99. क्या केवल अनुग्रह के लिए परमेश्वर में विश्वास रखना उचित है?

लियू लू, चीन

2016 के अंत में, मेरे बच्चे को लगातार दस्त हो रहे थे और कोई दवा काम नहीं कर रही थी। लेकिन अचानक, परमेश्वर में विश्वास रखने के कुछ ही दिनों बाद, मेरे बच्चे की बीमारी ठीक हो गई। कुछ समय बाद, मुझे पता भी नहीं चला और मेरा पुराना सिरदर्द भी ठीक हो गया। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। उसके बाद, मैं कलीसिया द्वारा व्यवस्थित किसी भी कर्तव्य में इसे करने का यथासंभव प्रयास करती। उस समय, मेरा पति परमेश्वर में मेरी आस्था के आड़े आ रहा था, लेकिन मैं बेबस नहीं थी, मुझे विश्वास था कि अगर मैं ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखकर अपने कर्तव्यों का पालन करती रहूँगी, तो मुझे परमेश्वर के आशीष मिलते रहेंगे और मेरे पास बचाए जाने का अवसर होगा।

अप्रैल 2020 में, मुझे कलीसिया अगुआ के रूप में चुना गया, और मैंने इस कर्तव्य को और भी अधिक सक्रियता से किया। एक दिन, कुछ महीने बाद, भोजन के बाद, मुझे बहुत थकान महसूस हुई और चक्कर आने लगे, तो मैंने अपना रक्तचाप जाँचा, और पाया कि यह 160एमएमएचजी और 90एमएमएचजी है। मुझे यकीन ही नहीं हुआ, सोचने लगी, “मुझे पहले कभी उच्च रक्तचाप नहीं हुआ था, यह अचानक इतना अधिक क्यों बढ़ गया?” चूँकि मैं अभी जवान थी, सोचा अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्य निभाऊंगी, तो परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा, और मेरा रक्तचाप यकीनन नीचे आ जाएगा, इसलिए मैंने बहुत बेबस महसूस नहीं किया, और कुछ घरेलु दवाओं से ही अपना इलाज कर लिया। मार्च 2021 में, मैंने फिर अपना रक्तचाप चेक कराया, तो यह 185एमएमएचजी और 128एमएमएचजी था। डॉक्टर हैरान रह गया और बोला, “आपका रक्तचाप बहुत ज्यादा है; अगर बाइक वगैरह चलाती हैं तो सावधान रहें, गिरने का डर है।” डॉक्टर की बात सुनकर मैं काफी चिंता में पड़ गई, और सोचा, “उच्च रक्तचाप कई जटिलताओं का कारण बन सकता है, उच्च रक्तचाप के कारण कुछ लोगों के मस्तिष्क में रक्त जमा हो जाता है और अचानक उनकी मृत्यु हो जाती है, कुछ लोगों के मस्तिष्क तक रक्त नहीं पहुँच पाता है और वे लंगड़ाकर चलने लगते हैं, और कुछ तो लकवाग्रस्त ही हो जाते हैं, अपनी देखभाल भी नहीं कर पाते। अगर मैं कहीं गिरकर लकवाग्रस्त हो गई तो क्या होगा?” इन हालात में, मैं यह सोचकर शिकायत करने लगी, “मैंने हमेशा अपना कर्तव्य निभाया है, फिर मेरा रक्तचाप अभी भी इतना ज्यादा क्यों आ रहा है? परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की?” एक सुबह जब मैं उठी, तो मुझे अचानक तेज चक्कर आने लगे, दोनों कंधों में बहुत दर्द हो रहा था, और लग रहा था जैसे दिमाग की नसें खिंच रही हों, सिर हिलाने से भयंकर पीड़ा हो रही थी जैसे सिर अभी फट जाएगा। ऐसा लग रहा था जैसे किसी भी वक्त रक्त-कोशिकाएँ फटेंगी और मेरी जान निकल जाएगी। मैं चेक कराने अस्पताल गई, डॉक्टर ने कहा कि गंभीर सर्वाइकल स्पोंडिलोसिस की वजह से सिरदर्द हो रहा है। इलाज के बाद थोड़ी राहत मिली, लेकिन मुझे अभी भी तेज चक्कर आ रहे थे और रह-रहकर सिर दर्द कर रहा था। मैं यह सोचकर थोड़ी निराश हो चली थी कि “मेरे तमाम प्रयासों और खुद को खपाने के बावजूद, मेरी हालत सुधरने के बजाय बदतर क्यों होती जा रही है? अगर यही हालत रही, तो किसी भी वक्त मेरी जान जा सकती है। बेहतर होगा कि मैं कोई एक ही तरह का काम करूँ। उसमें अगुआ होने के मुकाबले कम थकान होगी। और शायद मेरी हालत में भी सुधार हो जाए।” हालाँकि मैंने अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा, लेकिन मैं बेचैनी और संकट की स्थिति में जी रही थी, और मुझमें अपने कर्तव्यों के प्रति कोई दायित्व-बोध नहीं था। सुसमाचार कार्य को अप्रभावी देखकर भी, उसके कारणों का विश्लेषण करने या समस्याओं को हल करने की मेरी कोई इच्छा नहीं होती थी।

बाद में, मैंने कुछ घरेलू और उच्च रक्तचाप कम करने की दवाएँ लीं, और मेरा रक्तचाप थोड़ा कम हो गया। लेकिन फिर भी मुझे फिक्र बनी हुई थी कि मेरी हालत फिर से खराब न हो जाए, और सोचती थी कि मेरे सारे प्रयासों और खुद को खपाने के बावजूद न केवल मुझे कोई आशीष नहीं मिला बल्कि मेरी सेहत और ज्यादा बिगड़ रही थी, इसलिए मैं अब अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी, और सोचती थी कोई एक ही तरह का काम करना कम बोझिल होगा और मैं अपने स्वास्थ्य का भी बेहतर ख्याल रख पाऊँगी। उस दौरान बिगड़ती तबियत के चलते, बैठकों में मेरी अधिकांश संगति निराशाजनक और निष्क्रिय होती थी, और मैं अपने कर्तव्यों पर पूरा ध्यान नहीं दे पा रही थी, जिसके कारण सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता में लगातार गिरावट आ रही थी। ऐसी स्थिति तब तक बनी रही जब तक कि उच्च-स्तर के अगुआओं ने यह कहकर मेरी काट-छाँट न कर दी कि मैं अपने कर्तव्यों में बहुत लापरवाही बरत रही हूँ, और चेतावनी दी कि अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया, तो मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। मुझे समझ आ गया कि मैं काम को बाधित और अस्त-व्यस्त कर रही हूँ, मुझे थोड़ा डर लगा, और अंततः प्रार्थना और आत्मचिंतन करने के लिए मैं परमेश्वर के सामने आई। एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना “बीमारी का प्रहार होने पर परमेश्वर की इच्छा की खोज करनी चाहिए।” यह कहता है : “अगर बीमारी आ जाए तो तुम्हें इसका अनुभव कैसे करना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के इरादे जानने और टटोलने चाहिए; तुम्हें अपनी जाँच करनी चाहिए कि तुमने ऐसा क्या कर दिया जो सत्य के विरुद्ध है, और तुम्हारी कौन-सी भ्रष्टता दूर नहीं हुई है। कष्ट भोगे बिना तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव दूर नहीं हो सकता है। कष्टों की आँच से तपकर ही लोग स्वच्छंद नहीं बनेंगे और हर घड़ी परमेश्वर के समक्ष रह सकेंगे। जब कोई कष्ट भोगता है तो वह हमेशा प्रार्थना में लगा रहता है। वह अपने हृदय में निरंतर प्रार्थना करता रहता है, स्वयं की जाँच करता है कि कहीं वह कुछ गलत तो नहीं कर बैठा या कहीं सत्य के विरुद्ध तो नहीं चला गया(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचन सुनकर मुझे समझ आया कि परमेश्वर चाहता है कि इस बीमारी के जरिए मैं आत्मचिंतन कर अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानूँ, यह मुझे बचाने के उद्देश्य से था, और इसमें परमेश्वर का सच्चा इरादा निहित था। मैं कई सालों से परमेश्वर में विश्वास रखती आ रही थी, लेकिन जब बीमारी का सामना करना पड़ा, तो मुझे प्रार्थना में परमेश्वर के इरादे की खोज करना नहीं आता था, न ही मैं इस बात पर चिंतन करती थी कि परमेश्वर मेरे भ्रष्ट स्वभाव के किन पहलुओं को शुद्ध करना और बदलना चाहता है, या मेरे विश्वास में क्या अशुद्धियाँ हैं, इसके बजाय, मैं बीमारी के कारण नकारात्मकता और प्रतिरोध की स्थिति में जी रही थी, और जब सुसमाचार के कार्य में कई समस्याएँ आ रही थीं, तो मैं उन्हें हल करने के बारे में सोचने के बजाय, अपने कर्तव्यों से भाग जाना चाहती थी। मेरा स्वभाव बहुत अड़ियल हो गया था, मुझमें न विवेक बचा था और न ही जमीर! फिर मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं इतनी अड़ियल नहीं बनी रहना चाहती, मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं इस बीमारी से सबक सीख सकूँ।”

बाद में, मैंने अपनी समस्याओं का समाधान खोजा, और एक अनुभवात्मक साक्ष्य वीडियो देखा, जिसमें परमेश्वर के वचनों का एक अंश शामिल था जो मेरी अवस्था के लिए काफी प्रासंगिक था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर का अनुसरण करने वाले बहुत सारे लोग केवल इस बात से मतलब रखते हैं कि आशीष कैसे प्राप्त किए जाएँ या आपदा से कैसे बचा जाए। जैसे ही परमेश्वर के कार्य और प्रबंधन का उल्लेख किया जाता है, वे चुप हो जाते हैं और उनकी सारी रुचि समाप्त हो जाती है। उन्हें लगता है कि इस प्रकार के उबाऊ मुद्दों को समझने से उनके जीवन के विकास में मदद नहीं मिलेगी या कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा। परिणामस्वरूप, भले ही उन्होंने परमेश्वर के प्रबंधन के बारे में सुना होता है, वे इसके साथ गैर-गंभीर तरीके से पेश आते हैं। उन्हें यह इतना मूल्यवान नहीं लगता कि इसे स्वीकारा जाए, और वे इसे अपने जीवन के अंग के रूप में लेकर तो बिल्कुल भी नहीं स्वीकारते हैं। ऐसे लोगों का परमेश्वर का अनुसरण करने का केवल एक सरल उद्देश्य होता है, और वह उद्देश्य है आशीष प्राप्त करना। ऐसे लोग ऐसी किसी भी दूसरी चीज पर ध्यान देने की परवाह नहीं कर सकते जो इस उद्देश्य से सीधे संबंध नहीं रखती। उनके लिए, आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से ज्यादा वैध उद्देश्य और कोई नहीं है—यह उनके विश्वास का असली मूल्य है। यदि कोई चीज इस उद्देश्य को प्राप्त करने में योगदान नहीं करती, तो वे उससे पूरी तरह से अप्रभावित रहते हैं। आज परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोगों का यही हाल है। उनके उद्देश्य और इरादे न्यायोचित प्रतीत होते हैं, क्योंकि जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते भी हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं और अपना कर्तव्य भी निभाते हैं। वे अपनी जवानी न्योछावर कर देते हैं, परिवार और आजीविका त्याग देते हैं, यहाँ तक कि वर्षों अपने घर से दूर व्यस्त रहते हैं। अपने परम उद्देश्य के लिए वे अपनी रुचियाँ बदल डालते हैं, अपने जीवन का दृष्टिकोण बदल देते हैं, यहाँ तक कि अपनी खोज की दिशा तक बदल देते हैं, किंतु परमेश्वर पर अपने विश्वास के उद्देश्य को नहीं बदल सकते। वे अपने आदर्शों के प्रबंधन के लिए भाग-दौड़ करते हैं; चाहे मार्ग कितना भी दूर क्यों न हो, और मार्ग में कितनी भी कठिनाइयाँ और अवरोध क्यों न आएँ, वे दृढ़ रहते हैं और मृत्यु से नहीं डरते। इस तरह से अपने आप को समर्पित रखने के लिए उन्हें कौन-सी ताकत बाध्य करती है? क्या यह उनका अंतःकरण है? क्या यह उनका महान और कुलीन चरित्र है? क्या यह बुराई की शक्तियों से बिल्कुल अंत तक लड़ने का उनका दृढ़ संकल्प है? क्या यह प्रतिफल की आकांक्षा के बिना परमेश्वर की गवाही देने की उनकी आस्था है? क्या यह परमेश्वर की इच्छा अच्छी तरह पूरी करने के लिए सब-कुछ त्याग देने की तत्परता के प्रति उनकी निष्ठा है? या यह अनावश्यक व्यक्तिगत माँगें हमेशा त्याग देने की उनकी भक्ति-भावना है? ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए, जिसने कभी परमेश्वर के प्रबंधन को नहीं समझा, फिर भी इतना कुछ देना एक चमत्कार ही है! फिलहाल, आओ इसकी चर्चा न करें कि इन लोगों ने कितना कुछ दिया है। किंतु उनका व्यवहार हमारे विश्लेषण के बहुत योग्य है। उनके साथ इतनी निकटता से जुड़े उन लाभों के अतिरिक्त, परमेश्वर को कभी नहीं समझने वाले लोगों द्वारा उसके लिए इतना कुछ दिए जाने का क्या कोई अन्य कारण हो सकता है? इसमें हमें पूर्व की एक अज्ञात समस्या का पता चलता है : मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष लेने वाले और देने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह एक कर्मचारी और एक नियोक्ता के मध्य का संबंध है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। इस प्रकार के हित-आधारित संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेन-देन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझ नहीं होती, केवल असहाय दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर खुलासा करता है कि हालाँकि बहुत से लोग अपने कर्तव्य निभाते हैं, त्याग करते हैं, स्वयं को खपाते हैं और कार्य में व्यस्त रहते हैं, वे देखने में परमेश्वर के प्रति समर्पित और उसे संतुष्ट करते हुए भी नजर आते हैं, लेकिन असल में, उनके अपने इरादे होते हैं, और वे आशीष पाने के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल और उससे सौदेबाजी करने का प्रयास करते हैं। मैंने इस बात पर चिंतन किया कि कैसे, जब से मैंने अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया है, मेरे बच्चे की बीमारी ठीक हो गई और मेरा पुराना सिरदर्द भी ठीक हो गया, और इसलिए मैं अपने कर्तव्यों में सक्रिय हो गई, और जब मेरे परिवार ने मेरे रास्ते में आने की कोशिश की, तब भी मैं पीछे नहीं हटी, मैं यह मानती थी कि अगर मैं पूरी मेहनत से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करूँगी, तो मुझे भविष्य में परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष प्राप्त होगा और अंततः बचा ली जाऊँगी। यह पता चलने के बाद भी कि मुझे उच्च रक्तचाप है, मैंने अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा, चाहे वह कितना भी मुश्किल या थका देने वाला काम ही क्यों न हो, मैं देर रात तक काम करने को तैयार रहती थी, मुझे यकीन था कि अगर मैं अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान रहूँ, तो परमेश्वर मेरी बीमारी ठीक कर सकता है। जब मेरी हालत में सुधार नहीं हुआ और तबियत बिगड़ती चली गई, तो मैंने गलत समझा और शिकायत की, और मैंने सुसमाचार कार्य में आने वाली समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया, यहाँ तक कि एक अगुआ के रूप में अपने कर्तव्यों को त्यागने के बारे में भी सोच रही थी। मैंने देखा कि मेरे वर्षों का त्याग और खुद को खपाना एक सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से पूरा करने के लिए नहीं था, बल्कि भविष्य के आशीषों, अच्छे गंतव्य और परिणाम की सौदेबाजी करने के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल करने का प्रयास था। परमेश्वर के साथ मेरा रिश्ता केवल एक कर्मचारी और नियोक्ता का और पूरी तरह से सौदबाजी का था।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “जिनके हृदय में परमेश्वर है, उनकी चाहे किसी भी प्रकार से परीक्षा क्यों न ली जाए, उनकी निष्ठा अपरिवर्तित रहती है; किंतु जिनके हृदय में परमेश्वर नहीं है, वे अपनी देह के लिए परमेश्वर का कार्य लाभदायक न रहने पर परमेश्वर के बारे में अपना दृष्टिकोण बदल लेते हैं, यहाँ तक कि परमेश्वर को छोड़कर चले जाते हैं। इस प्रकार के लोग ऐसे होते हैं जो अंत में डटे नहीं रहेंगे, जो केवल परमेश्वर के आशीष खोजते हैं और उनमें परमेश्वर के लिए अपने आपको व्यय करने और उसके प्रति समर्पित होने की कोई इच्छा नहीं होती। ऐसे सभी अधम लोगों को परमेश्वर का कार्य समाप्ति पर आने पर बहिष्कृत कर दिया जाएगा, और वे किसी भी प्रकार की सहानुभूति के योग्य नहीं हैं। जो लोग मानवता से रहित हैं, वे सच में परमेश्वर से प्रेम करने में अक्षम हैं। जब परिवेश सही-सलामत और सुरक्षित होता है, या जब लाभ कमाया जा सकता है, तब वे परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी रहते हैं, किंतु जब जो वे चाहते हैं, उसमें कमी-बेशी की जाती है या अंततः उसके लिए मना कर दिया जाता है, तो वे तुरंत बगावत कर देते हैं। यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे अपने कल के उपकारियों के साथ अचानक बिना किसी तुक या तर्क के अपने घातक शत्रु के समान व्यवहार करते हुए, एक मुस्कुराते, ‘उदार-हृदय’ व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं। यदि इन पिशाचों को निकाला नहीं जाता, तो ये पिशाच बिना पलक झपकाए हत्या कर देंगे, तो क्या वे एक छिपा हुआ खतरा नहीं बन जाएँगे?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि जिस व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर है वह जानता है कि सब-कुछ परमेश्वर से आता है, चाहे उसे आशीष मिले या दुर्भाग्य झेलना पड़े, वह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम होता है। ठीक वैसे ही जैसे परीक्षणों के दौरान, जब अय्यूब की भेड़-बकरियाँ और गाय-बैल छीन लिए गए, उसके बच्चे मर गए और उसका सारा जिस्म घावों से भर गया, तो भी उसने परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं की या उसका त्याग नहीं किया, बल्कि परमेश्वर की स्तुति की, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” (अय्यूब 1:21)। अय्यूब को परमेश्वर पर सच्ची आस्था थी और उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय था। मैंने उसकी तुलना अपने व्यवहार से की। परमेश्वर का कार्य स्वीकारने के बाद, मेरे बच्चे की बीमारी ठीक हो गई थी, और मेरा पुराना सिरदर्द भी ठीक हो गया था। मुझे परमेश्वर का अनुग्रह प्राप्त हुआ और मेरे अंदर खुद को खपाने का उत्साह पैदा हुआ, लेकिन जब मेरी बीमारी और अधिक गंभीर हो गई, और मुझे मनचाहा आशीष नहीं मिला, तो मैं तुरंत परमेश्वर के विरुद्ध हो गई और उसके बारे में शिकायत करने लगी, मेरे अंदर अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व-बोध नहीं रहा और मैंने कलीसिया के हितों की बिल्कुल परवाह नहीं की। मैंने केवल अपने निजी हितों पर विचार किया, केवल परमेश्वर से आशीष और लाभ पाना चाहा, और जब मुझे वे नहीं मिले, तो मैं नकारात्मक और लापरवाह हो गई, और परमेश्वर का विरोध करने लगी। मुझे लगा कि मैं कितनी स्वार्थी और घृणित हूँ। मुझमें मानवता और विवेक की कमी है। अगर मैं इतनी ही अड़ियल बनी रही, तो अंततः परमेश्वर मुझे तिरस्कृत कर हटा देगा।

बाद में, मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “चूँकि आशीष प्राप्त करना लोगों के अनुसरण के लिए उचित उद्देश्य नहीं है, तो फिर उचित उद्देश्य क्या है? सत्य का अनुसरण, स्वभाव में बदलावों का अनुसरण, और परमेश्वर के सभी आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम होना : ये वे उद्देश्य हैं, जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। उदाहरण के लिए, मान लो, काट-छाँट किए जाने कारण तुम धारणाएँ और गलतफहमियाँ पाल लेते हो, और समर्पण में असमर्थ हो जाते हो। तुम समर्पण क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि तुम्हें लगता है कि तुम्हारी मंजिल या आशीष पाने के तुम्हारे सपने को चुनौती दी गई है। तुम नकारात्मक और परेशान हो जाते हो, और अपना कर्तव्य त्याग देना चाहते हो। इसका क्या कारण है? तुम्हारे अनुसरण में कोई समस्या है। तो इसे कैसे हल किया जाना चाहिए? यह अनिवार्य है कि तुम ये गलत विचार तुरंत त्याग दो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या हल करने के लिए तुरंत सत्य की खोज करो। तुम्हें खुद से कहना चाहिए, ‘मुझे छोड़कर नहीं जाना चाहिए, मुझे अभी भी एक सृजित प्राणी का कर्तव्य ठीक से निभाना चाहिए और आशीष पाने की अपनी इच्छा एक तरफ रख देनी चाहिए।’ जब तुम आशीष पाने की इच्छा छोड़ देते हो और सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो, तो तुम्हारे कंधों से एक भार उतर जाता है। और क्या तुम अभी भी नकारात्मक हो पाओगे? हालाँकि अभी भी ऐसे अवसर आते हैं जब तुम नकारात्मक हो जाते हो, लेकिन तुम इसे खुद को बाधित नहीं करने देते, और अपने दिल में प्रार्थना करते और लड़ते रहते हो, और आशीष पाने और मंजिल हासिल करने के अनुसरण का उद्देश्य बदलकर सत्य के अनुसरण को लक्ष्य बनाते हो, और मन ही मन सोचते हो, ‘सत्य का अनुसरण एक सृजित प्राणी का कर्तव्य है। आज कुछ सत्यों को समझना—इससे बड़ी कोई फसल नहीं है, यह सबसे बड़ा आशीष है। भले ही परमेश्वर मुझे न चाहे, और मेरी कोई अच्छी मंजिल न हो, और आशीष पाने की मेरी आशा चकनाचूर हो गई है, फिर भी मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊँगा, मैं इसके लिए बाध्य हूँ। कोई भी वजह मेरे कर्तव्य-प्रदर्शन को प्रभावित नहीं करेगी, वह मेरे द्वारा परमेश्वर के आदेश की पूर्ति को प्रभावित नहीं करेगी; मैं इसी सिद्धांत के अनुसार आचरण करता हूँ।’ और इसमें, क्या तुमने दैहिक विवशताएँ पार नहीं कर लीं? कुछ लोग कह सकते हैं, ‘अच्छा, अगर मैं अभी भी नकारात्मक हूँ तो क्या?’ तो इसे हल करने के लिए दोबारा सत्य की तलाश करो। तुम चाहे कितनी बार भी नकारात्मकता में पड़ो, अगर तुम उसे हल करने के लिए बस सत्य की तलाश करते रहते हो, और सत्य के लिए प्रयत्नशील रहते हो, तो तुम धीरे-धीरे अपनी नकारात्मकता से बाहर निकल आओगे। और एक दिन, तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे भीतर आशीष पाने की इच्छा नहीं है और तुम अपने गंतव्य और परिणाम से बाधित नहीं हो, और तुम इन चीजों के बिना अधिक आसान और स्वतंत्र जीवन जी रहे हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अभ्यास में ही होता है जीवन प्रवेश)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे यह समझ आया कि परमेश्वर में आस्था के अपने अनुसरण में आशीष पाना हमारा मकसद नहीं होना चाहिए, न ही परमेश्वर में आस्था रखते हुए हमें इस मार्ग पर चलना चाहिए। परमेश्वर में आस्था रखते हुए हमें सत्य का अनुसरण करने और स्वभाव में बदलाव लाने के मार्ग पर चलना चाहिए, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने योग्य और एक सच्चा सृजित प्राणी बनना चाहिए। मैं परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष पाने के लिए अपने कर्तव्य निभा रही थी, लेकिन जब मेरी बीमारी बिगड़ गई और मुझे लगा कि आशीष पाने की मेरी उम्मीदें टूट गईं हैं, तो मैं नकारात्मक और प्रतिरोधी हो गई। हालाँकि दिखावे के तौर पर मैंने अपने कर्तव्यों का त्याग नहीं किया था, लेकिन मेरा दिल पहले ही परमेश्वर को धोखा दे चुका था। मैं बेमन से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रही थी, और समस्याओं का समाधान नहीं कर रही थी, नतीजतन सुसमाचार का कार्य अप्रभावी हो गया था और भाई-बहन नकारात्मक स्थिति में रहने लगे थे, जिससे कलीसिया के काम को नुकसान पहुंचा। मैं परमेश्वर के इरादे के विपरीत मार्ग पर चल रही थी। अब मुझे समझ आ गया है कि हमें अपनी आस्था में आशीषों की खोज नहीं करनी चाहिए, बल्कि सत्य का अनुसरण कर अपने भ्रष्ट स्वभावों को त्याग देना चाहिए, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर एक विवेकशील व्यक्ति बनना चाहिए। अय्यूब की तरह, जिसने परमेश्वर की धार्मिकता की स्तुति की, चाहे उसे आशीष मिले या दुर्भाग्य सहना पड़ा, वह परमेश्वर के प्रति सच में समर्पित था और एक बेहद विवेकशील व्यक्ति था। आगे बढ़ते हुए, मैं अनुसरण के बारे में अपने गलत विचारों को सुधारने, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्यों को अच्छे से पूरा करने के लिए तैयार हो गई। जहां तक मेरी बीमारी का सवाल है, मैं सामान्य दवा और इलाज जारी रखूंगा। अपने आहार पर ध्यान दूँगी और उचित व्यायाम करूँगी। जब मैंने आशीष पाने की इच्छा छोड़ दी, तो मुझे बहुत अधिक सहजता महसूस हुई और मैं अपने कर्तव्यों के प्रति अधिक प्रेरित हुई। बाद में, मैंने विचलनों और समस्याओं की समीक्षा के लिए सुसमाचार कार्यकर्ताओं के साथ काम किया, उनके काम की खोज-खबर ली और निरीक्षण किया, और अनुपयुक्त कर्मियों का समायोजन किया। कुछ समय के बाद, सुसमाचार कार्य की प्रभावशीलता पहले की तुलना में बेहतर हो गई।

बाद में, मैंने कई बार अपना रक्तचाप मापा, और मुझे आश्चर्य हुआ, मेरा रक्तचाप सामान्य था। मैं बहुत खुश थी, लेकिन मुझे काफी ग्लानि भी हुई। मैंने इस पर चिंतन किया कि कैसे, जब मैं बीमारी में रहती थी, तो मुझे अपने कर्तव्यों के प्रति कोई दायित्व-बोध नहीं था, जिससे काम में हानि हो रही थी, लेकिन परमेश्वर ने मेरे अपराधों पर ध्यान नहीं दिया और मुझे पश्चात्ताप करने का अवसर दिया। मैंने महसूस किया कि मैं परमेश्वर की बहुत ऋणी हूँ। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग भविष्य के लिए आशीष पाने में लगे रहते हैं; यही उनकी आस्‍था का लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन उनकी प्रकृति की भ्रष्टता परीक्षणों और शोधन के माध्यम से दूर की जानी चाहिए। तुम जिन-जिन पहलुओं में शुद्ध नहीं हो और भ्रष्टता दिखाते हो, उन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाकर उसमें परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपनी भ्रष्टता को जान जाओ। अंततः तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने के लिए मर जाना पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों का कई वर्षों तक शोधन न हो, अगर वे एक हद तक पीड़ा न सहें, तो वे अपनी सोच और हृदय में देह की भ्रष्टता की बाध्यताएँ तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। जिन किन्हीं पहलुओं में लोग अभी भी अपनी शैतानी प्रकृति की बाध्यताओं में जकड़े हैं और जिन भी पहलुओं में उनकी अपनी इच्छाएँ और मांगें बची हैं, उन्हीं पहलुओं में उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। केवल दुख भोगकर ही सबक सीखे जा सकते हैं, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्य कष्ट और परीक्षणों से गुजरकर समझ में आते हैं। कोई भी व्यक्ति आरामदायक और सहज परिवेश या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के इन वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर अपने कार्य में बहुत बुद्धिमान है। मानवीय दृष्टिकोण से कोई बड़ी बीमारी कष्टकारी लगती है, लेकिन परमेश्वर इन पीड़ाओं के जरिए लोगों का शोधन कर उन्हें शुद्ध करता है। बिल्कुल मेरी बीमारी की तरह, हालाँकि देखने में ऐसा लगता है कि मुझे थोड़ी पीड़ा हुई है, लेकिन परमेश्वर ने इस बीमारी का उपयोग अपने प्रति मेरी आस्था की अशुद्धियों को शुद्ध करने के लिए किया है, और इस बीमारी के प्रकटन के बिना, मुझे आशीष पाने के लिए अपनी आस्था में मिलावट के इरादे का एहसास न हुआ होता, और मैं अभी भी अपने कर्तव्यों में परमेश्वर को धोखा देने और सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही होती, और अंततः परमेश्वर द्वारा बेनकाब कर हटा दी जाती। इस अनुभव ने मुझे लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर का सच्चा इरादा दिखाया है। जब मैंने पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखा था, तो मैंने उसके अनुग्रह का भरपूर आनंद लिया था, उस समय, मुझे ज्यादा कुछ समझ नहीं आता था और मैं सोचती थी कि परमेश्वर सिर्फ अनुग्रह देने वाला परमेश्वर है। लेकिन सच्चाई यह है कि परमेश्वर लोगों पर इसलिए अनुग्रह करता है लोग उसके सामने आएँ और उसके द्वारा उद्धार प्राप्त करें। अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य सत्य व्यक्त करना और न्याय करना है, और साथ ही, वह लोगों का शोधन और उन्हें शुद्ध करने के लिए विभिन्न परिवेशों की व्यवस्था करता है, ताकि वे उसके प्रति समर्पित होकर उसकी आराधना कर सकें और उसके द्वारा उद्धार प्राप्त कर सकें। परमेश्वर में विश्वास रखकर, मैं केवल उसके अनुग्रह का आनंद नहीं ले सकती, बल्कि मुझे न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शोधन का भी अनुभव करना चाहिए, और मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव लाना और अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। हालाँकि मुझे इस बीमारी से थोड़ी पीड़ा हुई है, लेकिन मैंने अनुभव किया है कि परमेश्वर ने मेरे साथ जो किया है वह उसका प्रेम और उद्धार है, और मैंने परमेश्वर के कार्य में बुद्धिमत्ता को भी पहचाना है। मैं परमेश्वर को तहे-दिल से धन्यवाद देती हूँ!

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