1. छद्म विश्वासियों को कैसे पहचानें

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के सभी वचनों और कार्यों में विश्वास रखना चाहिए। अर्थात्, चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, इसलिए तुम्हें उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। यदि तुम ऐसा नहीं कर पाते हो, तो यह मायने नहीं रखता कि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो या नहीं। यदि तुमने वर्षों परमेश्वर में विश्वास रखा है, फिर भी न तो कभी उसके प्रति समर्पण किया है, न ही उसके वचनों की समग्रता को स्वीकार किया है, बल्कि तुमने परमेश्वर को अपने आगे समर्पण करने और तुम्हारी धारणाओं के अनुसार कार्य करने को कहा है, तो तुम सबसे अधिक विद्रोही व्यक्ति हो, और छद्म-विश्वासी हो। एक ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के कार्य और वचनों के प्रति समर्पण कैसे कर सकता है जो मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप नहीं है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे

जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे ही परमेश्वर में सच्ची आस्था रखते हैं। उनके अंदर भावनाएँ होती हैं, जो उनके जमीर और विवेक से प्रेरित होती हैं; वे अपने दिल में मानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं; वे मानते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह सही होता है, और लोगों को बचाने और शुद्ध करने के उद्देश्य से करता है। भले ही वह लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो या न हो, यह उनके लिए फायदेमंद होता है। जो लोग परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं रखते उनके पास जमीर नहीं होता और उनके पास विवेक भी नहीं होता, और न ही वे जमीर या विवेक होने की परवाह करते हैं। परमेश्वर के वचनों के प्रति उनका रवैया हमेशा आधा विश्वास और आधा अविश्वास करने वाला होता है; उनके दिल यह महसूस नहीं कर सकते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। तो परमेश्वर के अस्तित्व के बारे में उनकी सोच क्या होती है? वे अपने दिलों में यह सोचते हैं, “यदि परमेश्वर मौजूद है, तो वह कहाँ है? मुझे तो वह दिख नहीं रहा। मुझे नहीं पता कि परमेश्वर वास्तव में मौजूद है या नहीं। यदि तुम मानते हो कि वह मौजूद है, तो वह है; यदि तुम नहीं मानते, तो वह मौजूद नहीं है।” यह उनकी सोच होती है। फिर भी वे इस बारे में गहराई से विचार करते हैं, सोचते हैं, “इतने सारे लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसकी गवाही दी है। शायद वास्तव में परमेश्वर मौजूद है। मुझे उम्मीद है कि परमेश्वर मौजूद है, क्योंकि फिर मैं स्थिति का लाभ उठा सकता हूँ और आशीष प्राप्त कर सकता हूँ। ऐसा हुआ तो मैं भाग्यशाली हो जाऊँगा।” उनकी मानसिकता भाग्य और जुए वाली है और बस अपने मनोरंजन के लिए इसमें भाग लेना चाहते हैं; उनकी सोच यह होती है कि भले ही उन्हें आशीष न मिले, इस से उनका कोई नुकसान नहीं है, क्योंकि उन्होंने कुछ भी निवेश नहीं किया है। परमेश्वर के अस्तित्व के प्रति उनकी सोच और रवैया यह होता है, “क्या परमेश्वर वास्तव में मौजूद है? मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। परमेश्वर कहाँ है? मुझे निश्चित रूप से पता नहीं है। क्या ये सभी लोग जिन्होंने गवाही दी है सच्चे हैं? या वे झूठ बोल रहे हैं? मुझे निश्चित रूप से नहीं पता।” उनका दिल इन सभी मुद्दों पर प्रश्नचिह्न लगाता है; वे इसका पता नहीं लगा सकते और इसलिए वे लगातार इस मामले में संदेह करते रहते हैं। परमेश्वर में उनका विश्वास संदेह और गलत सोच के रवैये से दूषित होता है। जब परमेश्वर बात करता है और सत्य व्यक्त करता है, तो उसके वचनों के प्रति उनका रवैया क्या होता है? (संदेह और अविश्वास।) यह उनकी मुख्य सोच नहीं है; तुम लोग इस मामले को स्पष्ट रूप से नहीं देख रहे हो। क्या वे परमेश्वर के वचन को सत्य मानते हैं? (नहीं।) वे क्या सोचते हैं? “इतने सारे लोग परमेश्वर के वचनों को पढ़ना पसंद करते हैं, तो फिर मुझे यह दिलचस्प क्यों नहीं लगता? परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सत्य को समझने से क्या हासिल किया जा सकता है? इसमें फायदा क्या है? क्या तुम वास्तव में स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हो? लोग स्वर्ग का राज्य नहीं देख सकते। मुझे तो यह लगता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने का कुछ तो वास्तविक फायदा होना चाहिए; कुछ वास्तविक लाभ तो होना ही चाहिए।” उन्हें इस बात की चिंता होती है कि अगर वे सत्य को नहीं समझेंगे तो उन्हें हटा दिया जाएगा, इसलिए वे कभी-कभी धर्मोपदेश सुन लेते हैं। लेकिन फिर वे चिंतन करते हुए सोचते हैं, “लोग कहते हैं कि परमेश्वर के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य होती है, तो फिर मैं इसे क्यों नहीं सुनता या महसूस नहीं करता? लोग कहते हैं कि परमेश्वर के वचन लोगों को बदल सकते हैं, तो फिर उसके वचनों ने मुझे क्यों नहीं बदला? मैं आज भी देह के आराम के पीछे उतना ही भागता हूँ जितना पहले भागता था; खाना और कपड़े मेरी पसंद हैं; मेरा मिजाज उतना ही खराब है जितना पहले था; जब बड़ा लाल अजगर मुझ पर अत्याचार करता है तो मुझे अभी भी डर लगता है। मेरे अंदर अभी भी आस्था क्यों नहीं है? परमेश्वर लोगों से ईमानदार बनने के लिए कहता है; वह उनसे सत्य और मानवता अपनाने के लिए कहता है। क्या ईमानदार लोग मूर्ख नहीं होते? परमेश्वर लोगों से चाहता है कि वे परमेश्वर का भय मानें और बुराई से दूर रहें, लेकिन कितने लोग वास्तव में ऐसा कर पाते हैं? मनुष्य स्वार्थी प्रकृति का होता है। यदि तुम अपनी मानवीय प्रकृति के पीछे चलोगे, तो तुम्हें सोचना चाहिए कि तुम अपने लिए आशीष कैसे प्राप्त करोगे। तुम्हें खुद को लाभ पहुँचाने के लिए कोई उपाय करना होगा। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए। तुम्हें अपनी नियति अपने हाथों में लेनी चाहिए; तुम्हें अपनी खुशी खुद ढूँढ़नी चाहिए। यह सबसे वास्तविक चीज है। यदि लोग आपस में नहीं लड़ेंगे और अपने लिए चीजें नहीं छीनेंगे और यदि वे शोहरत, लाभ और फायदे के लिए नहीं जी रहे हैं, तो उन्हें कुछ भी नहीं मिलेगा। कोई भी तुम्हारी झोली में लाकर ये चीजें नहीं डालेगा। मन्ना वास्तव में कभी भी स्वर्ग से नहीं गिरता!” ये हैं उनके विचार और सोच, सांसारिक आचरण के उनके फलसफे और वे तर्क और नियम जिनके सहारे वे जीवित हैं। क्या ऐसे विचार और सोच रखने वाले लोग छद्म-विश्वासी होते हैं? यह ठीक वही रवैया है जो छद्म-विश्वासी लोग सत्य के प्रति रखते हैं। उनके दिमाग नहीं जानते कि सत्य क्या है, नहीं जानते कि परमेश्वर के वचनों का अधिकार और सामर्थ्य कहाँ जाहिर होती है और नहीं जानते कि परमेश्वर लोगों के परिणाम की व्यवस्था कैसे करता है। वे सिर्फ सामर्थ्य की पूजा करते हैं और उन लाभों की तलाश करते हैं जो उनके सामने हैं। वे सोचते हैं कि यदि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं तो उन्हें आशीष मिलना चाहिए; और यदि परमेश्वर लोगों को सौभाग्य प्रदान करता है, उनके जीवन को धन और बहुलता से भर देता है और उन्हें एक खुशहाल जीवन देता है, तो केवल तभी यह एक सच्चा मार्ग होगा। उन्हें यह विश्वास नहीं है कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उन्हें यह विश्वास नहीं है कि परमेश्वर को सभी चीजों पर संप्रभुता प्राप्त है, इस बात को तो छोड़ ही दें कि परमेश्वर के वचन किसी व्यक्ति के स्वभाव या किस्मत को बदल सकते हैं। इसलिए उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास करते हुए कभी भी सत्य का अनुसरण नहीं किया है। सारांश यह है कि चूँकि वे परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन और अपने जीवन के लक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं करते, इसलिए परमेश्वर में उनकी आस्था लगातार कमजोर होती जा रही है; उन्हें न तो परमेश्वर के वचनों को पढ़ने में रुचि है और न ही धर्मोपदेश सुनने में; जब सत्य पर संगति हो रही होती है तो वे कई बार सो भी जाते हैं। इससे भी बढ़कर उन्हें यह भी लगता है कि अपना कर्तव्य निभाना एक अतिरिक्त बोझ है और वे बिना किसी फायदे के काम कर रहे हैं। उनके दिल उस जमाने के लिए तरसते हैं जब परमेश्वर का कार्य पूरा होगा, जब परमेश्वर उन्हें अपना फैसला सुना देगा और वे जान जाएँगे कि क्या वे वास्तव में आशीष प्राप्त करेंगे या नहीं। यदि वे यह जान लें कि इस तरह से परमेश्वर पर विश्वास करने से वे कभी भी आशीष प्राप्त नहीं करेंगे, कि उन्हें निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा और यह कि वे अभी भी किसी आपदा के कारण मर जाएँगे, तो फिर वे अभी ही पीछे हट सकते हैं। यद्यपि वे कहते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन दिल में उन्हें उसके बारे में संदेह होता है। वे कहते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, लेकिन उनके दिल सत्य में विश्वास नहीं करते। उन्होंने कभी भी परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ा है, और न ही उन्होंने कभी वास्तव में किसी धर्मोपदेश को सुना है। उन्होंने कभी भी सत्य पर संगति नहीं की है, और कभी भी अपने कर्तव्य को निभाते हुए सत्य की खोज नहीं की है; वे केवल अपने स्वयं के प्रयासों का उपयोग करते हैं। यह एक ठेठ छद्म-विश्वासी की पहचान है। वे अविश्वासी लोगों से अलग नहीं हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए

कुछ लोगों के विश्वास को परमेश्वर के हृदय ने कभी स्वीकार नहीं किया है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर यह नहीं मानता कि ये लोग उसके अनुयायी हैं, क्योंकि परमेश्वर उनके विश्वास की प्रशंसा नहीं करता। क्योंकि ये लोग, भले ही कितने ही वर्षों से परमेश्वर का अनुसरण करते रहे हों, लेकिन इनकी सोच और इनके विचार कभी नहीं बदले हैं; वे अविश्वासियों के समान हैं, अविश्वासियों के सिद्धांतों और लोगों से मिलने-जुलने के तौर-तरीकों, और जिन्दा रहने के उनके नियमों एवं विश्वास के मुताबिक चलते हैं। उन्होंने परमेश्वर के वचन को कभी अपना जीवन नहीं माना, कभी नहीं माना कि परमेश्वर का वचन सत्य है, कभी परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने का इरादा ज़ाहिर नहीं किया, और परमेश्वर को कभी अपना परमेश्वर नहीं माना। वे परमेश्वर में विश्वास करने को एक किस्म का शगल मानते हैं, परमेश्वर को महज एक आध्यात्मिक सहारा समझते हैं, इसलिए वे नहीं मानते कि परमेश्वर का स्वभाव, या उसका सार इस लायक है कि उसे समझने की कोशिश की जाए। कहा जा सकता है कि वह सब जो सच्चे परमेश्वर से संबद्ध है उसका इन लोगों से कोई लेना-देना नहीं है; उनकी कोई रुचि नहीं है, और न ही वे ध्यान देने की परवाह करते हैं। क्योंकि उनके हृदय की गहराई में एक तीव्र आवाज है जो हमेशा उनसे कहती है : “परमेश्वर अदृश्य एवं अस्पर्शनीय है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है।” वे मानते हैं कि इस प्रकार के परमेश्वर को समझने की कोशिश करना उनके प्रयासों के लायक नहीं है; ऐसा करना अपने आपको मूर्ख बनाना होगा। वे मानते हैं कि कोई वास्तविक कदम उठाए बिना अथवा किसी भी वास्तविक कार्यकलाप में स्वयं को लगाए बिना, सिर्फ शब्दों में परमेश्वर को स्वीकार करके, वे बहुत चालाक बन रहे हैं। परमेश्वर इन लोगों को किस दृष्टि से देखता है? वह उन्हें अविश्वासियों के रूप में देखता है। कुछ लोग पूछते हैं : “क्या अविश्वासी लोग परमेश्वर के वचन को पढ़ सकते हैं? क्या वे अपने कर्तव्य निभा सकते हैं? क्या वे ये शब्द कह सकते हैं : ‘मैं परमेश्वर के लिए जिऊँगा’?” लोग प्रायः जो देखते हैं वह लोगों का सतही प्रदर्शन होता है; वे लोगों का सार नहीं देखते। लेकिन परमेश्वर इन सतही प्रदर्शनों को नहीं देखता; वह केवल उनके भीतरी सार को देखता है। इसलिए, इन लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति और परिभाषा ऐसी है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

जो व्यक्ति परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन के रूप में जरा-भी स्वीकार नहीं करता, वह परमेश्वर में सच्चा विश्वास करने वाला व्यक्ति नहीं है। वह छद्म-अविश्वासी है, चाहे वह कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करता रहा हो, यह किसी काम का नहीं है। अगर परमेश्वर का कोई विश्वासी सिर्फ धार्मिक रस्मों में लगा रहता है, लेकिन सत्य का अभ्यास नहीं करता है, तो वह परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति नहीं है, और परमेश्वर उसे स्वीकार नहीं करता है। तुम्हारे पास ऐसा क्या होना चाहिए कि परमेश्वर तुम्हें अपना अनुयायी स्वीकार करे? क्या तुम्हें उन मापदंडों का पता है जिनके अनुसार परमेश्वर किसी व्यक्ति को मापता है? परमेश्वर यह मूल्यांकन करता है कि क्या तुम सब कुछ उसकी अपेक्षाओं के अनुसार करते हो, और क्या तुम उसके वचनों पर आधारित सत्यों के आगे समर्पण और उनका अभ्यास करते हो। परमेश्वर इसी मापदंड पर किसी व्यक्ति को परखता है। परमेश्वर की परख इस बात पर आधारित नहीं है कि तुम कितने बरसों से उसमें विश्वास करते रहे हो, तुम कहां तक पहुंचे हो, तुम्हारे अच्छे व्यवहार कितने हैं, या तुम कितने शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को समझते हो। उसका पैमाना इस बात पर आधारित है कि क्या तुम सत्य का अनुसरण करते हो और तुम कौनसा रास्ता चुनते हो। बहुत-से लोग मौखिक तौर पर परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका गुणगान करते हैं, पर अपने दिलों में वे परमेश्वर के वचनों से प्रेम नहीं करते। वे सत्य में दिलचस्पी नहीं रखते। वे हमेशा यही मानते हैं कि आम लोग शैतान के फलसफों या विभिन्न सांसारिक नियमों के अनुसार ही चलते हैं, और इसी तरह कोई खुद को बचाए रख सकता है, और दुनिया में मूल्य के साथ इसी तरह जिया जा सकता है। क्या ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखने और उसका अनुसरण करने वाले लोग हैं? नहीं, वे बिल्कुल भी नहीं हैं। महान और प्रसिद्ध लोगों के शब्द खास तौर से ज्ञान से भरे प्रतीत होते हैं और लोगों को आसानी से गुमराह कर सकते हैं। तुम उनके शब्दों को सत्य मानकर उन्हें अपना जीवन-मंत्र बना लेते हो। लेकिन जब परमेश्वर के वचनों की बात आती है, और लोगों से उसकी सामान्य अपेक्षा की बात आती है, जैसे कि एक ईमानदार व्यक्ति होना, या प्रेमपूर्वक और निष्ठापूर्वक अपना स्थान बनाए रखना, एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाना, और एक दृढ़ और सत्यनिष्ठ आचरण होना, तो तुम इन वचनों को अभ्यास में नहीं ला पाते हो, और इन्हें सत्य की तरह नहीं देखते, तो तुम परमेश्वर के अनुयायी नहीं हो। तुम सत्य के अभ्यास का दावा करते हो, पर अगर परमेश्वर तुमसे पूछे, “क्या तुम जिन ‘सत्यों’ का अभ्यास कर रहे हो, वे परमेश्वर के वचन हैं? तुम जिन सिद्धांतों पर अमल करते हो क्या वे परमेश्वर के वचन हैं?”—तो तुम क्या जवाब दोगे? अगर तुम्हारा आधार परमेश्वर के वचन नहीं हैं, तो वे शैतान के शब्द हैं। तुम शैतान के शब्दों को जी रहे हो, और फिर भी तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने का दावा करते हो। क्या यह परमेश्वर के खिलाफ ईशनिंदा का मामला नही है? मिसाल के तौर पर, परमेश्वर लोगों से ईमानदार बनने के लिए कहता है, फिर भी लोग यह सोचते तक नहीं कि वास्तव में ईमानदार होने का क्या मतलब है, एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास कैसे किया जाता है, वे ऐसी कौनसी चीजें जीते और उजागर करते हैं, जो बेईमानी है, और ऐसी कौनसी चीजें जीते और उजागर करते हैं जो ईमानदारी है। परमेश्वर के वचनों के सत्य के सार पर चिंतन-मनन करने के बजाय वे अविश्वासियों की किताबें पढ़ते हैं। वे सोचते हैं, “अविश्वासियों की कहावतें भी काफी अच्छी होती हैं—वे भी लोगों से अच्छा बनने के लिए कहती हैं! मिसाल के तौर पर, ‘अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है,’ ‘निष्कपट लोग हमेशा जीतते हैं,’ ‘दूसरों को क्षमा करना मूर्खता नहीं है, इसका बाद में अच्छा फल मिलता है।’ ये सभी कथन भी सही हैं, और सत्य से मेल खाते हैं!” इसलिए वे इन शब्दों से चिपके रहते हैं। अविश्वासियों की इन कहावतों पर अमल करके वे किस तरह के व्यक्ति की तरह जीते हैं? क्या वे सत्य वास्तविकता को जी सकते हैं? (नहीं, वे नहीं जी सकते।) क्या ऐसे बहुत-से लोग नहीं हैं? वे कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, कुछ किताबें पढ़ लेते हैं, और कुछ प्रसिद्ध कृतियों का अध्ययन कर लेते हैं, उन्हें थोड़ा परिप्रेक्ष्य मिल जाता है, और वे कुछ मशहूर कहावतें और लोकोक्तियाँ सुन लेते हैं, और इन्हें सत्य मान लेते हैं, और इन्हीं शब्दों के अनुसार चलते हुए वे अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं, और इन्हें परमेश्वर के विश्वासी के रूप में अपने जीवन पर लागू करते रहते हैं, और यह सोचते रहते हैं कि वे परमेश्वर के दिल को संतुष्ट कर रहे हैं। क्या यह झूठ को सत्य की जगह देना नहीं है? क्या यह छल नहीं है? परमेश्वर की नजर में यह ईशनिंदा है! ये चीजें हर व्यक्ति में झलकती हैं, और थोड़ी-बहुत मात्रा में नहीं। एक ऐसा व्यक्ति जो लोगों द्वारा कहे गए लुभावने शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को सत्य मानकर सीने से लगाए रखता है, जबकि परमेश्वर के वचनों को एक तरफ रखकर उन्हें नजरअंदाज कर देता है, और बार-बार पढ़ने के बाद भी उन्हें आत्मसात नहीं कर पाता, या परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानता, तो क्या वह परमेश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति है? क्या वह परमेश्वर का अनुयायी है? (नहीं।) ऐसे लोग धर्म में विश्वास करते हैं, वे अब भी शैतान का अनुसरण करते हैं! उनका मानना है कि शैतान द्वारा कहे गए शब्द दार्शनिक हैं, इसलिए वे गूढ और उत्कृष्ट हैं। वे उन्हें परम सत्य के प्रसिद्ध कथन मानते हैं। वे चाहे कुछ भी छोड़ दें, पर इन शब्दों को नहीं छोड़ पाते। इन शब्दों को त्यागना उनके लिए जीवन की आधारशिला को खो देने की तरह है, जैसे कि अपने दिल को उलीचकर खाली कर देना। ये किस तरह के लोग हैं? ये शैतान के अनुयायी हैं, और यही कारण है कि वे शैतान के प्रसिद्ध कथनों को सत्य मानते हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता

परमेश्वर में विश्वास रखते हुए अगर लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल न हो, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाला दिल न हो, तो ऐसे लोग न सिर्फ परमेश्वर के लिए कोई कार्य कर पाने में असमर्थ होंगे, बल्कि वे परमेश्वर के कार्य में बाधा डालने वाले और उसका विरोध करने वाले लोग बन जाएंगे। परमेश्वर में विश्वास करना किन्तु उसके प्रति समर्पण न करना या उसका भय न मानना और उसका प्रतिरोध करना, किसी भी विश्वासी के लिए सबसे बड़ा कलंक है। यदि विश्वासी अपनी बोली और आचरण में हमेशा ठीक उसी तरह लापरवाह और असंयमित हों जैसे अविश्वासी होते हैं, तो ऐसे लोग अविश्वासी से भी अधिक दुष्ट होते हैं; ये मूल रूप से राक्षस हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी

हमें ऐसे छद्म-विश्वासियों को कैसे पहचान सकते हैं, जो अवसरवादिता से आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और सत्य पाने की इच्छा नहीं रखते? वे चाहे जितने भी उपदेश सुनें, उनके साथ सत्य पर चाहे जैसे भी संगति की जाए, लोगों और चीजों के बारे में उनके विचार और दृष्टिकोण, जीवन और मूल्यों के बारे में उनका दृष्टिकोण कभी नहीं बदलता। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि वे परमेश्वर के वचनों पर कभी गंभीरता से विचार नहीं करते और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों या विभिन्न मुद्दों के बारे में परमेश्वर द्वारा कही गई बातों को पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं। वे बस अपने ही विचारों और शैतान के फलसफों से चिपके रहते हैं। मन ही मन वे अभी भी यही मानते हैं कि शैतान के फलसफे और तर्क सही और ठीक हैं। उदाहरण के लिए, “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “अधिकारी उपहार देने वालों के लिए मुश्किलें खड़ी नहीं करते” या “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो कहते हैं, “जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो उन्हें अच्छा होना चाहिए, जिसका अर्थ है कभी किसी की जान न लेना; किसी की जान लेना पाप है, और परमेश्वर की नजर में यह अक्षम्य है।” यह किस तरह का दृष्टिकोण है? यह बौद्ध दृष्टिकोण है। भले ही बौद्ध दृष्टिकोण लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो, लेकिन उसमें कोई सत्य नहीं है। परमेश्वर में आस्था परमेश्वर के वचनों पर आधारित होनी चाहिए; केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। परमेश्वर में अपनी आस्था में कुछ लोग गैर-विश्वासियों के बेतुके विचारों और धार्मिक दुनिया के गलत सिद्धांतों को भी सत्य के रूप में स्वीकारते हैं, उन्हें प्रिय मानते हैं और उनसे चिपके रहते हैं। क्या ये वे लोग हैं, जो सत्य स्वीकारते हैं? वे मनुष्य के शब्दों और परमेश्वर के वचनों के बीच या दानवों और शैतान तथा एकमात्र सच्चे परमेश्वर, सृष्टिकर्ता के बीच अंतर नहीं कर सकते। वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते या सत्य नहीं खोजते, न ही वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया कोई सत्य स्वीकारते हैं। लोगों, बाहरी दुनिया और अन्य सभी मामलों पर उनके विचार और दृष्टिकोण कभी नहीं बदलते। वे केवल उन्हीं विचारों से चिपके रहते हैं जिन्हें वे हमेशा से रखते आए हैं, जो परंपरागत संस्कृति से आते हैं। वे विचार चाहे कितने ही हास्यास्पद क्यों न हों, वे इसे नहीं समझ पाते, और फिर भी उन गलत विचारों से चिपके रहते हैं और उन्हें नहीं छोड़ते। यह छद्म-विश्वासी की एक अभिव्यक्ति है। दूसरी अभिव्यक्ति क्या है? वह यह है कि जैसे-जैसे कलीसिया का आकार बढ़ता है और समाज में उसकी स्थिति लगातार बढ़ती है, उनका उत्साह, उनके मनोभाव और उनकी आस्था बदलती रहती है। उदाहरण के लिए, जब कलीसिया का कार्य विदेशों में फैलता और उसका आकार बढ़ा, जब सुसमाचार का कार्य पूरी तरह से फैलता है, तो यह देखकर वे तुरंत ताकतवर महसूस करने लगे। उन्हें लगा कि कलीसिया अधिकाधिक प्रभावशाली होती जा रही है और अब उसे सरकार के दमन और उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़ेगा, उन्हें विश्वास था कि परमेश्वर में उनकी आस्था के लिए आशा है, वे अपना सिर ऊँचा रख सकते थे; और इसलिए उन्हें लगा कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास करके सही दाँव लगाया है, उनका जुआ आखिरकार सफल होने वाला है। उन्हें लगा कि आशीष पाने की उनकी संभावनाएँ अधिक से अधिक बढ़ रही हैं और वे अंततः खुश होने लगे। पिछले वर्षों के दौरान वे दमित, पीड़ित और व्यथित महसूस किया करते थे, क्योंकि उन्होंने अक्सर बड़े लाल अजगर को ईसाइयों की गिरफ्तारी और दमन करते देखा था। वे व्यथित महसूस क्यों करते थे? क्योंकि कलीसिया की हालत बहुत खराब थी और वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि क्या उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखकर सही विकल्प चुना है, और इससे भी बढ़कर, वे इस बात से परेशान और चिंतित थे कि उन्हें कलीसिया में रहना चाहिए या उसे छोड़कर चले जाना चाहिए। उन वर्षों के दौरान कलीसिया चाहे जिन भी प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना कर रही हो, इसका उनकी भावनाओं पर बुरा प्रभाव पड़ता था; कलीसिया जो भी कार्य कर रही हो और समाज में कलीसिया की प्रतिष्ठा और हैसियत में जो भी उतार-चढ़ाव हो रहे हों, इसका उनकी भावनाओं और मनोदशा पर बुरा प्रभाव पड़ता था। उनके मन में हमेशा यह सवाल घूमता रहता था कि उन्हें रहना चाहिए या चले जाना चाहिए। ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं, है न? जब राष्ट्रीय सरकार कलीसिया की निंदा करती है और उसे दबाती है, या जब विश्वासियों को गिरफ्तार किया जाता है या उनकी आलोचना की जाती है, निंदा की जाती है, उन्हें बदनाम किया जाता है और धार्मिक दुनिया द्वारा उन्हें अस्वीकार किया जाता है, तो वे कलीसिया में शामिल होने को लेकर बहुत बेइज्जती, यहां तक कि बहुत शर्मिंदगी और अपमान महसूस करते हैं; उनके दिल डगमगा जाते हैं और उन्हें परमेश्वर में विश्वास रखने और कलीसिया में शामिल होने का पछतावा होता है। कलीसिया की खुशियाँ और कठिनाइयाँ साझा करने या मसीह के साथ कष्ट उठाने का उनका कभी कोई इरादा नहीं होता। इसके बजाय, जब कलीसिया फल-फूल रही होती है, तो वे आस्था से लबालब भरे दिखाई देते हैं, लेकिन जब कलीसिया को सताया जाता है, अस्वीकार किया जाता है, दबाया जाता है और उसकी निंदा की जाती है, तो वे भाग जाना चाहते हैं, कलीसिया छोड़कर चले जाना चाहते हैं। जब उन्हें आशीष पाने की कोई उम्मीद नहीं दिखती, या राज्य के सुसमाचार को फैलाने की कोई उम्मीद नहीं दिखती, तो कलीसिया छोड़ने की उनकी इच्छा और बढ़ जाती है। जब वे परमेश्वर के वचन पूरे होते नहीं देखते, और नहीं जानते कि बड़ी आपदाएँ कब आएँगी और कब खत्म होंगी, या मसीह का राज्य कब आकार लेगा, तो वे अनिश्चितता से डगमगा जाते हैं और शांतचित्त होकर अपना कर्तव्य करने में असमर्थ होते हैं। जब भी ऐसा होता है, वे परमेश्वर को छोड़ देना चाहते हैं, कलीसिया को छोड़ देना चाहते हैं और निकलने का कोई रास्ता ढूँढ़ना चाहते हैं। ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं, है न? उनकी हर चेष्टा उनके अपने दैहिक हितों के लिए होती है। परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के माध्यम से या उसके वचन पढ़ने, सत्य पर संगति करने और कलीसियाई जीवन जीने से उनके विचार और दृष्टिकोण उत्तरोत्तर कभी नहीं बदलेंगे। जब उनके साथ कुछ होता है, तो वे कभी सत्य की तलाश नहीं करते, या यह नहीं खोजते कि परमेश्वर के वचन इसके बारे में क्या कहते हैं, परमेश्वर के इरादे क्या हैं, परमेश्वर लोगों का मार्गदर्शन कैसे करता है या वह लोगों से क्या कहता है। कलीसिया में शामिल होने का उनका एकमात्र उद्देश्य उस दिन की प्रतीक्षा करना है, जब कलीसिया “अपना सिर ऊँचा रख सकेगी,” ताकि वे वो लाभ प्राप्त कर सकें जिन्हें वे हमेशा से पाना चाहते थे। निस्संदेह, वे कलीसिया में इसलिए भी शामिल हुए थे, क्योंकि उन्होंने देखा था कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं—लेकिन वे सत्य को पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं और यह नहीं मानते कि परमेश्वर के सभी वचन पूरे होंगे। तो तुम लोग क्या कहते हो, क्या ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं? (हाँ।) कलीसिया में या बाहरी दुनिया में चाहे कुछ भी घटित हो, वे आकलन करते हैं कि उनके हितों पर कितना असर पड़ेगा और जिन लक्ष्यों का वे अनुसरण करते हैं, उन पर इसका कितना बड़ा प्रभाव पड़ेगा। परेशानी के जरा-से संकेत पर भी वे तुरंत अपनी संभावनाओं, हितों और इस बारे में तीक्ष्णता से सोचेंगे कि उन्हें कलीसिया में रहना चाहिए या उसे छोड़कर चले जाना देना चाहिए। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो पूछते रहते हैं, “पिछले साल कहा गया था कि परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा—तो यह अभी भी क्यों चल रहा है? परमेश्वर का कार्य ठीक-ठीक किस साल खत्म होगा? क्या मुझे जानने का अधिकार नहीं है? मैंने लंबे समय तक सहा है, मेरा समय कीमती है, मेरी युवावस्था कीमती है—निश्चित रूप से तुम मुझे इस तरह से लटकाकर नहीं रख सकते?” वे इस बात के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं कि परमेश्वर के वचन पूरे हो चुके हैं या नहीं और कलीसिया की स्थिति, रुतबा और प्रतिष्ठा क्या है। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि वे सत्य प्राप्त करने में सक्षम हैं या नहीं या उन्हें बचाया जा सकता है या नहीं, लेकिन वे इस बात के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं कि वे जीवित रह पाएँगे या नहीं और क्या परमेश्वर के घर में रहकर वे लाभ और आशीष पा सकते हैं। आशीष पाने की अपनी इच्छा में ऐसे लोग अवसरवादी होते हैं। भले ही वे अंत तक विश्वास करें, फिर भी वे सत्य को नहीं समझ पाएँगे और उनके पास कोई ऐसी अनुभवजन्य गवाही नहीं होगी जिसकी वे बात कर सकें। क्या तुम लोग ऐसे लोगों से मिले हो? वास्तव में, ऐसे लोग हर कलीसिया में मौजूद होते हैं। तुम लोगों को उन्हें पहचानने का ध्यान रखना चाहिए। ऐसे सभी व्यक्ति छद्म-विश्वासी हैं, वे परमेश्वर के घर में एक आफत हैं, वे कलीसिया को बहुत नुकसान पहुँचाएँगे और कोई लाभ नहीं पहुँचाएँगे, और उन्हें इससे बाहर निकाल दिया जाना चाहिए।

—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (23)

एक और तरह के लोग होते हैं जिन्हें न तो अच्छा माना जा सकता है और न ही बुरा, और जो नाम मात्र के विश्वासी होते हैं। अगर तुम उनसे कभी किसी मौके पर कुछ करने के लिए कहो, तो वे उसे कर सकते हैं, लेकिन यदि तुम उनके लिए व्यवस्था नहीं करते, तो वे आगे बढ़ कर अपना कर्तव्य नहीं निभाएँगे। जब भी उनके पास समय होता है, वे सभाओं में जाते हैं, लेकिन उनके निजी समय में इस बारे में कुछ पता नहीं चलता कि वे परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते, भजन सीखते, या प्रार्थना करते हैं या नहीं। परंतु वे परमेश्वर के घर और कलीसिया के प्रति अपेक्षाकृत मैत्रीपूर्ण होते हैं। अपेक्षाकृत मैत्रीपूर्ण होने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि अगर भाई-बहन उनसे कुछ करने के लिए कहते हैं, तो वे उसके लिए तैयार हो जाते हैं; विश्वासी साथी होने के कारण वे अपनी क्षमता भर कुछ काम करवाने में मदद भी कर सकते हैं। किंतु, यदि उनसे खुद को किसी बड़े प्रयास में खपाने या किसी तरह की कीमत चुकाने के लिए कहा जाए, तो वे ऐसा बिल्कुल नहीं करेंगे। अगर कोई भाई या बहन किसी परेशानी में है और उसे मदद की जरूरत है, जैसे कि कभी-कभार घर की देखभाल करना, खाना बनाना या कुछ छोटे-मोटे कामों में मदद करना—या वह व्यक्ति कोई विदेशी भाषा जानता हो तो भाई-बहनों को पत्र पढ़ने में मदद कर देना—ऐसे कामों में वे मदद कर सकते हैं और अपेक्षाकृत मित्रवत होते हैं। आम तौर पर वे दूसरों के साथ बहुत अच्छी तरह से घुल-मिल जाते हैं और लोगों के प्रति किसी तरह का दुर्भाव नहीं रखते, लेकिन वे नियमित रूप से सभाओं में भाग नहीं लेते और खुद कोई कर्तव्य लेने के लिए भी नहीं कहते, किसी महत्वपूर्ण या खतरनाक काम की जिम्मेदारी लेने की तो बात ही दूर है। अगर तुम उन्हें कोई खतरनाक काम करने के लिए कहो, तो वे निश्चित रूप से तुमको यह कहते हुए मना कर देंगे, “मैं शांति पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, तो मैं खतरनाक काम कैसे कर सकता हूँ? क्या यह मुसीबत मोल लेने जैसा नहीं होगा? मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकता!” लेकिन अगर भाई-बहन या कलीसिया उन्हें कोई छोटा-मोटा काम करने के लिए कहते हैं, तो वे बिल्कुल दोस्तों की तरह नाम भर को मदद कर सकते हैं। ऐसे प्रयास करना और मदद करना कर्तव्य नहीं कहा जा सकता, न ही इसे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना कहा जा सकता है, और इसे सत्य का अभ्यास करना तो नहीं ही कहा जा सकता; यह इतना भर है कि परमेश्वर के विश्वासियों के बारे में उनकी धारणा अनुकूल होती है और वे उनके प्रति काफी मैत्रीभाव रखते हैं और जरूरत पड़ने पर वे मदद करने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों को क्या नाम दिया जाता है? परमेश्वर का घर उन्हें कलीसिया का मित्र कहता है। कलीसिया के मित्र श्रेणी के लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? अगर उनके पास काबिलियत और कुछ क्षमताएँ है और वे कलीसिया की कुछ बाहरी मामलों को सँभालने में मदद कर सकते हैं, तो वे सेवाकर्ता भी हैं, जो कलीसिया के मित्र भी हैं। ऐसा इसलिए कि इस तरह के लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने वालों के रूप में नहीं गिना जाता, और परमेश्वर का घर उन्हें मान्यता नहीं देता। और यदि उन्हें परमेश्वर के घर द्वारा मान्यता नहीं दी जाती, तो क्या परमेश्वर उन्हें विश्वासियों के रूप में मान्यता दे सकता है? (नहीं।) इसलिए, इस तरह के लोगों को कभी भी पूर्णकालिक कर्तव्य निभाने वाले लोगों की श्रेणी में शामिल होने के लिए न कहो। ऐसे लोग हैं जो कहते हैं : “कुछ लोग जब पहली बार विश्वास करना शुरू करते हैं, तो उनमें बहुत कम आस्था होती है और वे मात्र कलीसिया के मित्र बनना चाहते हैं। वे परमेश्वर में विश्वास करने के बारे में बहुत सी बातें नहीं समझते, तो वे कर्तव्य निभाने के लिए कैसे तैयार हो सकते हैं? वे पूरे दिल से खुद को खपाने के लिए कैसे तैयार हो सकते हैं?” हम उन लोगों की बात नहीं कर रहे हैं जिन्होंने तीन से पाँच महीने तक या एक साल तक परमेश्वर में विश्वास किया है, बल्कि उन लोगों की बात कर रहे हैं जिन्होंने नाम भर के लिए तीन, पाँच या दस साल तक परमेश्वर में विश्वास किया है। ऐसे लोग मौखिक रूप से चाहे जितना स्वीकारें कि परमेश्वर ही एकमात्र सच्चा परमेश्वर है और सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कलीसिया ही सच्चा कलीसिया है, इससे यह साबित नहीं होता कि वे सच्चे विश्वासी हैं। इस तरह के लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों और उनकी आस्था के माध्यमों के आधार पर हम उन्हें कलीसिया के मित्र कहते हैं। उन्हें भाई-बहनों जैसा न मानो—वे भाई या बहन नहीं हैं। ऐसे लोगों को पूर्णकालिक कर्तव्य वाली कलीसिया में शामिल न होने दो, और उन्हें पूर्णकालिक कर्तव्य निभाने वालों की श्रेणी में शामिल न होने दो; परमेश्वर का घर ऐसे लोगों का उपयोग नहीं करता। कुछ लोग कह सकते हैं : “क्या तुम इस तरह के लोगों के प्रति पूर्वाग्रह रखते हो? हालाँकि वे बाहर से निरुत्साह लग सकते हैं, लेकिन वास्तव में वे अंदर से बहुत उत्साही हैं।” ईमानदार विश्वासियों के लिए पाँच या दस साल तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी निरुत्साहित रहना संभव नहीं है; इस तरह के लोगों का व्यवहार पहले से ही पूरी तरह से प्रकट कर देता है कि वे छद्म-विश्वासी हैं, परमेश्वर के वचनों के बाहर वाले, और अविश्वासी लोग हैं। यदि तुम इतने पर भी उन्हें भाई या बहन कहते हो, और अब भी कहते हो कि उनके साथ अनुचित व्यवहार किया जा रहा है, तो यह तुम्हारी धारणा और तुम्हारी भावनाएँ बोल रही हैं।

—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (6)

सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करने वालों का सार छद्म-विश्वासी का सार होता है। छद्म-विश्वासियों की पहचान क्या है? वे अवसरवादिता में संलग्न होने, कलीसिया पर आश्रित रहने, आपदाओं से बचने, सहारा पाने और खान-पान का एक स्थिर स्रोत हासिल करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हैं। इनमें से कुछ लोग राजनीतिक लक्ष्य का भी अनुसरण करते हैं, वे कृपादृष्टि प्राप्त करने और आधिकारिक नियुक्ति हासिल करने के लिए कुछ मामलों के जरिये सरकार से संबंध बनाना चाहते हैं। ऐसे लोगों में से हर आखिरी व्यक्ति छद्म-विश्वासी है। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में इन मंशाओं और इरादों को लेकर चलते हैं, और वे अपने दिलों में पूरे यकीन से यह विश्वास नहीं करते हैं कि कोई परमेश्वर भी है। अगर वे उसे स्वीकार कर भी लें, तो वे ऐसा संदेहपूर्वक करते हैं, क्योंकि वे जिन विचारों से चिपके रहते हैं, वे नास्तिक वृत्ति के हैं। वे सिर्फ उन्हीं चीजों पर विश्वास करते हैं जिन्हें वे इस भौतिक दुनिया में देख पाते हैं। हम क्यों कहते हैं कि वे यह विश्वास नहीं करते हैं कि कोई परमेश्वर भी है? क्योंकि वे इन तथ्यों पर समान रूप से विश्वास नहीं करते हैं या इन्हें स्वीकार नहीं करते हैं कि परमेश्वर ने स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीजें बनाई हैं, और यह कि मानवजाति को बनाने के बाद से परमेश्वर उनकी अगुवाई कर रहा है और उन पर संप्रभुता रखता है। इस तरह, वे संभवतः इस तथ्य पर विश्वास नहीं कर सकते हैं कि परमेश्वर देहधारी हो सकता है। अगर वे यह विश्वास नहीं करते हैं कि परमेश्वर देहधारी हो सकता है, तो क्या वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी सत्यों पर विश्वास करने और उन्हें स्वीकार करने के काबिल हैं? (वे नहीं हैं।) अगर वे परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों पर विश्वास नहीं करते हैं, तो क्या वे यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर मानवजाति को बचा सकता है और क्या वे मानवजाति को बचाने की उसकी प्रबंधन योजना में विश्वास करते हैं? (वे नहीं करते हैं।) वे इनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं करते हैं। उनके अविश्वास की जड़ क्या है? वह यह है कि वे विश्वास नहीं करते हैं कि परमेश्वर का अस्तित्व है। वे नास्तिक और भौतिकवादी हैं। वे मानते हैं कि भौतिक दुनिया में वे जिन चीजों को देख पाते हैं सिर्फ वही चीजें वास्तविक हैं। वे मानते हैं कि शोहरत, लाभ और रुतबा सिर्फ साजिशों और अनुचित साधनों के जरिये हासिल किए जा सकते हैं। वे मानते हैं कि समृद्ध होने और सुखी जीवन जीने का एकमात्र तरीका शैतानी फलसफों के अनुसार जीना है। वे मानते हैं कि उनकी किस्मत सिर्फ उनके अपने हाथ में है, और यह कि उन्हें सुखी जीवन को बनाने और हासिल करने के लिए खुद पर भरोसा करना चाहिए। वे परमेश्वर की संप्रभुता या उसकी सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास नहीं करते हैं। वे सोचते हैं कि अगर वे परमेश्वर पर भरोसा करेंगे, तो उनके पास कुछ नहीं होगा। अंत में, वे यह नहीं मानते हैं कि परमेश्वर के वचन सब कुछ पूरा कर सकते हैं, और वे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास नहीं करते हैं। यही कारण है कि परमेश्वर में उनके विश्वास में अवसरवाद में संलग्न होना, कलीसिया पर आश्रित रहना, शरण खोजना, एक समर्थक ढूँढ़ना, विपरीत लिंग से दोस्ती करना, और राजनीतिक आकांक्षाओं का अनुसरण करना—अपने लिए आधिकारिक पद और खान-पान का एक स्थिर स्रोत हासिल करना—जैसे इरादे और उद्देश्य उत्पन्न होते हैं। ठीक इसलिए क्योंकि वे लोग यह नहीं मानते हैं कि परमेश्वर उन सभी चीजों पर संप्रभुता रखता है जिनके जरिए वे अपने इरादों और लक्ष्यों के साथ दुस्साहसपूर्वक और बेईमानी से कलीसिया में घुसपैठ करने में समर्थ होते हैं, वे कलीसिया में अपनी प्रतिभाओं का उपयोग करना चाहते हैं या अपनी इच्छाओं को साकार करना चाहते हैं। इसका यह अर्थ है कि वे आशीषें प्राप्त करने के अपने इरादे और इच्छा को पूरा करने के लिए कलीसिया में घुसपैठ कर रहे हैं; वे कलीसिया में शोहरत, लाभ और रुतबा हासिल करना चाहते हैं, और ऐसा करके उन्हें अपने खान-पान का एक स्थिर स्रोत हासिल करना चाहते हैं। उनके व्यवहार और उनके प्रकृति सार से कोई भी यह देख सकता है कि परमेश्वर में विश्वास रखने के उनके प्रयोजन, मंशाएँ और इरादे जायज नहीं हैं, और उनमें से कोई भी सत्य को स्वीकार नहीं करता है या उनमें से कोई भी ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास नहीं रखता है—अगर वे कलीसिया में घुसपैठ करते भी हैं, तो वे सिर्फ खाली जगह ही भर रहे हैं, कोई भी सकारात्मक भूमिका नहीं निभा रहे हैं। इसलिए, कलीसिया को ऐसे लोगों को स्वीकार नहीं करना चाहिए। वैसे तो ये लोग कलीसिया में घुसपैठ कर चुके हैं, लेकिन वे परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं हैं, बल्कि वे दूसरों द्वारा अच्छे इरादों से लाए गए हैं। “वे परमेश्वर के चुने हुए लोग नहीं हैं”—इसे कैसे समझाया जाना चाहिए? इसका यह अर्थ है कि परमेश्वर ने उन्हें पूर्वनियत नहीं किया या चुना नहीं है; वह उन्हें अपने कार्य के लक्ष्य के रूप में नहीं देखता है; ना ही उसने उन्हें ऐसे मनुष्य के रूप में पूर्वनियत किया है जिन्हें वह बचाएगा। एक बार जब ये लोग कलीसिया में घुसपैठ कर लेते हैं, तो हम जाहिर तौर पर उन्हें भाई-बहन नहीं मान सकते हैं, क्योंकि वे ऐसे लोग नहीं हैं जो सही मायने में सत्य को स्वीकार करते हैं या परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण करते हैं। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “चूँकि वे ऐसे भाई-बहन नहीं हैं जो सही मायने में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, तो कलीसिया उन्हें निकाल क्यों नहीं देती है या निष्कासित क्यों नहीं कर देती है?” परमेश्वर का इरादा यह है कि उसके चुने हुए लोग इन लोगों से पहचान करना सीख सकें और इस तरह शैतान की साजिशों को पहचान सकें और शैतान को अस्वीकार कर सकें। एक बार जब परमेश्वर के चुने हुए लोगों में अच्छे-बुरे की पहचान आ जाती है, तब इन छद्म-विश्वासियों को स्वच्छ कर देना चाहिए। पहचान करने का लक्ष्य इन छद्म-विश्वासियों को उजागर करना है जिन्होंने अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ परमेश्वर के घर में घुसपैठ की है और उन्हें कलीसिया से बाहर निकालना है, क्योंकि ये लोग परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं हैं, और वे ऐसे लोग तो बिल्कुल नहीं हैं जो सत्य को स्वीकारते हैं और उसका अनुसरण करते हैं। उनके कलीसिया में बने रहने से कुछ भी भला नहीं होगा—बल्कि बहुत नुकसान ही होगा। पहली बात, कलीसिया में घुसपैठ करने के बाद, ये छद्म-विश्वासी कभी परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते नहीं हैं और सत्य का थोड़ा-सा भी अंश स्वीकार नहीं करते हैं। वे हमेशा परमेश्वर के वचनों और सत्य को छोड़कर अन्य चीजों पर चर्चा करते रहते हैं, जिससे दूसरों के दिल परेशान हो जाते हैं। वे सिर्फ कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करेंगे और बाधा डालेंगे, जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को नुकसान पहुँचेगा। दूसरी बात, अगर वे कलीसिया में रह जाते हैं, तो वे ठीक अविश्वासियों की तरह ही कुकर्म करते हुए दंगा करेंगे, कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी करेंगे और बाधा डालेंगे, और कलीसिया को कई छिपे हुए खतरों में डाल देंगे। तीसरी बात, अगर वे कलीसिया में रह भी गए, तो वे खुशी से सेवाकर्मियों के रूप में कार्य नहीं करेंगे, और वैसे तो वे थोड़ी सेवा प्रदान कर सकते हैं, लेकिन यह सिर्फ आशीष प्राप्त करने के लिए होगा। अगर वह दिन आता है जब उन्हें पता चलता है कि वे आशीषें प्राप्त नहीं कर सकते हैं, तो वे गुस्से से पागल हो जाएँगे, और कलीसिया के कार्य में बाधा डालेंगे और उसे खराब कर देंगे। इसे देखने से बेहतर है कि उन्हें जितनी जल्दी हो सके कलीसिया से बाहर निकाल देना चाहिए। चौथी बात, ये छद्म-विश्वासी गुट बना सकते हैं और मसीह-विरोधियों का समर्थन और उनका अनुसरण कर सकते हैं, जिससे कलीसिया के भीतर एक बुरी शक्ति उत्पन्न होती है, इसके कार्य के लिए एक बड़ा खतरा बन जाती है। इन चार विचारों की रोशनी में, यह जरूरी है कि परमेश्वर के घर में घुसपैठ करने वाले इन छद्म-विश्वासियों को पहचान कर उजागर किया जाए और फिर उन्हें बाहर निकाल दिया जाए। कलीसिया के कार्य में सामान्य प्रगति बनाए रखने, और कारगर तरीके से यह बचाव करने का यही एकमात्र तरीका है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के वचनों को खा-पी सकें और सामान्य रूप से कलीसियाई जीवन जी सकें, और इस प्रकार परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश कर सकें। ऐसा इसलिए है क्योंकि कलीसिया में इन छद्म-विश्वासियों की घुसपैठ से परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को बहुत ज्यादा नुकसान पहुँचता है। ऐसे कई लोग हैं जो उन्हें पहचान नहीं पाते हैं, बल्कि उन्हें भाई-बहन मानते हैं। कुछ लोग, यह देखकर कि उनमें कुछ खूबियाँ या शक्तियाँ है, उन्हें अगुआओं और कार्यकर्ताओं के रूप में सेवा करने के लिए चुनते हैं। इसी तरह से कलीसिया में झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी प्रकट होते हैं। उनके सार को देखते हुए, यह समझा जा सकता है कि उनमें से कोई भी यह विश्वास नहीं करता है कि परमेश्वर का अस्तित्व है, या यह कि उसके वचन ही सत्य हैं, या कि वह सभी पर संप्रभुता रखता है। परमेश्वर की नजर में वे अविश्वासी हैं। वह उन पर कोई ध्यान नहीं देता है, और पवित्र आत्मा उन पर कार्य नहीं करेगा। इसलिए, उनके सार के आधार पर, वे परमेश्वर के उद्धार के लक्ष्य नहीं हैं, और यकीनन वे उसके द्वारा पूर्वनियत या चुने हुए लोग नहीं हैं। परमेश्वर संभवतः उन्हें बचा नहीं सकता है। चाहे इसे किसी भी नजरिये से देखा जाए, इनमें से कोई भी छद्म-विश्वासी परमेश्वर के चुने हुए लोगों में नहीं है। उन्हें फौरन और सही ढंग से पहचान लेना चाहिए, और फिर बाहर निकाल देना चाहिए। उन्हें दूसरों को परेशान करने के लिए कलीसिया में घात लगाए रहने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।

—वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (24)

कुछ लोग नामी-गिरामी और प्रख्यात हस्तियों को पूजते हैं। वे हमेशा यह संदेह करते हैं कि क्या परमेश्वर के वचन वास्तव में लोगों को बचा सकते हैं या नहीं, और वे हमेशा यही विश्वास करते हैं कि केवल नामी-गिरामी और प्रख्यात हस्तियों की बातों में वजन और करिश्मा होता है। वे हमेशा मन ही मन सोचते हैं, “देखो, हमारा राष्ट्र प्रमुख कितना प्रभावशाली है! हमारी राष्ट्रीय विधानसभाओं की शान-शौकत और भव्यता तो देखो! क्या परमेश्वर का घर इसके सामने कहीं ठहरता भी है?” ऐसी बातें जुबान पर लाना ही दिखा देता है कि तुम एक अविश्वासी हो। तुम राजनीति की बुराई स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, न किसी राष्ट्र की कालिमा या मानवता की भ्रष्टता को देख सकते हो। तुम नहीं देख पाते के परमेश्वर के घर में सत्य का प्रभुत्व है, तुम यह भी नहीं देखते-समझते कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अनुभवजन्य गवाहियाँ क्या दर्शाती हैं। परमेश्वर के घर में सत्य और इतनी सारी गवाहियाँ होती हैं, और परमेश्वर के चुने हुए सारे लोग जाग रहे हैं और बदल भी रहे हैं, वे सभी परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने लगे हैं। क्या तुम वो आने वाला नजारा देख सकते हो जिसमें परमेश्वर के लोग समर्पित होकर उसकी आराधना करते हैं? यह तुम्हारी कल्पना से परे है। परमेश्वर के घर में जो कुछ भी है वह दुनिया से सौ गुना, हजार गुना बेहतर है, और भविष्य में भी परमेश्वर के घर में जो कुछ भी है वह और बेहतर, अधिक नियमित, और अधिक पूर्ण होता जाएगा। ये सभी चीजें धीरे-धीरे हासिल की जाती हैं, और इन्हें परमेश्वर के वचन पूरा करेंगे। परमेश्वर ने अपने सभी चुने हुए लोगों को खुद चुना है और ये सभी पूर्वनियत हैं, इसलिए वे दुनिया के लोगों की तुलना में यकीनन बहुत बेहतर हैं। अगर कोई इन तथ्यों को नहीं देख सकता, तो क्या वह अंधा नहीं है? कुछ लोगों को हमेशा यही लगता है कि यह संसार शानदार है, और वे मन ही मन दुनिया के नामी-गिरामी और प्रख्यात लोगों को पूजते हैं। तो क्या वे दानवों और शैतानों को नहीं पूज रहे हैं? क्या ये नामी-गिरामी और प्रख्यात लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं? क्या ये लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं? क्या इनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है? क्या वे सत्य स्वीकारते हैं? वे सभी ऐसे राक्षस हैं जो परमेश्वर का विरोध करते हैं—क्या तुम लोग वास्तव में इसे देख नहीं सकते? यह देखते हुए कि तुम दुनिया के नामी-गिरामी और प्रख्यात लोगों को पूजते हो, तुम परमेश्वर पर विश्वास क्यों करते हो? तुम परमेश्वर के व्यक्त सारे वचनों को वास्तव में किस प्रकार देखते हो? तुम सब चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता को किस प्रकार देखते हो? कुछ लोग परमेश्वर का भय तो नहीं ही मानते हैं—उनके मन में उसके प्रति लेशमात्र सम्मान भी नहीं होता है। क्या वे छद्म-विश्वासी नहीं हैं? क्या ऐसे लोगों को फौरन दफा हो जाने को नहीं कहना चाहिए? (कहना चाहिए।) और अगर वे दफा नहीं होते तो क्या किया जाना चाहिए? उन्हें भगा देना चाहिए, बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए। छद्म-विश्वासी गंदी मक्खियों की तरह हैं, जिन्हें देखकर भी घिन आती है। परमेश्वर के घर में सत्य और उसके वचनों का शासन चलता है, और यह सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। ऐसे लोगों को हटा देना चाहिए। वे कहते तो हैं कि वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, लेकिन मन ही मन परमेश्वर के घर को हीन समझते हैं और परमेश्वर का तिरस्कार करते हैं। क्या तुम लोग ऐसे छद्म-विश्वासियों को अपने साथ घुलने-मिलने दोगे? (नहीं।) इसीलिए उन्हें तुरंत हटा देना चाहिए। वे चाहे कितने ही पढ़े-लिखे या काबिल क्यों न हों, उन्हें हटा देना चाहिए। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या यह प्रेमहीन होना नहीं है?” नहीं, यह सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना है। इससे मेरा क्या आशय है? यही कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद चाहे जितना बड़ा हो, तुम्हारी सत्य के अनुसरण की इच्छा कितनी ही हो या तुम्हारा परमेश्वर पर विश्वास हो या न हो, एक चीज तय है : मसीह ही सत्य है, मार्ग है, और जीवन है। यह कभी नहीं बदलता है। यही तुम्हारी चट्टान होनी चाहिए, परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास की सबसे ठोस आधारशिला होनी चाहिए; तुम्हारे मन में इस बारे में यकीन होना चाहिए, इसे लेकर कोई शंका नहीं रहनी चाहिए। अगर तुम इस पर भी शंका करते हो तो तुम परमेश्वर के घर में रहने लायक नहीं हो। कुछ लोग कहते हैं, “हमारा देश महान है, हमारी नस्ल श्रेष्ठ है; हमारे रीति-रिवाज और संस्कृति महान और अतुलनीय हैं। हमें सत्य स्वीकारने की जरूरत नहीं है।” क्या यह छद्म-विश्वासियों का स्वर नहीं है? यह छद्म-विश्वासियों का ही स्वर है, और ऐसे छद्म-विश्वासियों को बाहर कर देना चाहिए। कुछ लोग अक्सर भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, और कभी-कभी, उनका स्वभाव अनियंत्रित और असंयमित होता है, फिर भी परमेश्वर पर उनका विश्वास सच्चा होता है, और वे सत्य स्वीकार सकते हैं। अगर उनकी काट-छाँट की जाए तो वे पश्चात्ताप कर पाते हैं। ऐसे लोगों को मौका दिया जाना चाहिए। लोग थोड़े-से मूर्ख होते हैं, या वे चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते हैं, या वे गुमराह हो जाते हैं, या किसी मूर्खतापूर्ण घड़ी में वे कुछ भ्रामक बात कह सकते हैं या भ्रमित ढंग से व्यवहार कर सकते हैं क्योंकि वे सत्य नहीं समझते। इसका कारण भ्रष्ट स्वभाव है; इसका कारण मूर्खता, अज्ञानता है और सत्य की समझ की कमी है। लेकिन, ऐसे लोग छद्म-विश्वासियों के समान नहीं होते। यहाँ इन समस्याओं को दूर करने के लिए सत्य पर संगति करने की जरूरत है। कुछ लोग बरसों से परमेश्वर पर विश्वास करते रहे हैं लेकिन वे सत्य बिल्कुल नहीं स्वीकारते और वे बिल्कुल भी नहीं बदले हैं। वे छद्म-विश्वासी हैं। वे परमेश्वर के घर के लोग नहीं हैं, और परमेश्वर उन्हें नहीं स्वीकारता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पूरे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने वाला ही परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति होता है

अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखने की बात कहकर भी अक्सर हृदय में असमंजस में रहते हो, न तो यह जानते हो कि मनुष्य को बचाने के लिए परमेश्वर कैसे कार्य करता है, न ही यह जानते हो कि मनुष्य सत्य का अनुसरण कैसे करे, औऱ यह भी नही जानते कि तुम सत्य से प्रेम करते हो या नहीं, या किन घटनाओं के होने पर तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए; अगर तुम हर दिन भ्रम में रहते हो, किसी भी चीज के प्रति गंभीर नहीं हो, सिर्फ विनियमों का पालन करते हो; अगर तुम परमेश्वर के सामने शांतचित्त होने में असमर्थ हो, तुम्हारे साथ कुछ घटित होने पर तुम प्रार्थना नहीं करते या सत्य नहीं खोजते हो, अगर तुम अक्सर अपनी मर्जी के अनुसार कार्य करते हो, अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हो; और अपना अहंकारी स्वभाव प्रकट करते हो, और यदि तुम परमेश्वर की जाँच या उसके अनुशासन को स्वीकार नहीं करते हो, तुम्हारे पास आज्ञाकारी हृदय नहीं हो, तो तुम हमेशा शैतान के सामने रहोगे और शैतान और अपने भ्रष्ट स्वभाव से नियंत्रित होगे। ऐसे लोग परमेश्वर का लेशमात्र भी भय नहीं मानते। वे बुराई से दूर रहने में बिल्कुल असमर्थ होते हैं, और भले ही वे बुरे काम नहीं करते हैं, फिर भी उनकी हर सोच बुरी होती है, और सत्य से असंबद्ध ही नहीं, उसके विरुद्ध भी जाती है। तो क्या बुनियादी तौर पर ऐसे लोगों का परमेश्वर से कोई संबंध नहीं होता है? यद्यपि, वे उसके द्वारा शासित होते हैं, लेकिन उनके दिल कभी भी उसके समक्ष नहीं आए हैं, न ही उन्होंने सच्चे मन से उससे प्रार्थना की है; वे कभी भी परमेश्वर से परमेश्वर की तरह पेश नहीं आए हैं, उन्होंने कभी भी उसे ऐसा सृष्टिकर्ता नहीं माना जो उन पर संप्रभुता रखता है, उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया कि वह उनका परमेश्वर, उनका प्रभु है, और उन्होंने कभी भी ईमानदारी से उसकी आराधना करने का विचार नहीं किया है। ऐसे लोग समझ नहीं पाते कि परमेश्वर से भय मानने का क्या अर्थ होता है, और वे सोचते हैं कि बुराई करना उनका अधिकार है। वे मन-ही-मन कहते हैं : “मैं वही करूँगा जो मैं चाहता हूँ। मैं अपना कामकाज खुद सँभाल लूँगा, यह किसी और के भरोसे नहीं है!” वे परमेश्वर में विश्वास को एक प्रकार का मंत्र मानते हैं, एक अनुष्ठान मानते हैं। क्या यह उन्हें छद्म-विश्वासी नहीं बनाता है? वे छद्म-विश्वासी हैं! परमेश्वर के मन में ये सारे लोग दुष्कर्मी हैं। दिन भर इन लोगों की हर सोच बुरी होती है। ये परमेश्वर के घर के पतित लोग हैं और परमेश्वर ऐसे लोगों को अपने घर का सदस्य नहीं मानता।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है

जब कुछ लोगों का सामना किसी प्रतिकूल परिस्थिति से होता है, तो वे दूसरों की शिकायत करना और उन पर दोष डालना शुरू कर देते हैं। वे कभी नहीं सोचते कि उसका कारण शायद वे खुद ही हों, बल्कि वे इसकी जिम्‍मेदारी हमेशा दूसरों पर डाल देते हैं। फिर, वे संतुष्‍ट और सहज महसूस करते हैं और सोचते हैं, “समस्या हल हो गई। इस तरह से परमेश्वर पर विश्‍वास करना बहुत सुखद और आसान है!” समस्या को सुलझाने के इस तरीके पर तुम्हारा क्या ख्याल है? क्या कोई इस तरीके से अभ्यास करके सत्य पा सकता है? क्या यह परमेश्वर के प्रति समर्पण का रवैया दिखाता है? ऐसे लोग किस दृष्टिकोण और किस तरीके से परमेश्वर में आस्था रखते हैं? क्या उन्होंने परमेश्वर के इन वचनों को अपने दैनिक जीवन में उतारा है “इंसान की नियति पर परमेश्वर संप्रभु है, सारी घटनाएँ और सारी चीजें उसी के हाथों में है”? जब वे किसी समस्या का विश्लेषण करने के लिए इंसानी दिमाग का इस्तेमाल करते हैं, जब वे किसी मामले को संबोधित करने के लिए इंसानी तरीकों का उपयोग करते हैं, तो क्या वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास कर रहे हैं? क्या वे इंसान की व्यवस्था पर, घटनाओं और चीज़ों पर परमेश्वर की संप्रभुता के प्रति समर्पित हो रहे हैं? निश्‍चित रूप से नहीं। पहली बात तो यह कि वे लोग समर्पण नहीं करते; यह पहले ही एक भूल है। दूसरा, वे लोग परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित स्थिति, लोग, घटनाओं और चीज़ों को स्वीकार नहीं पाते; वे गहराई में नहीं जाते। वे लोग केवल इतना ही देखते हैं कि बाहर से स्थिति कैसी दिखती है, फिर अपने इंसानी दिमाग से उसका विश्लेषण करते हैं और उसे इंसानी तरीकों से सुलझाने का प्रयास करते हैं। क्या यह दूसरी भूल नहीं है? क्‍या यह एक बड़ी भूल है? (बिल्कुल है।) ऐसा कैसे है? वे लोग इस बात में विश्वास नहीं करते कि हर चीज़ पर परमेश्वर संप्रभु है। उन्हें लगता है कि सब कुछ अनायास होता है। उनकी दृष्टि में, एक भी चीज पर परमेश्वर का शासन नहीं है, और अधिकांश चीजें मनुष्यों के क्रियाकलापों के कारण होती हैं। क्या यह परमेश्वर में विश्वास करना है? क्या उनके पास सच्ची आस्था है? (नहीं।) क्‍यों नहीं है? वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर हर चीज पर संप्रभु है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर सभी मामलों और सभी वस्तुओं पर संप्रभु है—यह कि परमेश्वर हर स्थिति पर संप्रभु है। यदि कुछ वैसा नहीं होता जैसा उन्होंने सोचा था, तो वे उसे परमेश्वर से स्वीकार लेने में असमर्थ रहते हैं। उन्हें विश्वास नहीं होता कि परमेश्वर इन परिस्थितियों का आयोजन कर सकता है। चूँकि वे परमेश्वर को नहीं देख सकते हैं, उन्हें लगता है कि ये परिस्थितियाँ परमेश्वर द्वारा आयोजित होने के बजाय मनुष्‍यों के क्रियाकलापों के परिणामस्वरूप अनायास घटित होती हैं। वे परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास नहीं करते। फिर उनके विश्वास का सार क्या है? (वे छद्म-विश्वासी हैं।) यह सही है, वे छद्म-विश्वासी हैं! छद्म-विश्‍वासी परमेश्वर से कुछ भी नहीं स्वीकारते। इसके बजाय, वे मानवीय दृष्टिकोणों, मन और तरीकों का प्रयोग करके चीजों से निपटने की कोशिश में अपना दिमाग खपाते हैं। छद्म-विश्वासियों का व्यवहार ऐसा ही होता है। जब तुम लोग भविष्य में इस प्रकार के व्यक्ति से मिलो, तो तुम्‍हें उसके बारे में कुछ विवेक विकसित करना चाहिए। छद्म-विश्वासी अपने दिमाग को उलझाने और समस्याएँ आने पर उपाय निकालने में अच्छे होते हैं; वे अपने सामने आए मामले का लगातार अध्ययन करते हैं, और मानवीय तरीकों का प्रयोग करके उसे हल करने का प्रयास करते हैं। वे हमेशा लोगों और चीजों को इंसानी विवेक और शैतानी फलसफों का उपयोग करते हुए या कानून के आधार पर देखते हैं, यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर का वचन सत्य है या यह कि सब कुछ परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है। जो कुछ भी होता है, वह परमेश्वर की अनुमति से होता है, लेकिन छद्म-विश्वासी इन चीजों को परमेश्वर से स्वीकार नहीं कर पाते हैं, और वे हमेशा चीजों को मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर देखते हैं। हालाँकि छद्म-विश्वासी आमतौर पर कहते हैं कि वे मानते हैं कि व्यक्ति का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है, और यह कि वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पित होना चाहते हैं, लेकिन जब चीजें वास्तव में उन पर पड़ती हैं, तो वे उन चीजों को परमेश्वर से स्वीकार कर पाने में असमर्थ रहते हैं और परमेश्वर के बारे में धारणाएँ विकसित कर लेते हैं। छद्म-विश्‍वासियों का व्‍यवहार ऐसा ही होता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्‍ट स्‍वभाव केवल सत्य स्वीकार करके ही दूर किया जा सकता है

क्या यह घृणित नहीं है कि कुछ लोग अपने साथ कुछ भी घटने पर, उसके बाल की खाल निकालकर बेवजह वक्त जाया करते हैं। यह एक बड़ी समस्या है। साफ सोचवाले लोग ऐसी गलती नहीं करते, बेतुके लोग ही ऐसे होते हैं। वे हमेशा कल्पना करते हैं कि दूसरे लोग उनका जीना दूभर कर रहे हैं, उन्हें मुश्किलों में डाल रहे हैं, इसलिए वे हमेशा दूसरों से दुश्मनी मोल लेते हैं। क्या यह भटकाव नहीं है? सत्य को लेकर वे प्रयास नहीं करते, उनके साथ कुछ घटने पर वे बेकार की बातों में उलझना पसंद करते हैं, सफाई माँगते हैं, लाज बचाने की कोशिश करते हैं, और इन मामलों को सुलझाने के लिए वे हमेशा इंसानी हल ढूँढ़ते हैं। जीवन प्रवेश में यह सबसे बड़ी बाधा है। अगर तुम परमेश्वर में इस तरह विश्वास रखते हो, या इस तरह अभ्यास करते हो, तो कभी भी सत्य हासिल नहीं कर पाओगे, क्योंकि तुम कभी परमेश्वर के सामने नहीं आते। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो कुछ तय कर रखा है, वह पाने के लिए तुम कभी परमेश्वर के सामने नहीं आते, न ही तुम इन सब तक पहुँचने के लिए सत्य का प्रयोग करते हो, इसके बजाय तुम चीजों तक पहुँचने के लिए इंसानी समाधानों का प्रयोग करते हो। इसलिए, परमेश्वर की दृष्टि में, तुम उससे बहुत दूर भटक गए हो। न सिर्फ तुम्हारा दिल उससे भटक गया है, तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसकी मौजूदगी में नहीं जीता है। हमेशा जरूरत से ज्यादा विश्लेषण कर बाल की खाल निकालने वालों को परमेश्वर इसी नजर से देखता है। ऐसे लोग भी हैं, जो वाक्पटु हैं, चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, जिनके दिमाग तेज और चालाक हैं, जो सोचते हैं, “मेरे बारे में अच्छी बातें होती हैं। सभी दूसरे लोग सच में मेरी प्रशंसा करते हैं, मुझे सम्मान देते हैं, और मेरा बहुत आदर करते हैं। आमतौर पर लोग मेरा कहा मानते हैं।” क्या यह उपयोगी है? तुमने लोगों के बीच अपनी प्रतिष्ठा बनाई है, मगर परमेश्वर के सामने तुम जैसा व्यवहार करते हो, उससे उसे खुशी नहीं मिलती। परमेश्वर कहता है कि तुम एक छद्म-विश्वासी हो, सत्य के प्रति शत्रुभाव रखते हो। लोगों के बीच तुम परिष्कृत और सौम्य व्यक्ति हो सकते हो, शायद तुम चीजें भी अच्छी तरह संभाल लेते होगे, सभी के साथ मिलजुल कर रहते होगे; किसी भी स्थिति में चीजें संभालने और उनका ध्यान रखने का कोई उपाय हमेशा ढूँढ़ लेते होगे, मगर तुम समस्याएँ सुलझाने के लिए परमेश्वर के सामने नहीं आते और सत्य नहीं खोजते। ऐसे लोग बड़े दुखदाई होते हैं। तुम जैसे लोगों के बारे में परमेश्वर को सिर्फ एक ही बात कहनी है : “तुम एक छद्म-विश्वासी हो, परमेश्वर में विश्वास रखने के बहाने तुम आशीष पाने के लिए इस मौके का लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हो। तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य स्वीकारता है।” इस प्रकार के आकलन के बारे में तुम्हारी क्या सोच है? क्या तुम लोग यही चाहते हो? यकीनन नहीं। संभव है कुछ लोग परवाह न करें और कहें, “परमेश्वर हमें किस नजर से देखता है, इससे हमें फर्क नहीं पड़ता, वैसे भी हम परमेश्वर को नहीं देख सकते। हमारी तात्कालिक समस्या अपने इर्द-गिर्द के लोगों के साथ अच्छे संबंध बनाना है। एक बार हमारे पाँव जम जाएँ, तो हम अगुआओं और कार्यकर्ताओं को जीत सकते हैं, ताकि सब हमारी प्रशंसा करें।” यह कैसा व्यक्ति है? क्या यह परमेश्वर में विश्वास रखने वाला व्यक्ति है? यकीनन नहीं; ऐसे लोग छद्म-विश्वासी हैं।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अक्सर परमेश्वर के सामने जीने से ही उसके साथ एक सामान्य संबंध बनाया जा सकता है

बहुत से लोग सत्य को नहीं समझते या सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे कर्तव्य पालन के प्रति किस प्रकार का आचरण करते हैं? वे इसे एक तरह का काम, एक तरह का शौक या अपने हित में निवेश मानते हैं। वे इसे परमेश्वर द्वारा बताया गया कोई मिशन या कार्य या किसी ऐसी जिम्मेदारी की तरह नहीं मानते जो उन्हें पूरी करनी चाहिए। इससे भी कम प्रयास वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय सत्य को खोजने या परमेश्वर के इरादों को समझने में करते हैं ताकि अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकें और परमेश्वर के आदेश को पूरा कर सकें। इसीलिए, अपने कर्तव्यों को निभाने की प्रक्रिया में कुछ लोग थोड़ी सी कठिनाई सहते ही उसे करने के अनिच्छुक हो जाते हैं और उसे छोड़कर बच निकलना चाहते हैं। जब उन्हें कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है या कुछ असफलताओं का सामना करना पड़ता है, तो वे पीछे हट जाते हैं, और फिर से भाग जाना चाहते हैं। वे सत्य की खोज नहीं करते; वे बस बच निकलने के बारे में सोचते हैं। कुछ भी गलत होने पर वे बस कछुओं की तरह अपने खोल में छिप जाते हैं, फिर से बाहर आने के लिए समस्या खत्म होने तक इंतजार करते हैं। ऐसे बहुत सारे लोग हैं। विशेष रूप से, कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे जब किसी खास काम की जिम्मेदारी लेने के लिए कहा जाता है, तो वे इस बात पर विचार नहीं करते कि वे अपनी निष्ठा कैसे साबित कर सकते हैं, या इस कर्तव्य को कैसे निभा सकते हैं और उस काम को अच्छी तरह से कैसे कर सकते हैं। बल्कि वे इस बात पर विचार करते हैं कि जिम्मेदारी से कैसे भागा जाए, काट-छाँट से कैसे बचा जाए, किसी जिम्मेदारी को उठाने से कैसे बचा जाए, और समस्याएँ या गलतियाँ होने पर कैसे बेदाग बच निकला जाए। वे पहले अपने बच निकलने का रास्ता और अपनी प्राथमिकताओं और हितों को पूरा करने पर विचार करते हैं, न कि इस पर कि अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कैसे निभाएँ और अपनी निष्ठा कैसे प्रस्तुत करें। क्या ऐसे लोग सत्य प्राप्त कर सकते हैं? वे सत्य के संबंध में प्रयास नहीं करते, और जब अपने कर्तव्यों के निर्वाह की बात आती है तो सत्य का अभ्यास नहीं करते। उन्हें हमेशा दूसरे की रोटी ज्यादा चुपड़ी नजर आती है। आज वे यह करना चाहते हैं, कल कुछ और करना चाहते हैं, और उन्हें लगता है कि हर दूसरे आदमी का कर्तव्य उनके अपने कर्तव्य से बेहतर और आसान है। और तब भी, वे सत्य के लिए प्रयासरत नहीं होते। वे यह नहीं सोचते कि उनके इन विचारों में क्या समस्याएँ हैं, और वे समस्याओं के समाधान के लिए सत्य की खोज नहीं करते। उनके दिमाग हमेशा इस बात पर लगे रहते हैं कि उनके अपने सपने कब साकार होंगे, कौन सुर्खियों में है, किसे ऊपरवाले से मान्यता मिल रही है, कौन बिना काट-छाँट के काम करता है और पदोन्नत हो जाता है। उनके दिमाग इन चीजों से भरे हुए हैं। क्या जो लोग हमेशा इन चीजों के बारे में सोचते रहते हैं, वे अपने कर्तव्यों का उचित ढंग से पालन कर सकते हैं? वे इसे कभी पूरा नहीं कर सकते। तो, किस तरह के लोग अपने कर्तव्यों का पालन इस तरह से करते हैं? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं? सबसे पहले, एक बात तो तय है : इस तरह के लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे कुछ आशीषों का आनंद लेना चाहते हैं, प्रसिद्ध होना चाहते हैं, और परमेश्वर के घर में प्रमुखता पाना चाहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे जब वे सामान्य समाज में रह रहे थे। सार की दृष्टि से, वे कैसे लोग हैं? वे छद्म-विश्वासी हैं। छद्म-विश्वासी परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्यों का वैसे ही पालन करते हैं जैसे वे बाहरी दुनिया में करते हैं। उन्हें पदोन्नतियों की परवाह होती है, इस बात की चिंता होती है कि कौन टीम का अगुआ बन रहा है, कौन कलीसिया का अगुआ बन रहा है, किसके काम की सभी लोग प्रशंसा कर रहे हैं, किसकी बड़ाई हो रही है, और किसका उल्लेख किया जा रहा है। उन्हें इन चीजों की चिंता होती है। यह बिल्कुल किसी कंपनी की तरह है : किसकी पदोन्नति हो रही है, किसका वेतन बढ़ रहा है, अगुआ किसकी प्रशंसा कर रहा है, और कौन अगुआ से परिचित हो रहा है—लोग इन बातों की परवाह करते हैं। यदि वे परमेश्वर के घर में भी इन चीजों को खोजते हैं, और सारा दिन इन्हीं बातों में व्यस्त रहते हैं, तो क्या वे एकदम अविश्वासियों जैसे नहीं हैं? सार रूप से, वे अविश्वासी हैं; वे खांटी छद्म-विश्वासी हैं। वे जो भी कर्तव्य निभाएँगे, वे केवल मेहनत करेंगे और बेमन से काम करेंगे। वे चाहे जो भी धर्मोपदेश सुनें, वे सत्य को फिर भी नहीं स्वीकारेंगे, और वे सत्य को अभ्यास में तो बिल्कुल भी नहीं लाएँगे। बिना किसी तरह के बदलाव का अनुभव किए वे कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं, और वे चाहे जितने वर्षों तक अपने कर्तव्यों का पालन करें, वे वफादार होने में सक्षम नहीं होंगे। परमेश्वर में उनकी सच्ची आस्था नहीं होती, उनमें निष्ठा नहीं होती, वे छद्म-विश्वासी होते हैं।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक)

कुछ लोग सत्य में आनंदित नहीं होते, न्याय में तो बिल्कुल भी नहीं। इसके बजाय, वे सामर्थ्य और संपत्तियों में आनंदित होते हैं; ऐसे लोग सामर्थ्य चाहने वाले कहे जाते हैं। वे केवल दुनिया के प्रभावशाली संप्रदायों को, और सेमिनरीज से आने वाले पादरियों और शिक्षकों को खोजते हैं। हालाँकि उन्होंने सत्य के मार्ग को स्वीकार कर लिया है, फिर भी वे केवल अर्ध-विश्वासी हैं; वे अपने दिलो-दिमाग पूरी तरह से समर्पित करने में असमर्थ हैं, वे कहने को तो परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की बात करते हैं, लेकिन उनकी नजरें बड़े पादरियों और शिक्षकों पर गड़ी रहती हैं, और वे मसीह की ओर फेर कर नहीं देखते। उनके हृदय प्रसिद्धि, वैभव और महिमा पर ही टिके रहते हैं। वे इसे असंभव समझते हैं कि ऐसा छोटा व्यक्ति इतने लोगों पर विजय प्राप्त कर सकता है, कि इतना साधारण व्यक्ति लोगों को पूर्ण बना सकता है। वे इसे असंभव समझते हैं कि ये धूल और घूरे में पड़े नाचीज लोग परमेश्वर द्वारा चुने गए हैं। वे मानते हैं कि अगर ऐसे लोग परमेश्वर के उद्धार के पात्र होते, तो स्वर्ग और पृथ्वी उलट-पुलट हो जाते और सभी लोग हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते। उनका मानना है कि अगर परमेश्वर ने ऐसे नाचीज लोगों को पूर्ण बनाने के लिए चुना होता, तो वे सभी बड़े लोग स्वयं परमेश्वर बन जाते। उनके दृष्टिकोण अविश्वास से दूषित हैं; अविश्वासी होने से भी बढ़कर, वे बेहूदे जानवर हैं। क्योंकि वे केवल हैसियत, प्रतिष्ठा और सामर्थ्य को महत्व देते हैं, और केवल बड़े समूहों और संप्रदायों को सम्मान देते हैं। उनमें उन लोगों के लिए बिल्कुल भी सम्मान नहीं है, जिनकी अगुआई मसीह करता है; वे तो बस ऐसे विश्वासघाती हैं, जिन्होंने मसीह से, सत्य से और जीवन से मुँह मोड़ लिया है।

तुम मसीह की विनम्रता की प्रशंसा नहीं करते, बल्कि ऊँचे रुतबे वाले झूठे चरवाहों की प्रशंसा करते हो। तुम मसीह की मनोहरता या बुद्धि से प्रेम नहीं करते, बल्कि उन व्यभिचारियों से प्रेम करते हो, जो संसार के कीचड़ में लोटते हैं। तुम मसीह की पीड़ा पर हँसते हो, जिसके पास अपना सिर टिकाने तक की जगह नहीं है, लेकिन उन मुरदों की तारीफ करते हो, जो चढ़ावे हड़प लेते हैं और ऐयाशी में जीते हैं। तुम मसीह के साथ कष्ट सहने को तैयार नहीं हो, बल्कि खुद को खुशी-खुशी उन मनमाने मसीह-विरोधियों की बाँहों में सौंप देते हो, जबकि वे तुम्हें सिर्फ देह, शब्द और नियंत्रण ही प्रदान करते हैं। अब भी तुम्हारा हृदय उनकी ओर, उनकी प्रतिष्ठा, उनके रुतबे, उनके प्रभाव की ओर ही मुड़ता है। अभी भी तुम्हारा यही रवैया है कि मसीह का कार्य स्वीकारना कठिन है और तुम इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं रहते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुममें मसीह को स्वीकार करने की आस्था की कमी है। तुमने आज तक उसका अनुसरण सिर्फ इसलिए किया है, क्योंकि तुम्हारे पास कोई और विकल्प नहीं था। बुलंद छवियों की एक शृंखला हमेशा तुम्हारे हृदय में बसी रहती है; तुम उनके किसी शब्द और कर्म को नहीं भूल सकते, न ही उनके प्रभावशाली शब्दों और हाथों को भूल सकते हो। वे तुम लोगों के हृदय में हमेशा सर्वोच्च और हमेशा नायक रहते हैं। लेकिन आज के मसीह के लिए ऐसा नहीं है। तुम्हारे हृदय में वह हमेशा महत्वहीन और हमेशा भय के अयोग्य है। क्योंकि वह बहुत ही साधारण है, उसका बहुत ही कम प्रभाव है और वह ऊँचा तो बिल्कुल भी नहीं है।

बहरहाल, मैं कहता हूँ कि जो लोग सत्य को महत्व नहीं देते, वे सभी छद्म-विश्वासी हैं और सत्य के प्रति विश्वासघाती हैं। ऐसे लोगों को कभी भी मसीह का अनुमोदन प्राप्त नहीं होगा। क्या अब तुमने पहचान लिया है कि तुम्हारे भीतर कितना अविश्वास है, और तुममें मसीह के प्रति कितना विश्वासघात है? मैं तुमसे यह आग्रह करता हूँ : चूँकि तुमने सत्य का मार्ग चुना है, इसलिए तुम्हें खुद को संपूर्ण हृदय से समर्पित करना चाहिए; दुविधाग्रस्त या अनमने न बनो। तुम्हें समझना चाहिए कि परमेश्वर इस संसार का या किसी एक व्यक्ति का नहीं है, बल्कि उन सबका है जो उस पर सचमुच विश्वास करते हैं, जो उसकी आराधना करते हैं, और जो उसके प्रति समर्पित और निष्ठावान हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?

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