65. झूठ बोलने की समस्या का समाधान खोजना
मैं कई कलीसियाओं के सिंचन कार्य की जिम्मेदारी संभाल रही थी। मैं जानती थी कि यह कर्तव्य निभा सकना परमेश्वर का उत्थान और अनुग्रह है और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए मैं इस कर्तव्य को अच्छे ढंग से निभाना चाहती थी। लेकिन मैं कोई बोझ नहीं लेती थी, इसलिए कार्य में देरी होती गई। फिर मैंने आत्मचिंतन नहीं किया और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए झूठ बोलती रही। तथ्यों की रोशनी में मैंने देखा कि मैं एक कपटी और अविश्वसनीय व्यक्ति थी।
कुछ समय पहले माहौल बहुत खराब था और कई भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया था। उच्च अगुआ ने मुझे पत्र लिखकर आग्रह किया कि मैं नए सदस्यों के साथ दर्शनों के सत्य पर अधिक संगति करूँ ताकि वे परमेश्वर के कार्य को समझ सकें और इस भयावह माहौल में अडिग रहें। यह पत्र मिलने के बाद मैंने क्रियान्वयन को लेकर तुरंत सिंचनकर्ताओं के साथ संगति की लेकिन इस कार्य के विवरणों की बाद में निगरानी नहीं की। मुझे लगा कि चूँकि मैं सिंचनकर्ताओं के साथ संगति कर चुकी हूँ, इसलिए वे नए सदस्यों के साथ संगति करेंगे और साथ ही यह भी लगा कि अभी तक मेरे जिम्मे वाली कलीसियाओं में कोई गिरफ्तार नहीं हुआ है, इसलिए कोई बड़ी समस्या नहीं आनी चाहिए। लेकिन इसके कुछ दिन बाद ही अचानक मेरे जिम्मे वाली तीन कलीसियाओं में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ हुईं। अगुआ ने मुझे दोबारा पत्र लिखकर पूछा कि हर कलीसिया में कितने नए सदस्य नियमित रूप से सभाओं में भाग ले रहे हैं, कितने सदस्य भयानक माहौल के कारण नियमित रूप से सभा में नहीं आ रहे हैं, कितने नए सदस्य गिरफ्तार किए गए हैं, कितनों के पास कोई सिंचन करने वाला नहीं है और मुझे तुरंत जवाब में यह विवरण देना था। यह पत्र पाकर मुझे एहसास हुआ, “भले ही मैंने इस काम पर अमल शुरू कर दिया था लेकिन मैंने विस्तार के साथ इसकी निगरानी नहीं की। मुझे उस विवरण के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है जो अगुआ पूछ रहा है, तो फिर मैं इसका उत्तर कैसे दूँ? अगर मैं उसे सच बता दूँ तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या वह यह कहेगा कि मैं असली कार्य नहीं करती? अगर वह मेरी काट-छाँट करता है तो मैं अपना मुँह भी कैसे दिखाऊँगी? नहीं, मैं सच नहीं बता सकती।” मैं अपने कंप्यूटर पर बैठकर अपने विकल्पों के बारे में सोचती रही, यह नहीं समझ पा रही थी कि कैसे जवाब दूँ, फिर आखिरकार मुझे एक विचार सूझा। मैंने अगुआ को लिखा, “दर्शनों के सत्य के बारे में नए सदस्यों का सिंचन शुरू कर दिया गया है और इसकी निगरानी की जा रही है।” इसके बाद मैंने यह सोचते हुए जल्दी से कार्य की निगरानी की “जब अगुआ फिर से पूछेगा, तो मैं उसे उस स्थिति के बारे में रिपोर्ट दे दूँगी जिसकी मैं अभी निगरानी कर रही हूँ। इस तरह उसे पता ही नहीं चलेगा कि मैं गैर-जिम्मेदारी बरत रही थी और इस कार्य की निगरानी नहीं कर रही थी।” बाद में जब मैं स्थिति का जायजा लेने के लिए सचमुच सिंचनकर्ताओं के पास गई तो मुझे पता चला कि उन्होंने नए लोगों के साथ संगति तो की थी लेकिन कुछ भी उपलब्धि हासिल नहीं की थी और साथ ही वे भी नए सदस्यों की स्थिति को लेकर स्पष्ट नहीं थे। ये चीजें जानकर मुझे अंततः एहसास हुआ कि यह सब इसलिए हुआ क्योंकि मैंने कोई बोझ नहीं उठाया और वास्तव में कार्य की निगरानी नहीं की और यह भी कि नए सदस्यों के जीवन प्रवेश में देरी हो चुकी है। फिर भी मैंने न तो सत्य खोजा, न आत्मचिंतन किया जिससे स्थिति जस की तस बनी रही।
जल्द ही उच्च अगुआ ने सिंचन कार्य का ब्योरा जानने के लिए हमारे साथ एक सभा बुलाई, जैसे हर सिंचनकर्ता के पास कितने नए लोगों की जिम्मेदारी है, वह नए लोगों की कठिनाइयाँ और धारणाएँ कैसे सुलझाता है, क्या वह नए सदस्यों को विकसित करने को लेकर सतर्क है, इत्यादि। तब मैं चिंतित हो गई और सोचने लगी, “काश, अगुआ सबसे पहले मुझी से न पूछ बैठे, कुछ काम ऐसा है जो मैंने पूरी तरह शुरू नहीं कराया है और कुछ ब्योरा ऐसा है जिसे समझा न पाना वाकई शर्मनाक होगा!” लेकिन ठीक वैसा ही हुआ जिसका मुझे डर था और अगुआ ने सबसे पहले मुझसे ही सवाल किया। मेरे पास धीर-गंभीर दिखने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था, लेकिन अंदर से मैं बस वहाँ से भागना चाहती थी। मैंने मन ही मन में सोचा, “अगर उसने ऐसे बहुत सारे विवरण पूछ लिए जिनका मैं जवाब न दे पाई, तो क्या ऐसा नहीं लगेगा कि मैंने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया है? यह कितनी अपमानजनक बात होगी! क्या अगुआ और बाकी सहकर्मी मुझे तुच्छ समझेंगे?” अगुआ ने कुछ सवाल पूछकर शुरुआत की, जिनका मैंने बमुश्किल एक-एक करके जवाब देने की कोशिश की, लेकिन जब अगुआ ने बहन यांग फैन द्वारा नए सदस्यों के सिंचन के बारे में पूछा तो मैं यह सोचकर घबरा गई, “मुझे तो नए सदस्यों के साथ यांग फैन के कार्य का अता-पता ही नहीं है, मैं फँस गई हूँ, अब मैं क्या कहूँ? अगर मैं अगुआ के सामने ईमानदार होकर कह दूँ कि मुझे नहीं पता, तो क्या वह कहेगा ‘तुम इतने लंबे समय से सिंचन कार्य की प्रभारी हो और इतनी बुनियादी बातें भी नहीं जानती हो, तुम अपना काम कैसे कर रही हो’? क्या इससे अगुआ निराश नहीं होगा और मुझे तुच्छ नहीं समझेगा?” ये बातें ध्यान में रखकर मैंने बस यांग फैन का कुछ पुराना सिंचन कार्य अगुआ को बता दिया। ऐसा कहकर मुझे जो ग्लानि और घबराहट हुई, उससे मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा और मेरा चेहरा तपने लगा। भले ही मैंने झाँसा देकर अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचा लिया था, लेकिन मेरा दिल अपराधबोध और अनजाने दर्द से भर गया, “क्या मैं वाकई सफेद झूठ नहीं बोल रही हूँ? मैं कितनी बड़ी पाखंडी हूँ!” उस रात मैं बिस्तर पर पड़ी करवटें बदलती रही, सो नहीं सकी, मैंने जो झूठ बोले, उससे मैं पश्चात्ताप से भरी हुई थी। लेकिन बात मुँह से निकल चुकी थी और कमान से छूटे तीर की तरह इसे वापस नहीं लिया जा सकता था और अब सच बोलने और खुद को उजागर करने के लिए बहुत देर हो चुकी थी। अगर अगुआ को पता चल गया तो क्या वह मुझे धोखेबाज व्यक्ति नहीं कहेगा? ये विचार मेरे दिमाग को खाए जा रहे थे और मैं सच स्वीकारने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। मुझे लगा कि मेरे पास न तो कोई ईमानदारी है और न ही गरिमा, और मैं एक असली ढोंगी की तरह हूँ। घबराहट के कारण मेरा दिल जोर-जोर से धड़क रहा था, मैं अंदर से बहुत असहज थी और मैं खुद से सवाल करती रही कि “मैं अगुआ को सच क्यों नहीं बता पाई? इस बेईमानी का क्या मतलब है?” जितना मैं इसके बारे में सोचती, उतना ही अधिक मैं खुद को दोषी महसूस करती, इसलिए मैंने अपने दिल ही दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, आज जब अगुआ ने कार्य के विवरण के बारे में पूछा, तो मुझे कतई कुछ नहीं पता था, लेकिन लोगों की नजर में तुच्छ समझे जाने और बदनाम होने के डर से मैंने सफेद झूठ बोलकर अगुआ को धोखा दिया। हे परमेश्वर! मैं कितनी बड़ी धोखेबाज हूँ, मुझे साहस दो, ताकि मैं शुद्ध और निष्कपट बन सकूँ और एक ईमानदार व्यक्ति बनकर जी सकूँ।”
एक दिन मैंने ‘झूठ बोलने की पीड़ा’ नामक एक अनुभवजन्य गवाही वीडियो देखा, जिसमें परमेश्वर के वचनों का एक अंश था जिसने मुझे सचमुच प्रभावित किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अपने रोजमर्रा के जीवन में लोग अक्सर बेकार बातें करते हैं, झूठ बोलते हैं, और ऐसी बातें कहते हैं जो अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण और रक्षात्मक होती हैं। इनमें से ज्यादातर बातें अभिमान और शान के लिए, अपने अहंकार की तुष्टि के लिए कही जाती हैं। ऐसे झूठ बोलने से उनके भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं। ... तुम्हारे झूठ बहुत ज्यादा हो गए हैं। तुम्हारे द्वारा कहा गया प्रत्येक शब्द मिलावटी और झूठा होता है, और एक भी शब्द सच्चा या ईमानदार नहीं माना जा सकता। भले ही तुम्हें यह न लगे कि झूठ बोलने पर तुम्हारी बेइज्जती हुई है, लेकिन अंदर ही अंदर तुम अपमानित महसूस करते हो। तुम्हारा जमीर तुम्हें दोष देता है, और तुम अपने बारे में नीची राय रखते हुए सोचते हो, ‘मैं ऐसा दयनीय जीवन क्यों जी रहा हूँ? क्या सच बोलना इतना कठिन है? क्या मुझे अपनी शान की खातिर झूठ का सहारा लेना चाहिए? मेरा जीवन इतना थका देने वाला क्यों है?’ तुम्हें थका देने वाला जीवन जीने की जरूरत नहीं है। अगर तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कर सको, तो तुम एक निश्चिंत, स्वतंत्र और मुक्त जीवन जीने में सक्षम होगे। हालाँकि तुमने झूठ बोलकर अपनी शान और अभिमान को बरकरार रखना चुना है। नतीजतन, तुम एक थकाऊ और दयनीय जीवन जीते हो, जो तुम्हारा खुद का थोपा हुआ है। झूठ बोलकर व्यक्ति को शान की अनुभूति हो सकती है, लेकिन वह शान की अनुभूति क्या है? यह महज एक खोखली चीज है, और यह पूरी तरह से बेकार है। झूठ बोलने का मतलब है अपना चरित्र और गरिमा बेच देना। इससे व्यक्ति की गरिमा और उसका चरित्र छिन जाता है; इससे परमेश्वर नाखुश होता है और इससे वह घृणा करता है। क्या यह लाभप्रद है? नहीं, यह लाभप्रद नहीं है। क्या यह सही मार्ग है? नहीं, यह सही मार्ग नहीं है। जो लोग अक्सर झूठ बोलते हैं, वे अपने शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं; वे शैतान की शक्ति के अधीन रहते हैं। वे प्रकाश में नहीं रहते, न ही वे परमेश्वर की उपस्थिति में रहते हैं। तुम लगातार इस बारे में सोचते रहते हो कि झूठ कैसे बोला जाए, और फिर झूठ बोलने के बाद तुम्हें यह सोचना पड़ता है कि उस झूठ को कैसे छिपाया जाए। और जब तुम झूठ अच्छी तरह से नहीं छिपाते और वह उजागर हो जाता है, तो तुम्हें विरोधाभास दूर कर उसे स्वीकार्य बनाने के लिए अपने दिमाग पर जोर देना पड़ता है। क्या इस तरह जीना थका देने वाला नहीं है? निढाल कर देने वाला। क्या यह इस लायक है? नहीं, यह इस लायक नहीं है। झूठ बोलने और फिर उसे छिपाने के लिए अपना दिमाग लगाना, सब शान, अभिमान और रुतबे की खातिर, क्या मायने रखता है? अंत में तुम चिंतन करते हुए मन ही मन सोचो, ‘क्या मायने हैं? झूठ बोलना और उसे छिपाना बहुत थका देने वाला होता है। इस तरीके से आचरण करने से काम नहीं चलेगा; अगर मैं एक ईमानदार व्यक्ति बन जाऊँ, तो ज्यादा आसानी होगी।’ तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनने की इच्छा रखते हो, लेकिन तुम अपनी शान, अभिमान और व्यक्तिगत हित नहीं छोड़ पाते। इसलिए तुम इन चीजों को बनाए रखने के लिए सिर्फ झूठ बोलने का ही सहारा ले सकते हो। अगर तुम ऐसे व्यक्ति हो जिसे सत्य से प्रेम है, तो सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम विभिन्न कठिनाइयाँ सहन करोगे। अगर इसका मतलब अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत का बलिदान और दूसरों से उपहास और अपमान सहना भी हो, तो भी तुम बुरा नहीं मानोगे—अगर तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में सक्षम हो, तो यह पर्याप्त है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे इसका अभ्यास करना और ईमानदार रहना चुनते हैं। यही सही मार्ग है, और इस पर परमेश्वर का आशीष है। अगर व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता, तो वह क्या चुनता है? वह अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत, गरिमा और चरित्र बनाए रखने के लिए झूठ का उपयोग करना चुनता है। वह धोखेबाज होगा और परमेश्वर उससे घृणा कर उसे ठुकरा देगा। ऐसे लोग सत्य को नकारते हैं और परमेश्वर को भी नकारते हैं। वे अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत चुनते हैं; वे धोखेबाज होना चाहते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि परमेश्वर प्रसन्न होता है या नहीं, या वह उन्हें बचाएगा या नहीं। क्या परमेश्वर अभी भी ऐसे लोगों को बचा सकता है? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि उन्होंने गलत मार्ग चुना है। वे सिर्फ झूठ बोलकर और धोखा देकर ही जीवित रह सकते हैं; वे रोजाना सिर्फ झूठ बोलकर उसे छिपाने और अपना बचाव करने में अपना दिमाग लगाने का दर्दनाक जीवन ही जी सकते हैं। अगर तुम सोचते हो कि झूठ वह प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बरकरार रख सकता है जो तुम चाहते हो, तो तुम पूरी तरह से गलत हो। वास्तव में झूठ बोलकर तुम न सिर्फ अपना अभिमान और शान, और अपनी गरिमा और चरित्र बनाए रखने में विफल रहते हो, बल्कि इससे भी ज्यादा शोचनीय बात यह है कि तुम सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अवसर चूक जाते हो। अगर तुम उस पल अपनी प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बचाने में सफल हो भी जाते हो, तो भी तुमने सत्य का बलिदान करके परमेश्वर को धोखा तो दे ही दिया है। इसका मतलब है कि तुमने उसके द्वारा बचाए और पूर्ण किए जाने का मौका पूरी तरह से खो दिया है, जो सबसे बड़ा नुकसान और जीवन भर का अफसोस है। जो लोग धोखेबाज हैं, वे इसे कभी नहीं समझेंगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सटीक स्थिति को उजागर कर दिया। अपने दंभ और गर्व की रक्षा करने और लोगों के अपमान से बचने के लिए मैंने सच बताने के बजाय झूठ बोलकर उन्हें धोखा देने का फैसला किया और अपनी सत्यनिष्ठा और गरिमा की बलि चढ़ा दी। हाल ही में हुई गिरफ्तारियों को लेकर अगुआ ने मुझे पत्र लिखकर पूछा था कि मेरे जिम्मे वाले इलाके में कितने नए सदस्य नियमित रूप से सभाओं में भाग ले रहे हैं और कितने नहीं ले रहे हैं और नए सदस्यों को सींचने और सहारा देने के ताजा नतीजे क्या हैं। मैंने इन कार्यों की बिल्कुल भी निगरानी नहीं की थी और अगुआ को रिपोर्ट देते समय मुझे ईमानदारी बरतनी चाहिए थी, लेकिन अपने दंभ और रुतबे को बचाने के लिए मैंने झूठ बोला और कहा कि मैं तो पहले से इसकी निगरानी कर रही हूँ। बैठक के दौरान जब अगुआ ने मुझसे यांग फैन द्वारा नए सदस्यों के सिंचन के बारे में पूछा और मुझे ज्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए मैंने सीधे सफेद झूठ बोल दिया, पुरानी जानकारी को ताजा बताकर पेश किया और झाँसा देकर बच निकलने की कोशिश की। हालाँकि मुझे पता था कि मैं झूठ बोल रही हूँ और मुझे अपराधबोध हो रहा है, फिर भी मैं खुलकर बात नहीं करना चाहती थी। दूसरों की नजर में तुच्छ दिखने से बचने के लिए मैंने बार-बार झूठ बोला। मैं इतनी धूर्त और धोखेबाज थी! मैं खुद से यह सवाल पूछे बिना नहीं रह पाई, “क्या तुम एक विश्वासी नहीं हो?” एक सच्चा विश्वासी सच बोलने, ईमानदार रहने, सत्यनिष्ठा और गरिमा युक्त होने में सक्षम रहता है, और स्थिति चाहे जो भी हो, उसमें सच का सामना करने और सच को सच कहने का साहस होता है और इस प्रकार अभ्यास करने से भले ही दूसरे उसकी कमियों और अपर्याप्तताओं को देख लें, लेकिन सत्य का अभ्यास करना और खुले दिल से जीना परमेश्वर को प्रसन्न करता है और दूसरों का भरोसा पाने में सहायक होता है। लेकिन मैंने अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने के लिए झूठ बोला था, मुझमें सत्यनिष्ठा और गरिमा बिल्कुल नहीं थी और मैं मानवीय आचरण की न्यूनतम अपेक्षाओं पर भी खरा उतरने में विफल रही थी। परमेश्वर ने मुझ पर अनुग्रह किया था और मुझे सिंचाई का कर्तव्य निभाने का अवसर प्रदान किया था, इस आशा के साथ कि मैं उसके साथ पूरी ईमानदारी से सहयोग करूँगी और परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले नए लोगों की सही तरीके से सिंचाई कर सकूँगी। ऐसा करके परमेश्वर मुझे सत्य हासिल करने के लिए अभ्यास का अवसर भी दे रहा था, लेकिन मैं परमेश्वर के इस ईमानदार इरादे पर खरी नहीं उतरी। मैंने न केवल अपने कर्तव्य में कोई बोझ नहीं उठाया, बल्कि समस्याओं का सामना करने पर सत्य का अभ्यास करने के बजाय झूठ बोलने का चुनाव किया। मैंने सच में परमेश्वर को काफी निराश कर दिया था। जितना मैं इसके बारे में सोचती, उतना ही अधिक परेशान होती, और इतनी बड़ी धोखेबाज होने के कारण उतनी ही खुद से घृणा करने लगती।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के अंदर यह खोजा कि मेरे झूठ बोलने और धोखा देने की जड़ कहाँ है। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब मसीह-विरोधियों को उजागर किया जाता है और उनकी काट-छाँट की जाती है, तो पहला काम वे यह करते हैं कि अपने बचाव के लिए विभिन्न कारण खोजते हैं, समस्या से बचने की कोशिश में सभी प्रकार के बहाने तलाशते हैंऔर इस प्रकार अपनी जिम्मेदारियों से बचने का अपना लक्ष्य पूरा कर लेते हैंऔर क्षमा किए जाने का अपना उद्देश्य प्राप्त कर लेते हैं। मसीह-विरोधी जिस बात से सबसे अधिक डरते हैं, वह यह है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग उनके स्वभाव, उनकी कमजोरियों और खामियों, उनकी घातक कमज़ोरी, उनकी वास्तविक काबिलियत और कार्य करने की योग्यता की असलियत देख लेंगे—और इसलिए वे अपनी कमियाँ, समस्याएँ और भ्रष्ट स्वभाव का भेस बदलने के लिए खुद को बेहतर बनाने की पूरी कोशिश करते हैं। जब उनके कुकर्म बेनकाब और उजागर हो जाते हैं, तो पहला काम वे यह करते हैं कि इस तथ्य को मानते या स्वीकारते नहीं, या अपनी गलतियों की भरपाई या क्षतिपूर्त करने का भरसक प्रयास नहीं करते, इसके बजाय वे उन्हें छुपाने, उनके कार्यों से अवगत लोगों को भ्रमित करने और उन्हें धोखा देने, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को मामले की असलियत न देखने देने के लिए विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं और उन्हें यह न जानने देने की कोशिश करते हैं कि उनके कार्य परमेश्वर के घर के लिए कितने हानिकारक रहे हैं और कलीसिया के काम को उन्होंने कितना अस्त-व्यस्त किया है। बेशक, वे जिस चीज से सबसे ज्यादा डरते हैं, वह यह होती है कि कहीं ऊपरवाले को पता न लग जाए, क्योंकि ऊपरवाले को पता चलते ही उनके साथ सिद्धांतों के अनुसार निपटा जाएगा और उनके लिए सब-कुछ खत्म हो जाएगा और उन्हें बर्खास्त कर समाप्त कर दिया जाना निश्चित है। और इसलिए, जब मसीह-विरोधियों की बुराई उजागर होती है, तो पहला काम जो वे करते हैं, वह यह नहीं है कि वे इस पर विचार करें कि उनसे कहाँ गलती हुई है, उन्होंने कहाँ सिद्धांत का उल्लंघन किया है, उन्होंने जो किया वह क्यों किया, वे किस स्वभाव से नियंत्रित थे, उनके इरादे क्या थे, उस समय उनकी अवस्था क्या थी, क्या यह उनकी मनमानी के कारण था या उनके इरादों की मिलावटों के कारण। इन चीजों का विश्लेषण करने के बजायऔर इन पर चिंतन तो बिल्कुल भी न करके, वे असली तथ्यों को छिपाने के लिए हर संभव तरीके से अपना दिमाग खपाते हैं। साथ ही, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामने अपनी बात समझाने और खुद को सही ठहराने की पूरी कोशिश करते हैं, ताकि उन्हें चकमा दे सकें, बड़ी समस्याओं को छोटी दिखाने की कोशिश करते हैं और छोटी समस्याओं के बारे में कहते हैं कि यह तो कोई समस्या ही नहीं है और झांसा देकर इससे बच निकलते हैं, ताकि वे परमेश्वर के घर में रहकर लापरवाही से गलत काम करते रहें और अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते रहें और लोगों को गुमराह और नियंत्रित करते रहें और अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए उन्हें अपने आदर की दृष्टि से देखने और उनके कहे अनुसार कार्य करने के लिए मजबूर करते रहें” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद ग्यारह)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने देखा कि जब मसीह-विरोधियों के कार्य में कोई त्रुटियाँ या खामियाँ होती हैं, तो वे इससे सबक सीखने और अपने कार्य की समस्याओं और विचलनों को तुरंत ठीक करने के बजाय, झूठ बोलने और सत्य को छिपाने की हर संभव कोशिश करते हैं और अगुआओं को उनके कार्य की खामियों और समस्याओं के बारे में जानने से रोकते हैं और यह भी देखा कि वे दूसरों का भरोसा जीतने के लिए अप्रत्यक्ष हथकंडे अपनाने की कोशिश करते हैं। यह मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव है। क्या मैंने जो प्रकट किया था, वह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं था? जब अगुआ मेरे कार्य की निगरानी और जाँच करने आया तो कई काम ऐसे थे जो मैंने किए ही नहीं थे, लेकिन मैंने न केवल उसे वास्तविक स्थिति नहीं बताई, बल्कि सच छुपाकर उसे धोखा भी दिया, मैंने यह सच छिपाने की पूरी कोशिश की कि मैंने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया है। बाद में जब अगुआ प्रत्येक सिंचनकर्ता द्वारा नए लोगों की सिंचाई के कार्य की जाँच कर रहा था, तो चूँकि मैंने कोई वास्तविक कार्य किया ही नहीं था और मुझे विशिष्ट विवरणों की जानकारी नहीं थी, इसलिए मैंने एक बार फिर झूठ बोला, और पहले किए गए सिंचन कार्य को ताजा कार्य बताकर अगुआ को बरगलाने की कोशिश की। मैं अच्छी तरह से जानती थी कि ऐसा करना धोखेबाज और बेईमान होने के समान है, लेकिन अगुआ के सामने अपनी अच्छी छवि बनाए रखने के लिए मैंने सफेद झूठ बोलकर उसे धोखा दिया। मैंने देखा कि मैंने जो स्वभाव प्रकट किया था, वह ठीक एक मसीह-विरोधी के दुष्ट और घृणित स्वभाव के समान है। अगुआ की मेरे कार्य के बारे में जाँच से यह स्पष्ट था कि वह जिम्मेदार था और इससे उसे मेरे कार्य में विचलनों और समस्याओं को जल्दी पहचानने का अवसर मिल सकता था। लेकिन मैंने कार्य की समस्याओं के बारे में चुप्पी साध ली और अगुआ के सामने ऐसा दिखावा किया कि मैं वास्तविक कार्य कर रही हूँ, जिससे उसे एक गलत धारणा मिले। लिहाजा अगुआ सच पता नहीं लगा सका और मेरे कार्य की समस्याएँ अनसुलझी रहीं। ऐसा करके मैं कलीसिया के कार्य में बाधा डाल रही थी। मैंने देखा कि अगुआ को कार्य की निगरानी करने से रोकने के लिए सच छुपाने की प्रकृति महज वास्तविक कार्य न करने से कहीं अधिक गंभीर थी। यह जानकर मुझे लगा कि मैं खतरे में हूँ। मेरे अंदर कोई परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं था और मैं एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। मैंने मन ही मन में परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चात्ताप किया, “हे परमेश्वर, तेरे वचनों के प्रकाशन के कारण, मैं देखती हूँ कि मेरा स्वभाव दुष्ट और घृणित है और मेरा दिल डर से भर गया है। मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं यह भ्रष्ट स्वभाव त्याग सकूँ और दूसरों की निगरानी स्वीकार सकूँ।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर का लोगों से ईमानदार बनने का आग्रह करना यह साबित करता है कि वह धोखेबाज लोगों से सचमुच घृणा करता है, उन्हें नापसंद करता है। धोखेबाज लोगों के प्रति परमेश्वर की नापसंदगी उनके काम करने के तरीके, उनके स्वभावों, उनके इरादों और उनकी चालबाजी के तरीकों के प्रति नापसंदगी है; परमेश्वर को ये सब बातें नापसंद हैं। यदि धोखेबाज लोग सत्य स्वीकार कर लें, अपने धोखेबाज स्वभाव को मान लें और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने को तैयार हो जाएँ, तो उनके बचने की उम्मीद भी बँध जाती है, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करता है, जैसा कि सत्य करता है। और इसलिए, यदि हम परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले लोग बनना चाहें, तो सबसे पहले हमें अपने व्यवहार के सिद्धांतों को बदलना होगा : अब हम शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जी सकते, हम झूठ और चालबाजी के सहारे नहीं चल सकते। हमें अपने सारे झूठ त्यागकर ईमानदार बनना होगा। तब हमारे प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण बदलेगा। पहले लोग दूसरों के बीच रहते हुए हमेशा झूठ, ढोंग और चालबाजी पर निर्भर रहते थे, और अपने आचरण में शैतानी फलसफों को अपने अस्तित्व, अपने जीवन और अपनी नींव के रूप में लेते थे। इससे परमेश्वर को घृणा थी। गैर-विश्वासियों के बीच यदि तुम खुलकर बोलते हो, सच बोलते हो और ईमानदार रहते हो, तो तुम्हें बदनाम किया जाएगा, तुम्हारी आलोचना की जाएगी और तुम्हें त्याग दिया जाएगा। इसलिए तुम सांसारिक चलन का पालन करते हो और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो; तुम झूठ बोलने में ज्यादा-से-ज्यादा माहिर और अधिक से अधिक धोखेबाज होते जाते हो। तुम अपना मकसद पूरा करने और खुद को बचाने के लिए कपटपूर्ण साधनों का उपयोग करना भी सीख जाते हो। तुम शैतान की दुनिया में समृद्ध होते चले जाते हो और परिणामस्वरूप, तुम पाप में इतने गहरे गिरते जाते हो कि फिर उसमें से खुद को निकाल नहीं पाते। परमेश्वर के घर में चीजें ठीक इसके विपरीत होती हैं। तुम जितना अधिक झूठ बोलते और कपटपूर्ण खेल खेलते हो, परमेश्वर के चुने हुए लोग तुमसे उतना ही अधिक ऊब जाते हैं और तुम्हें त्याग देते हैं। यदि तुम पश्चाताप नहीं करते, अब भी शैतानी फलसफों और तर्क से चिपके रहते हो, अपना भेस बदलकर खुद को बढ़िया दिखाने के लिए चालें चलते और बड़ी-बड़ी साजिशें रचते हो, तो बहुत संभव है कि तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटा दिया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर धोखेबाज लोगों से घृणा करता है। केवल ईमानदार लोग ही परमेश्वर के घर में समृद्ध हो सकते हैं, धोखेबाज लोगों को अंततः त्याग कर हटा दिया जाता है। यह सब परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर दिया है। केवल ईमानदार लोग ही स्वर्ग के राज्य में साझीदार हो सकते हैं। यदि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करोगे, सत्य का अनुसरण करने की दिशा में अनुभव प्राप्त नहीं करोगे और अभ्यास नहीं करोगे, यदि अपना भद्दापन उजागर नहीं करोगे और यदि खुद को खोल कर पेश नहीं करोगे, तो तुम कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर पाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, कि ईमानदार लोगों में अपनी कमियों और कमजोरियों का सामना करने का साहस होता है, वे सत्य बोलने में सक्षम होते हैं, न तो लोगों को धोखा देते हैं और न ही परमेश्वर को, और समस्याएँ आने पर वे सत्य खोजकर इसका अभ्यास कर लेते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को अनंत काल तक रहने के लिए अपने राज्य में ले जाता है। परमेश्वर झूठों, धोखेबाजों और चालाकी करने वालों से घृणा करता है। ऐसे लोग धोखेबाज और शैतानी होते हैं। जैसा कि बाइबल में लिखा है : “तुम अपने पिता शैतान से हो और अपने पिता की लालसाओं को पूरा करना चाहते हो। वह तो आरम्भ से हत्यारा है और सत्य पर स्थिर न रहा, क्योंकि सत्य उसमें है ही नहीं। जब वह झूठ बोलता, तो अपने स्वभाव ही से बोलता है; क्योंकि वह झूठा है वरन् झूठ का पिता है” (यूहन्ना 8:44)। मैंने देखा कि सारे झूठ बोलने वाले शैतान होते हैं। शैतान परमेश्वर के शत्रु हैं और परमेश्वर उनसे घृणा करता है। परमेश्वर ऐसे लोगों को बिल्कुल भी नहीं बचाएगा। यह परमेश्वर के धार्मिक और विश्वासयोग्य सार द्वारा निर्धारित है। अपने कर्तव्य में मैंने अपने दंभ और रुतबे की रक्षा के लिए झूठ बोला और अपने कार्य की कमियों को छुपाने का प्रयास किया। ऐसा करने का यह मतलब था कि मैं सत्य के साथ विश्वासघात कर रही थी, शैतान के पक्ष में खड़ी थी और परमेश्वर का विरोध कर रही थी। इसके अलावा, कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाते हुए छिपाने और दिखावा करने का सहारा लेने से मैं केवल कुछ समय के लिए ही सत्य को छुपा सकती हूँ, लेकिन लंबे समय में मेरे कार्य में कई विचलन उजागर होंगे और एक बार जब सभी को सत्य का पता चल जाएगा, तो वे मेरा भेद पहचान लेंगे और मुझे अस्वीकार कर देंगे, जिसका यह मतलब होगा कि मेरी ईमानदारी और गरिमा का हर दिखावा खत्म हो जाएगा और पश्चात्ताप करने के मेरे अवसर भी नष्ट हो जाएँगे। उन मसीह-विरोधियों पर विचार करके देखें तो चाहे वे कितने ही बुरे कार्य क्यों न करें या परमेश्वर के घर के कार्य को कितना ही नुकसान क्यों न पहुँचाएँ, वे कभी आत्मचिंतन या पश्चात्ताप नहीं करते और अगर कोई उनके कार्य की निगरानी या जाँच करता है तो वे धोखा देने और सत्य को छुपाने के लिए तरह-तरह की चालों का सहारा लेते हैं, जिससे यह दिखता है कि उनमें सत्य को स्वीकारने की कोई इच्छा नहीं है। आखिरकार, उनके द्वारा किये गए सभी बुरे कार्यों के कारण उन्हें कलीसिया से निकाल दिया जाता है। जिनमें निष्कपट होने का साहस होता है और जो सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, वे परमेश्वर की दृष्टि में ईमानदार होते हैं और वही लोग बचाए जाएँगे और बने रहेंगे। इसके विपरीत जो लोग व्यक्तिगत लाभ के लिए परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश करते हैं, वे बेहद मूर्ख और धूर्त होते हैं और अंततः उन्हें परमेश्वर द्वारा हटा दिया जाएगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़े : “जब लोग परमेश्वर के सामने अपना कर्तव्य या कोई कार्य करते हैं, तो उनका दिल शुद्ध होना चाहिए : ताजे पानी के कटोरे की तरह—एकदम साफ, अशुद्धियों से अछूता। तो किस तरह का रवैया सही है? चाहे तुम कुछ भी कर रहे हो, चाहे तुम्हारे दिल में जो हो या जो भी तुम्हारे विचार हों, तुम उस पर दूसरों के साथ संगति कर पाते हो। अगर कोई कहता है कि चीजें करने का तुम्हारा तरीका नहीं चलेगा और वह कोई और विचार रखता है, और अगर तुमको लगता है कि यह बहुत बढ़िया विचार है, तो तुम अपना तरीका छोड़ देते हो, और उसकी सोच के अनुसार काम करने लगते हो। ऐसा करने से हर कोई देखता है कि तुम दूसरों के सुझाव स्वीकार कर सकते हो, सही रास्ता चुन सकते हो, सिद्धांतों के अनुसार और पारदर्शिता और स्पष्टता के साथ कार्य कर सकते हो। तुम्हारे मन में कोई दुर्भावना नहीं रहती और तुम ईमानदारी के रवैये पर भरोसा करके सच्चाई से काम करते और बोलते हो। तुम बिना लाग-लपेट के बोलते हो। यह है, तो है; नहीं है, तो नहीं है। कोई चालाकी नहीं, कोई राज़ नहीं, बस एक बहुत पारदर्शी व्यक्ति” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर चाहता है कि हम अपने कर्तव्यों को एक ईमानदार दिल के साथ निभाएँ, कि हम तथ्यों के अनुसार बात करें और हर चीज में उसकी जाँच-पड़ताल स्वीकार करें। जब अगुआ ने मेरे कार्य के बारे में फिर से पूछताछ की, तो मैंने ठान लिया कि अगर मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया है, तो मैं सच बताऊँगी, अपनी समस्याओं का सामना करने का साहस रखूँगी, अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने के लिए झूठ बोलना बंद करूँगी, और एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करूँगी। बाद में मैंने खुद पहल करते हुए अगुआ के सामने यह स्वीकार किया कि मैंने अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करने के लिए झूठ बोला था। जब मैंने अगुआ के साथ खुलकर बात की तो फिर उसने मेरी मदद करने के लिए अपने अनुभवों पर संगति की। इस तरह अभ्यास करने से मुझे बहुत राहत महसूस हुई। आगे चलकर मैंने अपने कार्य में विचलनों को तुरंत सुधारने के लिए अगुआ की सलाह का पालन किया, जैसे कि अनुपयुक्त सिंचनकर्ताओं को जल्दी से बर्खास्त करना, सिंचनकर्ताओं के साथ उनके कर्तव्यों पर विस्तार से संगति करना और उनके कार्य में होने वाली प्रगति की जाँच और निगरानी करना। जब मैं इस तरीके से कार्य की गहराइयों में खुद उतरी तो कार्य में स्पष्ट सुधार देखने को मिला।
एक सप्ताह बाद, अगुआ ने मुझे सिंचनकर्ताओं के परिपोषण के बारे में पूछते हुए एक पत्र भेजा। पत्र मिलने पर मुझे एहसास हुआ कि मैं दूसरे कार्यों की निगरानी में इतनी व्यस्त हो गई थी कि मैंने कर्मियों को विकसित करने के कार्य को नजरअंदाज कर दिया था और मुझे यह भी नहीं पता था कि कितने लोगों को विकसित किया जा सकता है। मैं भला कैसे उत्तर देती? अगर अगुआ को पता चला कि मैंने इतने महत्वपूर्ण कार्य की उपेक्षा की है, तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या वह यह कहेगा कि मैं वास्तविक कार्य नहीं कर रही हूँ? मैंने सोचा, “क्यों न उसे यह जवाब दूँ कि मैं इस कार्य की निगरानी की प्रक्रिया में हूँ? इस तरह उसे सच्चाई पता नहीं चलेगी।” ऐसा सोचते ही मुझे अचानक एहसास हुआ, “क्या मैं अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने की खातिर वास्तव में फिर से झूठ नहीं बोलना चाह रही हूँ?” इसलिए मैंने मन ही मन में परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं अब और झूठ बोलना या धोखा देना नहीं चाहती हूँ। मैंने यह कार्य नहीं किया है और इसका कारण मेरा गैरजिम्मेदार रवैया है। मैं ईमानदारी से अगुआ को यह बताने को तैयार हूँ।” प्रार्थना करने के बाद मैंने गहरी शांति महसूस की। मैंने यह विचार किया कि परमेश्वर ऐसे ईमानदार लोगों को पसंद करता है जो सच को सच कह सकते हैं, कि मुझे शांति से चीजों का सामना करना होगा, सत्य को छुपाना नहीं होगा, और चाहे अगुआ मेरे बारे में कुछ भी सोचे, मुझे ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करना होगा। इसलिए मैंने अगुआ को सच बता दिया, “मैंने प्रतिभाओं को विकसित करने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है, लेकिन मैं आगे से इसे सुधारने के लिए तैयार हूँ।” इसके बाद मैं वास्तव में यह काम करने लगी और कुछ दिनों बाद मुझे विकसित करने लायक दो लोग मिल गए। इसके बाद जब अगुआ ने दूसरे कार्यों की जाँच और निगरानी के लिए मुझे दोबारा पत्र लिखा तो भले ही कुछ कार्यों में अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे, मैं इसका सामना शांति से करने और इन बातों को ईमानदारी से बताने के लिए तैयार थी। हालाँकि मैं अभी ईमानदार व्यक्ति होने के मानकों पर पूरी तरह खरी नहीं उतर पाई हूँ, फिर भी मैं सत्य का अनुसरण करने, परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने और धीरे-धीरे अपने धोखेबाज स्वभाव को त्यागने के लिए तैयार हूँ।