4. मैं वाक्पटु न होने के कारण हीन महसूस नहीं करती
छोटी उम्र से ही मैं थोड़ी अंतर्मुखी थी और अपनी बात ठीक से नहीं रख पाती थी। अजनबियों से बात करते समय मुझे बोलने की हिम्मत नहीं होती थी और जब मैं बहुत से लोगों के बीच होती थी तो मुझे बहुत घबराहट होती थी। मुझे हमेशा डर रहता था कि मैं खुद को ठीक से व्यक्त नहीं कर पाऊँगी और मेरा मजाक बन जाएगा। इस वजह से, मैं अक्सर दूसरों से हीन महसूस करती थी। अगस्त 2023 में कलीसिया ने मुझे नए लोगों के सिंचन में लगाया। इस काम के लिए मुझे अक्सर नए लोगों के साथ सभा करनी पड़ती थी और मुझे अन्य सिंचन करने वालों से भी संवाद करना था। ऐसी स्थितियों में अक्सर मैं घबरा जाती थी और डरती थी कि जब संगति करने की मेरी बारी आएगी तो मैं स्पष्टता से नहीं बोल पाऊँगी, और फिर भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे?
एक बार मेरी साझेदार बहन स्टेसी मुझे नए लोगों के साथ सभा करने के लिए ले गई। वहाँ 40-50 लोग थे। जब मैंने यह दृश्य देखा तो मैं घबरा गई। वहाँ बहुत ज्यादा लोग थे। इस भीड़ के सामने खराब तरीके से संगति करना कितना शर्मनाक होगा? वे सोचेंगे, “अगर तुम ऐसी हो, ठीक से बोल भी नहीं पा रही हो तो क्या तुम सचमुच हमारा सिंचन कर सकती हो?” क्या वे मुझे नीची नजरों से नहीं देखेंगे? यह सोचकर मैं शांत नहीं रह पाई और मेरा दिल बहुत बेचैन हो गया। खासकर जब मैंने देखा कि अपनी संगति में स्टेसी की सोच स्पष्ट थी और सामग्री व्यावहारिक थी तो मुझे बहुत जलन हुई। मैं बहुत चिंतित भी थी और मुझे डर था कि इतने सारे लोगों के बीच जैसे ही मैं घबराऊँगी, मेरा दिमाग बंद हो जाएगा और मैं कुछ भी संगति नहीं कर पाऊँगी। यह कितना शर्मनाक होगा? नए लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? यह सोचते हुए मैंने तय किया कि मैं नहीं बोलूँगी। मैं सिर्फ ऑडिटर की भूमिका निभाऊँगी! इसलिए पूरी सभा में मैंने एक भी शब्द नहीं बोला। जब मैं अन्य सिंचन कर्ताओं के साथ सभा में गई, तो वहां भी मैंने यही किया। यह देखकर कि वे सभी अपनी बात कहने में अपेक्षाकृत अच्छे हैं, मुझे ईर्ष्या होने लगी। मैंने सोचा मैं अपनी बात ठीक से कह नहीं पाती और लोगों के सामने प्रस्तुत करने लायक नहीं है, मेरा आत्म-विश्वास और भी कम हो गया। मैं बहुत उदास थी और सोच रही थी, “हम सभी सिंचन का काम कर रहे हैं तो हमारे बीच इतना बड़ा अंतर कैसे हो सकता है? मैं कभी कुछ नहीं बोलती; क्या वे ऐसा नहीं सोचेंगे कि मैं जरा भी संगति नहीं कर पाती और बेहद निराशाजनक हूँ?” मैं कुछ नकारात्मक थी बल्कि यह भी सोचा, “जब मुझे सिंचन कार्य में लगाया गया था तो क्या यह गलती नहीं थी? यह काम करने के लिए उस व्यक्ति को सत्य पर संगति करनी आनी चाहिए और अपनी बात अच्छे से व्यक्त करना आना चाहिए। मैं अपनी बात कहने में कुशल नहीं हूँ और मुझे लगता है कि मैं यह काम नहीं कर पाऊँगी।” लेकिन फिर मैंने सोचा कि कोई किस अवस्था में कौन सा कर्तव्य करता है, इसका निर्धारण परमेश्वर द्वारा किया जाता है और मैं उसके श्रमसाध्य इरादे के अयोग्य नहीं होना चाहती थी। लेकिन मुझे भविष्य में अक्सर कई लोगों के सामने बोलना पड़ेगा; मुझे क्या करना चाहिए? उन दिनों मैं बहुत परेशान चल रही थी और इस मनोदशा से खुद को निकाल नहीं पा रही थी।
एक दिन मैंने अपनी अवस्था के बारे में एक बहन से बात की और उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ने को कहा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर अपने जीवन में तुम अक्सर दोषारोपण करने की भावना रखते हो, अगर तुम्हारे हृदय को सुकून नहीं मिलता, अगर तुम शांति या आनंद से रहित हो, और अक्सर सभी प्रकार की चीजों के बारे में चिंता और घबराहट से घिरे रहते हो, तो यह क्या प्रदर्शित करता है? केवल यह कि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते, परमेश्वर के प्रति अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रहते। जब तुम शैतान के स्वभाव के बीच जीते हो, तो तुम्हारे अक्सर सत्य का अभ्यास करने में विफल होने, सत्य से विश्वासघात करने, स्वार्थी और नीच होने की संभावना है; तुम केवल अपनी छवि, अपना नाम और हैसियत, और अपने हित कायम रखते हो। हमेशा अपने लिए जीना तुम्हें बहुत दर्द देता है। तुम इतनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, उलझावों, बेड़ियों, गलतफहमियों और झंझटों में जकड़े हुए हो कि तुम्हें लेशमात्र भी शांति या आनंद नहीं मिलता। भ्रष्ट देह के लिए जीने का मतलब है अत्यधिक कष्ट उठाना। सत्य का अनुसरण करने वाले लोग अलग होते हैं। वे सत्य को जितना अधिक समझते हैं, उतने ही अधिक स्वतंत्र और मुक्त होते जाते हैं; वे सत्य का जितना अधिक अभ्यास करते हैं, उतने ही अधिक शांति और आनंद से भर उठते हैं। जब वे सत्य को हासिल कर लेंगे तो पूरी तरह प्रकाश में रहेंगे, परमेश्वर के आशीष का आनंद लेंगे, और उन्हें कोई कष्ट नहीं होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी वास्तविक अवस्था को उजागर कर दिया और मुझे समझ आ गया कि इस दौरान मैं इतनी पीड़ा में क्यों थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं हमेशा घमंड और अभिमान की अवस्था में रहती थी और सत्य का अभ्यास नहीं करती थी। चाहे मैं नए लोगों के साथ सभा करती या सिंचन कर्ताओं से संवाद करती, मैं खुद को सही मायने में व्यक्त करने की हिम्मत नहीं कर पाती थी और हमेशा डरती थी कि अगर मैं खराब तरीके से संगति करूँगी तो दूसरे लोग मुझे नीची नजरों से देखेंगे। मैं हर वक्त सोचती रहती थी और अपने घमंड और अभिमान को लेकर बेहद चिंतित रहती थी और मैं बस अपने अभिमान और हितों के बारे में सोचती थी। मैं सिर्फ इसलिए असहनीय दर्द में थी क्योंकि मैंने सारा दिन अपने भ्रष्ट स्वभाव में बिताया था। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे अपनी समस्या के बारे में कुछ समझ मिली।
कुछ दिनों बाद, पर्यवेक्षक ने कहा कि उसके बाद हम बारी-बारी से सिंचन करने वालों के बीच संचार की अगुवाई नेतृत्व करेंगे। ये शब्द सुनकर मैं फिर घबरा गई और सोचने लगी, “अब मैं उन भाई-बहनों का सामना कर रही हूँ जो मेरे जैसा ही काम करते हैं। कुल मिलाकर 11 हैं। दर्शन के बारे में सत्यों पर मेरी संगति पहले ही उनकी तरह अच्छी नहीं है और अब मैं सभाओं की भी प्रभारी बनूँगी। खुद को अभिव्यक्त न कर पाने के कारण अगर मैं संगति के समय घबरा जाऊँ और हकलाऊँ और अटक-अटक कर बोलूँ और मेरी सोच अस्पष्ट हो तो हर कोई मेरे बारे में क्या सोचेगा?” कुछ दिनों बाद, एक सभा वाले दिन पर्यवेक्षक ने मुझे बुलाया और हिस्सा लेने के लिए कहा। भले ही मैं सभा की अगुआई नहीं कर रही थी, फिर भी मैं अंदर ही अंदर संघर्ष कर रही थी। मुझे डर था कि अगर मैं गई और मुझे संगति करने के लिए कहा गया तो मैं कुछ भी नहीं बोल पाऊँगी और यह सबसे बड़ा अपमान होगा। इसलिए मुझमें हिस्सा लेने का साहस नहीं था। उसके बाद कई दिनों तक मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे दिल पर एक भारी बोझ है और मैं सांस नहीं ले पा रही हूँ। भले ही मैंने उस दिन तो टाल दिया था, क्या मैं हमेशा टालती रह पाऊँगी? मैंने सोचा कि शायद मैं सिंचन के काम के लिए वास्तव में उपयुक्त नहीं हूँ, लेकिन जब मैंने हार मानने के बारे में सोचा तो मैंने खुद को धिक्कारा और महसूस किया कि मैं परमेश्वर की ऋणी हूँ। जब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, तभी मेरी अवस्था बदली। परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग बचपन से ही काफी अंतर्मुखी होते हैं; वे बात करना पसंद नहीं करते हैं और दूसरों से मेलजोल रखने में उन्हें दिक्कतें आती हैं। यहाँ तक कि तीस या चालीस वर्ष के वयस्क हो जाने के बाद भी वे इस व्यक्तित्व से उबर नहीं पाते हैं : वे न तो बात करने में कुशल होते हैं, न ही उन्हें भाषा का प्रभावी ढंग से उपयोग करना आता है और न ही वे दूसरों के साथ मेलजोल रखने में अच्छे होते हैं। चूँकि उनके व्यक्तित्व का यह गुण उनके कार्य को कुछ हद तक सीमित और बाधित करता है, अगुआ बनने के बाद उन्हें अक्सर इसके कारण तनाव और हताशा होती है जिससे वे बहुत बेबस महसूस करते हैं। अंतर्मुखी होना और बात करना पसंद नहीं करना सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं। चूँकि ये सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं, तो क्या उन्हें परमेश्वर के प्रति अपराध माना जाता है? नहीं, ये अपराध नहीं हैं और परमेश्वर उनके साथ सही तरह से व्यवहार करेगा। चाहे तुम्हारी समस्याएँ, दोष या खामियाँ कुछ भी हों, इनमें से कोई भी चीज परमेश्वर की नजर में मुद्दा नहीं है। परमेश्वर देखता है कि तुम किस तरह से सत्य की तलाश करते हो, किस तरह से सत्य का अभ्यास करते हो, किस तरह से सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो और सामान्य मानवता की अंतर्निहित स्थितियों के तहत परमेश्वर के मार्ग पर चलते हो—परमेश्वर इन्हीं चीजों को देखता है। इसलिए, सत्य सिद्धांतों का जिक्र करने वाले मामलों में काबिलियत, सहज-ज्ञान, व्यक्तित्व, आदतें और सामान्य मानवता के जीवन जीने के तरीके जैसी बुनियादी स्थितियों को अपने आप पर प्रतिबंध मत लगाने दो। यकीनन, इन बुनियादी स्थितियों पर काबू पाने का प्रयास करने में अपनी ताकत और समय भी मत लगाओ और न ही इन्हें बदलने का प्रयास करो। ... तुम्हारा मूल व्यक्तित्व जो भी रहा है, वही तुम्हारा व्यक्तित्व बना रहता है। उद्धार प्राप्त करने के लिए अपने व्यक्तित्व को बदलने का प्रयास मत करो; यह एक भ्रामक विचार है—तुम्हारा जो भी व्यक्तित्व है, वह एक वस्तुनिष्ठ तथ्य है जिसे तुम नहीं बदल सकते। इसके वस्तुनिष्ठ कारणों के लिहाज से, परमेश्वर अपने कार्य में जो परिणाम प्राप्त करना चाहता है उसका तुम्हारे व्यक्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है। तुम उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, यह भी तुम्हारे व्यक्तित्व से संबंधित नहीं है। इसके अलावा, तुम सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति हो या नहीं और तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है या नहीं, इसका भी तुम्हारे व्यक्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, इस कारण से अपने व्यक्तित्व को बदलने का प्रयास मत करो कि तुम कुछ विशेष कर्तव्य कर रहे हो या कार्य की किसी विशेष मद के पर्यवेक्षक के रूप में सेवा कर रहे हो—यह एक गलत विचार है। तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हारा व्यक्तित्व या जन्मजात स्थितियाँ चाहे कुछ भी हों, तुम्हें सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और उनका अभ्यास करना चाहिए। अंत में, परमेश्वर यह आकलन नहीं करता है कि तुम उसके मार्ग पर चलते हो या नहीं या तुम अपने व्यक्तित्व के आधार पर उद्धार प्राप्त कर सकते हो या नहीं, वह इस आधार पर भी आकलन नहीं करता है कि तुम्हारे पास कौन-सी जन्मजात काबिलियत, कौशल, क्षमताएँ, गुण या प्रतिभाएँ हैं और यकीनन वह यह भी नहीं देखता है कि तुमने अपनी दैहिक सहज प्रवृत्तियों और जरूरतों को कितना सीमित किया है। इसके बजाय परमेश्वर यह देखता है कि उसका अनुसरण करते हुए और अपना कर्तव्य निर्वहन करते हुए क्या तुम उसके वचनों का अभ्यास और अनुभव कर रहे हो, क्या तुममें सत्य का अनुसरण करने की इच्छा और संकल्प है और अंत में, क्या तुम सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर के मार्ग पर चलने में सफल हुए हो। परमेश्वर यही देखता है। क्या तुम इसे समझते हो? (हाँ, मैं समझता हूँ।)” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुई और मुझे थोड़ी राहत मिली। मैं समझ गई कि परमेश्वर लोगों की प्रवृत्ति और व्यक्तित्व को नहीं बदलना चाहता, बल्कि उनके भ्रष्ट स्वभावों को बदलना चाहता है। व्यक्तित्व दोष सामान्य मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनकी परमेश्वर निंदा नहीं करता। मेरा हमेशा एक निश्चित विचार रहा था; मुझे लगता था कि मैं अंतर्मुखी हूँ और खुद को व्यक्त करने में बुरी हूँ और मैं सिंचन के कामों के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। जब भी मैं ऐसे बहिर्मुखी लोगों से मिलती थी, जो अपनी बात को अच्छी तरह से रखते थे तो मुझे लगता था कि मैं बेबस हूँ और मुझे हमेशा डर रहता था कि अगर मैंने खुद को खराब तरीके से व्यक्त किया तो लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मुझे हीन भावना महसूस होती थी और शर्म आती थी, यहाँ तक लगता था कि मैं यह काम नहीं कर सकती थी। फिर पता चला कि यह मेरा विकृत नजरिया था। यह सोचते हुए कि जब मैंने अतीत में अन्य कर्तव्य निभाए थे तो उस समय मैंने परमेश्वर के वचनों पर मनन करने का परिश्रमपूर्वक प्रयास किया था और जब मैंने अपना कर्तव्य पूरी लगन से निभाया तो कुछ परिणाम पाए। सभा और संगति करते समय मुझे कुछ प्रबुद्धता और रोशनी भी मिली। भले ही मैं दूसरों की तरह खुद को व्यक्त नहीं कर सकती थी, ऐसा भी नहीं था कि मैं कुछ भी स्पष्टता से बोल नहीं सकती थी। वास्तव में परमेश्वर ने मुझे जो दिया था, वह काफी था। बात सिर्फ इतनी थी कि मैं घमंडी और अभिमानी थी और डरती थी कि अगर मैंने खराब संगति की तो मेरा मजाक बन जाएगा। मैंने हमेशा अपने अंतर्मुखी होने और ठीक से खुद को व्यक्त न कर पाने को बहाने की तरह इस्तेमाल किया और यह नहीं सोचा कि मुझे अपने कर्तव्य में इन मुश्किलाें को कैसे सुलझाना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव पर विचार करना तो दूर की बात है। मैं अपने घमंड और अभिमान में रहती थी और इससे बाहर निकलने में असमर्थ थी। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि समस्याएँ सुलझाने का मेरा तरीका गलत है और मुझे महज इसलिए हमेशा हीन और नकारात्मक महसूस नहीं करना चाहिए क्योंकि मैं अंतर्मुखी हूँ और खुद को व्यक्त करने में अच्छी नहीं हूँ, क्योंकि किसी का भी व्यक्तित्व परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया जाता है और उसे बदला नहीं जा सकता और यह भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। मैं सिर्फ इतना कर सकती थी कि सत्य का अनुसरण करूँ और अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करूँ और अब घमंड और अभिमान से बेबस न रहूँ। इस तरह, मैं तनावमुक्त और आजाद हो जाऊँगी। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास किया और अपने व्यक्तित्व के दोषों को स्वीकार किया और उनका सामना किया। जिन क्षेत्रों में मैं कार्य करने में सक्षम थी, मैंने कार्रवाई करने की पूरी कोशिश की और जिन क्षेत्रों में सक्षम नहीं थी, वहाँ मैंने उन बहनों के साथ काम किया, जिनके साथ मैं भागीदार थी और उनसे अपनी कमजोरियाँ दूर करना सीखा। अब मैं खुद को इसलिए हीन और दुखी महसूस नहीं करती थी क्योंकि मैं अंतर्मुखी थी और खुद को व्यक्त करने में अच्छी नहीं थी।
बाद में, जब मैंने एक बहन से अपनी अवस्था के बारे में बात की तो उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ने को कहा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी लोग जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार उनकी अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा ही उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरे रुतबे का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे अच्छी प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरा रुतबा बढ़ेगा?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; इसलिए वे चीजों को इस तरह से देखते हैं। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर ने उजागर किया कि मसीह विरोधियों को सबसे ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की परवाह होती है। वे प्रतिष्ठा और रुतबे को अपने जीवन से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मेरी भी यही अवस्था थी। वास्तव में, जब मैं नए लोगों के साथ सभा करती थी तो मुझे बस इतना करना चाहिए था कि मैं परमेश्वर के वचनों पर ध्यानपूर्वक विचार करूँ और उन हिस्सों पर संगति करूँ जिन्हें मैं समझ सकती थी। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। जब मैंने नए लोगों को देखा तो मैं परमेश्वर के वचनों पर विचार करने या नए लोगों की समस्याएँ सुलझाने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रही थी, बल्कि इस बात पर ध्यान दे रही थी कि मैं कैसे संगति करूँ ताकि मैं उनके दिलों में अपनी अच्छी छवि बना सकूँ। जब मैंने सोचा कि अगर मैं खुद को व्यक्त करूँ और खराब तरीके से संगति करूँ तो दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे, तो मेरा हृदय बेबस हो गया और मैं संगति की हिम्मत नहीं कर पाई। जब मैंने सभा की और सिंचन कर्ताओं के साथ संवाद किया, तब भी ऐसा ही हुआ। जब मैंने देखा कि वे सभी मुझसे बेहतर तरीके से अपनी बात कह रहे है, मैंने अपनी कमजोरियाँ दूर करने के लिए उनसे सीखने और संवाद करने के बारे में नहीं सोचा, बल्कि मैंने सोचा कि जब मैं अपनी बात रखूँगी और खराब तरीके से संगति करूँगी तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। जब मैंने कुछ नहीं कहा तो भी मुझे चिंता हुई कि वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। जब मुझे घमंड और अभिमान की बेड़ियों ने कुछ हद तक जकड़ा हुआ था तो मैंने मामलों को सुलझाने के लिए तुरंत सत्य नहीं खोजा, बल्कि मुझे इस बात का डर था कि लोग मेरी सच्चाई जान लेंगे। लोग मुझे निकम्मा कहते, इससे बेहतर होता कि मैं यह काम ही न करूँ। इस तरह कम से कम मैं अपनी बची-खुची गरिमा की रक्षा तो कर ही सकती थी। मैंने देखा कि चाहे मैं बोलती या चुप रहती या चाहे मैं लोगों के किसी भी समूह के साथ होती, मैं जहाँ भी होती केवल अपने घमंड और अभिमान के बारे में ही सोच रही होती थी। आज मैंने जो पीड़ा, नकारात्मकता और हीनता महसूस की थी, इसकी वजह मेरा घमंड और अभिमान ही थे। यह मेरी अक्षमता ही थी कि मैं लोगों के सामने अपना चेहरा नहीं दिखा पाती थी और मैं अपना काम भी छोड़ना चाहती थी क्योंकि मैं अपने अभिमान को संतुष्ट नहीं कर पाती थी। मुझे बचपन की बात याद आई जब मेरे माता-पिता अक्सर मुझसे कहते थे कि “चेहरा अनमोल है।” इस तरह के शैतानी जहर से प्रभावित होने के कारण, चाहे मैं किसी से भी बात करती थी, मैं हमेशा अच्छा प्रभाव डालना चाहती थी और चाहती थी कि अगर वे मेरे बारे में अच्छा न सोचें तो कम से कम मुझे नीचा भी न दिखाएँ। मैं स्कूल, कामकाज या अपने कर्तव्य के साथियों के साथ भी ऐसी ही थी और जब मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे की जरूरत पूरी नहीं हो पाती तो ऐसा लगता था जैसे मैंने अपना जीवन गँवा दिया हो। मैंने देखा कि मेरा स्वभाव मसीह-विरोधी जैसा है। इस बात को पहचान कर, मैं समझ गई कि परमेश्वर ने श्रमसाध्य इरादे से ही मुझे ऐसा व्यक्तित्व दिया होगा। मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद लोग शैतान के भ्रष्ट स्वभाव को अपने जीवन के सार के रूप में अपना लेते हैं; यानी वे सभी अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीने लगते हैं और उनका जीवन उनके भ्रष्ट स्वभावों द्वारा ही नियंत्रित होता है। इसके अलावा, अगर किसी के पास अच्छी या असाधारण काबिलियत है और सभी क्षेत्रों में उसकी क्षमताएँ पूरी, परिपूर्ण और त्रुटिरहित हैं, तो यह उसके भ्रष्ट स्वभावों को बढ़ावा देगा। इससे उसके भ्रष्ट स्वभाव बेलगाम तरीके से बढ़ जाएँगे जिससे वह बेकाबू हो जाएगा और फिर ज्यादा घमंडी, अड़ियल, धोखेबाज और दुष्ट बन जाएगा। सत्य स्वीकार करने में उसकी कठिनाई बढ़ जाएगी और उसके भ्रष्ट स्वभावों को हल करने का कोई तरीका नहीं होगा” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (7))। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे समझ आया कि अगर मैं स्पष्टता से बोलती, खुद को अभिव्यक्त करने में बहुत अच्छी होती और हर तरह प्रकार की स्थितियों को आसानी से नियंत्रित कर पाती, सबके ध्यान का केंद्र होती और दूसरों द्वारा सम्मान की दृष्टि से देखी जाती, तो मैं निश्चित रूप से खुद से प्रसन्न होती और खुशी से पागल हो जाती। यह केवल इसलिए है क्योंकि मैं खुद को व्यक्त करने में कुशल नहीं हूँ, मैं कठिनाइयों के बीच में परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी ओर देखने में सक्षम हूँ, साथ ही अपनी कमजोरियों और अक्षमताओं, तुच्छता और वाक्पटुता का दोष भी देख सकती हूँ और इसलिए बहुत घमंडी होने की हिम्मत नहीं करती। मैं प्रतिष्ठा और रुतबे को लेकर इतनी जुनूनी थी, फिर भी मैं खुद को अभिव्यक्त करने में असमर्थ और बुरी थी। मेरे अंदर बहुत बड़ी खामियाँ थीं, लेकिन मुझे इस बात की बहुत परवाह थी कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं। अगर मैं स्पष्ट वक्ता होती तो मैं और भी ज्यादा घमंडी हो जाती। परमेश्वर ने मुझे एक अच्छा वक्ता होने का हुनर न देकर मेरी बहुत रक्षा की!
बाद में, मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े : “सत्य का अनुसरण करना सबसे महत्वपूर्ण चीज है, चाहे तुम इसे किसी भी परिप्रेक्ष्य से देखो। तुम मानवता की खराबियों और कमियों से बच सकते हो, लेकिन सत्य का अनुसरण करने के मार्ग से कभी नहीं बच सकते। चाहे तुम्हारी मानवता कितनी भी पूर्ण या महान क्यों न हो या चाहे दूसरे लोगों की तुलना में तुममे कम खामियाँ और खराबियाँ हों और तुम्हारे पास ज्यादा शक्तियाँ हों, इससे यह प्रकट नहीं होता है कि तुम सत्य समझते हो और न ही यह सत्य की तुम्हारी तलाश की जगह ले सकता है। इसके विपरीत, अगर तुम सत्य का अनुसरण करते हो, बहुत सारा सत्य समझते हो और तुम्हें इसकी पर्याप्त रूप से गहरी और व्यावहारिक समझ है, तो इससे तुम्हारी मानवता की कई खराबियों और समस्याओं की भरपाई हो जाएगी” (वचन, खंड 7, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। “अगर तुम अपने उपलब्ध समय के दौरान जो कुछ भी सोचते हो, उसका संबंध इस बात से है कि अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कैसे किया जाए, सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए, और सत्य सिद्धांत कैसे समझे जाएँ, तो तुम अपनी समस्याएँ परमेश्वर के वचनों के अनुसार हल करने के लिए सत्य का उपयोग करना सीख जाओगे। इस प्रकार तुम स्वतंत्र रूप से जीने की क्षमता प्राप्त कर लोगे, तुम जीवन प्रवेश कर चुके होगे, और परमेश्वर का अनुसरण करने में तुम्हें किसी बड़ी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा, और धीरे-धीरे, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। यदि, अपने मन में, तुम अभी भी प्रतिष्ठा और रुतबे पर नजरें गड़ाए हो, अभी भी दिखावा करने और दूसरों से अपनी प्रशंसा करवाने में जुटे हो, तो तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं हो, और तुम गलत रास्ते पर चल रहे हो। तुम जिसका अनुसरण करते हो, वह सत्य नहीं है, न ही यह जीवन है, बल्कि वो चीजें हैं जिनसे तुम प्रेम करते हो, वह शोहरत, लाभ और रुतबा है—ऐसे में, तुम जो कुछ भी करोगे उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है, यह सब कुकर्म और श्रम करना है। अगर अपने दिल में तुम सत्य से प्रेम करते हो, हमेशा सत्य के लिए प्रयास करते हो, अगर तुम स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश करते हो, परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त करने में सक्षम हो, और परमेश्वर का भय मान सकते हो और बुराई से दूर रह सकते हो, और अगर तुम अपने हर काम में खुद पर संयम रखते हो, और परमेश्वर की जाँच-पड़ताल स्वीकारने में सक्षम हो, तो तुम्हारी दशा बेहतर होती जाएगी, और तुम ऐसे व्यक्ति होगे जो परमेश्वर के सामने रहता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अच्छे व्यवहार का यह मतलब नहीं कि व्यक्ति का स्वभाव बदल गया है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, चाहे वे खुद को कितनी भी अच्छी तरह से व्यक्त करते हों, चाहे वे कितनी भी सहजता से बात करते हों, या कितने ही लोग उनके बारे में अच्छा सोचते हों, परमेश्वर द्वारा स्वीकार नहीं किए जाएँगे। परमेश्वर यह नहीं देखता कि लोगों की कमियाँ क्या हैं, बल्कि यह देखता है कि क्या वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, उसके प्रति समर्पित हो सकते हैं और उसका भय मान सकते हैं। जब मैं नए लोगों के सिंचन का कार्य कर रही थी तो परमेश्वर का इरादा था कि मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य का अनुसरण करूँ, चाहे मैं नए लोगों का सामना करूँ या सिंचन कर्ताओं का, मुझे अपनी जिम्मेदारी निभानी है और साथ में मुझे यह भी देखना है कि मैं नए लोगों की मुश्किलों और समस्याओं का समाधान कैसे करूँ ताकि वे सच्चे मार्ग पर आधारशिला रख सकें और सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्यों को शीघ्रता से पूरा कर सकें। हालाँकि, जब मैं नए लोगों और सिंचन कर्ताओं के सामने आई, मैं हर दिन अपने अहंकार और रुतबे के बारे में सोचती थी। यह परमेश्वर के बताए उस मार्ग से बिल्कुल उलट था जिस पर सत्य का अनुसरण करने और उससे प्रेम करने वाले लोग चलते हैं। इस तरह तो मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं से और दूर होती जाऊँगी, और वह अंततः मुझे हटा देगा। तब से परमेश्वर के वचनों के अनुसार मैंने सचेत रूप से अपने कर्तव्य में अपना दिल लगाने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया और अपने भ्रष्ट स्वभाव को सुलझाने के लिए सत्य सिद्धांतों की खोज करने और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने पर ध्यान केंद्रित किया। बाद में जब हम बारी-बारी से सभाओं की जिम्मेदारी लेते थे तो मैं अब टाल-मटोल नहीं करती थी। मैं जानती थी कि सभाओं की अगुआई करके मैं खुद को बेहतर ढंग से तैयार कर सकती हूँ, अपनी कमी को पूरा कर सकती हूँ और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकती हूँ और इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मुझे आस्था और शक्ति प्रदान करे। मैं इस बात पर ध्यान नहीं दूँगी कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं; मेरे लिए इतना ही काफी होगा कि मैं उस पर पूरी तरह से स्वतंत्र हो जाऊँ जो परमेश्वर ने मुझे मूल रूप से दिया है, और जो मैं स्वयं पा सकती हूँ। जब संगति करने की मेरी बारी आई, मैंने शांति से जो कुछ भी समझा, उस पर संगति की और कुछ ऐसी बातें भी व्यक्त कीं, जिनके लिए मैं तैयार नहीं थी; मैं अब अपने आत्म-सम्मान से बेबस नहीं थी।
यह अनुभव करते हुए मैं जानती थी कि यह वाक्पटुता नहीं थी, जिसने मुझे निराशा और पीड़ा में डाला, बल्कि प्रतिष्ठा और रुतबे की मेरी खोज थी। अस्पष्ट होना और खुद को खराब तरीके से व्यक्त करना इंसानी कमजोरी है, यह कोई घातक बीमारी नहीं है। सत्य की खोज में अपना हृदय लगाना और अपना कर्तव्य निभाने में समस्याओं या कठिनाइयों का सामना करते समय सत्य सिद्धांतों की खोज करना; यह सबसे महत्वपूर्ण बात है।