87. अपना कर्तव्य अच्छे से पूरा करना मेरा मिशन है

सु रान, चीन

जब मैं स्कूल में थी तो हमारे शिक्षक अक्सर हमें सिखाते थे कि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाना और अपने से बड़ों का सम्मान करना पारंपरिक चीनी गुण है। मेरे माता-पिता अक्सर मुझे यही सिखाते थे और वे खुद भी यही करते थे। जब भी मेरी दादी के घर पर कोई काम होता था तो मेरे पिता अपने काम छोड़कर उसकी मदद करते थे और सप्ताहांत में वह हमें दादी के यहाँ खेती-बाड़ी में हाथ बँटाने ले जाते थे। उस समय मेरे माता-पिता अक्सर खेतों में काम करते थे और मैं और मेरे भाई-बहन बहुत छोटे थे, हमारी देखभाल करने वाला कोई नहीं होता था और मेरी दादी हमारी देखभाल नहीं करती थी। लेकिन मेरी माँ मेरी दादी से नाराज नहीं होती थी; बल्कि वह उसका ख्याल रखती थी। वह मेरी दादी का पसंदीदा भोजन बनाती थी और बीमार होने पर उसे डॉक्टर के पास ले जाती थी। रिश्तेदार, दोस्त और पड़ोसी सभी मेरे माता-पिता की उनकी संतानोचित धर्मनिष्ठा और अच्छी मानवता के लिए प्रशंसा करते थे। यह देखकर मैं मन ही मन सोचती थी, “मैं भविष्य में अपने माता-पिता की तरह बनना चाहती हूँ, अपने माता-पिता का सम्मान करना चाहती हूँ और अपने ससुराल वालों के प्रति संतानोचित होना चाहती हूँ। अच्छी मानवता वाले इंसान को ऐसा ही करना चाहिए।”

2013 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकारा। मेरे पति ने सीसीपी की निराधार अफवाहों से प्रभावित होकर मेरी आस्था का विरोध किया और 2014 में मुझे तलाक दे दिया। तलाक के बाद मैं फिर से अपने माता-पिता के साथ रहने लगी, अपने कर्तव्य करते हुए अपने माता-पिता की देखभाल और घर के कामों में मदद भी करने लगी। 2017 में मैं अपने कर्तव्य करने के लिए दूसरी जगह चली गई। कुछ ही समय बाद मुझे घर से एक पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि पुलिस मेरे माता-पिता को चेतावनी देने और धमकाने के लिए मेरे घर गई थी कि वे अब परमेश्वर में विश्वास न करें। उन्होंने मेरी तस्वीर भी माँगी थी और उनसे मेरे ठिकाने के बारे में पूछताछ की थी। उसके बाद मेरी घर जाने की हिम्मत नहीं हुई। जब मैं अपने माता-पिता के बारे में सोचती थी, जो लगभग साठ साल के थे और उनका स्वास्थ्य खराब था, खासकर मेरी माँ कुछ साल पहले पैर के एक गंभीर फ्रैक्चर के बाद लंबे समय तक समस्याओं से जूझती रही थी और जब उसके पैर में दर्द बढ़ जाता था तो उसे काम करने में परेशानी होती थी, तो मैं हमेशा उत्सुक रहती थी कि उनसे मिलने कब घर जा पाऊँगी।

अगस्त 2019 में मैंने घर लौटने का जोखिम उठाया। माता-पिता पर नजर पड़ते ही मैंने देखा कि उनके चेहरों की झुर्रियाँ और ज्यादा बढ़ चुकी हैं और कनपटियों के बाल सफेद हो रहे हैं। मेरी माँ और ज्यादा दुबली हो चुकी थी और मुझे अपने दिल में पीड़ा और बेचैनी महसूस हुई। हमारे माता-पिता के लिए हमें पालना आसान नहीं रहा था और अब उम्र के इस पड़ाव और खराब सेहत के बावजूद उन्हें अभी भी खेतों में इतनी कठिन मेहनत करनी पड़ती थी। उनकी बेटी होने के नाते मैं उनकी देखभाल करने के लिए वहाँ नहीं रह पा रही थी और उनके काम में हाथ नहीं बँटा पा रही थी, इसलिए मुझे गैर-संतानोचित लगा और थोड़ा अपराध बोध हुआ। मेरी चाची ने भी मेरी आलोचना करते हुए कहा, “तुम कई साल से घर से बाहर हो और वापस नहीं लौटी हो। तुम्हारे माता-पिता बूढ़े होते जा रहे हैं और अगर वे बीमार पड़ गए या उनके साथ कोई हादसा हो गया तो उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। कुछ दिन पहले तुम्हारे पिता फसलों पर दवा छिड़कने गए थे और गर्मी के कारण उन्हें जहर चढ़ गया था। अगर वह समय पर अस्पताल न पहुँचते तो मर भी सकते थे।” यह सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ और मुझे यह कहावत याद आ गई : “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो।” लेकिन मैं उनकी देखभाल या कोई मदद करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकती थी। मुझे लगा कि मेरे माता-पिता ने मुझे पालने में अपना समय बर्बाद किया है। पहले रिश्तेदार मुझे समझदार और संतानोचित बच्चे के रूप में देखते थे, लेकिन अब मैं एक-गैर संतानोचित, कृतघ्न नीच बच्चा बन गई हूँ। मेरे जाने से एक रात पहले मेरे पिता ने कहा कि मैं उसकी सबसे बड़ी फिक्र हूँ। उन्होंने कहा कि मेरे पास अब कोई घर या नौकरी-पेशा नहीं है, इसलिए वह मेरे लिए कुछ और पैसे जुटाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें हमेशा मेरी गिरफ्तारी की चिंता खाए रहती है, वह अक्सर पूरी रात जागते हुए और दिन लगातार बेचैनी में काटते हैं। जब भी उन्हें गाँव की समिति से कोई फोन आता है तो उन्हें चिंता होती है कि कहीं पुलिस ने मुझे गिरफ्तार न कर लिया हो। यह सब कहते हुए मेरे पिता की आँखों में आँसू आ गए। ऐसा लगा जैसे मेरे दिल पर हथौड़े से चोट मारी गई हो और मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई। मुझे लगा कि उनकी उम्र के इस पड़ाव में मैं न केवल उनकी देखभाल नहीं कर रही हूँ, बल्कि उन्हें चिंता में भी डाल रही हूँ, मैं वाकई गैर-संतानोचित हूँ! अपने मेजबान परिवार में वापस आने के बाद मैं अपने पिता की बातों और उनके उदास चेहरे के बारे में सोचती रही और मेरे दिल में गहरा दर्द हुआ। अगर मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए दूर न गई होती तो क्या मैं अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाने में सक्षम न होती? यह सोचकर मैं अब घर से दूर रहकर अपना कर्तव्य नहीं करना चाहती थी। मैं वाकई घर जाना चाहती थी और अपने माता-पिता की देखभाल करना चाहती थी ताकि उन्हें अब मेरी फिक्र न करनी पड़े या कष्ट न झेलना पड़े। लेकिन पुलिस अभी भी मेरे पीछे पड़ी थी और वापस जाने का मतलब था मुझे संभवतः गिरफ्तार कर लिया जाएगा। इसके अलावा मैं अपने कर्तव्यों में बहुत व्यस्त थी और अगर मैं उन्हें छोड़ देती तो क्या मैं परमेश्वर को धोखा नहीं दे रही होती? उन दिनों मैं बहुत उलझन में थी और मुझे बहुत दर्द और यातना महसूस हो रही थी। ऐसी अवस्था में जीते हुए मैं अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रही थी, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें पूरा करने में देरी हो रही थी। यह जानकर कि मेरी दशा ठीक नहीं है, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और इस गलत दशा से बाहर निकलने में उससे मार्गदर्शन माँगा।

मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “क्या अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित प्रेम दिखाना सत्य है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना एक सही और सकारात्मक बात है, लेकिन हम यह क्यों कहते हैं कि यह सत्य नहीं है? (क्योंकि लोग अपने माता-पिता के साथ संतानोचित व्यवहार करने में किसी सिद्धांत का पालन नहीं करते और वे यह भेद नहीं कर पाते कि उनके माता-पिता वास्तव में किस प्रकार के लोग हैं।) एक व्यक्ति को अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका संबंध सत्य से है। यदि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास करते हैं और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, तो क्या तुम्हें उनके प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए? (हाँ।) तुम संतानोचित कैसे होते हो? तुम उनके साथ अपने भाई-बहनों से अलग व्यवहार करते हो। तुम उनके द्वारा बताए गए हर काम को करते हो, और यदि वे बूढ़े हों, तो तुम्हें हर हाल में उनकी देखभाल के लिए उनके पास रहना होता है, जो तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए बाहर जाने से रोकता है। क्या ऐसा करना सही है? (नहीं।) ऐसे समय में तुम्हें क्या करना चाहिए? यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि तुम अपने घर के आस-पास ही कहीं अपना कर्तव्य निभाते हुए भी उनकी देखभाल कर पा रहे हो, और तुम्हारे माता-पिता को परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था पर आपत्ति नहीं है, तो तुम्हें एक पुत्र या पुत्री के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए और अपने माता-पिता के कुछ काम करते हुए उनकी मदद करनी चाहिए। यदि वे बीमार हों, तो उनकी देखभाल करो; अगर उन्हें कोई परेशानी हो, तो उनकी परेशानी दूर करो; अपने बजट के अनुरूप उनके लिए पोषक आहार खरीदो। परंतु, यदि तुम अपने कर्तव्य में व्यस्त रहते हो, जबकि तुम्हारे माता-पिता की देखभाल करने वाला और कोई न हो, और वे भी परमेश्वर में विश्वास करते हों, तो तुम्हें क्या करने का फैसला करना चाहिए? तुम्हें कौन-से सत्य का अभ्यास करना चाहिए? चूँकि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सत्य नहीं, बल्कि केवल एक मानवीय जिम्मेदारी और दायित्व है, तो तुम्हें तब क्या करना चाहिए जब तुम्हारा दायित्व तुम्हारे कर्तव्य से टकराता हो? (अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए; कर्तव्य को पहले रखना चाहिए।) दायित्व अनिवार्य रूप से व्यक्ति का कर्तव्य नहीं है। अपना कर्तव्य निभाने का चुनाव करना सत्य का अभ्यास करना है, जबकि दायित्व पूरा करना सत्य का अभ्यास करना नहीं है। अगर तुम्हारी स्थिति ऐसी हो, तो तुम यह जिम्मेदारी या दायित्व पूरा कर सकते हो, लेकिन अगर वर्तमान परिवेश इसकी अनुमति न दे, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, ‘मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए—यही सत्य का अभ्यास करना है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना अपने जमीर से जीना है, और यह सत्य का अभ्यास करने से कम बात है।’ इसलिए, तुम्हें अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और उस पर कायम रहना चाहिए। अगर अभी तुम्हारे पास कोई कर्तव्य नहीं है और तुम घर से दूर रहकर काम नहीं करते, और अपने माता-पिता के पास रहते हो, तो उनकी देखभाल करने के तरीके खोजो। उन्हें थोड़ा बेहतर जीने और उनके कष्ट कम करने में मदद करने की पूरी कोशिश करो। लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि तुम्हारे माता-पिता किस तरह के लोग हैं। अगर तुम्हारे माता-पिता खराब मानवता के हैं, यदि वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने से लगातार रोकते हैं, और अगर वे तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने से दूर खींचते रहते हैं, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें किस सत्य का अभ्यास करना चाहिए? (अस्वीकार का।) उस समय तुम्हें उन्हें अस्वीकार कर देना चाहिए। तुमने अपना दायित्व पूरा किया है। तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, इसलिए उनके प्रति संतानोचित आदर प्रदर्शित करने का तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है। अगर वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परिवार हैं, तुम्हारे माता-पिता हैं। अगर वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो तुम लोग अलग-अलग मार्ग पर चल रहे हो : वे शैतान में विश्वास करते हैं और बुरे कर्मों के बादशाह की पूजा करते हैं, और वे शैतान के मार्ग पर चलते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर में विश्वास करने वालों से भिन्न मार्गों पर चल रहे हैं। अब तुम एक परिवार नहीं हो। वे परमेश्वर में विश्वास करने वालों को अपना विरोधी और शत्रु मानते हैं, इसलिए उनकी देखभाल करने का तुम्हारा दायित्व नहीं रह गया है और तुम्हें उनसे पूरी तरह से संबंध तोड़ लेना चाहिए। सत्य क्या है : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना या अपना कर्तव्य निभाना? बेशक, अपना कर्तव्य निभाना सत्य है। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना केवल अपना दायित्व पूरा करना और वह करना नहीं है जो व्यक्ति को करना चाहिए। यह सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है। यहाँ परमेश्वर का आदेश है; यह तुम्हारा दायित्व है, तुम्हारी जिम्मेदारी है। यह सच्ची जिम्मेदारी है, जो सृष्टिकर्ता के समक्ष अपनी जिम्मेदारी और दायित्व पूरा करना है। यह सृष्टिकर्ता की लोगों से अपेक्षा है और यह जीवन का बड़ा मामला है। लेकिन अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित सम्मान दिखाना किसी व्यक्ति की जिम्मेदारी और दायित्व मात्र है। यह निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा आदेशित नहीं है और यह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप तो यह उससे भी कम है। इसलिए, अपने माता-पिता का संतानोचित सम्मान करने और अपना कर्तव्य निभाने में से अपना कर्तव्य निभाना ही सत्य का अभ्यास करना है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य और एक अनिवार्य कर्तव्य है। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित सम्मान प्रदर्शित करने का संबंध लोगों के प्रति संतानोचित व्यवहार करने से है। इसका मतलब यह नहीं कि व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है, न ही इसका मतलब यह है कि वह सत्य का अभ्यास कर रहा है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे कुछ राहत मिली और मैंने समझा कि अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना सकारात्मक बात है और सामान्य मानवता का हिस्सा है, लेकिन यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है। एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना सत्य का अभ्यास करना है। मेरे माता-पिता ने हमेशा मेरी आस्था और कर्तव्यों में मेरा साथ दिया था और उनके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाना उनकी संतान होने के नाते मेरी जिम्मेदारी है। उपयुक्त परिस्थितियों और स्थितियों में मैं उनकी देखभाल करने, उनकी चिंताएँ और मुश्किलें कम करने और उनकी संतान के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ अच्छे से निभाने की पूरी कोशिश कर सकती हूँ। लेकिन चूँकि पुलिस मेरे पीछे पड़ी थी और मैं घर पर रहकर उनकी देखभाल नहीं कर सकती थी और अपने कर्तव्यों में व्यस्त थी, इस समय मुझे अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता देनी थी। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मैंने यह भी समझा कि एक सृजित प्राणी के रूप में सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से पूरा करना मेरा मिशन है, जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात है और ऐसा बाध्यकारी कर्तव्य है जिसे पूरा किया जाना चाहिए। अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होना केवल एक संतान की जिम्मेदारी अच्छे से निभाना है और इसका मतलब यह नहीं है कि कोई सत्य का अभ्यास करता है, न ही इसका मतलब यह है कि कोई परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है। जब माता-पिता के प्रति संतानोचित होने और कर्तव्य निर्वहन में टकराव हो तो मुझे एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निर्वहन चुनना था। इन चीजों का एहसास होने पर मुझे अब उलझन या पीड़ा महसूस नहीं हुई। मैं परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए तैयार थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अपनी अवस्था के बारे में कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोगों की परंपरागत धारणाओं में यह माना जाता है कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो भी संतानोचित निष्ठा का पालन नहीं करता, वह कपूत होता है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, ‘संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता, तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और समाज मेरी निंदा करेगा। मैं ऐसा व्यक्ति हूँगा, जिसमें जमीर नहीं है।’ क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त इतने अधिक सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... शैतान इस तरह की परंपरागत संस्कृति और नैतिकता की धारणाओं का इस्तेमाल तुम्हारे दिल, दिमाग और विचारों को बाँधने के लिए करता है, और तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं छोड़ता; तुम शैतान की इन चीजों के वश में आ चुके हो और परमेश्वर के वचन स्वीकार करने लायक नहीं रहे। जब तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहते हो तो ये चीजें तुम्हारे मन में खलल पैदा करती हैं, इनके कारण तुम सत्य और परमेश्वर की अपेक्षाओं का विरोध करने लगते हो, और तुममें इतनी शक्ति नहीं रहती कि अपने कंधे से परंपरागत संस्कृति का जुआ उतारकर फेंक सको। कुछ देर संघर्ष करने के बाद तुम समझौता कर लेते हो : तुम यह विश्वास करना पसंद करते हो कि नैतिकता की परंपरागत धारणाएँ सही हैं और सत्य के अनुरूप भी हैं, और इसलिए तुम परमेश्वर के वचन ठुकरा या त्याग देते हो। तुम परमेश्वर के वचनों को सत्य नहीं मानते और तुम बचाए जाने को महत्वपूर्ण नहीं समझते, तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी इस संसार में जी रहे हो और इन्हीं लोगों पर निर्भर रहकर जीवित रह सकते हो। समाज के आरोप-प्रत्यारोप झेलने में असमर्थ होकर तुम सत्य और परमेश्वर के वचन तज देना पसंद करते हो, खुद को नैतिकता की परंपरागत धारणाओं और शैतान के प्रभाव के हवाले छोड़ देते हो, और परमेश्वर को नाराज करना और सत्य का अभ्यास न करना बेहतर समझते हो। मुझे बताओ, क्या इंसान दीन-हीन नहीं है? क्या उन्हें परमेश्वर से उद्धार पाने की जरूरत नहीं है? कुछ लोगों ने बरसों से परमेश्वर पर विश्वास किया है, फिर भी उनके पास संतानोचित निष्ठा के मामले में कोई अंतर्दृष्टि नहीं है। वे वास्तव में सत्य को नहीं समझते। वे कभी भी सांसारिक संबंधों की बाधा नहीं तोड़ सकते; उनमें न साहस होता है न ही आत्मविश्वास, संकल्प होना तो दूरी की बात है, इसलिए वे परमेश्वर से प्रेम नहीं कर सकते, उसकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मैंने जाना कि मेरे कष्ट की जड़ें पारंपरिक संस्कृति में जमी हुई हैं। बचपन से ही हमारे शिक्षकों ने हमें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित रहना सिखाया था और बताया था कि यह चीनी लोगों का पारंपरिक गुण है और मेरे माता-पिता ने भी मुझमें यह विचार डाला था—कि जैसे-जैसे मैं बड़ी होती जाऊँगी, मुझे अपने से बड़ों और माता-पिता के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखानी चाहिए और उन्होंने खुद भी ऐसा करके एक उदाहरण स्थापित किया था, जिससे यह विचार मेरे बाल मन में गहरे बैठ गया। मुझे विश्वास हो गया कि सिर्फ अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित रहने पर ही किसी को संतानोचित औलाद और अच्छा व्यक्ति माना जा सकता है और अगर कोई व्यक्ति ऐसा करने में नाकाम रहता है तो वह संतानोचित नहीं है और कृतघ्न नीच है और उसे तिरस्कृत, निंदित और मनुष्य कहलाने के अयोग्य माना जाएगा। जब मैंने अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ा और मैं अपने माता-पिता की देखभाल न कर सकी तो मुझे यह महसूस हुआ कि मैं एक गैर-संतानोचित बेटी हूँ और खासकर जब मैंने सुना कि मेरे माता-पिता मेरे पकड़े जाने को लेकर फिक्रमंद हैं तो मुझे और भी अधिक महसूस हुआ कि मैं गैर-संतानोचित हूँ। मैं न केवल उनकी देखभाल नहीं कर पा रही थी, बल्कि उन्हें मेरी फिक्र करने के लिए भी मजबूर कर रही थी, इसके कारण मुझमें उनकी कर्जदार होने की भावना बैठ गई। “संतानोचित धर्मनिष्ठा का गुण सबसे ऊपर रखना चाहिए” “अपने बच्चों की परवरिश ऐसे करो कि बुढ़ापे में तुम्हारी देखभाल की जाए” और “अपने माता-पिता के जीवित रहते दूर की यात्रा मत करो” जैसे पारंपरिक विचारों ने मुझे बांधे रखा और बेबस कर दिया। अपने माता-पिता की देखभाल करने के लिए उनके पास न रह पाने के कारण मुझे हमेशा अपराध बोध होता था और अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने का भी पछतावा होता था। भले ही मैं घर वापस नहीं गई, लेकिन मेरा दिल पहले ही परमेश्वर से दूर हो चुका था। मैं अपने कर्तव्यों में लापरवाह हो रही थी और मुझमें वफादारी की कमी थी। इस बिंदु पर मैंने आखिरकार देखा कि शैतान के डाले हुए पारंपरिक विचारों ने मुझे परमेश्वर से दूर होने और उसे धोखा देने को मजबूर कर दिया, जिसके कारण मैं अनजाने में परमेश्वर के विरोध में खड़ी हो गई। मैंने अनुग्रह के युग के पतरस के बारे में सोचा, जिसने प्रभु यीशु का अनुसरण करने के लिए अपने परिवार और माता-पिता को त्याग दिया, सुसमाचार का दूर-दूर तक प्रचार किया और कलीसिया की चरवाही की। मैंने उन पश्चिमी मिशनरियों के बारे में भी सोचा जिन्होंने प्रभु के इरादों पर विचार किया और जिन्होंने प्रभु का उद्धार स्वीकारने के लिए अधिक लोगों को लाने के लिए अपने परिवार, माता-पिता और बच्चों को त्याग दिया। उन्होंने प्रभु के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए हजारों मील की यात्रा करके चीन तक का सफर तय किया और अपना मिशन पूरा किया। ये मानवता और अंतरात्मा वाले व्यक्ति थे। अब जब आपदाएँ अधिक गंभीर होती जा रही हैं तो राज्य के सुसमाचार के बड़े विस्तार का समय आ गया है और सुसमाचार प्रचार करने लायक बनने और परमेश्वर की गवाही देने के लिए और अधिक लोगों की जरूरत है। मैंने परमेश्वर के बहुत से वचन खाए और पिए हैं और कुछ सत्य समझे हैं और एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे परमेश्वर के इरादों पर विचार करना चाहिए और सुसमाचार का प्रचार करना चाहिए ताकि अधिक से अधिक लोग उसके सामने आकर उसका उद्धार स्वीकारें। मानवता से युक्त व्यक्ति होने का यही अर्थ है। इन बातों का एहसास होने पर मैं अपने कर्तव्यों में सहज हो गई।

बाद में मुझे घर से एक और पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि अगस्त 2022 में पुलिस मुझे गिरफ्तार करने के लिए मेरे घर आई थी। मेरे पिता ने बताया कि मैं घर पर नहीं हूँ, लेकिन पुलिस को उन पर भरोसा नहीं हुआ इसलिए उसने मेरे परिवार के भंडारघर में चुपचाप एक माइक्रोफोन लगा दिया। एक दिन दोपहर को पुलिस स्टेशन से चार लोग आए। वे मुझे गिरफ्तार करने के लिए बंदूकों के साथ मेरे घर आए और मेरे माता-पिता को घर से बाहर निकाल दिया, दस मिनट से अधिक समय तक अंदर तलाशी ली। फिर पुलिस ने मेरा ठिकाना पूछने के लिए मेरे रिश्तेदारों को बुलाया। इस पत्र ने मुझे वाकई परेशान कर दिया और मैं न चाहते हुए भी रो पड़ी। मैंने सोचा कि कैसे मेरे माता-पिता को इस बात की फिक्र थी कि मैं इतने सालों तक घर से दूर रहकर अपने कर्तव्य करते हुए गिरफ्तार हो जाऊँगी और कैसे पुलिस ने मुझे पकड़ने के लिए मेरे घर में एक बग भी लगाया था और मेरे माता-पिता के आखिरी साल पुलिस निगरानी में कटेंगे। मेरे माता-पिता को ये परेशानियाँ सिर्फ मेरी वजह से झेलनी पड़ रही थीं। मैं वाकई परेशान थी और अपने कर्तव्य करते हुए भी मेरा दिल शांत नहीं हो पा रहा था। बाद में मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा ठीक नहीं है, इसलिए मैंने सचेत होकर प्रार्थना और खोज की। मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए जो मैंने पहले पढ़े थे और जल्दी से उन्हें पढ़ने के लिए खोजा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग अपने परिवारों को त्याग देते हैं क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। वे इस वजह से प्रसिद्ध हो जाते हैं और सरकार अक्सर उनके घर की तलाशी लेती है, उनके माता-पिता को परेशान करती है और यहाँ तक कि उनके माता-पिता को उन्हें सौंपने के लिए धमकाती भी है। उनके सभी पड़ोसी उनके बारे में बात करते हुए कहते हैं, ‘इस आदमी में जरा भी अंतरात्मा नहीं है। वह अपने बुजुर्ग माता-पिता की परवाह नहीं करता। न केवल वह संतानोचित आचरण नहीं करता, बल्कि वह अपने माता-पिता के लिए बहुत परेशानी का कारण भी है। वह माता-पिता के प्रति अनुचित आचरण करने वाली संतान है!’ क्या इनमें से एक भी शब्द सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) लेकिन क्या ये सभी शब्द गैर-विश्वासियों की नजर में सही नहीं माने जाते? गैर-विश्वासियों के बीच उन्हें लगता है कि इसे देखने का यह सबसे वैध और तर्कसंगत तरीका है, और यह मानवीय नैतिकता के अनुरूप है, और मानव आचरण के मानकों के अनुरूप है। इन मानकों में चाहे कितनी ही चीजें शामिल हों, जैसे माता-पिता के प्रति संतानवत सम्मान कैसे दिखाया जाए, बुढ़ापे में उनकी देखभाल कैसे की जाए और उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था कैसे की जाए, या उनकी कितनी देखभाल की जाए, और बेशक ये मानक सत्य के अनुरूप हों या नहीं, गैर-विश्वासियों की नजर में वे सकारात्मक चीजें होती हैं, वे सकारात्मक ऊर्जा हैं, वे सही चीजें हैं, और लोगों के सभी लोगों के समूहों में उन्हें अनिंद्य माना जाता है। गैर-विश्वासियों में लोगों के लिए जीवन का यही मानक हैं, और तुम्हें उनके दिलों में ठीक-ठाक अच्छा इंसान बनने के लिए ये चीजें करनी होंगी। तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास करने तथा सत्य को समझने के पहले क्या तुम्हारा भी दृढ़ विश्वास नहीं था कि इस तरह का आचरण करना ही अच्छा इंसान होना है? (हाँ।) इसके अलावा तुम स्वयं अपना मूल्यांकन करने और स्वयं को सीमित करने के लिए भी इन चीजों का उपयोग करते थे और तुम खुद को इसी प्रकार का व्यक्ति बनाना चाहते थे। यदि तुम अच्छा इंसान बनना चाहते थे तो तुमने निश्चित रूप से इन चीजों को अपने आचरण के मानकों में शामिल किया होगा : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित आचरण कैसे करें, उनकी चिंताएँ कम कैसे करें, उन्हें सम्मान और श्रेय कैसे दिलाएँ, और अपने पूर्वजों को गौरवान्वित कैसे करें। तुम्हारे दिल में आचरण के यही मानक थे और तुम्हारे आचरण की दिशा यही थी। हालाँकि जब तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों और उसके उपदेशों को सुना तो तुम्हारा दृष्टिकोण बदलना शुरू हो गया, और तुम समझ गए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तुम्हें सब कुछ त्यागना होगा, और कि परमेश्वर चाहता है कि लोग इस तरह का आचरण करें। यह निश्चित करने से पहले कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य है, तुम सोचते थे कि तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए, लेकिन तुम्हें यह भी लगता था कि एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और तुम्हें अपने अंदर इनके बीच संघर्ष की स्थिति महसूस होती थी। परमेश्वर के वचनों के निरंतर सिंचन और मार्गदर्शन के माध्यम से तुम धीरे-धीरे सत्य को समझने लगे, और तब तुम्हें एहसास हुआ कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना पूरी तरह से प्राकृतिक और उचित है। आज तक बहुत से लोग सत्य को स्वीकार करने और मनुष्य की पारंपरिक धारणाओं और कल्पनाओं से आचरण के मानकों को पूरी तरह से त्यागने में सक्षम हुए हैं। जब तुम इन चीजों को पूरी तरह से छोड़ देते हो, तो जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम गैर-विश्वासियों की आलोचना और उनकी निंदा से सीमित नहीं रह जाते, और तुम उन्हें आसानी से त्याग सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन ने मुझे एहसास दिलाया कि मैं फिर से शैतान द्वारा डाले गए पारंपरिक सांस्कृतिक मूल्यों के अनुसार जी रही थी। मैंने सोचा कि मैं इतने सालों में कैसे अपने माता-पिता की देखभाल नहीं कर पाई और कैसे मेरी वजह से पुलिस मुझे गिरफ्तार करने मेरे घर आई और मेरे माता-पिता को न केवल पड़ोसियों से उपहास सहना पड़ रहा था, बल्कि उन्हें मेरी सुरक्षा की फिक्र के साथ-साथ पुलिस से लंबे समय तक उत्पीड़न भी सहना पड़ेगा। इसलिए मुझे लगा कि मेरे माता-पिता को जो भी कष्ट सहना पड़ रहा है, उसकी वजह मैं हूँ और कि अगर मैं न होती तो मेरे माता-पिता को ये कष्ट नहीं सहने पड़ते। इससे मुझे लगा कि मैं गैर-संतानोचित संतान की तरह हूँ। मेरा नजरिया अविश्वासियों जैसा ही था और सत्य के साथ मेल नहीं खाता था। परमेश्वर में मेरा विश्वास सिर्फ उसके वचन खाने और पीने और सत्य का अनुसरण करने तक सीमित था और मैंने कोई अपराध नहीं किया था, फिर भी मुझे गिरफ्तार करने के लिए सीसीपी पुलिस बंदूकों के साथ बड़ी तादाद में मेरे घर आई थी, मेरे माता-पिता को धमका रही थी और मेरा ठिकाना जानना चाह रही थी। मेरे माता-पिता को यह सब कष्ट देने वाला असली अपराधी स्पष्ट रूप से बड़ा लाल अजगर था, लेकिन बड़े लाल अजगर से घृणा करने के बजाय मैंने यह मानने की गलती कर दी कि मेरे माता-पिता को मेरी आस्था ने फँसाया है। क्या मैं सही और गलत में अंतर करने में अक्षम नहीं थी? मैं अपने माता-पिता द्वारा सहे जा रहे सभी कष्टों के लिए खुद को दोषी नहीं ठहरा सकती थी और न ही मुझे उनके प्रति लगातार ऋणी होने की भावना के साथ जीना चाहिए था। इस समय मुझे अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करना था, अपनी गवाही में अडिग रहना था और शैतान को शर्मिंदा करना था।

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “अगर तुम सच में मानते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, तो तुम्हें यह मान लेना चाहिए कि आपके माता-पिता कितनी तकलीफें सहनी हैं और उन्हें अपने पूरे जीवन में कितनी खुशी मिलेगी, यह मामला भी परमेश्वर के हाथों में है। तुम्हारे संतानोचित होने या न होने से कुछ नहीं बदलेगा—तुम्हारे संतानोचित होने से तुम्हारे माता-पिता के कष्ट कम नहीं होंगे, और तुम्हारे संतानोचित न होने से वे ज्यादा कष्ट नहीं सहेंगे। परमेश्वर ने बहुत समय पहले ही उनका भाग्य पूर्वनियत कर दिया था, और उनके प्रति तुम्हारे रवैये या तुम्हारे बीच भावना की गहराई के कारण इसमें से कुछ भी नहीं बदलेगा। उनका अपना भाग्य है। वे अपनी पूरी जिंदगी चाहे गरीब हों या अमीर, सब-कुछ उनके लिए सुगम हो या नहीं, या वे जैसी भी गुणवत्ता के जीवन, भौतिक लाभों, सामाजिक हैसियत और जीवन स्थितियों का आनंद लेते हों, इनमें से किसी का भी तुम्हारे साथ ज्यादा लेना-देना नहीं है। अगर तुम्हारे मन में उनके प्रति अपराध बोध हो, तुम्हें लगता हो कि तुम पर उनका कोई कर्ज है और तुम्हें उनके साथ होना चाहिए, तो तुम्हारे उनके साथ होने से क्या बदल जाएगा? (कुछ भी नहीं बदलेगा।) ... ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।) तुम्हारे हृदय में तुम्हारे माता-पिता के प्रति भावनात्मक लगाव और विचार जरूर होते हैं; तुम्हारी भावनाएँ खोखली नहीं हैं। अगर वस्तुपरक हालात अनुमति दें, और तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उनके साथ रह पाओ, तो तुम उनके साथ रहने को तैयार होगे, नियमित रूप से उनकी देखभाल करोगे और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करोगे। लेकिन वस्तुपरक हालात के कारण तुम्हें उनको छोड़ना पड़ता है; तुम उनके साथ नहीं रह सकते। ऐसा नहीं है कि तुम उनके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते हो, बल्कि तुम नहीं निभा सकते हो। क्या इसकी प्रकृति अलग नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुमने संतानोचित होने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने से बचने के लिए घर छोड़ दिया था, तो यह असंतानोचित होना है और यह मानवता का अभाव दर्शाता है। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन तुम अपने पंख फैलाकर जल्द-से-जल्द अपने रास्ते चले जाना चाहते हो। तुम अपने माता-पिता को नहीं देखना चाहते, और उनकी किसी भी मुश्किल के बारे में सुनकर तुम कोई ध्यान नहीं देते। तुम्हारे पास मदद करने के साधन होने पर भी तुम नहीं करते; तुम बस सुनाई न देने का बहाना कर लोगों को तुम्हारे बारे में जो चाहें कहने देते हो—तुम बस अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह असंतानोचित होना है। लेकिन क्या स्थिति अभी ऐसी है? (नहीं।) बहुत-से लोगों ने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी काउंटी, शहर, प्रांत और यहाँ तक कि अपने देश तक को छोड़ दिया है; वे पहले ही अपने गाँवों से बहुत दूर हैं। इसके अलावा, विभिन्न कारणों से उनके लिए अपने परिवारों के साथ संपर्क में रहना सुविधाजनक नहीं है। कभी-कभी वे अपने माता-पिता की मौजूदा दशा के बारे में उसी गाँव से आए लोगों से पूछ लेते हैं और यह सुन कर राहत महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी स्वस्थ हैं और ठीक गुजारा कर पा रहे हैं। दरअसल, तुम असंतानोचित नहीं हो; तुम मानवता न होने के उस मुकाम पर नहीं पहुँचे हो, जहाँ तुम अपने माता-पिता की परवाह भी नहीं करना चाहते, या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह विभिन्न वस्तुपरक कारणों से है कि तुम्हें यह चुनना पड़ा है, इसलिए तुम असंतानोचित नहीं हो। ये वे दो कारण हैं। एक और कारण भी है : अगर तुम्हारे माता-पिता वैसे लोग नहीं हैं जो तुम्हें खास तौर पर सताते हैं या परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में रुकावट पैदा करते हैं, अगर वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास को समर्थन देते हैं, या वे ऐसे भाई-बहन हैं जो तुम्हारी तरह परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, खुद परमेश्वर के घर के सदस्य हैं, फिर तुम दोनों में से कौन दिल की गहराई से अपने माता-पिता के बारे में सोचते समय शांति से परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करेगा? तुममें से कौन अपने माता-पिता को—उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और उनके जीवन की तमाम जरूरतों के साथ—परमेश्वर के हाथों में नहीं सौंप देगा? अपने माता-पिता को परमेश्वर के हाथों में सौंप देना उनके प्रति संतानोचित आदर दिखाने का सर्वोत्तम तरीका है। तुम उम्मीद नहीं करते कि वे जीवन में तरह-तरह की मुश्किलें झेलें, तुम उम्मीद नहीं करते कि वे बुरा जीवन जिएँ, पोषणरहित खाना खाएँ, या बुरा स्वास्थ्य झेलें। अपने हृदय की गहराई से तुम निश्चित रूप से यही उम्मीद करते हो कि परमेश्वर उनकी रक्षा करेगा, उन्हें सुरक्षित रखेगा। अगर वे परमेश्वर के विश्वासी हैं, तो तुम उम्मीद करते हो कि वे अपने खुद के कर्तव्य निभा सकेंगे और तुम यह भी उम्मीद करते हो कि वे अपनी गवाही में दृढ़ रह सकेंगे। यह अपनी मानवीय जिम्मेदारियाँ निभाना है; लोग अपनी मानवता से केवल इतना ही हासिल कर सकते हैं। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने और अनेक सत्य सुनने के बाद, लोगों में कम-से-कम इतनी समझ-बूझ तो है : मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है, मनुष्य परमेश्वर के हाथों में जीता है, और परमेश्वर द्वारा मिलने वाली देखभाल और रक्षा, अपने बच्चों की चिंता, संतानोचित धर्मनिष्ठा या साथ से कहीं ज्यादा अहम है। क्या तुम इस बात से राहत महसूस नहीं करते हो कि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर की देखभाल और रक्षा के अधीन हैं? तुम्हें उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम चिंता करते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते; उसमें तुम्हारी आस्था बहुत थोड़ी है। अगर तुम अपने माता-पिता के बारे में सचमुच चिंतित और विचारशील हो, तो तुम्हें अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उन्हें परमेश्वर के हाथों में सौंप देना चाहिए, और परमेश्वर को हर चीज का आयोजन और व्यवस्था करने देनी चाहिए। परमेश्वर मानवजाति के भाग्य पर राज्य करता है और वह उनके हर दिन और उनके साथ होने वाली हर चीज पर शासन करता है, तो तुम अभी भी किस बात को लेकर चिंतित हो? तुम अपना जीवन भी नियंत्रित नहीं कर पाते, तुम्हारी अपनी ढेरों मुश्किलें हैं; तुम क्या कर सकते हो कि तुम्हारे माता-पिता हर दिन खुश रहें? तुम बस इतना ही कर सकते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में सौंप दो। अगर वे विश्वासी हैं, तो परमेश्वर से आग्रह करो कि वह सही पथ पर उनकी अगुआई करे ताकि वे आखिरकार बचाए जा सकें। अगर वे विश्वासी नहीं हैं, तो वे जो भी पथ चाहें उस पर चलने दो। जो माता-पिता ज्यादा दयालु हैं और जिनमें थोड़ी मानवता है, उन्हें आशीष देने के लिए तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हो, ताकि वे अपना बचा हुआ जीवन खुशी-खुशी बिता सकें। जहाँ तक परमेश्वर के कार्य करने के तरीके का प्रश्न है, उसकी अपनी व्यवस्थाएँ हैं और लोगों को उनके प्रति समर्पित हो जाना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (16))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे बहुत अच्छा लगा। मुझे हमेशा लगता था कि अपने माता-पिता की देखभाल करने के लिए उनके साथ न रह पाने का मतलब है कि मुझमें अंतरात्मा और मानवता की कमी है, लेकिन मैं वाकई नहीं समझती थी कि असल में संतानोचित होने का क्या मतलब है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अपने माता-पिता के साथ या उनके बहुत करीब रहते हैं और उनके पास अपने माता-पिता की देखभाल करने का अवसर होता है, लेकिन व्यक्तिगत लाभ या शारीरिक भोग-विलास के कारणों से वे संतान के रूप में अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा करते हैं और जब उनके माता-पिता बूढ़े हो जाते हैं या बीमार पड़ जाते हैं तो उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसे लोग वाकई गैर-संतानोचित होते हैं और उनमें मानवता की कमी होती है। पहले जब मैं घर पर रहती थी तो अपने कर्तव्य निभाते हुए माता-पिता का ख्याल रख लेती थी, अपनी क्षमता के अनुसार घर के कामों में अपने माता-पिता की मदद करती थी। मैं अब अपने माता-पिता की देखभाल नहीं कर रही थी, इसका कारण यह नहीं था कि मैंने अपनी अंतरात्मा खो दी थी या मुझमें मानवता की कमी थी, न ही इसलिए कि मैं एक संतान के रूप में अपनी जिम्मेदारियों से बच रही थी, बल्कि आंशिक रूप से ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं वापस लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी क्योंकि बड़ा लाल अजगर मेरे पीछे पड़ गया था और इसलिए भी क्योंकि एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे अपने कर्तव्य करने चाहिए; यह मेरा मिशन है। मैं अपने माता-पिता की देखभाल करने के लिए अपने कर्तव्य नहीं छोड़ सकती थी। ऐसा नहीं था कि मेरे पास घर पर समय था लेकिन मैं अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहती थी। मुझे इस मामले को परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार देखना था। साथ ही मैंने यह भी समझा कि मेरे माता-पिता को कितनी पीड़ा और किस तरह की मुश्किलों से गुजरना है और क्या वे अपने अंत के वर्षों में खुश रहेंगे, ये सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है और इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि मैं उनकी देखभाल करती हूँ या उनके साथ रहती हूँ। मैं कुछ भी नहीं बदल सकती। मैंने उस समय को याद किया जब मैं घर पर थी और मेरी माँ के घुटने की झिल्ली में सूजन आ गई थी। भले ही मैं घर के कुछ कामों में मदद और माँ की देखभाल कर पा रही थी, लेकिन मेरी देखभाल के कारण उसका दर्द जरा भी कम नहीं हुआ। जब से मैंने घर छोड़ा है, मेरी माँ का पैर धीरे-धीरे ठीक हो गया है और अब वह कोई भी काम कर सकती है। तथ्य यह साबित करते हैं कि मेरे माता-पिता कितने अच्छे से रहते हैं और उनके अंत के वर्ष कैसे होंगे, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। मुझे अपने माता-पिता को परमेश्वर के हाथों में सौंपना था और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना था।

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “परमेश्वर का यह कहने का क्या अर्थ है, ‘परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है’? इसका अर्थ हर व्यक्ति को यह एहसास कराना है : हमारा जीवन और हमारे प्राण परमेश्वर ने रचे हैं, ये हमें उसी से मिले हैं—अपने माता-पिता से नहीं, प्रकृति से तो बिल्कुल भी नहीं, ये चीजें हमें परमेश्वर ही देता है। हमारे माता-पिता से सिर्फ हमारी देह उत्पन्न हुई है, जैसे कि हमारे बच्चे हमसे उत्पन्न होते हैं, लेकिन उनकी किस्मत पूरी तरह परमेश्वर के हाथ में होती है। हम परमेश्वर पर विश्वास कर सकते हैं, यह भी परमेश्वर का दिया हुआ अवसर है; यह उसने निर्धारित किया है और उसका अनुग्रह है। इसलिए तुम्हें किसी दूसरे के प्रति दायित्व या जिम्मेदारी निभाने की जरूरत नहीं है; तुम्हें सृजित प्राणी के रूप में सिर्फ परमेश्वर के प्रति अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। लोगों को सबसे पहले यही करना चाहिए, यही व्यक्ति के जीवन का प्राथमिक कार्य है। अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से पूरा नहीं करतीं, तो तुम योग्य सृजित प्राणी नहीं हो। दूसरों की नजरों में तुम नेक पत्नी और प्यारी माँ हो सकती हो, बहुत ही अच्छी गृहिणी, संतानोचित संतान और समाज की आदर्श सदस्य हो सकती हो, लेकिन परमेश्वर के समक्ष तुम ऐसी इंसान रहोगी जिसने अपना दायित्व या कर्तव्य बिल्कुल भी नहीं निभाया, जिसने परमेश्वर का आदेश तो स्वीकारा मगर इसे पूरा नहीं किया, जिसने इसे मँझधार में छोड़ दिया। क्या इस तरह के किसी व्यक्ति को परमेश्वर की स्वीकृति हासिल हो सकती है? ऐसे लोग व्यर्थ होते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि मैं आज परमेश्वर की सुरक्षा के कारण जीवित हूँ। परमेश्वर ने मुझे जीवन दिया और आज तक हमेशा मेरा भरण-पोषण किया और मेरी रखवाली की है। मेरे जीवन का स्रोत परमेश्वर है, मेरे माता-पिता नहीं। दरअसल मेरे माता-पिता ने मेरे लिए जो कुछ भी किया है, वह माता-पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों का निर्वहन है। मेरे माता-पिता ने जो कुछ भी किया है, मुझे उसे परमेश्वर से स्वीकारना चाहिए। मुझे अपने माता-पिता का नहीं, बल्कि परमेश्वर का सबसे अधिक आभारी होना चाहिए। इन सभी वर्षों पर नजर डालने पर मैंने देखा मैं पारंपरिक सांस्कृतिक विचारों और मूल्यों के अनुसार जीवन जी रही थी, संतानोचित धर्मनिष्ठा और संतान की जिम्मेदारियों को अपने आचरण के मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में मानती थी, इन्हें किसी भी चीज से अधिक महत्वपूर्ण मानती थी। मैंने अपने घर लौटने और माता-पिता की देखभाल करने के लिए अपने कर्तव्य छोड़ देने तक की बात सोची। क्या मैं ऐसा करके परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं कर रही थी? चाहे मैं अपने माता-पिता की कितनी भी अच्छी तरह से देखभाल करूँ, यह सत्य का अभ्यास करना नहीं होगा, न ही इसका मतलब यह होगा कि मेरे पास अंतरात्मा या मानवता है। केवल एक सृजित प्राणी के कर्तव्य करने से ही किसी व्यक्ति में सच्ची मानवता आती है। भले ही मैं अभी भी अपने माता-पिता के बारे में सोचती हूँ और कभी-कभी उनके बारे में फिक्र करती हूँ, लेकिन परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ में आ गया कि एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में कितनी पीड़ा और कितने तरह के अनुभवों से गुजरता है, यह सब परमेश्वर के हाथ में हैं। मैं अपने माता-पिता से जुड़ी हर चीज को परमेश्वर को सौंपने, उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने के लिए तैयार हूँ।

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