91. उम्र की परवाह किए बिना सत्य का अनुसरण
इन वर्षों में मैं उच्च रक्तचाप और खराब स्वास्थ्य से जूझ रही थी, घर पर आराम करते हुए काफी समय बिता रहा था और मैंने कुछ ऐसे कर्तव्य भी निभाए थे जिन्हें करने में मैं सक्षम था। जुलाई 2022 में हमारे सिंचन पर्यवेक्षक ने सुना कि मैं नवागंतुकों का सिंचन किया करती थी तो उसने मुझे सिंचन कार्य सौंप दिया। मैं फिर से यह कर्तव्य निभाने के लिए बहुत उत्साहित थी और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने का दृढ़ संकल्प कर चुकी थी। जब मैंने देखा कि दोनों पर्यवेक्षक लगभग तीस साल के थे, अच्छी काबिलियत वाले थे और जल्दी ही सिद्धांत सीख गए थे और बहन शिन शिन ऊर्जावान थी और जल्दी सीखती थी तो मेरे दिल को इससे ज्यादा खुशी नहीं मिल सकती थी। मैं साठ साल की थी और मेरे पास अभी भी इन युवा भाई-बहनों के साथ अपना कर्तव्य निभाने का अवसर था—मुझे लगा कि मैं भी जवान हो गई हूँ। मैं नवागंतुकों के लिए जिन सभाओं की मेजबानी करती थी उनमें साइकिल चलाकर जाती थी और रास्ते में हमेशा भजन गुनगुनाती रहती थी—मैं अपने कर्तव्य के प्रति वाकई उत्साही थी। कुछ समय बाद मुझे लगा कि सिद्धांतों की मेरी समझ और जीवन में मेरी प्रगति दोनों में वृद्धि हुई है। मुझे यह काम और भी अच्छा लगने लगा।
लेकिन मेरे उत्साह के चलते कुछ नए मसले भी सामने आए। मेरा रक्तचाप बहुत अधिक था, मेरी सेहत खराब थी और दिनभर काम करने के बाद मुझे थकावट हो जाती थी और मैं बस लेटना और आराम करना चाहती थी। शिन शिन और दूसरे लोग सभाओं के बाद अपने काम में हुई चूकों की समीक्षा कर पाते थे और अगले दिन के लिए व्यवस्था कर पाते थे। मैं अपने युवा सहकर्मियों की तरह ज्यादा काम करना चाहती थी, लेकिन रात को खाना खाने के तुरंत बाद ही मैं उनींदी हो जाती थी और ऊँघने लगती थी, इसलिए मैं जल्दी सो जाती थी। एक समय ऐसा भी आया जब मैं लगातार तीन दिन ठीक से नहीं सो पाई और मेरा शरीर इसे बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। मुझे पता था कि मैं अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पा रही हूँ, इसलिए मुझे अपने बदले शिन शिन से सभा की मेजबानी करने के लिए कहना पड़ता था। इसके बाद मैं काफी निराश रहने लगी—मैं अपने नियमित कर्तव्य भी नहीं निभा पा रही थी और मुझे किसी और से मदद माँगनी पड़ती थी; ऐसा लग रहा था कि मुझे जल्द ही बर्खास्त कर दिया जाएगा। कभी-कभी जब हमारा पर्यवेक्षक नवागंतुकों के सिंचन और अभ्यास के अच्छे मार्गों के सिद्धांतों पर संगति करता था तो शिन शिन और अन्य लोग इसे तुरंत समझ लेते थे, विभिन्न स्थितियों में सिद्धांत लागू करने और अपने कर्तव्यों में व्यावहारिक रूप से उनका उपयोग करने में सक्षम होते थे, जबकि मुझे उन पर काफी समय तक चिंतन करना पड़ता था और कभी-कभी पर्यवेक्षक के साथ और संगति करने की जरूरत पड़ती थी। उस दौरान मैं हमेशा असहज हो जाती थी और रात को चैन से सो नहीं पाती थी। मुझे यह चिंता थी कि अपनी बढ़ती उम्र, खराब सेहत, चीजें समझने में अपनी धीमी गति और भूलने की आदत के कारण अगर ऐसा कोई दिन आया जब मैं आगे अपना कर्तव्य न निभा पाई तो क्या इससे एक विश्वासी के रूप में मेरे लिए रास्ता बंद हो जाएगा? क्या मुझे फिर भी उद्धार मिल पाएगा? मैं लगातार हताश रहती थी और अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाती थी। मैं अपने कर्तव्य में शिन शिन जितना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रही थी। मुझे बूढ़ा लगना नापसंद था, मैं खुद को बूढ़ी और बेकार समझती थी और मैं हमेशा यह चिंता करती थी कि मुझे किसी और काम में लगा दिया जाएगा। मैं उन सभी युवा लोगों से ईर्ष्या करती थी और सोचती थी कि कितना अच्छा होता अगर मैं घड़ी को बीस साल पीछे कर पाती और फिर से कुछ युवा ऊर्जा पा सकती! तब मैं अंत तक खुद को परमेश्वर के लिए खपा सकती थी और क्या तब मेरे लिए परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने की उम्मीद नहीं होती? जब मैं इन चीजों के बारे में सोचती थी तो मैं अपनी मंजिल की फिक्र करने से खुद को रोक नहीं पाती थी।
एक दिन अगुआ मुझसे मिलने मेरे निवास स्थान पर आया और मुझसे बोला : “तुम्हारी बढ़ती उम्र और उच्च रक्तचाप के कारण हम तुम्हें सामान्य मामलों में लगा रहे हैं, इस तरह तुम्हें हर समय इधर-उधर भागना नहीं पड़ेगा।” मेरे लिए यह खबर स्वीकारना बहुत मुश्किल था—मुझे अपना सिंचन कार्य वाकई पसंद था और मैंने इसे छोड़ने के बारे में कभी नहीं सोचा था, लेकिन अब मुझे अचानक दूसरे काम में लगाया जा रहा था। मैं बूढ़ी होती जा रही थी और भविष्य में सिंचन कार्य करने में सक्षम होने की मेरी संभावना और भी कम थी। ऐसा लगा मानो किसी ने मेरे सिर पर ठंडे पानी की बाल्टी उंडेल दी हो और मेरे दिल में उत्साह की आग बुझा दी हो। भाई-बहनों ने मुझे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाए और उसके इरादे के बारे में मेरे साथ संगति की, लेकिन मैं सुन नहीं रही थी। वहाँ बैठे-बैठे मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मुझे लकवा मार गया हो और मैं बमुश्किल सीधे बैठ पा रही थी। उस रात मैं अपने बिस्तर पर लेटी रही, करवटें बदलती रही। मैंने सोचा कि युवा भाई-बहन कितने ऊर्जावान और जीवन शक्ति से भरे हुए थे, उन्होंने कितनी जल्दी सत्य और सिद्धांत समझ लिए थे और सोचा कि वे विकसित होने के योग्य हैं—इन युवाओं के सामने उनका पूरा भविष्य था। जहाँ तक मुझ जैसी किसी बूढ़े इंसान की बात है, मेरी सेहत मुझे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से रोकती थी, मैं समझने में सुस्त थी और विकसित होने की उतनी लायक नहीं थी। मुझ जैसी किसी बूढ़ी इंसान को परमेश्वर यकीनन बहुत पसंद नहीं करता है और यह साफ नहीं था कि मुझे कोई अच्छी मंजिल मिलेगी या नहीं। काश मैं सिर्फ बीस साल छोटी होती और खुद को पूरी तरह परमेश्वर के लिए खपाने को समर्पित कर पाती! जितना ज्यादा मैंने सोचा, मुझे उतना ही बुरा लगा; मैं वाकई उदास थी। ऐसा लगता था जैसे मेरी छाती पर कोई भारी बोझ हो, मेरी छाती इतनी जकड़ गई थी कि मुझे साँस लेने में मुश्किल हो रही थी। अपना काम बदले जाने से मैं इतनी दुखी थी कि पूरी रात सो नहीं पाई।
अगले दिन संयोग से सिंचनकर्मियों की सभा थी और मैंने अपने निवास के पास पर्यवेक्षक झाओ लियांग को गुजरते देखा। उसे सभा में जाते देखना बहुत बड़ा झटका था। अगर मुझे दूसरे काम में न लगाया गया होता तो मैं उसके साथ वहाँ जा रही होती, लेकिन अब वह गाड़ी छूट चुकी थी। मुझे बूढ़ा और बीमार क्यों होना पड़ा? यह सब सोचते हुए मुझे अंदर से बहुत खालीपन महसूस हुआ और मैं नहीं जानती थी कि आगे चलकर क्या करूँगी। मैं वहाँ स्टूल पर खाली बैठी रही और खिड़की से आसमान को ताकती रही। मुझे लगा कि एक विश्वासी के रूप में मेरी संभावनाएँ अच्छी नहीं हैं और मेरे लिए परमेश्वर के राज्य में प्रवेश पाने की कोई उम्मीद नहीं है। जितना मैंने सोचा, उतना ही बुरा लगा और मेरे चेहरे पर आँसू बहने लगे। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर! मैं अपना काम बदले जाने को सच में स्वीकारने में सक्षम नहीं हूँ। मुझे पता है कि यह तुम्हारे प्रति विद्रोही होना है और तुम्हें इससे घृणा होती है। हे परमेश्वर! खुद को जानने और समर्पण करने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।” बाद में झाओ लियांग ने देखा कि मैं बुरी अवस्था में हूँ और मेरे लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब तुम्हारे कर्तव्य को समायोजित किया जाता है, तो तुम्हें आज्ञापालन करना सीखना चाहिए। जब तुम अपने नए कर्तव्य में कुछ समय प्रशिक्षण ले लेते हो और इसे निभाने में नतीजे प्राप्त कर लेते हो, तो तुम पाओगे कि तुम इस कर्तव्य को निभाने के लिए अधिक उपयुक्त हो और तुम्हें यह एहसास होगा कि अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर कर्तव्यों का चयन करना एक गलती है। क्या इससे समस्या हल नहीं हो जाती है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर का घर लोगों के लिए कुछ कर्तव्य निभाने की व्यवस्था उनकी प्राथमिकताओं के आधार पर नहीं करता है, बल्कि कार्य की जरूरतों और इस आधार पर करता है कि किसी व्यक्ति के उस कर्तव्य को निभाने से नतीजे मिल सकते हैं या नहीं। क्या तुम लोग यह कहते हो कि परमेश्वर के घर को व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के आधार पर कर्तव्यों की व्यवस्था करनी चाहिए? क्या उसे लोगों का उपयोग उनकी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को संतुष्ट करने की शर्त के आधार पर करना चाहिए? (नहीं।) इनमें से कौन-सा आधार लोगों का उपयोग करने संबंधी परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुरूप है? कौन-सा सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है? यही कि लोगों का चयन परमेश्वर के घर में कार्य की जरूरतों और उनके कर्तव्य निर्वहन के नतीजे के अनुसार करना। तुम्हारे अपने कुछ झुकाव और रुचियाँ हैं और तुममें अपने कर्तव्य निभाने की थोड़ी-सी इच्छा है, लेकिन क्या तुम्हारी इच्छाओं, रुचियों और झुकावों को परमेश्वर के घर के कार्य पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए? यदि तुम हठपूर्वक आग्रह कर यह कहते हो, ‘मुझे यह कार्य अवश्य करना चाहिए; यदि मुझे इसे न करने दिया तो मैं जीना नहीं चाहता, मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहता। यदि मुझे यह कार्य न करने दिया तो मुझमें कुछ और करने के लिए उत्साह नहीं होगा, न ही मैं इसमें अपना पूरा प्रयास करूँगा’ तो क्या यह कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारे रवैये में ही कोई समस्या नहीं दर्शाता है? क्या यह अंतरात्मा और विवेक की पूरी तरह से कमी नहीं है? अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं, रुचियों और झुकावों को संतुष्ट करने के लिए तुम कलीसिया के कार्य को प्रभावित करने और विलंबित करने में संकोच नहीं करते। क्या यह सत्य के अनुरूप है? किसी को उन चीजों से कैसे निपटना चाहिए जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं : ‘व्यक्ति को सामूहिक हितों के लिए व्यक्तिगत हितों का बलिदान कर देना चाहिए।’ क्या यह सही है? क्या यह सत्य है? (नहीं।) यह किस तरह का कथन है? (यह एक शैतानी भ्रांति है।) यह एक भ्रामक, गुमराह करने वाला और छिपा हुआ कथन है। यदि तुम अपने कर्तव्यों के पालन के संदर्भ में ‘व्यक्ति को सामूहिक हितों के लिए व्यक्तिगत हितों का बलिदान कर देना चाहिए’ वाक्यांश को लागू करते हो तो तुम परमेश्वर का विरोध और ईशनिंदा कर रहे हो। यह परमेश्वर की ईशनिंदा क्यों है? क्योंकि तुम अपनी इच्छा परमेश्वर पर थोप रहे हो, और यह ईशनिंदा है! तुम परमेश्वर से पूर्णता और आशीष पाने के बदले अपने व्यक्तिगत हितों के बलिदान के लेन-देन की कोशिश कर रहे हो; तुम्हारा इरादा परमेश्वर के साथ सौदा करना है। परमेश्वर को तुमसे कुछ भी बलिदान कराने की आवश्यकता नहीं है; परमेश्वर की यही माँग है कि लोग सत्य का अभ्यास करें और देह के खिलाफ विद्रोह करें। यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते तो तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध कर रहे हो। तुमने अपना कर्तव्य खराब तरीके से निभाया क्योंकि तुम्हारे इरादे गलत थे, चीजों को लेकर तुम्हारे विचार सही नहीं थे और तुम्हारे कथन पूरी तरह से सत्य का खंडन करते थे। लेकिन परमेश्वर के घर ने तुमसे कर्तव्य निभाने का अधिकार नहीं छीना है; बस इतनी-सी बात है कि तुम्हारे कर्तव्यों को समायोजित किया गया था क्योंकि तुम पिछले वाले के लिए उपयुक्त नहीं थे और तुम्हें एक ऐसा कर्तव्य सौंप दिया गया जो तुम्हारे लिए उपयुक्त है। यह बहुत सामान्य और समझने में आसान बात है। तुम्हें इस मामले को सही तरीके से लेना चाहिए” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद बारह : जब उनके पास कोई रुतबा नहीं होता या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं)। अंश पढ़ने के बाद झाओ लियांग ने यह संगति की : “जब परमेश्वर का घर लोगों का काम बदलता है तो यह उन्हें अपना कर्तव्य निभाने और बचाए जाने के अवसर से वंचित करना नहीं है, बल्कि यह कलीसिया की जरूरतों के आधार पर उचित व्यवस्था करना है। तुम अस्वस्थ हो, तुम्हारी उम्र ज्यादा है और तुम्हें उच्च रक्तचाप है। अगर तुम्हें अपना कर्तव्य करने या विभिन्न सभाओं के लिए जाते समय कुछ हो जाता है तो यह न सिर्फ कलीसिया के लिए, बल्कि तुम्हारे लिए भी बुरा होगा। तुम्हारे लिए सबसे अच्छा यही है कि तुम अपनी गृह कलीसिया में लौट जाओ और वहाँ अपना कर्तव्य निभाओ। आओ सबसे पहले समर्पण करें, परमेश्वर से इसे स्वीकारें और एक सबक सीखें।” झाओ लियांग की संगति सुनने के बाद मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। इतने लंबे समय तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी मैं जरा भी समर्पण नहीं कर पाई। मुझे अपना सिंचन कार्य करना पसंद था और मैं युवाओं जितनी उत्साही थी, लेकिन चूँकि मैं साठ साल से ज्यादा की थी और बीमार पड़ चुकी थी, इसलिए मेरे पास नई चीजें सीखने के लिए उनके जितनी ऊर्जा, याददाश्त या क्षमता नहीं थी। अगर मुझे सिंचन जारी रखने दिया जाता तो इससे नवागंतुकाें के सिंचन के नतीजों पर नकारात्मक असर पड़ता। कलीसिया ने मुझे मेरे काम के नतीजों और मेरी स्वास्थ्य समस्याओं के आधार पर ज्यादा उपयुक्त कर्तव्य सौंपा था। मुझे समझदारी दिखानी थी, स्वीकारना था और समर्पण करना था। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, कहा कि मैं उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण के लिए तैयार हूँ और अपना नया कर्तव्य करने की पूरी कोशिश करूँगी।
बाद में मैं सोचने लगी : जब मुझे दूसरा काम सौंपा गया तो मैंने समर्पण क्यों नहीं किया? मैं इतनी हताश क्यों हो गई? अपनी खोज में मुझे संयोग से परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “भाई-बहनों के बीच 60 से लेकर 80 या 90 वर्ष तक की उम्र के बड़े-बूढ़े भी हैं, जो अपनी बढ़ी हुई उम्र के कारण भी कुछ मुश्किलों का अनुभव करते हैं। ज्यादा उम्र होने पर भी जरूरी नहीं कि उनकी सोच सही या तार्किक ही हो, और उनके विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हों। इन बड़े-बूढ़ों को भी वही समस्याएँ होती हैं, और वे हमेशा चिंता करते हैं, ‘अब मेरी सेहत उतनी अच्छी नहीं रही, और मैं कौन-से कर्तव्य निभा पाऊँगा वे भी सीमित हो गए हैं। अगर मैं बस यह छोटा-सा कर्तव्य निभाऊँगा तो क्या परमेश्वर मुझे याद रखेगा? कभी-कभी मैं बीमार पड़ जाता हूँ, और मुझे अपनी देखभाल के लिए किसी की जरूरत पड़ती है। जब मेरी देखभाल के लिए कोई नहीं होता, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बूढ़ा हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे याद नहीं रहते, और सत्य को समझना मेरे लिए कठिन होता है। सत्य पर संगति करते समय मैं उलझे हुए और अतार्किक ढंग से बोलता हूँ, और मेरे पास साझा करने लायक कोई अनुभव नहीं होते। मैं बूढ़ा हूँ, मुझमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है, मेरी दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है, और मैं अब शक्तिशाली नहीं हूँ। मेरे लिए सब कुछ मुश्किल होता है। न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, बल्कि मैं आसानी से चीजें भूल जाता हूँ, गलत समझ लेता हूँ। कभी-कभी मैं भ्रमित हो जाता हूँ, और कलीसिया और अपने भाई-बहनों के लिए समस्याएँ खड़ी कर देता हूँ। मैं उद्धार प्राप्त करना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण करना चाहता हूँ, मगर यह बहुत कठिन है। मैं क्या कर सकता हूँ?’ जब वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, तो यह सोचकर झुँझलाने लगते हैं, ‘मैंने आखिर इतनी बड़ी उम्र में ही परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू क्यों किया? मैं उन लोगों जैसा क्यों नहीं हूँ, जो 20-30 वर्ष के हैं, या जो 40-50 वर्ष के हैं? इतना बूढ़ा हो जाने के बाद ही क्यों मुझे परमेश्वर के कार्य का पता चला? ऐसा नहीं है कि मेरा भाग्य खराब है; कम-से-कम अब तो परमेश्वर के कार्य से मेरा सामना हो चुका है। मेरा भाग्य अच्छा है, और परमेश्वर मेरे प्रति दयालु है! बस सिर्फ एक चीज है जिसे लेकर मैं खुश नहीं हूँ, और वह यह है कि मैं बहुत बूढ़ा हूँ। मेरी याददाश्त बहुत अच्छी नहीं है, और मेरी सेहत उतनी बढ़िया नहीं है, मगर मैं अंदर से बहुत शक्तिशाली हूँ। बात बस इतनी है कि मेरा शरीर मेरी आज्ञा नहीं मानता, और सभाओं में थोड़ी देर सुनने के बाद मेरी आँख लग जाती है। कभी-कभी मैं प्रार्थना के लिए आँखें बंद कर लेता हूँ और सो जाता हूँ, और परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मेरा मन भटकता है। थोड़ी देर पढ़ने के बाद मैं उनींदा हो जाता हूँ और सो जाता हूँ, और वचन मेरे दिमाग में नहीं उतरते। मैं क्या करूँ? ऐसी व्यावहारिक दिक्कतों के साथ भी क्या मैं सत्य का अनुसरण कर उसे समझने में समर्थ हूँ? अगर नहीं, और अगर मैं सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास न कर पाऊँ, तो कहीं मेरी पूरी आस्था बेकार न हो जाए? कहीं मैं उद्धार प्राप्त करने में विफल न हो जाऊँ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बहुत चिंतित हूँ! इस उम्र में अब और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, मुझे कोई चिंता नहीं रही या मैं किसी चीज को लेकर व्याकुल नहीं हूँ, मेरे बच्चे बड़े हो चुके हैं और उनकी देखभाल के लिए या उन्हें बड़ा करने के लिए मेरी जरूरत नहीं है, इसलिए जीवन में मेरी सबसे बड़ी कामना सत्य का अनुसरण करने की है, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने की है और अपनी बची-खुची उम्र में उद्धार प्राप्त करने की है। हालाँकि मेरी असली स्थिति, उम्र से धुंधला गई आँखों की रोशनी, मन की उलझनों, खराब सेहत, अपना कर्तव्य अच्छी तरह न निभा पाने, और यथासंभव कार्य करने पर भी कभी-कभी समस्याएँ खड़ी होते देखकर लगता है कि उद्धार प्राप्त करना मेरे लिए आसान नहीं होगा।’ वे इन चीजों के बारे में बार-बार सोचकर व्याकुल हो जाते हैं, और फिर सोचते हैं, ‘लगता है कि अच्छी चीजें सिर्फ युवाओं के साथ ही होती हैं, बूढ़ों के साथ नहीं। लगता है चीजें जितनी भी अच्छी हों, मैं अब उनका आनंद नहीं ले पाऊँगा।’ वे इन चीजों के बारे में जितना ज्यादा सोचते हैं, जितना झुँझलाते हैं, उतने ही व्याकुल हो जाते हैं। वे अपने बारे में सिर्फ चिंता ही नहीं करते, बल्कि आहत भी होते हैं। अगर वे रोते हैं तो उन्हें लगता है कि यह बात सचमुच रोने लायक नहीं है, और अगर नहीं रोते, तो वह पीड़ा, वह चोट हमेशा उनके साथ बनी रहती है। तो फिर उन्हें क्या करना चाहिए? खास तौर से कुछ ऐसे बड़े-बूढ़े हैं, जो अपना सारा वक्त परमेश्वर के लिए खपने और अपना कर्तव्य निभाने में बिताना चाहते हैं, मगर वे शारीरिक रूप से बीमार हैं। कुछ को उच्च रक्तचाप है, कुछ को मधुमेह है, कुछ को पेट की बीमारियाँ हैं, और उन लोगों की शारीरिक ताकत उनके कर्तव्य की अपेक्षाओं की बराबरी नहीं कर पाती, और इसलिए वे झुँझलाते हैं। वे युवाओं को खाने-पीने, दौड़ने-कूदने में समर्थ देखते हैं, और उनसे ईर्ष्या करते हैं। वे युवाओं को ऐसे काम करते हुए जितना ज्यादा देखते हैं, यह सोचकर उतना ही संतप्त अनुभव करते हैं, ‘मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढँग से निभाना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण कर उसे समझना चाहता हूँ, सत्य का अभ्यास भी करना चाहता हूँ, तो फिर यह इतना कठिन क्यों है? मैं बहुत बूढ़ा और बेकार हूँ! क्या परमेश्वर को बूढ़े लोग नहीं चाहिए? क्या बूढ़े लोग सचमुच बेकार होते हैं? क्या हम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकेंगे?’ चाहे वे जैसे सोचें वे दुखी रहते हैं, उन्हें खुशी नहीं मिलती। वे ऐसा अद्भुत समय और ऐसा बढ़िया मौका नहीं चूकना चाहते, फिर भी वे युवाओं की तरह तन-मन से खुद को खपाकर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा नहीं पाते। ये बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं। हर बार जब वे किसी दिक्कत, रुकावट, कठिनाई या बाधा का सामना करते हैं, वे अपनी उम्र को दोष देते हैं, यहाँ तक कि खुद से घृणा करते हैं और खुद को पसंद नहीं करते। लेकिन किसी भी स्थिति में इसका कोई फायदा नहीं होता, कोई समाधान नहीं मिलता, और उन्हें आगे का रास्ता नहीं मिलता। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके लिए सचमुच आगे का रास्ता नहीं है? क्या कोई समाधान है? (बूढ़े लोगों को भी अपने बूते के कर्तव्य निभाने चाहिए।) बूढ़े लोगों के लिए उनके बूते के कर्तव्य निभाना स्वीकार्य है, है न? क्या बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण अब सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते? क्या वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं? (हाँ, जरूर हैं।) क्या बूढ़े लोग सत्य को समझ सकते हैं? वे कुछ सत्य समझ सकते हैं, वैसे युवा लोग भी सभी सत्य नहीं समझ पाते। बूढ़े लोगों को हमेशा भ्रांति होती है, वे मानते हैं कि वे भ्रमित हैं, उनकी याददाश्त कमजोर है, और इसलिए वे सत्य को नहीं समझ सकते। क्या वे सही हैं? (नहीं।) हालाँकि युवा बूढ़ों से ज्यादा ऊर्जावान और शारीरिक रूप से सशक्त होते हैं, मगर वास्तव में उनकी समझने, बूझने और जानने की क्षमता बूढ़ों के बराबर ही होती है। क्या बूढ़े लोग भी कभी युवा नहीं थे? वे बूढ़े पैदा नहीं हुए थे, और सभी युवा भी किसी-न-किसी दिन बूढ़े हो जाएँगे। बूढ़े लोगों को हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि वे बूढ़े, शारीरिक रूप से कमजोर, बीमार और कमजोर याददाश्त वाले हैं, इसलिए वे युवाओं से अलग हैं। असल में कोई अंतर नहीं है। कोई अंतर नहीं है कहने का मेरा अर्थ क्या है? कोई बूढ़ा हो या युवा, उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-समान होते हैं, हर तरह की चीज को लेकर उनके रवैये और सोच एक-समान होते हैं और हर तरह की चीज को लेकर उनके परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण एक-समान होते हैं। इसलिए बूढ़े लोगों को यह नहीं सोचना चाहिए कि बूढ़े होने और युवाओं की तुलना में उनकी असाधारण आकांक्षाओं के कम होने, और उनके स्थिर हो पाने के कारण उनकी महत्वाकांक्षाएँ या आकांक्षाएँ प्रचंड नहीं होतीं, और उनमें कम भ्रष्ट स्वभाव होते हैं—यह एक भ्रांति है। युवा लोग पद के लिए जोड़-तोड़ कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े पद के लिए जोड़-तोड़ नहीं कर सकते? युवा सिद्धांतों के विरुद्ध काम कर सकते हैं और मनमानी कर सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े ऐसा नहीं कर सकते? (हाँ, जरूर कर सकते हैं।) युवा घमंडी हो सकते हैं, तो क्या बड़े-बूढ़े घमंडी नहीं हो सकते? लेकिन बड़े-बूढ़े जब घमंडी होते हैं, तो ज्यादा उम्र के कारण वे उतने आक्रामक नहीं होते और इसलिए यह उनका घमंड तेज-तर्रार नहीं होता। युवा अपने लचीले हाथ-पैर और फुर्तीले दिमाग के कारण अहंकार का ज्यादा स्पष्ट दिखावा करते हैं, जबकि बड़े-बूढ़े अपने सख्त हाथ-पाँव और हठीले दिमाग के कारण अहंकार का कम स्पष्ट दिखावा करते हैं। लेकिन उनके अहंकार और भ्रष्ट स्वभावों का सार एक-समान होता है। किसी बूढ़े व्यक्ति ने चाहे जितने लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, या चाहे जितने वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाया हो, अगर वह सत्य का अनुसरण नहीं करता, तो उसका भ्रष्ट स्वभाव कायम रहेगा” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर ने हर बूढ़े व्यक्ति के आंतरिक विचारों को आवाज दी है। बूढ़े भी हर समय परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहते हैं, लेकिन उनका शरीर इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। उनके पास युवा लोगों की तरह सीखने की ऊर्जा या याददाश्त नहीं होती, इसलिए वे सिर्फ वही कर्तव्य कर सकते हैं जो वे करने में सक्षम हैं, लेकिन उन्हें चिंता है कि वे बहुत कम करते हैं और परमेश्वर उन्हें याद नहीं रखेगा। और चूँकि वे बूढ़े हैं, उनकी नजर कमजोर है और इसलिए वे ज्यादा सत्य समझने में असमर्थ हैं, वे अपने भविष्य और गंतव्य के बारे में निराश, चिंतित और परेशान हो जाते हैं। मेरी दशा ठीक उसी तरह की थी जैसी परमेश्वर ने उजागर की थी। मैंने देखा कि परमेश्वर का घर जिन लोगों को विकसित करता है, उनमें से ज्यादातर युवा, अच्छी क्षमता वाले, ऊर्जावान और सीखने में तेज होते हैं, जबकि मैं बहुत उम्रदराज थी और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने की इच्छा के बावजूद मेरी ऊर्जा और याददाश्त युवाओं के मुकाबले कुछ भी नहीं थी। पूरे दिन अपने कर्तव्य निभाने के बाद भी युवा ऊर्जा से भरे रहते थे और अपने काम के साथ-साथ अपने अभ्यास के मार्ग में समस्याओं और विचलनों की समीक्षा कर सकते थे, जबकि मुझे जल्दी सोना पड़ता था। कभी-कभी जब मेरा शरीर कार्यभार नहीं संभाल पाता था तो मुझे अपनी जगह दूसरों से नवागंतुकों का सिंचन करने को कहना पड़ता था। जब पर्यवेक्षक उपयोगी सिद्धांतों और तरीकों पर संगति करते थे तो युवा भाई-बहन तुरंत समझ जाते थे और वे अपने कर्तव्यों पर सब कुछ लागू कर देते थे, जबकि मुझे कुछ भी समझने में बहुत समय लगता था। छोटे भाई-बहनों की तुलना में मेरे लिए कर्तव्य निभाना बहुत ज्यादा तनावपूर्ण था। मैं इस स्थिति से बहुत दुखी थी और बूढ़ी होने और अपने कर्तव्य में ज्यादा कुछ न कर पाने के लिए खुद को दोष देती थी। भले ही मैं सत्य का अनुसरण करती थी, तो भी मैं ज्यादा नहीं समझती थी और इससे परमेश्वर जरूर नाखुश होता होगा। मैं परमेश्वर के बारे में गलतफहमी में जी रही थी और अपने भविष्य के गंतव्य के बारे में चिंता किए बिना नहीं रह पाती थी। उस पल मुझे एहसास हुआ कि बूढ़ों और युवाओं में ऊर्जा और याददाश्त का स्तर अलग-अलग हो सकता है, लेकिन जब उनके भ्रष्ट स्वभाव की बात आती है तो वे एक जैसे ही होते हैं। युवा और बूढ़े लोग समान रूप से अहंकारी होते हैं। युवा और बूढ़े लोग समान रूप से स्वार्थी होते हैं। जब हम परमेश्वर द्वारा आयोजित किसी ऐसी स्थिति का सामना करते हैं जो हमें पसंद नहीं आती तो हम सभी अपना विद्रोही स्वभाव प्रकट करते हैं। हम परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में असमर्थ हैं। हम हमेशा अपने हितों से जुड़े मामलों में सबसे पहले अपना ख्याल रखते हैं और अपना स्वार्थी, घृणित, भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं। बुज़ुर्ग और युवा सभी शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किए गए हैं। हम सबको अपनी भ्रष्टता का समाधान करने के लिए अक्सर आत्म-चिंतन करने, परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारने और सत्य खोजने की जरूरत होती है। मैं सोचती थी कि मेरी उम्र और कर्तव्यों में मैंने जितना काम किया, उसी मानदंड के आधार पर परमेश्वर तय करता है कि मुझे प्रशंसा मिलनी चाहिए या नहीं। मैंने सोचा कि परमेश्वर को बूढ़े पसंद नहीं हैं और मुझे बचाए जाने की संभावना बहुत कम है। मेरे विचार और धारणाएँ बहुत विकृत थीं! मैं जानती थी कि मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए और आत्म-चिंतन करने और खुद को जानने और अपने कर्तव्य में स्वभावगत परिवर्तन का प्रयास करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, क्योंकि यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। इसका एहसास होने के बाद मुझे स्पष्टता का एहसास हुआ।
एक सुबह भक्ति के दौरान मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जिसने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला और मुझे परमेश्वर के इरादे को और अधिक समझने में मदद की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर के घर में और सत्य के मामले में क्या बड़े-बूढ़ों का कोई विशेष समूह होता है? नहीं, बिल्कुल नहीं। सत्य के मामले में उम्र असंगत है, जैसे कि यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव, तुम्हारी भ्रष्टता की गहराई, तुम सत्य का अनुसरण करने योग्य हो या नहीं, तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, या तुम्हारे बचाए जाने की संभाव्यता क्या है, इसमें असंगत है। क्या ऐसा नहीं है? (जरूर है।) हमने इतने वर्षों से सत्य पर संगति की है, लेकिन हमने कभी भी लोगों की अलग-अलग उम्र के अनुसार विभिन्न प्रकार के सत्यों पर संगति नहीं की। न युवाओं के लिए न ही बड़े-बूढ़ों के लिए कभी भी सत्य पर विशेष रूप से अलग संगति की गई है, न ही इस आधार पर उनके भ्रष्ट स्वभावों का खुलासा किया गया है, न ही यह कहा गया है कि उनकी उम्र, सख्त सोच, और नई चीजों को न स्वीकार कर पाने के कारण, उनके भ्रष्ट स्वभाव सहज रूप से कम होकर बदल जाते हैं—ये बातें कभी नहीं कही गई हैं। एक भी सत्य की संगति खास तौर पर लोगों की उम्र के अनुसार और बूढ़ों को बाहर रखकर नहीं की गई। कलीसिया, परमेश्वर के घर में या परमेश्वर के समक्ष बूढ़े लोगों का कोई विशेष समूह नहीं होता, बल्कि वे किसी भी दूसरे उम्र के समूहों जैसे ही होते हैं। वे किसी भी तरह से विशेष नहीं हैं, बात बस इतनी है कि वे दूसरों के मुकाबले थोड़ा ज्यादा समय जी चुके हैं, वे इस संसार में दूसरों से कुछ वर्ष पहले आए, उनके बाल दूसरों से थोड़े ज्यादा सफेद हैं, और उनके शरीर दूसरों के मुकाबले थोड़ा पहले बूढ़े हो गए हैं; इन चीजों के अलावा कोई फर्क नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि परमेश्वर के घर में बूढ़ों को अलग करके नहीं देखा जाता। वे बस थोड़े उम्रदराज हैं और थोड़े ज्यादा थक जाते हैं। शायद उनमें युवा लोगों जैसी ऊर्जा और जोश न हो और उन्हें कुछ बीमारियाँ हो सकती हैं, लेकिन सत्य के सामने उम्र में कोई भेद नहीं होता। अंत के दिनों में जब परमेश्वर अपने वचन व्यक्त करता है और न्याय का अपना कार्य करता है तो वह युवाओं और बूढ़ों के बीच अंतर नहीं करता। चाहे बूढ़े हों या युवा, वे सभी शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किए गए हैं और सभी को परमेश्वर के उद्धार की जरूरत है। किसी को बचाया जा सकता है या नहीं, यह उसकी उम्र या उसके द्वारा किए जाने वाले कर्तव्य से तय नहीं होता; मुख्य बात यह है कि वह सत्य की खोज के मार्ग पर चलता है या नहीं। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव से तय होता है। अविश्वासियों की दुनिया में बूढ़े कर्मचारियों को अक्सर नापसंद किया जाता है। लोग उन्हें चीजों को समझने में सुस्त, कमजोर और मूल्य सृजन में असमर्थ पाते हैं, इसलिए ज्यादातर मालिक युवा कर्मचारियों को पसंद करते हैं और बूढ़ों को नापसंद करते हैं। मैंने अविश्वासियों की धारणाओं के अनुसार परमेश्वर को सीमांकित किया था, सोचा था कि चूँकि युवा भाई-बहन बहुत से कर्तव्य निभा सकते हैं और बहुत अधिक योगदान दे सकते हैं, इसलिए उनके बचाए जाने की सबसे अधिक संभावना होती है, जबकि बूढ़े लोग नाममात्र के कर्तव्य निभाते हैं और बहुत कम हासिल करते हैं, इसलिए उन पर परमेश्वर की कृपादृष्टि नहीं रहती है और परमेश्वर द्वारा उन्हें बचाए जाने की बहुत कम संभावना होती है। मैंने परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव नहीं समझा था और अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर उसका आकलन किया था। यह परमेश्वर के लिए ईशनिंदा थी! मैं यह भी समझ गई कि परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, परमेश्वर हर व्यक्ति के कार्यों का मूल्यांकन सत्य के आधार पर करता है। यह वैसा ही है जैसे मैं इस बहन को जानती थी, वह युवा और होशियार थी और उसने एक अगुआ के रूप में सेवा की थी, लेकिन उसने कार्य व्यवस्था का उल्लंघन किया था और कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी डाली थी और उसने सुझाव देने वालों के खिलाफ भी प्रतिशोध दिखाया था और उन्हें दबाया था। आखिरकार उसे एक बुरी व्यक्ति माना गया और कलीसिया से निकाल दिया गया। लेकिन फिर मैं एक और उम्रदराज बहन को जानती थी जो शिक्षित नहीं थी और औसत काबिलियत वाली थी, लेकिन वह लगातार अपने कर्तव्य में लगी रहती थी—उसे परमेश्वर पर सच्चा विश्वास था और वह अपने कर्तव्य के प्रति वफादार थी। ये बूढ़े भाई-बहन शायद उतने मजबूत न हों या उनकी याददाश्त बहुत अच्छी न हो, लेकिन वे अपने कर्तव्यों में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं, और खुद को जानने और आत्म-चिंतन करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और अपने कर्तव्यों में स्वभावगत परिवर्तन का प्रयास करते हैं। उन्हें परमेश्वर द्वारा भी सराहा जा सकता है और उन्हें बचाए जाने का मौका मिल सकता है। मैंने यह भी महसूस किया कि बुढ़ापा एक प्राकृतिक और अपरिवर्तनीय प्रक्रिया है जो परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है और इसलिए मुझे इसके प्रति समर्पण करना चाहिए और अपनी वर्तमान उम्र को देखते हुए मैं जो कर्तव्य निभा सकती हूँ, वही निभाने चाहिए। वास्तव में अगर मेरा रवैया सही है और मैं अपने नए कर्तव्य में सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित करती हूँ तो क्या मैं भी परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन नहीं पा सकती हूँ? क्या मैं अपनी भ्रष्टता और कमियाँ भी नहीं जान सकती हूँ? क्या मैं अभी भी सत्य नहीं खोज सकती हूँ? परमेश्वर ने मेरी उम्र के कारण मुझे अपना कर्तव्य निभाने और उद्धार पाने के अधिकार से वंचित नहीं किया था, मेरे साथ अलग ढंग से व्यवहार तो और भी दूर की बात है। लेकिन मैं परमेश्वर के प्रति एहसानफरामोश थी और मैंने गलती से यहाँ तक सोच लिया था कि वह बूढ़ों को नापसंद करता है, मैं उसकी व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति प्रतिरोधी महसूस कर रही थी। मैं पूरी तरह विवेकहीन थी! जब मुझे इसका एहसास हुआ तो मुझे बहुत पछतावा हुआ। मैं परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं करती रह सकती थी और उसे गलत नहीं समझ सकती थी, मुझे अपनी चिंताओं और परेशानियों को एक तरफ रखना था, और अपने नए कर्तव्य को लगन से करना था ताकि कलीसिया के कार्य में देरी न हो।
उसके बाद मुझे आश्चर्य होने लगा कि ऐसा क्यों था कि यह जानते हुए भी कि मनुष्य के कर्तव्य का आशीष या दुर्भाग्य से कोई लेना-देना नहीं है, मैं तब अपने गंतव्य की फिक्र करने से खुद को रोक नहीं पाई, जब मुझे एक ऐसा कर्तव्य सौंपा गया जिससे मैं असंतुष्ट थी। मेरी समस्या का स्रोत क्या था? एक सभा के दौरान मेरे भाई-बहनों ने मेरे लिए परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े और मैंने उसके वचनों के माध्यम से अपनी समस्या के स्रोत की पहचान की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी खातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है, और जब वे परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं, तो यह भी पुरस्कार पाने के लिए ही होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य करते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब-कुछ छोड़ते हैं और काफी दुःख सहन कर पाते हैं। मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “अपना कर्तव्य निभाने का फैसला लेने से पहले, अपने दिलों की गहराई में, मसीह-विरोधी अपनी संभावनाओं की उम्मीदों, आशीष पाने, अच्छी मंजिल पाने और यहाँ तक कि मुकुट पाने की उम्मीदों से भरे होते हैं, और उन्हें इन चीजों को पाने का पूरा भरोसा होता है। वे ऐसे इरादों और आकांक्षाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। तो, क्या उनके कर्तव्य निर्वहन में वह ईमानदारी, सच्ची आस्था और निष्ठा है जिसकी परमेश्वर अपेक्षा करता है? इस मुकाम पर, अभी कोई भी उनकी सच्ची निष्ठा, आस्था या ईमानदारी को नहीं देख सकता, क्योंकि हर कोई अपना कर्तव्य करने से पहले पूरी तरह से लेन-देन की मानसिकता रखता है; हर कोई अपना कर्तव्य निभाने का फैसला अपने हितों से प्रेरित होकर और अपनी अतिशय महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति की पूर्व-शर्त पर करता है। अपना कर्तव्य निभाने के पीछे मसीह-विरोधियों का इरादा क्या है? यह सौदा और लेन-देन करने का इरादा है। यह कहा जा सकता है कि यही वे शर्तें हैं जो वे कर्तव्य करने के लिए निर्धारित करते हैं : ‘अगर मैं अपना कर्तव्य करता हूँ, तो मुझे आशीष मिलने चाहिए और एक अच्छी मंजिल मिलनी चाहिए। मुझे वे सभी आशीष और लाभ मिलने चाहिए जो परमेश्वर ने कहा है कि वे मानवजाति के लिए बनाए गए हैं। अगर मैं उन्हें नहीं पा सकता, तो मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा।’ वे ऐसे इरादों, महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर आते हैं। ऐसा लगता है कि उनमें थोड़ी ईमानदारी है, और बेशक जो नए विश्वासी हैं और अभी अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर रहे हैं, उनके लिए इसे उत्साह भी कहा जा सकता है। मगर इसमें कोई सच्ची आस्था या निष्ठा नहीं है; केवल उस स्तर का उत्साह है। इसे ईमानदारी नहीं कहा जा सकता। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मसीह-विरोधियों के इस रवैये को देखें तो यह पूरी तरह से लेन-देन वाला है और आशीष पाने, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने, मुकुट पाने और इनाम पाने जैसे लाभों की उनकी इच्छाओं से भरा हुआ है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से मैंने देखा कि मैं किसी मसीह-विरोधी से भिन्न नहीं थी और आशीष पाने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए ही विश्वास करती थी और अपना कर्तव्य निभाती थी। परमेश्वर में आस्था रखने से पहले मैं बस शैतानी जहरों के अनुसार जीती थी, जैसे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो।” मैं सोचती थी कि अपने हितों पर विचार करना सही और उचित है। जब तक कोई चीज मेरे लिए फायदेमंद है, मुझे चाहे कितना भी कष्ट सहना पड़े या कीमत चुकानी पड़े, मैं उसे करूँगी। परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद मैंने सुना था कि अगर मैं परमेश्वर के लिए खुद को खपाऊँ और अपना कर्तव्य निभाऊँ तो मैं अनंत जीवन पा सकती हूँ और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकती हूँ। यह देखते हुए कि यह महान आशीष पैसे या कीमती सामान से नहीं खरीदा जा सकता, मैंने अपना परिवार त्याग दिया था, अपनी नौकरी छोड़ दी थी और परमेश्वर का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य करना शुरू कर दिया था। जब परमेश्वर के घर ने मुझे सिंचन कार्य सौंपा तो मैंने सोचा था : “मैं सिंचन कार्य में परमेश्वर के बहुत सारे वचन पढ़ सकती हूँ और इसमें सत्य की संगति करने के बहुत सारे मौके हैं, ये सब मुझे सत्य पाने और उद्धार पाने का एक अच्छा अवसर देंगे। इसलिए मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए प्रेरित थी, मैं यह उम्मीद करती थी कि मुझे उद्धार मिलेगा और मैं परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करूँगी।” अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया मसीह-विरोधी जैसा ही था। मैं इसे सिर्फ आशीष पाने के लिए निभाती थी और परमेश्वर के साथ सौदेबाजी कर रही थी। परमेश्वर को जरूर घृणा हुई होगी! मैं अपने कर्तव्य में अत्यधिक प्रेरित थी, लेकिन मेरा स्वास्थ्य खराब था और मैं जवान नहीं रही थी। मेरे पास वास्तव में युवाओं जैसी ऊर्जा, ताकत या याददाश्त नहीं थी और मुझे अपना कर्तव्य करने के लिए दूसरों की मदद की भी जरूरत पड़ती थी। अगर मैं सिंचन कार्य ही करती रहती तो वास्तव में काम धीमा कर देती और सिंचन के नतीजे प्रभावित कर देती। अगर मुझमें कोई आत्म-जागरूकता और विवेक होता तो मैं आशीष की अपनी लालसा छोड़ चुकी होती और युवा भाई-बहनों के लिए रास्ता छोड़ देती। यह कलीसिया के काम के लिए फायदेमंद होता। लेकिन मैं सिर्फ यही सोचता था कि आशीष कैसे पाया जाए। मैं आशीष की अपनी लालसा संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर द्वारा मुझे दिए गए कर्तव्य का इस्तेमाल कर रहा था। जब मुझे अपने नए कर्तव्य से आशीष मिलने की कोई उम्मीद नहीं दिखी तो मैं समर्पण करने में नाकाम रहा, परमेश्वर को गलत समझा और यहाँ तक कि उसे दोषी भी ठहराया। मुझे कैसे ऐसा व्यक्ति माना जा सकता है जो वाकई परमेश्वर के प्रति समर्पित है और उसमें आस्था रखता है? मुझमें यह शैतानी जहर बहुत गहराई तक समा गया था कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।” चाहे जो भी परिस्थिति हो, मैं सबसे पहले यह सोचती थी कि क्या मैं इससे लाभ या आशीष पा सकती हूँ, मैं सत्य से पहले अपने हितों को रखती थी। मैंने कलीसिया के काम पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया था, मैं सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचती रहती थी। यह तथ्य कि मुझे परमेश्वर ने चुना था, एक विश्वासी के रूप में अपने वर्षों में मैंने उसके वचनों के सिंचन और आपूर्ति का इतना आनंद लिया था, कुछ सत्य समझे थे और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम थी, यह सब परमेश्वर का अपार अनुग्रह था। फिर भी मैंने परमेश्वर को धन्यवाद नहीं दिया या यह नहीं सोचा कि उसके प्रेम का बदला कैसे चुकाऊँ। अगर कुछ मेरे हिसाब से नहीं होता तो मैं परमेश्वर को गलत समझती थी और दोष देती थी। मेरा व्यवहार पूरी तरह से अनुचित था! समय रहते मुझे उजागर करने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद, वरना अगर मैं अपने कर्तव्य के प्रति यही लेन-देन वाला रवैया अपनाए रखती तो न सिर्फ मुझे सत्य नहीं मिलेगा और मैं उद्धार नहीं पाऊँगी, बल्कि परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा और मुझे निकाल देगा। यह सारा एहसास होने पर मुझे पछतावा हुआ और मैंने खुद को धिक्कारा, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा : “हे परमेश्वर! मैंने कई वर्षों तक तुम्हारा अनुसरण किया है, लेकिन मैंने तुम्हारे प्रति थोड़ा भी समर्पण नहीं किया है और तुम्हारा इरादा गलत समझा है। मुझे एक सृजित प्राणी के रूप में जो कर्तव्य निभाना चाहिए था, उसे मैंने लेन-देन की ऐसी चीज माना जिसके बदले मैं आशीष पा सकती हूँ। तुमने इसे कितना घिनौना समझा होगा! हे परमेश्वर! मैं तुमसे पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ, अपने वचनों के अनुसार जीने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।”
भक्ति के दौरान मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जिसने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब तक जीवित हैं, तब तक बड़े-बूढ़ों को सत्य और जीवन-प्रवेश का अनुसरण करने का और ज्यादा प्रयास करना चाहिए, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए भाई-बहनों के साथ सद्भाव से कार्य करना चाहिए; सिर्फ इसी प्रकार उनका आध्यात्मिक कद बढ़ सकता है। बूढ़े लोगों को खुद को दूसरों से वरिष्ठ समझकर अपने बुढ़ापे का दिखावा नहीं करना चाहिए। युवा हर प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर सकते हैं, वैसे ही तुम भी कर सकते हो; युवा हर तरह की बेवकूफी कर सकते हैं, वैसे ही तुम भी कर सकते हो; युवा धारणाएँ छुपाए होते हैं, वैसे ही बूढ़े भी छुपाए होते हैं; युवा विद्रोही हो सकते हैं, वैसे ही बूढ़े भी हो सकते हैं; युवा मसीह-विरोधी स्वभाव दर्शा सकते हैं, वैसे ही बूढ़े भी दर्शा सकते हैं; युवाओं की महत्वाकांक्षाएँ और आकांक्षाएँ प्रचंड होती हैं, वैसे ही बूढ़ों की भी होती हैं, रत्ती भर फर्क नहीं होता; युवा विघ्न-बाधाएँ पैदा कर सकते हैं और कलीसिया से उन्हें हटाया जा सकता है, वैसे ही बूढ़े लोग भी हटाए जा सकते हैं। इसलिए अपनी काबिलियत के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के अलावा बहुत-सी ऐसी चीजें हैं, जो वे कर सकते हैं। अगर तुम बेवकूफ और भुलक्कड़ नहीं हो, सत्य को नहीं समझ सकते, और जब तक खुद की देखभाल कर सकते हो, तो ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो तुम्हें करनी चाहिए। युवाओं की ही तरह तुम सत्य का अनुसरण कर सकते हो, सत्य को खोज सकते हो, और तुम्हें अक्सर परमेश्वर के समक्ष आकर प्रार्थना करनी चाहिए, सत्य-सिद्धांत खोजने चाहिए, और लोगों और चीजों को देखने-समझने और पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों के अनुसार सत्य को अपना मानदंड बनाकर आचरण और कार्य करने का प्रयास करना चाहिए। यही वह रास्ता है जिस पर तुम्हें चलना चाहिए, और तुम्हारे बूढ़े होने, अनेक बीमारियाँ होने, या शरीर के बूढ़े होते जाने के कारण तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव नहीं करना चाहिए। संताप, व्याकुलता और चिंता का अनुभव करना सही नहीं है—ये तर्कहीन अभिव्यक्तियाँ हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मैंने जाना कि चाहे कलीसिया मुझे कोई भी कर्तव्य सौंपे, यह परमेश्वर का इरादा है कि मैं अपने कर्तव्य के माध्यम से सत्य खोजूँ, अपना भ्रष्ट स्वभाव सुलझाने के लिए सत्य का उपयोग करूँ, अपने कर्तव्य में सिद्धांतों के अनुसार मामलों से निपटने का अभ्यास करूँ, और आखिरकार उद्धार के मार्ग पर कदम रखूँ। अब अपने कर्तव्य में वह सब करने के अलावा जो मैं कर सकती हूँ, मैं जब भी संभव हो, भ्रष्टता की हर अभिव्यक्ति पर आत्म-चिंतन करती हूँ और अनुभवजन्य गवाही लेख लिखती हूँ। जब मैं भाई-बहनों से मिलती हूँ, तो हम यह चर्चा करते हैं कि नए लोगों की क्या धारणाएँ हैं और मैं जितना समझती हूँ, उस पर संगति करती हूँ। इस तरह से अभ्यास करने पर मुझे बहुत शांति और सहजता महसूस होती है।
इस अनुभव से मेरी सबसे बड़ी सीख यह है कि परमेश्वर सभी के साथ निष्पक्ष व्यवहार करता है। परमेश्वर सत्य का उपयोग करके सभी चीजों का मूल्यांकन करता है, वह यह परवाह नहीं करता कि तुम कितने साल के हो या क्या कर्तव्य निभाते हो। वह बस यह परवाह करता है कि तुम सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलते हो या नहीं। जब तक तुम सत्य की खोज करते हो और सही मार्ग पर चलते हो, तब तक तुम्हारे पास उद्धार पाने का मौका है। परमेश्वर बूढ़ों को जरा भी नापसंद नहीं करता। जब भी मैं सोचती हूँ कि मैंने कैसे परमेश्वर को गलत समझा तो मुझे लगता है कि मैं उसकी कितनी ज्यादा ऋणी हूँ और मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं। इस उम्र में भी मेरे पास सृष्टिकर्ता का स्वागत करने का मौका है और मैं इतनी भाग्यशाली रही हूँ कि मैंने परमेश्वर की वाणी सुनी है, उनके वचनों का न्याय और ताड़ना पाई है और अपने कर्तव्यों में उसके लिए खुद को खपाया है। यह कितना बड़ा आशीष है! इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे आशीष मिले या नहीं या मेरा परिणाम क्या होगा, मैं पूरी लगन से सत्य का अनुसरण करूँगी और अपने कर्तव्य में वह सब करूँगी जो मैं कर सकती हूँ ताकि परमेश्वर के प्रेम का बदला चुका सकूँ।