5. क्या “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु होना” सच में एक सद्गुण है?

पहले मैं हमेशा यही सोचती थी कि मुझे दूसरों के प्रति सहनशील और उदार होना चाहिए, उनकी भावनाओं के प्रति विचारशील होना चाहिए और उनकी कठिनाइयों को समझना चाहिए। मैं दूसरों के बजाय खुद को असुविधा में डाल देती थी, क्योंकि मुझे लगता था कि नेक चरित्र वाले उदार और सहृदय लोग ऐसा ही करते हैं। बाद में, जब मैं वीडियो निर्माण का काम देखने लगी, तो लगा कि टीम अगुआ के नाते, मुझे अच्छी मिसाल कायम कर अग्रणी भूमिका निभानी होगी। मैंने अपने लिए काफी उच्च मानक रखे थे, और सोचती थी कि मुझे टीम के अन्य सदस्यों से ज्यादा माँगें रखनी और सख्ती बरतनी नहीं चाहिए, ऐसा करना दयालुता और उदारता की बात थी। सभी को लगेगा कि मुझमें अच्छी मानवता है, मैं चीजों को समझती हूँ और उनके मन में मेरी अच्छी छवि होगी। तो मैं खुद समूह के लिए जितना हो सके उतना करती थी, और अगर दूसरों को सौंपा गया कार्य बहुत कठिन होता और वे इसे नहीं करना चाहते, तो मैं खुद ही कर लेती थी। मैं दूसरों पर दबाव न डालने की हर मुमकिन कोशिश करती थी, ताकि वे यह न कहें कि मेरी अपेक्षाएँ बहुत अधिक हैं और मैं बहुत सख्त हूँ। भले ही कभी-कभी लगता था कि मैं अपने सर बहुत काम ले लेती हूँ और यह बहुत थकाने वाला है, फिर भी अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह करके जितना हो सके उतना काम खुद ही करती थी, ताकि दूसरे मेरे बारे में खराब राय न रखें।

बाद में, कुछ नए सदस्य हमारे समूह में आए, वे काम से अनजान थे और उनमें पेशेवर कौशल का अभाव था, तो मुझे उनके बनाए सभी वीडियो पर नजर रखनी होती थी। कभी-कभी वे अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिए भी मुझे खोजते। मेरा सारा समय केवल इस काम में ही लग जाता था, पर मेरे पास इसके अलावा भी दूसरे काम थे। जल्दी ही काम का बोझ बढ़ने लगा, और मैं हर दिन काम में पूरी तरह से उलझी रहती। कभी-कभी जब वे बहुत ही बुनियादी समस्याएँ हल करने में मेरी मदद माँगते, तो मैं मन-ही-मन सोचती : “तुम लोग आपस में चर्चा करके आसानी से इस समस्या को सुलझा सकते थे, हर समस्या के हल के लिए मेरे पास आने की क्या जरूरत है?” मगर फिर मैं सोचती : “जब उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया है, और मैं उनका अनुरोध ठुकरा देती हूँ, तो इससे यही लगेगा कि मैं गैर-जिम्मेदार हूँ! आखिर, मामले पर चर्चा करने में उनका समय भी तो जाएगा। चलो छोड़ो, मैं खुद ही इससे निपटने के लिए समय निकाल लूँगी।” और फिर, मैं राजी हो जाती थी। बाद में, मुझे एहसास हुआ कि एक बहन अपने आलसीपन और जिम्मेदारी लेने के डर से अपना काम मुझ पर टाल देती थी। पहले तो मैंने उसके साथ संगति करने की सोची, मगर फिर लगा कि कहीं वो यह न सोचे कि मेरी अपेक्षाएँ बहुत अधिक हैं, तो मैंने यह विचार छोड़ दिया। कभी-कभी जब मैं देखती कि दूसरों के पास ज्यादा काम नहीं है, जबकि मुझे अनेक जरूरी बातों पर ध्यान देना होता था और मैं काम तले दब गई थी, तो मैं थोड़ा काम दूसरों को सौंप देना चाहती थी, ताकि हम समय रहते सारा काम निपटा सकें। मगर इस बारे में सोचने के बाद, मैं उनसे पूछने की हिम्मत नहीं कर पाती। मन-ही-मन सोचती : “अगर मैंने उनके काम का बोझ बढ़ा दिया, तो क्या उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि मेरी अपेक्षाएँ बहुत हैं और मैं उन्हें आराम नहीं करने देती। चलो छोड़ो, मैं खुद ही कर लूँगी।” मगर काम करते हुए मुझे लगता कि यह थोड़ा अनुचित है। खासकर जब मैं काम कर रही होती और उन्हें आराम करते देखती, तो मुझे और भी ज्यादा गुस्सा आता और काम का बोझ न उठाने को लेकर उन्हें दोष देती। उन्हें दिखता ही नहीं था कि कितना सारा काम बाकी पड़ा है। मगर मैं खुद ही बड़बड़ाती और इस डर से कुछ बोल नहीं पाती थी कि अगर मैंने उनसे कुछ कहा तो मैं खराब मानवता वाली और कठोर दिखूँगी। इसलिए, मैं चाहे कितनी भी व्यस्त होती, अधिक से अधिक काम खुद ही करने की कोशिश करती थी। कभी-कभी, जब मैं समूह की कार्ययोजना के आधार पर काम सौंपती और अगर उनकी प्रतिक्रिया ठीक होती, तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर वे नाखुश होते या शिकायत करते, तो उन्हें काम सौंपने में मुझे संकोच होता और फिर सारा काम खुद ही निपटाने के लिए रात भर काम करती रहती। वास्तव में, काम करते हुए मुझे यह सब काफी अनुचित लगता और मुझे काफी गुस्सा आता। मुझे लगता जैसे यह साफ तौर पर उनका काम था, फिर भी मुझे इसे करने में अतिरिक्त समय लगाना पड़ा और कभी-कभी मैं इतनी व्यस्त होती कि मेरे पास भक्ति के लिए भी समय नहीं होता। मगर मैंने इन शिकायतों को जाहिर करने की हिम्मत नहीं की। मैं निराशा में बस यह कहकर खुद को दिलासा देती : “उदार और विचारशील होना, दूसरों की परवाह करना और तुच्छ न बनना सबसे अच्छा है, वरना ऐसा लगेगा जैसे मेरा चरित्र ही अच्छा नहीं है।” बाद में, मेरी टीम के सभी भाई-बहनों ने कहा कि मैं बहुत जिम्मेदार हूँ, कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हूँ, और दूसरों के प्रति स्नेही और विचारशील हूँ। ऐसी प्रशंसा भरी बातें सुनकर, मुझे लगा कि भले ही मैंने कष्ट सहा है, पर सभी से इतनी अधिक प्रशंसा पाकर यह सार्थक हो गया। मगर चूँकि मैंने सिद्धांत के अनुसार काम नहीं किया, निरंतर दूसरों के आराम की परवाह की और अनुचित तरीके से काम सौंपे, काम का बोझ बढ़ने लगा और एक टीम के रूप में हमारी प्रगति धीमी हो गई। कुछ भाई-बहन आलसी और निरुत्साहित थे, और बस अपना काम पूरा करके संतुष्ट हो जाते थे। दूसरे लोग समस्याएँ होने पर परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते या सत्य सिद्धांत नहीं खोजते थे, वे अपनी समस्याओं के समाधान के लिए मुझ पर भरोसा रखना और मेरी प्रतीक्षा करना पसंद करते थे, जिसके कारण उनके कौशल में कोई निखार नहीं आया।

एक दिन, हमारा सुपरवाइजर हमारे काम की पड़ताल करने आया, तो उसने देखा कि काम उचित तरीके से सौंपा नहीं जा रहा था। उसने कहा कि कुछ काम टीम के सदस्यों को सौंपे जा सकते हैं, और मुझे अधिक समय टीम अगुआ के रूप में अपना काम करने में देना चाहिए, जिसमें कार्य की प्रगति की जाँच करना और कौशल संबंधी किसी भी समस्या को हल करना शामिल है। इस तरह, सभी लोग थोड़ी जिम्मेदारी लेकर बोझ उठा सकते हैं। मैं जानती थी उसकी बात सही है और इस तरीके से काम सौंपना लाभकारी होगा। फिर भी, मैंने सोचा कि इस तरीके से अभ्यास करना बहुत कठिन होगा, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर रास्ता दिखाने को कहा, ताकि मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्ञान हो। भक्ति के दौरान, मैंने अपनी वर्तमान दशा से संबंधित परमेश्वर के वचन खोजे। एक अंश का मुझ पर गहरा असर पड़ा : “‘उठाए गए धन को जेब में मत रखो’ और ‘दूसरों की मदद करने में खुशी पाओ’ कहावतों की तरह ही ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो’ भी उन माँगों में से एक है, जो परंपरागत संस्कृति लोगों के नैतिक आचरण के संबंध में करती है। इसी तरह, चाहे कोई व्यक्ति इस नैतिक आचरण को प्राप्त या इसका अभ्यास कर सकता हो या नहीं, फिर भी यह उनकी मानवता मापने का मानक या प्रतिमान नहीं है। हो सकता है, तुम वाकई अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम हो और खुद के लिए विशेष रूप से उच्च मानक रखते हो। हो सकता है, तुम बहुत साफ-सुथरे हो और बिना स्वार्थी हुए और बिना अपने हितों की परवाह किए हमेशा दूसरों के बारे में सोचते हो और उनके प्रति सम्मान दिखाते हो। हो सकता है, तुम विशेष रूप से उदार और निस्स्वार्थ प्रतीत होते हो, और सामाजिक उत्तरदायित्व और सामाजिक नैतिकताएँ रखते हो। हो सकता है, तुम्हारा उच्च व्यक्तित्व और गुण तुम्हारे करीबी लोगों और उनके देखने के लिए हो, जिनसे तुम मिलते और बातचीत करते हो। हो सकता है, तुम्हारा व्यवहार कभी भी दूसरों को तुम्हें दोष देने या तुम्हारी आलोचना करने का कोई कारण न दे, बल्कि अत्यधिक प्रशंसा और सराहना प्राप्त कराए। हो सकता है, लोग तुम्हें ऐसा व्यक्ति समझें, जो वाकई अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु है। लेकिन ये बाहरी व्यवहार से ज्यादा कुछ नहीं हैं। क्या तुम्हारे दिल की गहराई में मौजूद विचार और इच्छाएँ इन बाहरी व्यवहारों, इन कार्यों के अनुरूप हैं जो तुम बाहरी तौर पर जीते हो? जवाब है नहीं, वे उनके अनुरूप नहीं हैं। तुम्हारे इस तरह से कार्य कर पाने का कारण यह है कि इसके पीछे एक मकसद है। वह मकसद आखिर क्या है? क्या तुम उस मकसद का सार्वजनिक होना सहन कर सकते हो? निश्चित रूप से नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि यह मकसद ऐसी चीज है जिसका उल्लेख नहीं किया जा सकता, ऐसी चीज जो अंधकारपूर्ण और बुरी है। अब, यह मकसद अवर्णनीय और बुरा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि लोगों की मानवता उनके भ्रष्ट स्वभावों से नियंत्रित और संचालित होती है। मानवता के तमाम विचारों पर, चाहे लोग उन्हें शब्दों में व्यक्त करें या उड़ेलें, निर्विवाद रूप से उनके भ्रष्ट स्वभाव हावी होते और नियंत्रण रखते हैं और उनमें फेरबदल करते हैं। नतीजतन, लोगों के तमाम मकसद और इरादे भयावह और बुरे होते हैं। चाहे लोग अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बन पाएँ या नहीं, या वे बाहरी तौर पर इस नैतिकता को पूरी तरह से व्यक्त करें या नहीं, यह अपरिहार्य है कि इस नैतिकता का उनकी मानवता पर कोई नियंत्रण या प्रभाव नहीं होगा। तो, लोगों की मानवता को क्या नियंत्रित करता है? वे उनके भ्रष्ट स्वभाव हैं, वह उनका मानवता-सार है जो ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनो’ की नैतिकता के नीचे छिपा रहता है—यही उनकी वास्तविक प्रकृति है। किसी व्यक्ति की असली प्रकृति उसका मानवता-सार होती है। और उसके मानवता-सार में क्या-क्या शामिल होता है? इसमें मुख्य रूप से उनकी प्राथमिकताएँ, उनके अनुसरण, जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण और उनकी मूल्य-व्यवस्था, और साथ ही सत्य और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया इत्यादि शामिल रहते हैं। सिर्फ ये चीजें ही वास्तव में लोगों का मानवता-सार दर्शाती हैं। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो लोग खुद से ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु’ होने की नैतिकता पूरी करने की अपेक्षा करते हैं, वे हैसियत के प्रति आसक्त हैं। अपने भ्रष्ट स्वभाव से संचालित होने के कारण वे दूसरों की नजरों में लोगों के बीच प्रतिष्ठा, सामाजिक ख्याति और हैसियत के पीछे दौड़े बिना नहीं रह पाते। ये सभी चीजें उनकी हैसियत पाने की इच्छा से संबंधित हैं, और उनके अच्छे नैतिक आचरण की आड़ में इनके पीछे दौड़ा जाता है। और उनके ये अनुसरण कहाँ से आते हैं? वे पूरी तरह से उनके भ्रष्ट स्वभावों से आते और प्रेरित होते हैं। इसलिए, चाहे कुछ भी हो, चाहे कोई ‘अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु’ होने की नैतिकता पूरी करता हो या नहीं, और चाहे वह ऐसा पूर्णता के साथ करता हो या नहीं, यह उनका मानवता-सार बिल्कुल नहीं बदल सकता। इसका निहितार्थ यह है कि यह किसी भी तरह से जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण या उनकी मूल्य-प्रणाली नहीं बदल सकता, या तमाम लोगों, घटनाओं और चीजों पर उनके रवैये और दृष्टिकोण निर्देशित नहीं कर सकता। क्या ऐसा नहीं है? (है।) जितना ज्यादा कोई व्यक्ति अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम होता है, उतना ही वह दिखावा करने में, खुद को छिपाने में, और दूसरों को अच्छे व्यवहार और मनभावन शब्दों से गुमराह करने में बेहतर होता है, और उतना ही ज्यादा वह प्रकृति से कपटी और दुष्ट होता है। जितना ज्यादा वह इस प्रकार का व्यक्ति होता है, हैसियत और ताकत के प्रति उसका प्रेम और अनुसरण उतना ही गहरा होता जाता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (6))। मैंने देखा कि कैसे जो लोग “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु होते हैं” उनका रुतबे के प्रति गहरा जूनून होता है। वे हमेशा लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाना चाहते हैं। ऐसे लोगों में कपटी और दुष्ट प्रकृति होती है और वे पाखंडी होते हैं। इस वर्णन से मेरे दिल को वाकई चोट लगी। मैंने सोचा कि कैसे टीम अगुआ के रूप में अपने कार्यकाल में मैंने टीम का ज्यादातर काम खुद ही किया था। मैं हमेशा दूसरे लोगों की कार्य योजनाओं, उनके काम के बोझ और उनकी कठिनाइयों के बारे में सोचती रहती थी। मैं खासकर दूसरों की परवाह करती और उनके प्रति विचारशील रहती, ताकि वे कभी नाखुश न रहें। ऊपर से तो शायद मैं काफी समझदार लगती थी, मगर वास्तव में, मैं सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को मजबूत करने के लिए ऐसा करती थी। मुझे हमेशा यही चिंता रहती थी कि कहीं मैं कुछ ऐसा बोल या कर न दूँ जिससे दूसरे परेशान हो जाएँ और उनके मन में मेरी खराब छवि बन जाए। मैं दूसरों के मुकाबले अधिक बोझ उठाती थी, कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम थी, सहनशीलता, समझ और समझौता करने की क्षमता दिखाती थी, मगर इन सबके ऊपर मेरी यह सोच थी कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ, और मेरे पास दूसरों से ऊँचा आध्यात्मिक कद है। मैं उनके प्रति समझदार और सहनशील थी, और इसी कारण वे मेरे बारे में ऊँचा सोचते और मुझ पर भरोसा रखते थे। वे अपनी समस्याएँ हल करने के लिए मेरा इंतजार करते थे; वे समाधान के लिए परमेश्वर पर भरोसा रखने और सत्य खोजने में असमर्थ थे। मुझे एहसास हुआ कि शैतान ने मुझे भ्रष्ट कर दिया है और मुझमें शैतानी स्वभाव भरे हुए हैं। मैं किसी भी तरह से निःस्वार्थी और सहृदय नहीं थी! जब बहन अपना काम मुझ पर टाल देती थी, तो मैं इसे खुशी से ले लेती, पर अंदर से नाखुश रहती, और काम करते हुए, उस पर गुस्सा करती कि उसने बोझ नहीं उठाया। मेरे पास बहुत सारा काम था और काफी दबाव भी था, भले ही मैं कुछ नहीं कहती थी और दिखाती थी कि मैं स्वार्थी नहीं हूँ, पर अंदर से यही लगता कि यह अनुचित है, मैं कष्ट सहना या किसी और चीज पर विचार करना नहीं चाहती थी। काम सौंपते समय, जब एक बहन ने अपने देह-सुख का ख्याल कर बहुत अधिक काम नहीं करना चाहा, तो मैंने उसकी समस्या हल करने के लिए सत्य पर संगति नहीं की, बल्कि उसका काम खुद संभाल लिया। वास्तव में, उसके बारे में मेरी अपनी राय थी, मुझे चिढ़ हुई कि उसके आलसीपन के कारण मुझे अधिक काम करना पड़ा। इन बातों पर सोचते हुए, मुझे लगा कि दूसरों के प्रति मेरी सहनशीलता नकली थी, यह सब दिखावा मात्र था, और मैं असल में उनकी मदद करके खुश नहीं थी। मैं साफ़ तौर पर स्वार्थी थी, पर मैंने दिखाया कि मैं एकदम परोपकारी हूँ—मैं सबको धोखा दे रही थी। मेरे क्रियाकलापों के पीछे एक ही मंशा थी—मैं बाद दूसरों से प्रशंसा, सम्मान और समर्थन पाना चाहती थी। मैं कितनी पाखंडी और नकली थी! लोग सिर्फ मेरे कपटपूर्ण काम देखते थे, पर मेरे असली विचारों को नहीं समझ पाते थे। उन सभी का मानना था कि मुझमें अच्छी मानवता है और मैं बहुत सहनशील हूँ। क्या मैं उन्हें धोखा देकर छल-कपट नहीं कर रही थी? मैंने इस बारे में जितना सोचा उतना ही मुझे खुद से घृणा हुई। मैंने मुखौटा पहनकर जीवन बिताया, और न सिर्फ खुद बहुत कष्ट उठाया, बल्कि कलीसिया के काम में भी देरी की। मैं खुद के साथ दूसरों को भी नुकसान पहुँचा रही थी। मैं खुद से नफरत करने लगी और जल्द से जल्द पश्चात्ताप करके बदलना चाहती थी।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े जिनसे मुझे अपनी दशा को लेकर कुछ नया परिप्रेक्ष्य मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “जब कोई कलीसियाई अगुआ भाई-बहनों को अनमने ढंग से अपने कर्तव्य करते हुए देखता है, तो हो सकता है कि वह उन्हें नहीं डाँटे, हालाँकि उसे डाँटना चाहिए। स्पष्ट रूप से यह देखने पर भी कि परमेश्वर के घर के हितों को ठेस पहुँच रही है, वह इस बारे में कोई चिंता नहीं करता है और ना ही कोई पूछताछ करता है और वह दूसरों को जरा भी नाराज नहीं करता है। दरअसल, वह लोगों की कमजोरियों के प्रति सचमुच विचारशील नहीं है; बल्कि, उसका इरादा और लक्ष्य लोगों के दिल जीतना है। उसे पूरी तरह से मालूम है कि : ‘जब तक मैं ऐसा करता रहूँगा और किसी को नाराज नहीं करूँगा, तब तक वे यही सोचेंगे कि मैं एक अच्छा अगुआ हूँ। वे मेरे बारे में अच्छी, ऊँची राय रखेंगे। वे मुझे स्वीकार करेंगे और मुझे पसंद करेंगे।’ वह इसकी परवाह नहीं करता है कि परमेश्वर के घर के हितों को कितनी ठेस पहुँच रही है या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को कितने बड़े-बड़े नुकसान हो रहे हैं या उनके कलीसियाई जीवन को कितनी ज्यादा बाधा पहुँच रही है, वह बस अपने शैतानी फलसफे पर कायम रहता है और किसी को नाराज नहीं करता है। उसके दिल में कभी कोई आत्म-निंदा का भाव नहीं होता है। जब वह किसी को गड़बड़ियाँ और विघ्न उत्पन्न करते देखता है, तो ज्यादा से ज्यादा वह उससे इस बारे में कुछ बात कर लेता है, मुद्दे को मामूली बनाकर पेश करता है, और फिर मामले को समाप्त कर देता है। वह सत्य पर संगति नहीं करेगा या उस व्यक्ति को समस्या का सार नहीं बताएगा, उसकी स्थिति का गहन-विश्लेषण तो और भी कम करेगा और परमेश्वर के इरादों के बारे में संगति तो कभी नहीं करेगा। एक झूठा अगुआ लोगों द्वारा बार-बार की जाने वाली गलतियों को या उनके द्वारा अक्सर प्रकट किए जाने वाले भ्रष्ट स्वभाव को उजागर या उनका गहन-विश्लेषण कभी नहीं करता है। वह किसी वास्तविक समस्या का समाधान नहीं करता है, बल्कि हमेशा लोगों के गलत अभ्यासों और भ्रष्टाचार के खुलासों में शामिल रहता है, और भले ही लोग कितने भी निराश या कमजोर क्यों ना हों, वह इस चीज को गंभीरता से नहीं लेता है। वह सिर्फ कुछ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का ही प्रचार करता है और मेल-मिलाप बनाए रखने का प्रयास करते हुए बेपरवाह तरीके से स्थिति से निपटने के लिए प्रोत्साहन के कुछ शब्द बोल देता है। फलस्वरूप, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को यह मालूम नहीं होता है कि उन्हें कैसे आत्म-चिंतन करना है और आत्म-ज्ञान कैसे प्राप्त करना है, वे जो भी भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं उनका कोई समाधान नहीं निकलता है और वे जीवन प्रवेश के बिना ही शब्दों और धर्म-सिद्धांतों, धारणाओं और कल्पनाओं के बीच जीवन जीते रहते हैं। वे अपने दिलों में भी यह मानते हैं, ‘हमारी कमजोरियों के बारे में हमारे अगुआ को परमेश्वर से भी ज्यादा समझ है। परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए हमारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है। हमें बस अपने अगुआ की अपेक्षाएँ पूरी करने की जरूरत है; अपने अगुआ के प्रति समर्पण करके हम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर रहे हैं। अगर ऐसा कोई दिन आता है जब ऊपरवाला हमारे अगुआ को बर्खास्त कर देता है तो हम अपनी आवाज उठाएँगे; अपने अगुआ को बनाए रखने और उसे बर्खास्त किए जाने से रोकने के लिए हम ऊपरवाले से बातचीत करेंगे और उसे हमारी माँगें मानने के लिए मजबूर करेंगे। इस तरह से हम अपने अगुआ के साथ उचित व्यवहार करेंगे।’ जब लोगों के दिलों में ऐसे विचार होते हैं, जब वे अपने अगुआ के साथ ऐसा रिश्ता बना लेते हैं और उनके दिलों में अपने अगुआ के लिए इस तरह की निर्भरता, ईर्ष्या और आराधना की भावना जन्म ले लेती है, तो ऐसे अगुआ में उनकी आस्था और बढ़ जाती है, और वे हमेशा परमेश्वर के वचनों में सत्य तलाशने के बजाय अगुआ के शब्दों को सुनना चाहते हैं। ऐसे अगुआ ने लोगों के दिलों में परमेश्वर की जगह लगभग ले ली है। अगर कोई अगुआ परमेश्वर के चुने हुए लोगों के साथ ऐसा रिश्ता बनाए रखने के लिए राजी है, अगर इससे उसे अपने दिल में खुशी का अहसास होता है और वह मानता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए, तो इस अगुआ और पौलुस के बीच कोई फर्क नहीं है, वह पहले से ही एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर अपने कदम रख चुका है और परमेश्वर के चुने हुए लोग पहले से ही इस मसीह-विरोधी द्वारा गुमराह हो चुके हैं और उनमें सूझ-बूझ का पूरा अभाव है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों के दिल जीतने का प्रयास करते हैं)

तुम लोग इसकी तुलना कलीसिया के कुछ मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों से कर सकते हो। कलीसिया के भीतर अपनी हैसियत और ताकत सुदृढ़ करने और अन्य सदस्यों के बीच बेहतर प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए, वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होते हैं, वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर अपने काम और परिवारों को भी त्याग सकते हैं और अपना सब-कुछ बेच भी सकते हैं। कुछ मामलों में, परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर उनके द्वारा चुकाई जाने वाली कीमतें और उठाया जाने वाला कष्ट एक औसत व्यक्ति की सहनशक्ति से भी ज्यादा होता है; अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए वे अत्यधिक आत्म-त्याग की भावना साकार करने में सक्षम रहते हैं। फिर भी, चाहे वे कितना भी कष्ट सहें या चाहे कोई भी कीमत चुकाएँ, उनमें से कोई भी परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकता या परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करता, न ही वे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करते हैं। जिस लक्ष्य का वे अनुसरण करते हैं, वह सिर्फ हैसियत, ताकत और परमेश्वर से पुरस्कार प्राप्त करना है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसका सत्य से रत्ती भर भी संबंध नहीं होता। चाहे वे अपने प्रति कितने भी सख्त और दूसरों के प्रति कितने भी सहिष्णु हों, उनका अंतिम परिणाम क्या होगा? परमेश्वर उनके बारे में क्या सोचेगा? क्या वह उनके बाहरी अच्छे व्यवहारों के आधार पर, जिन्हें वे जीते हैं, उनका परिणाम निर्धारित करेगा? निश्चित रूप से नहीं। लोग इन व्यवहारों और अभिव्यक्तियों के आधार पर दूसरों को देखते और उनका आकलन करते हैं, और चूँकि वे अन्य लोगों का सार नहीं समझ पाते, इसलिए वे अंततः उनके द्वारा धोखा खाते हैं। लेकिन परमेश्वर कभी मनुष्य से धोखा नहीं खाता। वह इसलिए लोगों के नैतिक आचरण की सराहना बिल्कुल नहीं करेगा और उन्हें याद नहीं रखेगा कि वे अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु बनने में सक्षम थे। इसके बजाय, वह उनकी महत्वाकांक्षाओं और हैसियत की खोज में उनके द्वारा अपनाए गए मार्गों के लिए उनकी निंदा करेगा(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (6))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके, मुझे अपने क्रियाकलापों की प्रकृति और परिणामों के बारे में सब स्पष्ट हो गया। अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए, मैं हमेशा दूसरों की कठिनाइयों पर विचार कर सारा काम खुद ही निपटाती थी। नतीजतन, भाई-बहन सामान्य रूप से अपने कर्तव्य पूरे नहीं कर पाए। कुछ लोगों ने देह-सुख का ख्याल कर बोझ नहीं उठाया, तो दूसरे मेरी प्रशंसा और मुझ पर भरोसा करने में लगे रहे, जब भी उन्हें कोई समस्या आती तो वे मुझे खोजते, और समस्याओं के हल के लिए परमेश्वर पर भरोसा रखकर सत्य खोजने में असमर्थ थे। उनके दिलों में परमेश्वर की कोई जगह नहीं थी। मैंने कुकर्म किया था! जब बहन अपने काम में बोझ उठाने को तैयार नहीं थी और उसने अपना काम मुझे दे दिया, तब अगर मैंने उसके साथ थोड़ी सी भी संगति की होती और उसे अपनी वर्तमान दशा की प्रकृति और परिणाम देखने देती, तो शायद वह अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह कर पाती और अपनी समस्या हल करने के लिए परमेश्वर पर भरोसा रखती। इससे उसके जीवन में प्रगति होती और उसके पेशेवर कौशल में निखार आता। मगर मैंने सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे पर विचार किया, और भ्रष्ट स्वभाव में डूबे अपने भाई-बहनों के साथ न तो संगति की, न ही कोई सलाह दी। बाहर से तो इस तरीके से काम करना लोगों की दैहिक चिंताओं के अनुरूप है, पर उनके जीवन में कोई प्रगति नहीं हुई और वे अधिक से अधिक पतनशील हो गए। निरंतर लोगों को खुश रखकर मैं उन्हें नुकसान पहुँचा रही थी! कोई भी मेरे व्यवहार को समझ नहीं पाया और मेरे द्वारा गुमराह होकर सोचने लगे कि मैं नेक और परवाह करने वाली इंसान हूँ। मैं कितनी नकली थी, मैं उन सभी को गुमराह कर रही थी! बाहर से तो लगता था कि मैं अपने कर्तव्य में भारी बोझ उठा रही हूँ, कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम हूँ। लोग मुझे नेक इंसान मानते थे, पर वास्तव में परमेश्वर मेरी निंदा करता था, क्योंकि कोई भी काम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं था, बल्कि लोगों के दिलों में अपना रुतबा बचाने के लिए था। मैंने कोई स्पष्ट बुराई नहीं की थी, मगर मैं लोगों को परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में लाने के बजाय उनकी दैहिक इच्छा के करीब और अपने सामने ले आई थी। मैं लोगों को जीतने की कोशिश करते हुए मसीह-विरोधी स्वभाव दिखा रही थी। यह एहसास होने पर मैंने देखा कि मैं बहुत खतरनाक दशा में थी। मैं परंपरागत संस्कृति के मूल्यों के आधार पर कर्तव्य निभा रही थी और मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिससे मुझे अपनी समस्याओं के बारे में अधिक स्पष्टता मिली : “किसी भी समूह को प्रस्तुत किए जाएँ, इन सभी में लोगों को आत्म-संयम—अपनी इच्छाओं और अनैतिक आचरण पर संयम—रखना और अनुकूल वैचारिक और नैतिक दृष्टिकोण रखना होता है। चाहे ये कथन मानवजाति को कितना भी प्रभावित करते हों, और चाहे वह प्रभाव सकारात्मक हो या नकारात्मक, सारगर्भित ढंग से इन तथाकथित नैतिकतावादियों का उद्देश्य, इस तरह के कथन प्रस्तुत करके लोगों के नैतिक आचरण को प्रतिबंधित और विनियमित करना था, ताकि लोगों के पास इस बात के लिए एक बुनियादी संहिता हो कि उन्हें कैसे आचरण और कार्य करना चाहिए, लोगों और चीजों को कैसे देखना चाहिए, और अपने समाज और देश को कैसे लेना चाहिए। सकारात्मक पक्ष देखें तो, नैतिक आचरण के इन कथनों के आविष्कार ने कुछ हद तक मानवजाति के नैतिक आचरण को प्रतिबंधित और विनियमित करने में एक भूमिका निभाई है। लेकिन वस्तुगत तथ्यों को देखें तो, इसके कारण लोगों ने कुछ कुटिल और दिखावटी विचार और दृष्टिकोण अपनाए हैं, जिससे परंपरागत संस्कृति से प्रभावित और उसके द्वारा शिक्षित होने वाले लोग, अधिक कपटी, अधिक चालाक, दिखावा करने में बेहतर और अपनी सोच में अधिक सीमित बन गए। परंपरागत संस्कृति के प्रभाव और सीख के कारण लोगों ने धीरे-धीरे परंपरागत संस्कृति के इन गलत विचारों और कथनों को सकारात्मक चीजों के रूप में अपना लिया है, और वे लोगों को गुमराह करने वाले इन दिग्गजों और महान हस्तियों की संतों के रूप में पूजा करते हैं। जब लोग गुमराह हो जाते हैं, तो उनके दिमाग भ्रमित, सुन्न और कुंठित हो जाते हैं। वे नहीं जानते कि सामान्य मानवता क्या होती है, या सामान्य मानवता वाले लोगों को किस चीज का अनुसरण और पालन करना चाहिए। वे नहीं जानते कि लोगों को इस दुनिया में कैसे रहना चाहिए या उन्हें अस्तित्व के किस तरह के तरीके या नियमों को अपनाना चाहिए, और यह तो वे बिल्कुल भी नहीं जानते कि मानव-अस्तित्व का उचित उद्देश्य क्या है। परंपरागत संस्कृति के प्रभाव, सीख, यहाँ तक कि अवरोध के कारण भी, परमेश्वर से आने वाली सकारात्मक चीजें, अपेक्षाएँ और नियम दबा दिए गए हैं। इस अर्थ में, परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के विभिन्न कथनों ने बहुत हद तक, लोगों की सोच को गहराई से गुमराह और प्रभावित किया है, उनके विचारों को प्रतिबंधित कर भटका दिया है, उन्हें जीवन में सही मार्ग से दूर, और परमेश्वर की अपेक्षाओं से अधिकाधिक दूर कर दिया है। इसका मतलब यह है कि तुम परंपरागत संस्कृति में नैतिक आचरण के विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों से जितनी गहराई से प्रभावित होते हो, और जितनी देर तक तुम उनके द्वारा शिक्षित होते हो, उतना ही तुम अनुसरण करने योग्य विचारों, आकांक्षाओं और लक्ष्य से, और अस्तित्व के उन नियमों से दूर भटक जाते हो, जो सामान्य मानवता वाले लोगों के पास होने चाहिए, और उतना ही तुम उस मानक से दूर भटक जाते हो जिसकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। ... परमेश्वर के चुने हुए लोगों को एक तथ्य समझना चाहिए : परमेश्वर का वचन परमेश्वर का वचन है, सत्य सत्य है, और मनुष्य के शब्द मनुष्य के शब्द हैं। परोपकार, धार्मिकता, उपयुक्तता, बुद्धिमत्ता और विश्वसनीयता मनुष्य के शब्द हैं, और परंपरागत संस्कृति मनुष्य के शब्द हैं। मनुष्य के शब्द कभी सत्य नहीं होते, न ही वे कभी सत्य होंगे। यह एक तथ्य है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (8))। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि परंपरागत संस्कृति हममें जो दृष्टिकोण और विचार डालती है वे हास्यास्पद और बेतुके होते हैं, वे न तो सामान्य लोगों के जमीर और विवेक के अनुरूप होते हैं, और न ही मनुष्य से सामान्य मानवता जीने की परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप होते हैं। परंपरागत संस्कृति के विचार, “अपने प्रति सख्त और दूसरों के प्रति सहिष्णु होना” से गुमराह और प्रभावित होकर, मैं भ्रमित हो गई, चीजों को गलत समझने लगी और विवेकहीन बन गई। मैंने सोचा कि केवल लोगों के प्रति सहनशील होकर, हर तरह से उनके प्रति विचारशील होकर और दूसरों के बजाय खुद को तकलीफ देकर ही, मैं नेक चरित्र, खुलापन और सहृदयता दिखा पाऊँगी। मुझे किसी से बहुत अधिक माँग या बहुत सख्ती नहीं करनी चाहिए, और तुच्छ होने से बचना चाहिए। ये विचार मेरे मन में गहरी जड़ें जमा चुके थे, मेरी हर कथनी-करनी को नियंत्रित करते थे और दूसरों के साथ मेरे मेलजोल पर असर डालते थे। इस बारे में सोचकर, मैंने देखा कि दूसरों के प्रति मेरी सहनशीलता सामान्य मानवता की उदारता नहीं थी, बल्कि ऐसी उदारता थी जिसमें सिद्धांतों या मानकों का अभाव था। टीम अगुआ के रूप में, मुझे हमारी समग्र कार्य योजना और हर सदस्य के कौशल के आधार पर उचित रूप से काम सौंपने चाहिए थे, ताकि हर कोई अपनी भूमिका निभा सके, सभी को अपने कर्तव्य के अभ्यास का अवसर मिले, और वे अपना कौशल दिखा सकें। केवल इसी तरह से हमारी टीम के काम में सामान्य प्रगति और सुधार होता। जिन लोगों में कौशल की कमी और औसत दर्जे की काबिलियत थी और जो ज्ञान बढ़ाने में धीमे थे, उनके वास्तविक आध्यात्मिक कद और उनकी कठिनाइयों के आधार पर कार्य सौंपे जाने चाहिए। उन्हें आसान काम सौंपे जाने चाहिए ताकि वे काम के साथ तालमेल बिठा सकें, उन्हें ऐसे काम करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए जो वे करने में सक्षम नहीं हैं। जिन लोगों में अच्छी काबिलियत, नई चीजें सीखने की क्षमता और सिद्धांतों और कौशल की समझ है, उन्हें यथोचित रूप से थोड़े ज्यादा काम दिए जा सकते हैं, उनसे अपने काम में अधिक ध्यान देने और अधिक बोझ उठाने को कहा जा सकता है—इससे उनकी प्रगति की रफ्तार बढ़ेगी। अगर वे कठिनाइयों का सामना करते हैं और थोड़े तनावग्रस्त होते हैं, तो यह सामान्य बात है, और यह उन्हें परमेश्वर पर अधिक भरोसा रखने, अपने कौशल को निखारने और तेजी से प्रगति करने को प्रेरित करेगा। यही नहीं, अगर कोई काम सौंपे जाने के बाद परेशान है, तो मैं उससे बातचीत करके देख सकती हूँ कि उसकी कठिनाइयां असली हैं या वह बस आराम चाहता है और कष्ट सहना और कीमत चुकाना नहीं चाहता। फिर मैं वास्तविक हालात के आधार पर चीजों को संभाल सकती हूँ—यह सत्य सिद्धांतों के आधार पर काम करना होगा। वास्तव में, मैं ज्यादातर टीम के सदस्यों के वास्तविक हालात के आधार पर उचित रूप से, काम सौंपती थी। मैं ज्यादा माँगें नहीं करती थी, उतनी सख्त नहीं थी, और मेरी टीम के सदस्य अपने कामों को संभाल सकते थे। कभी-कभार जब वे आलस दिखाते, कीमत चुकाना और सफलता के लिए प्रयास करना नहीं चाहते, या जिम्मेदारी लेने से डरते थे और अपना काम दूसरों को सौंप देते थे, तो मुझे उनके साथ संगति करके उन्हें सलाह देनी चाहिए थी, ताकि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव से अवगत हो सकें। अधिक गंभीर मामलों में मुझे उनकी काट-छाँट करनी चाहिए और निरंतर उन्हें खुश रखना और बिना किसी मानक के उनके व्यवहार को सहन करना नहीं चाहिए। सिर्फ ऐसा करके ही मैं हमारी टीम के कार्य की सामान्य प्रगति बनाए रख सकती हूँ। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के अन्य दो अंश पढ़े जिनसे मुझे अभ्यास के मार्ग को लेकर अधिक स्पष्टता मिली। “अपने हर कार्य में तुम्हें यह जाँचना चाहिए कि क्या तुम्हारे इरादे सही हैं। यदि तुम परमेश्वर की माँगों के अनुसार कार्य कर सकते हो, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है। यह न्यूनतम मापदंड है। अपने इरादों पर ग़ौर करो, और अगर तुम यह पाओ कि गलत इरादे पैदा हो गए हैं, तो उनके खिलाफ विद्रोह करो और परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य करो; इस तरह तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाओगे जो परमेश्वर के समक्ष सही है, जो बदले में दर्शाएगा कि परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध सामान्य है, और तुम जो कुछ करते हो वह परमेश्वर के लिए है, न कि तुम्हारे अपने लिए। तुम जो कुछ भी करते या कहते हो, उसमें अपने हृदय को सही बनाने और अपने कार्यों में नेक होने में सक्षम बनो, और अपनी भावनाओं से संचालित मत होओ, न अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करो। ये वे सिद्धांत हैं, जिनके अनुसार परमेश्वर के विश्वासियों को आचरण करना चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध कैसा है?)। “तो वे सत्य सिद्धांत क्या हैं जिनकी परमेश्वर माँग करता है? यह कि जब दूसरे कमजोर और नकारात्मक हों तो लोग उन्हें समझें, लोग दूसरों के दर्द और कठिनाइयों के प्रति विचारशील बनें, और इन चीजों के बारे में पूछताछ करें, सहायता और समर्थन की पेशकश करें, उनकी समस्याएँ हल करने में उनकी मदद करने के लिए उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाएँ, उन्हें परमेश्वर के इरादे समझने और कमजोर न बने रहने में समर्थ बनाएँ और उन्हें परमेश्वर के सामने लाएँ। क्या अभ्यास का यह तरीका सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है? इस प्रकार अभ्यास करना सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। स्वाभाविक रूप से, इस प्रकार के संबंध और भी सिद्धांतों के अनुरूप होते हैं। जब लोग जानबूझकर बाधा डालते हैं और गड़बड़ी पैदा करते हैं, या जानबूझकर अपना कर्तव्य अनमने ढंग से निभाते हैं, अगर तुम यह देखते हो और सिद्धांतों के अनुसार उन्हें इन चीजों के बारे में बताने, फटकारने, और उनकी मदद करने में सक्षम हो, तो यह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम आँखें मूँद लेते हो, या उनके व्यवहार की अनदेखी करते हो और उनके दोष ढकते हो, यहाँ तक कि उनसे अच्छी-अच्छी बातें कहते, उनकी प्रशंसा और वाहवाही करते हो, लोगों के साथ बातचीत करने, मुद्दों से निपटने और समस्याएँ सँभालने के ऐसे तरीके स्पष्ट रूप से सत्य सिद्धांतों के विपरीत हैं, और उनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार नहीं है। तो, लोगों के साथ बातचीत करने और मुद्दे सँभालने के ये तरीके स्पष्ट रूप से अनुचित हैं, और अगर परमेश्वर के वचनों के अनुसार उनका गहन विश्लेषण और पहचान न की जाए, तो वास्तव में इसका पता लगाना आसान नहीं है(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (14))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मुझे और स्पष्टता मिली। एक विश्वासी के नाते, कुछ बोलते और करते हुए मेरे दिल में परमेश्वर होना चाहिए, और मुझे अपने दिल को पड़ताल के लिए परमेश्वर के समक्ष रखना चाहिए। मुझे कम से कम यह तो करना ही चाहिए। यही नहीं, दूसरों के साथ मेलजोल और अपने कर्तव्य में भागीदारी करते हुए, मुझे नेक इरादे रखने चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए, ऐसा कुछ भी करने से बचना चाहिए जिससे परमेश्वर के घर के हितों को क्षति पहुँचे और सदैव कलीसिया के कार्य पर विचार करना चाहिए। मुझे उन लोगों की मदद और सहयोग करना चाहिए जो निराश और कमजोर हैं, जो कठिनाई का सामना कर रहे हैं, और उनके साथ संगति करके मदद और सलाह देनी चाहिए या भ्रष्ट स्वभाव दिखाने वाले या जानबूझकर कलीसिया के कार्य में गड़बड़ या बाधा डालने वाले किसी भी व्यक्ति को उजागर करना चाहिए, न कि सब कुछ सहते हुए मूर्खतापूर्ण ढंग से सद्भावना दिखानी चाहिए। कार्य सौंपते हुए, मुझे अपनी प्रतिष्ठा बचाना और केवल लोगों के दैहिक सुख और भावनाओं का ख्याल नहीं रखना चाहिए। मुझे सिद्धांतों और टीम की वास्तविक स्थिति के आधार पर उचित रूप से कार्य सौंपना होगा, ताकि काम में किसी तरह की देरी न हो। अभ्यास करने का यह तरीका कलीसिया के कार्य और सभी सदस्यों के लिए लाभकारी होगा। उसके बाद, भाई-बहनों के साथ मेलजोल करते हुए, मैंने ईमानदार रहने का अभ्यास किया, जो असल में महसूस होता वही कहती और कोई समस्या होने पर लोगों के साथ बातचीत करती। काम सौंपते हुए, मैं लोगों के वास्तविक हालात के आधार पर काम सौंपती, ताकि हर कोई अपनी भूमिका निभा सके। मैं सदस्यों को अपेक्षाकृत आसान समस्याएँ संभालने को देती और जब वे उन्हें हल नहीं कर पाते, तभी मैं उसमें शामिल होती। जब लोग अपने काम से नाखुश होते और अधिक कीमत नहीं चुकाना चाहते, तो मैं परमेश्वर के इरादे के बारे में उनसे संगति करती, उन्हें चिंतन करके अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने और अनुचित रवैये को सुधारने देती। जब मेरे पास संभालने की क्षमता से अधिक काम होते या मैं समस्याओं का सामना करती, तो उचित तरीके से काम सौंपने के तरीके पर लोगों से विचार-विमर्श करती ताकि देरी न हो और सारा काम अपने सर न लेती। हर कोई सक्रियता से काम में अपनी भूमिका निभाने में सक्षम था, अपने कर्तव्य में अधिक उत्साही था, और हमारे काम की प्रगति में भी सुधार हुआ। मुझे बहुत सुकून महसूस हुआ। कभी-कभार मैं अभी भी भ्रष्टता दिखाती हूँ, मगर अब सूझ-बूझ के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने में सक्षम हूँ। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से ही मैं चीजों को बदल पाई। परमेश्वर का धन्यवाद!

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