52. मार्गदर्शन और पर्यवेक्षण स्वीकारना सीखना

लिन युकियान, चीन

जून 2022 में मुझे वीडियो कार्य की जिम्मेदारी देते हुए टीम अगुआ चुना गया। कुछ समय बाद मुझे काम की समझ आ गई और मैं टीम के सदस्यों की अवस्था और कार्य की प्रगति पर नजर रखने और उसे समझने में सक्षम हो गई। हालाँकि मेरे कौशल में अभी भी कमी थी, मुझे लगा कि मैं काम सँभाल सकती हूँ।

एक दिन अगुआ टीम की कार्य स्थिति समझने आई। हाल ही में मुझे काम की धीमी प्रगति के कारण समझ आए थे, जैसे कि टीम के सदस्यों के बीच घनिष्ठ सहयोग की कमी थी, ऐसी असहमतियाँ थीं जिनके लिए संवाद करने की जरूरत थी और जिन पर कोई आम सहमति नहीं बन पाई थी, जिसके कारण बाद में फिर से काम करना पड़ा और प्रगति में देरी हुई और कुछ बोझिल प्रक्रियाएँ थीं जिनसे भी प्रगति में देरी हुई। इन स्थितियों को समझने के बाद मैंने संगति की और उन्हें ठीक किया और मैंने इन स्थितियों की रिपोर्ट अगुआ को दी। मैंने सोचा कि चूँकि मैंने कुछ वास्तविक कार्य किया है, इसलिए अगुआ कहेगी कि मैंने अच्छा काम किया है। लेकिन मुझे हैरानी हुई कि जैसे ही मैंने बोलना खत्म किया, अगुआ ने मुझसे पूछा, “टीम के सदस्य तालमेल के साथ सहयोग क्यों नहीं कर पाते? उनकी मुख्य समस्याएँ क्या हैं?” इस प्रश्न का सामना होने पर मुझे नहीं पता था कि कैसे उत्तर दूँ क्योंकि मुझे वाकई कारणों की समझ नहीं थी। मैं सुनिश्चित नहीं थी कि वे कहाँ अटके हुए थे; मैं सिर्फ सतही तौर पर देख पाई कि वे मिलजुल कर सहयोग नहीं कर पाते हैं। इसके बाद अगुआ ने कुछ और प्रश्न पूछे और मैं कोई उत्तर नहीं दे पाई। फिर अगुआ ने मुझसे कहा, “क्या तुम सिर्फ भाई-बहनों की बताई बातें सुनती रहती हो और यह पता नहीं लगाती हो कि वे जो बता रहे हैं, उसकी मूल समस्या क्या है? क्या तुम वास्तव में इस तरह से समस्याएँ सुलझा सकती हो?” अगुआ को यह कहते हुए सुनकर मुझे शर्मिंदगी हुई। मैं बरबस ही सोचने लगी, “क्या तुम्हारा यह मतलब नहीं है कि मैं समस्याएँ सुलझाना नहीं जानती हूँ? ऐसा लगता है कि मुझे कार्य सँभालना नहीं आता।” फिर अगुआ ने बताया कि मैं सिर्फ समस्याओं की सतह कुरेद रही थी और उन्हें जड़ से नहीं सुलझा पा रही थी और उसने मेरे साथ संगति में सिद्धांत शामिल किए, जिससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि कार्य करते समय व्यक्ति को मुख्य और अहम मसलों को समझना सीखना चाहिए। मैं थोड़ी-सी असहमत थी : मैंने समस्याएँ खोजने और टीम के सदस्यों के साथ संवाद करने की पूरी कोशिश की थी और ऐसा नहीं था कि मुझे काम सँभालना नहीं आता था। मैं मुँह लटकाकर कंप्यूटर को घूरती रही, अगुआ से बात नहीं करना चाहती थी। टाइप करते समय मैंने जानबूझकर कीबोर्ड पर जोर से मारा ताकि मेरा अंसतोष बाहर निकल जाए और मैं सोचने लगी, “अगुआ ने मेरे दो सहकर्मियों के सामने ऐसा कहा, दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? उसने सिर्फ मेरी समस्याएँ क्यों बताईं? क्या अन्य सहकर्मी अपना काम ठीक से कर रहे हैं?” मुझे लगा कि अगुआ के शब्द मेरे सभी प्रयासों को नकार रहे थे। जितना मैंने इसके बारे में सोचा, मुझे उतना ही गुस्सा आया। मुझे लगा कि अगुआ मेरे साथ बहुत कठोर हो रही है।

सभा के बाद अगुआ की आलोचनाएँ याद करके मुझे बहुत अपमानित महसूस हुआ। मैंने अनुमान लगाया कि मेरे सहकर्मी जरूर सोचेंगे कि मैं अपने काम में अच्छी नहीं हूँ, इसलिए मैं कुछ हद तक नाराज हुई और सोचा, “अब से मैं अपने कर्तव्य पर इतनी मेहनत नहीं करूँगी क्योंकि वैसे भी कोई इसे देखता नहीं है! अगली बार जब अगुआ सवाल पूछेगी तो मैं इतनी उत्सुकता से जवाब नहीं दूँगी।” मैं बहुत उदास थी, गुस्से और शिकायतों से भरी थी और रोना चाहती थी। शाम को मैंने एक सहकर्मी द्वारा लिखे गए पत्र में एक वाक्य पढ़ा, “अगर भाई-बहन वाकई अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करना चाहते हैं तो जब अगुआ उनके काम की निगरानी करने के लिए आते हैं और उनकी समस्याएँ और विचलन बताते हैं तो उन्हें इसे स्वीकारने के लिए तैयार रहना चाहिए।” इस वाक्य को पढ़कर मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। अगुआ के पर्यवेक्षण और संकेतों का सामना करते हुए मुझे इस बात का दुख नहीं था कि मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, बल्कि इस बात का गुस्सा था कि अगुआ ने मेरे आत्मसम्मान का लिहाज रखे बिना बात की। मैं किस तरह से ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने वाली इंसान थी? मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर, आज अगुआ ने मेरी समस्याएँ बताईं और मैं प्रतिरोधी हो गई। मैं जानती हूँ कि यह रवैया तुम्हारे इरादे के अनुरूप नहीं है, लेकिन मुझे क्या सबक सीखना चाहिए और मुझे कैसे आत्म-चिंतन करना चाहिए और खुद को जानना चाहिए? तुम मुझे प्रबोधन और मार्गदर्शन दो।”

अगली सुबह मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अगर तुम परमेश्वर के घर द्वारा तुम्हारी निगरानी, अवलोकन और तुम्हें समझने का प्रयास करना स्वीकार कर सकते हो, तो यह एक अद्भुत बात है। यह तुम्हारा कर्तव्य निभाने में, संतोषजनक तरीके से तुम्हारा कर्तव्य कर पाने में और परमेश्वर के इरादे पूरे करने में तुम्हारे लिए मददगार है। यह बिना किसी भी नकारात्मक पक्ष के तुम्हें फायदा पहुँचाता है और तुम्हारी मदद करता है। एक बार जब तुम इस सिद्धांत को समझ गए हो, तो क्या तुममें अब अपने अगुआओं, कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी के खिलाफ प्रतिरोध या सतर्कता की कोई भावना होनी चाहिए? भले ही कभी-कभी कोई तुम्हें समझने का प्रयास करता हो, तुम्हारा अवलोकन करता हो, और तुम्हारे कार्य की निगरानी करता हो, यह व्यक्तिगत रूप से लेने वाली बात नहीं है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? क्योंकि जो कार्य अब तुम्हारे हैं, जो कर्तव्य तुम निभाते हो, और कोई भी कार्य जो तुम करते हो, वे किसी एक व्यक्ति के निजी मामले या व्यक्तिगत कार्य नहीं हैं; वे परमेश्वर के घर के कार्य को स्पर्श करते हैं और परमेश्वर के कार्य के एक भाग से संबंध रखते हैं। इसलिए, जब कोई तुम्हारी पर्यवेक्षण या प्रेक्षण करने में थोड़ा समय लगाता है या तुम्हें गहराई से समझने लगता है, तुम्हारे साथ खुले दिल से बातचीत करने और यह पता लगाने की कोशिश करता है कि इस दौरान तुम्हारी स्थिति कैसी रही है, यहाँ तक कि कभी-कभी जब उसका रवैया थोड़ा कठोर होता है, और तुम्हारी थोड़ी काट-छाँट करता है, अनुशासित करता और धिक्कारता है, तो वह यह सब इसलिए करता है क्योंकि उसका परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति एक ईमानदार और जिम्मेदारी भरा रवैया होता है। तुम्हें इसके प्रति कोई नकारात्मक विचार या भावनाएँ नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम दूसरों की निगरानी, निरीक्षण और समझने की कोशिश को स्वीकार कर सकते हो, तो इसका क्या मतलब है? यह कि अपने दिल में तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो। अगर तुम लोगों के द्वारा अपनी निगरानी, निरीक्षण और समझने के प्रयासों को स्वीकार नहीं करते—अगर तुम इस सबका विरोध करते हो—तो क्या तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करने में सक्षम हो? परमेश्वर की जाँच लोगों की समझने की कोशिश से ज्यादा विस्तृत, गहन और सटीक होती है; परमेश्वर की अपेक्षाएँ इससे अधिक विशिष्ट, कठोर और गहन होती हैं। अगर तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा पर्यवेक्षण किया जाना स्वीकार नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हारे ये दावे कि तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर सकते हो, खोखले शब्द नहीं हैं? परमेश्वर की जाँच और परीक्षा स्वीकार करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर के घर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, या भाई-बहनों द्वारा पर्यवेक्षण स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए। ... यह तो अच्छी बात है कि कोई अगुआ तुम्हारे कार्य की निगरानी करता है। क्यों? क्योंकि इसका यह अर्थ है कि वह कलीसिया के कार्य की जिम्मेदारी ले रहा है; यह उसका कर्तव्य है, उसकी जिम्मेदारी है। यह जिम्मेदारी पूरी करने में समर्थ होना यह साबित करता है कि वह एक योग्य अगुआ है, एक अच्छा अगुआ है। अगर तुम्हें पूरी आजादी और मानवाधिकार दे दिए जाते, और तुम जो चाहते कर पाते, अपनी इच्छाओं का अनुसरण कर पाते, और पूरी आजादी और लोकतंत्र का आनंद ले पाते, और चाहे तुम कुछ भी करते या कैसे भी करते, अगुआ इसकी परवाह या निगरानी नहीं करता, तुमसे कभी भी प्रश्न नहीं करता, तुम्हारे कार्य की जाँच नहीं करता, समस्याएँ पाए जाने पर कुछ नहीं बोलता और सिर्फ तुम्हें या तो मनाता या फिर तुमसे बातचीत करता, तो क्या वह अच्छा अगुआ होता? बिल्कुल नहीं। ऐसा अगुआ तुम्हें नुकसान पहुँचा रहा है। वह तुम्हें कुकर्म करने की खुली छूटदेता है, और तुम्हें सिद्धांतों के खिलाफ जाने और जो चाहो वह करने की अनुमति देता है—वह तुम्हें आग के कुएँ की तरफ धकेल रहा है। यह एक जिम्मेदार, मानक स्तर का अगुआ नहीं है। दूसरी तरफ, अगर कोई अगुआ नियमित रूप से तुम्हारी निगरानी कर सकता है, तुम्हारे कार्य में समस्याओं को पहचान सकता है और तुम्हें फौरन चेता सकता है या फटकार सकता है और उजागर कर सकता है, और समय पर तुम्हारे गलत अनुसरणों और कर्तव्य से विचलनों को ठीक करके तुम्हारी मदद कर सकता है, और उसकी निगरानी, फटकार, प्रावधान और मदद के तहत, तुम्हारा अपने कर्तव्य के प्रति गलत रवैया बदल जाता है, तुम कुछ बेतुके विचारों को छोड़ने में समर्थ हो जाते हो, आवेग से उत्पन्न होने वाले तुम्हारे अपने विचार और चीजें धीरे-धीरे कम हो जाती हैं, और तुम सही और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कथनों और दृष्टिकोणों को शांति से स्वीकार करने में समर्थ हो जाते हो, तो क्या यह तुम्हारे लिए फायदेमंद नहीं है? इसके फायदे सचमुच बेशुमार हैं!(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। परमेश्वर के वचनों ने मेरा हृदय शांत कर दिया। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर को यह देखना पसंद नहीं है कि मैं इतना आक्रोश पाल रही हूँ। इसके बजाय वह उम्मीद करता है कि मैं खुद को शांत कर सकूँ, पहले अपने काम में गलतियों और समस्याओं पर चिंतन करूँ और अगुआ का पर्यवेक्षण और मार्गदर्शन स्वीकारूँ। मैंने परमेश्वर की कही यह बात पढ़ी कि जिम्मेदार अगुआ और कार्यकर्ता प्रत्येक व्यक्ति के काम की खोज-खबर लेंगे और इसे समझेंगे, समस्याएँ और गलतियाँ पहचानेंगे और समय पर मार्गदर्शन और सुधार करेंगे। कभी-कभी हो सकता है कि उनका रवैया कुछ सख्त हो और साथ में आलोचना और काट-छाँट तक कर दी जाए। दरअसल वे काम के प्रति जिम्मेदारी बरत रहे हैं और इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि यह अच्छी तरह से किया जाए। एक स्तरीय अगुआ को यही करना चाहिए। अगुआ के पर्यवेक्षण और मार्गदर्शन का सामना करते वक्त किसी विवेकवान व्यक्ति को उन्हें सक्रिय रूप से स्वीकारना चाहिए। लेकिन उनके प्रति मेरी शुरुआती प्रतिक्रिया प्रतिरोध महसूस करने की थी और मैंने अपनी छवि बचाने के लिए अपने दिल में खुद को सही ठहराने की कोशिश की थी। किस तरह से मेरे पास स्वीकृति का कोई वास्तविक रवैया था? इस बात पर आत्म-चिंतन करते हुए कि मुझे टीम अगुआ के रूप में कैसे चुना गया था और मुझमें कई कमियाँ थीं, मैंने समझा कि अगुआ के पर्यवेक्षण, पूछताछ और मार्गदर्शन का मतलब था कि वे काम को लेकर जिम्मेदारी बरत रहे हैं। ठीक उसी तरह जब अगुआ ने बताया था कि मैंने मुद्दों की सिर्फ सतही जानकारी ही जुटाई है और टीम के सदस्यों के बीच तालमेल से सहयोग न होने के मूल कारण नहीं समझे हैं, जिसके परिणामस्वरूप समस्या का समाधान अधूरा रह गया है। ध्यान से आत्म-चिंतन करने पर मुझे एहसास हुआ कि यह वाकई ऐसा ही था। मैं काम को सतही तौर पर सँभाल रही थी और समस्याओं की जड़ नहीं सुलझा नहीं रही थी, जिससे स्वाभाविक रूप से खराब नतीजे सामने आए। मुझे अगुआ के मार्गदर्शन को उचित रूप से स्वीकारना चाहिए था और प्रतिरोधी महसूस नहीं करना चाहिए था या अपना बचाव नहीं करना चाहिए था। इसके बारे में सोचने पर मैं अब अगुआ के प्रति प्रतिरोधी नहीं रही। बाद में मुझे याद आया कि परमेश्वर ने कहा था कि हमें हर परिस्थिति में आत्म-चिंतन करना चाहिए और खुद को जानना चाहिए और सिर्फ इसी तरह से हम प्रगति कर सकते हैं और बदल सकते हैं। इसलिए मैंने सचेत होकर आत्म-चिंतन करने और सोचने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक वचनों की तलाश की, साथ ही परमेश्वर से चुपचाप प्रार्थना करते हुए उससे खुद को जानने में मार्गदर्शन और प्रबोधन देने के लिए कहा।

एक सुबह अपने भक्ति-सत्र के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब कुछ लोगों को ऊपरवाले द्वारा कोई परियोजना सौंपी जाती है, तो बिना किसी प्रगति के काफी वक्त गुजर जाता है। वे ऊपरवाले को नहीं बताते कि क्या वे उसमें लगे हुए हैं, या काम कैसा चल रहा है, या क्या इस दौरान कोई कठिनाई या समस्या सामने आई है। वे कोई जानकारी नहीं देते। कुछ कार्य महत्वपूर्ण होते हैं और उनमें देरी नहीं की जा सकती, फिर भी वे टालमटोल करते रहते हैं और लंबे समय तक काम पूरा किए बिना खींचते रहते हैं। तब ऊपरवाला पूछताछ करेगा ही। जब ऊपरवाला ऐसा करता है, तो उन लोगों को यह पूछताछ असहनीय रूप से शर्मनाक लगती है, और वे दिल से उनका प्रतिरोध करते हैं : ‘मुझे यह काम मिले हुए बस दस दिन ही हुए हैं। मैं अभी तक इसे समझ भी नहीं पाया हूँ, और ऊपरवाला पहले ही पूछताछ करने लगा है। लोगों से उसकी अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा ऊँची हैं!’ देखा, वे पूछताछ की खामियाँ ढूँढ़ने लगे हैं। इसमें समस्या क्या है? मुझे बताओ, क्या ऊपरवाले का पूछताछ करना बिल्कुल सामान्य नहीं है? इसका एक अंश तो यह जानने की इच्छा है कि कार्य में कितनी प्रगति हुई है, और कौन-सी कठिनाइयों का समाधान होना बाकी है; इसके अलावा, यह जानने की इच्छा है कि उसने यह काम जिस व्यक्ति को सौंपा है उसकी काबिलियत कैसी है, क्या वह वास्तव में समस्याओं को दूर करने में सक्षम हो पाएगा और काम अच्छे ढंग से कर पाएगा। ऊपरवाला तथ्यों को यथास्थिति में जानना चाहता है, और ज्यादातर वह ऐसी परिस्थितियों में पूछताछ करता है। क्या यह वह काम नहीं है जो उसे करना चाहिए? ऊपरवाला इस बात को लेकर चिंतित है कि कहीं तुम समस्याओं का समाधान करना न जानो और काम को न सँभाल पाओ। वह इसीलिए पूछताछ करता है। कुछ लोग ऐसी पूछताछ के प्रति अत्यंत प्रतिरोधी होते हैं और उससे उन्हें घृणा होती है। वे इस बात के लिए तैयार नहीं होते कि लोग पूछताछ करें और अगर लोग ऐसा करते हैं तो वे प्रतिरोधी हो जाते हैं, और हमेशा यह सोचते हुए आशंकाएँ पालते हैं, ‘वे हमेशा पूछताछ क्यों करते रहते हैं और ज्यादा जानने की कोशिश क्यों करते रहते हैं? ऐसा तो नहीं है कि वे मुझ पर भरोसा नहीं करते और मुझे नीची नजर से देखते हैं? अगर उन्हें मुझ पर भरोसा नहीं है, तो उन्हें मेरा उपयोग नहीं करना चाहिए!’ वे ऊपरवाले की पूछताछ और निगरानी को कभी नहीं समझते, बल्कि उसका प्रतिरोध करते हैं। क्या ऐसे लोगों में विवेक होता है? वे ऊपरवाले को उनसे पूछताछ करने और उनकी निगरानी करने की अनुमति क्यों नहीं देते? इसके अलावा, वे प्रतिरोधी और अवज्ञापूर्ण क्यों रहते हैं। इसमें समस्या क्या है? उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि उनका कर्तव्य निर्वहन प्रभावी है या नहीं, या इससे कार्य की प्रगति में रुकावट पैदा होगी या नहीं। अपना कर्तव्य करते समय वे सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजते, बल्कि वैसे ही करते हैं जैसे वे चाहते हैं। वे कार्य के नतीजों या दक्षता पर कोई विचार नहीं करते, परमेश्वर के घर के हितों का जरा भी ध्यान नहीं रखते, परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं का ध्यान रखना तो दूर की बात है। उनकी सोच होती है, ‘अपना कर्तव्य करने के मेरे अपने तरीके और दस्तूर हैं। मुझसे बहुत ज्यादा अपेक्षाएँ मत रखो या चीजों की बहुत बारीकी से जानकारी मत माँगो। मैं अपना कर्तव्य कर सकता हूँ, यही काफी है। मैं इसके लिए बहुत थक नहीं सकता या बहुत अधिक कष्ट नहीं उठा सकता।’ वे ऊपरवाले के पूछताछ करने और उनके कार्य के बारे में ज्यादा जानने की कोशिशों को नहीं समझते। उनकी इस समझ की कमी में कौन-सी चीजों का अभाव होता है? क्या इसमें समर्पण का अभाव नहीं है? क्या इसमें जिम्मेदारी की भावना का अभाव नहीं है? निष्ठा का? अगर वे अपना कर्तव्य करने में सचमुच जिम्मेदार और निष्ठावान होते, तो क्या वे अपने कार्य के बारे में ऊपरवाले की पूछताछ को अस्वीकार करते? (नहीं।) वे उसे समझने में सक्षम होते। अगर वे सच में नहीं समझ पाते, तो सिर्फ एक ही संभावना होती है : वे अपने कर्तव्य को अपने पेशे और अपनी आजीविका के रूप में देखते हैं और उसे भुनाते हैं, जो कर्तव्य वे करते हैं उसे एक शर्त और सौदेबाजी के रूप में लेते हैं, जिससे हर समय उन्हें पुरस्कार मिल सके। वे बस ऊपरवाले से बच निकलने के लिए बिना परमेश्वर के आदेश को अपना कर्तव्य और दायित्व समझे थोड़ा-सा इज्जत वाला कार्य करेंगे। इसलिए जब ऊपरवाला उनसे कार्य के बारे में पूछताछ करता है या उसकी निगरानी करता है तो वे इनकार और प्रतिरोध की मनोदशा में चले जाते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) यह समस्या कहाँ से उपजती है? इसका सार क्या है? बात यह है कि कार्य परियोजना के प्रति उनका रवैया गलत है। वे कार्य की प्रभावशीलता और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचने के बजाय सिर्फ दैहिक सहजता और आराम, और अपने रुतबे एवं गौरव के बारे में सोचते हैं। वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने का जरा भी प्रयास नहीं करते। यदि उनमें वास्तव में थोड़ा भी अंतरात्मा और विवेक होता, तो वे ऊपरवाले की पूछताछ और निगरानी को समझने में सक्षम होते। वे दिल से ऐसा कह पाने में सक्षम होते, ‘अच्छी बात है कि ऊपरवाला पूछताछ कर रहा है। वरना, मैं तो हमेशा अपनी मर्जी से काम करता रहता, जिससे कार्य की प्रभावशीलता कम हो जाती, या मैं उसे बिगाड़ भी देता। ऊपरवाला संगति करता है और चीजों की जाँच करता है, और उसने वास्तव में असल समस्याओं को हल किया है—यह कितनी बड़ी बात है!’ यह उन्हें एक जिम्मेदार व्यक्ति के रूप में दर्शाएगा। वे डरते हैं कि अगर वे कार्य की जिम्मेदारी खुद उठाएँ, और अगर कोई गलती या दुर्घटना हो जाए और इससे परमेश्वर के घर के कार्य को कोई ऐसा नुकसान हो जाए जिसे ठीक करने का कोई रास्ता न हो, तो यह एक ऐसी जिम्मेदारी होगी जिसे वे उठा नहीं पाएँगे। क्या यह जिम्मेदारी की भावना नहीं है? (हाँ, है।) यह जिम्मेदारी की भावना है, और यह एक संकेत है कि वे निष्ठावान हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जो वाकई अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदार और वफादार हैं, वे दूसरों से पर्यवेक्षण और मार्गदर्शन स्वीकारने में खुश होते हैं ताकि अपनी कमियों की भरपाई करने और अपने कर्तव्य ठीक से निभाने में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर सकें। लेकिन जो लोग अपने कर्तव्य के प्रति वफादार नहीं हैं, वे हर स्थिति में अपनी छवि और रुतबे के बारे में सोचते हैं। जब दूसरे उनके काम की निगरानी करते हैं या उसके बारे में पूछताछ करते हैं तो उन्हें लगता है कि दूसरे उनके बारे में अच्छा नहीं सोचते या उनके लिए कोई विचार नहीं दिखाते और वे प्रतिरोध महसूस करने लगते हैं और विरोधी बन जाते हैं, सत्य स्वीकार करने का कोई भी रवैया नहीं दिखाते। इस पर आत्म-चिंतन करते हुए कि मैंने अगुआ के निरीक्षण पर कैसी प्रतिक्रिया दी थी, क्या यह मेरी निष्ठा की कमी का संकेत नहीं था? जब मैंने अगुआ को अपने काम की स्थिति के बारे में बताया तो मुझे लगा कि मैंने कुछ वास्तविक कार्य किया है और अगुआ मेरे बारे में अच्छा सोचेगी। लेकिन अप्रत्याशित रूप से अगुआ को मेरे खोज-खबर वाले कार्य में कई समस्याएँ मिलीं। और उसने बताया कि मैंने सिर्फ सतही मुद्दे देखे थे और संगति और समाधान के लिए मूल समस्याएँ नहीं समझी थीं। मुझे लगा कि अगुआ मेरे काम को नकार रही है और मैं प्रतिरोधी और असंतुष्ट महसूस करने गई। खास तौर पर जब मैंने सोचा कि कैसे अगुआ ने मेरे सहकर्मियों के सामने मेरे काम पर बारीकी से सवाल उठाए थे और मेरी समस्याएँ बताई थीं और मुझे अपमानित महसूस हुआ, तो मुझे बहुत गुस्सा आया। मैं अपने दिल में खुद को सही ठहराती रही और अपना बचाव करती रही, मैं अपनी लाज बचाने की कोशिश कर रही थी और यहाँ तक कि रूठकर नाराज भी हो गई। वाकई अगुआ का पर्यवेक्षण और मार्गदर्शन मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से करने में मदद के लिए था, जो कलीसिया के काम के लिए फायदेमंद था। लेकिन मेरे पास स्वीकारने का कोई रवैया नहीं था और यहाँ तक कि मुझे लगा कि अगुआ जानबूझकर मुझे तुच्छ समझ रही है और नीचा दिखा रही है। मैंने सिर्फ अपनी छवि और रुतबे की परवाह की थी, परमेश्वर के घर के काम पर जरा भी विचार नहीं किया था। मैं ऐसी व्यक्ति नहीं थी जो अपने कर्तव्य निर्वहन में वफादार थी। इसके अलावा मैं खासकर घमंडी और आत्म-तुष्ट थी, हमेशा सोचती थी कि मेरी जिम्मेदारी वाला काम काफी अच्छा है और उतना बुरा नहीं है जितना अगुआ ने कहा था। इसलिए मैं अगुआ के नेक इरादे वाले मार्गदर्शन और मदद के प्रति बहुत प्रतिरोधी महसूस करने लगी और उससे घृणा करने लगी, मुझमें खोजने या स्वीकारने का रवैया भी नहीं था। मैं वाकई बहुत ही आत्म-तुष्ट और अड़ियल थी, सत्य के प्रति विमुख होने का शैतानी स्वभाव प्रकट कर रही थी। मैं ऐसे में सत्य कैसे स्वीकार और प्राप्त कर सकती थी, जब मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए दूसरों का सामान्य मार्गदर्शन भी नहीं स्वीकार सकती थी? इन बातों का एहसास होने के बाद मैंने अगुआ द्वारा बताए गए मुद्दों का गहन-विश्लेषण किया और अपने टीम के सदस्यों के साथ काम पर चर्चा करते समय मैंने सचेत होकर उन समस्याओं की प्रकृति और जड़ पर विचार किया जो सामने आई थीं। फिर मैंने इन वास्तविक मुद्दों के समाधान बताए। उन्होंने कहा कि इस तरह की संगति प्रभावी थी और कुछ समस्याएँ सुलझा सकती थी। यह नतीजा देखकर मुझे खुशी हुई। कभी-कभी मेरे काम में अभी भी ऐसे क्षेत्र होते थे जिन पर मैंने पूरी तरह से विचार नहीं किया था और अगुआ उन्हें मेरे सामने लाती थी। मैंने सचेत होकर स्वीकार किया, सुधार किए और कुछ प्रवेश पाया और धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि मैं कुछ हासिल कर रही हूँ।

बाद में मुझे कई और टीमों के काम का प्रभार दिया गया। कुछ महीने बाद अगुआ ने मुझसे एक दिन काम की स्थिति के बारे में पूछा। कुछ विवरण ऐसे थे जिन्हें मैं साफ नहीं समझा सकी। अगुआ ने फिर मुझसे सख्ती से कहा, “तुम्हें इन इन टीमों की जिम्मेदारी उठाए कुछ समय हो चुका है, लेकिन तुम्हें ये विवरण भी नहीं पता। क्या यह गैर-जिम्मेदारी बरतना और वास्तविक कार्य न करना नहीं है?” अगुआ की बातें सुनकर मुझे लगा कि मेरा चेहरा शर्मिंदगी से लाल हो गया हो। भले ही मैं जानती थी कि अगुआ सच बोल रही है, फिर भी मेरे लिए इसे स्वीकारना मुश्किल था, मुझे चिंता थी कि अगुआ मेरे बारे में तुच्छ राय बना रही है और मेरे सहकर्मी मेरे बारे में क्या सोचेंगे। लेकिन फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा जो मैंने कुछ समय पहले पढ़े थे : “यदि उनमें वास्तव में थोड़ा भी अंतरात्मा और विवेक होता, तो वे ऊपरवाले की पूछताछ और निगरानी को समझने में सक्षम होते। वे दिल से ऐसा कह पाने में सक्षम होते, ‘अच्छी बात है कि ऊपरवाला पूछताछ कर रहा है। वरना, मैं तो हमेशा अपनी मर्जी से काम करता रहता, जिससे कार्य की प्रभावशीलता कम हो जाती, या मैं उसे बिगाड़ भी देता। ऊपरवाला संगति करता है और चीजों की जाँच करता है, और उसने वास्तव में असल समस्याओं को हल किया है—यह कितनी बड़ी बात है!’ यह उन्हें एक जिम्मेदार व्यक्ति के रूप में दर्शाएगा(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। जैसे-जैसे मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, मेरा हृदय धीरे-धीरे शांत होता गया। अगुआ तो कार्य के प्रति जिम्मेदारी के कारण मेरे काम के बारे में पूछताछ कर रही थी; वो तो मैं ही थी जिसने वास्तविक कार्य नहीं किया था। दूसरों की आलोचना और काट-छाँट का विरोध करने का मेरे पास क्या कारण था? मैं अपनी छवि की परवाह करती रहती थी, क्या यह अभी भी अपना बचाव करने की कोशिश नहीं थी? क्या यह अभी भी परमेश्वर के घर के कार्य के ऊपर अपनी छवि को तरजीह देना नहीं था? इसके बारे में सोचने पर मैंने देखा चूँकि मैं इन टीमों के काम के लिए जिम्मेदार थी तो मुझे काम की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी चाहिए थी। लेकिन अब जब अगुआ काम के बारे में विस्तार से सवाल कर रही थी तो यह स्पष्ट हो गया था कि मैं इन कार्यों की बारीकियाँ नहीं समझती थी और मैंने कोई वास्तविक काम नहीं किया था। फिर भी मैं अभी भी अपनी छवि बचाना चाहती थी और नहीं चाहती थी कि दूसरे मुझे बेनकाब करें या मेरी आलोचना करें। क्या यह अभी भी सत्य नहीं स्वीकारना था? इसका एहसास होने पर मुझे कुछ पछतावा हुआ और मैं अपनी समस्याएँ सुधारने के लिए अगुआ का मार्गदर्शन स्वीकारने के लिए तैयार हो गई। इसके बाद मैं टीम के काम में शामिल होने की पहल करने लगी और वाकई इसके हर पहलू की विशिष्ट परिस्थितियाँ समझने लगी। मैंने जो समस्याएँ देखीं उनके बारे में टीम के सदस्यों के साथ बात की और उन्होंने भी फौरन ये मसले सुलझाने की इच्छा व्यक्त की। काम में वास्तविक रूप से भाग लेने के जरिए मैंने बहुत कुछ हासिल किया। मैंने काम में मौजूद समस्याओं पर ध्यान से चिंतन किया और बाद में कुछ विचारों के साथ आई। इस तरह से अभ्यास करने से मुझे अधिक सहजता महसूस हुई।

इस अनुभव के माध्यम से मैंने महसूस किया कि अपने कर्तव्य निर्वहन में पर्यवेक्षण और मार्गदर्शन स्वीकारना कलीसिया के काम के लिए जिम्मेदार होने का एक रवैया है। मेरे कर्तव्य में अभी भी कई विचलन और खामियाँ हैं जिनके लिए अगुआ के पर्यवेक्षण और मार्गदर्शन की जरूरत है। सिर्फ खुद पर निर्भर रहकर मैं कई कार्य ठीक से नहीं कर सकती और कलीसिया के काम में देरी भी कर सकती हूँ। मेरे काम के लिए अगुआ का पर्यवेक्षण और मार्गदर्शन मेरे लिए चीजें मुश्किल बनाने के लिए नहीं है। इसके विपरीत वे मेरे लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए लाभदायक हैं और अपनी कमियों और खामियों पर आत्म-चिंतन करने और उन्हें जानने के लिए है। अब मैं भाई-बहनों से पर्यवेक्षण और मार्गदर्शन सही ढंग से सँभाल सकती हूँ और उन्हें स्वीकारने, आत्म-चिंतन करने और अपने विचलन सुधारने के लिए तैयार हूँ।

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26. अपने हृदय का द्वार खोलना और प्रभु की वापसी का स्वागत करना

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परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 6) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 7) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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