97. मैं अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी उठाने से क्यों डरती हूँ?

एबी, जापान

मैं हमारे कलीसिया में सिंचन कार्य की प्रभारी हुआ करती थी। एक दिन हमारा अगुआ मेरे पास आकर बोला कि वह मुझे फिल्म निर्माण कार्य की प्रभारी बनाने जा रहा है। मैं दंग रह गई : एक साल पहले मेरे पास फिल्म निर्माण कार्य की जिम्मेदार थी, लेकिन त्वरित सफलता की मेरी उत्सुकता ने बाधाएँ पैदा कर दी थीं और आखिरकार मुझे बर्खास्त कर दिया गया था। अगर वे मुझे अब इस काम का प्रभारी बनाते हैं तो क्या मैं वाकई इसे सँभाल पाऊँगी? फिल्म निर्माण कार्य की प्रभारी बनने के लिए सिर्फ काम करने में काबिल होने से ज्यादा की जरूरत होती है—इसके लिए हर प्रकार के संबंधित मामलों की जानकारी जरूरी है। मेरी विशेषज्ञता में बहुत-सी कमियाँ थीं; मेरी योग्यताएँ और काबिलियत औसत थी। अगर मैं यह काम करने लगी और मुझे नतीजे नहीं मिले तो मैं क्या करूँगी? मैं जानती थी कि मैं यह कर्तव्य स्वीकार नहीं कर सकती। मैंने अगुआ को बताया कि मुझे पहले इस कर्तव्य से कैसे बर्खास्त किया गया था और ऐसा क्यों हुआ था और इस बात पर जोर दिया कि मेरी काबिलियत और कार्यक्षमता उतनी अच्छी नहीं है। मैंने संकेत दिया कि मैं यह कर्तव्य नहीं स्वीकारना चाहती। मैंने सोचा कि मेरी यह बात सुनकर वह इस पद के लिए किसी और के नाम पर विचार करेगा। लेकिन अगुआ ने कुछ ऐसा किया जिसकी मुझे उम्मीद नहीं थी : उसने मेरे साथ संगति की, मुझसे मेरी पिछली नाकामी से सीखे गए सबक की समीक्षा करने के लिए कहा और मुझे परमेश्वर पर भरोसा करके इस कर्तव्य को अच्छी तरह से करने के लिए कहा। मैं उलझन में थी। मैं जानती थी कि यह कर्तव्य निभाने के लिए मुझे परमेश्वर की अनुमति प्राप्त है; मुझे इसे स्वीकार कर समर्पण कर देना चाहिए। लेकिन मुझे डर था कि अगर मैंने इसे स्वीकार लिया और अच्छा काम नहीं किया तो मैं बेनकाब जाऊँगी और मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। इस पर कुछ देर तक सोचने के बाद मैंने हिम्मत जुटाई और कर्तव्य स्वीकारने का फैसला किया। लेकिन फिल्म निर्माण कार्य की प्रभारी होने के विचार ने मुझे डरा दिया। जो बहन मुझसे पहले प्रभारी थी, वह योग्यता और काबिलियत में मुझसे कम नहीं थी—अगर वह इसे अच्छे से नहीं कर सकी थी तो मैं कैसे कर पाऊँगी? मैंने उस सिंचन कार्य के बारे में सोचा जो वह उस समय कर रही थी : यह बहुत मुश्किल नहीं था और मुझे जो नतीजे मिल रहे थे, वे भी बहुत बुरे नहीं थे। उस काम को करते रहने में बहुत कम जोखिम था। फिल्म निर्माण का काम करना बहुत अलग था : मेरे लिए यह वाकई बहुत मुश्किल था और जब मैंने इसे पहले किया था, तब मैंने कुछ अपराध किए थे। अगर मैं इस बार भी ठीक से नहीं कर पाई और कोई व्यवधान या गड़बड़ी पैदा की तो मुझे डर था कि मुझे निकाल दिया जाएगा। मेरे एक तरफ कुआँ था और दूसरी तरफ खाई। जितना मैं इसके बारे में सोच रही थी, मुझे उतना ही दबाव महसूस हो रहा था। भले ही मैंने इसे करने के लिए सहमति दे दी थी, लेकिन मैं इसे इस आधार पर टालती रही कि सिंचन कार्य अभी तक किसी और को नहीं सौंपा गया है। मुझे पता था कि मेरी अवस्था ठीक नहीं है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मार्गदर्शन कर मेरी मदद करे ताकि मैं खुद को समझूँ और इस अवस्था को बदल पाऊँ।

प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “जब नूह ने वैसा किया जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था, तो वह नहीं जानता था कि परमेश्वर के इरादे क्या थे। उसे नहीं पता था कि परमेश्वर कौनसा कार्य पूरा करना चाहता था। परमेश्वर ने नूह को सिर्फ एक आज्ञा दी थी और अधिक स्पष्टीकरण के बिना उसे कुछ करने का निर्देश दिया था, नूह ने आगे बढ़कर इसे कर दिया। उसने गुप्त रूप से परमेश्वर की इच्छाओं को जानने की कोशिश नहीं की, न ही उसने परमेश्वर का विरोध किया या निष्ठाहीनता दिखाई। वह बस गया और एक शुद्ध एवं सरल हृदय के साथ इसे तदनुसार कर डाला। परमेश्वर उससे जो कुछ भी करवाना चाहता था, उसने किया और इस काम में परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण कर इन्हें सुनने में विश्वास उसका सहारा बना। इस प्रकार जो कुछ परमेश्वर ने उसे सौंपा था, उसने ईमानदारी एवं सरलता से उसे निपटाया था। समर्पण ही उसका सार था, उसके कार्यों का सार था—न कि अपनी अटकलें लगाना या प्रतिरोध करना, न ही अपने निजी हितों और अपने लाभ-हानि के विषय में सोचना था। इसके आगे, जब परमेश्वर ने कहा कि वह जलप्रलय से संसार का नाश करेगा, तो नूह ने नहीं पूछा कब या उसने नहीं पूछा कि चीज़ों का क्या होगा और उसने निश्चित तौर पर परमेश्वर से नहीं पूछा कि वह किस प्रकार संसार को नष्ट करने जा रहा था। उसने बस वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था। हालाँकि परमेश्वर चाहता था कि इसे बनाया जाए और जिससे बनाया जाए, उसने बिल्कुल वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने उसे कहा था और तुरंत कार्रवाई भी शुरू कर दी। उसने परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा के रवैये के साथ परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार काम किया। ... उसने बस समर्पण किया, सुना और तदनुसार कार्य किया(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। परमेश्वर के आदेश के प्रति नूह के रवैये ने मुझे बहुत प्रभावित किया। जब नूह को परमेश्वर द्वारा आदेश दिया गया तो उसे नहीं पता था कि परमेश्वर का इरादा क्या है। लेकिन उसने परमेश्वर के अनुरोध पर संदेह नहीं किया, अस्वीकार नहीं किया, या अटकलें नहीं लगाईं और उसने ऐसा न करने के लिए बहाने नहीं बनाए। उसने सिर्फ सरल आज्ञाकारिता और समर्पण दिखाया और परमेश्वर के निर्देशानुसार काम किया। उसने अपने व्यक्तिगत फायदे या नुकसान के बारे में सोचने में वक्त जाया नहीं किया, बल्कि परमेश्वर का अनुरोध मानने और परमेश्वर का आदेश पूरा करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया। जब मैंने अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये के बारे में सोचा तो मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। जब अगुआ ने मुझे फिल्म निर्माण कार्य का प्रभार सौंपने की अपनी योजना के बारे में बताया था तो मैंने अटकलें लगानी शुरू कर दी थीं और अपने दिल में सतर्क हो गई थी। मैंने सोचा कि फिल्म निर्माण कार्य बहुत मुश्किल है और थोड़ी सी भी लापरवाही से मैं बेनकाब हो जाऊँगी, इसलिए मैं अपने कर्तव्य से बचना चाहती थी। जब मैंने पहले यह कर्तव्य किया था तो मैंने इसे ठीक से नहीं निभाया था—यह और भी वाजिब कारण था कि मुझे इस बार इसे कृतज्ञ हृदय से स्वीकारना चाहिए था, इसे करते समय परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए था और अपना पिछना ऋण चुकाना चाहिए था। लेकिन मैंने सिर्फ अपने हित साधने के बारे में सोचा। मैंने परमेश्वर पर संदेह किया और उससे रक्षात्मक हो गई, मुझे लगा कि यह कर्तव्य देकर परमेश्वर मुझे मेरे भविष्य की संभावनाओं और नियति से वंचित करना चाहता है। मैंने देखा कि मेरे पास कोई अंतरात्मा या विवेक नहीं है। जब सब कुछ सामान्य था और मेरे जीवन में कोई समस्या नहीं थी तो मैं परमेश्वर के सामने समर्पण करने और उसे संतुष्ट करने की अपनी इच्छा को जोर-शोर से रखती थी। लेकिन जैसे ही उसने चाहा कि मैं जिम्मेदारी ले लूँ, मैं अपने बारे में सोचने लगी थी, समर्पण का संकेत तक नहीं दिखाया था। जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, मुझे उतनी ही शर्मिंदगी हुई और मैंने संकल्प लिया कि मैं अब अपने कर्तव्य से और नहीं कतराऊँगी। फिर भी मेरा दिल उन चिंताओं से बोझिल था जो अभी तक पूरी तरह से दूर नहीं हुई थीं, इसलिए मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, ऐसे उत्तरों की तलाश की जो मुझे इस समस्या को सुलझाने में मदद कर सकें।

एक दिन भक्ति के दौरान मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जिससे मुझे अपनी अवस्था की समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए जिम्मेदारी उठाने से डरते हैं। यदि कलीसिया उन्हें कोई काम देती है, तो वे पहले इस बात पर विचार करेंगे कि इस कार्य के लिए उन्हें कहीं उत्तरदायित्व तो नहीं उठाना पड़ेगा, और यदि उठाना पड़ेगा, तो वे उस कार्य को स्वीकार नहीं करेंगे। किसी काम को करने के लिए उनकी शर्तें होती हैं, जैसे सबसे पहले, वह काम ऐसा होना चाहिए जिसमें मेहनत न हो; दूसरा, वह व्यस्त रखने या थका देने वाला न हो; और तीसरा, चाहे वे कुछ भी करें, उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। इन शर्तों के साथ वे कोई काम हाथ में लेते हैं। ऐसा व्यक्ति किस प्रकार का होता है? क्या ऐसा व्यक्ति धूर्त और कपटी नहीं होता? वह छोटी से छोटी जिम्मेदारी भी नहीं उठाना चाहता। उन्हें यहाँ तक डर लगता है कि पेड़ों से झड़ते हुए पत्ते कहीं उनकी खोपड़ी न तोड़ दें। ऐसा व्यक्ति क्या कर्तव्य कर सकता है? परमेश्वर के घर में उनका क्या उपयोग हो सकता है? परमेश्वर के घर का कार्य शैतान से युद्ध करने के कार्य के साथ-साथ राज्य के सुसमाचार फैलाने से भी जुड़ा होता है। ऐसा कौन-सा काम है जिसमें उत्तरदायित्व न हो? क्या तुम लोग कहोगे कि अगुआ होना जिम्मेदारी का काम है? क्या उनकी जिम्मेदारियाँ भी बड़ी नहीं होतीं, और क्या उन्हें और ज्यादा जिम्मेदारी नहीं उठानी चाहिए? चाहे तुम सुसमाचार फैलाते हो, गवाही देते हो, वीडियो बनाते हो, या कुछ और करते हो—इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो—जब तक इसका संबंध सत्य सिद्धांतों से है, तब तक उसमें उत्तरदायित्व होंगे। यदि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो उसका असर परमेश्वर के घर के कार्य पर पड़ेगा, और यदि तुम जिम्मेदारी उठाने से डरते हो, तो तुम कोई काम नहीं कर सकते। अगर किसी को कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी लेने से डर लगता है तो क्या वह कायर है या उसके स्वभाव में कोई समस्या है? तुम्हें अंतर बताने में समर्थ होना चाहिए। दरअसल, यह कायरता का मुद्दा नहीं है। यदि वह व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है, या वह अपने हित में कुछ कर रहा है, तो वह इतना बहादुर कैसे हो सकता है? वह कोई भी जोखिम उठा लेगा। लेकिन जब वह कलीसिया के लिए, परमेश्वर के घर के लिए काम करता है, तो वह कोई जोखिम नहीं उठाता। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच और बेहद कपटी होते हैं। कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी न उठाने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं होता, उसकी वफादारी की क्या बात करना। किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के सबसे महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते, और वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों से मेरा हृदय बहुत प्रभावित हुआ। पहले मैंने नहीं सोचा था कि जिम्मेदारी स्वीकारने की मेरी अनिच्छा इतनी गंभीर समस्या थी। लेकिन अब परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से मैं समझ गई कि जो लोग जिम्मेदारी लेने से डरते हैं वे सबसे स्वार्थी और चालाक किस्म के लोग होते हैं। ऐसे लोगों में परमेश्वर के प्रति कोई ईमानदारी नहीं होती और अगर वे बहुत लंबे समय तक इस अवस्था में रहते हैं और नहीं बदलते हैं तो अंत में परमेश्वर उन्हें तिरस्कृत कर देगा। परमेश्वर के वचनों के चश्मे से अपने खुद के प्रदर्शन को देखते हुए मैंने देखा कि मैं बिल्कुल वैसी ही व्यक्ति थी : स्वार्थी, घृणित, धूर्त और धोखेबाज। मैं अच्छी तरह से जानती थी कि फिल्म निर्माण कार्य के प्रभारी व्यक्ति का अभी-अभी तबादला हुआ था और इस भूमिका को सँभालने के लिए किसी और की तुरंत जरूरत थी। मैं काम और कर्मियों से परिचित थी और इस समय भूमिका के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार थी। लेकिन खुद को बचाने की अपनी लालसा के कारण मैं यह कर्तव्य स्वीकारने की इच्छुक नहीं थी। मैंने सुझाव दिया कि मेरी काबिलियत कम है और मेरी कार्यक्षमता में कमी है, लेकिन वाकई मैं बस अपने कर्तव्य से बचना चाहती थी। महत्वपूर्ण क्षण में मैं एक भगोड़े की तरह पेश आई और कलीसिया के कार्य की जरा भी रक्षा नहीं की। मैं स्वार्थी और नीच थी और मुझमें कोई मानवता नहीं थी। जब वाकई अच्छी मानवता वाला कोई व्यक्ति कलीसिया के काम में मुश्किल स्थिति देखता है तो वह सक्रिय रूप से खड़ा होता है और काम सँभालने में मदद करने के लिए दौड़ पड़ता है। वह अपने व्यक्तिगत फायदे और नुकसान के बारे में नहीं सोचता। यहाँ तक कि अगर वह खुद मुश्किल में हो या उसमें कमियाँ हों, तो भी वह अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटता। क्या करना है यह जानने के लिए वह परमेश्वर पर भरोसा करता है और अनुभव के जरिए अभ्यास करता है और सुधार लाने का सर्वश्रेष्ठ प्रयास करता है। सिर्फ ऐसे ही व्यक्ति के पास अंतरात्मा और विवेक दोनों होते हैं। जब मैंने यह सब सोचा तो मुझे दुख और अपराध बोध हुआ। मैंने आत्म-चिंतन किया और खुद से पूछा : मुझे यह कर्तव्य स्वीकारने से क्या रोक रहा है?

बाद में मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े : “जब लोगों के कर्तव्यों का समायोजन किया जाता है, तब अगर निर्णय कलीसिया ने लिया है तो लोगों को इसे स्वीकार कर आज्ञा का पालन करना चाहिए, आत्मचिंतन करना चाहिए और समस्या के सार और अपनी कमजोरियों को समझना चाहिए। यह लोगों के लिए बहुत फायदेमंद है और यह ऐसी चीज है जिसका अभ्यास किया जाना चाहिए। यह इतनी सरल चीज है कि साधारण लोग इसे समझ सकते हैं और बहुत अधिक कठिनाइयों या किसी दुर्गम बाधा का सामना किए बिना इससे सही तरीके से व्यवहार कर सकते हैं। ... जब लोगों के कर्तव्य में कोई साधारण समायोजन किया जाता है, तो उन्हें आज्ञाकारिता भरे रवैये के साथ उत्तर देना चाहिए, जैसा परमेश्वर का घर उनसे कहे वैसा करना चाहिए, जो वे कर सकते हैं वह करना चाहिए, और वे चाहे जो भी करें, उसे जितना उनके सामर्थ्य में है, उतना अच्छा करना चाहिए और अपने पूरे दिल से और अपनी पूरी ताकत से करना चाहिए। परमेश्वर ने जो किया है, वह गलती से नहीं किया है। लोग इस तरह के सरल सत्य का अभ्यास थोड़ी अंतरात्मा और विवेक के साथ कर सकते हैं, लेकिन यह मसीह-विरोधियों की क्षमताओं से परे है। जब कर्तव्यों के समायोजन की बात आती है, तो मसीह-विरोधी तुरंत बहस, कुतर्क और अवज्ञा करेंगे, और दिल की गहराई में वे इसे स्वीकारने से मना कर देते हैं। उनके दिल में भला क्या होता है? संशय और संदेह, फिर वे तमाम तरीके इस्तेमाल करके दूसरों की जाँच करते हैं। वे अपने शब्दों और कार्यों से प्रतिक्रिया जानने की कोशिश करते हैं, यहाँ तक कि अनैतिक तरीके अपनाकर लोगों को सच बताने और ईमानदारी से बोलने के लिए मजबूर करते और फुसलाते तक हैं। ... वे एक साधारण-सी चीज को इतना जटिल क्यों बना देते हैं? इसका केवल एक ही कारण है : मसीह-विरोधी कभी परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन नहीं करते, और वे हमेशा अपने कर्तव्य, प्रसिद्धि, फायदे और रुतबे को अपनी आशीषों की प्राप्त करने की आशा और अपने भावी गंतव्य के साथ जोड़ते हैं, मानो अगर उनकी प्रतिष्ठा और हैसियत खो गई, तो उन्हें आशीष और पुरस्कार प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं रहेगी, और यह उन्हें अपना जीवन खोने जैसा लगता है। ... इसलिए, वे परमेश्वर के घर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं से सतर्क रहते हैं, और डरते हैं कि कोई उन्हें पहचान लेगा या उनकी असलियत जान लेगा, और फिर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा और आशीष पाने का उनका सपना नष्ट हो जाएगा। वे सोचते हैं कि आशीष प्राप्त करने की आशा रखने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बरकरार रखना चाहिए। मसीह-विरोधी आशीष प्राप्ति को स्वर्ग से भी अधिक बड़ा, जीवन से भी बड़ा, सत्य के अनुसरण, स्वभावगत परिवर्तन या व्यक्तिगत उद्धार से भी अधिक महत्वपूर्ण, और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने और मानक के अनुरूप सृजित प्राणी होने से अधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह सोचता है कि मानक के अनुरूप एक सृजित प्राणी होना, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना और बचाया जाना सब तुच्छ चीजें हैं, जो मुश्किल से ही उल्लेखनीय हैं या टिप्पणी के योग्य हैं, जबकि आशीष प्राप्त करना उनके पूरे जीवन में एकमात्र ऐसी चीज होती है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। उनके सामने चाहे जो भी आए, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो, वे इसे आशीष प्राप्ति होने से जोड़ते हैं और अत्यधिक सतर्क और चौकस होते हैं, और वे हमेशा अपने बच निकलने का मार्ग रखते हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं कि मसीह-विरोधी खासकर दुष्ट और धोखेबाज होते हैं। वे एक सरल, सीधे मामले को भी बहुत ज्यादा जटिल बना देते हैं। मसीह-विरोधी कर्तव्य बदलने के मामले को तूल देकर उसे अपने आशीष और गंतव्य से जोड़ देता है। मसीह-विरोधी अपना कर्तव्य सिर्फ आशीष पाने के लिए करते हैं, इसे किसी भी चीज से ज्यादा अहम मानते हैं। वे हमेशा अपने परिणाम और गंतव्य की योजना बनाते रहते हैं, न तो परमेश्वर के इरादों के लिए और न ही कलीसिया के काम के लिए विचारशील होते हैं। मैंने अपने व्यवहार से एक मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट किया था। अपने कर्तव्य में सामान्य बदलाव होने पर मैं अपने मन में बार-बार इसके बारे में सोचती रही : मैं अभी जो सिंचन कार्य कर रही हूँ, उसमें कितनी कम मुश्किलें हैं, काम कितनी आसानी से चला है, मैंने कितनी कम गलतियाँ की हैं और बेनकाब होने की कितनी कम संभावना है। यह कर्तव्य करना सुरक्षित है और मुझे आशीष मिलने की गारंटी है। इसके विपरीत फिल्म निर्माण का काम बहुत मुश्किल है और इसके लिए कई पेशेवर कौशल और सिद्धांतों की गहरी समझ की जरूरत है। अगर मैं अच्छा प्रदर्शन करने में नाकाम रही तो मुझे बेनकाब और बर्खास्त कर दिया जाएगा। सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि मैं पहले भी नाकाम हो चुकी थी—मुझे डर था कि अगर मैंने इस बार कोई समस्या पैदा की और मुझे निकाल दिया गया तो मुझे आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं होगी। मैंने देखा कि मैं आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य कर रही थी; जब यह मेरे लिए लाभदायक होता, तब मैं इसे करने को तैयार होती, लेकिन जब यह मेरे लिए लाभदायक न होता, तब मैंने इसका विरोध करती और इसे नकार देती। मैं अपने बचने का रास्ता छोड़ रही थी, सावधानी से खुद को बचा रही थी, अपने कर्तव्य के इस्तेमाल से आशीष पाने के अपने लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश कर रही थी। मैं कितनी धोखेबाज और दुष्ट थी! मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “सृजित प्राणी के लिए एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने में सक्षम होना, सृष्टिकर्ता को संतुष्ट करने में सक्षम होना, मानवजाति के बीच सबसे सुंदर चीज होती है, और यह कुछ ऐसा है जिसे एक कहानी के रूप में फैलाया जाना चाहिए जिसकी सभी लोग इसकी प्रशंसा करें। सृजित प्राणियों को सृष्टिकर्ता जो कुछ भी सौंपता है उसे बिना शर्त स्वीकार लेना चाहिए; मानवजाति के लिए यह खुशी और सौभाग्य दोनों की बात है, और उन सबके लिए, जो एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करते हैं, कुछ भी इससे अधिक सुंदर या स्मरणीय नहीं होता—यह एक सकारात्मक चीज़ है। ... ऐसी खूबसूरत और बड़ी चीज को मसीह-विरोधियों की किस्म के लोग एक लेन-देन के रूप में विकृत कर देते हैं, जिसमें वे परमेश्वर के हाथों से मुकुटों और पुरस्कारों की माँग करते हैं। इस प्रकार का लेन-देन सबसे सुंदर और उचित चीज को सबसे बदसूरत और दुष्ट चीज में बदल देता है। क्या मसीह-विरोधी ऐसा ही नहीं करते? इस हिसाब से देखें तो क्या मसीह-विरोधी दुष्ट नहीं हैं? वे वास्तव में काफी दुष्ट हैं!(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। सृजित प्राणियों के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करना सबसे सुंदर और न्यायपूर्ण चीज है। लेकिन मसीह-विरोधी इस सुंदर चीज को एक सौदे में बदल देते हैं : वे सत्यनिष्ठा के बिना परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और खुद को आशीष दिलाने के लिए अपने कर्तव्य करते हैं। उनका सार छद्म-विश्वासियों जैसा होता है। मैंने विचार किया कि मैं कितने समय से परमेश्वर पर विश्वास कर रही हूँ और मैंने परमेश्वर के कितने वचन खाए और पिए हैं और फिर भी अनुसरण के बारे में मेरा नजरिया बिल्कुल भी नहीं बदला है। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया एक मसीह-विरोधी जैसा था। अगर मैं नहीं बदली तो मैं परमेश्वर द्वारा तिरस्कृत हो जाऊँगी।

मैं खुद को समझने के लिए आत्म-चिंतन करती रही और मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला : “मसीह-विरोधी नहीं मानते कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न वे ये मानते हैं कि उसका स्वभाव धार्मिक और पवित्र है। वे इन सबको मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से देखते हैं; और परमेश्वर के कार्य को मानवीय दृष्टिकोणों, मानवीय विचारों और मानवीय छल-कपट से देखते हैं, परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को निरूपित करने के लिए शैतान के तर्क और सोच का उपयोग करते हैं। जाहिर है, मसीह-विरोधी न केवल परमेश्वर के स्वभाव, पहचान और सार को स्वीकार नहीं करते या नहीं मानते; बल्कि इसके उलट वे परमेश्वर के प्रति धारणाओं, विरोध और विद्रोहीपन से भरे होते हैं और उसके बारे में उनके पास लेशमात्र भी वास्तविक ज्ञान नहीं होता। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के प्रेम की मसीह-विरोधियों की परिभाषा एक प्रश्नचिह्न है—संदिग्धता है, और वे उसके प्रति संदेह, इनकार और दोषारोपण की भावनाओं से भरे होते हैं; तो फिर परमेश्वर की पहचान का क्या? परमेश्वर का स्वभाव उसकी पहचान दर्शाता है; परमेश्वर के स्वभाव के प्रति उनके जैसा रुख, परमेश्वर की पहचान के बारे में उनका नजरिया स्वतः स्पष्ट है—प्रत्यक्ष इनकार। मसीह-विरोधियों का यही सार है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह))। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी परमेश्वर की धार्मिकता में विश्वास नहीं करते। वे नहीं मानते कि परमेश्वर का घर सत्य द्वारा शासित है और वे यह भी मानने से इनकार करते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं। मसीह-विरोधी हमेशा परमेश्वर के कार्यों को अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर देखते हैं। वे परमेश्वर की धार्मिकता के प्रति संदेह और इनकार से भरे होते हैं और वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर निष्पक्ष और धार्मिक है—यह परमेश्वर के खिलाफ मानहानि और ईशनिंदा है। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे डर लगा। मैंने सोचा कि मैंने कैसे एक मसीह-विरोधी की तरह व्यवहार किया था : चीजों के बारे में मेरा नजरिया परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं था और मैंने परमेश्वर की धार्मिकता पर विश्वास नहीं किया था। इसके बजाय मैंने गलत तरीके से मान लिया था कि मैं जितनी बड़ी जिम्मेदारी लूँगी और काम जितना मुश्किल होगा, मैं उतनी ही जल्दी बेनकाब हो जाऊँगी। मैंने सोचती थी कि अगर मैं अपना काम ठीक से नहीं कर पाई या कोई विचलन आया तो मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा और निकाल दिया जाएगा और इसलिए मैं हमेशा उस जिम्मेदारी से भागना चाहती थी। मैं नहीं चाहती थी कि मेरा काम मुश्किल या महत्वपूर्ण हो, सोचती थी कि इस तरह मैं इतनी जल्दी बेनकाब नहीं होऊँगी। अब परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई थी कि परमेश्वर धार्मिक है और कलीसिया सिद्धांतों के आधार पर लोगों के कर्तव्य बदलती है। कलीसिया सिर्फ अस्थायी गलतियों और अपराधों के कारण लोगों को जानबूझकर बर्खास्त नहीं करती—यह लोगों का एकरूप प्रदर्शन देखती है और व्यापक निर्णय लेती है। अगर किसी व्यक्ति में अच्छी मानवता है और वह सत्य का अनुसरण करता है तो भले ही उसके काम में कुछ विचलन दिखाई दें या वह अस्थायी रूप से अच्छे नतीजे पाने में नाकाम हो जाए कलीसिया उसकी मदद करेगी और साथ देगी। इसी तरह अगर कोई व्यक्ति वास्तविक कार्य नहीं कर सकता है क्योंकि उसके पास काबिलियत की कमी है तो कलीसिया उसकी स्थिति देखेगी और उसे उचित कर्तव्य सौंपेगी। और अगर कोई व्यक्ति लगातार वास्तविक कार्य करने में नाकाम रहता है या कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा करता है और अगर वह बार-बार मदद और संगति पाने के बाद भी लगातार पश्चात्ताप करने में नाकाम रहता है तो अंत में उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा। मैंने पिछली बार के बारे में सोचा जब मैं फिल्म निर्माण कार्य की प्रभारी थी और कैसे मेरी त्वरित सफलता की लालसा ने बाधाएं पैदा की थीं। उस समय अन्य लोगों ने मेरे साथ संगति की थी और मेरी मदद करने की कोशिश की थी, लेकिन मैंने अपने तरीके नहीं बदले थे और आखिरकार मुझे बर्खास्त कर दिया गया था। लेकिन कलीसिया ने मुझे पश्चात्ताप करने का एक और मौका दिया, जिससे मुझे अपना कर्तव्य करते रहने की अनुमति मिली। मैंने यह भी देखा था कि मेरे आस-पास के कुछ भाई-बहनों को अक्सर अपने काम में समस्याएँ और मुश्किलें आती थीं—लेकिन वे सरल और ईमानदार थे और सत्य का अनुसरण करते थे। भले ही उन्हें समस्याएँ होतीं और वे गलतियाँ करते, वे निरंतर समीक्षा और आत्म-चिंतन के माध्यम से धीरे-धीरे सिद्धांत समझने और अपने कर्तव्य बेहतर ढंग से करने में सक्षम हो गए। इससे मैं देख सकती थी कि परमेश्वर धार्मिक है और परमेश्वर का घर सत्य द्वारा शासित होता है। जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और ईमानदारी से प्रयास करते हैं, वे कभी-कभी अपराध कर सकते हैं। लेकिन अगर वे पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हैं, तो परमेश्वर का घर उन्हें यथासंभव अधिक से अधिक अवसर देता है। और अगर वे बदलने को तैयार हैं तो परमेश्वर का घर उन्हें बढ़ावा देना और उन्हें पोषित करना जारी रखता है। लेकिन जो लोग सत्य नहीं स्वीकारते, सत्य से घृणा करते हैं और पश्चात्ताप किए बिना हर प्रकार की बुराई करते हैं—वो लोग परमेश्वर के घर से बाहर निकाल दिए जाते हैं। कलीसिया ने मुझे फिल्म निर्माण कार्य का प्रभारी बनाया और ऐसा करने से मुझे अभ्यास करने और अपनी कमियाँ दूर करने का मौका दिया। लेकिन मैंने न सिर्फ कृतघ्नता की, बल्कि इस फैसले को गलत समझकर इसके प्रति रक्षात्मक हो गई, और यह मान बैठी कि परमेश्वर का घर भी समाज की तरह ही अन्यायपूर्ण और अधर्मी है। क्या यह परमेश्वर के खिलाफ एक तरह की ईशनिंदा नहीं थी? जब मुझे इसका एहसास हुआ तो मेरे आँसू बह निकले। मुझे अपने विद्रोहीपन और अंतरात्मा और विवेक की कमी के लिए खुद से घृणा होने लगी! मुझे पछतावा और अपराध बोध हुआ और मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना और पश्चात्ताप किया। भविष्य में मैं अब परमेश्वर को गलत नहीं समझूँगी और उसके खिलाफ रक्षात्मक नहीं रहूँगी।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। “एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ क्या हैं? सबसे पहले, परमेश्वर के वचनों के बारे में कोई संदेह नहीं होना। यह ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाओं में से एक है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है सभी मामलों में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना—यह सबसे महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने मस्तिष्क के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, ‘भले ही मेरी क्षमता कम है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम अपने कर्तव्य से बचने के लिये बहाने बनाते हो या फिर सुझाते कि इसे कोई और करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति निष्ठावान होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है : एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिये साजिश न करना। ये ईमानदारी की अभिव्यंजनाएँ हैं। दूसरा है अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए अपना तन-मन झोंक देना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। कर्तव्य एक व्यक्ति का स्वर्ग से भेजा गया उद्यम है, एक जिम्मेदारी है जिसे उसे पूरा करना चाहिए। इसका आशीष पाने या दुर्भाग्य झेलने से कोई लेना-देना नहीं है। चाहे यह मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से अच्छा हो या बुरा, मुझे इस कर्तव्य को सच्चे दिल से स्वीकारना था और अपने फायदे के लिए कोई योजना या साजिश रचे बिना, जितना हो सके उतना अच्छा करना था। चाहे मुझे अपने कर्तव्य में कितनी भी मुश्किलों का सामना करना पड़े, जब तक मैं ईमानदारी से परमेश्वर पर भरोसा करूँगी, तब तक वह मेरा मार्गदर्शन करेगा। मैं खुले दिल से इसे करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ करने को तैयार था। अगर मेरी काबिलियत में वाकई कमी थी या अगर मेरी योग्यताएँ पर्याप्त नहीं थीं और मैं कार्य के लिए सक्षम नहीं थी, तो मैं कलीसिया द्वारा काम बदले जाना स्वीकार करती।

इसके बाद मैंने फिल्म निर्माण कार्य की जिम्मेदारी सँभाल ली। अपने काम के दौरान मुझे कभी-कभी मुश्किलों या असफलताओं का सामना करना पड़ा, लेकिन अब मुझे इस बारे में कोई शंका नहीं थी। अपने भाई-बहनों के साथ एक दिल और दिमाग से सहयोग करके और साथ मिलकर सत्य सिद्धांतों की खोज करके, हम धीरे-धीरे इन मुश्किलों को सुलझाने में सक्षम हो गए। मैंने अपनी असफलताओं से सीखा और जल्द ही काम में सुधार हो गया। यह सब देखकर मैं प्रभावित हो गई। मेरे लिए ऐसे बदलाव का अनुभव कर पाना पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों का परिणाम था। परमेश्वर का धन्यवाद!

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