98. हमेशा लोगों को खुश करने से क्या होता है

विक्की, यूएसए

मैं कलीसिया में सुसमाचार के काम का पर्यवेक्षण करती हूँ। बहन वांडा और मैं टीम अगुआओं के तौर पर मिलकर काम करते हैं। शुरू-शुरू में, मैंने देखा कि वांडा अपना काम पूरे जोश से करती थी और काफी प्रभावी थी। मुझे लगा कि वह दायित्व निभाने वाली एक जिम्मेदार इंसान है। लेकिन फिर धीरे-धीरे वह अपने काम में निष्क्रिय होती चली गई। समस्याएँ हल करना तो दूर, उसने उन पर ध्यान देना भी बंद कर दिया। पहले जब हम अपने काम का सार प्रस्तुत करते थे, तो वह आकर मुझे समस्याओं या काम के भटकावों का सार बताती थी और चर्चा करती थी कि उन्हें कैसे हल करना है। लेकिन इस बार उसकी तरफ से एकदम सन्नाटा था। आम तौर पर, हम अपनी टीम में काम का बड़ा हिस्सा साथ मिलकर पूरा करते थे और जैसे ही पता चलता समस्याओं का सार प्रस्तुत करते थे। इससे समस्याएँ बेहतर ढंग से हल होती थीं और काम की प्रभावशीलता भी सुधरती थी। लेकिन अब वांडा समूह की समस्याओं पर पूरे दिल से ध्यान नहीं दे रही थी। मुझे लगा, “वह टीम अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रही है। यह स्वीकार्य नहीं है, मुझे इसके बारे में उसके साथ संगति करनी होगी।” लेकिन फिर ख्याल आया, “वांडा के साथ मेरे काफी अच्छे संबंध हैं। अगर मैं उसे सीधे कह दूं कि वह सिर्फ हल्का-फुल्का दायित्व ही निभा रही है और कोई वास्तविक काम नहीं कर रही, कहीं वह शर्मिंदा तो नहीं होगी? अगर मेरे ऐसा कहकर माहौल बिगाड़ देती हूँ, तो फिर हम बाद में साथ काम कैसे कर पाएँगे? जाने दो। मुश्किलें जितनी कम हो, उतना अच्छा। मुझे उसे नाराज नहीं करना चाहिए।” उस वक्त, मैं मन ही मन खुद को दोषी महसूस करती थी, “क्या इस दौरान बहन वांग की स्थिति खराब नहीं चल रही? ऐसा ही चलता रहा तो उसका जीवन कष्टमय होगा और उसके काम पर भी बुरा असर पड़ेगा। क्या मुझे जल्दी ही उसके साथ संगति नहीं करनी चाहिए? लेकिन अगर मैं सीधे ही कह दूँ कि उसमें बोझ की भावना नहीं है, तो क्या वह इस बात से बेबस महसूस नहीं करेगी कि मैं उसके काम पर नजर रखती हूँ? शायद सिर्फ अगुआ को बताना काफी है ताकि वह वांडा की मदद कर सके। तब मुझसे उसकी कोई नाराजगी नहीं होगी।” लेकिन फिर सोचा, “अगर मैं अगुआ से कहूँ और वांडा को पता चला, वह ऐसा तो नहीं कहेगी कि मैं चुगली कर रही हूँ? नहीं, कुछ न कहना ही बेहतर है।” इसी उधेड़बुन के चलते मुझे इस मामले में कोई तसल्ली नहीं मिली। ऐसी मानसिक स्थिति के चलते मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि सत्य खोजने में मुझे राह दिखाए ताकि मेरी समस्या का समाधान हो सके।

एक बार एक सभा में मैंने परमेश्वर के वचन पढे : “जब तुम लोग कोई समस्या देखकर भी उसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते, उसके बारे में संगति नहीं करते, उसे सीमित करने की कोशिश नहीं करते और इसके अलावा, तुम उसकी रिपोर्ट अपने वरिष्ठों को नहीं करते, बल्कि खुशामदी इंसान बनने की कोशिश करते हो, तो क्या यह विश्वासघात की निशानी है? क्या खुशामदी लोग परमेश्वर के प्रति वफादार होते हैं? बिल्कुल नहीं होते। ऐसा व्यक्ति न केवल परमेश्वर के प्रति विश्वासघाती होता है, बल्कि वह शैतान का सहयोगी, उसका अनुचर और अनुयायी होता है। वे अपने कर्तव्य और जिम्मेदारी में विश्वासघाती होते हैं, बल्कि शैतान के प्रति वफादार होते हैं। समस्या का सार इसी में निहित है। जहाँ तक व्यावसायिक अयोग्यता की बात है, अपना कर्तव्य निभाते हुए निरंतर सीखना और अपने अनुभवों को एक-साथ लाना संभव है। ऐसी समस्याओं को आसानी से हल किया जा सकता है। परंतु जिस चीज़ का हल निकालना सबसे कठिन है, वह है मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव। अगर तुम लोग सत्य का अनुसरण या अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं करते, बल्कि हमेशा खुशामदी व्यक्ति बने रहते हो, और उन लोगों की काट-छाँट या उनकी मदद नहीं करते जिन्हें तुमने सिद्धांतों का उल्लंघन करते देखा है, न ही उन्हें उजागर या प्रकट करते हो, बल्कि हमेशा पीछे हट जाते हो, जिम्मेदारी नहीं लेते, तो तुम जैसे कर्तव्य निभाते हो, उससे केवल कलीसिया के काम का नुकसान और उसमें देरी ही होगी(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। “लोगों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार व्यवहार करना और दूसरों से पेश आना चाहिए; यह मानवीय आचरण का सबसे बुनियादी सिद्धांत है। अगर लोग मानवीय आचरण के सिद्धांत नहीं समझेंगे तो वे सत्य का पालन कैसे कर सकते हैं? सत्य का पालन करना खोखले शब्द बोलना या नारे लगाना नहीं होता। बल्कि इसका मतलब यह होता है कि, जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी व्यक्ति से हो, अगर यह इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और फिर पालन का मार्ग खोजना चाहिए। इस तरह अभ्यास कर सकने वाले लोग वे हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना, सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से संवाद करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? शायद तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि ‘सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है,’ और यह कि तुम्हें हर किसी के साथ बनाए रखनी चाहिए, दूसरों को अपमानित नहीं करना चाहिए, और किसी को नाराज नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरों के साथ अच्छे संबंध बनाए जा सकें। इस दृष्टिकोण से बंधे हुए जब तुम देखते हो कि दूसरे कोई गलत काम कर रहे हैं या सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हैं, तो तुम चुप रहते हो। तुम किसी को नाराज करने के बजाय कलीसिया के काम का नुकसान होने दोगे। तुम हर किसी के साथ बनाए रखना चाहते हो, चाहे वे कोई भी हो। जब तुम बात करते हो तो तुम केवल मानवीय भावनाओं और अपमान से बचने के बारे में सोचते हो और तुम दूसरों को खुश करने के लिए हमेशा मीठी-मीठी बातें करते हो। अगर तुम्हें पता भी चले कि किसी में कोई समस्याएँ हैं, तो तुम उन्हें सहन करने का चुनाव करते हो और बस उनकी पीठ पीछे उनके बारे में बातें करते हो, लेकिन उनके सामने तुम शांति बनाए रखते हो और अपने संबंध बनाए रखते हो। तुम इस तरह के आचरण के बारे में क्या सोचते हो? क्या यह चापलूस व्यक्ति का आचरण नहीं है? क्या यह धूर्तता भरा आचरण नहीं है? यह मानवीय आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। क्या ऐसे आचरण करना नीचता नहीं है? जो इस तरह से कार्य करते हैं वे अच्छे लोग नहीं होते, यह नेक लोगों का आचरण नहीं है। चाहे तुमने कितना भी दुःख सहा हो, और चाहे तुमने कितनी भी कीमतें चुकाई हों, अगर तुम सिद्धांतहीन आचरण करते हो, तो तुम इस मामले में असफल हो गए हो और परमेश्वर के समक्ष तुम्हारे आचरण को मान्यता नहीं मिलेगा, उसे याद नहीं रखा जाएगा और स्वीकार नहीं किया जाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना, मेरा यह दृष्टिकोण एकदम भ्रामक है कि लोगों से हमेशा मधुर संबंध बनाए रखने चाहिए। अगर मैं लोगों की गलतियाँ उजागर करती रहूँगी, तो इससे वे नाराज होंगे, उनके आत्म-सम्मान और हमारे संबंध दोनों को ठेस पहुंचेगी, जिससे साथ काम करना और मुश्किल हो जाएगा। जब मैंने इस दृष्टिकोण की तुलना परमेश्वर के वचनों से की, तो देखा कि यह सत्य के अनुरूप नहीं है और एक इंसान होने के सिद्धांतों के विरुद्ध भी है। ऐसे लोग स्वार्थी, घृणास्पद, अस्थिर और धोखेबाज होते हैं। ऐसे लोग मधुर संबंध बनाए रखने के लिए किसी के साथ समस्या होने पर चुप रहते हैं, बस उसकी चापलूसी और प्रशंसा करते रहते हैं। वे मेलजोल में निष्ठाहीन होते हैं और सच्ची मदद नहीं करते, बल्कि वे लोगों को नुकसान पहुँचाते हैं। परमेश्वर की दृष्टि में नीच होते हैं, वह उन्हें स्वीकार नहीं करता। जैसा कि वांडा के साथ मेरा व्यवहार था—मुझे साफ दिख रहा था कि वह अपने काम का कोई दायित्व नहीं उठा रही और वास्तविक कार्य नहीं कर रही है, लेकिन मैंने उसे उसकी समस्याएँ न बताकर सत्य का अभ्यास नहीं किया। मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि मैं उसकी समस्या बता सकूं। मुझे तो बस उसके साथ मधुर संबंध बनाए रखने की फिक्र थी। मुझे लगता था कि किसी की समस्याओं को उजागर करने से उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचेगी। हालाँकि इससे काम पर असर पड़ रहा था, फिर भी मैं देह के खिलाफ विद्रोह कर सत्य का अभ्यास करने को तैयार नहीं थी। मैं एक कपटी इंसान थी, एक खुशामदी इंसान थी! पता चलने पर भी मैंने बहन की समस्या उजागर नहीं की। हालाँकि मैंने अपने संबंध बनाए रखे, लेकिन इससे उसके जीवन प्रवेश को कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि कलीसिया का सुसमाचार कार्य प्रभावित हुआ। ऐसा करके, मैं लोगों को और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचा रही थी।

इसके बाद, मैंने विचार किया कि लोगों के साथ मेलजोल के सिद्धांत क्या होने चाहिए। इस पर परमेश्वर के वचन कहते हैं, “तुम लोगों को सत्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए—तभी तुम जीवन प्रवेश कर सकते हो, और जीवन प्रवेश करने के बाद ही तुम दूसरों का पोषण और अगुआई कर सकते हो। अगर यह पता चले कि दूसरों के कार्य सत्य के विपरीत हैं, तो हमें प्रेम से सत्य के लिए प्रयास करने में उनकी मदद करनी चाहिए। अगर दूसरे लोग सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हों, और उनके काम करने के तरीके में सिद्धांत हों, तो हमें उनसे सीखने और उनका अनुकरण करने का प्रयास करना चाहिए। यही पारस्परिक प्रेम है। कलीसिया के अंदर तुम्हें इस तरह का परिवेश रखना चाहिए—हर कोई सत्य पर ध्यान केंद्रित करे और उसे पाने का प्रयास करे। इससे फर्क नहीं पड़ता कि लोग कितने बूढ़े अथवा युवा हैं या वे पुराने विश्वासी हैं या नहीं। न ही इस बात से फर्क पड़ता है कि उनकी काबिलियत ज्यादा है या कम है। इन चीजों से फर्क नहीं पड़ता। सत्य के सामने सभी बराबर हैं। तुम्हें यह देखना चाहिए कि सही और सत्य के अनुरूप कौन बोल रहा है, परमेश्वर के घर के हितों की कौन सोच रहा है, कौन सबसे अधिक परमेश्वर के घर का कार्यभार उठा रहा है, सत्य की अधिक स्पष्ट समझ किसे है, न्याय की भावना को कौन साझा कर रहा है और कौन कीमत चुकाने को तैयार है। ऐसे लोगों का उनके भाई-बहनों द्वारा समर्थन और सराहना की जानी चाहिए। ईमानदारी का यह परिवेश, जो सत्य का अनुसरण करने से आता है, कलीसिया के अंदर व्याप्त होना चाहिए; इस तरह से, तुम्हारे पास पवित्र आत्मा का कार्य होगा, और परमेश्वर तुम्हें आशीष और मार्गदर्शन प्रदान करेगा। अगर कलीसिया के अंदर कहानियाँ सुनाने, एक-दूसरे के साथ उपद्रव करने, एक-दूसरे से द्वेष रखने, एक-दूसरे से ईर्ष्या करने और एक-दूसरे से बहस करने का परिवेश होगा, तो पवित्र आत्मा निश्चित रूप से तुम लोगों के अंदर काम नहीं करेगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पूरे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने वाला ही परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति होता है)। कलीसिया में सत्य का शासन चलता है; भाई-बहनों को सत्य सिद्धांतों के अनुसार मेलजोल करना चाहिए। कलीसिया के सदस्यों को अपने मेलजोल में सत्य को प्राथमिकता देनी चाहिए। अगर कोई सिद्धांतों का उल्लंघन करे, तो उसके साथ प्रेम से पेश आते हुए उसकी काट-छाँट और मदद करनी चाहिए ताकि वह सत्य की ओर प्रयास कर सके। जो भी सत्य के अनुसार बोलता और कार्य करता है, जिसके पास न्याय की भावना होती है और वह कलीसिया के काम की रक्षा कर पाता है, तो उसका समर्थन और रक्षा करनी चाहिए। जब हर कोई परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्य करने का प्रयास करता है, सत्य पर संगति और उसका अभ्यास करता है, तो परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्यों में भटकाव समय के साथ कम होते जाएंगे। इन बातों को समझ लेने पर, मेरा मन प्रफुल्लित हो गया, अब मेरे पास अभ्यास का एक मार्ग था। फिर मैंने इस बारे में सोचा कि कैसे दरअसल, परमेश्वर का हर सच्चा विश्वासी अपना कर्तव्य अच्छे से करते हुए उसके प्रेम का प्रतिफल देना चाहता है। लेकिन काम के दौरान कोई भी अपनी भ्रष्टता और कमियाँ प्रकट करने से बच नहीं सकता। भाई-बहनों को इस पर एक-दूसरे की मदद और सुधार करना चाहिए। किसी की समस्या बताकर उजागर करना उसे शर्मिंदा या हमला करने के लिए नहीं किया जाता, बल्कि इसलिए कि उसे जितनी जल्दी हो सके समस्याएँ समझने में मदद मिले और वह अपनी गलत स्थिति में सुधार करे। यही सच्चा प्यार और आपसी प्रेम की अभिव्यक्ति है। इससे कलीसिया के काम की रक्षा होती है। इसके विपरीत, जब तुम दूसरों की समस्या देखकर भी मौन रहते हो, अपने हितों की रक्षा के लिए शैतान के फलसफे पर चलते हो, तो यह उनके जीवन प्रवेश और कलीसिया कार्य के प्रति गैर-जिम्मेदाराना हरकत है। इस तरह जीना स्वार्थ और घृणास्पद है। मैंने वांडा के साथ अपने मेलजोल पर विचार किया। मैंने उसके कार्य में समस्याएँ देखीं, लेकिन उसे कोई मदद नहीं की क्योंकि मुझे केवल अपनी छवि बचाने की चिंता थी, मैंने न तो उसके जीवन प्रवेश का सोचा, न ही कलीसिया के काम के बारे में सोचा। मैं स्वार्थी और नीच थी, मुझमें कोई इंसानियत नहीं थी! मैंने खुद को फटकारा, मैं परमेश्वर के वचनों का पालन करने और बहन के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने को तैयार हो गई।

मैंने वांडा के पास जाकर उससे खुलकर संगति की। एक-एक कर उसकी सारी समस्याएं बताईं। वह परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर भावुक हो गई, और बोली कि हाल ही में उसकी स्थिति बहुत खराब थी, प्रार्थना के दौरान भी उसके पास कहने को कुछ नहीं था। यह सुनकर मैं चौंक गई और खुद को दोषी ठहराया। अगर मैंने उसे यह बात बताकर पहले उसकी मदद की होती, तो शायद वह अपनी गलत स्थिति में जल्दी सुधार ले आती और उसके काम पर कोई बुरा असर न पड़ता। मैंने देखा कि मैं सत्य का अभ्यास न करके और खुशामदी बनकर, बहन के साथ अपने संबंधों को बचा रही थी, दरअसल मैं उसको नुकसान पहुंचा रही थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और संकल्प लिया कि भविष्य में लोगों के साथ मेलजोल में मैं सत्य के अभ्यास पर ध्यान दूंगी अगर कोई समस्या दिखाई दी तो मैं उसके बारे में बताऊंगी और खुशामदी बनने के बजाय तुरंत मदद करूंगी।

तब से वांडा अपने कर्तव्य में अधिक सक्रिय हो गई। लेकिन कुछ समय बाद, मैंने देखा कि वह अपने काम में सिद्धांतों का उल्लंघन करती है। अगर कोई बुरी मानवता वाला इंसान हो और सुसमाचार ग्रहण करने के सिद्धांतों के अनुरूप न हो, तो भी वह उसके साथ सुसमाचार का प्रचार कर मेहनत बर्बाद करती है। मैं उलझन में पड़ गई। वांडा काफी समय से सुसमाचार का प्रचार कर रही थी। उसे सिद्धांतों के हर पहलू की बेहतर समझ होनी चाहिए। वह इतनी बड़ी गलती कैसे कर सकती थी? क्या उसकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ? शायद मुझे उसे चेताना चाहिए। पर फिर मैंने सोचा, “मैं पहले भी उसकी मदद कर चुकी हूँ। उसे बार-बार सुधारना ठीक नहीं। इससे परेशानी होगी। अगर मैं उसे बार-बार सुधारूँगी, तो कहीं वह ऐसा न सोचे कि मैं अहंकारी इंसान हूँ, हमेशा दूसरों की समस्याओं में मीन-मेख निकालती हूँ या मैं लोगों से कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करती हूँ? इससे तो मेरी छवि खराब ही होगी। मुझे इसे ऐसे ही छोड़ देना चाहिए।” इस तरह, मैंने देखा कि काम के दौरान वांडा की स्थिति और हालत ठीक नहीं है, लेकिन फिर भी मैंने आंखें मूंद लीं, न तो उस ओर इशारा किया और न ही उसकी मदद की। कुछ समय बाद, वांडा को बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि वह काफी समय से अपने काम में लापरवाह और अप्रभावी थी। मैंने खुद को दोषी माना। मुझे साफ तौर पर पता था कि उसके कर्तव्य निर्वहन में समस्याएँ हैं, लेकिन फिर भी मैंने ध्यान नहीं दिया। मैंने आंखें मूंद लीं, न तो उसे चेताया और न ही उसकी कोई मदद की। उसकी बर्खास्तगी के लिए क्या मैं भी जिम्मेदार नहीं थी? मुझे दुख हुआ और समझ नहीं आया कि क्या करूँ। मैं हमेशा लोगों की खुशामद करती हूँ, मैं सत्य का अभ्यास क्यों नहीं कर पाती? इस समस्या की जड़ क्या थी?

आत्मचिंतन करने और सत्य खोजने पर, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, “सांसारिक आचरण के फलसफों में एक सिद्धांत है, जो कहता है, ‘अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है।’ इसका मतलब है कि मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए अपने मित्र की समस्याओं के बारे में चुप रहना चाहिए, भले ही वे स्पष्ट दिखें—उन्हें लोगों के चेहरे पर वार न करने या उनकी कमियों की आलोचना न करने के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। लोगों को एक-दूसरे को धोखा देना चाहिए, एक-दूसरे से छिपाना चाहिए, एक दूसरे के साथ साजिश करने में लिप्त होना चाहिए; और हालाँकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि दूसरा व्यक्ति किस तरह का है, पर वे इसे सीधे तौर पर नहीं कहते, बल्कि अपना मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शातिर तरीके अपनाते हैं। ऐसे संबंध व्यक्ति क्यों बनाए रखना चाहेगा? यह इस समाज में, अपने समूह के भीतर दुश्मन न बनाना चाहने के लिए होता है, जिसका अर्थ होगा खुद को अक्सर खतरनाक स्थितियों में डालना। यह जानकर कि किसी की कमियाँ बताने या उसे चोट पहुँचाने के बाद वह तुम्हारा दुश्मन बन जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुँचाएगा, और खुद को ऐसी स्थिति में न डालने की इच्छा से तुम सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफों का इस्तेमाल करते हो, ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो।’ इसके आलोक में, अगर दो लोगों का संबंध ऐसा है, तो क्या वे सच्चे दोस्त माने जा सकते हैं? (नहीं।) वे सच्चे दोस्त नहीं होते, एक-दूसरे के विश्वासपात्र तो बिल्कुल नहीं होते। तो, यह वास्तव में किस तरह का संबंध है? क्या यह एक मूलभूत सामाजिक संबंध नहीं है? (हाँ, है।) ऐसे सामाजिक संबंधों में लोग अपनी भावनाएँ जाहिर नहीं कर सकते, न ही गहन विचार-विनिमय कर सकते हैं, न यह बता सकते हैं कि वे क्या चाहते हैं। वे अपने दिल की बात, या जो समस्याएँ वे दूसरे में देखते हैं, या ऐसे शब्द जो दूसरे के लिए लाभदायक हों, जोर से नहीं कह सकते। इसके बजाय, वे अच्छी-अच्छी बातें कहते हैं ताकि औरों का समर्थन मिलता रहे। वे सच बोलने या सिद्धांतों का पालन करने की हिम्मत नहीं करते, कि कहीं लोगों के साथ उनकी दुश्मनी न हो जाए। जब किसी व्यक्ति को कोई भी धमका नहीं रहा होता, तो क्या वह व्यक्ति अपेक्षाकृत आराम और शांति से नहीं रहता? क्या ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ को प्रचारित करने में लोगों का यही लक्ष्य नहीं है? (हाँ, है।) स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है। इस तरह जीने वाले लोगों का कोई विश्वासपात्र नहीं होता, कोई करीबी दोस्त नहीं होता, जिससे वे जो चाहें कह सकें। वे एक-दूसरे के साथ रक्षात्मक होते हैं, एक दूसरे का शोषण कर रहे हैं और एक दूसरे को मात दे रहे हैं, दोनों ही उस रिश्ते से जो चाहते हैं, वह लेते हैं। क्या ऐसा नहीं है? मूल रूप से ‘अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो’ का लक्ष्य दूसरों को ठेस पहुँचाने और दुश्मन बनाने से बचना है, किसी को चोट न पहुँचाकर अपनी रक्षा करना है। यह व्यक्ति द्वारा खुद को चोट पहुँचने से बचाने के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक और तरीका है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। “मनुष्य की शैतानी प्रकृति बड़ी मात्रा में शैतानी फलसफों और विषों से युक्त है। कभी-कभी तुम स्वयं ही उनके बारे में अवगत नहीं होते और उन्हें नहीं समझते; फिर भी तुम्हारे जीवन का हर पल इन चीजों पर आधारित है। इसके अलावा तुम्हें लगता है कि ये चीजें बहुत सही और तर्कसम्मत हैं, और बिल्कुल भी गलत नहीं हैं। यह, यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि शैतान के फलसफे लोगों की प्रकृति बन गए हैं और वे पूरी तरह से उनके अनुसार जी रहे हैं, इस तरह से जीने को अच्छा मानते हैं और उनमें जरा-सा भी पश्चात्ताप का भाव नहीं होता। इसलिए, वे लगातार अपनी शैतानी प्रकृति प्रकट कर रहे हैं और वे निरंतर शैतानी फलसफे के अनुसार जीवन जी रहे हैं। शैतान की प्रकृति मनुष्य का जीवन है, और वह मनुष्य का प्रकृति सार है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पतरस के मार्ग पर कैसे चलें)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के जरिए, मैं समझ गई कि मेरे खुशामदी होने की सबसे बड़ी वजह यह थी कि मैं शैतान के हाथों बुरी तरह से भ्रष्ट हो चुकी थी। मेरे अंदर शैतान के फलसफे और नियम भरे हुए थे, जैसे “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” और “अच्छे दोस्तों की गलतियों पर खामोश रहने से दोस्ती अच्छी और लंबी होती है,” आदि। ये चीजें मेरे काम के तरीके और आचरण का मूल मंत्र बन चुकी थीं। इन शैतानी फलसफों के अधीन, मुझे लगता था कि अपनी कथनी और करनी से लोगों को नाराज न करना, अच्छे संबंध और शांति बनाए रखना आचरण का एक बुद्धिमान तरीका है। वांडा को अपने कर्तव्य में लापरवाही और सिद्धांतों का उल्लंघन करते देखकर और इसका उसके काम पर असर पड़ते देखकर भी, मैं उसे उजागर करने या सुधारने को तैयार नहीं थी। मैंने अपने संबंधों को बनाए रखने के लिए सुसमाचार कार्य का नुकसान होने दिया। मैं शैतान के फलसफों से इतनी ज्यादा चिपकी हुई थी कि सत्य का अभ्यास नहीं कर पाई, और मुझमे नाम-मात्र का भी जमीर या विवेक नहीं था! परमेश्वर के वचन कहते हैं, “स्पष्ट रूप से, यह अस्तित्व का एक शातिर, कपटपूर्ण तरीका है, जिसमें रक्षात्मकता का तत्त्व है, जिसका लक्ष्य आत्म-संरक्षण है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। मैं अंदर तक हिल गई। परमेश्वर के वचनों ने सही जगह चोट करके शैतानी फलसफों के अनुसार जीने के मेरे नीच इरादों को उजागर कर दिया। पहले मुझे लगता था कि बहन को न सुधार पाने का कारण यह है कि ऐसा करने से कहीं वह बेबस न महसूस करे। लेकिन दरअसल, यह मेरे लिए सत्य का अभ्यास न करने का सिर्फ एक बहाना था। मुझे लगता था, अगर मैं उसे बार-बार टोकूँगी, तो वह नाराज हो जाएगी, मुझे अहंकारी समझेगी और सोचेगी कि मुझे मीन-मेख निकालने की आदत है और मैं लोगों से उचित व्यवहार नहीं कर सकती। मैंने उसकी समस्याओं से आंखें मूंद लीं, ताकि उसकी नजर में मेरी छवि अच्छी बनी रहे, और मैंने सत्य पर संगति नहीं की, न ही उसकी मदद करने के लिए उसे उजागर किया। दरअसल, इसके बारे में सोचना, जब मैं भाइयों और बहनों को देखता हूँ तो उनकी समस्याओं को इंगित करना और उजागर करना उनकी मदद करना है। यह उनके जीवन और चर्च के काम के लिए न्याय और जिम्मेदारी की भावना है और यह एक अभिमानी स्वभाव को प्रकट नहीं कर रहा है, न ही यह उन्हें कठिन समय देने की कोशिश कर रहा है। लेकिन मैंने विकृत रूप से सोचा कि दूसरों की समस्याओं को इंगित करना और उजागर करना अहंकार का संकेत था, और इस सकारात्मक अभ्यास को भ्रष्टाचार के रहस्योद्घाटन के रूप में माना। मैं वास्तव में सही और गलत को नहीं जानती थी और बहुत बेतुका था! तब जाकर मुझे एहसास हुए कि मैं औरों के साथ अपने मेलजोल में ईमानदार नहीं थी, बस दिखावा करने और चालें चलने में लगी रहती थी। मैं बेहद अस्थिर और धोखेबाज थी! मैंने सोचा कि जब मैं वांडा के साथ मिलकर काम कर रही थी, तो उस तरह सत्य का अभ्यास नहीं कर रही थी जैसे करना चाहिए था और अपनी जिम्मेदारी भी ठीक से नहीं निभा रही थी। अब उसे बर्खास्त कर दिया गया था और मुझे बेहद अफसोस था। मैंने अनुभव किया कि कैसे शैतानी फलसफे के अनुसार जीना लोगों और मुझे आहत करता है और कैसे या मेरे जीवन को घटिया बनाता है। मैं अब उन फलसफों के अनुसार नहीं जीना चाहती थी। मैं सत्य खोजकर कर्तव्य करना चाहती थी।

बाद में, मैंने देखा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, “एक ईमानदार व्यक्ति बनो, या थोड़ा और विस्तार में जाएँ तो : एक सरल और खुले व्यक्ति बनो, जो कुछ भी छिपाता नहीं, जो झूठ नहीं बोलता, जो बेबाकी से बोलता है, और एक निष्कपट व्यक्ति बनो जिसमें न्याय की भावना हो, जो सच्चाई के साथ बोल सकता हो। लोगों को पहले इसे हासिल करना चाहिए। ... परमेश्वर सबसे ज्यादा धोखेबाज लोगों से घृणा करता है। अगर तुम शैतान के प्रभाव से मुक्त हो कर उद्धार प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हें पहले एक ईमानदार व्यक्ति बनने से शुरुआत करनी चाहिए। स्पष्टवादी बनो, सच बोलो, अपनी भावनाओं से विवश मत होओ, अपने ढोंग और चालाकी को त्याग दो, और सिद्धांतों के साथ बोलो और मामले सँभालो—यह जीने का एक आसान और सुखद तरीका है, और तुम परमेश्वर के सामने जी पाओगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। “मेरे राज्य को उन लोगों की ज़रूरत है जो ईमानदार हैं, उन लोगों की जो पाखंडी और धोखेबाज़ नहीं हैं। क्या सच्चे और ईमानदार लोग दुनिया में अलोकप्रिय नहीं हैं? मैं ठीक विपरीत हूँ। ईमानदार लोगों का मेरे पास आना स्वीकार्य है; इस तरह के व्यक्ति से मुझे प्रसन्नता होती है, और मुझे इस तरह के व्यक्ति की ज़रूरत भी है। ठीक यही तो मेरी धार्मिकता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 33)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि परमेश्वर ऐसे ईमानदार लोगों को पसंद करता है जो शुद्ध, और ईमानदार होते हैं, जो सीधी बात करते हैं, अपनी कथनी और करनी में धोखेबाज नहीं होते। केवल ईमानदार लोग ही परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने योग्य होते हैं। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव द्वारा तय किया गया है। इस बारे में सोचकर कि कैसे गैर-विश्वासियों की दुनिया में, सारा मेलजोल बस एक दिखावा होता है। दूसरों के सामने केवल मनभावन और चापलूसी भरी बातें बोली जाती हैं, ईमानदारी का एक शब्द तक नहीं होता। जब बातें जमीर और नैतिकता के विरुद्ध होती हैं, तब अधिकांश लोग अपनी रक्षा करने का विकल्प चुनते हैं, सोचते हैं कि मधुमक्खी के छत्ते में कौन हाथ डाले। उनमें ईमानदारी या निष्पक्षता का एक शब्द बोलने की हिम्मत नहीं होती। वे पाखंडी और विश्वासघाती होते हैं, उनमें निष्ठा या दृढ़ता नहीं होती। मैं भी जब भाई-बहनों के साथ बातचीत करती तो इन्हीं शैतानी फलसफों का सहारा लेती। कोई समस्या दिखने पर मैं उसे उजागर या कोई मदद न करती। बस लोगों के साथ अपने संबंधों की हिफाजत करती। इस तरह जीना बहुत अस्थिर और धोखेबाज होना है। परमेश्वर को इससे चिढ़ और घृणा है। इस बिंदु पर मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर पवित्र है और उसका सार भरोसेमंद है। देहधारी परमेश्वर लोगों के साथ वास्तविक रूप से मेलजोल कर रहा है। वह सत्य व्यक्त कर रहा है, न्याय कर रहा है और हर समय हर जगह लोगों को उजागर कर रहा है, यह सब वह लोगों के द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभाव और परमेश्वर के बारे में उनकी धारणाओं के अनुसार कर रहा है। विशेष रूप से, परमेश्वर के न्याय और उजागर करने वाले वचन सीधे हमारी भ्रष्टता के मूल और सार पर प्रहार कर रहे हैं। हालाँकि उसके वचन कठोर और कटु हैं, लेकिन वे ऐसे इसलिए हैं ताकि हम स्वयं को जानें, पश्चात्ताप करें और खुद को बदलें। परमेश्वर के वचन दृढ़ और स्पष्ट हैं। वे दिल से निकले वचन हैं। परमेश्वर का हृदय लोगों के प्रति बेहद ईमानदार और विश्वसनीय है। अगर परमेश्वर ने हमें साफ तौर पर ये वचन न दिए होते, अगर शैतान के हाथों हमारी भयंकर भ्रष्टता की सच्चाई उजागर न की होती, तो हम खुद को कभी न जान पाते। फिर हम अपने आपको अच्छा मानकर अपनी ही कल्पनाओं में जी रहे होते। हमारा भ्रष्ट स्वभाव कभी न बदलता और हम कभी भी उद्धार प्राप्त न कर पाते। परमेश्वर को लगता है कि हम उसके न्याय और उजागर करने वाले वचनों से अपनी भ्रष्टता की सच्चाई को पहचान सकते हैं और उसके सामने पश्चात्ताप कर उसके वचनों के अनुसार जीते हुए एक ईमानदार इंसान बनने का प्रयास कर सकते हैं। यह लोगों के प्रति परमेश्वर का प्रेम है। इन सब पर विचार कर, मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला। मैंने परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करते हुए एक शुद्ध, सच्चा और ईमानदार व्यक्ति बनने का संकल्प लिया।

एक बार अगुआ, बहन बेलिंडा, हमारे साथ काम पर चर्चा कर रही थी। मुझे लगा उसने जो काम सौंपा है उसमें एक भटकाव है और मैं उसे बताना चाहती थी। लेकिन फिर सोचा, “यह बहन अगुआ है। अगर मैंने उसके काम में कोई चूक या भटकाव बताया, तो क्या वह शर्मिंदा होगी? अगर उसे लगा कि मैं उसके लिए मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश कर रही हूँ और बाद में उसने मुझसे बदला लिया तो? मैंने सोचा जाने दो, कुछ नहीं कहना चाहिए। गलतियां तो सबसे होती हैं।” तब मुझे लगा कि मेरी खुशामदी दृष्टिकोण फिर से सिर उठा रही है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने में मेरा मार्गदर्शन करे। बाद में, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, “अगर तुम्हारे पास एक ‘खुशामदी व्यक्ति’ होने की प्रेरणाएं और दृष्टिकोण हैं, तब तुम सभी मामलों में सत्य का अभ्यास और सिद्धांतों का पालन नहीं कर पाओगे, तुम हमेशा असफल होकर नीचे गिरोगे। यदि तुम जागरूक नहीं होते और कभी सत्य नहीं खोजते, तो तुम छद्म-विश्वासी हो और कभी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? इस तरह की चीजों से सामना होने पर, तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे पुकारना चाहिए, उद्धार के लिए विनती करनी चाहिए और माँगना चाहिए कि वह तुम्हें अधिक आस्था और शक्ति दे, और तुम्हें सिद्धांतों का पालन करने में समर्थ बनाए, वो करो जो तुम्हें करना चाहिए, चीजों को सिद्धांतों के अनुसार संभालो, उस स्थिति में मजबूती से खड़े रहो जहाँ तुम्हें होना चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करो और परमेश्वर के घर के कार्य को होने वाले किसी भी नुकसान को रोको। अगर तुम अपने स्वार्थों को, अपने अभिमान और एक ‘खुशामदी व्यक्ति’ होने के दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो, और अगर तुम एक ईमानदार, अविभाजित हृदय के साथ वह करते हो जो तुम्हें करना चाहिए, तो तुम शैतान को हरा चुके होगे, और सत्य के इस पहलू को प्राप्त कर चुके होगे। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीने, दूसरों के साथ अपने संबंध सुरक्षित रखने, कभी भी सत्य का अभ्यास न करने, और सिद्धांतों का पालन न करने की हिम्मत करने पर अड़े रहते हो, तो क्या तुम अन्य मामलों में सत्य का अभ्यास कर पाओगे? तुम्हारे पास अभी भी आस्था या शक्ति नहीं होगी। यदि तुम सत्य नहीं खोजते या स्वीकार नहीं करते, तो क्या परमेश्वर में ऐसी आस्था से तुम सत्य प्राप्त कर पाओगे? (नहीं।) और यदि तुम सत्य प्राप्त नहीं कर सकते, तो क्या तुम बचाए जा सकते हो? नहीं बचाए जा सकते। यदि तुम हमेशा शैतान के फलसफे के अनुसार जीते हो, सत्य वास्तविकता से पूरी तरह वंचित रहते हो, तो तुम कभी भी नहीं बचाए जा सकते। यह बात तुम्हें स्पष्ट होनी चाहिए कि उद्धार के लिए सत्य प्राप्त करना एक आवश्यक शर्त है। तो फिर, तुम सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हो? यदि तुम सत्य का अभ्यास कर सकते हो, सत्य के अनुसार जी सकते हो और सत्य तुम्हारे जीवन का आधार बन जाता है, तो तुम सत्य प्राप्त कर जीवन पा लोगे, तब तुम बचाए जाने वाले लोगों में से एक होगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने जाना कि अगर लोग शैतानी फलसफों के सहारे जीते हुए लोगों की खुशामद करते रहेंगे, तो उन्हें कभी सत्य नहीं मिलेगा और अंततः कभी उनका उद्धार नहीं होगा। साथ ही, मैं यह भी समझ गई कि अगर हम खुशामदी होने की समस्या को ठीक करना चाहते हैं, तो हमें परमेश्वर से प्रार्थना कर उस पर भरोसा करना होगा, हिम्मत माँगनी होगी, देह के खिलाफ विद्रोह करना त्यागना होगा, निजी हितों को छोड़कर कलीसिया के कार्य पर विचार करना होगा। इस तरह अभ्यास करने से, हम धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव के बंधनों से छुटकारा पा सकते हैं। अगर हम कभी सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित नहीं होते हैं, तो हमें प्रकट करके हटा दिया जाएगा। यह सोचकर मुझे सत्य का अभ्यास करने का साहस और प्रेरणा मिली। मैं खुशामदी बनकर नहीं रह सकती जिसमें न विवेक हो और न ही मानवता। मैंने बेलिंडा के आगे इस मुद्दे को उठाया। उसे बताने के बाद, मुझे बड़ी राहत मिली। बाद में एक सभा में, बेलिंडा ने सही किए जाने पर अपने चिंतन और उससे मिले लाभों पर संगति की। उसके अनुभवजन्य समझ ने मुझे भीतर तक छू लिया और मैंने सत्य का अभ्यास करने की मिठास का अनुभव किया। इस अनुभव के बाद सत्य के अभ्यास में मेरा विश्वास बढ़ गया। इसके बाद जब मुझे ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ा, तो भले ही मैं अभी भी अक्सर लोगों से खुशामदी व्यवहार प्रकट करने लगती थी, लेकिन पीड़ा और संघर्ष की अनुभूति पहले से कम होती गई। मैं सजग रहकर खुद के खिलाफ विद्रोह कर सत्य का अभ्यास कर रही थी। इस प्रकार सत्य का अभ्यास करने से, मेरे मन को बहुत सुकून और शांति मिली। मुझे यह परिणाम परमेश्वर के वचनों की कृपा से मिला था। परमेश्वर का धन्यवाद!

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