66. क्या मिलनसार होना आचरण का सिद्धांत है?

ज़ी यी, चीन

मुझे याद है जब मैं पहली कक्षा में थी तो हमारी क्लास टीचर मिलनसार और सुलभ थी और उसके चेहरे पर हमेशा दयालुता का भाव रहता था। वह कभी भी हम पर गुस्सा नहीं होती थी या डाँटती नहीं थी। कभी-कभी वह हमसे इस तरह बात करती थी जैसे वह हमारी टीचर ही न हो। हम सभी को उसके आस-पास रहना अच्छा लगता था और हमारे माता-पिता अच्छी टीचर होने के लिए उसकी तारीफ करते थे। मैं वाकई उसका सम्मान और तारीफ करती थी और उसके जैसी बनना चाहती थी। बाद के जीवन में मैंने चाहे जिस किसी से भी बातचीत की हो, मैंने शायद कभी किसी से बहस नहीं की। भले ही किसी ने मुझे आहत किया हो और मैं उससे नाराज हुई हूँ या मुझे उससे नफरत हुई हो, फिर भी मैं उनके साथ शांतिपूर्वक मेलजोल रखने के लिए अपने दाँत पीस लेना और मुस्कुराते हुए उनका अभिवादन करना पसंद करती थी। इस वजह से मेरे सहपाठियों को मेरे आस-पास रहना अच्छा लगता था और मेरे सभी रिश्तेदार कहते थे कि मैं शिष्ट और समझदार हूँ। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद मैं अपने भाई-बहनों के साथ भी इसी तरह से घुलती-मिलती थी, नरम होकर बात करती थी और किसी के भी अभिमान को ठेस न पहुँचाने की पूरी कोशिश करती थी। यहाँ तक कि जब मैं दूसरों की समस्याएँ देख लेती तो भी मैं हमेशा चीजों को कम करके आँकती थी, जिससे दूसरे लोग मुझे सकारात्मक नजरिए से देखते थे और इस तरह मेरा यह विश्वास और मजबूत हो गया कि इस तरह से रहना अच्छी बात है। कुछ चीजों से गुजरने और परमेश्वर के वचनों के संपर्क में आने के बाद ही मुझे समझ आया कि मिलनसार होना कोई ऐसा सिद्धांत नहीं है जिसके अनुसार अपना आचरण किया जा सके और मुझे समझ आया कि सच्चे मानव के समान कैसे आचरण किया जाए।

जनवरी 2022 में मैं कलीसिया के कुछ सफाई कार्यों का पर्यवेक्षण कर रही थी। ली युआन और लिन शी ने अभी-अभी यह काम शुरू किया था और अभी उनकी सिद्धांतों पर पकड़ नहीं थी, इसलिए मैंने उनके काम पर थोड़ी और नजर रखी। उस समय मैंने पाया कि वे अपने कर्तव्य में काफी लापरवाह थीं और कुछ साफ समस्याएँ सामने आ रही थीं। एक बार मैंने देखा कि उन्होंने जो सामग्री व्यवस्थित की थी, उसमें कुछ लोगों के व्यवहार का सिर्फ सारांश दिया गया था और विवरण की कमी थी, कुछ मामलों में सबूतों की कमी थी और यह पुष्टि के लिए और उदाहरणों की जरूरत थी कि क्या इन लोगों को निकाला जाना चाहिए। अगर स्पष्ट जाँच और सत्यापन नहीं किया जाता है तो किसी व्यक्ति को आसानी से गलत तरीके से हटाया और निष्कासित किया जा सकता है। यह एक बहुत ही गंभीर समस्या थी। मैंने देखा कि वे दोनों लोगों को बाहर निकाल देने की सामग्री व्यवस्थित करने में कितनी लापरवाह थीं और जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, मुझे उतना ही गुस्सा आता गया। इसलिए मैंने अपनी साझेदार, बहन लियू जिंग से कहा, “ली युआन और लिन शी ने अभी इस पर काम करना शुरू किया है और वे बहुत सी उन चीजों पर सलाह नहीं लेती हैं जो उन्हें समझ में नहीं आती हैं। वे अपने कर्तव्यों के प्रति बहुत लापरवाह हैं। इस बार मुझे कर्तव्य के प्रति उनके समस्याजनक रवैये की ओर ध्यान दिलाना होगा।” लियू जिंग मुझसे सहमत थी। लेकिन उन दोनों को पत्र लिखते समय मुझे झिझक हुई, “कुछ दिन पहले जब मैं उनके साथ थी तो उनकी अवस्थाएँ कुछ नकारात्मक लग रही थीं, अगर मैं उनकी काट-छाँट करती हूँ और उनके कर्तव्यों में लापरवाह प्रकृति का गहन-विश्लेषण करती हूँ तो क्या वे इतनी नकारात्मक हो जाएँगी कि काम छोड़ देंगी? क्या वे कहेंगी कि मैं उनकी मुश्किलें नहीं समझती हूँ और बहुत ज्यादा अपेक्षा कर रही हूँ और कठोर हो रही हूँ? वे मेरे बारे में जो अच्छी धारणा रखती हैं, शायद वह खत्म हो जाएगी।” अपनी छवि बचाने के लिए मैंने सिर्फ उनके द्वारा की गई गलतियाँ ही बताईं और उनके भ्रष्ट स्वभाव उजागर करने के लिए कुछ नहीं कहा। मैंने इसे सांत्वना और उपदेशों में भी पिरोया, जैसे कि उन्हें अपनी कमियों और खामियों को सही ढंग से देखने और नकारात्मकता और गलतफहमी में न जीने के लिए प्रोत्साहित किया। जब लियू जिंग ने मेरा पत्र पढ़ा तो उसने कहा, “क्या तुम कर्तव्यों में उनकी लापरवाह प्रकृति के बारे में बात नहीं करने वाली थी? तुम इतनी अप्रत्यक्ष क्यों हो रही हो? क्या तुम्हें लगता है कि अगर तुम उनसे इस तरह बात करोगी तो वे अपनी समस्या पहचानेंगी?” लियू जिंग को ऐसा कहते सुनकर मुझे एहसास हुआ कि इस तरह इधर-उधर की बातें करने से कोई नतीजा नहीं मिलने वाला है, लेकिन मैं उन पर बुरा प्रभाव छोड़ने से डरती थी, इसलिए मैंने मामले को टालने का बहाना खोज लिया।

फरवरी में काम पर चर्चा करने के लिए मैं उनके समूह में गई। उनसे दूरी बनाने से बचने के लिए मैंने खुद से कहा कि मुझे उनके साथ सौम्य रहना होगा और अपनी बातों को लेकर सावधान रहना होगा, बहुत ज्यादा श्रेष्ठ या कठोर तरीके से बात नहीं करनी होगी। उन्हें मजाक करते देखकर मैं उनके साथ मिल गई ताकि वे मुझे सहज, मिलनसार और सरल इंसान के रूप में देखें, जो सभी के साथ घुल-मिल कर रह सकती है। जब मैंने उन्हें यह कहते हुए सुना कि उन्होंने कोई प्रगति नहीं की है और वे हताश हो रही हैं तो मैंने उनसे कहा कि अतीत में मुझमें भी बहुत कमियाँ रही हैं और मुझे कुछ सिद्धांतों को धीरे-धीरे समझने में बहुत समय लगा। मैंने उन्हें दिलासा देने और प्रोत्साहित करने के लिए ऐसा कहा। कुछ समय बाद वाकई हमारी अच्छी बनने लगी और एक बहन ने मुझसे कहा कि बिना किसी दबाव के इस तरह से बातचीत करना अच्छा लगता है। उसकी बात सुनकर मुझे और भी यकीन हो गया कि इस तरह से व्यवहार करना सही है। एक बार टीम की एक सदस्य चेन शिन ने मुझसे कहा कि इस काम में काफी समय से शामिल होने के बावजूद उससे अभी भी हर समय गलतियाँ हो रही हैं, उसे लगता था कि उसने कोई प्रगति नहीं की है और वह काफी नकारात्मक महसूस करती थी। मुझे पता था कि चेन शिन की प्रगति इसलिए कम थी क्योंकि वह नतीजों के लिए अधीर थी और अपनी तुलना दूसरों से करती थी और क्योंकि वह सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित नहीं करती थी, लेकिन मुझे डर था कि अगर मैंने सीधे उसकी समस्या बताई तो शायद वह इसे अच्छी तरह से नहीं लेगी और मेरे बारे में किसी तरह का पूर्वाग्रह या नकारात्मक नजरिया बना लेगी। इसलिए मैंने उसे बस प्रोत्साहित किया और कहा, “तुमने अभी-अभी शुरुआत की है, और तुम्हारे काम में कुछ समस्याएँ या चूक होना सामान्य बात है। यह सिर्फ अभ्यास की बात है। तुम्हें खुद को सही तरीके से देखने की जरूरत है, जो समस्याएँ और गलतियाँ होती हैं, उनका सारांश तैयार करो और फिर लक्षित तरीके से प्रासंगिक सिद्धांत सीखो। इस तरह तुम प्रगति करोगी।” चूँकि मैंने चेन शिन की समस्या नहीं बताई तो वह अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं पहचान पाई और दूसरों के साथ अपनी तुलना करती रही और जब वह उनकी बराबरी नहीं कर पाई तो नकारात्मक हो गई। लिन शी भी अपने कर्तव्यों में लापरवाह थी और कई समस्याएँ कायम रहीं, जिससे काम की प्रगति प्रभावित हो रही थी। मुझे पता था कि लिन शी अपने कर्तव्यों में बहुत ही घटिया थी और मुझे काट-छाँटकर उसे उजागर करना चाहिए था, लेकिन मुझे डर था कि उसके मन में मेरे बारे में गलत धारणा बन जाएगी और वह अब मेरा समर्थन या अनुमोदन नहीं करेगी। इसलिए मैंने उसकी समस्याओं पर बस सरसरी निगाह डाली और यह संकेत दिया कि अपने कर्तव्य में गलत इरादे उसकी प्रगति न होने का कारण हो सकते हैं। मैंने जिस तरह से चीजों को कम करके आँका, उससे लिन शी ने मेरी कही किसी भी बात को दिल से नहीं लिया, अपने लापरवाह रवैये के मुद्दे को नहीं सुधारा और उसके कार्य को अक्सर फिर से करना पड़ता था। क्योंकि मैं सिर्फ अपने रिश्ते बचाने के बारे में सोच रही थी, मैंने हमेशा सिर्फ उन मुद्दों के बारे में बात की जिन्हें मैंने सरसरी तौर पर देखा, जिससे कोई नतीजा नहीं निकला और काम में देरी हुई। लेकिन मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया या खुद को नहीं पहचाना।

एक सभा में हमने परमेश्वर के वचनों पर संगति की जो यह उजागर करते हैं कि मसीह-विरोधी किस तरह लोगों के दिल जीतते हैं। मैंने संयोग से एक ऐसा अंश पढ़ा जो सीधे मेरी अवस्था पर लागू होता था। आखिरकार मुझे अपने व्यवहार के बारे में कुछ ज्ञान मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब कोई कलीसियाई अगुआ भाई-बहनों को अनमने ढंग से अपने कर्तव्य करते हुए देखता है, तो हो सकता है कि वह उन्हें नहीं डाँटे, हालाँकि उसे डाँटना चाहिए। स्पष्ट रूप से यह देखने पर भी कि परमेश्वर के घर के हितों को ठेस पहुँच रही है, वह इस बारे में कोई चिंता नहीं करता है और ना ही कोई पूछताछ करता है और वह दूसरों को जरा भी नाराज नहीं करता है। दरअसल, वह लोगों की कमजोरियों के प्रति सचमुच विचारशील नहीं है; बल्कि, उसका इरादा और लक्ष्य लोगों के दिल जीतना है। उसे पूरी तरह से मालूम है कि : ‘जब तक मैं ऐसा करता रहूँगा और किसी को नाराज नहीं करूँगा, तब तक वे यही सोचेंगे कि मैं एक अच्छा अगुआ हूँ। वे मेरे बारे में अच्छी, ऊँची राय रखेंगे। वे मुझे स्वीकार करेंगे और मुझे पसंद करेंगे।’ वह इसकी परवाह नहीं करता है कि परमेश्वर के घर के हितों को कितनी ठेस पहुँच रही है या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को कितने बड़े-बड़े नुकसान हो रहे हैं या उनके कलीसियाई जीवन को कितनी ज्यादा बाधा पहुँच रही है, वह बस अपने शैतानी फलसफे पर कायम रहता है और किसी को नाराज नहीं करता है। उसके दिल में कभी कोई आत्म-निंदा का भाव नहीं होता है। जब वह किसी को गड़बड़ियाँ और विघ्न उत्पन्न करते देखता है, तो ज्यादा से ज्यादा वह उससे इस बारे में कुछ बात कर लेता है, मुद्दे को मामूली बनाकर पेश करता है, और फिर मामले को समाप्त कर देता है। वह सत्य पर संगति नहीं करेगा या उस व्यक्ति को समस्या का सार नहीं बताएगा, उसकी स्थिति का गहन-विश्लेषण तो और भी कम करेगा और परमेश्वर के इरादों के बारे में संगति तो कभी नहीं करेगा। एक झूठा अगुआ लोगों द्वारा बार-बार की जाने वाली गलतियों को या उनके द्वारा अक्सर प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभाव को उजागर या उनका गहन-विश्लेषण कभी नहीं करता है। वह किसी वास्तविक समस्या का समाधान नहीं करता है, बल्कि हमेशा लोगों के गलत अभ्यासों और भ्रष्टाचार के खुलासों में शामिल रहता है, और भले ही लोग कितने भी निराश या कमजोर क्यों ना हों, वह इस चीज को गंभीरता से नहीं लेता है। वह सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का ही प्रचार करता है और मेल-मिलाप बनाए रखने का प्रयास करते हुए बेपरवाह तरीके से स्थिति से निपटने के लिए प्रोत्साहन के कुछ शब्द बोल देता है। फलस्वरूप, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को यह मालूम नहीं होता है कि उन्हें कैसे आत्म-चिंतन करना है और आत्म-ज्ञान कैसे प्राप्त करना है, वे जो भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं उनका कोई समाधान नहीं निकलता है और वे जीवन प्रवेश के बिना ही शब्दों और धर्म-सिद्धांतों, धारणाओं और कल्पनाओं के बीच जीवन जीते रहते हैं। वे अपने दिलों में भी यह मानते हैं, ‘हमारी कमजोरियों के बारे में हमारे अगुआ को परमेश्वर से भी ज्यादा समझ है। परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए हमारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। हमें बस अपने अगुआ की अपेक्षाएँ पूरी करने की जरूरत है; अपने अगुआ के प्रति समर्पण करके हम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर रहे हैं। अगर ऐसा कोई दिन आता है जब ऊपरवाला हमारे अगुआ को बर्खास्त कर देता है तो हम अपनी आवाज उठाएँगे; अपने अगुआ को बनाए रखने और उसे बर्खास्त किए जाने से रोकने के लिए हम ऊपरवाले से बातचीत करेंगे और उसे हमारी माँगें मानने के लिए मजबूर करेंगे। इस तरह से हम अपने अगुआ के साथ उचित व्यवहार करेंगे।’ जब लोगों के दिलों में ऐसे विचार होते हैं, जब वे अपने अगुआ के साथ ऐसा रिश्ता बना लेते हैं और उनके दिलों में अपने अगुआ के लिए इस तरह की निर्भरता, ईर्ष्या और आराधना की भावना जन्म ले लेती है, तो ऐसे अगुआ में उनकी आस्था और बढ़ जाती है, और वे हमेशा परमेश्वर के वचनों में सत्य तलाशने के बजाय अगुआ के शब्दों को सुनना चाहते हैं। ऐसे अगुआ ने लोगों के दिलों में परमेश्वर की जगह लगभग ले ली है। अगर कोई अगुआ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ ऐसा रिश्ता बनाए रखने के लिए राजी है, अगर इससे उसे अपने दिल में खुशी का अहसास होता है और वह मानता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए, तो इस अगुआ और पौलुस के बीच कोई फर्क नहीं है, वह पहले से ही एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर अपने कदम रख चुका है और परमेश्वर के चुने हुए लोग पहले से ही इस मसीह-विरोधी द्वारा गुमराह हो चुके हैं और उनमें सूझ-बूझ का पूरा अभाव है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं)। परमेश्वर यह उजागर करता है कि मसीह-विरोधी हमेशा लोगों की देह के बारे में सोचते हैं। वे यह देख लेते हैं कि भाई-बहन कब अपने कर्तव्य में लापरवाही और कलीसिया के कार्य में देरी करते हैं, लेकिन वे न तो इस ओर ध्यान दिलाते हैं और न ही उनकी काट-छाँट करते हैं। इसके बजाय वे लोगों को बस सर चढ़ाते हैं और प्रश्रय देते हैं ताकि वे लोगों के दिलों में अपनी अच्छी छवि बना सकें और उन्हें जीत सकें। मुझे लगा जैसे परमेश्वर मेरा ही व्यवहार उजागर कर रहा है। अपने कर्तव्य में मैं हमेशा से लोगों के दिलों में अपनी छवि और रुतबा बनाए रखने की कोशिश कर रही थी। टीम के सदस्यों को मेरे बारे में अच्छा महसूस कराने के लिए मैं आमतौर पर मिलनसार बनी रहती थी, यहाँ तक कि बोलते समय अपनी आवाज के लहजे और रवैये पर भी खास ध्यान देती थी। मुझे डर था कि मेरा कोई भी गलत कदम लोगों पर मेरी गलत छाप छोड़ेगा। मैंने चेन शिन की स्थिर प्रगति और खराब अवस्था देखी और मैं जानती थी इसकी वजह उसका हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना, अपनी तुलना दूसरों से करना और अपने पेशेवर कौशल पर ध्यान नहीं देना था और मुझे साफ पता था कि अगर वह इसी तरह चलती रही तो न सिर्फ इससे उसका जीवन प्रवेश प्रभावित होगा, बल्कि काम में भी देरी होगी। मुझे उसके साथ संगति करके ये बातें बतानी चाहिए थीं, लेकिन मैं उसे नाराज करने से डरती थी, इसलिए मैंने हमेशा उसे सांत्वना दी, प्रोत्साहित किया और समझाया। चेन शिन अपनी समस्याओं को पहचानने में असमर्थ थी और नकारात्मक अवस्था में जीती थी, उसके जीवन प्रवेश में बाधा आ रही थी और वह बहुत कम पेशेवर प्रगति कर रही थी। मैं यह भी अच्छी तरह जानती थी कि लिन शी अपने कर्तव्यों में लापरवाही बरत रही है और मुझे उसकी समस्याएँ साफ-साफ बताकर उनके सार पर संगति करने की जरूरत है ताकि उसे मामलों पर आत्म-चिंतन करने और समझने में मदद मिल सके, लेकिन मुझे डर था कि उसकी समस्याएँ सीधे बताने से वह मुझे नकारात्मक रूप से देख सकती है, इसलिए मैंने बस उन पर सरसरी निगाह डाली, जिससे उनका समाधान नहीं हुआ। यह एहसास होने पर मैं आखिरकार समझ गई कि मेरा आचरण लोगों के दिल जीतने की कोशिश करने वाले मसीह-विरोधी जैसा था। समूह के सदस्यों की स्वीकृति और समर्थन पाने के लिए मैंने हमेशा उन्हें प्रश्रय दिया था और मैंने समस्याएँ बताने या उन्हें सुलझाने के लिए संगति करने से परहेज किया था। मैंने न सिर्फ अपने भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में देरी की, बल्कि मैंने कलीसिया के काम में भी देरी की। मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी!

बाद में मैंने टीम के सदस्यों के सामने खुलकर बताया कि मैं लोगों को कैसे जीतने की कोशिश कर रही थी। उनमें से एक ने कहा, “पिछली बार जब हमारे काम में कुछ विचलन हुआ था तो तुमने हमारी काट-छाँट नहीं की थी और इसके बजाय हमें प्रोत्साहन और उपदेश का एक पत्र भेजा। एक बहन ने तो यहाँ तक कहा, ‘देखो, वह फिर से हमें सांत्वना देने की कोशिश कर रही है।’” जब मैंने उसे यह कहते सुना तो मुझे और भी अधिक अपराध बोध हुआ। जब कलीसिया किसी को निकालती है तो उसका सत्य सिद्धांतों के अनुसार गंभीरता से मूल्यांकन किया जाना चाहिए। लापरवाह होने या अनदेखी करने की कोई गुंजाइश नहीं होती। अगर हम इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं या सिद्धांतों के अनुसार मामलों का मूल्यांकन नहीं करते हैं तो हम आसानी से झूठे आरोप लगाकर भाई-बहनों को नुकसान पहुँचा सकते हैं। मुझे साफ पता था कि वे अपने कर्तव्यों में लापरवाही बरत रहे हैं और कलीसिया का कार्य करीब-करीब बाधित कर रहे हैं लेकिन उन्हें नाराज करने के डर से मैंने उन्हें मार्गदर्शन या मदद प्रदान नहीं की और पूरी तरह से अनदेखा कर दिया कि कलीसिया के काम पर असर पड़ रहा है या नहीं। मेरा व्यवहार परमेश्वर के प्रति प्रतिरोधी था! इस एहसास ने मुझे डरा दिया और मैं जल्द से जल्द सुधार करना चाहती थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा : “जब तुम दूसरों के साथ बातचीत करते हो, तब तुम्हें पहले उन्हें अपने सच्चे दिल और ईमानदारी का एहसास कराना चाहिए। अगर बोलने और इकट्ठे कार्य करने, और दूसरों के साथ संपर्क करने में, किसी के शब्द लापरवाह, आडंबरपूर्ण, मजाकिया, चापलूसी करने वाले, गैर-जिम्मेदाराना और मनगढ़ंत हैं, या उसकी बातें केवल सामने वाले से अपना काम निकालने के लिए हैं, तो उसके शब्द विश्वसनीय नहीं हैं, और वह थोड़ा भी ईमानदार नहीं है। दूसरों के साथ बातचीत करने का उनका यही तरीका होता है, चाहे वे कोई भी हों। ऐसे व्यक्ति का दिल सच्चा नहीं होता। यह व्यक्ति ईमानदार नहीं है। मान लो, कोई नकारात्मक अवस्था में है और वह तुमसे ईमानदारी से कहता है : ‘मुझे बताओ, असल में मैं इतना नकारात्मक क्यों हूँ। मैं बिल्कुल समझ नहीं पाता।’ और मान लो, तुम अपने दिल में उसकी समस्या वास्तव में जानते हो, लेकिन उसे बताते नहीं, बल्कि उससे कहते हो : ‘यह कुछ नहीं है। तुम नकारात्मक नहीं हो रहे हो; मैं भी ऐसा हो जाता हूँ।’ ये शब्द उस व्यक्ति के लिए बहुत बड़ी सांत्वना हैं, लेकिन तुम्हारा रवैया ईमानदार नहीं है। तुम उसके साथ अनमने हो रहे हो, उसे अधिक सहज और आश्वस्त महसूस कराने के लिए तुमने उसके साथ ईमानदारी से बात करने से परहेज किया है। तुम ईमानदारी से उसकी सहायता नहीं कर रहे और उसकी समस्या स्पष्ट रूप से नहीं रख रहे जिससे वह अपनी नकारात्मकता छोड़ सके। तुमने वह नहीं किया, जो एक ईमानदार व्यक्ति को करना चाहिए। उसे सांत्वना देने के प्रयास में और यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसके साथ तुम्हारा कोई मनमुटाव या झगड़ा न हो, तुम उसके साथ अनमने रहे हो—और यह ईमानदार व्यक्ति होना नहीं है। इसलिए, एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए, इस तरह की स्थिति से सामना होने पर तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उसे वह बताना चाहिए, जो तुमने देखा और पहचाना है : ‘मैं तुम्हें वह बताऊँगा, जो मैंने देखा और अनुभव किया है। तुम निर्णय करना कि मैं जो कह रहा हूँ, वह सही है या गलत। अगर वह गलत है, तो तुम्हें उसे स्वीकारने की जरूरत नहीं है। अगर वह सही है, तो आशा है तुम उसे स्वीकारोगे। अगर मैं कुछ ऐसा कहूँ जिसे सुनना तुम्हारे लिए कठिन हो और तुम्हें उससे चोट पहुँचे, तो मुझे उम्मीद है, तुम उसे परमेश्वर से आया समझकर स्वीकार पाओगे। मेरा इरादा और उद्देश्य तुम्हारी सहायता करना है। मुझे तुम्हारी समस्या स्पष्ट दिखती है : चूँकि तुम्हें लगता है कि तुम्हें अपमानित किया गया है, और कोई तुम्हारे अहं को बढ़ावा नहीं देता, और तुम्हें लगता है कि सभी लोग तुम्हें तुच्छ समझते हैं, कि तुम पर प्रहार किया जा रहा है, और तुम्हारे साथ इतना गलत कभी नहीं हुआ, तो तुम इसे बरदाश्त नहीं कर पाते और नकारात्मक हो जाते हो। तुम्हें क्या लगता है—क्या वास्तव में यही बात है?’ और यह सुनकर वह महसूस करता है कि वास्तव में यही मामला है। तुम्हारे दिल में वास्तव में यही है, लेकिन अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुम यह नहीं कहोगे। तुम कहोगे, ‘मैं भी अक्सर नकारात्मक हो जाता हूँ,’ और जब दूसरा व्यक्ति सुनता है कि सभी लोग नकारात्मक हो जाते हैं, तो उसे लगता है कि उसका नकारात्मक होना सामान्य बात है, और अंत में, वह अपनी नकारात्मकता पीछे नहीं छोड़ता। अगर तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो और ईमानदार रवैये और सच्चे दिल से उसकी सहायता करते हो, तो तुम सत्य समझने और अपनी नकारात्मकता पीछे छोड़ने में उसकी मदद कर सकते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। जब हम एक दूसरे के साथ बातचीत करते हैं तो हमें स्पष्टवादी और ईमानदार होना चाहिए। जब हम दूसरों में समस्याएँ देखते हैं तो हमें ईमानदारी से बोलने में सक्षम होना चाहिए ताकि वे अपनी ये समस्याएँ पहचान सकें। लोगों के साथ इस तरह व्यवहार करने से उनके जीवन प्रवेश में लाभ होता है। मैंने देखा कि लिन शी अपने कर्तव्य में लापरवाह थी और फिर भी मैं उसका विश्वास जीतने के लिए उसे सांत्वना और उपदेश देने वाली कपटी बातें कहती रही। इससे उसे नुकसान हो रहा था और ऐसा करना धोखेबाजी थी। भले ही उसकी समस्या सीधे बताने पर उसे एक पल के लिए शर्मिंदगी होती लेकिन इससे उसे सोचने में मदद मिलती और कलीसिया के काम की भी रक्षा होती। इसका एहसास होने पर मैं लिन शी के पास गई और परमेश्वर के कुछ ऐसे वचनों का उपयोग करके उसके साथ संगति की जो लोगों के लापरवाह होने का सार और दुष्परिणाम उजागर करते हैं। लिन शी ने माना कि वह कितनी घटिया थी कि वह अपने कर्तव्यों में लापरवाह थी और ईमानदार नहीं थी। बाद में मैंने देखा कि लिन शी सचेत रूप से चीजों को बदलने की कोशिश कर रही है। वह पहले की तुलना में अपने कर्तव्यों के प्रति अधिक कर्तव्यनिष्ठ और जिम्मेदार थी और वह स्पष्ट प्रगति कर रही थी। यह परिणाम देखकर मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। मैंने हमेशा लोगों की नजरों में मिलनसार की छवि बनाए रखी थी, सिर्फ उन्हें आधे-अधूरे मन से बातें सुनाती थी और उनके लाभ के लिए कुछ नहीं करती थी। अगर मैं पहले ही लिन शी की समस्याएँ बता देती तो वह फौरन अपना ढर्रा बदल सकती थी और इससे काम की प्रगति को लाभ होता। बाद में मुझे पता चला कि चेन शिन भी बुरी अवस्था में है, उसे लगता था कि उसमें कम काबिलियत और कार्यक्षमता है और वह अपने समूह के साथियों से कमतर है। उसे यह भी लगता था कि मैं उसे नीची नजर से देख रही हूँ, इसलिए वह नकारात्मकता में जी रही थी और इस्तीफा देना चाहती थी। मैंने उसके पास जाकर खुलकर संगति की। मैंने उसे बताया कि वह प्रतिष्ठा और रुतबे को बहुत अधिक महत्व देती है और परमेश्वर के वचनों का उपयोग करके उसके साथ प्रतिष्ठा और रुतबा पाने और अपना कर्तव्य छोड़ने के सार और नतीजों पर संगति की। हमारी संगति के बाद चेन शिन को खुद के बारे में कुछ समझ मिली और उसकी अवस्था में कुछ हद तक सुधार हुआ। मैं बहुत खुश हो गई और समझ गई कि अगर कोई परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और आचरण करता है तो उसका दिल शांत रहेगा और वह दूसरों के साथ सामान्य संबंध रख सकता है।

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े और मिलनसार और सुलभ होने की पारंपरिक सांस्कृतिक प्रथाओं के पीछे का वास्तविक सार समझना शुरू किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “‘अच्छे’ व्यवहार के पीछे के सार जैसे कि सुलभ और मिलनसार होने को एक शब्द में बयाँ किया जा सकता है : दिखावा। ऐसा ‘अच्छा’ व्यवहार परमेश्वर के वचनों से उत्पन्न नहीं होता, न ही सत्य का अभ्यास या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने से होता है। फिर यह कैसे उत्पन्न होता है? यह लोगों के इरादों, षड्यंत्रों से पैदा होता है, उनके दिखावे, नाटक करने और धोखेबाज होने से पैदा होता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। “अच्छे व्यवहार के बारे में सभी कथन सामूहिक रूप से मनुष्य के बाहरी व्यवहार और छवि को पूर्ण बनाने का एक तरीका मात्र हैं। ‘पूर्ण बनाना’ इसे अच्छी तरह से शब्दबद्ध करता है; इसे और ज्यादा सटीक रूप से कहें तो, असल में यह छद्मवेश का एक रूप है, छल से दूसरों के मन में अपने बारे में अच्छी भावनाएँ पैदा करवाने, उनसे अपना सकारात्मक मूल्यांकन करवाने, उनसे अपना सम्मान करवाने के लिए झूठे दिखावे का इस्तेमाल करने का एक तरीका है। जबकि व्यक्ति के दिल का काला पक्ष, उसके भ्रष्ट स्वभाव और उसका असली चेहरा सब छिपे रहते हैं और अच्छी तरह से पेश किए जाते हैं। हम इसे इस तरह भी कह सकते हैं : इन अच्छे व्यवहारों के प्रभामंडल के नीचे जो छिपा रहता है, वह भ्रष्ट मानवता के प्रत्येक सदस्य का भ्रष्ट असली चेहरा है। जो छिपा होता है वह है दुष्ट मानवजाति के प्रत्येक सदस्य का अहंकारी स्वभाव, धोखेबाज स्वभाव, दुष्ट स्वभाव और सत्य से विमुख रहने वाला स्वभाव। चाहे व्यक्ति का बाहरी व्यवहार सुशिक्षित और समझदार हो या सौम्य और परिष्कृत, या चाहे वह मिलनसार, सुलभ, बड़ों का सम्मान और छोटों की परवाह करने वाला हो या ऐसी कोई भी चीज—इनमें से जो भी वह दिखाता है, वह एक बाहरी व्यवहार से ज्यादा कुछ नहीं है, जिसे दूसरे लोग देख सकते हैं। यह उसे अच्छे व्यवहार के माध्यम से उसकी प्रकृति और सार के ज्ञान तक नहीं ले जा सकता। हालाँकि मनुष्य सुशिक्षित और समझदार, सौम्य और परिष्कृत, सुलभ और मिलनसार होने के बाहरी व्यवहारों से अच्छा दिखता है, इतना कि संपूर्ण मानव-जगत उनके साथ मित्रवत् पेश आता है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन अच्छे व्यवहारों के आवरण के नीचे मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव वाकई मौजूद रहते हैं। मनुष्य का सत्य से विमुख होना, परमेश्वर के प्रति उसका प्रतिरोध और विद्रोहशीलता, सृष्टिकर्ता के बोले गए वचनों से विमुख होने और सृष्टिकर्ता का विरोध करने की उसका प्रकृति सार—ये वास्तव में वहाँ मौजूद रहते हैं। इसमें कुछ भी झूठ नहीं है। कोई व्यक्ति अच्छा होने का चाहे कितना भी दिखावा करे, चाहे उसके व्यवहार कितने भी सभ्य और शोभनीय लगें, चाहे कितनी भी अच्छी तरह या खूबसूरती से वह खुद को पेश करे, या वह कितना भी कपटी हो, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रत्येक भ्रष्ट व्यक्ति शैतानी स्वभाव से भरा होता है। इन बाहरी व्यवहारों के मुखौटे के अंदर, वह परमेश्वर का विरोध और उसके प्रति विद्रोह करता रहता है, सृष्टिकर्ता का विरोध और उसके प्रति विद्रोह करता रहता है। निस्संदेह, इन अच्छे व्यवहारों का लबादा और आवरण ओढ़े हुए मनुष्य हर दिन, हर घंटे और पल, हर मिनट और सेकंड, हर मामले में भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, जिसके दौरान वह भ्रष्ट स्वभावों और पाप के बीच रहता है। यह एक निर्विवाद तथ्य है। मनुष्य के आकर्षक व्यवहारों, मधुर शब्दों और झूठे दिखावों के बावजूद उसका भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल भी कम नहीं हुआ, न ही उसके बाहरी व्यवहारों के कारण उसमें कोई बदलाव आया है। इसके विपरीत, चूँकि उसके पास इन बाहरी अच्छे व्यवहारों का आवरण है, इसलिए उसका भ्रष्ट स्वभाव लगातार प्रकट होता है, और वह बुराई करने और परमेश्वर का विरोध करने की दिशा में अपने कदम कभी नहीं रोकता—और निस्संदेह, अपने शातिर और दुष्ट स्वभावों से संचालित उसकी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और असाधारण अपेक्षाएँ लगातार विस्तृत और विकसित हो रही हैं(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। पहले मैं हमेशा सोचता थी कि मिलनसार और सुलभ होना सामान्य मानवीय नैतिकता के अनुरूप है, अधिकांश लोग यही व्यवहार पसंद करते हैं और इसे स्वीकारते हैं और ये सकारात्मक बातें हैं। बचपन से ही मैंने अपनी शिक्षक को उसके मिलनसार होने के लिए प्रशंसा पाते देखा था और मैंने हमेशा ऐसी ही इंसान बनने की कोशिश की। जब मैंने ऐसी ही बनकर अपने आस-पास के लोगों से स्वीकृति और समर्थन पाया, तो मेरा विचार और मजबूत हो गया कि मुझे मिलनसार व्यवहार करना चाहिए। यह आचरण का मेरा अपना सिद्धांत बन गया था जिसे न सिर्फ परमेश्वर ने स्वीकार किया बल्कि अन्य लोगों ने भी पसंद किया। अब परमेश्वर के वचनों के संपर्क के माध्यम से मैं समझ गई कि मिलनसार और सुलभ होने के पीछे का सार असल में खुद को छिपाना है और यह लोगों से प्रशंसा और स्वीकृति पाने का एक छल है। यह भ्रामक है। अपने बचपन के दिनों के बारे में सोचती हूँ तो मुझे तब लगता था कि लोगों को एक-दूसरे के प्रति मिलनसार और सुलभ होना चाहिए, इसलिए इस विचार से प्रभावित होकर मैंने दूसरों के साथ कभी बहस नहीं की। भले ही उन्होंने मुझे चोट पहुँचाई हो और मैं अंदर से उनसे नाराज रहूँ और नफरत करूँ, मैं इसे कभी जाहिर नहीं होने देती थी और हमेशा लोगों का अभिवादन मुस्कुराहट के साथ करती थी। दरअसल मैंने ये समझौते सिर्फ लोगों की स्वीकृति पाने के लिए किए थे। मैं पाखंडी थी और झूठा जीवन जी रही थी। मैं परमेश्वर में विश्वास करने के बाद भी लोगों से ऐसे ही बात करती थी। मैं जो कुछ भी कहती और करती थी, उसमें हमेशा दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखती थी और उन्हें नाराज करने से डरती थी। मुझे डर था कि अगर मैं ईमानदारी से बोलूँगी तो वे मेरे बारे में अच्छी धारणा नहीं बनाएँगे, इसलिए अगर मैं किसी की समस्या देखती भी थी तो मैं सच बोलने या उसे बताने की हिम्मत नहीं कर पाती थी। कलीसिया ने मुझे इस समूह के काम की निगरानी करने में लगाया, लेकिन मैंने कोई वास्तविक भूमिका नहीं निभाई। मैं हमेशा दूसरों की नजरों में अपनी छवि और रुतबा बचाना चाहती थी और कलीसिया के काम को कोई महत्व नहीं देती थी। मुझे अच्छा इंसान कैसे माना जा सकता था? इस बिंदु पर मैंने देखा कि भले ही मैं मिलनसार, स्नेही और विचारशील दिखती थी, लेकिन अंदर से मैं वाकई साजिश रच रही थी। मैं दूसरों से प्रशंसा पाने के लिए इस चाल का इस्तेमाल करना चाहती थी। मैं बहुत ही चालाक और धोखेबाज इंसान थी। मैं मानती थी कि मिलनसार लोग अच्छे होते हैं, दूसरों के साथ उनके अच्छे संबंध होते हैं, उन्हें पसंद किया जाता है और परमेश्वर उन्हें स्वीकारता है। लेकिन अब मैंने देखा कि मिलनसार लोग सिर्फ छद्म वेश धारण करने में अच्छे होते हैं और मिलनसार होना आचरण का सिद्धांत नहीं है। इस पारंपरिक सांस्कृतिक विचार के अनुसार जीने से लोग सिर्फ और ज्यादा स्वार्थी, नीच, चालाक और धोखेबाज बनते हैं और ऐसा करना सत्य के विपरीत है, यह बुराई का काम है और परमेश्वर का प्रतिरोध करता है!

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े और मुझे समझ आया कि मानवता क्या है और मैंने आचरण के सिद्धांतों के बारे में जाना। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अच्छी मानवता होने का कोई मानक अवश्य होना चाहिए। इसमें संयम का मार्ग अपनाना, सिद्धांतों से चिपके न रहना, किसी को भी नाराज न करने का प्रयत्न करना, जहाँ भी जाओ वहीं चापलूसी करके कृपापात्र बनना, जिससे भी मिलो उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करना और सभी से अपने बारे में अच्छी बातें करवाना शामिल नहीं है। यह मानक नहीं है। तो मानक क्या है? यह परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम होना है। यह अपने कर्तव्य को और सभी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों को सिद्धांतों के साथ और जिम्मेदारी की भावना से लेना है। सब इसे स्पष्ट ढंग से देख सकते हैं; इसे लेकर सभी अपने हृदय में स्पष्ट हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। “लोगों को परमेश्वर के वचनों को ही अपना आधार और सत्य को अपना मापदंड बनाने का सर्वाधिक प्रयास करना चाहिए; तभी वे रोशनी में रह सकते हैं और एक सामान्य व्यक्ति के समान जी सकते हैं। अगर तुम रोशनी में रहना चाहते हो, तुम्हें सत्य के अनुसार कार्य करना चाहिए; तुम्हें ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए जो ईमानदार बातें कहता हो और ईमानदार चीजें करता हो। मूलभूत बात है अपने आचरण में सत्य-सिद्धांत होना; जब लोग सत्य-सिद्धांत गँवा देते हैं, और केवल अच्छे व्यवहार पर ध्यान देते हैं, तो इससे अनिवार्य रूप से जालसाजी और ढोंग का जन्म होता है। यदि लोगों के आचरण में कोई सिद्धांत न हों, तो फिर उनका व्यवहार कितना भी अच्छा क्यों न हो, वे पाखंडी होते हैं; वे कुछ समय के लिए दूसरों को गुमराह कर सकते हैं, लेकिन वे कभी भी भरोसेमंद नहीं होंगे। जब लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और आचरण करते हैं, तभी उनकी बुनियाद सच्ची होती है। अगर वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार आचरण नहीं करते, और केवल अच्छा व्यवहार करने का दिखावा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो इसके परिणामस्वरूप क्या वे अच्छे लोग बन सकते हैं? बिल्कुल नहीं। अच्छे सिद्धांत और व्यवहार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदल सकते, और वे उसका सार नहीं बदल सकते। केवल सत्य और परमेश्वर के वचन ही लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, विचार और राय बदल सकते हैं, और उनका जीवन बन सकते हैं। ... तो, लोगों के बोलने और उनके कार्यों के लिए परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ और मानक हैं? (कि वे लोगों के लिए रचनात्मक हों।) सही कहा। सबसे बुनियादी तौर पर तुम्हें सच बोलना चाहिए, ईमानदारी से बोलना चाहिए और दूसरों को फायदा पहुँचाना चाहिए। कम से कम, तुम्हारा बोलना लोगों को शिक्षित करे, उन्हें छले नहीं, गुमराह न करे, उनका मजाक न उड़ाए, उन पर व्यंग्य न करे, उनका उपहास न करे और उनकी हँसी न उड़ाए, उन्हें जकड़े नहीं, उनकी कमजोरियाँ उजागर न करे, न उन्हें चोट पहुँचाए। यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। यह मानवता का गुण है। क्या परमेश्वर ने तुम्हें बताया है कि कितनी ऊँची आवाज में बोलना है? क्या उसने यह अपेक्षा की है कि तुम मानक भाषा का प्रयोग करो? क्या उसने यह अपेक्षा की है कि तुम लच्छेदार बयानबाजी या उदात्त, परिष्कृत भाषा-शैली का इस्तेमाल करो? (नहीं।) उसने इन सतही, पाखंडपूर्ण, झूठी, ठोस रूप से अलाभप्रद चीजों में से किसी की भी लेशमात्र अपेक्षा नहीं की है। परमेश्वर की सभी अपेक्षाएँ वे चीजें हैं, जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए, वे मनुष्य की भाषा और व्यवहार के लिए मानक और सिद्धांत हैं। कोई कहाँ जन्मा है या कौन-सी भाषा बोलता है, यह मायने नहीं रखता। हर हाल में, तुम जो भी शब्द बोलो—उनकी शब्दावली और विषयवस्तु—दूसरों के लिए शिक्षाप्रद होनी चाहिए। उनके लिए शिक्षाप्रद होने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि दूसरे लोग उन्हें सुनकर सच मानें, उनसे समृद्ध होकर सहायता प्राप्त करें, सत्य समझ सकें, अब और भ्रमित न हों, न ही आसानी से दूसरों से गुमराह हों। इसलिए परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग सच बोलें, वही कहें जो वे सोचते हैं, दूसरों को छलें नहीं, उन्हें गुमराह न करें, उनका मजाक न उड़ाएँ, उन पर व्यंग्य न करें, उनका उपहास न करें, उनकी हँसी न उड़ाएँ, या उन्हें जकड़ें नहीं, या उनकी कमजोरियाँ उजागर न करें, या उन्हें चोट न पहुँचाएँ। क्या ये बोलने के सिद्धांत नहीं हैं? यह कहने का क्या मतलब है कि लोगों की कमजोरियाँ उजागर नहीं की जानी चाहिए? इसका मतलब है दूसरे लोगों पर कीचड़ न उछालना। उनकी आलोचना या निंदा करने के लिए उनकी पिछली गलतियाँ या कमियाँ न पकड़े रहो। तुम्हें कम से कम इतना तो करना ही चाहिए। सक्रिय पहलू से, रचनात्मक वक्तव्य किसे कहा जाता है? वह मुख्य रूप से प्रोत्साहित करने वाला, उन्मुख करने वाला, राह दिखाने वाला, प्रोत्साहित करने वाला, समझने वाला और दिलासा देने वाला होता है। साथ ही, कुछ विशेष परिस्थितियों में, दूसरों की गलतियों को सीधे तौर पर उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना जरूरी हो जाता है, ताकि वे सत्य का ज्ञान पाएँ और उनमें पश्चात्ताप की इच्छा जागे। केवल तभी यथोचित प्रभाव प्राप्त होता है। इस तरह से अभ्यास करना लोगों के लिए बहुत लाभकारी होता है। यह उनकी वास्तविक मदद है, और यह उनके लिए रचनात्मक है, है न?(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (3))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह मापदंड समझने में मदद की कि किसी इंसान की मानवता अच्छी है या बुरी। सचमुच अच्छी मानवता यह नहीं है कि बीच का रास्ता अपनाओ, लोगों को नाराज करने से बचो, सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखो या सबके साथ मिलजुल कर रहो, न ही यह लोगों के प्रति मिलनसार या सुलभ होना है। ये सिर्फ बाहरी व्यवहार हैं, और चाहे इन्हें कितनी भी अच्छी तरह से किया जाए, परमेश्वर इन्हें नहीं स्वीकृति नहीं देता है। सिर्फ परमेश्वर के वचनों के आधार पर लोगों के साथ बातचीत करके ही कोई सिद्धांतों का पालन कर सकता है। सिर्फ दूसरों और अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदारी से पेश आकर, जिम्मेदार बनकर, सत्य का अभ्यास करके और ईमानदार इंसान बनकर ही किसी को वाकई अच्छी मानवता वाला व्यक्ति माना जा सकता है। मैं हमेशा यही लगता था कि अगर मैं लोगों की समस्याएँ उजागर करूँगी तो उन्हें नाराज कर बैठूँगी और मेरे भाई-बहन मेरे बारे में नकारात्मक नजरिया रखेंगे, इसलिए बोलते समय मैं हमेशा इस बात पर विचार करती थी कि मैं जो कहूँ उसे स्वीकार करना कैसे आसान बनाऊँ और लोगों की भावनाओं को कैसे ठेस न पहुँचाऊँ। मैंने इस बारे में बिल्कुल नहीं सोचा कि ऐसा करना प्रभावी होगा या नहीं। दरअसल इस तरह लोगों के साथ सौम्य तरीके से बातचीत करने से लोग नाराज नहीं होते और तुम्हारी अच्छी छवि बनी रहती है, लेकिन यह दूसरे लोगों या कलीसिया के काम के लिए जरा भी फायदेमंद नहीं है। किसी की मदद करने में कम से कम उन्हें फायदा तो होना ही चाहिए और जब तुम उनकी समस्याएँ पहचानते हो तो उन्हें साफ बताना चाहिए। भले ही इसमें कभी-कभी आलोचनात्मक लहजा शामिल हो जिसे दूसरे व्यक्ति को शुरू में स्वीकारना मुश्किल लगे, लेकिन इससे वे आत्म-चिंतन और सुधार करने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर का उद्धार कार्य सिर्फ एक विधि से नहीं बना है। परमेश्वर न सिर्फ लोगों को सांत्वना और उपदेश देता है, वह लोगों का न्याय भी करता है, उन्हें दंडित करता है और उनकी काट-छाँट भी करता है। लोगों को बचाने की यह एक बेहतर विधि है। अगर मैं किसी को भ्रष्ट स्वभाव के साथ जीते देखती हूँ और उसे बस सांत्वना और उपदेश देती रहती हूँ तो इससे उसे कोई फायदा नहीं होगा और उसके लिए अपना भ्रष्ट स्वभाव पहचानना मुश्किल होगा। मुझे एहसास हुआ कि लोगों की मदद करने के लिए भी सिद्धांतों की आवश्यकता होती है और यह उस व्यक्ति के आध्यात्मिक कद और अनूठी पृष्ठभूमि और स्थिति पर आधारित होना चाहिए। अगर किसी भाई या बहन ने अभी-अभी अभ्यास करना शुरू किया है और उनमें पेशेवर कौशल की कमी है तो उनकी ज्यादा मदद की जानी चाहिए, लेकिन अगर वे अपने कर्तव्य निभाने के लिए भ्रष्ट स्वभाव पर निर्भर हैं और पहले से ही कलीसिया के कार्य को प्रभावित कर चुके हैं तो उन्हें सुधारने, उजागर करने और काट-छाँट करने की जरूरत होती है। इसे ही जिम्मेदारी निभाना कहते हैं और यह उनके लिए फायदेमंद होता है। इन बातों को समझकर मैंने खुद से कहा कि मैं अब पारंपरिक संस्कृति के अनुसार दूसरों के साथ बातचीत नहीं कर सकती और मुझे परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना होगा।

एक दिन मैं उन सामग्रियों का निरीक्षण कर रही थी जिन्हें अन्य दो बहनों ने एक साथ तैयार किया था और मैंने देखा कि उदाहरणों में विवरण की कमी थी और उनमें पूरक सामग्री और सुधार की आवश्यकता थी। ये दोनों बहनें काफी समय से यह काम कर रही थीं और अगर वे निरीक्षण के दौरान अधिक कर्तव्यनिष्ठ होतीं तो ये चूक नहीं होती। यह स्पष्ट था कि अपने कर्तव्य के प्रति उनके रवैये में कोई समस्या है। मैंने सोचा कि कैसे मैं लोगों को नाराज करने से डरती थी और दूसरों के साथ अपने संबंध बनाए रखना चाहती थी, लोगों की समस्याएँ बताने की हिम्मत नहीं करती थी। इससे न सिर्फ लोगों को कोई फायदा नहीं होता था, बल्कि इसने कलीसिया का कार्य भी बिगाड़ दिया था। मुझे इस बार सबक सीखना था, सत्य का अभ्यास करना था और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना था, इसलिए मैंने उनके कर्तव्यों के प्रति उनका रवैया उजागर किया और इस तरह से अपने कर्तव्य निभाने का सार और इसके दुष्परिणाम उजागर किए। बाद में उनमें से एक बहन ने मुझे बताया कि भले ही वह शुरुआत में अपनी काट-छाँट स्वीकार नहीं कर पाई और उसे लगा कि मैं बहुत कठोर हो गई हूँ, लेकिन परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्म-चिंतन करके उसने अपनी समस्याओं की कुछ समझ हासिल कर ली और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने का महत्व भी समझ लिया। उसने कहा कि काट-छाँट के इस अनुभव से उसे कुछ हासिल हुआ है। इन तथ्यों ने मुझे दिखाया है कि जो लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, काट-छाँट से उन्हें अपनी समस्याएँ पहचानने, अपने कर्तव्य अधिक ध्यान से निभाने और अपने काम में गलतियाँ कम करने में मदद मिल सकती है। मुझे एहसास हुआ है कि सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सत्य के अनुसार कार्य और आचरण करने से ही कोई सामान्य मानवता से जी सकता है और यह दूसरों के लिए, अपने लिए और कलीसिया के काम के लिए लाभदायक है। सिर्फ परमेश्वर के वचन ही वे सिद्धांत हैं जिनके अनुसार कार्य और आचरण करना चाहिए!

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