10. मेरी ज्यादा उम्मीदों ने मेरे बेटे को नुकसान पहुँचाया
जब मैं छोटी थी तो घर में पाँच भाई-बहन थे और मैं सबसे बड़ी थी। मेरे पिता काम के सिलसिले में बरसों घर से दूर रहे और घर की सारी जिम्मेदारियाँ माँ के कंधों पर आ गईं। मैंने देखती थी कि माँ बहुत ज्यादा काम करती है और उसे बहुत तकलीफें उठानी पड़ती हैं, मैंने तीसरी कक्षा में ही स्कूल की पढ़ाई छोड़ दी और खेती के काम में माँ का हाथ बटाना शुरू कर दिया। मैं अक्सर इतना थक जाती कि मेरी कमर और पीठ में दर्द होने लगता था। मुझे लगता ऐसा जीवन बहुत कठिन है। मेरे चचेरे भाई को कॉलेज में प्रवेश मिल गया, इससे पूरा परिवार बहुत खुश था। नाम रोशन करने के कारण मेरे माता-पिता अक्सर उसकी तारीफ करते। उस समय मेरे मन में एक विचार आया : जीवन भर मुझे अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाई या कुछ बनने का मौका नहीं मिला, लेकिन जब मेरी शादी होगी और बच्चे होंगे, तो मैं पक्का उन्हें बड़ा आदमी बनाऊँगी ताकि उन्हें हमारी तरह खटना न पड़े, सगे-संबंधियों और पड़ोसियों से प्रशंसा और सम्मान पाएँ जिससे परिवार का नाम रोशन हो।
शादी के बाद मेरे दो बच्चे हुए। जब वे प्राथमिक विद्यालय में थे तो मेरी माँ परमेश्वर में आस्था रखने लगी। कभी-कभी वह बच्चों को साथ बिठाकर प्रार्थना करती, बच्चे भी माँ को पढ़ना सिखाते। लेकिन उस समय मैं पूरे दिल से यही चाहती थी कि मेरे बच्चे पढ़ाई करें, जब मैंने यह देखा तो मैंने माँ से कहा, “आपको जिसमें विश्वास रखना है रखो, लेकिन मेरे बच्चों के साथ सभा करके उनकी पढ़ाई में बाधा मत डालो।” आगे चलकर मैंने भी परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर लिया, लेकिन मैं अपने बच्चों की पढ़ाई और ग्रेड पर विशेष ध्यान देती रही, कभी-कभार मैं सभाओं में जाती भी तो बस औपचारिकताएँ पूरी करती थी। कुछ और पैसे कमाने और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए, मैं कचरा-पट्टी इकट्ठा करने अपने पति के साथ जगह-जगह जाती। मैं सुबह से शाम तक काम करके इतनी थक जाती थी कि मेरा पूरा शरीर दर्द करने लगता लेकिन आराम नहीं करती थी। मेरे दिमाग में बस एक ही बात घूमती रहती थी : चाहे कितना भी खटना पड़े, मुझे बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलानी है ताकि आगे चलकर उन्हें किसी अच्छे कॉलेज में दाखिला मिले और उनका भविष्य उज्ज्वल हो। इसके लिए मुझे चाहे कितना भी पसीना बहाना पड़े, वह सार्थक होगा!
एक बार मैं अपने बच्चों से मिलने घर गई और जब माँ ने मुझे बताया कि मेरे बेटे के अंक कम आए हैं, तो मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने अपने बेटे को काफी लताड़ा और कहा, “तुम्हें लगता है कि मेरे लिए बाहर जाकर पैसा कमाना आसान है? हम जैसे कूड़ा-कचरा इकट्ठा करने वालों को लोग नीची नजरों से देखते हैं—क्या मैं यह अपमान तुम दोनों के लिए ही नहीं झेल रही हूँ? अगर तुम लोग मेहनत से पढ़ाई नहीं करोगे तो क्या करोगे?” मेरे बेटे ने रोते-रोते कहा, “माँ, मुझसे गलती हो गई।” मुझे लगा माँ दोनों बच्चों को संभाल नहीं पाएगी और उनकी पढ़ाई खराब होगी, यह सोचकर मैंने बच्चों के स्कूल के बगल में ही एक जगह किराए पर लेकर एक छोटा-सा करोबार शुरु कर दिया, इससे मुझे अपने दोनों बच्चों की पढ़ाई पर तब तक नजर रखने का मौका मिल गया जब तक कि वे हाई स्कूल में नहीं चले गए। उस दौरान मैंने अपना सारा ध्यान बच्चों पर ही केंद्रित रखा : बच्चों को कॉलेज में दाखिला दिलाने के लिए, मैं उनकी पढ़ाई पर कड़ी नजर रखती और उन्हें एक मिनट भी खाली नहीं बैठने देती थी। अगर बाथरूम में ज्यादा समय लगाते तो मैं चिल्लाकर जल्दी बाहर आने को कहती; जब कभी बाहर जाकर खेलने, टीवी देखने या आराम करने की इच्छा जाहिर करते, तो मैंने उन्हें डाँटकर कहती, “अपने चाचा को देखो : उन्होंने कितने नामी कॉलेज में दाखिला लिया और नौकरी भी कितनी इज्जत वाली मिली है। सारे रिश्तेदार और पास-पड़ोसी सब उनकी कितनी तारीफ करते हैं। तुम्हें अपने चाचा से सीखना चाहिए। अगर अभी कष्ट सहकर खूब ज्ञान हासिल नहीं करोगे, तो बाद में तुम्हें अच्छा जीवन कैसे मिलेगा? एक कहावत है, ‘शीर्ष पर पहुँचने के लिए तुम्हें बड़ी पीड़ा सहनी होगी।’” कभी-कभी मैं उन्हें महापुरुषों की कहानियाँ भी सुनाती कि वे कितनी लगन से पढ़ाई करते थे, ताकि बच्चों में पढ़ने का जोश पैदा हो। बच्चे ऊबकर कहते, “माँ, बस हो गया। हमें आपकी एक-एक बात रट गई है। आप चिंता मत करो, हमें पक्का कॉलेज में दाखिला मिलेगा!” उस दौरान मैं रोज सुबह 5 बजे उठकर नाश्ता बनाती, ताकि बच्चों का समय बचे, मैं शाम को ही उनका डिनर बनाकर स्कूल पहुँचा आती ताकि वे वहीं खाना खा लें। जब वे शाम को देर से स्कूल की पढ़ाई खत्म करके घर आते, तो घर आते ही फिर से पढ़ने बैठ जाते। मुझे डर रहता कहीं उन्हें नींद न आ जाए, तो मैं अक्सर आधी रात तक उनके साथ जगती। उनके रोजमर्रा के जीवन में मैं उन्हें संतुलित आहार देने के तरीके सोचती रहती : मैंने सुना था हरी सब्जियों का सूप सेहत के लिए अच्छा होता है, तो मैं खाने में उन्हें वही देती, और मस्तिष्क के टॉनिक के रूप में मैं उन्हें दूध में बादाम रोगन देने लगी। मैं उन्हें रोज खाने को अंडा भी देने लगी। मैं जो भी सुनती कि बच्चों की सेहत के लिए अच्छा है, वही खरीद लेती। मैं यह सब कुछ बच्चों को होशियार बनाने के लिए करती ताकि वे पढ़ाई में अच्छे अंक लाएँ। दोनों बच्चे वाकई कड़ी मेहनत कर रहे थे और उनके ग्रेड बढ़ते जा रहे थे। मेरी बेटी को आखिरकार कॉलेज में प्रवेश मिल गया और मेरे बेटे के मॉक परीक्षा ग्रेड ने उसे शीर्ष छात्रों में पहुँचा दिया। मैं बहुत खुश थी, मुझे लगा, “अगर हम इसी तरह आगे बढ़ते रहे, तो मेरे बेटे के लिए किसी प्रमुख विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना कोई समस्या नहीं होगी।” अब तो मैं अपने बेटे पर और भी कड़ी नजर रखने लगी।
जैसे-जैसे कॉलेज की प्रवेश परीक्षाएँ नजदीक आ रही थीं, दबाव के कारण मेरे बेटे का तनाव बढ़ता जा रहा था, वह रात-रात भर सो नहीं पाता था। आखिरकार वह बीमार हो गया, उसे बुखार और खांसी होने लगी। दवाएँ लेने और इंजेक्शन लगवाने से कोई असर नहीं हो रहा था और उसके ग्रेड गिरते जा रहे थे। उसकी हालत देखकर मैं अंदर ही अंदर बहुत दुखी थी। मुझे डर था कि अगर उसने पढ़ाई जारी रखी तो उसका शरीर इसे बर्दाश्त नहीं कर पाएगा, लेकिन निर्णायक घड़ी आने वाली थी। मेरे बेटे की बीमारी में अभी भी सुधार नहीं हुआ था और उसके ग्रेड गिरते जा रहे थे—अब उसका भविष्य कैसे सँवरेगा? अगर वह परीक्षा में अच्छा नहीं कर पाया तो क्या पिछले कुछ सालों की मेरी मेहनत बेकार नहीं चली जाएगी? मुझे यह मंजूर न था। अगर मेरे बेटे को अच्छे अंक लाने हैं और अपना भविष्य बनाना है, तो मुझे उसे ओवरटाइम पढ़ाई करवाते रहनी पड़ेगी। उसके बाद मैं हर रोज उसके सिरहाने बैठ जाती और अपने बेटे को पढ़ाई करते देखती। एक दिन जब मेरे बेटे ने मुझे उसे घूरते हुए देखा तो उसने बेबस होकर कहा, “अगर भविष्य में मेरे बच्चे होंगे, तो मैं उन्हें ऐसे पढ़ाई बिल्कुल नहीं कराऊँगा जैसे आप कराती हैं। मैं उन्हें थोड़ी-बहुत आजादी दूँगा और उन्हें बास्केटबॉल या पिंग पोंग जैसे खेल खेलने दूँगा।” जब मेरे बेटे ने यह बात कही तो मेरे दिल को बहुत चोट पहुँची, लेकिन उसे भीड़ से अलग दिखने और उसका भविष्य अच्छा बनाने के लिए, मुझे यह करना ही था। जब मैंने देखा कि मेरे बेटे की बीमारी में अभी भी कोई सुधार नहीं हुआ है तो मैं बेहद घबरा गई और सोचने लगी, “अगर कॉलेज में दाखिले की परीक्षा तक मेरे बेटे की तबियत में सुधार नहीं हुआ तो इसका असर जरूर उसके प्रदर्शन पर पड़ेगा। अगर संयोग से उसकी परीक्षा खराब हुई तो क्या मेरी सारी मेहनत पर पानी नहीं जाएगा? रिश्तेदारों और पड़ोसियों के आगे मैं हँसी की पात्र बन जाऊँगी। मैंने इतनी मेहनत की और इतनी बड़ी कीमत चुकाई, लेकिन अंत में मुझे हासिल कुछ नहीं हुआ। मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा?” अपने बेटे की बीमारी को जल्द से जल्द ठीक कराने के लिए मैं इलाज के लिए डॉक्टरों पास दर-दर भटकी, लेकिन मेरे बेटे की बीमारी में अभी भी कोई सुधार नहीं हुआ था। हर दिन मेरा चेहरा चिंता से बिगड़ने लगा था और मेरी साँसें भारी होने लगी थीं, बस यही सोचती रहती कि मेरे बेटे की बीमारी कब ठीक होगी। जब सारे रास्ते बंद होते नजर आए तो मुझे याद आया कि मैं एक ईसाई हूँ, मुझे इन कठिनाइयों को परमेश्वर को सौंपकर उससे आस लगानी चाहिए। फिर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मेरे बेटे ने अपनी बीमारी के लिए दवाइयाँ लीं, इंजेक्शन लगवाए लेकिन फिर भी उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। कॉलेज प्रवेश परीक्षा सिर पर आ गई और मुझे कुछ सूझ नहीं रहा। हे परमेश्वर, मुझे गारंटी दे कि मेरे बेटे की बीमारी में जल्द ही सुधार आएगा।” एक रात जब मैं बाहर घूम रही थी तो मेरी मुलाकात एक बहन से हुई। उस बहन ने मेरा हालचाल पूछा। मैंने बहन को अपनी पीड़ा बताई, उसने मेरे साथ संगति करते हुए कहा, “हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। तुम्हें अपने बेटे की पढ़ाई और उसकी बीमारी का जिम्मा परमेश्वर को सौंप देना चाहिए—परमेश्वर को इसकी देखभाल करने दो।” बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर सुनाया : “मनुष्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों से नियंत्रित होता है। तुम स्वयं को नियंत्रित करने में असमर्थ हो : हमेशा अपनी ओर से भाग-दौड़ करते रहने और व्यस्त रहने के बावजूद मनुष्य स्वयं को नियंत्रित करने में अक्षम रहता है। यदि तुम अपने भविष्य की संभावनाओं को जान सकते, यदि तुम अपने भाग्य को नियंत्रित कर सकते, तो क्या तुम तब भी एक सृजित प्राणी होते? ... और इसलिए, परमेश्वर मनुष्य को चाहे जैसे भी ताड़ित करता हो या चाहे जैसे भी उसका न्याय करता हो, यह सब मनुष्य के उद्धार के वास्ते ही है। यद्यपि वह मनुष्य को उसकी दैहिक आशाओं से वंचित कर देता है, पर यह मनुष्य को शुद्ध करने के वास्ते है, और मनुष्य का शुद्धिकरण इसलिए किया जाता है, ताकि वह जीवित रह सके। मनुष्य की मंज़िल सृजनकर्ता के हाथ में है, तो मनुष्य स्वयं को नियंत्रित कैसे कर सकता है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना)। परमेश्वर के वचन सुनकर मुझे मैं समझ आया कि एक सृजित प्राणी के लिए, परमेश्वर ने निर्धारित कर दिया है कि किसी इंसान को इस जीवन में कितना कष्ट सहना चाहिए और कितने आशीषों का आनंद लेना चाहिए—उसे कोई बदल नहीं सकता। लोग हर चीज के बारे में अपने भाग्य और भविष्य की संभावनाओं के संदर्भ में सोचते हैं, वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए इधर-उधर भागते-फिरते हैं और खुद को व्यस्त रखते हैं, लेकिन चाहे वे कितना भी पैसा कमा लें या कितनी भी ऊँची शिक्षा हासिल कर लें, वे अपना या बाकी लोगों का भाग्य नहीं बदल सकते। मैंने सोचा कि कैसे उत्कृष्ट बनने और अपने परिवार का नाम रोशन करने के लिए, एक बेहतरीन जीवन जीने के लिए, जिन सपनों को मैं अपने लिए साकार नहीं कर पाई, उन्हें मैंने अपने बच्चों पर डाल दिया, उनके लिए खपकर इतना संघर्ष किया। उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए मेरे पति और मैंने काम करने और पैसे कमाने के लिए मेहनत की और जब हमारा शरीर साथ नहीं दे रहा था तब भी हम खटते रहे। जब तक हमारे बच्चे अच्छा करते रहे, तब तक सारी पीड़ा और थकावट हमें सार्थक लगी। मेरे बच्चों को प्रतिष्ठित कॉलेज में प्रवेश मिल जाए, यह सोचकर मैंने उन्हें कोई छूट नहीं दी। मेरा बेटा बुरी तरह तनाव में था और कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था, जबकि उसे ठीक से नींद भी नहीं आती थी। मेरी नजर उसकी पढाई पर रहती, जबकि वह खाँस रहा था और बीमार था। मैंने अपने बेटे के दिमाग पर दबाव बनाए रखने के अलावा कुछ नहीं किया, मैंने उसे बेहिसाब पीड़ा दी। उसे नियंत्रित किया और उसकी किस्मत बदलने की महत्वाकांक्षाएँ रखीं—यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को समर्पित होना नहीं था; यह परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करना था! इसका एहसास होने पर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मैं अपने बेटे का भविष्य उसके हाथों में सौंपने को तैयार हूँ, चाहे उसे कॉलेज में प्रवेश मिले या न मिले, चाहे जो हो जाए, मैं अपने बेटे पर फिर कभी इस तरह का दबाव नहीं डालूँगी। इसके बाद मेरे दिल को भी थोड़ी राहत मिली। कुछ ही दिनों बाद, मैंने सुना कि हमारी बिल्डिंग की तीसरी मंजिल पर रहने वाला एक लड़का अपने तीसरे साल की पढ़ाई के दबाव के कारण अचानक अपने होश खो बैठा; वह रात-दिन अपने माता-पिता पर चिल्लाता था, “तुम लोगों ने ही मुझे बर्बाद किया है! तुम लोगों ने ही मुझे बर्बाद किया है!” उस समय मुझे बहुत डर लगा, पढ़ाई के लिए अपने बेटे को मजबूर करने का हर दृश्य मेरी आँखों के सामने एक फिल्म की तरह घूम गया। मुझे चिंता हुई कि अगर मैं अपने बेटे को इसी तरह पढ़ाई के लिए मजबूर करती रही, कहीं मेरा बेटा भी तो उस लड़के जैसा नहीं बन जाएगा? मैंने सोचा, “अब मैं अपने बच्चे को इस तरह और मजबूर नहीं करूँगी।” उस दिन से मैंने नियमित रूप से सभाएँ करना और परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना शुरू कर दिया, मैंने फिर कभी अपने बेटे को पढ़ाई के लिए मजबूर नहीं किया।
उसके बाद मेरे बेटे को अचानक ही एक प्रमुख विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया। मैं बहुत खुश थी, लेकिन जब खुशी का दौर कम हुआ तो मेरा दिल अस्थिर हो गया। क्योंकि परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने यह भी समझा कि ज्ञान में कई नास्तिक विचार और दृष्टिकोण समाहित हैं। इंसान जितना अधिक ज्ञान हासिल करता है, उतना ही शैतान का जहर उसके अंदर समाता जाता है। ये चीजें लोगों को परमेश्वर से दूर कर देती हैं और वे उसे नकारने लगते हैं और अंततः अपना उद्धार गँवा बैठते हैं। अगर मेरा बेटा कुछ सालों के लिए कॉलेज चला गया और उसके अंदर शैतान की बहुत-सी भ्रांतियाँ भर गईं, तो उसके लिए परमेश्वर के सामने आना मुश्किल होगा, इसलिए मैंने सोचा कि जब वह वापस आएगा तो मैं उसके साथ बैठकर उसे परमेश्वर के वचन खाने और पीने को कहूँगी और उसे परमेश्वर से बहुत दूर नहीं जाने दूँगी। मेरे बच्चे जब छोटे थे तो वे परमेश्वर में विश्वास रखते थे और अपनी नानी के साथ प्रार्थना और सभाएँ तक करते थे, लेकिन उस दौरान मैं पूरे दिल से चाहती थी कि वे अच्छी शिक्षा प्राप्त करें, मैं उन्हें परमेश्वर के सामने नहीं लाना चाहती थी। अब मैंने देखा कि आपदा निरंतर बड़ी होती जा रही है। मेरे बच्चे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते थे, न ही उनके पास परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा थी—ऐसा न हो वे किसी दिन आपदा का सामना करें और प्राण गँवा बैठें। मैं अपने बच्चों में सुसमाचार फैलाकर उन्हें परमेश्वर के सामने लाना चाहती थी। जब वे छुट्टियों में वापस आते तो मैं उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाती। जब मैं उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाती तो वे सुनते, लेकिन जैसे ही मैं सभा का आयोजन करने की बात करती तो बेटा तैयार न होता। वह मुझे यह कहते हुए चले जाने को कहता, “मैं बहुत व्यस्त हूँ! आज मैं जिस मुकाम पर हूँ वहाँ पहुँचना मेरे लिए आसान नहीं था; अगर मैं कड़ी मेहनत से पढ़ाई नहीं करूँगा तो मेरी जिंदगी अच्छी कैसे बनेगी? इस वक्त प्रतिस्पर्धा बहुत कड़ी है और इज्जत की नौकरी पाना आसान नहीं है। मुझे समझ में नहीं आता : मैं मास्टर डिग्री ले चुका हूँ और पीएचडी की पढ़ाई कर रहा हूँ—आप यही तो हमेशा चाहती थीं न? मैं सफलता और पहचान की दहलीज पर हूँ और आखिरकार एक अच्छा जीवन जीने वाला हूँ—आपको मेरे लिए खुश होना चाहिए। ऐसा क्यों लगता है कि आप एक अलग व्यक्ति बन गई हैं, मुझे आखिरी समय में पीछे हटने को कह रही हैं?” जब मैंने अपने बेटे की बात सुनी, तो मुझे बेहद दुख हुआ। वह वही सब बातें कह रहा था जो मैं हर दिन उसके कानों में डाला करती थी। खास तौर पर अब जब मेरा बेटा अपने शोध प्रबंध में व्यस्त था, वह रात को एक-डेढ़ बजे तक जागता रहता था। बीस की उम्र में ही उसके सिर के बाल झड़ने लगे थे। जब मैंने देखा कि मेरा बेटा कितना क्षीण हो गया है तो मुझे चिंता और दुख हुआ, मुझे खुद से नफरत होने लगी कि मैं कैसे उस समय पढ़ाई के लिए अपने बच्चे के पीछे पड़ी रहती थी। अब जब मैंने उसे लायक बना दिया तो वह परमेश्वर से दूर चला गया।
फिर मैंने सोचा : मैंने अपने बच्चों को ज्ञान, प्रसिद्धि और लाभ पाने के लिए पूरी जान लगा दी, पूरी निष्ठा से उन्हें प्रतिभावान बनाया, लेकिन आखिरकार मैंने अपने बच्चों को दिया क्या? क्या मैं उन्हें सच्ची खुशी दे पाई? एक दिन आध्यात्मिक भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब परिवार से आने वाले बोझों की बात आती है, तो हम इसके दो पहलुओं पर चर्चा कर सकते हैं। एक पहलू है माता-पिता की अपेक्षाएँ। प्रत्येक माता-पिता या बड़े-बुजुर्गों की अपने बच्चों से अलग-अलग छोटी-बड़ी अपेक्षाएँ होती हैं। वे आशा करते हैं कि उनके बच्चे मेहनत से पढ़ाई करेंगे, अच्छा बर्ताव करेंगे, स्कूल में अव्वल रहेंगे, सबसे श्रेष्ठ अंक प्राप्त करेंगे और कभी नहीं पिछड़ेंगे। वे चाहते हैं कि उनके बच्चों को शिक्षक और सहपाठी आदर से देखें, और उनके ग्रेड नियमित रूप से 80 से ऊपर हों। अगर बच्चे को 60 अंक मिले, तो उसकी पिटाई हो जाएगी, और 60 से कम मिले, तो उसे दीवार की ओर मुँह करके खड़े होकर अपनी गलतियों के बारे में सोचना पड़ेगा, या उन्हें बिना हिले खड़े रहने की सजा मिलेगी। उन्हें खाने, सोने, टीवी देखने और कंप्यूटर पर खेलने नहीं दिया जाएगा, और बढ़िया कपड़ों और खिलौनों का जो वायदा पहले किया गया था वे चीजें अब उसके लिए नहीं खरीदी जाएँगी। सभी माता-पिता अपने बच्चों से तरह-तरह की अपेक्षाएँ और बड़ी-बड़ी आशाएँ रखते हैं। वे आशा करते हैं कि उनके बच्चे जीवन में सफल होंगे, करियर में तेजी से तरक्की करेंगे, और अपने पूर्वजों और परिवार का सम्मान और गौरव बढ़ाएँगे। ... तो माता-पिता की ये अभिलाषाएँ अनजाने ही उनके बच्चों के लिए क्या तैयार करती हैं? (दबाव।) ये दबाव बनाती हैं, इसके अलावा और क्या? (बोझ।) ये दबाव बन जाती हैं और ये जंजीरें भी बन जाती हैं। चूँकि माता-पिता अपने बच्चों से अपेक्षाएँ रखते हैं, इसलिए वे उन अपेक्षाओं के अनुसार अपने बच्चों को अनुशासित, मार्गदर्शित और शिक्षित करेंगे; वे अपनी अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए अपने बच्चों में निवेश भी करेंगे, या उसके लिए कोई कीमत भी चुकाएँगे। मिसाल के तौर पर, माता-पिता आशा करते हैं कि उनके बच्चे स्कूल में उत्कृष्ट होंगे, कक्षा में अव्वल रहेंगे, हर परीक्षा में 90 अंक से ऊपर लाएँगे, हमेशा प्रथम रहेंगे—या कम-से-कम पांचवें स्थान से कभी नीचे नहीं गिरेंगे। ये अपेक्षाएँ व्यक्त करने के बाद, क्या साथ ही माता-पिता ये लक्ष्य पाने में अपने बच्चों की मदद करने के लिए कुछ त्याग भी नहीं करते हैं? (बिल्कुल।) ये लक्ष्य पाने हेतु बच्चे पाठ दोहराने और इबारत याद करने के लिए सुबह जल्दी उठ जाएँगे, और उनका साथ देने के लिए उनके माता-पिता भी जल्दी उठ जाएँगे। गर्मी के दिनों में वे अपने बच्चों के लिए पंखा करेंगे, ठंडा पेय बना कर देंगे, या उनके लिए आइसक्रीम खरीदेंगे। वे सुबह सबसे पहले उठ जाएँगे ताकि अपने बच्चों के लिए सोया दूध, तली हुई ब्रेड स्टिक्स, और अंडे बना सकें। खास तौर से परीक्षाओं के समय माता-पिता अपने बच्चों को तली हुई ब्रेडस्टिक और दो अंडे खिलाएँगे, इस उम्मीद से कि इससे उन्हें 100 अंक पाने में मदद मिलेगी। अगर तुम कहोगे, ‘मैं ये सब नहीं खा सकता, बस एक अंडा काफी है,’ तो वे कहेंगे, ‘बेवकूफ बच्चा, तू एक अंडा खाएगा, तो तुझे सिर्फ दस अंक मिलेंगे। मम्मी के लिए एक और खा। पूरी कोशिश कर; अगर ये खा लेगा तो तुझे पूरे सौ अंक मिलेंगे।’ बच्चा कहेगा, ‘अभी-अभी उठा हूँ, अभी नहीं खा सकता।’ ‘नहीं, तुझे खाना पड़ेगा! अच्छा बच्चा बन, माँ की बात मान ले। मम्मी यह तेरे ही भले के लिए कर रही है, आ जा, इसे अपनी माँ के लिए खा ले।’ बच्चा सोच-विचार करता है, ‘माँ को बहुत परवाह है। वह जो भी करती है मेरे भले के लिए ही करती है, इसलिए मैं ये खा लूँगा।’ जो खाया गया वह अंडा था, मगर वास्तव में क्या निगला गया? यह दबाव था; अरुचि और अनिच्छा थी। खाना अच्छी बात है और उसकी माँ की अपेक्षाएँ ऊँची हैं, मानवता और जमीर के दृष्टिकोण से व्यक्ति को उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, लेकिन तार्किक आधार पर, ऐसे प्यार का प्रतिरोध करना चाहिए और काम करने के ऐसे तरीके को स्वीकार नहीं करना चाहिए। ... खास तौर से, कुछ माता-पिता अपने बच्चों से कुछ विशेष अपेक्षाएँ रखते हैं, और आशा करते हैं कि वे उनके पार जा सकेंगे, और ऐसी भी आशा करते हैं कि उनके बच्चे उनकी वह अभिलाषा पूरी कर दिखाएँगे जो वे पूरी नहीं कर पाए। मिसाल के तौर पर, हो सकता है कि कुछ माता-पिता खुद नर्तक-नर्तकी बनना चाहते रहे हों, मगर विविध कारणों—जैसे कि उनके बड़े होने के समय या पारिवारिक हालात—के चलते वे अंत में वह अभिलाषा पूरी नहीं कर पाए। इसलिए वे इस अभिलाषा को तुम्हारे ऊपर थोप देते हैं। पढ़ाई में सबसे श्रेष्ठ होने और एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला पाने की अपेक्षा रखने के साथ-साथ वे तुम्हें नृत्य कक्षाओं में भी डाल देते हैं। वे तुम्हें स्कूल के बाहर तरह-तरह की नृत्य शैलियाँ सीखने, नृत्य कक्षा में ज्यादा सीखने, घर में और अभ्यास करने और अपनी कक्षा में सबसे श्रेष्ठ बनने में लगा देते हैं। अंत में, वे तुमसे सिर्फ यह माँग नहीं करते कि एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला लो, बल्कि यह भी कि तुम एक नर्तक या नर्तकी बन जाओ। तुम्हारे सामने विकल्प या तो नर्तक-नर्तकी बनने का है या प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने का, जिसके बाद तुम्हें स्नातक स्कूल में जाना और फिर पीएच.डी. हासिल करना होगा। तुम्हारे चुनने के लिए बस यही दो पथ हैं। अपनी अपेक्षाओं में, एक ओर तो वे आशा करते हैं कि तुम स्कूल में कड़ी मेहनत से पढ़ोगे, किसी प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में प्रवेश करोगे, अपने साथियों से श्रेष्ठ बनोगे, और एक समृद्ध और गौरवशाली भविष्य बनाओगे। दूसरी ओर, वे अपनी अधूरी अभिलाषाएँ तुम पर थोप देते हैं, और आशा करते हैं कि उनके एवज में ये तुम पूरी करोगे। इस प्रकार, शिक्षा या अपने भविष्य के करियर के संदर्भ में, तुम एक साथ दो बोझ ढोते हो। एक अर्थ में, तुम्हें उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना होगा, उन्होंने तुम्हारे लिए जो कुछ भी किया है उसका कर्ज चुकाना होगा, और आखिरकार अपने साथियों के बीच ऊँचा उठना होगा ताकि तुम एक बढ़िया जीवन का आनंद ले सको। एक अन्य अर्थ में, तुम्हें वे सपने पूरे करने होंगे जो वे अपनी युवावस्था में पूरे नहीं कर पाए, और उनकी अभिलाषाएँ साकार करने में उनकी मदद करनी होगी। यह थकाऊ है, है कि नहीं? (बिल्कुल।) इनमें से एक बोझ भी तुम्हारे उठाने के लिए पहले ही काफी ज्यादा है; इनमें से एक भी तुम पर इतना भारी पड़ेगा कि तुम्हारी साँस फूलने लगेगी। खास तौर से आज-कल के भयानक स्पर्धा के युग में माता-पिता की अपने बच्चों से की जाने वाली तरह-तरह की माँगें बिल्कुल असहनीय और अमानवीय हैं; ये सरासर अनुचित हैं। गैर-विश्वासी इसे क्या पुकारते हैं? भावनात्मक ब्लैकमेल। गैर-विश्वासी इसे चाहे जो कहें, वे इस समस्या को नहीं सुलझा सकते, और वे इस समस्या के सार को स्पष्ट नहीं समझा सकते। वे इसे भावनात्मक ब्लैकमेल कहते हैं, लेकिन हम इसे क्या कहते हैं? (जंजीरें और बोझ।) हम इसे बोझ कहते हैं। बोझ की बात करें, तो क्या यह ऐसी चीज है जो किसी व्यक्ति को ढोनी चाहिए? (नहीं।) यह कोई अतिरिक्त, कोई फालतू चीज है जो तुम उठाते हो। यह तुम्हारा अंश नहीं है। यह वैसी चीज नहीं है जो तुम्हारे शरीर, दिल या आत्मा में होती है या उनके लिए जरूरी है, बल्कि कोई जोड़ी हुई चीज है। यह बाहर से आती है, तुम्हारे भीतर से नहीं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। जब मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा तो दिल बहुत दुखी हुआ। मैंने अपने बच्चों को इसी तरह तो शिक्षित किया था। मुझे लगता था चूँकि मैंने बचपन में ठीक से पढ़ाई नहीं की या मैं अच्छी शिक्षा नहीं ले पाई, इसी वजह से मुझे छोटी उम्र से ही खेती-बाड़ी करनी पड़ी और बहुत कष्ट सहने पड़े। इसलिए मैंने अपनी अधूरी इच्छाओं को अपने बच्चों पर थोप दिया और चाहा कि वे कड़ी मेहनत से पढ़ाई करें और किसी प्रतिष्ठित कॉलेज में प्रवेश लें, ताकि भविष्य में उनके पास अच्छी संभावनाएं हों, वे दूसरों से अलग दिखें और हमारे परिवार को सम्मान दिलाएं। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, मैंने बचपन से ही उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया था। जब वे छोटे थे तो प्रार्थना और सभा करने के लिए तैयार रहते थे, लेकिन मैं डरती थी कि इससे उनकी पढ़ाई प्रभावित होगी, इसलिए मैंने अपनी माँ को उनके साथ सभा नहीं करने दी। जब उनकी खेलने की उम्र थी तो मैंने उन्हें खेलने नहीं दिया और जब कभी उनके अंक कम हो जाते तो मैं उन्हें डांटती, उनके मन में गलत विचार भरे और उन पर दबाव डाला। मेरा बेटा कॉलेज प्रवेश परीक्षाओं के दबाव के कारण बीमार हुआ; मुझे डर था कि इससे उसके ग्रेड प्रभावित होंगे, इसलिए मैं हर दिन उस पर नजर रखती कि कहीं वह आलसी न हो जाए। मुझे चिंता थी कि अगर उसकी परीक्षा बिगड़ गई तो हमारी सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। मैंने अपने बेटे पर बहुत ज्यादा दबाव डाला था। दिखाने को तो मैं यह सब अपने बेटे के लिए कर रही थी, लेकिन असल में, मैं बस यही चाहती थी कि वह एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में जाए और बाकियों से अलग दिखे, ताकि मेरी तारीफ हो, मेरे आदर्श और इच्छाएँ पूरी हों। बिना सोचे-समझे मैं अपने बेटे पर भारी बोझ और दबाव डालती रही, मानो मैं उसे न दिखने वाली बेड़ियों में जकड़ रही थी। अब मेरे बेटे ने आदर्श शीर्ष संस्थान में प्रवेश पा लिया था और मेरी इच्छाएँ पूरी हो गई थीं, मेरा चेहरा सम्मान से चमक उठा था और मेरा अहंकार संतुष्ट हो गया था, लेकिन मेरा बेटा परमेश्वर से और दूर हो गया था। अब जब मैं उसके साथ आस्था के मामलों पर बात करती, तो वह टालमटोल करता और बहाने बनाता, परमेश्वर के वचन पढ़ने का उसका मन न करता। हर दिन वह प्रसिद्धि और लाभ के बंधन में जकड़ा रहता। वह प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना दिमाग खपाता और व्यक्तिगत संबंधों को संभालने में ही अपना मन-मस्तिष्क थका लेता—उसका जीवन बेहद दयनीय और थकाऊ बन चुका था। अपने बेटे को ऐसा बनाने की जिम्मेदार मैं ही थी।
फिर मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “मिसाल के तौर पर, जब वे छोटे थे, तो तुमने यह कहकर उन्हें निरंतर शिक्षित किया, ‘मेहनत से पढ़ो, कॉलेज जाओ, स्नातकोत्तर पढ़ाई की कोशिश करो, या पीएचडी करो, अच्छी नौकरी ढूँढ़ो, शादी के लिए अच्छा रिश्ता ढूँढ़ो और घर बसाओ, और फिर जीवन अच्छा रहेगा।’ तुम्हारे शिक्षण, प्रोत्साहन और तरह-तरह के दबाव के जरिये तुमने जो रास्ता बनाया उन्होंने उसे जिया और उस पर चलते रहे, उन्होंने तुम्हारी अपेक्षा के अनुसार चीजें हासिल कीं, ठीक वैसे ही जैसा तुम चाहते थे, और अब वे वापस जाने में असमर्थ हैं। अगर अपनी आस्था के कारण कुछ खास सत्यों और परमेश्वर के इरादों को समझ लेने के बाद, और सही विचार और नजरिये प्राप्त कर लेने के बाद, अब तुम उन्हें उन चीजों का अनुसरण न करने की बात बताने की कोशिश करोगे, तो वे जवाब में कह सकते हैं, ‘क्या मैं ठीक वही नहीं कर रहा हूँ जो अपने चाहा था? क्या आपने मुझे बचपन में ये बातें नहीं सिखाई थीं? क्या आपने मुझसे यह माँग नहीं की थी? अब आप मुझे क्यों रोक रहे हैं? मैं जो कर रहा हूँ क्या वह गलत है? मैंने ये चीजें हासिल की हैं और मैं अब उनके मजे ले रहा हूँ; आपको खुश और संतुष्ट होना चाहिए, मुझ पर गर्व होना चाहिए, होना चाहिए न?’ यह सुनकर तुम्हें कैसा लगेगा? तुम्हें खुश होना चाहिए या रोना चाहिए? क्या तुम्हें पछतावा नहीं होगा? (बिल्कुल।) अब तुम उन्हें वापस नहीं जीत सकते। अगर तुमने उन्हें उनके बचपन में ऐसी शिक्षा नहीं दी होती, अगर तुमने बिना किसी दबाव के उन्हें खुशहाल बचपन दिया होता, बाकी लोगों से बढ़कर रहना, ऊँचे पद पर आसीन होना, ढेरों पैसा बनाना, या शोहरत, लाभ और हैसियत के पीछे भागना नहीं सिखाया होता, अगर तुमने उन्हें बस अच्छा, साधारण इंसान रहने दिया होता, यह माँग किए बिना कि वे ढेरों पैसा कमाएं, मजे लूटें, या तुम्हें इतना सारा लौटाएँ, महज इतना चाहा होता कि वे स्वस्थ और खुश रहें, सरल और प्रसन्न मन इंसान बनें, तो शायद परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद तुम्हारे मन में जो विचार और नजरिये हैं, उनमें से कुछ को स्वीकार करने को वे तैयार हो जाते। तब शायद उनका जीवन खुशहाल होता, जीवन और समाज का उन पर कम दबाव होता। हालाँकि उन्होंने शोहरत और लाभ हासिल नहीं किए, कम-से-कम उनके दिल खुश, सुकून-भरे और शांत होते। लेकिन उनके विकासशील वर्षों में तुम्हारे निरंतर उकसाने और आग्रह के कारण, तुम्हारे दबाव से, उन्होंने ज्ञान, धन, शोहरत और लाभ का अनवरत अनुसरण किया। अंत में, उन्होंने शोहरत, लाभ और हैसियत हासिल की, उनका जीवन सुधर गया, उन्होंने ज्यादा मजे किए, और ज्यादा पैसा कमाया, लेकिन उनका जीवन थकाऊ है। जब भी तुम उन्हें देखते हो, उनके चेहरे पर थकान दिखाई देती है। तुम्हारे पास वापस घर लौटने पर ही वे अपना मुखौटा उतारने और यह मानने की हिम्मत करते हैं कि वे थके हुए हैं और आराम करना चाहते हैं। लेकिन बाहर कदम रखते ही वे वैसे नहीं रहते—वे फिर से मुखौटा लगा लेते हैं। तुम उनकी थकी हुई और दयनीय अभिव्यक्ति देख कर उनके लिए बुरा महसूस करते हो, लेकिन तुम्हारे पास वह सामर्थ्य नहीं है कि उन्हें पीछे लौटा सको। वे अब लौट नहीं सकते। ऐसा कैसे हुआ? क्या इसका तुम्हारी परवरिश से संबंध नहीं है? (हाँ है।) इनमें से कोई भी चीज उन्हें सहज ही मालूम नहीं थी या उन्होंने बचपन से उसके लिए प्रयास नहीं किया था; इसका तुम्हारी परवरिश से पक्का रिश्ता है। उनका चेहरा देखकर, उनके जीवन को इस हाल में देखकर क्या तुम परेशान नहीं होते? (हाँ।) लेकिन तुम सामर्थ्यहीन हो; बस पछतावा और दुख बाकी रह गया है। तुम्हें लग सकता है कि शैतान तुम्हारे बच्चे को पूरी तरह से दूर ले गया है, वह वापस नहीं लौट सकता, और तुममें उसे बचाने की सामर्थ्य नहीं है। यह इसलिए हुआ क्योंकि तुमने माता-पिता के तौर पर अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की। तुम्हीं ने उसे नुकसान पहुँचाया, उसे अपनी त्रुटिपूर्ण विचारधारा की शिक्षा और मार्गदर्शन से भटका दिया। वह कभी वापस लौटकर नहीं आ सकता, और अंत में तुम्हें सिर्फ पछतावा ही होता है। तुम बेसहारा देखते रहते हो जबकि तुम्हारा बच्चा कष्ट सहता रहता है, इस बुरे समाज से भ्रष्ट होकर, जीवन के दबावों के बोझ से दबा रहता है, और तुम्हारे पास उसे बचाने का कोई उपाय नहीं होता। तुम बस इतना कह पाते हो, ‘अक्सर घर आया करो, तुम्हारे लिए कुछ स्वादिष्ट बनाएंगे।’ भोजन कौन-सी समस्या सुलझा सकता है? यह कुछ भी नहीं सुलझा सकता। उसके विचार पहले ही परिपक्व हो कर आकार ले चुके हैं, और वह हासिल की हुई शोहरत और हैसियत को जाने देने को तैयार नहीं है। वह बस आगे बढ़ सकता है, और कभी वापस मुड़ नहीं सकता। माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को उनके प्रारंभिक वर्षों में गलत मार्गदर्शन देने और उनमें गलत विचार बिठाने के ये हानिकारक परिणाम होते हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। मैंने परमेश्वर के वचनों में इस अंश को कई बार पढ़ा और हर बार इसने मुझे अंदर तक झकझोर दिया, मुझे इतना दुख हुआ कि मेरी आँखों से पछतावे के आँसू बहने लगे। मैंने सोचा कि जब मेरा बेटा छोटा था, तो कितना मासूम था और परमेश्वर में विश्वास रखता था, अपनी नानी के साथ सभाओं में जाने को तैयार रहता था। लेकिन शैतानी दृष्टिकोणों से प्रभावित था जैसे कि “ज्ञान आपके भाग्य को बदल सकता है,” “अन्य अनुसरण छोटे हैं, किताबें उन सबसे श्रेष्ठ हैं,” “जो लोग अपने दिमाग से परिश्रम करते हैं वे दूसरों पर शासन करते हैं और जो अपने हाथों से परिश्रम करते हैं, वे दूसरों के द्वारा शासित होते हैं,” और “किसी व्यक्ति की नियति उसी के हाथ में होती है,” मैंने उत्कृष्ट बनने और अपने परिवार को सम्मान दिलाने का प्रयास किया, मैंने अपने बेटे के मन में ये विचार भर दिए और उसे ज्ञान के दलदल में धकेल दिया, ताकि वह पूरी लगन से प्रसिद्धि, लाभ और प्रतिष्ठा हासिल करे, इस हद तक कि वह उससे बाहर न निकल पाए। मैंने विशेष रूप से ध्यान दिया जहाँ परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तुम्हें लग सकता है कि शैतान तुम्हारे बच्चे को पूरी तरह से दूर ले गया है, वह वापस नहीं लौट सकता, और तुममें उसे बचाने की सामर्थ्य नहीं है। यह इसलिए हुआ क्योंकि तुमने माता-पिता के तौर पर अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की। तुम्हीं ने उसे नुकसान पहुँचाया, उसे अपनी त्रुटिपूर्ण विचारधारा की शिक्षा और मार्गदर्शन से भटका दिया। वह कभी वापस लौटकर नहीं आ सकता, और अंत में तुम्हें सिर्फ पछतावा ही होता है।” परमेश्वर ठीक उसी मनोदशा पर संगति कर रहा था जो मैं उस समय महसूस कर रही थी। मेरा बेटा जब भी घर आता तो मैं उसे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाती, लेकिन मेरा बेटा हमेशा उनका खंडन करता और उन्हें पूरे जोर-शोर से नकारता—उसने तो यहाँ तक कह दिया कि मैं उसे रोक रही हूँ, यह बात मेरे दिल में चुभ गई। मैंने अपने बेटे को दिन-रात प्रसिद्धि और लाभ के लिए इधर-उधर भागते और मेहनत करते देखा : उसके बाल इतनी कम उम्र में झड़ने लगे थे, हर दिन वह थकी-हारी हालत में भी देर रात तक पढ़ाई करता; वह अपने सलाहकारों के ख्यालों और शौक पर विचार करने के लिए भी अपना दिमाग खपाता और जो कुछ भी उन्हें पसंद आता वैसा ही करने के लिए अपना मन बनाता; वह अपने लीडरों की नजरों के सामने बहुत सावधानी बरतता था, उसे डर था कि वह कहीं कुछ गलत न कह दे या कर दे जिससे वे उसका जीना हराम कर दें जिससे उसका करियर चौपट हो जाए। मैं अपने बेटे को हर दिन चेहरे पर मुखौटा लगाए बुरी तरह थका-हारा देखती। मेरे बेटे के ऐसा बनने की जिम्मेदार मैं ही थी; मैंने ही अपने बेटे को ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया था जिससे मेरे बच्चे को नुकसान पहुंचा। अब मुझे समझ आया कि यह मेरे बेटे से प्यार करना नहीं था; यह उसे नुकसान पहुंचाना था, प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागने के चक्कर में मैंने उसे बलि का बकरा बना दिया। मैंने कलीसिया में अपने बेटे की उम्र के कुछ भाई-बहन देखे थे। वे परमेश्वर में विश्वास रखते थे और सत्य का अनुसरण कर कलीसिया में काम करते थे; वे शैतान के जहर से बंधे नहीं थे, वे स्वतंत्रता और मुक्ति के साथ आराम और खुशहाल जीवन जी रहे थे। इससे मुझे और भी पछतावा होता। अगर मैंने अपने बेटे के मन में ये विचार और दृष्टिकोण नहीं डाले होते, तो शायद वह ऐसा नहीं होता, प्रसिद्धि और लाभ, पद में ऊपर उठने और पैसा कमाने के चक्कर में इतना दर्दनाक और असहाय जीवन न जी रहा होता। जब मैंने इन चीजों के बारे में सोचा तो बेहद पछतावा हुआ और अपने आप से घृणा होने लगी। मैंने विचार किया : मैं अपने बच्चों को कॉलेज में प्रवेश दिलाने की इच्छा को लेकर इतनी एकनिष्ठ और जिद्दी क्यों हो गई थी? इस समस्या की जड़ कहाँ है?
एक दिन मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “शैतान मनुष्य के विचारों को नियंत्रित करने के लिए प्रसिद्धि और लाभ का तब तक उपयोग करता है, जब तक सभी लोग प्रसिद्धि और लाभ के बारे में ही नहीं सोचने लगते। वे प्रसिद्धि और लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए कष्ट उठाते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि और लाभ के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, और प्रसिद्धि और लाभ के लिए कोई भी फैसला या निर्णय ले लेते हैं। इस तरह शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनमें उन्हें उतार फेंकने का न तो सामर्थ्य होता है, न साहस। वे अनजाने ही ये बेड़ियाँ ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पैर घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि और लाभ के लिए मानवजाति परमेश्वर से दूर हो जाती है, उसके साथ विश्वासघात करती है और अधिकाधिक दुष्ट होती जाती है। इसलिए, इस प्रकार एक के बाद एक पीढ़ी शैतान की प्रसिद्धि और लाभ के बीच नष्ट होती जाती है। अब, शैतान की करतूतें देखते हुए, क्या उसके भयानक इरादे एकदम घिनौने नहीं हैं? हो सकता है, आज शायद तुम लोग शैतान के भयानक इरादों की असलियत न देख पाओ, क्योंकि तुम लोगों को लगता है कि व्यक्ति प्रसिद्धि और लाभ के बिना नहीं जी सकता। तुम लोगों को लगता है कि अगर लोग प्रसिद्धि और लाभ पीछे छोड़ देंगे, तो वे आगे का मार्ग नहीं देख पाएँगे, अपना लक्ष्य देखने में समर्थ नहीं हो पाएँगे, उनका भविष्य अंधकारमय, धुँधला और विषादपूर्ण हो जाएगा” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि शैतान प्रसिद्धि और लाभ का इस्तेमाल लोगों को भ्रष्ट और गुमराह करने और नुकसान पहुँचाने के लिए करता है, ताकि लोग केवल प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागने पर मजबूर हो जाएँ। मुझे याद है बचपन में मुझे अच्छी शिक्षा नहीं मिली थी, जब मैं पैसे कमाने के लिए बाहर निकली तो मुझे काफी तकलीफें झेलनी पड़ीं और अक्सर लोगों के पक्षपातपूर्ण रवैये का शिकार होना पड़ा। जब मैंने देखा कि बहुत ज्ञान और प्रतिष्ठा वाले लोग जहाँ भी जाते हैं, लोग उनकी प्रशंसा करते हैं, तो मुझे उनसे ईर्ष्या होती और मुझे लगता कि मैं लोगों का आदर इसलिए प्राप्त नहीं कर पा रही क्योंकि मेरे पास ज्ञान नहीं है, इसलिए मैंने अपनी उम्मीदें अपने बच्चों पर लगा दीं और यह चाहा कि वे उन सपनों को साकार करें जिन्हें मैं खुद पूरा नहीं कर पाई। इसके लिए मैंने अपना सारा समय लगा दिया, एक कष्टदायक और थकाऊ जीवन जीकर उसकी पूरी कीमत चुकाई और अपने बेटे को इतना दर्द और पीड़ा दी। हालाँकि आगे चलकर मेरे बेटे ने प्रसिद्धि और लाभ कमाया, लेकिन वह परमेश्वर से दूर होता चला गया और परमेश्वर के अंत के दिनों के उद्धार से हाथ धो बैठा। अब मुझे समझ आया कि प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागने की मेरी ललक शैतान द्वारा मुझ पर और मेरे बेटे पर डाली गईं एक तरह की अदृश्य बेड़ियाँ थीं। शैतान ने प्रसिद्धि और लाभ का इस्तेमाल हमें लुभाने और गुमराह करने के लिए किया, हमें सत्य का अनुसरण करने पर सोचने से वंचित करके, प्रसिद्धि और लाभ के लिए एकाग्रचित्त होकर प्रयास करने के लिए मजबूर किया; शैतान हमें अपने जाल में धीरे-धीरे जकड़ता गया—हम भी उसके लिए कष्ट सहने को तैयार थे, परिणामस्वरूप, हम परमेश्वर से इस हद तक दूर होते जा रहे थे कि हम परमेश्वर को नकारने लगे थे और शैतान हमें निगलता जा रहा था। यही शैतान का कपटपूर्ण इरादा और चाल थी। मैंने अपने आस-पास के लोगों के बारे में सोचा : मेरे चाचा के बेटे ने कॉलेज में प्रवेश ले लिया था, लेकिन उसके माता-पिता ने उसे घटिया विषय चुनने पर लताड़ा, फिर उन्होंने अपने संपर्कों का उपयोग करके किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढा जिसने उसे अपना विषय बदलने में मदद की। परिणामस्वरूप, बच्चे को बहुत अधिक दबाव महसूस हुआ और वह उस विषय को ठीक से पकड़ नहीं पाया और बाद में उसका नर्वस ब्रेकडाउन हो गया। अब वह खुद अपना जीवन ठीक से नियंत्रित नहीं कर पा रहा था। ऐसे और भी कई बच्चे भी थे जिन्होंने कीटनाशक पी लिया या इमारत से कूद गए क्योंकि पढ़ाई में उनका प्रदर्शन खराब था। इन तमाम दुखद घटनाओं ने मुझे एक चेतावनी और झिड़की दी। असल में, जीवन में लोग अमीर हैं या गरीब, यह सब परमेश्वर के हाथों में है। प्रसिद्धि और लाभ हमें दर्द से बाहर नहीं निकाल सकते; वे हमें केवल पीड़ा के रसातल में ले जा सकते हैं। यह देखना बेहद घिनौना है कि शैतान लोगों को कैसे नुकसान पहुँचाता है। साथ ही, परमेश्वर का धन्यवाद कि उसके प्नबोधन, अगुआई और मार्गदर्शन से मैंने अपने दुख के मूल को समझा, प्रसिद्धि और लाभ के पीछे भागने के खतरनाक परिणाम देखे। वरना मैं अभी भी उसी में फँसी होती और उससे निकल न पाती। इससे मैंने लोगों को बचाने के परमेश्वर के गंभीर इरादे को भी समझा। मैं शैतान के हाथों मूर्ख बनकर और नुकसान नहीं उठा सकती थी—मैं प्रसिद्धि और लाभ की बेड़ियों से मुक्त होकर सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने के मार्ग पर चलना चाहती थी।
फिर मुझे परमेश्वर के वचनों में अपने बच्चों को शिक्षित करने का सही मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “अगर तुमने उन्हें उनके बचपन में ऐसी शिक्षा नहीं दी होती, अगर तुमने बिना किसी दबाव के उन्हें खुशहाल बचपन दिया होता, बाकी लोगों से बढ़कर रहना, ऊँचे पद पर आसीन होना, ढेरों पैसा बनाना, या शोहरत, लाभ और हैसियत के पीछे भागना नहीं सिखाया होता, अगर तुमने उन्हें बस अच्छा, साधारण इंसान रहने दिया होता, यह माँग किए बिना कि वे ढेरों पैसा कमाएं, मजे लूटें, या तुम्हें इतना सारा लौटाएँ, महज इतना चाहा होता कि वे स्वस्थ और खुश रहें, सरल और प्रसन्न मन इंसान बनें, तो शायद परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद तुम्हारे मन में जो विचार और नजरिये हैं, उनमें से कुछ को स्वीकार करने को वे तैयार हो जाते। तब शायद उनका जीवन खुशहाल होता, जीवन और समाज का उन पर कम दबाव होता। हालाँकि उन्होंने शोहरत और लाभ हासिल नहीं किए, कम-से-कम उनके दिल खुश, सुकून-भरे और शांत होते” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (19))। परमेश्वर के वचन हमें अपने बच्चों को शिक्षित करने का सही मार्ग बताते हैं : बच्चों को शिक्षित करते समय हमें यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वे ज्ञान, रुतबे, प्रसिद्धि, लाभ और पद में ऊपर उठें या पैसा कमाएँ; हमें यह आशा करनी चाहिए कि हमारे बच्चे खुशहाल और स्वस्थ जीवन जियें, दबाव से मुक्त, स्वतंत्र और उन्मुक्त रहें। परमेश्वर के वचनों से मुझे परमेश्वर का इरादा भी समझ में आ गया। मेरे बच्चे और मैं सभी सृजित प्राणी हैं और हमारा भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। हमारे जीवन की नियति और हमें कौन-सा मार्ग अपनाना चाहिए, यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के अधीन है; हम स्वयं इसे नियंत्रित नहीं कर सकते—न ही मैं उनका भाग्य बदल सकती हूँ। मैं तो बस अपने बच्चों के लिए प्रार्थना कर सकती हूँ और जब वे लौटकर आएँ, तो उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुना सकती हूँ। जहाँ तक इस बात का सवाल है कि वे अंत में परमेश्वर के सामने आ सकते हैं या नहीं, यह उस पर निर्भर करता है। मुझे तो केवल अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी निभानी है और वह कार्य करना है जो मुझे अच्छे से करना चाहिए। चीजों के प्रति मेरा दृष्टिकोण कुछ हद तक बदल गया है—यह परमेश्वर के वचनों से प्राप्त परिणाम है। अब मैं केवल सत्य का अनुसरण कर परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना चाहती हूँ, अपना कर्तव्य पूरा करना चाहती हूँ। एकमात्र ऐसा जीवन ही सार्थक और मूल्यवान है। परमेश्वर का धन्यवाद!