83. शैतान के प्रलोभनों पर विजयी

चेन लू, चीन

यह दिसंबर 2012 की बात है, जब मैं सुसमाचार फैलाने के लिए शहर से बाहर गई हुई थी। एक सुबह जब मैं दर्जन भर से ज्यादा अन्य भाई-बहनों के साथ एक सभा में थी, तो अचानक दरवाजे पर किसी ने जोर-जोर से दस्तक दी, और फिर छह-सात पुलिस-अधिकारी हाथ में डंडे लहराते हुए तेजी से अंदर घुस आए। उन्होंने हमें धकेलकर अलग कर दिया और फिर चीजों को इधर-उधर पटकते हुए कमरे की तलाशी लेने लगे। एक बहन ने आगे बढ़ते हुए कहा, "हमने कोई कानून नहीं तोड़ा है—तुम्हें तलाशी लेने का क्या अधिकार है?" एक अधिकारी ने गुस्से से जवाब दिया, "अपनी औकात में रहो! जैसा कहा गया है, चुपचाप खड़ी रहो, और जब तक बोलने के लिए कहा न जाए, अपनी जुबान बंद रखो!" फिर उसने उस बहन को जोर से धक्का देकर नीचे गिरा दिया, जिससे उस बेचारी का एक नाखून टूट गया और उसमें से खून बहने लगा। पुलिस की यह दुष्टता देखकर मुझे गुस्सा भी आया और डर भी लगने लगा, इसलिए मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की कि मुझे आस्था और शक्ति दे, और मैं उसकी गवाही दे सकने के प्रति आशान्वित रही। प्रार्थना के बाद मैं काफी शांत महसूस करने लगी। जगह का चप्पा-चप्पा छानने के बाद पुलिस ने सुसमाचार की कुछ सामग्री और परमेश्वर के वचनों की कुछ पुस्तकें जब्त कर लीं और हम सबको अपनी गाड़ियों में बिठा लिया।

पुलिस स्टेशन में उन्होंने हमसे हमारी सारी चीजें ले लीं और हमसे हमारे नाम, पते और कलीसिया के अगुआ का नाम पूछने लगे। मैं एक शब्द भी नहीं बोली। फिर जब वे अकेले मुझसे पूछताछ करने की तैयारी करने लगे, तो मैं सचमुच डर गई; मैंने सुन रखा था कि वे सुसमाचार फैलाने के लिए यात्रा करने वालों से बहुत बर्बरता से पेश आते हैं, और उन्होंने मुझे पूछताछ के प्रमुख लक्ष्य के रूप में चिह्नित कर लिया था। मेरे लिए यह एक विकट घड़ी थी। तभी मैंने ठीक अपनी बगल में बैठी एक बहन को प्रार्थना करते सुना, "हे परमेश्वर, तुम हमारा मजबूत दुर्ग, हमारी शरण-स्थली हो। शैतान तुम्हारे कदमों में है। मैं तुम्हारे वचनों के सहारे रहना, तुम्हारी गवाही देना और तुम्हें संतुष्ट करना चाहती हूँ!" इससे मेरा दिल खिल उठा और मैं सोचने लगी, "यह सही है। जब तक परमेश्वर हमारे साथ है, मुझे किस बात का डर है? मैं परमेश्वर के सहारे शैतान पर निश्चित रूप से विजय प्राप्त कर सकती हूँ।" मेरा डर गायब हो गया और साथ ही मुझे शर्मिंदगी भी महसूस होने लगी। संकट की इस घड़ी में वह अपनी आस्था पर अडिग रहकर परमेश्वर से प्रार्थना और उस पर भरोसा कर रही थी, जबकि मैं डर से काँप रही थी और मुझमें उस मजबूत रीढ़ की पूर्णत: कमी थी, जो एक विश्वासी में होनी चाहिए। उस बहन की प्रार्थना से हिम्मत और मदद—परमेश्वर का प्रेम—पाकर मैंने मन-ही-मन संकल्प किया कि मैं उसकी गवाही जरूर दूँगी और यहूदा बनकर परमेश्वर के साथ विश्वासघात बिलकुल नहीं करूँगी।

10 बजे के आसपास दो अधिकारी मुझे हथकड़ी पहनाकर अकेले में पूछताछ के लिए एक कमरे में ले गए। उनमें से एक ने मुझसे स्थानीय बोली में कुछ कहा, जिसे मैं समझ न सकी, इसलिए मैंने पूछा कि क्या कहा? यह सुनते ही वे सब इतने भड़क उठे कि मैं हैरान रह गई। फिर उसके साथ खड़े दूसरे अधिकारी ने मुझे बालों से पकड़ लिया और मेरा सिर जोर-जोर से आगे-पीछे झटकने लगा। मुझे चक्कर-सा आ गया और मेरे होश गुम होने लगे; ऐसा लगा जैसे मेरी खोपड़ी उखाड़ी जा रही हो। मेरे बाल टूटकर पूरे फर्श पर फैलने लगे। इसके फौरन बाद एक दूसरा अधिकारी मुझ पर भौंका, "हम किसी न किसी तरह से तुमसे सब उगलवा लेंगे! बोलो! किसने तुम्हें यहाँ धर्मांतरण करवाने के लिए भेजा है?" मैंने जैसे ही कहा कि "सुसमाचार फैलाना मेरा कर्तव्य है", उसने मुझे बालों से खींचकर थप्पड़ मारने शुरू कर दिए और चिल्लाते हुए बोला, "मैं देखता हूँ कि तुम दोबारा कैसे वह सुसमाचार फैलाने की हिम्मत करती हो!" मेरा चेहरा पिटने से बुरी तरह जल रहा था और सूजने लगा था। वह तभी रुका, जब वह बुरी तरह से थक गया, पर उसके प्रश्नों की बौछार खत्म नहीं हुई। "तुम यहाँ की नहीं हो—तुम इतना अच्छा बोलती हो, तुम कोई आम औरत नहीं हो। अपना मुँह खोलो! बोलो, तुम यहाँ क्यों आई हो? तुम्हें किसने भेजा है? तुम्हारा अगुआ कौन है? ..." मेरा दिल उछलकर मेरे गले में आ गया था और मैं लगातार परमेश्वर को पुकार रही थी और उससे आस्था और शक्ति देने की विनती कर रही थी। प्रार्थना से मेरी नसें कुछ शांत हुईं और मैंने जवाब दिया, "मैं कुछ नहीं जानती।" इस पर उसने मेज पर जोर से मुक्का मारा और चिल्लाया, "देखती जाओ! हम जल्दी ही तुम्हें रास्ते पर ले आएँगे!" वह मेरा एमपी-4 प्लेयर उठाकर उसके साथ छेड़खानी करने लगा। मैं बहुत डरी हुई थी और सोच रही थी कि ये लोग मुझे यातना देने के न जाने कौन-कौन-से तरीके अपनाएँगे। मैंने जल्दी से परमेश्वर को पुकारा। संयोग से उसी समय एमपी4 प्लेयर पर परमेश्वर के वचनों का यह पाठ गूँजने लगा : "मैं उन लोगों पर अब और दया नहीं करूँगा जिन्होंने गहरी पीड़ा के दिनों में मेरे प्रति रत्ती भर भी निष्ठा नहीं दिखाई है, क्योंकि मेरी दया का विस्तार केवल इतनी ही दूर तक है। इसके अतिरिक्त, मुझे ऐसा कोई इंसान पसंद नहीं है जिसने कभी मेरे साथ विश्वासघात किया हो, ऐसे लोगों के साथ जुड़ना तो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है जो अपने मित्रों के हितों को बेच देते हैं। चाहे व्यक्ति जो भी हो, मेरा स्वभाव यही है। मुझे तुम लोगों को अवश्य बता देना चाहिए कि जो कोई भी मेरा दिल तोड़ता है, उसे दूसरी बार मुझसे क्षमा प्राप्त नहीं होगी, और जो कोई भी मेरे प्रति निष्ठावान रहा है वह सदैव मेरे हृदय में बना रहेगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। इसने मेरे मर्म को बेध दिया। मैं सोचने लगी कि जब प्रभु यीशु अपना कार्य कर रहा था तो बहुत सारे लोग उसका अनुसरण कर रहे थे और उसके अनुग्रह का आनंद ले रहे थे। लेकिन जब उसे सूली पर चढ़ाया गया और रोम के सैनिक धड़ाधड़ ईसाइयों को गिरफ्तार करने लगे, तो उनमें से बहुत-से लोग डर के मारे दुम दबाकर भाग खड़े हुए। यह परमेश्वर के लिए कितना दुखदायी था! ठीक उसी तरह मैं भी परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद ले रही थी और बड़े विश्वास के साथ उसका अनुसरण कर रही थी, लेकिन जैसे ही एक मुश्किल घड़ी आई और मुझे कष्ट सहने और मूल्य चुकाने की जरूरत पड़ी, तो मैं कायर और डरपोक बन गई। इससे परमेश्वर के हृदय को सुख कैसे मिल सकता है? अंत के दिनों में परमेश्वर हम भ्रष्ट मनुष्यों को बचाने के लिए देहधारी बन गया है और राक्षसों की इस धरती चीन में आया है, जहाँ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन है। उसने कम्युनिस्ट पार्टी के दमन और पीछा किए जाने के कष्ट भोगे हैं, पर फिर भी उसने सत्य व्यक्त करना और हमारा मार्गदर्शन करना बंद नहीं किया है। हमें बचाने के लिए उसने बहुत भारी मूल्य चुकाया है, और मैं खुलकर परमेश्वर के उद्धार का आनंद लेती रही हूँ, पर मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए जरा-सा कष्ट भी नहीं झेल पाई। यह हद दर्जे का स्वार्थ है। मेरी अंतरात्मा वास्तव में दोषी महसूस करने लगी और मैंने अपने प्रति परमेश्वर के प्रेम और देखभाल की एक गहरी भावना महसूस की। परमेश्वर जानता था कि मेरी कद-काठी कितनी अपरिपक्व है और मैं शैतान की दुष्टता के सामने भयभीत हूँ। तभी तो उसने विपत्ति में भी गवाही देने में मेरी मदद करने के लिए पुलिस द्वारा अपने वचनों का पाठ बजवाकर मुझे अपनी इच्छा समझने का अवसर दिया। मैं परमेश्वर के प्रेम से इतनी भाव-विभोर हो उठी कि मेरी आँखों से आँसू छलककर मेरे चेहरे पर बहने लगे, और मैं मन-ही-मन प्रार्थना करने लगी, "परमेश्वर, मैं तुम्हारे साथ विश्वासघात नहीं करूँगी। चाहे शैतान मुझे कैसी भी यातना क्यों न दे, मैं संकल्पपूर्वक तुम्हारी गवाही दूँगी और शैतान को शर्मिंदा करके तुम्हारे दिल को सुख पहुँचाऊँगी।"

अधिकारी ने अचानक एक चपत लगाकर एमपी4 प्लेयर बंद कर दिया और मुझे धमकाते हुए बोला, "अगर तुमने अब भी जुबान न खोली, तो मेरे पास इसके और बहुत इलाज हैं!" फिर पुलिस ने मुझे फर्श पर नंगे पाँव खड़ा करवाया और मेरा दायाँ हाथ कंक्रीट के एक पिंड में लगे लोहे के छल्ले से जकड़ दिया, जो काफी नीचे जमीन पर था। उन्होंने मुझे बैठने के बजाय झुककर खड़े रहने पर मजबूर किया। वे मुझे अपने दूसरे हाथ का सहारा लेकर एक टाँग पर खड़े होने भी नहीं दे रहे थे। कुछ देर बाद जब मैं इस तरह और खड़ी नहीं रह पाई और नीचे बैठ गई, तो एक अधिकारी मुझ पर चिल्लाया, "बैठना नहीं है! अगर तुम्हें कुछ आराम चाहिए, तो बेहतर होगा कि तुम अपना मुँह खोल दो!" मैं किसी तरह उसी मुद्रा में फिर से खड़ी हो गई। कुछ समय बाद, पता नहीं कितनी देर में, मेरे पाँव बर्फ की तरह ठंडे हो गए और मेरी टाँगें दर्दनाक तरीके से सूजकर सुन्न पड़ गईं। मैं फिर बैठ गई, अब खड़े रहना सचमुच नामुमकिन हो गया था। पुलिस ने मुझे खींचकर फिर से खड़ा कर दिया और मेरी गर्दन के पीछे ठंडे पानी का गिलास उड़ेल दिया, जिससे मैं ठंड से ठिठुरने लगी। फिर उन्होंने मेरा हाथ खोल दिया और मुझे लकड़ी की एक कुर्सी पर बिठाकर मेरी दोनों बाँहें पीछे की तरफ कुर्सी की दोनों ओर जकड़ दीं, और खिड़की खोलकर एयर कंडीशनर चालू कर दिया। बर्फीली हवा सीधे मुझ पर पड़ने से मैं ठंड से काँपने लगी और मन ही मन लगातार प्रार्थना करते हुए परमेश्वर से यह विनती करने लगी कि मुझे यह सब सहन करने की शक्ति दे, ताकि मैं अपनी दैहिक दुर्बलताओं पर विजय पा सकूँ। तभी मुझे परमेश्वर के वचनों के एक भजन की यह पंक्ति याद आई : "विश्वास एक ही लट्ठे से बने पुल की तरह है: जो लोग घृणास्पद ढंग से जीवन से चिपके रहते हैं उन्हें इसे पार करने में परेशानी होगी, परन्तु जो आत्म बलिदान करने को तैयार रहते हैं, वे बिना किसी फ़िक्र के, मज़बूती से कदम रखते हुए उसे पार कर सकते हैं"("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'बीमारी की शुरुआत परमेश्वर का प्रेम है')। मुझे एहसास हुआ कि पुलिस शारीरिक यातना देकर मुझे परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने के लिए विवश करना चाहती है, और अगर मैंने अपनी देह की चिंता की, तो मैं उसके जाल में फँस जाऊँगी। मुझे परमेश्वर में आस्था रखनी होगी और उसकी गवाही देनी होगी, चाहे मुझे कितने ही कष्ट क्यों न झेलने पड़ें। इसके बाद पुलिस ठंडे पानी का एक बड़ा मटका ले आई और उसे मेरी गर्दन के नीचे उड़ेलकर मेरे कपड़े पूरे गीले कर दिए। मुझे ऐसा लगा, मानो मुझे किसी बर्फखाने में धकेल दिया गया हो। मुझे जोर से काँपते देख एक अधिकारी ने मुझे बालों से खींचकर मेरा चेहरा जबरन ऊपर उठा दिया, जिससे मुझे खिड़की के बाहर खुला आसमान दिखाई देने लगा। फिर वह उपहास करते हुए बोला, "तुम्हे ठंड लग रही है, है न? अपने परमेश्वर से कहो कि वह आकर तुम्हें बचाए!" जब मैंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया, तो उसने ठंडे पानी का एक और बड़ा मटका मेरे ऊपर उड़ेल दिया और एयर कंडीशनर को न्यूनतम डिग्री पर सेट करके उसका रुख सीधे मेरी तरफ कर दिया। अंदर और बाहर की बर्फीली ठंडी हवाओं ने एक बार फिर मुझे घेर लिया और मैं ठंड से सिकुड़कर एक छोटी गेंद की तरह हो गई। मुझे लगा कि जल्दी ही मैं जमकर ठोस हो जाऊँगी, और मेरा खून बर्फ में बदलता महसूस हुआ। मैं खुद को इस तरह के अजीब विचार करने से नहीं रोक पाई, "इतने ठंडे दिन मुझ पर ठंडा पानी उड़ेलकर और एयर कंडीशनर चलाकर ये लोग मुझे जमाकर मार डालने की कोशिश कर रहे हैं। अगर मैं यहाँ मर गई, तो मेरे परिवार को पता तक नहीं चलेगा...।" जितना ज्यादा मैंने इस तरह से सोचा, उतना ही ज्यादा मैं अँधेरे से घिरती चली गई। तभी अचानक मुझे सूली पर चढ़े प्रभु यीशु के कष्टों का खयाल आया, जो उसने उन लोगों के लिए झेले थे जिनका उसने उद्धार किया था, और साथ ही परमेश्वर के वचनों का यह अंश भी याद आया : "वह प्रेम, जिसने शुद्धिकरण का अनुभव किया हो, मज़बूत होता है, कमज़ोर नहीं। इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर कब और कैसे तुम्हें अपने परीक्षणों का भागी बनाता है, तुम इस बात की चिंता नहीं करोगे कि तुम जीओगे या मरोगे, तुम ख़ुशी-ख़ुशी परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग दोगे, और परमेश्वर के लिए कोई भी बात ख़ुशी-ख़ुशी सहन कर लोगे—इस प्रकार तुम्हारा प्रेम शुद्ध होगा, और तुम्हारा विश्वास वास्तविक होगा। केवल तभी तुम ऐसे व्यक्ति बनोगे, जिसे सचमुच परमेश्वर द्वारा प्रेम किया जाता है, और जिसे सचमुच परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया गया है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शुद्धिकरण का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे सच में बहुत प्रोत्साहन मिला। परमेश्वर ने हमें बचाने के लिए चरम सीमा तक कष्ट सहे, यहाँ तक कि अपना जीवन भी न्योछावर कर डाला। क्या एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे भी इसी तरह परमेश्वर के लिए किसी भी तरह का कष्ट झेलने के लिए तैयार नहीं रहना चाहिए? शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम होने का अर्थ था कि परमेश्वर मुझे ऊँचा उठा रहा था, और भले ही इसका परिणाम मेरी मृत्यु हो, मुझे परमेश्वर के प्रति दृढ़ता से निष्ठावान रहना चाहिए। बहुत धीरे-धीरे ठंड का मेरा एहसास कम हो गया। पुलिस ने दोपहर से लेकर शाम के सात बजे तक अपनी पूछताछ जारी रखी। यह देखकर कि मैं अभी भी अपना मुँह खोलने को तैयार नहीं हूँ, उन्होंने एयर कंडीशनर चालू रखकर मुझे पूछताछ वाले कमरे में बंद कर दिया।

पुलिस वाले अपना रात का खाना खाकर फिर लौट आए और मुझे धमकाते हुए बोले, "सब-कुछ सच-सच बक दो! तुम्हारा कलीसिया का अगुआ कौन है? अगर तुम नहीं बताओगी तो हम तुम्हें तीखी मिर्च वाला पानी पिलाएँगे, साबुन का पानी पिलाएँगे, तुम्हें मल-मूत्र खाने पर मजबूर करेंगे, तुम्हारे सारे कपड़े उतारकर तुम्हें नीचे तहखाने में ठंड से जमकर मरने के लिए छोड़ देंगे!" उन्हें यह कहते सुनकर मुझे यकीन हो गया कि वे कहीं से भी मनुष्य नहीं हैं, बल्कि मनुष्यों के मुखौटे पहने हुए राक्षसों का झुंड हैं। उनकी बर्बरता जितनी ज्यादा बढ़ती गई, उतने ही ज्यादा खतरनाक वे मुझे लगते रहे, उनके प्रति मेरी घृणा उतनी ही ज्यादा बढ़ती गई और उतनी ही ज्यादा मैं संकल्पबद्ध होती गई कि मैं कभी नहीं झुकूँगी। जब मैंने फिर भी हार नहीं मानी, तो उन्होंने कपड़े का एक थैला पानी में भिगोकर मेरे सिर पर पहना दिया और मेरे सिर को कसकर पकड़ लिया, ताकि मैं उसे हिला न सकूँ, और थैले का मुँह बंद करने लगे। फौरन मेरा दम घुटने लगा और मेरे हाथ अभी भी कुर्सी से जकड़े होने के कारण मैं जरा भी हिलडुल नहीं पाई। मैंने अपना पूरा शरीर अकड़ता महसूस किया। यह भी उनके लिए काफी नहीं था। उन्होंने मेरी नाक में मटके का ठंडा पानी डाला और बोले कि अगर मैं कबूल करने से इनकार करती रही, तो वे मेरा दम घोंट देंगे। मेरे लिए साँस लेना वाकई बहुत मुश्किल हो रहा था और मौत मुझे थोड़ा-थोड़ा करके अपने नजदीक आती महसूस हो रही थी, इसलिए मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, यह साँस मुझे तुम्हीं ने दी है। पुलिस चाहे मेरे साथ कुछ भी करे, चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाए, मैं तुम्हारे साथ विश्वासधात नहीं करूँगी। मैं तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण के लिए तैयार हूँ।" मैं अपने होश खोने के कगार पर ही थी और साँस नहीं ले पा रही थी, कि तभी अचानक पुलिस ने मुझे छोड़ दिया। मैंने मन ही मन बार-बार परमेश्वर का आभार व्यक्त किया। मैं जानती थी कि भले ही मैं पुलिस के हाथों में पड़ गई हूँ, पर जब तक परमेश्वर नहीं चाहेगा, वे मेरी जान नहीं ले सकते। मेरी आस्था और ज्यादा मजबूत हो गई।

अगली दोपहर कुछ अधिकारी मुझे और एक दूसरी बहन को एक बंदी-शिविर में ले गए। उनमें से एक ने मुझे धमकाते हुए कहा, "तुम स्थानीय नागरिक नहीं हो, इसलिए हम तुम्हें कुछ महीने हवालात में रख सकते हैं और फिर तीन से पाँच साल कैद की सजा दे सकते हैं। किसी को पता तक नहीं चलेगा।" कैद की बात सुनकर मैं थोड़ी कमजोर पड़ गई और सोचने लगी, "अगर मुझे सचमुच सजा हो जाती है और जेल भेज दिया जाता है, तो फिर कभी मैं किसी को अपना मुँह कैसे दिखाऊँगी? लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे?" मुझे जिस कोठरी में रखा गया था, वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की बहनों से भरी हुई थी, इसलिए जब उन्होंने देखा कि मैं कमजोर और नकारात्मक महसूस कर रही हूँ, तो उन्होंने मेरी मदद करने और मझे सहारा देने के लिए सत्य पर संगति की, और मुझे "परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देना और उसका साक्षी होना" नामक भजन गाकर सुनाया, जिसमें कहा गया है : "परमेश्वर ने, इंसान को बचाने के लिए दीनता से देह धारण किया, वह कलीसियाओं के मध्य चल रहा है, सत्य व्यक्त कर रहा है, कड़ी मेहनत से हमें सींच रहा है और हर कदम पर हमारा मार्गदर्शन कर रहा है। यह उसने दशकों से हर दिन किया है, यह सब उसने इंसान को शुद्ध करने और पूर्ण बनाने के लिये किया है। कितने ही बसंत, ग्रीष्म, पतझड़ और सर्द मौसम देखे हैं परमेश्वर ने, मिठास के साथ कड़वाहट भी झेली है उसने, झेली है उसने। त्यागता है वो सब-कुछ मगर कभी मलाल नहीं करता, निस्वार्थ-भाव से दिया है प्रेम अपना उसने। मैं परमेश्वर के न्याय से गुजरा हूँ और मैंने उसके इम्तहानों की कड़वाहट का अनुभव किया है। कड़वाहट के बाद आती है मिठास भी, दूर हुई है भ्रष्टता मेरी, समर्पित करता हूँ मैं अपना दिल और देह अपनी, ताकि लौटा सकूँ मैं परमेश्वर के प्रेम को। मैं जगह-जगह जाकर परमेश्वर के लिए मेहनत करता हूँ, खुद को खपाता हूँ। छोड़ दिया मुझे मेरे अपनों ने, बदनाम किया मुझे दूसरों ने। मगर प्यार मेरा परमेश्वर के लिये अंत तक अविचल है। परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने की ख़ातिर पूर्णत: समर्पित हूँ मैं। सहता हूँ यातनाओं, पीड़ाओं को मैं, ले रहा हूँ अनुभव उतार-चढ़ाव का मैं। भले ही मैं जीवन में मुश्किलें सहूँ, लेकिन मुझे अनुसरण करना है परमेश्वर का, गवाही देनी है परमेश्वर की मुझे" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ)। इन पंक्तियों पर चिंतन-मनन करने से मेरा मन सचमुच हलका हो गया। हम चीन में थे, एक ऐसा देश जो परमेश्वर से, और जीवन में सच्चे परमेश्वर और सही मार्ग का अनुसरण करने से सबसे ज्यादा घृणा करता है और उसका प्रतिरोध करता है, इसलिए यह अपरिहार्य था कि हमें बहुत पीड़ा और कष्ट झेलने पड़ेंगे। लेकिन इसमें शर्मिंदगी की कोई बात नहीं थी—हमें इसलिए सताया जा रहा था, क्योंकि हम विश्वासी थे और सही रास्ते पर थे। हम धार्मिकता के कारण यह दमन झेल रहे थे, और यह एक सम्मान की बात थी। मैंने पिछले युगों के उन सभी संतों के बारे में सोचा, जिन्हें परमेश्वर के इतने सारे वचन सुनने को नहीं मिले थे, लेकिन फिर भी परमेश्वर में उनकी आस्था थी, और उन पर चाहे कितने भी अत्याचार हुए, या उन्होंने चाहे कैसा भी अपमान सहा, पर उन्होंने कभी परमेश्वर के साथ विश्वासघात नहीं किया, चाहे इसके लिए उन्हें मौत को ही गले क्यों न लगाना पड़ा। वे बहुत महान गवाह थे। मुझे परमेश्वर के वचनों का इतना सारा सिंचन और पोषण मिला था, और उन रहस्यों और सत्यों को समझने का अवसर प्राप्त हुआ था जिन्हें पिछली कई पीढ़ियाँ नहीं समझ पाई थीं, तो फिर मैं परमेश्वर के लिए थोड़ा-सा कष्ट क्यों नहीं उठा सकती और उसकी गवाही क्यों नहीं दे सकती? इस विचार से मुझे शर्मिंदगी और अपराध का बोध होने लगा, और मैंने अपनी आस्था, शक्ति, और परमेश्वर की गवाही देने का संकल्प फिर से प्राप्त कर लिया।

10 दिनों के बाद पुलिस मुझे अकेले एक बंदी-गृह में ले गई। जैसे ही मैं अंदर पहुँची, वहाँ मौजूद एक दूसरी कैदी ने मुझसे कहा, "यहाँ आने वाले ज्यादातर लोग वापस बाहर नहीं जाते। हम सभी अपने फैसले का इंतजार कर रही हैं, और हममें से कुछ तो महीनों-महीनों से इंतजार कर रही हैं।" यह सुनकर मुझे उन भाई-बहनों का खयाल आ गया, जो आठ, दस या पंद्रह साल की कैद की सजा भुगत चुके थे। मुझे नहीं पता था कि मुझे कितने सालों की सजा सुनाई जाएगी—अगर मैं इसी अँधेरे नर्क में बंद रही, तो क्या होगा? मैं आने वाले लंबे दिन कैसे काटूँगी? मैं बहुत त्रस्त थी और मेरी आँखों में आँसू आ गए। यह जानकर कि मैं शैतान की एक चाल की शिकार हो रही हूँ, मैंने उत्साहपूर्वक परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे अपने दिल की रक्षा के लिए विनती करने लगी। और तब मुझे अपने भीतर एक स्पष्ट मार्गदर्शक प्रकाश प्राप्त हुआ : अय्यूब के परीक्षणों की तरह परमेश्वर मेरे साथ यह सब करवा कर रहा है—मैं शिकायत नहीं कर सकती। मुझे परमेश्वर के इन वचनों का ख्याल आया : "मेरे द्वारा शैतान को हराए जाने की गवाही मनुष्य की निष्ठा और आज्ञाकारिता में निहित है, साथ ही मनुष्य के ऊपर मेरी संपूर्ण विजय की गवाही भी। ... इसके बजाय तुम मेरे प्रत्येक आयोजन (चाहे वह मृत्यु हो या विनाश) के प्रति समर्पित हो जाओगे या मेरी ताड़ना से बचने के लिए बीच रास्ते से ही भाग जाओगे?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। परमेश्वर के इस प्रश्न से मैं शर्मिंदा महसूस करने लगी। मुझे यह एहसास हुआ कि मुझमें भक्ति और आज्ञाकारिता की पूर्णत: कमी है। मैं दावा करती थी कि मैं परमेश्वर की बड़ी शानदार गवाह बनना चाहती हूँ, लेकिन जब मेरे सामने वास्तव में जेल जाने का समय आया, तो मैंने भाग जाना और इस स्थिति से बच निकलना चाहा। यह किस तरह का समर्पण था? मैंने अपनी गिरफ्तारी के बाद की घटनाओं के बारे में सोचा, तो मुझे महसूस हुआ कि परमेश्वर इस पूरे समय के दौरान अपने वचनों से मुझे मार्गदर्शन और प्रोत्साहन देता रहा था। उसी की अगुआई में मैं शैतान की चालों को भाँप सकी थी और उन राक्षसों की बर्बर यातनाओं पर विजय प्राप्त कर पाई थी और जीवित रह पाई थी। मैं देख रही थी कि मेरे प्रति परमेश्वर का प्रेम कितना सच्चा है, और वह कहीं से भी खोखला या बनावटी नहीं है। पर मैं इस परिवेश में परमेश्वर की गवाही देने और उसे संतुष्ट करने के बारे में सोचने के बजाय स्वार्थ और निजी हितों की चिंता में डूबी थी, और सिर्फ दैहिक सुख-दुख के बारे में सोचते हुए जरा-सी पीड़ा सहते ही इन परिस्थितियों से दूर भाग जाना चाहती थी। यह कितना स्वार्थपूर्ण और घिनौना था। मेरी मानवता कहाँ चली गई थी? मेरी अंतरात्मा कहाँ थी? इस विचार से मैं पश्चात्ताप और अपराध-बोध से भर गई, इसलिए मैंने ग्लानि के साथ मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं गलत थी। मैं इस तरह सिर्फ कुछ रटे-रटाए शब्द बोलकर तुम्हारे साथ बेईमानी नहीं करती रह सकती। मैं तुम्हें वास्तविक कर्मों से खुश करना चाहती हूँ। मैं बिना किसी संदेह के गवाही दूँगी, भले ही मुझे कैसी भी सजा सुनाई जाए।" मौसम ठंडा था, इसलिए बंदीगृह की दूसरी कैदियों ने मुझे कुछ कपड़े दे दिए। वे हर दिन मेरे हिस्से के काम में भी मेरी मदद करतीं। उन्होंने हर तरह से मेरा ध्यान रखा। मैं जानती थी, इसकी व्यवस्था परमेश्वर ने ही की थी, और मैंने उसका हार्दिक आभार प्रकट किया।

बंदीगृह में पुलिस हर तीसरे-चौथे दिन मुझसे सवाल-जवाब करती रहती थी। कड़े तरीकों से बात न बनते देख वे नरमी पर उतर आए। एक अधिकारी ने अपने चेहरे पर आत्मीय भाव लाते हुए मुझसे बातचीत करने की कोशिश की, और मेरे लिए खाने की कुछ अच्छी चीजें लाया। उसने यह भी कहा कि वह कोई अच्छी नौकरी ढूँढ़ने में मेरी मदद कर सकता है। मैं जानती थी कि यह शैतान की एक चाल थी, इसलिए मैंने उसे पूरी तरह नजरअंदाज किया। अंतत: एक पूछताछ के दौरान पुलिस ने अपने धूर्त इरादे जाहिर कर दिए : "हमारी तुम्हारे साथ कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है—हम सिर्फ सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया को नष्ट करना चाहते हैं, और हमें उम्मीद है कि तुम हमारे लिए काम कर सकती हो।" उन्हें ऐसी भयानक बात कहते सुनकर मेरे भीतर क्रोध की एक लहर दौड़ गई। परमेश्वर अंत के दिनों में देहधारण करके दुनिया में मानवजाति को बचाने आया है, पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी पागलपन के साथ उसका विरोध और निंदा करती है, और विश्वासियों को गिरफ्तार करके उन पर अत्याचार कर रही है। और अब ये चाहते हैं कि मैं कलीसिया को बेचकर इनकी कठपुतली बन जाऊँ। यह घृणित था। मैं देख रही थी कि कम्युनिस्ट पार्टी राक्षसों का एक गिरोह है, जो परमेश्वर से लड़ने पर आमादा है—ये कितने दुष्ट और प्रतिक्रियावादी हैं! मैं पार्टी के प्रति असीम घृणा से भर उठी और परमेश्वर की गवाही देकर शैतान के इन राक्षसों को शर्मिंदा करने के सिवा कुछ नहीं चाहा। जब मैं फिर भी कुछ नहीं बोली, तो पुलिस वालों ने एक दूसरी मनोवैज्ञानिक चाल आजमाई। उन्होंने मोबाइल फोन सेवा प्रदाता के जरिये मेरे पति को ढूँढ़ निकाला और उसे और हमारे बच्चे को बंदीगृह में मुझसे मिलवाने शहर से यहाँ ले आए। मेरे पति ने कभी भी मेरी आस्था का विरोध नहीं किया था, लेकिन पुलिस की धमकियों और प्रलोभन के कारण वह बार-बार मुझसे कहता रहा, "मैं तुमसे विनती करता हूँ कि अपनी आस्था छोड़ दो, मेरी खातिर नहीं, तो हमारे बेटे के बारे में ही सोचो। जरा सोचो, उसे पता चला कि उसकी माँ जेल में है, तो उस पर क्या गुजरेगी।" उसके मुँह से यह सब सुनना मेरे लिए सचमुच बहुत कठिन था। तभी मुझे परमेश्वर के वचनों के इस भजन का खयाल आया : "अंत के दिनों के कार्य में हमसे परम आस्था और प्रेम की अपेक्षा की जाती है। थोड़ी-सी लापरवाही से हम लड़खड़ा सकते हैं, क्योंकि कार्य का यह चरण पिछले सभी चरणों से अलग है : परमेश्वर मानवजाति की आस्था को पूर्ण कर रहा है—जो कि अदृश्य और अमूर्त दोनों है। इस चरण में परमेश्वर वचनों को आस्था में, प्रेम में और जीवन में परिवर्तित करता है। लोगों को उस बिंदु तक पहुँचने की आवश्यकता है जहाँ वे सैकड़ों बार शुद्धिकरणों का सामना कर चुके हैं और अय्यूब से भी ज़्यादा आस्था रखते हैं। किसी भी समय परमेश्वर से दूर जाए बिना उन्हें अविश्वसनीय पीड़ा और सभी प्रकार की यातनाओं को सहना आवश्यक है। जब वे मृत्यु तक आज्ञाकारी रहते हैं, और परमेश्वर में अत्यंत विश्वास रखते हैं, तो परमेश्वर के कार्य का यह चरण पूरा हो जाता है"("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'परमेश्वर विश्वास को पूर्ण बनाता है')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति से भर दिया। मैं जरा भी नहीं डगमगाई, भले ही मेरे पति ने कुछ भी कहा। आखिरकार उसने मुझ पर यह बम गिराया, "अगर तुम सुनने से इनकार करती हो, तो हमें तलाक ले लेना चाहिए!" "तलाक" शब्द ने मेरा दिल टुकड़े-टुकड़े कर दिया। मैं जानती थी कि अगर कम्युनिस्ट पार्टी ने झूठ न बोला होता और परमेश्वर के कार्य की निंदा न की होती, और मेरे पति को धमकी न दी होती, उसके साथ जोर-जबर्दस्ती न की होती और हमारे बीच कलह के बीज न बोए होते, तो मेरा पति इतनी निर्मम बात कभी न कहता। मुझे पार्टी से और भी ज्यादा घृणा हो गई। वह मेरे परिवार को बरबादी के कगार पर ले आने की मुख्य दोषी थी! वे लोग मेरी भावनाओं और परिवार के मोह का इस्तेमाल करके मुझसे परमेश्वर के साथ विश्वासघात करवाना चाहते थे—मैं उनकी इस चाल में हरगिज नहीं फँस सकती थी। इस पर विचार करके मैंने अपने पति को शांति से जवाब दिया, "तुम हमारे बेटे को लेकर जा सकते हो।" अपनी हर चाल विफल होती देख एक अधिकारी गुस्से से भरकर डेस्क के सामने आया और मुझ पर चिल्लाया, "हम इतनी मेहनत करके भी तुमसे एक शब्द नहीं उगलवा पाए हैं! अगर तुमने अब भी राज़ नहीं खोला, तो तुम एक राजनीतिक कैदी ठहरा दी जाओगी। आज तुम्हारे लिए मुँह खोलने का आखिरी मौका है!" पर वे मुझ पर कितना भी भड़के, मैं शांत बनी रही और पूरे समय परमेश्वर से प्रार्थना करती रही कि वह मुझे अपनी आस्था पर दृढ़ रहने की शक्ति दे।

अपनी कोठरी में लौटकर मैंने अपने पति की बातों पर विचार किया। ऐसा लगता था कि वह सचमुच ही मुझे तलाक देने के लिए तत्पर था—मैं अपना घर खो बैठूँगी, और मुझे यह भी नहीं पता कि मेरी कैद कितनी लंबी होने वाली है। मैं बहुत दुखी हो गई। तभी परमेश्वर के कुछ वचन मेरे मन में आए : "अब तुम्हें उस मार्ग को स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाना चाहिए, जिस पर पतरस चला था। यदि तुम पतरस के मार्ग को स्पस्ट रूप देख सको, तो तुम उस कार्य के बारे में निश्चित होगे जो आज किया जा रहा है, इसलिए तुम शिकायत नहीं करोगे या निष्क्रिय नहीं होगे, या किसी भी चीज़ की लालसा नहीं करोगे। तुम्हें पतरस की उस समय की मनोदशा का अनुभव करना चाहिए : वह दुख से त्रस्त था; उसने फिर कोई भविष्य या आशीष नहीं माँगा। उसने सांसारिक लाभ, प्रसन्नता, प्रसिद्धि या धन-दौलत की कामना नहीं की; उसने केवल सर्वाधिक अर्थपूर्ण जीवन जीना चाहा, जो कि परमेश्वर के प्रेम को चुकाने और परमेश्वर को अपनी सबसे अधिक बहुमूल्य वस्तु समर्पित करने के लिए था। तब वह अपने हृदय में संतुष्ट होता" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस ने यीशु को कैसे जाना)। पतरस की उपलब्धियाँ मेरे लिए बहुत हृदयस्पर्शी थीं। यह सच था—पतरस ने अपने भविष्य और नियति की जरा भी चिंता किए बिना, अपने हितों के बारे में जरा भी सोचे बिना, अपना जीवन परमेश्वर से प्रेम करने और उसे संतुष्ट करने में गुजार दिया। अंत में उसे सलीब पर उलटा लटका दिया गया, और इस तरह उसने परमेश्वर की एक सुंदर और जबरदस्त गवाही दी। मैं सौभाग्यशाली थी कि मैं देहधारी परमेश्वर का अनुसरण कर रही थी और उसके वचनों के पोषण और अगुआई का आनंद उठा रही थी, लेकिन मैंने परमेश्वर को कभी भी कुछ अर्पित नहीं किया था। अब वह समय आ गया था, जब मुझे उसकी गवाही देने की जरूरत थी—अब मुझे निश्चित रूप से परमेश्वर को संतुष्ट करना ही होगा। अगर मैंने यह अवसर गँवा दिया, तो क्या मैं जीवन भर पछताती नहीं रहूँगी? यह सोचते हुए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं वही करना चाहती हूँ, जो पतरस ने किया था। मुझे चाहे आगे कुछ भी झेलना पड़े, चाहे वह तलाक ही क्यों न हो, चाहे वह जेल ही क्यों न हो, मैं तुम्हारी गवाही देने और तुम्हें खुश करने के लिए तैयार हूँ, और चाहे मुझे अपने बाकी दिन जेल में क्यों न गुजारने पड़ें, मैं शैतान के आगे नहीं झुकूँगी और तुम्हारे साथ विश्वासघात नहीं करूँगी।" जब मैंने अपना सब-कुछ अर्पित कर दिया, तो मुझे परमेश्वर के अद्भुत कर्म दिखाई दिए। कुछ दिन बाद एक सुधारक अधिकारी ने अप्रत्याशित रूप से मुझसे कहा, "अपना बोरिया-बिस्तर समेट लो। तुम घर जा रही हो।" मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। मैं रोमांचित हो उठी। इस आध्यात्मिक युद्ध में शैतान शर्मिंदा और परास्त हो गया था, जबकि परमेश्वर जबरदस्त तरीके से महिमामंडित हुआ था!

स्वयं द्वारा झेले गए उत्पीड़न के 36 दिनों में मैंने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का दुष्ट और प्रतिक्रियावादी सार पूरी तरह से और स्पष्ट रूप से देखा—वह शातिर और निर्दयी है और स्वर्ग से बिलकुल उलट है। मैं उसे अपने हृदय की गहराइयों से घृणित और अस्वीकार्य मानने लगी। इस पूरी अग्निपरीक्षा के दौरान वे परमेश्वर के वचन ही थे, जो मुझे प्रबुद्धता और मार्गदर्शन प्रदान करते रहे, और मुझे बार-बार शैतान के हमलों और प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करने में सक्षम बनाते रहे। मैंने सच में यह अनुभव किया कि परमेश्वर के वचन ही मनुष्य का जीवन और शक्ति हैं, और मैंने महसूस किया कि परमेश्वर हर चीज पर शासन करता है और हर चीज उसकी पकड़ में है। शैतान कितनी ही चालें क्यों न चल ले, वह परमेश्वर के हाथों हमेशा परास्त होता रहेगा। भले ही उसने परमेश्वर से विश्वासघात करवाने के लिए मेरी देह को कितनी ही यातनाएँ दी हों, पर उसकी क्रूरता न सिर्फ मुझे तोड़ नहीं पाई, बल्कि वास्तव में अपना दुष्ट चेहरा भी मेरी ऑंखों के सामने ले आई। मैंने परमेश्वर के प्रेम और उद्धार को जान लिया, शैतान को पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया, और अपनी आस्था और परमेश्वर के अनुसरण में दृढ़ हो गई। परमेश्वर की बुद्धि शैतान की चालों पर हमेशा विजयी होगी। मैं परमेश्वर को हार्दिक धन्यवाद देती हूँ!

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