67. मुझे कैंसर होने का पता चलने के बाद

झेंग शिन, चीन

1997 में मैं प्रभु यीशु में विश्वास करने लगी क्योंकि मैं अपने पुराने आंत्रशोथ का इलाज नहीं कर पा रही थी और प्रभु को पाने के बाद मेरी बीमारी में बहुत सुधार हुआ। दो साल बाद मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा और तब से मैं कलीसिया में अपने कर्तव्य कर रही हूँ। मुझे पता भी नहीं चला और मेरी पुरानी आंत्रशोथ की बीमारी पूरी तरह से ठीक हो गई। मैं अपने कर्तव्य करने के लिए और भी अधिक उत्साही हो गई और कलीसिया द्वारा निर्धारित किसी भी कर्तव्य से कभी पीछे नहीं हटी या उसे अस्वीकार नहीं किया। चाहे मेरे पति द्वारा मुझे बाधित किया जा रहा हो या सताया जा रहा हो या कम्युनिस्ट पार्टी मुझे गिरफ्तार करने और सताने की कोशिश कर रही हो, मैं कभी पीछे नहीं हटी और मैंने कभी अपने कर्तव्यों में देरी नहीं की।

मई 2020 में एक दिन मुझे अपनी गर्दन में बेचैनी महसूस हुई, जैसे मेरा गला घोंटा जा रहा हो, इसलिए मैं जाँच कराने अस्पताल गई। मुझे थायरॉयड की गाँठ का पता चला। जाँच के बाद डॉक्टर ने कहा, “यह गंभीर नहीं है। कुछ दवाएँ लो और हर छह महीने में जाँच के लिए आओ। जब तक कोई विकार नहीं दिखते हैं, तब तक इलाज की कोई जरूरत नहीं है।” डॉक्टर को यह कहते हुए सुनकर मैंने सोचा, “यह कोई बड़ी बीमारी नहीं है। जब तक मैं अपने कर्तव्य करने की पूरी कोशिश करती रहूँगी, परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा।” इसलिए मैंने अपनी दवा ली और अपने कर्तव्य करती रही और मेरी बीमारी में थोड़ा सुधार होता दिखा। 2023 में मेरी हालत और खराब हो गई। जब मैं सोती थी तो मुझे अपनी गर्दन पर दबाव महसूस होता था और मेरी साँस फूल जाती थी। मेरे लिए बोलना मुश्किल हो गया था और मुझे बात करने के लिए दम लगाना पड़ता था। एक जाँच के बाद डॉक्टर ने कहा कि मेरी हालत कैंसर की ओर बढ़ रही है और मुझे सर्जरी की जरूरत है। मैंने सोचा, “मैं अभी अगुवाई के कर्तव्य निभा रही हूँ और रोज सुबह से रात तक व्यस्त रहती हूँ। परमेश्वर मेरे प्रयासों और खपने के लिए मेरी रक्षा करेगा और यह बढ़कर कैंसर नहीं बनेगा।” इसलिए मैं बहुत भयभीत नहीं थी और मैंने सर्जरी करवा ली। सर्जरी अच्छी तरह से हुई और इसके बाद दूसरे दिन मैं अपने परिवार की मदद से बिस्तर छोड़ने में सक्षम रही। मुझे लगा कि यह परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा है और मैंने परमेश्वर को तहे दिल से धन्यवाद दिया।

दो हफ्ते बाद मैं अपना मेडिकल रिकॉर्ड लेने अस्पताल गई। मैंने देखा कि रिकॉर्ड में एक घातक ट्यूमर, कैंसर का संकेत था और मैं यह सोचकर परेशान होने लगी, “तो मुझे वाकई कैंसर है! भले ही मेरी सर्जरी हो चुकी है लेकिन कैंसर लौट सकता है या दूसरे अंगों में फैल सकता है। क्या इसका मतलब है कि मैं मरने वाली हूँ? परमेश्वर ने मेरी रक्षा क्यों नहीं की? मैंने बीस साल से अधिक समय तक अपने कर्तव्य करते हुए बहुत कष्ट झेले हैं। कई खतरनाक और कठिन परिस्थितियों के बावजूद मैं अपने कर्तव्यों में डटी रही हूँ, तो मुझे कैंसर कैसे हो सकता है? अगर यह पता होता कि मुझे कैंसर हो जाएगा तो मैं अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपना परिवार और नौकरी नहीं छोड़ती। मुझे लगता था कि मैं भविष्य में परमेश्वर से उद्धार और अच्छी मंजिल पा सकूँगी, लेकिन अब जब मुझे एक लाइलाज बीमारी है और मैं मर सकती हूँ तो वह अच्छी मंजिल मेरी पहुँच से बाहर है!” जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, मैं उतनी ही अधिक निराश और परेशान हो गई। मैं बड़ी नाउम्मीद हो गई और न चाहते हुए भी रोने लगी। अगले कुछ दिनों तक मेरे दिमाग में एक शब्द गूंजता रहा—कैंसर। मैं बहुत हताश थी। मैं न तो खा पा रही थी और न ही सो पा रही थी, मेरी सारी हड्डियों में दर्द हो रहा था और मेरी बाहें सुन्न हो गई थीं। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, उसे अपनी अवस्था के बारे में बताया, उम्मीद जताई कि वह अपना इरादा समझने में मेरी मदद करेगा। फिर मैंने बीमारी से निपटने के तरीके पर परमेश्वर के वचन पढ़े। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और उसके इरादे को थोड़ा और समझा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, बीमारी से तुम्हें होने वाली असुविधाओं और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर बीमारी को समझो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रदर्शित भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो, और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको, और अपनी गवाही में डटे रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरा दिल उज्ज्वल हो गया। असल में इस बीमारी का मतलब परमेश्वर का मुझे बेनकाब करना और निकालना नहीं था, बल्कि यह था कि वह मेरे भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध कर रहा था और मुझे बचा रहा था। लेकिन मैंने परमेश्वर का इरादा नहीं खोजा और सोचा कि यह बीमारी होने का मतलब है परमेश्वर मुझे बेनकाब कर और निकाल रहा है। मैं निराशा में जी रही थी, परमेश्वर से बहस और शिकायत कर रही थी और यहाँ तक कि अपने पिछले प्रयासों और खपने पर पछता रही थी। मैंने देखा कि मैं सच में अंतरात्मा से रहित थी! अब मैं समझ गई कि मेरी बीमारी लौटेगी या दूसरे अंगों में फैल जाएगी और किस हद तक बढ़ जाएगी, इन सबमें परमेश्वर का इरादा निहित है। मैं अब परमेश्वर को गलत नहीं समझ सकती थी। मुझे अपने मसले सुलझाने के लिए सत्य खोजना था।

मुझे मृत्यु का सही तरीके से सामना करने के बारे में परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया, इसलिए मैंने इसे खोजा और पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मृत्यु के विषय की प्रकृति वही है जो दूसरे विषयों की होती है। इसका चयन लोग खुद नहीं कर सकते, और इसे मनुष्य की इच्छा से बदलना तो दूर की बात है। मृत्यु भी जीवन की किसी दूसरी महत्वपूर्ण घटना जैसी ही है : यह पूरी तरह से सृष्टिकर्ता के पूर्वनिर्धारण और संप्रभुता के अधीन है। अगर कोई मृत्यु की भीख माँगे, तो जरूर नहीं कि वह मर जाए; अगर कोई जीने की भीख माँगे, तो जरूरी नहीं कि वह जीवित रहे। ये सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण के अधीन हैं, और परमेश्वर के अधिकार, उसके धार्मिक स्वभाव और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं से ही इसे बदला जा सकता है। इसलिए, मान लो कि तुम्हें कोई गंभीर रोग, संभावित घातक गंभीर रोग हो जाता है, तो जरूरी नहीं कि तुम्हारी मृत्यु हो जाए—तुम मरोगे या नहीं इसका फैसला कौन करता है? (परमेश्वर।) परमेश्वर फैसला लेता है। और चूँकि परमेश्वर निर्णय लेता है, और लोग ऐसी चीज का फैसला नहीं कर सकते, तो लोग किस बात को लेकर व्याकुल और संतप्त हैं? ... मृत्यु के अत्यंत महत्वपूर्ण विषय का सामना करते समय लोगों को संतप्त नहीं होना चाहिए, फिक्र नहीं करनी चाहिए और डरना नहीं चाहिए, फिर क्या करना चाहिए? लोगों को प्रतीक्षा करनी चाहिए, है ना? (हाँ।) सही? क्या प्रतीक्षा का अर्थ मृत्यु की प्रतीक्षा करना है? मृत्यु सामने होने पर मृत्यु की प्रतीक्षा करना? क्या यह सही है? (नहीं, लोगों को सकारात्मक होकर इसका सामना करना चाहिए, समर्पण करना चाहिए।) यह सही है, इसका अर्थ मृत्यु की प्रतीक्षा करना नहीं है। मृत्यु से बुरी तरह भयभीत मत हो, अपनी पूरी ऊर्जा मृत्यु के बारे में सोचने में मत लगाओ। सारा दिन यह मत सोचते रहो, ‘क्या मैं मर जाऊँगा? मेरी मृत्यु कब होगी? मरने के बाद क्या करूँगा?’ बस, इस बारे में मत सोचो। कुछ लोग कहते हैं, ‘इस बारे में क्यों न सोचूँ? जब मरने ही वाला हूँ, तो क्यों न सोचूँ?’ चूँकि यह नहीं मालूम कि तुम्हारी मृत्यु होगी या नहीं, और यह भी नहीं मालूम कि परमेश्वर तुम्हें मरने देगा या नहीं—ये चीजें अज्ञात हैं। खास तौर से यह मालूम नहीं है कि तुम कब मरोगे, कहाँ मरोगे, किस वक्त मरोगे और मरते समय तुम्हारे शरीर को क्या अनुभव होगा। जो चीजें तुम नहीं जानते, उनके बारे में सोचकर और चिंतन कर अपने दिमाग को झकझोरने और उनके बारे में व्याकुल और चिंतित होना क्या मूर्खता नहीं है? चूँकि ऐसा करके तुम मूर्ख बन जाते हो, इसलिए तुम्हें इन चीजों पर अत्यधिक नहीं सोचना चाहिए(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरा दिल और भी उज्ज्वल हो गया। हममें से हर व्यक्ति मृत्यु का अनुभव करेगा और हमें कौन सी बीमारी होगी और हम कब मरेंगे, यह सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। किसी व्यक्ति का जीवन और मृत्यु बाहरी कारकों से प्रभावित नहीं होते, बल्कि केवल परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनिर्धारण पर निर्भर करते हैं। परमेश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की लंबाई पूर्वनिर्धारित की है और इसका उनकी शारीरिक स्थिति या उन्हें कोई गंभीर बीमारी होने से कोई लेना-देना नहीं है। मुझे अपनी माँ का ख्याल आया जो हमेशा स्वस्थ रहती थी, लेकिन अंत में उसे अधरंग हो गया और कुछ ही वर्षों में उसका निधन हो गया। लेकिन मेरी एक पड़ोसन, जिसके बारे में मैंने सुना था कि चालीस वर्ष की उम्र से ही उसका स्वास्थ्य खराब रहता था, वह अक्सर बीमार रहती थी, खेतों में काम नहीं कर पाती थी और सिर्फ खाना पकाने और घर के काम करने में सक्षम थी, अब वह नब्बे वर्ष से ज्यादा की हो गई है। इससे पता चलता है कि किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य और जीवन काल पहले से ही परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है और गंभीर बीमारी होने पर भी अगर परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण के अनुसार किसी व्यक्ति का समय नहीं हुआ है तो वह नहीं मरेगा। इस बारे में सोचते हुए मैं शांत भाव से अपनी बीमारी का सामना करने में सक्षम हो गई।

फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “बताओ भला, पूरी दुनिया में खरबों लोगों के बीच कौन इतना धन्य है कि परमेश्वर के इतने सारे वचन सुन पाए, जीवन के इतने सत्य और इतने सारे रहस्य समझ पाए? उन सबमें कौन निजी तौर पर परमेश्वर का मार्गदर्शन, उसका पोषण, देखभाल और रक्षा प्राप्त कर सकता है? कौन इतना धन्य है? बहुत कम लोग। इसलिए तुम थोड़े-से लोगों का आज परमेश्वर के घर में जीवनयापन करने, उसका उद्धार पाना, और उसका पोषण पाने में समर्थ होना, ये सब तुम तुरंत मर जाओ तो भी सार्थक है। तुम अत्यंत धन्य हो, क्या यह सही नहीं है? (हाँ।) इस नजरिये से देखें, तो लोगों को मृत्यु के विषय से इतना अधिक भयभीत नहीं होना चाहिए, न ही इससे बेबस होना चाहिए। भले ही तुमने दुनिया की किसी महिमा या धन-दौलत के मजे न लिए हों, फिर भी तुम्हें सृष्टिकर्ता की दया मिली है, और तुमने परमेश्वर के इतने सारे वचन सुने हैं—क्या यह आनंददायक नहीं है? (जरूर है।) इस जीवन में तुम चाहे जितने साल जियो, ये सब इस योग्य है और तुम्हें कोई खेद नहीं, क्योंकि तुम परमेश्वर के कार्य में निरंतर अपना कर्तव्य निभाते रहे हो, तुमने सत्य समझा है, जीवन के रहस्यों को समझा है, और जीवन में जिस पथ और लक्ष्यों का तुम्हें अनुसरण करना चाहिए उन्हें समझा है—तुमने बहुत कुछ हासिल किया है! तुमने सार्थक जीवन जिया है!(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य स्वीकार सका, यह परमेश्वर का उत्कर्ष है। बीस से अधिक वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करते हुए मैंने परमेश्वर के वचनों से इतने अधिक सिंचन और प्रावधान के साथ ही परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा का आनंद लिया था, फिर भी बीमार पड़ने पर मैंने परमेश्वर के प्रति गलतफहमी पाली और शिकायत की, उससे बहस की और उसका प्रतिरोध किया। मुझमें गवाही देने की पूरी तरह से कमी थी और मैं शर्म का पात्र बन गई थी। मैं बहुत तकलीफ में थी, सोच रही थी कि इतने वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी मैंने अभी तक बहुत अधिक सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है और अगर मैं मर गई तो अपने पीछे सिर्फ पछतावे छोड़ जाऊँगी। चूँकि मैं अभी भी जीवित हूैं, मुझे लगा कि मुझे ईमानदारी से सत्य का अनुसरण करना चाहिए और चाहे मैं कितनी भी लंबी जिंदगी जीऊँ, मुझे अपने हर दिन को संजोना चाहिए और सृजित प्राणी का कर्तव्य अच्छे से पूरा करना चाहिए, जिससे कोई पछतावा न रहे।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और मैं गहराई से प्रभावित हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर का अनुसरण करने वाले बहुत सारे लोग केवल इस बात से मतलब रखते हैं कि आशीष कैसे प्राप्त किए जाएँ या आपदा से कैसे बचा जाए। ... ऐसे लोगों का परमेश्वर का अनुसरण करने का केवल एक सरल उद्देश्य होता है, और वह उद्देश्य है आशीष प्राप्त करना। ऐसे लोग ऐसी किसी भी दूसरी चीज पर ध्यान देने की परवाह नहीं कर सकते जो इस उद्देश्य से सीधे संबंध नहीं रखती। उनके लिए, आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास करने से ज्यादा वैध उद्देश्य और कोई नहीं है—यह उनके विश्वास का असली मूल्य है। यदि कोई चीज इस उद्देश्य को प्राप्त करने में योगदान नहीं करती, तो वे उससे पूरी तरह से अप्रभावित रहते हैं। आज परमेश्वर में विश्वास करने वाले अधिकांश लोगों का यही हाल है। उनके उद्देश्य और इरादे न्यायोचित प्रतीत होते हैं, क्योंकि जब वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते भी हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं और अपना कर्तव्य भी निभाते हैं। वे अपनी जवानी न्योछावर कर देते हैं, परिवार और आजीविका त्याग देते हैं, यहाँ तक कि वर्षों अपने घर से दूर व्यस्त रहते हैं। अपने परम उद्देश्य के लिए वे अपनी रुचियाँ बदल डालते हैं, अपने जीवन का दृष्टिकोण बदल देते हैं, यहाँ तक कि अपनी खोज की दिशा तक बदल देते हैं, किंतु परमेश्वर पर अपने विश्वास के उद्देश्य को नहीं बदल सकते। ... फिलहाल, आओ इसकी चर्चा न करें कि इन लोगों ने कितना कुछ दिया है। किंतु उनका व्यवहार हमारे विश्लेषण के बहुत योग्य है। उनके साथ इतनी निकटता से जुड़े उन लाभों के अतिरिक्त, परमेश्वर को कभी नहीं समझने वाले लोगों द्वारा उसके लिए इतना कुछ दिए जाने का क्या कोई अन्य कारण हो सकता है? इसमें हमें पूर्व की एक अज्ञात समस्या का पता चलता है : मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष लेने वाले और देने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह एक कर्मचारी और एक नियोक्ता के मध्य का संबंध है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। इस प्रकार के हित-आधारित संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेन-देन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझ नहीं होती, केवल असहाय दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने बिल्कुल मेरी अवस्था उजागर कर दी। परमेश्वर पर विश्वास करने और यह देखने के बाद कि उसने मेरी बीमारी को ठीक कर दिया है, मैंने अपना कर्तव्य करने के लिए अपना परिवार और करियर त्याग दिया और यहाँ तक कि जब मेरे परिवार ने मुझे सताया और मेरे गिरफ्तार होने का खतरा था तो भी मैं प्रभावित नहीं हुई। लेकिन जब मुझे पता चला कि मुझे कैंसर है और आशीष पाने की मेरी उम्मीदें टूट गईं तो मैंने परमेश्वर से बहस की, शिकायत की कि उसने मेरी रक्षा नहीं की और मुझे अपनी पिछली खपाई और कोशिशों पर पछतावा हुआ और मैं अब परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करना चाहती थी या उसके वचन नहीं पढ़ना चाहती थी। तभी मैंने देखा कि परमेश्वर के साथ मेरा रिश्ता पूरी तरह से लेन-देन का था। मैं अपने बलिदानों और प्रयासों के बदले एक अच्छी मंजिल चाहती थी। मैं परमेश्वर को धोखा देने और इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही थी। मैं इतनी स्वार्थी और नीच थी! कोई मानवता युक्त व्यक्ति परीक्षणों का सामना होने पर परमेश्वर को गलत नहीं समझेगा या शिकायत नहीं करेगा, बल्कि परमेश्वर का इरादे खोजेगा और तकलीफ में भी वह एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी उचित स्थिति में खड़ा रहेगा और अपने लिए परमेश्वर को उसकी इच्छा के अनुसार आयोजन करने देगा। लेकिन खुद को देखूँ तो मैंने परमेश्वर के मुझे दिए सारे अनुग्रह और आशीष को हल्के में लिया और जब मेरी एक माँग पूरी नहीं हुई तो मैंने परमेश्वर को जवाबदेह ठहराया। मुझमें वाकई मानवता की कमी थी और मैं जीने के लायक नहीं थी। भले ही परमेश्वर मुझे नष्ट कर दे तो भी यह उसकी धार्मिकता होगी! लेकिन परमेश्वर ने मुझे अब भी पश्चात्ताप करने का मौका दिया, अपने वचनों का उपयोग करके मुझे आत्मचिंतन करने के लिए प्रबुद्ध किया और मार्गदर्शन दिया। मैं अब परमेश्वर को गलत नहीं समझ सकती थी या उसके बारे में शिकायत नहीं कर सकती थी। मुझे सत्य का अनुसरण करना था और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करना था।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अभ्यास के कुछ मार्ग पाए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। आशीष प्राप्त होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। दुर्भाग्य सहना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कर्तव्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी। जो लोग अपना कर्तव्य बेमन से करते हैं और सत्य की खोज नहीं करते, वे अंत में निकाल दिए जाएँगे, क्योंकि ऐसे लोग सत्य के अभ्यास में अपना कर्तव्य पूरा नहीं करते, और अपना कर्तव्य निभानेमें सत्य का अभ्यास नहीं करते। ये वे लोग हैं, जो अपरिवर्तित रहते हैं और जिन्हें दुर्भाग्य सहना पड़ेगा। उनकी न केवल अभिव्यक्तियाँ अशुद्ध हैं, बल्कि वे जो कुछ भी व्यक्त करते हैं, वह दुष्टतापूर्ण होता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि अपने कर्तव्य का पालन करने का आशीष पाने या आपदाएँ सहने से कोई लेना-देना नहीं है और सृजित प्राणियों के लिए अपने कर्तव्य करना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है और चाहे उनका परिणाम या गंतव्य अच्छा हो या न हो, या उन्हें आशीष दिया जा सके या नहीं, उन्हें अपने कर्तव्य जरूर करने चाहिए। इसके अतिरिक्त आशीषों का आनंद लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य का अनुसरण करने और अपने स्वभाव में परिवर्तन लाने के फलस्वरूप लेते हैं और जब आखिरकार परमेश्वर द्वारा बचाए जाते हैं। अगर किसी व्यक्ति का भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदलता है तो उसे अंत में दंडित किया जाएगा। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में मैंने देखा कि मेरे विचार कितने बेतुके थे। मैं हमेशा सोचती थी कि जब तक मैं परमेश्वर के लिए अधिक कष्ट सहती हूँ, त्याग करती हूँ और खुद को खपाती हूँ, मुझे बचा लिया जाएगा और वह अच्छा गंतव्य मिलेगा जो परमेश्वर लोगों को देता है। यह मेरा महज ख्याली पुलाव था। अगर मैंने सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया और उसमें मौजूद अशुद्धियों की जाँच न की, सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान न दिया और मेरा भ्रष्ट स्वभाव कभी न बदला और आशीष न मिलने पर परमेश्वर तक को जवाबदेह ठहरा दिया तो अंत में मुझे परमेश्वर का प्रतिरोध करने के लिए दंडित किया जाएगा। यह देखकर मुझे एहसास हुआ कि मैं कितने बड़े खतरे में थी। अगर मैं इसी रास्ते पर चलती रही तो मुझे बिना कारण जाने ही निकाल दिया जाएगा! मैंने परमेश्वर का निष्ठापूर्वक धन्यवाद किया कि इस बीमारी ने मुझे अपनी आस्था में गलत रास्ते को देखने और समय रहते इसे बदलने में मदद की। मैंने यह भी समझा कि परमेश्वर पर विश्वास करने का मतलब आशीष पाना नहीं, बल्कि सत्य का अनुसरण और स्वभावगत परिवर्तन लाने का प्रयास करना और परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना होना चाहिए। इन बातों का एहसास होने पर मेरे दिल को तुरंत राहत और मुक्ति मिली और मैं अब बीमारी या मृत्यु से बेबस नहीं रही। अगर मेरी बीमारी फिर से उभर आई या दूसरे अंगों में फैल गई तो भी मैं परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पण करने के लिए तैयार थी। इस बात की परवाह किए बिना कि मेरी बीमारी ठीक हो सकती है या नहीं या मुझे भविष्य में आशीष मिल सकता है या नहीं, मैं अपने कर्तव्य अच्छी तरह से करने की पूरी कोशिश करूँगी। उसके बाद मैंने सुसमाचार फैलाने में आने वाली मुश्किलें और समस्याएँ सुलझाने के लिए भाई-बहनों के साथ काम करना शुरू किया और हमने कुछ नतीजे पाए। लगभग दस दिन बाद मैं एक और स्वास्थ्य जाँच के लिए गई और अप्रत्याशित रूप से सभी संकेतक सामान्य थे।

मैंने इस बीमारी से बहुत कुछ हासिल किया। मैंने अपना असली आध्यात्मिक कद देखा और मैंने देखा कि इन वर्षों में मैंने आशीष और लाभ के लिए अपना परिवार और करियर त्याग दिया था। मेरा दिल वाकई अड़ियल था! परमेश्वर ने मुझे बहुत अनुग्रह और आशीष दिया था और मुझे बचाने के लिए लगातार काम किया था, लेकिन अपनी माँग पूरी न होने वाली इस एक चीज के कारण मैंने परमेश्वर से बहस की और उसे जवाबदेह ठहराया। परमेश्वर ने मेरे लिए इतना कुछ चुकाया और फिर भी बदले में मेरा सच्चा दिल नहीं पा सका! यह सोचकर मैं परमेश्वर के प्रति बहुत ऋणी हो गई। लेकिन साथ ही मैं परमेश्वर के प्रति बहुत आभारी थी, क्योंकि अगर यह बीमारी न होती तो मैं कभी भी खुद को पहचान नहीं पाती और आत्म-चिंतन नहीं कर पाती, मैं उसे धोखा देने, उगाही करने और उसके साथ लेन-देन करने की कोशिश करती रहती। परमेश्वर यह प्रकाशन न करता तो मुझे अभी भी यही लगता कि मुझे बचाया जा सकता है। लेकिन अब मैं देखती हूँ कि मेरा आध्यात्मिक कद दयनीय रूप से छोटा है और बचाए जाने से बहुत दूर है! मुझे फिर से शुरू करने की जरूरत है, लेकिन इस बार विवेक के साथ। चाहे परमेश्वर भविष्य में मेरा कैसे भी परीक्षण करे, मुझे उसके आयोजनों के प्रति समर्पण करना चाहिए, सत्य का अनुसरण करना चाहिए और अपने स्वभाव में बदलाव की खोज करनी चाहिए।

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