में आस्था के बराबर है? जब लोग धर्म को मानते हैं, तो वे शैतान का अनुसरण करते हैं। जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तभी वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, और केवल वे लोग जो मसीह का अनुसरण करते हैं, वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं। जो व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में जरा-भी स्वीकार नहीं करता, वह परमेश्वर में सच्चा विश्वास करने वाला व्यक्ति नहीं है। वह अविश्वासी है, चाहे वह कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता रहा हो, यह किसी काम का नहीं है। अगर परमेश्वर का कोई विश्वासी सिर्फ धार्मिक रस्मों में लगा रहता है, लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करता है, तो वह परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति नहीं है, और परमेश्वर उसे स्वीकार नहीं करता है। तुम्हारे पास ऐसा क्या होना चाहिए कि परमेश्वर तुम्हें अपना अनुयायी स्वीकार करे? क्या तुम्हें उन मापदंडों का पता है जिनके अनुसार परमेश्वर किसी व्यक्ति को मापता है? परमेश्वर यह मूल्यांकन करता है कि क्या तुम सब कुछ उसकी अपेक्षाओं के अनुसार करते हो, और क्या तुम उसके वचनों पर आधारित सत्यों के आगे समर्पण और उनका अभ्यास करते हो। परमेश्वर इसी मापदंड पर किसी व्यक्ति को परखता है। परमेश्वर की परख इस बात पर आधारित नहीं है कि तुम कितने बरसों से उसमें विश्वास करते रहे हो, तुम कहां तक पहुंचे हो, तुम्हारे अच्छे व्यवहार कितने हैं, या तुम धर्म-सिद्धांत के कितने शब्दों को समझते हो। उसका पैमाना इस बात पर आधारित है कि क्या तुम सत्य का अनुसरण करते हो और तुम कौनसा रास्ता चुनते हो। बहुत-से लोग मौखिक तौर पर परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका गुणगान करते हैं, पर अपने दिलों में वे परमेश्वर के वचनों से प्रेम नहीं करते। वे सत्य में दिलचस्पी नहीं रखते। वे हमेशा यही मानते हैं कि आम लोग शैतान के फलसफों या विभिन्न सांसारिक नियमों के अनुसार ही चलते हैं, और इसी तरह कोई खुद को बचाए रख सकता है, और दुनिया में मूल्य के साथ इसी तरह जिया जा सकता है। क्या ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखने और उसका अनुसरण करने वाले लोग हैं? नहीं, वे बिल्कुल भी नहीं हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता

परमेश्वर में सच्चा विश्वास करने का अर्थ सिर्फ़ बचाए जाने के लिए उस पर भरोसा करना नहीं है और इसका अर्थ एक अच्छा व्यक्ति होना तो उससे भी कम है। इसका अर्थ मनुष्य के समान आचरण रखने के लिए परमेश्वर में विश्वास करना भी नहीं है। दरअसल, लोगों को यह नहीं मानना चाहिए कि आस्था सिर्फ यह विश्वास है कि परमेश्वर है, और वह सत्य, मार्ग और जीवन है, और कुछ नहीं। आस्था न तो सिर्फ तुमसे यह मनवाने के लिए है कि तुम परमेश्वर को स्वीकार करो और यह विश्वास करो कि परमेश्वर सभी चीजों का शासक है, वह सर्वशक्तिमान है, उसने दुनिया में सभी चीजें बनाई हैं, और वह अद्वितीय और सर्वोच्च है। आस्था वास्तव में सिर्फ विश्वास का विषय नहीं है। परमेश्वर की इच्छा यह है कि तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व और तुम्हारा दिल उसे दिया और समर्पित किया जाना चाहिए—अर्थात् तुम्हें परमेश्वर का अनुसरण करना चाहिए, परमेश्वर को अपना इस्तेमाल करने देना चाहिए और उसकी सेवा करके खुश होना चाहिए; तुम्हें उसके लिए जो भी तुम कर सको, वह करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि केवल परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित और चुने गए लोगों को ही उस में विश्वास करना चाहिए। असल में, सभी मानव जाति को परमेश्वर की उपासना करनी चाहिए, उसकी ओर ध्यान देना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि मानव जाति परमेश्वर द्वारा ही बनायी गई थी। यदि तुम हमेशा कहते हो, “क्या हम अनन्त जीवन प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं? क्या हम बचाए जाने की खातिर परमेश्वर में विश्वास नहीं करते?” जैसे कि मानो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास करना किसी सतही मामले की तरह हो, केवल कुछ हासिल करने के लिए हो, तो परमेश्वर में विश्वास करने का तुम्हारा दृष्टिकोण यह नहीं होना चाहिए। हर एक सत्य के संबंध में लोगों को खोज करनी चाहिए, चिंतन करना चाहिए और जाँच करनी चाहिए कि उस सत्य का आंतरिक अर्थ क्या है, सत्य के उस पहलू का अभ्यास कैसे करें, और उसमें प्रवेश कैसे करें। ये वे चीजें हैं, जो लोगों को करनी चाहिए।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

क्योंकि यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तो तुम्हें उसके वचन को खाना-पीना चाहिए, उसका अनुभव करना चाहिए और उसे जीना चाहिए। केवल यही परमेश्वर पर विश्वास करना है! यदि तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, परंतु उसके किसी वचन पर अमल नहीं कर सकते या वास्तविकता उत्पन्न नहीं कर सकते तो यह नहीं माना जा सकता कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। ऐसा करना “भूख शांत करने के लिए रोटी की खोज” करने जैसा है। बिना किसी वास्तविकता के केवल छोटी-छोटी बातों की गवाही, अनुपयोगी और सतही मामलों पर बातें करना, परमेश्वर पर विश्वास करना नहीं है, और तुमने बस परमेश्वर पर विश्वास करने के सही तरीके को नहीं समझा है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को क्यों अधिक से अधिक खाना-पीना चाहिए? यदि तुम परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते नहीं और केवल स्वर्ग की ऊँचाई चढ़ना चाहते हो तो क्या यह विश्वास माना जाएगा? परमेश्वर में विश्वास रखने वाले का पहला कदम क्या होता है? परमेश्वर किस मार्ग से मनुष्य को पूर्ण बनाता है? क्या परमेश्वर के वचन को बिना खाए-पिए तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो? क्या परमेश्वर के वचन को बिना अपनी वास्तविकता बनाए, तुम परमेश्वर के राज्य के व्यक्ति माने जा सकते हो? परमेश्वर में विश्वास रखना वास्तव में क्या है? परमेश्वर में विश्वास रखने वालों का कम-से-कम बाहरी तौर पर आचरण अच्छा होना चाहिए; और सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर के वचन के अधीन रहना। किसी भी परिस्थिति में तुम उसके वचन से विमुख नहीं होगे। परमेश्वर को जानना और उसकी इच्छा को पूरा करना, सब उसके वचन के द्वारा हासिल किया जाता है। सभी देश, संप्रदाय, धर्म और प्रदेश भी भविष्य में वचन के द्वारा जीते जाएँगे। परमेश्वर सीधे बात करेगा, सभी लोग अपने हाथों में परमेश्वर का वचन थामकर रखेंगे; इसके द्वारा लोग पूर्ण बनाए जाएँगे। परमेश्वर का वचन सब तरफ फैलता जाएगा : इंसान परमेश्वर के वचन बोलेगा, परमेश्वर के वचन के अनुसार आचरण करेगा, और अपने हृदय में परमेश्वर का वचन रखेगा, भीतर और बाहर पूरी तरह परमेश्वर के वचन में डूबा रहेगा। इस प्रकार मानवजाति को पूर्ण बनाया जाएगा। परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने वाले और उसकी गवाही देने में सक्षम लोग वे हैं जिन्होंने परमेश्वर के वचन को वास्तविकता के रूप में अपनाया है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, राज्य का युग वचन का युग है

परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में तुम्हारा सही दृष्टिकोण होना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के वचनों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने की आवश्यकता है और तुम्हें सत्य को जीने, और विशेष रूप से पूरे ब्रह्मांड में उसके व्यावहारिक कर्मों, उसके अद्भुत कर्मों को देखने, और साथ ही देह में उसके द्वारा किए जाने वाले व्यावहारिक कार्य को देखने में सक्षम होना चाहिए। अपने वास्तविक अनुभवों द्वारा लोग इस बात को समझ सकते हैं कि कैसे परमेश्वर उन पर अपना कार्य करता है और उनके प्रति उसकी क्या इच्छा है। इस सबका प्रयोजन लोगों का भ्रष्ट शैतानी स्वभाव दूर करना है। अपने भीतर की सारी अशुद्धता और अधार्मिकता बाहर निकाल देने, अपने गलत इरादे छोड़ देने और परमेश्वर में सच्चा विश्वास विकसित करने के बाद—केवल सच्चे विश्वास के साथ ही तुम परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर सकते हो। तुम केवल अपने विश्वास की बुनियाद पर ही परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर सकते हो। क्या तुम परमेश्वर पर विश्वास किए बिना उसके प्रति प्रेम प्राप्त कर सकते हो? चूँकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, इसलिए तुम इसके बारे में नासमझ नहीं हो सकते। कुछ लोग जैसे ही यह देखते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास उनके लिए आशीष लाएगा, उनमें जोश भर जाता है, परंतु जैसे ही वे देखते हैं कि उन्हें शोधन सहने पड़ेंगे, उनकी सारी ऊर्जा खो जाती है। क्या यह परमेश्वर पर विश्वास करना है? अंततः, अपने विश्वास में तुम्हें परमेश्वर के सामने पूर्ण और चरम समर्पण हासिल करना होगा। तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो परंतु फिर भी उससे माँगें करते हो, तुम्हारी कई धार्मिक धारणाएँ हैं जिन्हें तुम छोड़ नहीं सकते, तुम्हारे व्यक्तिगत हित हैं जिन्हें तुम त्याग नहीं सकते, और फिर भी देह के आशीष खोजते हो और चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हारी देह को बचाए, तुम्हारी आत्मा की रक्षा करे—ये सब गलत दृष्टिकोण वाले लोगों के व्यवहार हैं। यद्यपि धार्मिक विश्वास वाले लोगों का परमेश्वर पर विश्वास होता है, फिर भी वे अपना स्वभाव बदलने का प्रयास नहीं करते और परमेश्वर संबंधी ज्ञान की खोज नहीं करते, बल्कि केवल अपनी देह के हितों की ही तलाश करते हैं। तुम लोगों में से कइयों के विश्वास ऐसे हैं, जो धार्मिक आस्थाओं की श्रेणी में आते हैं; यह परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं है। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए लोगों के पास उसके लिए पीड़ा सहने वाला हृदय और स्वयं को त्याग देने की इच्छा होनी चाहिए। जब तक वे ये दो शर्तें पूरी नहीं करते, तब तक परमेश्वर पर उनका विश्वास मान्य नहीं है, और वे स्वभाव में बदलाव हासिल करने में सक्षम नहीं होंगे। जो लोग वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर संबंधी ज्ञान की तलाश करते हैं, और जीवन की खोज करते हैं, केवल वे ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा

यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए, सत्य को अभ्यास में लाना चाहिए और अपने सभी कर्तव्य पूरे करने चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें उन बातों को समझना होगा, जिनका तुम्हें अनुभव करना चाहिए। यदि तुम केवल काट-छाँट किए जाने, अनुशासित किए जाने और न्याय किए जाने का ही अनुभव करते हो, यदि तुम केवल परमेश्वर का आनंद लेने में ही समर्थ हो, परंतु जब परमेश्वर तुम्हें अनुशासित कर रहा होता है या तुम्हारी काट-छाँट कर रहा होता है, तब तुम उसका अनुभव करने में असमर्थ रहते हो—तो यह अस्वीकार्य है। शायद शोधन के इस उदाहरण में तुम अपनी स्थिति बनाए रखने में समर्थ होगे, लेकिन फिर भी यह पर्याप्त नहीं है, तुम्हें अभी भी आगे बढ़ते रहना चाहिए। परमेश्वर से प्रेम करने का पाठ कभी रुकता नहीं, और इसका कोई अंत नहीं है। लोग परमेश्वर पर विश्वास करने को बहुत ही साधारण चीज समझते हैं, परंतु जब उन्हें कुछ व्यावहारिक अनुभव प्राप्त हो जाता है, तो उन्हें एहसास होता है कि परमेश्वर पर विश्वास करना उतना आसान नहीं है, जितना लोग कल्पना करते हैं। जब परमेश्वर मनुष्य का शोधन करने के लिए कार्य करता है, तो मनुष्य को कष्ट होता है। जितना अधिक मनुष्य का शोधन होगा, उसके पास उतना ही अधिक परमेश्वर-प्रेमी हृदय होगा, और परमेश्वर की शक्ति उसमें उतनी ही अधिक प्रकट होगी। इसके विपरीत, मनुष्य का शोधन जितना कम होता है, उसमें परमेश्वर-प्रेमी हृदय उतना ही कम होगा, और परमेश्वर की शक्ति उसमें उतनी ही कम प्रकट होगी। ऐसे व्यक्ति का शोधन और पीड़ा जितनी अधिक होगी और जितनी अधिक यातना वह सहेगा, परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम उतना ही गहरा होता जाएगा और परमेश्वर में उसका विश्वास उतना ही अधिक सच्चा हो जाएगा, और परमेश्वर के विषय में उसका ज्ञान भी उतना ही अधिक गहन होगा। तुम अपने अनुभवों में उन लोगों को देखोगे, जो अपने शोधन के दौरान अत्यधिक पीड़ा सहते हैं, जिनकी काट-छाँट की जाती है और जिन्हें अधिक अनुशासित किया जाता है, और तुम देखोगे कि यही वे लोग हैं जिनमें परमेश्वर के प्रति गहरा प्रेम और परमेश्वर का अधिक गहन एवं तीक्ष्ण ज्ञान होता है। जिन लोगों ने काट-छाँट किए जाने का अनुभव नहीं किया होता, उन्हें केवल सतही ज्ञान होता है, और वे केवल यह कह सकते हैं : “परमेश्वर बहुत अच्छा है, वह लोगों को अनुग्रह प्रदान करता है, ताकि वे उसका आनंद ले सकें।” यदि लोगों ने काट-छाँट किए जाने और अनुशासित किए जाने का अनुभव किया होता है, तो वे परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बारे में बोलने में समर्थ होते हैं। अतः मनुष्य में परमेश्वर का कार्य जितना ज्यादा अद्भुत होता है, उतना ही ज्यादा वह मूल्यवान और महत्वपूर्ण होता है। परमेश्वर का कार्य तुम्हारे लिए जितना अधिक अभेद्य और तुम्हारी धारणाओं के साथ जितना अधिक असंगत होता है, उतना ही अधिक वह तुम्हें जीतने, प्राप्त करने और पूर्ण बनाने में समर्थ होता है। परमेश्वर के कार्य का महत्व कितना अधिक है! यदि परमेश्वर मनुष्य का इस तरह शोधन न करे, यदि वह इस पद्धति के अनुसार कार्य न करे, तो उसका कार्य निष्प्रभावी और महत्वहीन होगा। अतीत में यह कहा गया था कि परमेश्वर इस समूह को चुनेगा और प्राप्त करेगा, और अंत के दिनों में उसे पूर्ण बनाएगा; इस कथन का असाधारण महत्व है। वह तुम लोगों के भीतर जितना बड़ा कार्य करता है, परमेश्वर के प्रति तुम लोगों का प्रेम उतना ही ज्यादा गहरा एवं शुद्ध होता है। परमेश्वर का कार्य जितना बड़ा होता है, उतना ही अधिक मनुष्य उसकी बुद्धि के बारे में कुछ समझ पाता है और उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान उतना ही अधिक गहरा होता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा

आज परमेश्वर में वास्तविक विश्वास क्या है? यह परमेश्वर के वचन को अपनी जीवन वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना, और परमेश्वर का सच्चा प्यार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचन से परमेश्वर को जानना है। स्पष्ट कहूँ तो : परमेश्वर में विश्वास इसलिए है, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सको, उससे प्रेम कर सको, और वह कर्तव्य पूरा कर सको, जिसे एक सृजित प्राणी द्वारा पूरा किया जाना चाहिए। यही परमेश्वर पर विश्वास करने का लक्ष्य है। तुम्हें परमेश्वर की मनोहरता का और इस बात का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि परमेश्वर आदर के कितने योग्य है, कैसे अपने सृजित प्राणियों में परमेश्वर उद्धार का कार्य करता है और उन्हें पूर्ण बनाता है—ये परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास की एकदम अनिवार्य चीज़ें हैं। परमेश्वर पर विश्वास मुख्यतः देह-उन्मुख जीवन से परमेश्वर से प्रेम करने वाले जीवन में बदलना है; भ्रष्टता के भीतर जीने से परमेश्वर के वचनों के जीवन के भीतर जीना है; यह शैतान की सत्ता से बाहर आना और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में जीना है; यह देह के प्रति समर्पण को नहीं, बल्कि परमेश्वर के प्रति समर्पण को प्राप्त करने में समर्थ होना है; यह परमेश्वर को तुम्हारा संपूर्ण हृदय प्राप्त करने और तुम्हें पूर्ण बनाने देना है, और तुम्हें भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से मुक्त करने देना है। परमेश्वर में विश्वास मुख्यतः इसलिए है, ताकि परमेश्वर का सामर्थ्य और महिमा तुममें प्रकट हो सके, ताकि तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चल सको, और परमेश्वर की योजना संपन्न कर सको, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे सको। परमेश्वर पर विश्वास संकेत और चमत्कार देखने की इच्छा के इर्द-गिर्द नहीं घूमना चाहिए, न ही यह तुम्हारी व्यक्तिगत देह के वास्ते होना चाहिए। यह परमेश्वर को जानने की कोशिश के लिए, और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, और पतरस के समान मृत्यु तक परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम होने के लिए, होना चाहिए। यही परमेश्वर में विश्वास करने के मुख्य उद्देश्य हैं। व्यक्ति परमेश्वर के वचन को परमेश्वर को जानने और उसे संतुष्ट करने के उद्देश्य से खाता और पीता है। परमेश्वर के वचन को खाना और पीना तुम्हें परमेश्वर का और अधिक ज्ञान देता है, जिसके बाद ही तुम उसके प्रति समर्पण कर सकते हो। केवल परमेश्वर के ज्ञान के साथ ही तुम उससे प्रेम कर सकते हो, और यह वह लक्ष्य है, जिसे मनुष्य को परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में रखना चाहिए। यदि परमेश्वर पर अपने विश्वास में तुम सदैव संकेत और चमत्कार देखने का प्रयास कर रहे हो, तो परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास का यह दृष्टिकोण गलत है। परमेश्वर पर विश्वास मुख्य रूप से परमेश्वर के वचन को जीवन वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना है। परमेश्वर का उद्देश्य उसके मुख से निकले वचनों को अभ्यास में लाने और उन्हें अपने भीतर पूरा करने से हासिल किया जाता है। परमेश्वर पर विश्वास करने में मनुष्य को परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में समर्थ होने, और परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण के लिए प्रयास करना चाहिए। यदि तुम बिना शिकायत किए परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकते हो, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील हो सकते हो, पतरस का आध्यात्मिक कद प्राप्त कर सकते हो, और परमेश्वर द्वारा कही गई पतरस की शैली ग्रहण कर सकते हो, तो यह तब होगा जब तुम परमेश्वर पर विश्वास में सफलता प्राप्त कर चुके होगे, और यह इस बात का द्योतक होगा कि तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त कर लिए गए हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के वचन के द्वारा सब-कुछ प्राप्त हो जाता है

तो परमेश्वर में आस्था आखिर क्या है? परमेश्वर में आस्था असल में शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए मनुष्य से परमेश्वर की दृष्टि में एक सच्चे सृजित प्राणी में बदलने की प्रक्रिया है। अब जब कोई जीने के लिए शैतान के स्वभाव और उसकी प्रकृति पर निर्भर होता है, तो क्या वह ऐसा सृजित प्राणी होता है, जिससे परमेश्वर अपनी दृष्टि में संतुष्ट होता है? तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुम परमेश्वर को स्वीकार करते हो, तुम परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार करते हो और यह स्वीकार करते हो कि तुम्हें सब-कुछ परमेश्वर देता है, लेकिन क्या तुम परमेश्वर के वचनों को जीते हो? क्या तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार जीते हो? क्या तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? क्या तुम जैसा सृजित प्राणी परमेश्वर के सामने आने और परमेश्वर के साथ रहने के योग्य है? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर-भीरू हृदय है? क्या जिसे तुम जीते हो और जिस रास्ते पर तुम चलते हो, वह परमेश्वर के अनुकूल है? (नहीं।) तो अब परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का क्या अर्थ है? क्या तुमने सही रास्ते पर प्रवेश किया है? तुम्हारा परमेश्वर का अनुसरण करना, परमेश्वर के नाम में तुम्हारा विश्वास और स्वीकृति, और तुम्हारा परमेश्वर को अपने सर्जक और अपने संप्रभु के रूप में स्वीकार करना केवल एक औपचारिकता और ठकुरसुहाती है। क्योंकि तुमने सार में परमेश्वर की संप्रभुता या परमेश्वर के आयोजन स्वीकार नहीं किए हैं, और तुम परमेश्वर के साथ पूरी तरह से संगत नहीं हो सकते। अर्थात्, परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास का अर्थ पूरी तरह से चरितार्थ नहीं हुआ है। हालाँकि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, लेकिन तुमने अपनी भ्रष्टता दूर नहीं की है और उद्धार प्राप्त नहीं किया है, और तुमने परमेश्वर में विश्वास के व्यावहारिक पक्ष में प्रवेश नहीं किया है। इसे इस तरह से देखें तो, परमेश्वर पर विश्वास कोई साधारण बात नहीं है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

इतने सालों तक विश्वास करने के बाद, क्या परमेश्वर के वचन ही तुम्हारा जीवन हैं? क्या तुम्हारे पिछले भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव आया है? क्या तुम यह जानते हो कि आज परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन के होने और जीवन के न होने का क्या अर्थ है? क्या यह तुम सभी को स्पष्ट है? परमेश्वर का अनुसरण करने में प्रमुख महत्व इस बात का है कि हर चीज आज परमेश्वर के वचनों के अनुसार होनी चाहिए : चाहे तुम जीवन प्रवेश का अनुसरण कर रहे हो या परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर रहे हो, सब कुछ आज परमेश्वर के वचनों के आसपास ही केंद्रित होना चाहिए। यदि जो तुम संवाद और अनुसरण करते हो, वह आज परमेश्वर के वचनों के आसपास केंद्रित नहीं है, तो तुम परमेश्वर के वचनों के लिए एक अजनबी हो और पवित्र आत्मा के कार्य से पूरी तरह से परे हो। परमेश्वर ऐसे लोग चाहता है जो उसके पदचिह्नों का अनुसरण करें। भले ही जो तुमने पहले समझा था वह कितना ही अद्भुत और शुद्ध क्यों न हो, परमेश्वर उसे नहीं चाहता और यदि तुम ऐसी चीजों को दूर नहीं कर सकते, तो वो भविष्य में तुम्हारे प्रवेश के लिए एक भयंकर बाधा होंगी। वो सभी धन्य हैं, जो पवित्र आत्मा के वर्तमान प्रकाश का अनुसरण करने में सक्षम हैं। पिछले युगों के लोग भी परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलते थे, फिर भी वो आज तक इसका अनुसरण नहीं कर सके; यह आखिरी दिनों के लोगों के लिए आशीर्वाद है। जो लोग पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य का अनुसरण कर सकते हैं और जो परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलने में सक्षम हैं, इस तरह कि चाहे परमेश्वर उन्हें जहाँ भी ले जाए वो उसका अनुसरण करते हैं—ये वो लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त है। जो लोग पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य का अनुसरण नहीं करते हैं, उन्होंने परमेश्वर के वचनों के कार्य में प्रवेश नहीं किया है और चाहे वो कितना भी काम करें या उनकी पीड़ा जितनी भी ज़्यादा हो या वो कितनी ही भागदौड़ करें, परमेश्वर के लिए इनमें से किसी बात का कोई महत्व नहीं और वह उनकी सराहना नहीं करेगा। आज वो सभी जो परमेश्वर के वर्तमान वचनों का पालन करते हैं, वो पवित्र आत्मा के प्रवाह में हैं; जो लोग आज परमेश्वर के वचनों से अनभिज्ञ हैं, वो पवित्र आत्मा के प्रवाह से बाहर हैं और ऐसे लोगों की परमेश्वर द्वारा सराहना नहीं की जाती।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो

जो लोग परमेश्वर के रास्ते पर चलते हैं, उन्हें कम से कम अपना सब कुछ त्यागने में सक्षम होना चाहिए। परमेश्वर ने बाइबल में एक बार कहा था, “तुम में से जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, वह मेरा चेला नहीं हो सकता” (लूका 14:33)। अपने पास जो कुछ भी है, उसे त्यागने से क्या तात्पर्य है? इसका तात्पर्य यह है कि अपने परिवार को त्यागना, अपने कार्य को त्यागना, अपने सभी सांसारिक झंझटों को त्यागना। क्या यह करना आसान है? नहीं, यह बहुत ही कठिन है। ऐसा करने की इच्छाशक्ति न हो तो यह कभी नहीं किया जा सकता। जब किसी व्यक्ति के पास त्यागने की इच्छाशक्ति होती है, तो उसमें स्वाभाविक रूप से कठिनाइयाँ सहने की इच्छाशक्ति होती है। यदि कोई कठिनाइयाँ नहीं सह सकता है, तो वह चाहते हुए भी कुछ त्याग नहीं पाएगा। कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने परिवार त्याग चुके हैं और अपने प्रियजनों से दूर हो चुके हैं, पर कुछ दिनों तक अपना कर्तव्य निभाने के बाद उन्हें घर की याद सताने लगती है। यदि वे सच में यह सहन नहीं कर पाते, तो अपने घर का हालचाल लेने के लिए चुपके से वहाँ जाते हैं और फिर अपना कर्तव्य निभाने के लिए वापस आ जाते हैं। कुछ लोग जो अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपना घर छोड़ चुके हैं, उन्हें नववर्ष और अन्य छुट्टियों पर अपने प्रियजनों की बहुत याद आती है और जब रात में बाकी सभी लोग सो जाते हैं, तो वे छिपकर रोते हैं। रोने-धोने के बाद वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और काफी बेहतर महसूस करते हैं, जिसके बाद वे अपने कर्तव्य निभाना जारी रखते हैं। हालाँकि ये लोग अपने परिवारों को त्यागने में सक्षम थे, लेकिन वे अत्यधिक पीड़ा सहने में असमर्थ हैं। यदि वे देह के इन संबंधों के लिए अपनी भावनाओं को भी नहीं त्याग पा रहे हैं, तो वे वास्तव में स्वयं को परमेश्वर के लिए कैसे खपा पाएँगे? कुछ लोग अपना सब कुछ त्याग कर परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम होते हैं। वे अपनी नौकरी और अपने परिवारों को त्याग देते हैं। लेकिन ऐसा करने में उनका लक्ष्य क्या है? कुछ लोग अनुग्रह और आशीष पाने का प्रयास कर रहे हैं और कुछ पौलुस की तरह केवल ताज और पुरस्कार की ही इच्छा रखते हैं। कुछ लोग सत्य और जीवन पाने और उद्धार हासिल करने के लिए अपना सब कुछ त्याग देते हैं। तो इनमें से कौन सा लक्ष्य परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है? निस्संदेह, यह सत्य की खोज और जीवन प्राप्त करना है। यह पूर्ण रूप से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है और यह परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। ... परमेश्वर के राज्य में तुम केवल तभी प्रवेश कर पाओगे जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपनी सबसे महत्वपूर्ण चीजों को त्याग पाओगे और अपना कर्तव्य निभाओगे और सत्य तथा जीवन पाने के लिए प्रयास करोगे। परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने का अर्थ क्या है? इसका मतलब है कि तुम अपना सब कुछ त्यागने और परमेश्वर का अनुसरण करने, उनके वचनों पर ध्यान देने और उनकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने, हर चीज में उनकी आज्ञा का पालन करने में सक्षम हो; इसका मतलब है कि वो तुम्हारा प्रभु और तुम्हारा परमेश्वर बन गया है। परमेश्वर के लिए इसका मतलब है कि तुमने उसके राज्य में प्रवेश पा लिया है और तुम पर चाहे कोई भी विपत्ति आए, तुम्हें उसकी सुरक्षा मिलेगी और तुम बच जाओगे, और तुम उसके राज्य के लोगों में से एक होओगे। परमेश्वर तुम्हें अपने अनुयायी के रूप में स्वीकार करेगा या तुम्हें पूर्ण बनाने का वादा करेगा—लेकिन अपने पहले कदम के रूप में तुम्हें यीशु का अनुसरण करना होगा। केवल तभी तुम्हें राज्य के प्रशिक्षण में कोई भूमिका निभाने का अवसर मिलेगा। यदि तुम यीशु का अनुसरण नहीं करते और परमेश्वर के राज्य के बाहर हो, तो परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करेगा। और यदि परमेश्वर तुम्हें स्वीकार नहीं करता, तो क्या तुम खुद को बचा लिए जाने और परमेश्वर का वादा और उससे पूर्णता पाने की इच्छा के बावजूद यह सब पा सकोगे? तुम नहीं पा सकोगे। यदि तुम परमेश्वर का अनुमोदन पाना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले उसके राज्य में प्रवेश करने लायक बनना होगा। यदि तुम सत्य के अनुसरण के लिए अपना सब कुछ त्याग सकते हो, यदि तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य खोज सकते हो, यदि तुम सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकते हो और यदि तुम्हारे पास सच्ची अनुभवात्मक गवाही है, तो तुम परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने और उसका वादा हासिल करने के योग्य हो। यदि तुम परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए अपना सब कुछ त्याग नहीं सकते, तो तुम न तो उसके राज्य में प्रवेश करने के योग्य हो, और न ही उसके आशीष और वादे के हकदार। बहुत से लोग अपना सब कुछ त्याग कर परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभा रहे हैं, फिर भी यह निश्चित नहीं है कि वे सत्य पा सकेंगे। व्यक्ति को सत्य से प्रेम करना चाहिए और उसे प्राप्त कर सकने से पहले उसे स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए। यदि कोई सत्य को पाने का प्रयास नहीं करता है, तो वो इसे पा नहीं सकता। उन लोगों का तो जिक्र ही क्या जो अपने खाली समय में अपने कर्तव्य निभाते हैं—परमेश्वर के कार्य के बारे में उनका अनुभव इतना सीमित है कि उनके लिए सत्य को पाना और भी कठिन होगा। यदि कोई अपना कर्तव्य नहीं निभाता है या सत्य को पाने के लिए प्रयत्नशील नहीं है, तो वह परमेश्वर से उद्धार और पूर्णता प्राप्त करने के अद्भुत अवसर से चूक जाएगा। कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करते हैं, लेकिन अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते और सांसारिक चीजों के पीछे पड़े रहते हैं। क्या यही उनका सब कुछ त्यागना है? यदि परमेश्वर में ऐसे विश्वास करता है, तो क्या वह अंत तक उसका अनुसरण कर पाएगा? प्रभु यीशु के शिष्यों को देखो : उनमें मछुआरे, किसान और एक कर संग्राहक थे। जब प्रभु यीशु ने उन्हें पुकारा और कहा, “मेरे पीछे आओ,” तो उन्होंने अपने काम-काज छोड़ दिए और प्रभु का अनुसरण किया। उन्होंने न तो रोजी-रोटी के मुद्दे पर विचार किया, न ही इस बात पर कि बाद में उनके पास दुनिया में जीवित रहने का कोई रास्ता बचेगा या नहीं और वे तुरंत प्रभु यीशु के पीछे चल पड़े। पतरस ने खुद को पूरे दिल से समर्पित करके अंत तक प्रभु यीशु के आदेश का पालन करते हुए अपना कर्तव्य पूरा किया। उसे अपना पूरा जीवन परमेश्वर का प्रेम पाने में लगाया और अंत में परमेश्वर ने उसे पूर्णता प्रदान की। आज कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपना सब कुछ नहीं त्याग सकते, और, फिर भी वे परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना चाहते हैं। क्या वे केवल सपने नहीं देख रहे हैं?

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन

क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर के अनुसरण में क्या शामिल होता है? दर्शनों के बिना, तुम किस मार्ग पर चलोगे? आज के कार्य में, यदि तुम्हारे पास दर्शन नहीं हैं तो तुम किसी भी हाल में पूरे नहीं किए जा सकोगे। तुम किस पर विश्वास करते हो? तुम उसमें आस्था क्यों रखते हो? तुम उसके पीछे क्यों चलते हो? क्या तुम्हें अपना विश्वास कोई खेल लगता है? क्या तुम अपने जीवन के साथ किसी खेल की तरह बर्ताव कर रहे हो? आज का परमेश्वर सबसे महान दर्शन है। उसके बारे में तुम्हें कितना पता है? तुमने उसे कितना देखा है? आज के परमेश्वर को देखने के बाद क्या परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास की नींव मजबूत है? क्या तुम्हें लगता है कि जब तक तुम इस उलझन भरे रास्ते पर चलते रहोगे, तुम्हें उद्धार प्राप्त होगा? क्या तुम्हें लगता है कि तुम कीचड़ से भरे पानी में मछली पकड़ सकते हो? क्या यह इतना सरल है? परमेश्वर ने आज जो वचन कहे हैं, उनसे संबंधित कितनी धारणाएं तुमने दरकिनार की हैं? क्या तुम्हारे पास आज के परमेश्वर का कोई दर्शन है? आज के परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ क्या है? तुम हमेशा मानते हो कि उसके पीछे चलकर तुम उसे[क] प्राप्त कर सकते हो, उसे देखकर तुम उसे प्राप्त कर सकते हो, और कोई भी तुम्हें हटा नहीं सकेगा। ऐसा न मान लो कि परमेश्वर के पीछे चलना इतनी आसान बात है। मुख्य बात यह है कि तुम्हें उसे जानना चाहिए, तुम्हें उसका कार्य पता होना चाहिए, और तुम में उसके वास्ते कठिनाई का सामना करने की इच्छा होनी चाहिए, उसके लिए अपने जीवन का त्याग करने और उसके द्वारा पूर्ण किए जाने की इच्छा होनी चाहिए। तुम्हारे पास यह दर्शन होना चाहिए। अगर तुम्हारे ख़्याल हमेशा अनुग्रह पाने की ओर झुके रहते हैं, तो यह नहीं चलेगा। यह मानकर न चलो कि परमेश्वर यहाँ केवल लोगों के आनंद और केवल उन पर अनुग्रह बरसाने के लिए है। अगर तुम ऐसा सोचते हो तुम गलत होगे! अगर कोई उसका अनुसरण करने के लिए अपने जीवन को जोखिम में नहीं डाल सकता, संसार की प्रत्येक संपत्ति को त्याग नहीं कर सकता, तो वह अंत तक कदापि अनुसरण नहीं कर पाएगा! तुम्हारे दर्शन तुम्हारी नींव होने चाहिए। अगर किसी दिन तुम पर दुर्भाग्य आ पड़े, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? क्या तुम तब भी उसका अनुसरण कर पाओगे? तुम अंत तक अनुसरण कर पाओगे या नहीं, इस बात को हल्के में न कहो। बेहतर होगा कि तुम पहले अपनी आँखों को अच्छे से खोलो और देखो कि अभी समय क्या है। भले ही तुम लोग वर्तमान में मंदिर के खंभों की तरह हो, परंतु एक समय आएगा जब ऐसे खंभे कीड़ों द्वारा कुतर दिये जाएंगे जिससे मंदिर ढह जाएगा, क्योंकि फिलहाल तुम लोगों में अनेक दर्शनों की बहुत कमी है। तुम लोग केवल अपने छोटे-से संसार पर ध्यान देते हो, तुम लोगों को नहीं पता कि खोजने का सबसे विश्वसनीय, सबसे उपयुक्त तरीका क्या है। तुम लोग आज के कार्य के दर्शन पर ध्यान नहीं देते, न ही तुम लोग इन बातों को अपने दिल में रखते हो। क्या तुम लोगों ने कभी सोचा है कि एक दिन परमेश्वर तुम लोगों को एक बहुत अपरिचित जगह में रखेगा? क्या तुम लोग सोच सकते हो जब मैं तुम लोगों से सब कुछ छीन लूँगा, तो तुम लोगों का क्या होगा? क्या उस दिन तुम लोगों की ऊर्जा वैसी ही होगी जैसी आज है? क्या तुम लोगों की आस्था फिर से प्रकट होगी? परमेश्वर के अनुसरण में तुम्हें इस सबसे महान दर्शन को जानना चाहिए जो “परमेश्वर” है : यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसके अलावा, यह न मान बैठो कि पवित्र होने के इरादे से सांसारिक मनुष्यों से मेलजोल छोड़कर तुम लोग परमेश्वर का परिवार बन ही जाओगे। इन दिनों परमेश्वर स्वयं सृजित प्राणियों के बीच कार्य कर रहा है; वही लोगों के बीच अपना कार्य करने के लिए आया है—वह अभियान चलाने नहीं आया। तुम लोगों के बीच में, मुट्ठीभर भी ऐसे नहीं हैं जो जानते हों कि आज का कार्य स्वर्ग के परमेश्वर का कार्य है, जिसने देहधारण किया है। यह तुम लोगों को प्रतिभा से भरपूर उत्कृष्ट व्यक्ति बनाने के लिए नहीं है; यह मानवीय जीवन के मायने को जानने में, मनुष्यों की मंज़िल जानने के लिए, और परमेश्वर और उसकी समग्रता को जानने में तुम लोगों की मदद के लिए है। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम सृष्टिकर्ता के हाथ में एक सृजित प्राणी हो। तुम्हें क्या समझना चाहिए, तुम्हें क्या करना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर का अनुसरण कैसे करना चाहिए—क्या ये वे सत्य नहीं हैं जिन्हें तुम्हें समझना चाहिए? क्या ये वे दर्शन नहीं हैं जिन्हें तुम्हें देखना चाहिए?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम लोगों को कार्य को समझना चाहिए—भ्रम में अनुसरण मत करो!

फुटनोट :

क. मूल पाठ में “उसे” शब्द शामिल नहीं है।


ज्यादातर लोगों के पास जब कोई समस्या नहीं होती है, जब उनके साथ सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा होता है, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर शक्तिशाली और धार्मिक है, और मनोहर है। जब परमेश्वर उनका परीक्षण करता है, उनके साथ निपटता है, उन्हें ताड़ना देता है, और अनुशासित करता है, जब वह उन्हें अपने स्वार्थों एक तरफ रखने के लिए, देह-सुख का त्याग करने और सत्य का अभ्यास करने के लिए कहता है, जब परमेश्वर उन पर कार्य करता है, और उनके भाग्य और उनके जीवन को आयोजित और शासित करता है, तो उनका विद्रोह प्रकट होने लगता है, और उनके और परमेश्वर के बीच विभाजन होने लगता है; नतीजतन उनके और परमेश्वर के बीच एक टकराव और एक खाई पैदा होने लगती है। ऐसे समय में, उनके दिलों में, परमेश्वर ज़रा भी मनोहर नहीं होता; वह बिलकुल भी शक्तिशाली नहीं होता, क्योंकि वह जो कुछ करता है, उससे उनकी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। परमेश्वर उन्हें दुखी करता है; वह उन्हें परेशान करता है; वह उनके लिए कष्ट और पीड़ा लाता है; वह उन्हें बेचैन महसूस कराता है। इसलिए वे परमेश्वर के आगे बिलकुल भी समर्पण नहीं करते, इसके बजाय, वे उसके खिलाफ विद्रोह करते हैं और उसे नकारते हैं। ऐसा करके क्या वे सत्य का अभ्यास कर रहे होते हैं? क्या वे परमेश्वर के मार्ग पर चल रहे होते हैं? क्या वे परमेश्वर का अनुसरण कर रहे होते हैं? नहीं। इसलिए, चाहे परमेश्वर के कार्य के बारे में तुम्हारी कितनी भी धारणाएँ और कल्पनाएँ क्यों न हों, और चाहे तुमने पहले अपनी मर्जी के मुताबिक जैसे भी काम किया हो और परमेश्वर के खिलाफ़ जैसे भी बग़ावत की हो, अगर तुम वास्तव में सत्य की तलाश करते हो, और परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करते हो, और परमेश्वर के वचनों द्वारा काट-छाँट और निपटारे को स्वीकार करते हो; अगर, परमेश्वर द्वारा आयोजित हर चीज में, तुम उसके अनुरूप चलने में सक्षम होते हो, परमेश्वर के वचनों को मानते हो, उसकी इच्छा को महसूस करना सीखते हो, उसके वचनों और उसके इरादों के अनुसार अभ्यास करते हो, समर्पण की कोशिश करने में सक्षम होते हो, और अपनी समस्त इच्छाओं, अभिलाषाओं, विचारों, इरादों को छोड़ सकते हो, और परमेश्वर का विरोध नहीं करते हो, केवल तभी तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो! तुम कह सकते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन तुम जो भी करते हो, वह सब अपनी मर्जी के मुताबिक करते हो। तुम्हारे हर क्रियाकलाप में, तुम्हारे अपने उद्देश्य, तुम्हारी अपनी योजनाएँ होती हैं; तुम इसे परमेश्वर पर नहीं छोड़ते। तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हारा परमेश्वर है? नहीं, वह तुम्हारा परमेश्वर नहीं है। यदि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तो जब तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तब क्या ये खोखले शब्द नहीं होते हैं? क्या ऐसे शब्द लोगों को बेवकूफ़ बनाने की कोशिश नहीं हैं? तुम कह सकते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन तुम्हारे सारे कार्य और कर्म, जीवन और मूल्यों को लेकर तुम्हारा दृष्टिकोण, और विभिन्न मामलों से निपटने के लिए तुम्हारा रवैया और सिद्धांत, सभी शैतान से आते हैं—तुम इन सबसे पूरी तरह से शैतान के नियमों और तर्कों के अनुसार निपटते हो। तब, क्या तब तुम परमेश्वर के अनुयायी होते हो? (नहीं।) ... अगर कोई व्यक्ति सिर्फ ऊपरी तौर पर सब कुछ त्यागकर अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ प्रतीत हो, परमेश्वर का अनुसरण करता हुआ प्रतीत हो, पर उसकी पूरी सोच और सारे कर्म शैतान के तर्क और फलसफे के अनुरूप हों, तो क्या वह सचमुच परमेश्वर का अनुयायी हो सकता है? (नहीं।) वह नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसे लोग परमेश्वर के खिलाफ निरंतर विद्रोह करते रहते हैं; वे सत्य का अभ्यास नहीं करते, और न ही परमेश्वर के आगे समर्पण करते हैं। तो फिर वे परमेश्वर में विश्वास ही क्यों करते हैं? वे सच में क्या हासिल करना चाहते हैं? इसका कोई सीधा-सरल जवाब नहीं है। क्या वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हैं? नहीं; थोड़े अच्छे तरीके से कहा जाए, तो वे धर्म में विश्वास रखते हैं। भले ही वे परमेश्वर में आस्था रखने का दावा करें, पर परमेश्वर उन्हें स्वीकार नहीं करता। परमेश्वर उन्हें कुकर्मियों में गिनेगा, और वह ऐसे लोगों को नहीं बचाएगा।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता

आज बहुत-से लोग मानते हैं कि परमेश्वर का अनुसरण करना आसान है, किंतु जब परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला होगा, तब तुम “अनुसरण करने” का असली अर्थ जानोगे। सिर्फ इस बात से कि जीत लिए जाने के पश्चात् तुम आज भी परमेश्वर का अनुसरण करने में समर्थ हो, यह प्रमाणित नहीं होता कि तुम उन लोगों में से एक हो, जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा। जो लोग परीक्षणों को सहने में असमर्थ हैं, जो क्लेशों के बीच विजयी होने में अक्षम हैं, वे अंततः डटे रहने में अक्षम होंगे, और इसलिए वे बिल्कुल अंत तक अनुसरण करने में असमर्थ होंगे। जो लोग सच में परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, वे अपने कार्य की परीक्षा का सामना करने में समर्थ हैं, जबकि जो लोग सच में परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, वे परमेश्वर के किसी भी परीक्षण का सामना करने में अक्षम हैं। देर-सवेर उन्हें निर्वासित कर दिया जाएगा, जबकि विजेता राज्य में बने रहेंगे। मनुष्य वास्तव में परमेश्वर को खोजता है या नहीं, इसका निर्धारण उसके कार्य की परीक्षा द्वारा किया जाता है, अर्थात्, परमेश्वर के परीक्षणों द्वारा, और इसका स्वयं मनुष्य द्वारा लिए गए निर्णय से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर सनक के आधार पर किसी मनुष्य को अस्वीकार नहीं करता; वह जो कुछ भी करता है, वह मनुष्य को पूर्ण रूप से आश्वस्त कर सकता है। वह ऐसा कुछ नहीं करता, जो मनुष्य के लिए अदृश्य हो, या कोई ऐसा कार्य जो मनुष्य को आश्वस्त न कर सके। मनुष्य का विश्वास सही है या नहीं, यह तथ्यों द्वारा साबित होता है, और इसे मनुष्य द्वारा तय नहीं किया जा सकता। इसमें कोई संदेह नहीं कि “गेहूँ को जंगली दाने नहीं बनाया जा सकता, और जंगली दानों को गेहूँ नहीं बनाया जा सकता”। जो सच में परमेश्वर से प्रेम करते हैं, वे सभी अंततः राज्य में बने रहेंगे, और परमेश्वर किसी ऐसे व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार नहीं करेगा, जो वास्तव में उससे प्रेम करता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास

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