iv. परमेश्वर उसका प्रतिरोध करने वाले दुष्ट मनुष्यों को क्यों नष्ट कर देगा

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

परमेश्वर ने मनुष्यों का सृजन किया और उन्हें पृथ्वी पर रखा और तब से उनकी अगुआई की। फिर उसने उन्हें बचाया और मानवता के लिये पापबलि बना। अंत में, उसे अभी भी मानवता को जीतना होगा, मनुष्यों को पूरी तरह से बचाना होगा और उन्हें उनकी मूल समानता में वापस लौटाना होगा। यही वह कार्य है, जिसे वह आरंभ से करता रहा है—मनुष्य को उसकी मूल छवि और उसकी मूल समानता में वापस लौटाना। परमेश्वर अपना राज्य स्थापित करेगा और मनुष्य की मूल समानता बहाल करेगा, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर पृथ्वी और समस्त सृजित प्राणियों पर अपने अधिकार को बहाल करेगा। मानवता ने शैतान से भ्रष्ट होने के बाद सृजित प्राणियों के साथ-साथ अपने धर्मभीरु हृदय भी गँवा दिए, जिससे वह परमेश्वर के प्रति विद्रोह करने वाला शत्रु बन गया। तब मानवता शैतान की सत्ता के अधीन जीने लगी और शैतान के आदेशों का पालन करने लगी; इस प्रकार, अपने सृजित प्राणियों के बीच कार्य करने का परमेश्वर के पास कोई तरीका नहीं था और वह अपने प्राणियों के मन में भय पैदा कर पाने में असमर्थ हो गया। मनुष्यों को परमेश्वर ने बनाया था और उन्हें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए थी, पर उन्होंने वास्तव में परमेश्वर से मुँह मोड़ लिया और इसके बजाय शैतान की आराधना करने लगे। शैतान उनके दिलों में बस गया। इस प्रकार, परमेश्वर ने मनुष्य के हृदय में अपना स्थान खो दिया, जिसका मतलब है कि उसने मानवता के सृजन के पीछे का अर्थ खो दिया। इसलिए मानवता के सृजन के अपने अर्थ को बहाल करने के लिए उसे उनकी मूल समानता को बहाल करना होगा और मानवता को उसके भ्रष्ट स्वभाव से मुक्ति दिलानी होगी। शैतान से मनुष्यों को वापस प्राप्त करने के लिए, उसे उन्हें पाप से बचाना होगा। केवल इसी तरह परमेश्वर धीरे-धीरे उनकी मूल समानता और भूमिका को बहाल कर सकता है और अंत में, अपने राज्य को बहाल कर सकता है। विद्रोह करने वाले उन पुत्रों का अंतिम तौर पर विनाश भी क्रियान्वित किया जाएगा, ताकि मनुष्य बेहतर ढंग से परमेश्वर की आराधना कर सकें और पृथ्वी पर बेहतर ढंग से रह सकें। चूँकि परमेश्वर ने मानवों का सृजन किया, इसलिए वह मनुष्य से अपनी आराधना करवाएगा; क्योंकि वह मानवता के मूल कार्य को बहाल करना चाहता है, वह उसे पूर्ण रूप से और बिना किसी मिलावट के बहाल करेगा। अपना अधिकार बहाल करने का अर्थ है, मनुष्यों से अपनी आराधना कराना और समर्पण कराना; इसका अर्थ है कि वह अपनी वजह से मनुष्यों को जीवित रखेगा और अपने अधिकार की वजह से अपने शत्रुओं का विनाश करेगा। इसका अर्थ है कि परमेश्वर किसी प्रतिरोध के बिना, मनुष्यों के बीच उस सब को बनाए रखेगा जो उसके बारे में है। जो राज्य परमेश्वर स्थापित करना चाहता है, वह उसका स्वयं का राज्य है। वह जिस मानवता की आकांक्षा रखता है, वह है, जो उसकी आराधना करेगी, जो उसे पूरी तरह समर्पण करेगी और उसकी महिमा का प्रदर्शन करेगी। यदि परमेश्वर भ्रष्ट मानवता को नहीं बचाता, तो उसके द्वारा मानवता के सृजन का अर्थ खत्म हो जाएगा; उसका मनुष्यों के बीच अब और अधिकार नहीं रहेगा और पृथ्वी पर उसके राज्य का अस्तित्व अब और नहीं रह पाएगा। यदि परमेश्वर उन शत्रुओं का नाश नहीं करता, जो उसके प्रति विद्रोही हैं, तो वह अपनी संपूर्ण महिमा प्राप्त करने में असमर्थ रहेगा, वह पृथ्वी पर अपने राज्य की स्थापना भी नहीं कर पाएगा। ये उसका कार्य पूरा होने और उसकी महान उपलब्धि के प्रतीक होंगे : मानवता में से उन सबको पूरी तरह नष्ट करना, जो उसके प्रति विद्रोही हैं और जो पूर्ण किए जा चुके हैं, उन्हें विश्राम में लाना। जब मनुष्यों को उनकी मूल समानता में बहाल कर लिया जाएगा, और जब वे अपने-अपने कर्तव्य निभा सकेंगे, अपने उचित स्थानों पर बने रह सकेंगे और परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं को समर्पण कर सकेंगे, तब परमेश्वर ने पृथ्वी पर उन लोगों का एक समूह प्राप्त कर लिया होगा, जो उसकी आराधना करते हैं और उसने पृथ्वी पर एक राज्य भी स्थापित कर लिया होगा, जो उसकी आराधना करता है। पृथ्वी पर उसकी अनंत विजय होगी और वे सभी जो उसके विरोध में हैं, अनंतकाल के लिए नष्ट हो जाएँगे। इससे मनुष्य का सृजन करने की उसकी मूल इच्छा बहाल होगी; इससे सब चीजों के सृजन की उसकी मूल इच्छा बहाल होगी और इससे पृथ्वी पर सभी चीज़ों पर और शत्रुओं के बीच उसका अधिकार भी बहाल हो जाएगा। ये उसकी संपूर्ण विजय के प्रतीक होंगे। इसके बाद से मानवता विश्राम में प्रवेश करेगी और ऐसे जीवन में प्रवेश करेगी, जो सही मार्ग पर है। मानवता के साथ परमेश्वर भी अनंत विश्राम में प्रवेश करेगा और मनुष्यों और स्वयं के साथ एक अनंत जीवन का आरंभ करेगा। पृथ्वी से गंदगी और विद्रोहीपन मिट जाएगा, पृथ्वी पर से सारा विलाप भी समाप्त हो जाएगा और परमेश्वर का विरोध करने वाली प्रत्येक चीज़ का अस्तित्व नहीं रहेगा। केवल परमेश्वर और वही लोग बचेंगे, जिनका उसने उद्धार किया है; केवल उसकी सृष्टि ही बचेगी।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे

दुष्ट, भ्रष्ट मनुष्य! मैं तुझे कब निगलूँगा? मैं तुझे आग और गंधक की झील में कब दफ्न करूँगा? मैं बहुत बार तुम लोगों के समूह से भगाया गया हूँ, बहुत बार लोगों ने मुझे अपमानित किया, मेरा उपहास उड़ाया और मुझे बदनाम किया है, बहुत बार लोगों ने खुलेआम मेरी आलोचना की है और मेरी उपेक्षा की है? अंधे मनुष्य! क्या तुम लोग नहीं जानते कि तुम लोग मेरे हाथों में सिर्फ मुट्ठीभर कीचड़ हो? क्या तुम लोग नहीं जानते कि तुम लोग केवल सृजित प्राणी हो? अब मेरा कोप भड़क कर बाहर आ रहा है और कोई अपना बचाव नहीं कर सकता। लोग केवल दया की भीख माँग सकते हैं। लेकिन क्योंकि मेरा कार्य इस सीमा तक प्रगति कर चुका है, इसलिए कोई भी इसे नहीं बदल सकता। सृजित लोगों को अवश्य ही कीचड़ में वापस जाना होगा। ऐसा नहीं है कि मैं अधार्मिक हूँ, बल्कि तुम लोग बहुत भ्रष्ट, बहुत निरंकुश हो, और ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोग शैतान के कब्जे में हो और उसके औजार बन गए हो। मैं स्वयं पवित्र परमेश्वर हूँ, मुझे दूषित नहीं किया जा सकता और न ही मेरा मंदिर अपवित्र हो सकता है। अब से मेरा प्रचण्ड क्रोध (कोप से अधिक गंभीर) सभी राष्ट्रों और लोगों पर बरसना शुरू हो जाएगा और मुझसे आने वाले, लेकिन मुझे न जानने वाले सभी नीच लोगों को दंडित करना शुरू कर देगा। मैं मनुष्यों से बेहद घृणा करता हूँ, अब मैं उन पर कोई दया नहीं करूँगा; बल्कि मैं उन पर अपने सारे शापों की बारिश करूँगा। अब न तो कोई करुणा होगी और न ही कोई प्रेम होगा, सब-कुछ भस्म कर दिया जाएगा, केवल मेरा राज्य ही शेष रहेगा, ताकि मेरे लोग मेरे घर में मेरी स्तुति करें, मुझे महिमा दें और सदा मेरी जयजयकार करें (यही मेरे लोगों का कार्य है)। मेरा हाथ आधिकारिक रूप से मेरे घर के अंदर के और बाहर के दोनों तरह के लोगों को ताड़ना देना शुरू करेगा। कोई भी दुष्कर्मी मेरे चंगुल और न्याय से बच नहीं पाएगा; हर एक को इस अग्निपरीक्षा से गुजरकर मेरी आराधना करनी होगी। यह मेरा प्रताप है, इसके अलावा, यह मेरा प्रशासनिक आदेश भी है जिसे मैं दुष्कर्मियों के लिए घोषित करता हूँ। कोई भी किसी और को नहीं बचा सकता। लोग केवल अपनी ही देखभाल कर सकते हैं, लेकिन चाहे वे कुछ भी कर लें, मेरे ताड़ना के हाथ से नहीं बच सकेंगे। इसका कारण यह है कि मेरे प्रशासनिक आदेश कठोर हैं; इस सच्चाई को लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 109

मनुष्य मेरे शत्रुओं के अलावा कुछ नहीं हैं। मनुष्य वे दुष्ट हैं, जो मेरा विरोध और मुझसे विद्रोह करते हैं। मनुष्य मेरे द्वारा शापित उस दुष्ट की संतान के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। मनुष्य उस प्रधान दूत के वंशजों के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं, जिसने मेरे साथ विश्वासघात किया था। मनुष्य उस शैतान की विरासत के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं, जो बहुत पहले ही मेरे द्वारा ठुकरा दिया गया था और जो हमेशा से मेरा कट्टर शत्रु रहा है। चूँकि सारी मानवजाति के ऊपर का आसमान, स्पष्टता की जरा-सी झलक के बिना, मलिन और अंधकारमय है, और मानव-संसार स्याह अँधेरे में इस तरह डूबा हुआ है कि उसमें रहने वाला व्यक्ति अपने चेहरे के सामने लाकर अपने हाथ को या अपना सिर उठाकर सूरज को भी नहीं देख सकता। उसके पैरों के नीचे की कीचड़दार और गड्ढों से भरी सड़क घुमावदार और टेढ़ी-मेढ़ी है; पूरी जमीन पर लाशें बिखरी हुई हैं। अँधेरे कोने मृतकों के अवशेषों से भरे पड़े हैं, जबकि ठंडे और छायादार कोनों में दुष्टात्माओं की भीड़ ने अपना निवास बना लिया है। मनुष्यों के संसार में हर जगह दुष्टात्माएँ जत्थों में आती-जाती हैं। सभी तरह के जंगली जानवरों की गंदगी से ढकी हुई संतानें घमासान युद्ध में उलझी हुई हैं, जिनकी आवाज दिल में दहशत पैदा करती है। ऐसे समय में, इस तरह के संसार में, ऐसे “सांसारिक स्वर्गलोक” में व्यक्ति जीवन के आनंद की खोज करने कहाँ जा सकता है? अपने जीवन की मंजिल खोजने के लिए कोई कहाँ जा सकता है? लंबे समय से शैतान के पैरों के नीचे रौंदी हुई मानवजाति पहले से शैतान की छवि लिए एक अभिनेत्री रही है—इससे भी अधिक, मानवजाति शैतान का मूर्त रूप है, और वह उस साक्ष्य के रूप में काम करती है, जो जोर से और स्पष्ट रूप से शैतान की गवाही देता है। ऐसी मानवजाति, ऐसे अधम लोगों का झुंड, इस भ्रष्ट मानव-परिवार की ऐसी संतान परमेश्वर की गवाही कैसे दे सकती है? मेरी महिमा कहाँ से आती है? व्यक्ति मेरी गवाही के बारे में बोलना कहाँ से शुरू कर सकता है? क्योंकि उस शत्रु ने, जो मानवजाति को भ्रष्ट करके मेरे विरोध में खड़ा है, पहले ही उस मानवजाति को—जिसे मैंने बहुत पहले बनाया था और जो मेरी महिमा और मेरे जीवन से भरी थी—दबोचकर दूषित कर दिया है। उसने मेरी महिमा छीन ली है और मनुष्य में जो चीज भर दी है, वह शैतान की कुरूपता की भारी मिलावट वाला जहर और अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष के फल का रस है। आरंभ में मैंने मानवजाति का सृजन किया; अर्थात् मैंने मानवजाति के पूर्वज, आदम का सृजन किया। वह उत्साह से भरपूर, जीवन की क्षमता से भरपूर, रूप और छवि से संपन्न था, और इससे भी बढ़कर, मेरी महिमा के साहचर्य में था। वह महिमामय दिन था, जब मैंने मनुष्य का सृजन किया। इसके बाद आदम के शरीर से हव्वा उत्पन्न हुई, वह भी मनुष्य की पूर्वज थी, और इस प्रकार जिन लोगों का मैंने सृजन किया था, वे मेरे श्वास से भरे थे और मेरी महिमा से भरपूर थे। आदम मूल रूप से मेरे हाथ से पैदा हुआ था और वह मेरी छवि का प्रतिरूप था। इसलिए “आदम” का मूल अर्थ था मेरे द्वारा सृजित किया गया प्राणी, जो मेरी जीवन-ऊर्जा से भरा हुआ, मेरी महिमा से भरा हुआ, रूप और छवि से युक्त, आत्मा और श्वास से युक्त है। आत्मा से संपन्न वह एकमात्र सृजित प्राणी था, जो मेरा प्रतिनिधित्व करने, मेरी छवि धारण करने और मेरा श्वास प्राप्त करने में सक्षम था। आरंभ में, हव्वा दूसरी ऐसी इंसान थी जो श्वास से संपन्न थी, जिसके सृजन का मैंने आदेश दिया था, इसलिए “हव्वा” का मूल अर्थ था, ऐसा सृजित प्राणी, जो मेरी महिमा जारी रखेगा, जो मेरी प्राण-शक्ति से भरा हुआ, और इससे भी बढ़कर, मेरी महिमा से संपन्न है। हव्वा आदम से आई, इसलिए उसने भी मेरा रूप धारण किया, क्योंकि वह मेरी छवि में सृजित की जाने वाली दूसरी इंसान थी। “हव्वा” का मूल अर्थ था आत्मा, देह और हड्डियों से युक्त जीवित प्राणी, मेरी दूसरी गवाही और साथ ही मानवजाति के बीच मेरी दूसरी छवि। मानवजाति के ये पूर्वज मनुष्य का शुद्ध और बहुमूल्य खजाना थे, और पहले से ही आत्मा से संपन्न जीवित प्राणी थे। किंतु उस दुष्ट ने मानवजाति के पूर्वजों की संतान को कुचल दिया और उन्हें बंदी बना लिया, उसने मानव-संसार को पूर्णतः अंधकार में डुबो दिया, और हालात ऐसे बना दिए कि उनकी संतान मेरे अस्तित्व में विश्वास नहीं करती। इससे भी अधिक घिनौनी बात यह है कि लोगों को भ्रष्ट करते हुए और उन्हें कुचलते हुए वह दुष्ट मेरी महिमा, मेरी गवाही, वह प्राणशक्ति जो मैंने उन्हें प्रदान की थी, वह श्वास और जीवन जो मैंने उनमें फूँका था, मानव-संसार में मेरी समस्त महिमा, और हृदय का समस्त रक्त जो मैंने मानवजाति पर खर्च किया था, वह सब भी क्रूरतापूर्वक छीन रहा है। मानवजाति अब प्रकाश में नहीं है, लोगों ने वह सब खो दिया है जो मैंने उन्हें प्रदान किया था, और उन्होंने उस महिमा को भी अस्वीकार कर दिया है जो मैंने उन्हें प्रदान की थी। वे कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि मैं सभी सृजित प्राणियों का प्रभु हूँ? वे स्वर्ग में मेरे अस्तित्व में कैसे विश्वास करते रह सकते हैं? कैसे वे पृथ्वी पर मेरी महिमा की अभिव्यक्तियों की खोज कर सकते हैं? ये पोते-पोतियाँ परमेश्वर को वो परमेश्वर कैसे मान सकते हैं, जिसका उनके पूर्वज ऐसे प्रभु के रूप में भय मानते थे जिसने उनका सृजन किया था? इन बेचारे पोते-पोतियों ने वह महिमा, छवि, और वह गवाही जो मैंने आदम और हव्वा को प्रदान की थी, और वह जीवन जो मैंने मानवजाति को प्रदान किया था और जिस पर वे अपने अस्तित्व के लिए निर्भर हैं, उदारता से उस दुष्ट को “भेंट कर दिया”; और वे उस दुष्ट की उपस्थिति से बिल्कुल बेखबर हैं और मेरी सारी महिमा उसे दे देते हैं। क्या यह “नीच” शब्द का स्रोत नहीं है? ऐसी मानवजाति, ऐसे दुष्ट राक्षस, ऐसी चलती-फिरती लाशें, ऐसी शैतान की आकृतियाँ, मेरे ऐसे शत्रु मेरी महिमा से कैसे संपन्न हो सकते हैं? मैं अपनी महिमा वापस ले लूँगा, मनुष्यों के बीच मौजूद अपनी गवाही और वह सब वापस ले लूँगा, जो कभी मेरा था और जिसे मैंने बहुत पहले मानवजाति को दे दिया था—मैं मानवजाति को पूरी तरह से जीत लूँगा। किंतु तुम्हें पता होना चाहिए कि जिन मनुष्यों का मैंने सृजन किया था, वे पवित्र मनुष्य थे जो मेरी छवि और मेरी महिमा धारण करते थे। वे शैतान के नहीं थे, न ही वे उससे कुचले जाने के भागी थे, बल्कि शैतान के लेशमात्र जहर से भी मुक्त, शुद्ध रूप से मेरी ही अभिव्यक्ति थे। इसलिए, मैं मानवजाति को सूचित करता हूँ कि मैं सिर्फ उसे चाहता हूँ जो मेरे हाथों से सृजित है, वे पवित्र जन जिनसे मैं प्रेम करता हूँ और जो किसी अन्य चीज से संबंधित नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, मैं उनमें आनंद लूँगा और उन्हें अपनी महिमा मानूँगा। हालाँकि, जिसे मैं चाहता हूँ, वह शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई वो मानवजाति नहीं है, जो आज शैतान से संबंधित है और जो अब मेरा मूल सृजन नहीं है। चूँकि मैं अपनी वह महिमा वापस लेना चाहता हूँ जो मानव-संसार में विद्यमान है, इसलिए मैं शैतान को पराजित करने में अपनी महिमा के प्रमाण के रूप में, मानवजाति के शेष उत्तरजीवियों को पूर्ण रूप से जीत लूँगा। मैं सिर्फ अपनी गवाही को अपनी आनंद की वस्तु, अपना निश्चित रूप मानता हूँ। यही मेरी इच्छा है।

आज मानवजाति जहाँ है, वहाँ तक पहुँचने में उसे इतिहास के हजारों साल लग गए हैं, फिर भी, जिस मानवजाति की सृष्टि मैंने आरंभ में की थी, वह बहुत पहले ही अधोगति में डूब गई है। मनुष्य अब वह मनुष्य नहीं है, जिसकी मैं कामना करता हूँ, और इसलिए मेरी नजरों में, लोग अब मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं। बल्कि वे मानवजाति के मैल हैं जिन्हें शैतान ने बंदी बना लिया है, वे चलती-फिरती सड़ी हुई लाशें हैं जिनमें शैतान बसा हुआ है और जिनसे शैतान स्वयं को आवृत करता है। लोगों को मेरे अस्तित्व में कोई विश्वास नहीं है, न ही वे मेरे आने का स्वागत करते हैं। मानवजाति बस मेरे अनुरोध अस्थायी रूप से स्वीकार करते हुए, केवल अनिच्छा से उत्तर देती है, और जीवन के सुख-दुःख ईमानदारी से मेरे साथ साझा नहीं करती। चूँकि लोग मुझे अबोधगम्य समझते हैं, इसलिए वे मुझे ईर्ष्याभरी मुसकराहट देते हैं, उनका रवैया किसी सत्ताधारी का अनुग्रह प्राप्त करने का होता है, क्योंकि लोगों को मेरे कार्य का कोई ज्ञान नहीं है, मेरी वर्तमान इच्छा तो वे बिल्कुल भी नहीं जानते। मैं तुम लोगों से सच कहूँगा : जब वह दिन आएगा, तो मेरी आराधना करने वाले हर वह व्यक्ति का दुःख तुम लोगों के दुःख की अपेक्षा सहने में ज्यादा आसान होगा। मुझमें तुम्हारी आस्था की मात्रा, वास्तव में, अय्यूब की आस्था से अधिक नहीं है—यहाँ तक कि यहूदी फरीसियों की आस्था भी तुम लोगों से बढ़कर है—और इसलिए, यदि आग का दिन उतरा, तो तुम लोगों का दुःख उन फरीसियों के दुःख से अधिक गंभीर होगा जिन्हें यीशु ने फटकार लगाई थी, उन 250 अगुआओं के दुःख से अधिक गंभीर होगा जिन्होंने मूसा का विरोध किया था, और अपने विनाश की झुलसाने वाली लपटों के तले मौजूद सदोम के दुःख से भी अधिक गंभीर होगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक वास्तविक व्यक्ति होने का क्या अर्थ है

मनुष्य चरम सीमा तक पतित हो चुके थे। वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर कौन है या वे स्वयं कहाँ से आए हैं। यदि तुम परमेश्वर का ज़िक्र भी करते, तो वे हमला कर देते, कलंक लगाते और ईश-निंदा करते। यहाँ तक कि जब परमेश्वर के सेवक उसकी चेतावनी का प्रचार करने आए थे, तब भी इन दुष्ट लोगों ने न केवल पश्चात्ताप का कोई चिह्न नहीं दिखाया और अपना दुष्ट आचरण नहीं त्यागा, बल्कि इसके विपरीत, उन्होंने ढिठाई से परमेश्वर के सेवकों को नुकसान पहुँचाया। जो कुछ उन्होंने व्यक्त और प्रकट किया, वह परमेश्वर के प्रति उनकी चरम शत्रुता का प्रकृति सार था। हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के विरुद्ध इन भ्रष्ट लोगों का प्रतिरोध उनके भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन से कहीं अधिक था, बिल्कुल वैसे ही, जैसे यह सत्य की समझ की कमी के कारण की जाने वाली निंदा और उपहास की एक घटना से कहीं अधिक था। उनके दुष्ट आचरण का कारण न तो मूर्खता थी, न ही अज्ञानता; उन्होंने ऐसा कार्य इसलिए नहीं किया कि उन्हें धोखा दिया गया था, और इसलिए तो निश्चित रूप से नहीं कि उन्हें गुमराह किया गया था। उनका आचरण परमेश्वर के विरुद्ध खुले तौर पर निर्लज्ज शत्रुता, विरोध और उपद्रव के स्तर तक पहुँच चुका था। निस्संदेह, इस प्रकार का मानव-व्यवहार परमेश्वर को क्रोधित करेगा, और यह उसके स्वभाव को क्रोधित करेगा—ऐसा स्वभाव, जिसे ठेस नहीं पहुँचाई जानी चाहिए। इसलिए परमेश्वर ने सीधे और खुले तौर पर अपना कोप और प्रताप दिखाया; यह उसके धार्मिक स्वभाव का सच्चा प्रकाशन था। एक ऐसे नगर को सामने देख, जहाँ पाप उमड़ रहा था, परमेश्वर ने उसे यथासंभव तीव्रतम तरीके से नष्ट कर देना चाहा, ताकि उसके भीतर रहने वाले लोगों और उनके संपूर्ण पापों को पूरी तरह से मिटाया जा सके, ताकि उस नगर के लोगों का अस्तित्व समाप्त किया जा सके और उस स्थान के भीतर पाप को द्विगुणित होने से रोका जा सके। ऐसा करने का सबसे तेज और सबसे मुकम्मल तरीका था उसे आग से जलाकर नष्‍ट कर देना। सदोम के लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया परित्याग या उपेक्षा का नहीं था। इसके बजाय, उसने इन लोगों को दंड देने, मार डालने और पूरी तरह से नष्ट कर देने के लिए अपने कोप, प्रताप और अधिकार का प्रयोग किया। उनके प्रति उसका रवैया न केवल उनके शारीरिक विनाश का था, बल्कि उनकी आत्माओं के विनाश का, एक शाश्वत उन्मूलन का भी था। यह “अस्तित्व की समाप्ति” वचनों से परमेश्वर के आशय का वास्तविक निहितार्थ है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II

समस्त मानवजाति के प्रति, उस मानवजाति के प्रति जो कि मूर्ख और जाहिल है, परमेश्वर का व्यवहार मुख्य रूप से दया और सहनशीलता पर आधारित है। दूसरी ओर, उसका कोप अधिकांश समय और अधिकांश घटनाओं में छिपा रहता है, और मनुष्य उससे अनजान है। परिणामस्वरूप, परमेश्वर को अपना कोप व्यक्त करते हुए देखना मनुष्य के लिए कठिन है, और उसके कोप को समझना भी उसके लिए कठिन है। इसलिए मनुष्य परमेश्वर के कोप को हलके में लेता है। मनुष्य जब परमेश्वर के अंतिम कार्य और मनुष्य के लिए उसकी क्षमा और सहिष्णुता के कदम का सामना करता है—अर्थात्, जब परमेश्वर की दया की अंतिम घटना और अंतिम चेतावनी मनुष्य पर आती है—यदि लोग फिर भी उसी तरह से परमेश्वर का विरोध करते रहते हैं और पश्चाताप करने, अपने तौर-तरीके सुधारने या उसकी दया स्वीकार करने का कोई प्रयास नहीं करते, तो परमेश्वर आगे उन्हें अपनी सहनशीलता और धैर्य नहीं दिखाएगा। इसके विपरीत, उस समय परमेश्वर अपनी दया वापस ले लेगा। इसके बाद वह केवल अपना कोप ही भेजेगा। वह विभिन्न तरीकों से अपना कोप व्यक्त कर सकता है, वैसे ही, जैसे वह लोगों को दंड देने और नष्ट करने के लिए विभिन्न पद्धतियाँ इस्तेमाल करता है।

सदोम नगर का विनाश करने के लिए परमेश्वर द्वारा आग का इस्तेमाल करना मनुष्य या किसी अन्य चीज़ को पूरी तरह से नष्ट करने की उसकी तीव्रतम पद्धति है। सदोम के लोगों को जलाना उनके शरीर नष्ट करने से कहीं अधिक था; इसने पूरी तरह से उनकी आत्माएँ, उनके प्राण और उनके शरीर नष्ट कर दिए, और यह सुनिश्चित किया कि उस नगर के लोग न तो भौतिक संसार में अस्तित्व में रहें और न ही उस संसार में, जो मनुष्य के लिए अदृश्य है। यह परमेश्वर द्वारा अपना कोप प्रकाशित और अभिव्यक्त करने का एक तरीका है। इस तरह का प्रकाशन और अभिव्यक्ति परमेश्वर के कोप के सार का एक पहलू है, ठीक वैसे ही, जैसे यह स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के सार का प्रकाशन भी है। जब परमेश्वर अपना कोप भेजता है, तो वह कोई दया या प्रेममय करुणा प्रकट करना बंद कर देता है, न ही वह आगे कोई सहनशीलता या धैर्य प्रदर्शित करता है; कोई ऐसा व्यक्ति, वस्तु या कारण नहीं है, जो उसे धैर्य धारण किए रहने, फिर से दया करने, एक बार फिर अपनी सहनशीलता दिखाने के लिए राज़ी कर सके। इन चीज़ों के स्थान पर, एक पल के लिए भी हिचकिचाए बिना, परमेश्वर अपना कोप और प्रताप भेजता है, और जो कुछ चाहता है, वह करता है। इन चीज़ों को वह अपनी इच्छाओं के अनुरूप एक तीव्र और साफ़-सुथरे तरीके से करता है। यह वह तरीका है, जिससे परमेश्वर अपना वह कोप और प्रताप प्रकट करता है, जिसे मनुष्य द्वारा ठेस नहीं पहुँचाई जानी चाहिए, और यह उसके धार्मिक स्वभाव के एक पहलू की अभिव्यक्ति भी है। जब लोग परमेश्वर को मनुष्य के प्रति चिंता और प्रेम दिखाते हुए देखते हैं, तो वे उसके कोप को भाँपने में, उसके प्रताप को देखने में या अपमान के प्रति उसकी असहनशीलता अनुभव करने में असमर्थ होते हैं। इन चीज़ों ने हमेशा लोगों को विश्वास दिलाया है कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव केवल दया, सहनशीलता और प्रेम का है। किंतु जब कोई परमेश्वर को किसी नगर का विनाश करते हुए या मनुष्य से घृणा करते हुए देखता है, तो मनुष्य के विनाश में उसका कोप और प्रताप लोगों को उसके धार्मिक स्वभाव के अन्य पक्ष की झलक देखने देता है। यह अपमान के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता है। परमेश्वर का कोई अपमान सहन न करने वाला स्वभाव किसी भी सृजित प्राणी की कल्पना से परे है, और ग़ैर-सृजित प्राणियों में से कोई उसके साथ दखलंदाज़ी करने या उसको प्रभावित करने में सक्षम नहीं है; और इसका प्रतिरूपण या अनुकरण तो किया ही नहीं जा सकता। इस प्रकार, परमेश्वर के स्वभाव का यह ऐसा पहलू है, जिसे मनुष्य को सबसे अधिक जानना चाहिए। केवल स्वयं परमेश्वर का ही ऐसा स्वभाव है, और केवल स्वयं परमेश्वर ही ऐसे स्वभाव से युक्त है। परमेश्वर का ऐसा धार्मिक स्वभाव इसलिए है, क्योंकि वह दुष्टता, अंधकार, विद्रोहशीलता और शैतान के दुष्ट कार्यों—जैसे कि मानवजाति को भ्रष्ट करना और निगल जाना—से घृणा करता है, क्योंकि वह अपने विरुद्ध पाप के सारे कार्यों से घृणा करता है और इसलिए भी, क्योंकि उसका सार पवित्र और निर्मल है। यही कारण है कि वह किसी भी सृजित या ग़ैर-सृजित प्राणी द्वारा खुला विरोध या स्वयं से मुकाबला सहन नहीं करेगा। यहाँ तक कि कोई ऐसा व्यक्ति भी, जिसके प्रति उसने किसी समय दया दिखाई हो या जिसका चुनाव किया हो, उसके स्वभाव को ललकार दे या उसके धीरज और सहनशीलता के सिद्धांत का उल्‍लंघन कर दे, तो वह थोड़ी-सी भी दया या संकोच दिखाए बिना, अपमान बरदाश्त न करने वाला अपना धार्मिक स्वभाव प्रकट और प्रकाशित कर देगा।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II

परमेश्वर की दृष्टि में, मनुष्य की भ्रष्टता के प्रति, सभी देहधारियों की अशुद्धता, उपद्रव और विद्रोहीपन के प्रति उसके सब्र की एक सीमा है। उसकी सीमा क्या है? यह ऐसा है जैसा परमेश्वर ने कहा था : “और परमेश्वर ने पृथ्वी पर जो दृष्‍टि की तो क्या देखा कि वह बिगड़ी हुई है; क्योंकि सब प्राणियों ने पृथ्वी पर अपना अपना चाल-चलन बिगाड़ लिया था।” इस वाक्यांश “क्योंकि सब प्राणियों ने पृथ्वी पर अपना अपना चाल-चलन बिगाड़ लिया था” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कोई भी जीवित प्राणी, इनमें परमेश्वर का अनुसरण करने वाले, वे जो परमेश्वर का नाम पुकारते थे, ऐसे लोग जो किसी समय परमेश्वर को होमबलि चढ़ाते थे, ऐसे लोग जो मौखिक रूप से परमेश्वर को स्वीकार करते थे और यहाँ तक कि परमेश्वर की स्तुति भी करते थे—जब एक बार उनका व्यवहार भ्रष्टता से भर गया और परमेश्वर की दृष्टि में आ गया, तो उसे उनका नाश करना होगा। यह परमेश्वर की सीमा थी। अतः परमेश्वर किस हद तक मनुष्य एवं सभी देहधारियों की भ्रष्टता के प्रति सहनशील बना रहा? उस हद तक जब सभी लोग, चाहे वे परमेश्वर के अनुयायी हों या अविश्वासी, सही मार्ग पर नहीं चल रहे थे। उस हद तक जब मनुष्य केवल नैतिक रूप से भ्रष्ट और बुराई से भरा हुआ नहीं था, बल्कि जहाँ कोई व्यक्ति नहीं था, जो परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता था, किसी ऐसे व्यक्ति के होने की तो बात ही छोड़ दीजिए जो विश्वास करता हो कि परमेश्वर द्वारा इस संसार पर शासन किया जाता है और यह कि परमेश्वर लोगों के लिए प्रकाश का और सही मार्ग ला सकता है। उस हद तक जहाँ मनुष्य ने परमेश्वर के अस्तित्व से घृणा की और परमेश्वर को अस्तित्व में रहने की अनुमति नहीं दी। जब एक बार मनुष्य का भ्रष्टाचार इस बिंदु पर पहुँच गया, तो परमेश्वर इसे और अधिक नहीं सह सका। उसका स्थान कौन लेता? परमेश्वर के क्रोध और परमेश्वर के दंड का आगमन।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I

परमेश्वर अपना कोप इसलिए भेजता है, क्योंकि अन्यायपूर्ण, नकारात्मक और दुष्ट चीज़ें न्यायोचित और सकारात्मक चीजों की सामान्य गतिविधि और विकास को बाधित, अवरुद्ध या नष्ट करती हैं। परमेश्वर के क्रोध का लक्ष्य अपनी हैसियत और पहचान की रक्षा करना नहीं है, बल्कि न्यायोचित, सकारात्मक, सुंदर और अच्छी चीजों के अस्तित्व की रक्षा करना, मनुष्य के सामान्य अस्तित्व की विधियों और व्यवस्था की रक्षा करना है। यह परमेश्वर के कोप का मूल कारण है। परमेश्वर का कोप उसके स्वभाव का बिल्कुल उचित, स्वाभाविक और वास्तविक प्रकाशन है। उसके कोप के कोई गुप्त अभिप्राय नहीं हैं, न ही उसमें छल या षड्यंत्र हैं; इच्छाएँ, चतुराई, द्वेष, हिंसा, दुष्टता या भ्रष्ट मनुष्य में पाई जाने वाले अन्य लक्षणों होने की तो बात ही छोड़ दो। अपना कोप भेजने से पहले परमेश्वर हर मामले के सार को पहले ही पर्याप्त स्पष्टता और पूर्णता के साथ जान चुका होता है, और उसने पहले ही सटीक, स्पष्ट परिभाषाएँ और निष्कर्ष निरूपित कर लिए होते हैं। इस प्रकार, परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले हर कार्य में उसका उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट होता है, जैसे कि उसका रवैया स्पष्ट होता है। वह नासमझ, अंधा, आवेशपूर्ण या लापरवाह नहीं है, और वह निश्चित रूप से सिद्धांतहीन नहीं है। यह परमेश्वर के कोप का व्यावहारिक पहलू है, और परमेश्वर के कोप के इस व्यावहारिक पहलू के कारण ही मनुष्य ने अपना सामान्य अस्तित्व हासिल किया है। परमेश्वर के कोप के बिना मनुष्य असामान्य जीवन-स्थितियों में पतित हो जाता और सभी न्यायोचित, सुंदर और अच्छी चीजों को नष्ट कर दिया जाता और वे अस्तित्व में न रहतीं। परमेश्वर के कोप के बिना सृजित प्राणियों के अस्तित्व के नियम और विधियाँ तोड़ दी जातीं या पूरी तरह से उलट दी जातीं। मनुष्य के सृजन के समय से ही परमेश्वर ने मनुष्य के सामान्य अस्तित्व की रक्षा करने और उसे कायम रखने के लिए अपने धार्मिक स्वभाव का निरंतर इस्तेमाल किया है। चूँकि उसके धार्मिक स्वभाव में कोप और प्रताप का समावेश है, इसलिए सभी दुष्ट लोग, चीज़ें और पदार्थ, और मनुष्य के सामान्य अस्तित्व को परेशान करने और उसे क्षति पहुँचाने वाली सभी चीज़ें उसके कोप के परिणामस्वरूप दंडित, नियंत्रित और नष्ट कर दी जाती हैं। पिछली कई सहस्राब्दियों से परमेश्वर ने सभी प्रकार की अशुद्ध और बुरी आत्माओं को, जो परमेश्वर का विरोध करती हैं और मनुष्य का प्रबंधन करने के परमेश्वर के कार्य में शैतान के सहयोगियों और अनुचरों के रूप में कार्य करती हैं, मार गिराने और नष्ट करने के लिए अपने धार्मिक स्वभाव का लगातार इस्तेमाल किया है। इस प्रकार, मनुष्य के उद्धार का परमेश्वर का कार्य उसकी योजना के अनुसार सदैव आगे बढ़ता गया है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर के कोप के अस्तित्व के कारण मानवजाति के बीच के सर्वाधिक न्यायसंगत कार्य कभी नष्ट नहीं किए गए हैं।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II

मेरा कार्य केवल छह हज़ार वर्ष तक चलता है और मैंने वादा किया कि समस्त मानवजाति पर उस दुष्ट का नियंत्रण भी छह हजार वर्षों से अधिक तक नहीं रहेगा। इसलिए, अब समय पूरा हुआ। मैं अब और न तो जारी रखूँगा और न ही विलंब करूँगा : अंत के दिनों के दौरान मैं शैतान को परास्त कर दूँगा, मैं अपनी संपूर्ण महिमा वापस ले लूँगा और मैं पृथ्वी पर उन सभी आत्माओं को वापस प्राप्त करूँगा जो मुझसे संबंधित हैं, ताकि ये व्यथित आत्माएँ दुःख के सागर से बच सकें और इस प्रकार पृथ्वी पर मेरे समस्त कार्य का समापन होगा। इस दिन के बाद, मैं पृथ्वी पर फिर कभी भी देहधारी नहीं बनूँगा और फिर कभी भी पूर्ण-नियंत्रण करने वाला मेरा आत्मा पृथ्वी पर कार्य नहीं करेगा। मैं पृथ्वी पर केवल एक कार्य करूँगा : मैं मानवजाति को पुनः बनाऊँगा, ऐसी मानवजाति जो पवित्र हो और जो पृथ्वी पर मेरा विश्वसनीय शहर हो। पर जान लो कि मैं संपूर्ण संसार को जड़ से नहीं मिटाऊँगा, न ही मैं समस्त मानवजाति को जड़ से मिटाऊँगा। मैं उस शेष तृतीयांश को रखूँगा—वह तृतीयांश जो मुझसे प्रेम करता है और मेरे द्वारा पूरी तरह से जीत लिया गया है और मैं इस तीसरे तृतीयांश को फलदायी बनाऊँगा और पृथ्वी पर कई गुना बढ़ाऊँगा, ठीक वैसे जैसे इस्राएली व्यवस्था के तहत फले-फूले थे, उन्हें ख़ूब सारी भेड़ों और मवेशियों और पृथ्वी की सारी समृद्धि के साथ पोषित करूँगा। यह मानवजाति हमेशा मेरे साथ रहेगी, मगर यह आज की बुरी तरह से गंदी मानवजाति की तरह नहीं होगी, बल्कि ऐसी मानवजाति होगी, जो उन सभी लोगों का जनसमूह होगी जो मेरे द्वारा प्राप्त कर लिए गए हैं। इस प्रकार की मानवजाति को शैतान नष्ट, परेशान नहीं कर पाएगा या घेर नहीं पाएगा और ऐसी एकमात्र मानवजाति होगी जो मेरे द्वारा शैतान पर विजय प्राप्त करने के बाद पृथ्वी पर विद्यमान रहेगी। यही वह मानवजाति है, जो आज मेरे द्वारा जीत ली गई है और जिसे मेरी प्रतिज्ञा हासिल है। और इसलिए, अंत के दिनों के दौरान मेरे द्वारा जीती गई मानवजाति वह मानवजाति भी होगी, जिसे बख़्श दिया जाएगा और जिसे मेरे अनंत आशीष प्राप्त होंगे। शैतान पर मेरी विजय का यही एकमात्र सुबूत होगा और शैतान के साथ मेरे युद्ध का एकमात्र विजयोपहार होगा। युद्ध के ये विजयोपहार मेरे द्वारा शैतान की सत्ता से बचाए गए हैं और ये ही मेरी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना के ठोस-रूप और परिणाम हैं। ये विश्वभर के हर राष्ट्र और संप्रदाय, हर स्थान और देश से हैं। ये भिन्न-भिन्न जातियों के हैं, भिन्न-भिन्न भाषाओं, रीति-रिवाजों और त्वचा के रंगों वाले हैं और ये विश्व के हर देश और संप्रदाय में और यहाँ तक कि संसार के हर कोने में भी फैले हैं। अंततः वे पूर्ण मानवजाति बनाने के लिए साथ आएंगे, मनुष्यों का ऐसा जनसमूह, जिस तक शैतान की ताकतें नहीं पहुँच सकतीं। मानवजाति के बीच जिन लोगों को मेरे द्वारा बचाया और जीता नहीं गया है, वे ख़ामोशी से समुद्र की गहराइयों में डूब जाएँगे, और मेरी भस्म करने वाली लपटों द्वारा हमेशा के लिए जला दिए जाएँगे। मैं इस पुरानी, अत्यधिक गंदी मानवजाति को जड़ से उसी तरह मिटाऊँगा, जैसे मैंने मिस्र की पहली संतानों और मवेशियों को जड़ से मिटाया था, केवल इस्राएलियों को छोड़ा था, जिन्होंने मेमने का माँस खाया, मेमने का लहू पिया और अपने दरवाज़े की चौखटों को मेमने के लहू से चिह्नित किया। क्या जो लोग मेरे द्वारा जीत लिए गए हैं और मेरे परिवार के हैं, वे भी ऐसे लोग नहीं, जो उस मेमने का माँस खाते हैं जो मैं हूँ और उस मेमने का लहू पीते हैं जो मैं हूँ और जिन्हें मेरे द्वारा छुटकारा दिलाया गया है और जो मेरी आराधना करते हैं? क्या ऐसे लोगों के साथ हमेशा मेरी महिमा नहीं बनी रहती? क्या वे लोग जो उस मेमने के माँस के बिना हैं, जो मैं हूँ, पहले ही चुपचाप सागर की गहराइयों में नहीं डूब गए हैं?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कोई भी जो देह में है, कोप के दिन से नहीं बच सकता

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