76. कर्तव्यों के पुनर्निर्धारण के बाद आत्म-चिंतन
सितंबर 2020 में मैं भजन ऑडियो के पोस्ट-प्रोडक्शन कार्य के समन्वय के लिए जिम्मेदार थी। मैं टीम में सभी छोटे-बड़े मामले देखती थी और टीम अगुआ मुझसे विभिन्न मुद्दों पर सलाह लेती थी। भाई-बहन भी मुझसे अपनी अवस्थाओं और मुश्किलों पर चर्चा करने के लिए तैयार रहते थे। टीम अगुआ कहती थी, “पिछले कुछ वर्षों में हमारी टीम में कई समन्वयक आए और गए लेकिन तुम यहाँ सबसे लंबे समय से सेवा कर रही हो। तुम काम के सभी पहलुओं को अच्छी तरह से सँभाल सकती हो और समन्वय करने में काफी सक्षम हो।” कभी-कभी जब मैं भाई-बहनों के साथ संगति करती थी तो मैं उनमें से कुछ को यह कहते हुए सुनती थी, “तुम्हारे साथ संगति करने से मेरा दिमाग बहुत साफ हो जाता है।” जब भी मैं ऐसी बातें सुनती थी तो मुझे बहुत संतुष्टि होती थी। मुझे लगता था कि मैं इस कर्तव्य के लिए सबसे उपयुक्त इंसान हूँ और यह मेरे अस्तित्व का मूल्य सबसे अच्छी तरह से दर्शाता है। इसलिए मुझे यह कर्तव्य बहुत पसंद था।
अप्रत्याशित रूप से जनवरी 2023 में काम की जरूरतों के चलते मेरा काम बदलकर मुझे गीत रिकॉर्डिंग टीम में भेज दिया गया। मैंने चार साल से कोई गाना रिकॉर्ड नहीं किया था, इसलिए मुझे कुछ कौशल और तकनीकें शुरू से सीखनी पड़ीं। मैं टीम में सबसे कम कुशल इंसान बन गई थी। पहले समन्वयक होने के नाते अन्य टीमों के सदस्य विभिन्न मामलों पर सलाह लेने के लिए मेरे पास आते थे। अब मुझे हर चीज दूसरों से पूछनी पड़ती थी। टीम में कोई भी आकर मेरे काम में मेरा मार्गदर्शन कर देता था और मेरी कमियाँ निकाल देता था, जिससे मैं बहुत असहज हो जाती थी। मैं सोचती थी, “पहले मैं दूसरों के लिए काम व्यवस्थित करती थी। लेकिन अब कोई भी मुझे सिखाने लगता है। मैं अपनी इज्जत कैसे बचाऊँ? भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? ऐसे नहीं चलेगा। मुझे लगन से गायन का अभ्यास करने की जरूरत है और अपने कौशल को जल्द से जल्द सुधारने का प्रयास करना होगा ताकि दूसरे लोग लगातार मेरी समस्याएँ न बताएँ।” मेरे प्रयासों के बावजूद मेरी गायन तकनीक में अभी भी कई समस्याएँ मौजूद थीं। गायक मंडली के वीडियो की शूटिंग के दौरान भी यही हुआ था। चूँकि मैंने लंबे समय से किसी शूटिंग में भाग नहीं लिया था, इसलिए मेरे हाव-भाव अप्राकृतिक लग रहे थे। कड़ी मेहनत के बावजूद, मैं सिर्फ पृष्ठभूमि के हिस्से के रूप में अंतिम पंक्ति में खड़ी थी, पूरे गाने में शायद ही मैं किसी शॉट में नजर आती थी। इससे मैं और भी परेशान हो गई थी। मैंने सोचा, “मैं अच्छा गा नहीं सकती; मैं अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकती। मैं हर पहलू में सबसे बुरी हूँ। चाहे मैं कितनी भी कोशिश करूँ, मैं दूसरों की बराबरी नहीं कर सकती। क्या मेरी किस्मत में हमेशा के लिए पृष्ठभूमि में रहना लिखा है? तो फिर यह कर्तव्य करने का क्या मूल्य है? मैं किसी का सामना कैसे कर सकती हूँ?” अपने अतीत के “गौरव” के बारे में सोचते हुए और उसकी तुलना अपने वर्तमान “पतन” से करते हुए मैं शिकायती होकर रो पड़ती थी। इस स्थिति ने मेरी हालत बहुत दर्दनाक और दबी हुई सी बना दी। मैं सारा उत्साह खो बैठी थी और यहाँ तक की टीम छोड़ने के बारे में भी सोचती थी। समन्वयक के रूप में मुझे अपने दिन बहुत याद आते थे, हमेशा एक दिन उसी भूमिका में लौटने के बारे में कल्पना करती रहती थी। वैसा होने पर मुझे इतनी तकलीफ नहीं होती। फिर मैं अपना कर्तव्य आसानी से कर सकती थी, दूसरों के कार्यों को तरीके से व्यवस्थित कर सकती थी और भाई-बहनों से आदर पाने का आनंद लेना जारी रख सकती थी। मुझे पता था कि मेरी अवस्था ठीक नहीं है। तकलीफ में मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, उससे मुझे इस अवस्था से बाहर निकालने के लिए कहा।
अपनी भक्ति के दौरान मैं लगातार विचार करती रहती : किसी नए कर्तव्य में कौशल से अपरिचित होना सामान्य बात है। भाई-बहन भी मेरे साथ संगति करते हैं, मुझे चिंता नहीं करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और कहते हैं कि अभ्यास करने पर मैं समय के साथ बेहतर होती जाऊँगी। लेकिन दूसरों को जो सामान्य लगता था, वह अक्सर मुझे इतना नकारात्मक क्यों महसूस कराता है और यहाँ तक कि भागने का मन भी क्यों करता है? मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “किसी भी व्यक्ति को स्वयं को पूर्ण, प्रतिष्ठित, कुलीन या दूसरों से भिन्न नहीं समझना चाहिए; यह सब मनुष्य के अभिमानी स्वभाव और अज्ञानता से उत्पन्न होता है। हमेशा अपने आप को दूसरों से अलग समझना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी अपनी कमियाँ स्वीकार न कर पाना और कभी भी अपनी भूलों और असफलताओं का सामना न कर पाना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी भी दूसरों को अपने से ऊँचा नहीं होने देना या अपने से बेहतर नहीं होने देना—ऐसा अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; दूसरों की खूबियों को कभी खुद से श्रेष्ठ या बेहतर न होने देना—यह अभिमानी स्वभाव के कारण होता है; कभी दूसरों को अपने से बेहतर विचार, सुझाव और दृष्टिकोण न रखने देना और दूसरे लोगों के बेहतर होने का पता चलने पर खुद नकारात्मक हो जाना, बोलने की इच्छा न रखना, व्यथित और निराश महसूस करना, तथा परेशान हो जाना—ये सभी चीजें अभिमानी स्वभाव के ही कारण होती हैं। अभिमानी स्वभाव तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा के प्रति रक्षात्मक, दूसरों के सुधारों को स्वीकार करने में असमर्थ, अपनी कमियों का सामना करने तथा अपनी असफलताओं और गलतियों को स्वीकार करने में असमर्थ बना सकता है। इसके अतिरिक्त, जब कोई व्यक्ति तुमसे बेहतर होता है, तो यह तुम्हारे दिल में घृणा और जलन पैदा कर सकता है, और तुम स्वयं को विवश महसूस कर सकते हो, कुछ इस तरह कि अब तुम अपना कर्तव्य निभाना नहीं चाहते और इसे निभाने में अनमने हो जाते हो। अभिमानी स्वभाव के कारण तुम्हारे अंदर ये व्यवहार और आदतें प्रकट हो जाती हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। मैंने खुद की तुलना परमेश्वर के वचनों से की और चिंतन किया। मुझे समझ आया कि मेरा स्वभाव बहुत अहंकारी है। पिछले दो वर्षों में मैंने अपने समन्वय कर्तव्य में कुछ अनुभव और नतीजे पाए थे। इससे मुझे लगता था कि मैं अपने काम में होशियार और सक्षम हूँ, किसी भी समूह में हमेशा अग्रणी रहती हूँ। मैं मानती थी कि मुझे दूसरों के लिए काम की व्यवस्था करनी चाहिए, न कि दूसरे मेरे लिए काम की व्यवस्था करें। यहाँ तक कि जब मुझे ऐसा काम सौंपा गया जिसमें नए कौशल सीखने की जरूरत थी, तो मुझे लगता था कि मुझे बाकी सभी की तुलना में तेजी से सीखना होगा। टीम के अन्य सदस्यों को अपने गायन में संघर्ष करना पड़ा था और धीरे-धीरे सभी के साथ अपनी आवाज का सामंजस्य बिठाने के लिए महीनों या उससे भी अधिक समय तक प्रशिक्षण लेना पड़ा था। लेकिन मुझे उम्मीद थी कि मैं कुछ हफ्तों में ही उनके बराबर पहुँच जाऊँगी। इस अपेक्षा को पूरा करने में नाकाम होने के बाद मैं परेशान और नकारात्मक रहने लगी थी। फिल्मांकन के दौरान जब मैं अन्य भाई-बहनों के हाव-भाव और स्थितियां अपने से बेहतर देखती थी तो भी मैं असहज हो जाती थी। जब मुझे कई शॉट्स में नहीं लिया जाता था तो मैं नकारात्मक हो जाती थी और यहाँ तक कि मैं अपना गायन कर्तव्य छोड़ने के बारे में भी सोचती थी। मैं ऐसे माहौल में आगे नहीं बढ़ सकती थी जो दूसरों को सामान्य लगता था। एक छोटी सी बाधा या कठिनाई भी मुझे अपनी जिम्मेदारियों से भागने और अपने कर्तव्य छोड़ने के लिए मजबूर कर देती थी। मैं वाकई अहंकारी थी और मुझमें विवेक की कमी थी! जब भाई-बहन मार्गदर्शन और मदद की पेशकश करते थे तो मैं इसे ठीक से नहीं ले पाती थी, यहाँ तक कि मुझे लगता था कि इससे मेरे अभिमान को ठेस पहुँचती है। मुझे एहसास हुआ कि मेरी परेशानी और नकारात्मकता इसलिए नहीं थी कि मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाती थी, बल्कि इसलिए थी क्योंकि मैं समूह में सबसे बुरी थी और मुझे भाई-बहनों से आदर और प्रशंसा नहीं मिल पाती थी। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “लोग उनके बारे में ऊँची राय रखें, इसके पीछे उनका मकसद क्या है? (ऐसे लोगों के मन में रुतबा पाना।) जब तुम्हें किसी और के मन में रुतबा मिलता है, तब वे तुम्हारे साथ होने पर तुम्हारे प्रति सम्मान दिखाते हैं, और तुमसे बात करते समय विशेष रूप से विनम्र रहते हैं। वे हमेशा प्रेरणा के लिए तुम्हारी ओर देखते हैं, वे हमेशा हर चीज पहले तुम्हें करने देते हैं, वे तुम्हें रास्ता देते हैं, तुम्हारी चापलूसी करते हैं और तुम्हारी बात मानते हैं। सभी चीजों में वे तुम्हारी राय चाहते हैं और तुम्हें निर्णय लेने देते हैं। और तुम्हें इससे आनंद की अनुभूति होती है—तुम्हें लगता है कि तुम किसी और से अधिक ताकतवर और बेहतर हो। यह एहसास हर किसी को पसंद आता है। यह किसी के दिल में अपना रुतबा होने का एहसास है; लोग इसका आनंद लेना चाहते हैं। यही कारण है कि लोग रुतबे के लिए होड़ करते हैं, और सभी चाहते हैं कि उन्हें दूसरों के दिलों में रुतबा मिले, दूसरे उनका सम्मान करें और उन्हें पूजें। यदि वे इससे ऐसा आनंद प्राप्त नहीं कर पाते, तो वे रुतबे के पीछे नहीं भागते। उदाहरण के लिए, यदि किसी के मन में तुम्हारा रुतबा नहीं है, तो वह तुम्हारे साथ समान स्तर पर जुड़ेगा, तुम्हें अपने बराबर मानेगा। वह जरूरत पड़ने पर तुम्हारी बात काटेगा, तुम्हारे प्रति विनम्र नहीं रहेगा या तुम्हें आदर नहीं देगा और तुम्हारी बात खत्म होने से पहले ही उठकर जा भी सकता है। क्या तुम्हें बुरा लगेगा? जब लोग तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं तो तुम्हें अच्छा नहीं लगता; तुम्हें अच्छा तब लगता है जब वे तुम्हारी चापलूसी करते हैं, तुम्हें आदर और सराहना की नजर से देखते हैं और हर पल तुम्हें पूजते हैं। तुम्हें तब अच्छा लगता है जब हर चीज तुम्हारे इर्द-गिर्द घूमती है, हर चीज तुम्हारे हिसाब से होती है, हर कोई तुम्हारी बात सुनता है, तुम्हें आदर और सराहना की नजर से देखता है और तुम्हारे निर्देशों का पालन करता है। क्या यह एक राजा के रूप में शासन करने, सत्ता पाने की इच्छा नहीं है? तुम्हारी कथनी और करनी रुतबा चाहने और उसे पाने से प्रेरित होती है और इसके लिए तुम दूसरों से संघर्ष, छीना-झपटी और प्रतिस्पर्धा करते हो। तुम्हारा लक्ष्य एक पद हासिल करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपनी बात सुनाना, उनसे समर्थन पाना और अपनी आराधना करवाना है। एक बार जब तुम उस पद पर आसीन हो जाते हो, तो फिर तुम्हें सत्ता मिल जाती है और तुम रुतबे के फायदों, दूसरों की प्रशंसा और उस पद के साथ आने वाले अन्य सभी लाभों का मजा ले सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं बहुत प्रभावित हुई और तुरंत समझ गई कि अपना पिछला समन्वय कर्तव्य छोड़ने के प्रति मेरी अनिच्छा सम्मान पाने की मेरी गहरी इच्छा और रुतबे के लाभों के लिए मेरी लालसा से उत्पन्न हुई थी। पिछली टीम में अपना समय याद करूँ तो जब मैं सब कुछ अच्छी तरह से व्यवस्थित कर लेती थी तो मुझे सभी की प्रशंसा मिलती थी। इसके अलावा भाई-बहन मेरी राय का सम्मान करते थे, टीम अगुआ मेरे साथ सभी मामलों पर चर्चा करती थी और सभी मुझसे बहुत विनम्रता से बात करते थे। ऐसे माहौल में मुझे दृढ़ता से लगता था कि मैं महत्वपूर्ण हूँ, हर किसी की तवज्जो और प्रशंसा पा सकती हूँ। मैंने उस एहसास का भरपूर आनंद लिया था। गायन कर्तव्य शुरू करने के बाद मैं विभिन्न मामलों में अन्य टीम के सदस्यों की बराबरी नहीं कर पाती थी। अब कोई मेरी राय भी नहीं पूछता था या काम के मामलों पर मुझसे सलाह नहीं लेता था और इसके बजाय हर कोई अक्सर मुझे ही सुझाव देता था, इसलिए मैं इस माहौल से बचना चाहती थी। अपना कौशल स्तर सुधारने के लिए मैं गायन का अभ्यास करने के लिए सुबह जल्दी उठती थी और देर से सोती थी, दूसरों की तुलना में अधिक प्रयास करती थी, उम्मीद करती थी कि एक दिन मैं दूसरों से आदर और प्रशंसा पाऊँगी। भले ही मैं सबसे उत्कृष्ट न हो पाऊँ, कम से कम किसी भी पहलू में मेरी अनदेखी तो नहीं की जाएगी जैसा कि अब की जा रही है। मैं अच्छी तरह से जानती थी कि मेरे गायन में सुधार एक क्रमिक प्रक्रिया है, लेकिन फिर भी मैं त्वरित नतीजे पाना चाहती थी। जब मैंने तमाम प्रयासों के बावजूद महत्वपूर्ण प्रगति नहीं देखी, तो मैं नकारात्मक हो गई और सारा उत्साह खो बैठी। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मेरी इच्छा केवल गीतों को अच्छी तरह से प्रस्तुत करने की नहीं थी बल्कि अपने कौशल स्तर को जल्दी से सुधारने की थी, ताकि मैं उपेक्षित और अनदेखा किए जाने की वर्तमान स्थिति से बच सकूँ और समूह में मूल्यवान व्यक्ति बन सकूँ। मैंने अपनी विभिन्न अभिव्यक्तियों की तुलना परमेश्वर के वचनों में उजागर बातों से की और मुझे एहसास हुआ कि मैं नहीं चाह्ती थी कि दूसरे मुझे निर्देश दें, मेरी अनदेखी करें, मैं चाहती थी कि अंतिम निर्णय लेने और समूह की कमान संभालने का अधिकार हमेशा मेरे पास रहे। मैं समर्थन और सम्मान पाने की कोशिश करती थी, हर किसी के दिल में जगह सुरक्षित करना चाहती थी। क्या यह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना नहीं था? मुझे बहुत डर लगा और मैं जल्दी से परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करने लगी, “हे परमेश्वर, मैं हाल ही में जिद्दी और विद्रोही रही हूँ। सिर्फ इसलिए कि मैं भाई-बहनों से आदर और तवज्जो नहीं पा सकी, मैं अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहती थी और अपना कर्तव्य छोड़ना चाहती थी और तुम्हारी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित नहीं हो सकी थी। अब मुझे एहसास हुआ कि मैं जिस रास्ते पर हूँ वह गलत है। मैं पश्चात्ताप करने को तैयार हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो ताकि खुद को और गहराई से समझ सकूँ।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; इसलिए वे चीजों को इस तरह से देखते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी घने-पुराने जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचेंगे। भले ही मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं, तो वे प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में उनकी आस्था में सत्य का अनुसरण प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण है; प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण सत्य का अनुसरण भी है, और प्रतिष्ठा और रुतबा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा, लाभ या रुतबा नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या सम्मान या उनका अनुसरण नहीं करता है, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन-ही-मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में अंतिम निर्णय उनका ही हो, और उनके पास शोहरत, लाभ और रुतबा हो—वे वास्तव में अपने दिलों में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे भागते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि मसीह-विरोधी हमेशा अपने हर काम में अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को ही प्राथमिकता देते हैं। वे प्रतिष्ठा और रुतबे को अपने जीवन भर का लक्ष्य मानते हैं। क्या मेरा लक्ष्य भी मसीह-विरोधियों जैसा नहीं था? पीछे मुड़कर देखती हूँ कि बचपन से ही मेरे माता-पिता और शिक्षकों ने मुझे सिखाया था कि जीवन महत्वाकाँक्षा के साथ जीना चाहिए, हर समूह में मुझे सर्वश्रेष्ठ बनने का प्रयास करना चाहिए और दूसरों के लिए अनुकरणीय उदाहरण बनना चाहिए और केवल इसी तरह से मेरा जीवन मूल्यवान हो सकता है। मुझे याद है कि बचपन में विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लेने से पहले मैं सबसे पहले अपनी जीत की संभावनाओं का आकलन करती थी। अगर मुझे जीतने का भरोसा होता तभी मैं भाग लेती थी; अगर मेरी संभावनाएँ कम होतीं तो मैं अपनी प्रतिष्ठा खोने के जोखिम से बचने के लिए हिस्सा नहीं लेती थी। मेरे दिमाग में “हिस्सा लेना ही मायने रखता है” जैसी कोई अवधारणा नहीं थी, मैं “जीतना ही सब कुछ है” मानती थी। यही रवैया परमेश्वर के घर में मेरे कर्तव्यों में भी शामिल हो गया था। मैं हमेशा वही कर्तव्य करना चाहती थी जिसमें मैं कुशल थी, क्योंकि इससे मेरी कार्यक्षमता का पता चलता था और दूसरों से स्वीकृति मिलती थी। मैं उन कार्यों को करने के लिए तैयार नहीं होती थी जिनमें मैं अच्छी नहीं थी, मैं नहीं चाहती थी कि भाई-बहन मेरा अज्ञानी और अनाड़ी पक्ष देखें। मैं देख सकती थी कि मेरा हर प्रकाशन और क्रियाकलाप प्रतिष्ठा और रुतबे के इर्द-गिर्द घूमता है। मैंने बिल्कुल मसीह-विरोधियों का स्वभाव प्रकट किया था। जब मेरे पास प्रतिष्ठा और रुतबा होती थी तो मैं अपने काम में ऊर्जा महसूस करती थी और कर्तव्य को मूल्यवान और सार्थक पाती थी। जब मैंने वह प्रतिष्ठा और रुतबा खो दिया, तो मैं अपना कर्तव्य करने की इच्छा भी खो बैठी। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए विचार करना और योजनाएँ बनाना मेरे लिए उतना ही स्वाभाविक था जितना हर दिन खाना और सोना। ऐसे शैतानी दर्शन जैसे “एक व्यक्ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज करता जाता है,” और “मनुष्य ऊपर की ओर संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है” मेरे दिल में गहराई तक समा चुके थे और मेरे आचरण के लिए लक्ष्य और मानक बन गए थे। अगर मैं पश्चात्ताप और परिवर्तन नहीं करती तो देर-सवेर मुझे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने में मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने के लिए परमेश्वर द्वारा बेनकाब कर निकाल दिया जाता।
एक सभा में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश सुना, जिससे मुझे अभ्यास का स्पष्ट मार्ग मिला और मानवता के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं की समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “चूँकि तुम एक सदस्य के रूप में परमेश्वर के घर में शांति से रहना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले यह सीखना चाहिए कि एक अच्छा सृजित प्राणी कैसे बनें और अपनी जगह के अनुसार अपने कर्तव्यों को कैसे पूरा करें। परमेश्वर के घर में, फिर तुम एक ऐसे सृजित प्राणी बन जाओगे जो अपने नाम के अनुरूप जीता है। सृजित प्राणी तुम्हारी बाहरी पहचान और उपाधि है, और इसकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ और सार होना चाहिए। यह केवल उपाधि रखने की बात नहीं है; चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए। चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें उससे जुड़ी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। तो, एक सृजित प्राणी के कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ क्या हैं? परमेश्वर का वचन सृजित प्राणियों के कर्तव्यों, दायित्वों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से बताता है, है ना? आज से, तुम परमेश्वर के घर के वास्तविक सदस्य हो, इसका मतलब है कि तुम खुद को परमेश्वर के बनाए गए प्राणियों में से एक के रूप में स्वीकारते हो। इसी के साथ, आज से तुम्हें अपने जीवन की योजनाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। तुम्हें उन आदर्शों, इच्छाओं और लक्ष्यों का अनुसरण करना छोड़ना और उन्हें त्यागना भी होगा जो तुमने अपने जीवन में पहले निर्धारित किए थे। इसके बजाय, एक सृजित प्राणी के पास जो जीवन लक्ष्य और दिशा होनी चाहिए, उसे पाने की योजना बनाने के लिए तुम्हें अपनी पहचान और परिप्रेक्ष्य को बदलना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारे लक्ष्य और दिशा एक अगुआ बनना या किसी उद्योग में अगुआई करना या उत्कृष्टता प्राप्त करना या ऐसा प्रसिद्ध व्यक्ति बनना नहीं होना चाहिए जो कोई खास कार्य करता है या जिसे किसी विशेष कौशल में महारत हासिल है। तुम्हारा लक्ष्य परमेश्वर से अपना कर्तव्य स्वीकार करना, यानी यह जानना होना चाहिए कि तुम्हें इस समय क्या कार्य करना चाहिए, और यह समझना चाहिए कि तुम्हें कौन-सा कर्तव्य निभाना है। तुम्हें खुद से यह पूछना होगा कि परमेश्वर तुमसे क्या अपेक्षा करता है और उसके घर में तुम्हारे लिए कौन-से कर्तव्य की व्यवस्था की गई है। तुम्हें उस कर्तव्य के संबंध में उन सिद्धांतों को समझना और उनके बारे में स्पष्टता प्राप्त करनी चाहिए जिन्हें समझा जाना चाहिए, धारण किया जाना चाहिए और जिनका पालन किया जाना चाहिए। यदि तुम उन्हें याद नहीं रख सकते, तो तुम उन्हें कागज पर लिख सकते हो या अपने कंप्यूटर पर रिकॉर्ड कर सकते हो। उनकी समीक्षा करने और उन पर विचार करने के लिए समय निकालो। सृजित प्राणियों के एक सदस्य के रूप में, तुम्हारे जीवन का प्राथमिक लक्ष्य एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना और एक योग्य सृजित प्राणी बनना होना चाहिए। यह जीवन का सबसे मौलिक लक्ष्य है जो तुम्हारे पास होना चाहिए। दूसरा और अधिक विशिष्ट लक्ष्य यह होना चाहिए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य कैसे अच्छे से निभाएँ और एक योग्य सृजित प्राणी कैसे बनें। बेशक, तुम्हारी प्रतिष्ठा, रुतबे, घमंड, भविष्य वगैरह से संबंधित किसी भी लक्ष्य या दिशा को त्याग दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर चाहता है कि प्रत्येक प्राणी अपने पद के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करे और यह जाने कि उसका वर्तमान कार्य और कर्तव्य क्या हैं। अपनी प्रतिष्ठा, रुतबे या भविष्य से संबंधित कोई भी लक्ष्य त्याग देना चाहिए। मेरा वर्तमान कर्तव्य गायन है। मुझे गायन कौशल और तकनीकों का अध्ययन करने पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके अपना गायन बेहतर बनाने का प्रयास करना चाहिए। मुझे समन्वयक के रूप में अपनी पिछली भूमिका के गौरव से चिपके नहीं रहना चाहिए और न ही इस बात की चिंता में डूबे रहना चाहिए कि गायन का अभ्यास करते समय मेरी प्रतिष्ठा और रुतबा किस तरह प्रभावित हो रहे हैं। ये कर्तव्य करने में व्यावहारिक होने की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं। इसे समझते हुए मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने की पूरी कोशिश की, गायन का अभ्यास करने की प्रक्रिया में अपने भ्रष्ट स्वभाव और भ्रामक दृष्टिकोणों को सुधारने पर ध्यान दिया। जब भी मैं अपनी इज्जत और रुतबे के बारे में चिंतित होती और खुलकर गाने में हिचकिचाती तो मैं चुपचाप परमेश्वर से प्रार्थना करती कि वह मेरा मार्गदर्शन कर मेरा अभिमान और रुतबा कम करने में मेरी मदद करे। हालाँकि कभी-कभी मैं अच्छा न गा पाने के कारण निराश और परेशान होती थी, लेकिन परमेश्वर के वचन खाने और पीने से मैं साफ जान पाती थी कि अनुसरण के बारे में मेरा नजरिया गलत है। परमेश्वर मनुष्यों से किसी उद्योग में अग्रणी या उत्कृष्ट व्यक्ति बनने की अपेक्षा नहीं करता, बल्कि लोगों से अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को निभाने के लिए कहता है। इसका एहसास होने पर मैंने जल्दी से अपनी नकारात्मक भावनाओं को समायोजित किया और गायन में मेरी बेबसी कम हो गई। कुछ समय बाद हमारे पर्यवेक्षक ने कहा कि मैंने गायन में कुछ प्रगति की है और मुझे रिकॉर्डिंग में शामिल होने की अनुमति दे दी। अपने कौशल में इस छोटे से सुधार को देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। और मैंने महसूस किया कि कौशल में प्रगति व्यक्तिगत जीवन में प्रवेश से निकटता से जुड़ी हुई है। जब मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे पर केंद्रित रहती थी, मैं हर चीज में बंधी हुई और बेबस महसूस करती थी और अपने कर्तव्य में परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस नहीं कर पाती थी। लेकिन जब मैं अपने अभिमान और रुतबे को अलग रखने और अपने कौशल का ईमानदारी से अभ्यास करने के लिए तैयार हुई तो मैंने अनजाने में ही अभ्यास के कुछ मार्ग खोज लिए।
इस अनुभव के माध्यम से मुझे वाकई एहसास हुआ कि सत्य के बजाय प्रतिष्ठा और रुतबे का पीछा करने से मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने में मदद नहीं मिली थी। बल्कि इसका असर कलीसिया के काम पर पड़ा था। मुझे यह भी एहसास हुआ कि मुझे यह कर्तव्य सौंपा जाना मेरे लिए परमेश्वर की महान सुरक्षा है। इससे मुझे अपनी भ्रष्टता और कमियाँ देखने, अपना उचित स्थान खोजने, समर्पण करने और मन की शांति के साथ अपना कर्तव्य निभाने में मदद मिली। मुझे उद्धार देने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!