83. मैं दूसरों को सब कुछ क्यों नहीं सिखाती?
जुलाई 2021 की बात है, मैं कलीसिया में वीडियो बनाने का काम कर रही थी। मैं जानती थी, यह बेहद अहम काम है, इसलिए ट्यूटोरियल देखने और जानकारी जुटाने में रोज काफी समय लगाती थी। जब कभी दूसरे लोग तकनीकी कौशल पर चर्चा करते, तो मैं गौर से सुनती फिर गहराई में जाकर विश्लेषण और खोजबीन करके इसे इस्तेमाल में लाती। परेशानी होने पर मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती थी और मदद माँगती थी। कुछ दिनों तक हाथ-पैर मारने के बाद मेरा तकनीकी हुनर काफी निखर गया। मैं नए तरीके से वीडियो बनाने और अधिक दक्षता से काम करने लगी। हर कोई मुझे सराहता और तकनीकी मुद्दों पर मेरी राय माँगने आता। मुझे लगा मैंने सच में कुछ हासिल किया है। मुझे लगने लगा कि मेरी मेहनत बेकार नहीं गई, आखिरकार मुझे इसका फल मिल रहा है।
वीडियो बनाने में मेरा अच्छा काम देखकर, सुपरवाइजर ने कहा कि मैं भाई-बहनों के साथ अपना तकनीकी हुनर और वीडियो बनाने के अनुभव साझा करूँ। यहाँ तक कि दूसरी टीमों के कुछ सदस्यों ने खास तौर पर मुझे सुनने की गुजारिश की थी। मुझे अपनी छवि बनाने के लिए बहुत खुशी हुई। लेकिन अपनी सफलता के सूत्र साझा करने के ख्याल से ही मैं चिंता में डूब गई। मैंने सोचा, “अगर मैंने अपने कौशल का खुलासा कर देती हूँ और सब इन्हें सीख जाते हैं तो धीरे-धीरे उनका काम ज्यादा असरदार होता जाएगा। उसके बाद क्या कोई मेरे पास मदद माँगने आएगा? क्या तब भी लोग मेरा सम्मान करेंगे? मुझे उन्हें हर चीज नहीं बतानी चाहिए।” लिहाजा मैंने कुछ बातें समझाईं, लेकिन कुछ बातें छिपा लीं। मैं जानती थी कि ऐसा करना ठीक नहीं है, लेकिन अपने हितों के लिए कुछ ऐसी बातें जो जबान पर ही थीं, मैंने नहीं बतायीं। बाद में एक बहन ने मुझसे कहा : “तुम्हारे कहे अनुसार बनाए वीडियो पहले से बहुत बेहतर हो गए हैं, लेकिन हम अब भी दक्ष नहीं हुए हैं। क्या कुछ ऐसा है जो तुमने हमें न सिखाया हो?” मैंने बेखटके जवाब दिया, “मैं तो उसी तरीके से बनाती हूँ। शायद तुम्हें दक्ष होने के लिए और अभ्यास की जरूरत है?” वह आगे कुछ नहीं बोली। उस समय मुझे भी थोड़ा बुरा लगा और मुझे यह एहसास हुआ कि मैं धोखेबाजी कर रही हूँ, लेकिन मैं काम में दूसरों से ज्यादा असरदार हूँ, यह ख्याल आते ही मैंने अपराध बोध की उस छोटी भावना को कुचल दिया।
कुछ समय के बाद, मैंने सबसे ज्यादा वीडियो बनाये और उनकी गुणवत्ता सबसे बेहतर थी। ये आँकड़े देखकर मैं फूली नहीं समाई, मैं यह सोचकर खुश थी कि मैंने दूसरों को अपने सारे हुनर नहीं सिखाने का फैसला किया। ऐसा न करती तो मैं सबसे आगे नहीं रहती। जब मैं बेहद आत्म-संतुष्ट थी, ठीक उसी समय सुपरवाइजर को पता लग गया कि मैंने दूसरों को सारे गुर नहीं सिखाए थे तो उसने मेरे साथ काट-छाँट की : “तुम कितनी स्वार्थी हो! तुम्हें सिर्फ अपने काम के नतीजों की पड़ी है, कलीसिया के काम के बारे में नहीं सोच रही हो। तुम सिर्फ दिखावा करना चाहती हो। अपने दम पर कितना कर लोगी? अगर ये हुनर हर कोई सीख लेता तो हमारा पूरा काम कितना अधिक सुधर सकता था।” मैं जानती थी कि इससे कलीसिया का काम सुधरेगा, लेकिन जब मैंने सोचा कि हर किसी की दक्षता बढ़ने से लोग मेरी सराहना करना बंद कर देंगे, तो मैं दुविधा से घिर गई। मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! हाल में मैं अपने हित साधने के लिए धोखेबाजी करने से बाज नहीं आई। मैं अब ऐसी भ्रष्टता भरी जिंदगी नहीं जीना चाहती। मुझे मेरी समस्या समझने और यह भ्रष्ट स्वभाव छोड़ने की राह दिखाओ।”
फिर अपने भक्ति-कार्य में मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : “अविश्वासियों में एक विशेष तरह का भ्रष्ट स्वभाव होता है। जब वे अन्य लोगों को कोई पेशेवर ज्ञान या कौशल का कुछ हिस्सा सिखाते हैं, तो वे सोचते हैं, ‘जब कोई छात्र हर वो चीज़ सीख जाएगा जो उसका गुरु जानता है, तो गुरु के हाथ से उसकी आजीविका चली जाएगी। अगर मैं दूसरों को वह सब-कुछ सिखा देता हूँ जो मैं जानता हूँ, तो फिर कोई मेरा आदर या प्रशंसा नहीं करेगा और मैं एक शिक्षक के रूप में अपनी सारी प्रतिष्ठा खो बैठूँगा। यह नहीं चलेगा। मैं उन्हें वह सब-कुछ नहीं सिखा सकता जो मैं जानता हूँ, मुझे कुछ बचाकर रखना चाहिए। मैं उन्हें जो कुछ मैं जानता हूँ उसका केवल अस्सी प्रतिशत ही सिखाऊँगा और बाकी बचाकर रखूँगा; यह दिखाने का यही एकमात्र तरीका है कि मेरे कौशल दूसरों के कौशल से श्रेष्ठ हैं।’ यह किस तरह का स्वभाव है? यह कपट है। दूसरों को सिखाते समय, उनकी सहायता करते समय या उनके साथ अपनी पढ़ी हुई कोई चीज साझा करते समय तुम लोगों को कैसा रवैया अपनाना चाहिए? (मुझे कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए और कुछ भी बचाकर नहीं रखना चाहिए।) ... अगर तुम अपने गुणों और प्रतिभाओं का संपूर्ण योगदान करते हो तो यह कलीसिया के कार्य के लिए और उन सभी के लिए फायदेमंद होंगे जो उस कर्तव्य को निभाते हैं। सभी को कुछ साधारण बातें बताकर यह मत सोचो कि तुमने काफी अच्छा किया है या फिर तुमने किसी किसी चीज को बचाकर नहीं रखा है—ऐसे नहीं चलेगा। तुम केवल वे कुछ सिद्धांत या चीजें ही सिखाते हो जिन्हें लोग शब्दशः समझ सकते हैं, लेकिन सार या महत्वपूर्ण बिंदु किसी नौसिखिए की समझ से परे होते हैं। तुम विस्तार में जाए बिना या विवरण दिए बिना, सिर्फ़ एक संक्षिप्त वर्णन देकर सोचते हो, ‘खैर, मैंने तुम्हें बता दिया है, और मैंने जानबूझकर कोई भी चीज़ छिपाकर नहीं रखी है। अगर तुम नहीं समझ पा रहे हो, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारी क्षमता बड़ी खराब है, इसलिए मुझे दोष मत दो। हमें बस यह देखना होगा कि अब परमेश्वर तुम्हें आगे कैसे ले जाता है।’ इस तरह की विवेचना में छल होता है, है कि नहीं? क्या यह स्वार्थी और घिनौना व्यवहार नहीं है? तुम लोग क्यों दूसरों को अपने दिल की हर बात और हर वो चीज़ सिखा नहीं सकते हो जो तुम समझते हो? इसकी बजाय तुम ज्ञान को क्यों रोकते हो? यह तुम्हारे इरादों और तुम्हारे स्वभाव की समस्या है। ... लोगों का सत्य का अनुसरण न करना और अविश्वासियों की तरह शैतानी स्वभावों के अनुसार जीवन जीना बहुत ही थकाऊ है। अविश्वासियों के बीच तीव्र प्रतिस्पर्धा चल रही है। किसी कौशल या पेशे के सार में महारत हासिल करना कोई आसान बात नहीं है और जब कोई इसके बारे में जान लेगा और स्वयं इसमें महारत हासिल कर लेगा तो तुम्हारी आजीविका खतरे में पड़ जाएगी। अपनी आजीविका की सुरक्षा के लिए लोगों को इस तरह से कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाता है—उन्हें हर समय सजग रहना चाहिए। जिसमें उन्हें महारत हासिल है, वही उनकी सबसे मूल्यवान मुद्रा है, यही उनकी आजीविका है, उनकी पूंजी है, उनकी जीवनधारा है और उन्हें इसमें किसी अन्य व्यक्ति को शामिल नहीं होने देना चाहिए। परन्तु तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो—यदि तुम परमेश्वर के घर में इस तरह सोचते हो और इस तरह काम करते हो तो तुममें और अविश्वासियों में कोई अंतर नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। यह अंश पढ़कर लगा कि जैसे परमेश्वर सीधे ही मेरा न्याय कर मुझे उजागर कर रहा है। मैंने देखा कि बरसों की आस्था के बावजूद मेरा जीवन स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला था। मैं बिल्कुल अविश्वासी जैसी थी, अपना वजूद बचाने के लिए शैतानी नियमों को जी रही थी, जैसे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “जब कोई छात्र हर वो चीज़ सीख जाएगा जो उसका गुरु जानता है, तो गुरु के हाथ से उसकी आजीविका चली जाएगी।” जब मैंने कुछ हुनर या खास तरकीबें सीखीं तो मैं इन्हें अपने तक सीमित रखना चाहती थी। हर किसी को इतनी आसानी से सब कुछ सिखाकर मुझे अपना ओहदा और रोजी-रोटी गँवाना मंजूर नहीं था। उस दौरान, जब मुझमें दूसरों से ज्यादा तकनीकी कौशल था और मैं ज्यादा काम करती थी, तो मैं खुद से संतुष्ट होकर अपनी सराहना का लुत्फ लेती थी। सुपरवाइजर ने मुझे अपने कौशल साझा करने के लिए कहा, लेकिन मैंने उन्हें सब कुछ नहीं बताया ताकि मैं अपना ओहदा बचाए रख सकूँ। मुझे डर था कि दूसरे सब कुछ सीख गए तो मुझसे आगे निकल जाएंगे, फिर कोई मेरी सराहना नहीं करेगा। यहाँ तक कि जब बहन ने आकर खुद आकर मुझसे बात की, तब भी मैंने उसे सब कुछ न बताकर सत्य छिपाया। मैं शैतान के इस फलसफे को जी रही थी कि “जब कोई छात्र हर वो चीज़ सीख जाएगा जो उसका गुरु जानता है, तो गुरु के हाथ से उसकी आजीविका चली जाएगी।” प्रतिष्ठा और रुतबे की खातिर मैं धोखेबाज बनी रही और चालें चलने चली, डरती थी कि अगर दूसरे मेरे हुनर में माहिर हो गए तो मैं अब से दिखावा नहीं कर पाऊँगी। न मैंने कलीसिया के कार्य की फिक्र की, न परमेश्वर के इरादे का ख्याल रखा। इस हुनर को मैंने ऐसा माना मानो ये मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाने का औजार हो। मैं स्वार्थी और घिनौनी थी, मुझमें मानवता नहीं थी! मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, सत्य का अभ्यास करने और देह के खिलाफ विद्रोह करने को राजी हुई। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “अधिकांश लोगों को जब पहली बार व्यवसाय-संबंधी ज्ञान के कुछ विशिष्ट पहलूओं से परिचित कराया जाता है, तो वे केवल इसके शाब्दिक अर्थ को समझ सकते हैं; मुख्य बिंदु और सार समझ पाने के लिए एक अवधि तक अभ्यास अपेक्षित होता है। अगर तुम पहले ही इन बारीकियों में महारत हासिल कर चुके हो, तो तुम्हें उनके बारे में दूसरों को सीधे बता देना चाहिए; उन्हें इस तरह के घुमावदार रास्ते पर जाने और टटोलने में इतना ज्यादा समय लगाने के लिए बाध्य मत करो। यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है; तुम्हें यही करना चाहिए। जिन चीजों को तुम मुख्य बातें और सार मानते हो, अगर तुम उन्हें दूसरों को बता दोगे तो तुम किसी भी चीज को बचाकर नहीं रखोगे और न ही स्वार्थी बनोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दे दिया : मुझे अपने काम से जुड़ीं सारी मुख्य तकनीकें और जानकारी अपने भाई-बहनों के साथ साझा करनी चाहिए, ताकि किसी को भी फालतू फेरे काटकर ज्यादा समय न गँवाना पड़े। फिर, उस आधार पर टिककर वे और प्रेरित होंगे और काम बेहतर होते जाएँगे। इससे कलीसिया के काम को फायदा होगा। यही नहीं, मेरे पास कुछ पेशेवर हुनर होने और काम में ठीकठाक प्रभावशाली की वजह यह नहीं थी कि मैं दूसरों से ज्यादा होशियार या धुन की पक्की थी, इसकी वजह तो परमेश्वर के अनुग्रह से मिली प्रेरणा थी। मुझे केवल अपने हितों के बारे में नहीं सोचना था, बल्कि दूसरों के साथ अपना सारा ज्ञान साझा करके अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी थी। तभी हमारा कुल काम निखर सकता है। इसलिए मैंने भाई-बहनों को वो सारे पेशेवर हुनर सिखा दिए जो मुझे आते थे और जब मैं कोई नई तरकीब खोजती तो उसे खुद ही उन्हें बताती। कुछ ही समय बाद, हमारी टीम की उत्पादकता बहुत बढ़ गई और और हममें से कुछ लोग उन कौशलों के आधार पर नवाचार करने लगे जो मैंने उन्हें सिखाए थे।
एक महीने बाद, स्टाफ बदलने के कारण, सुपरवाइजर ने टीम अगुआ कोलिन को एक नई टीम का जिम्मा सौंपा और उसकी भूमिका मुझे दे दी। मैं वाकई परमेश्वर की आभारी थी और यह काम अच्छे से करना चाहती थी। कोलिन की टीम के भाई-बहन वीडियो संपादन में नौसिखिये थे, उन्हें ज्यादा अनुभव भी नहीं था, इसलिए उसने अपनी टीम कुछ काबिल लोगों को हमारे पास सीखने भेजा। वे सभी जल्दी सीख लेते थे, जल्दी ही उन्होंने सारे हुनर अच्छे से सीख लिए और अपने काम में बेहतर होते चले गए। इसे मैं पचा नहीं पाई और सोचने लगी, “हमने सब कुछ तुम्हारे साथ साझा कर दिया है। अगर ऐसा ही चलता रहा और तुम्हारी टीम की प्रभावशीलता में सुधार होता रहा तो हमारी टीम तुमसे पिछड़ नहीं जाएगी?” इसलिए मैंने ऑनलाइन समूह से उन लोगों को हटा दिया जो सीखने आए थे। मैं दूसरी कलीसियाओं में इस्तेमाल हो रही निर्माण तकनीकों और हुनर का अध्ययन भी करने लगी। मेरी सोच यह थी कि हम जो कुछ जानते थे, उन्हें वे पहले ही सीख चुके हैं, इसलिए अगर हम कुछ नया सीखकर उन्हें न बताएँ तो वे हमसे आगे नहीं बढ़ पाएँगे। लेकिन मैं यह देखकर दंग रह गई कि उन्हें समूह से हटाने के बाद, मेरी टीम के नतीजे में सुधार नहीं आया, बल्कि हमारी उत्पादकता असल में घट गई। टीम के सदस्य नकारात्मक दशा में पहुँच गए और समस्याओं में उलझ गए मुझे भी कुछ समझ नहीं आ रहा था। मुझे न तो वीडियो बनाने के लिए आइडिया सूझ रहा था, न मैं टीम की समस्याएँ हल कर पा रही थी। मुझे एहसास हुआ कि अगर मैंने अपनी दशा नहीं बदली तो टीम के काम पर असर पड़ना तय है। मैंने प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, कुछ दिनों से मैं अपने काम में तमाम मेहनत के बावजूद बिल्कुल दिशाहीन हूँ। मुझे प्रबुद्ध करो और राह दिखाओ कि मैं खुद को समझूँ और इस उलझन से निकलूँ।”
एक दिन भक्ति-कार्य में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “जब लोग गलत स्थिति में रहते हैं और परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते या सत्य नहीं खोजते, तो पवित्र आत्मा उन्हें त्याग देगा और परमेश्वर मौजूद नहीं रहेगा। जो लोग सत्य नहीं खोजते, वे पवित्र आत्मा का कार्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं? परमेश्वर उनसे घृणा करता है, इसलिए उसका चेहरा उनसे छिपा रहता है, और पवित्र आत्मा भी उनसे छिपा रहता है। जब परमेश्वर काम पर नहीं रहता, तो तुम जैसा चाहो वैसा कर सकते हो। जब वह तुम्हें एक तरफ कर देता है, तो क्या तुम खत्म नहीं हो जाते? तुम कुछ भी हासिल नहीं कर सकोगे। अविश्वासियों को काम करने में इतनी कठिनाई क्यों होती है? क्या ऐसा नहीं है कि उनमें से हरेक अपनी बात अपने तक ही सीमित रखता है? वे अपनी बात अपने तक ही सीमित रखते हैं और कुछ भी हासिल करने में असमर्थ होते हैं—हर चीज अत्यधिक दुष्कर होती है, यहाँ तक कि सरलतम मामले भी। यह शैतान की शक्ति के अधीन रहने वाला जीवन है। अगर तुम लोग अविश्वासियों की तरह ही काम करते हो, तो तुम उनसे भिन्न कैसे हो? किसी भी प्रकार का कोई अंतर नहीं है। अगर कलीसिया में शक्ति उन लोगों के हाथ में है जिनके पास सत्य नहीं है, अगर यह उन लोगों के हाथ में है जो शैतानी स्वभाव से भरे हुए हैं, तो क्या वास्तव में शैतान ही इस शक्ति का उपयोग नहीं कर रहा होता है? यदि कलीसिया में जिन लोगों के हाथ में शक्ति है उनके सभी कार्य सत्य के विपरीत हैं तो पवित्र आत्मा का कार्य रुक जाता है, और परमेश्वर उसे शैतान को सौंप देता है। शैतान के हाथों में आने पर लोगों के बीच सभी प्रकार की कुरूपता—उदाहरण के लिए ईर्ष्या और विवाद—उभर आते हैं। इन घटनाओं से क्या प्रदर्शित होता है? यही कि पवित्र आत्मा का कार्य समाप्त हो गया है, उसने उनका त्याग कर दिया है, और परमेश्वर अब कार्य नहीं कर रहा है। परमेश्वर के कार्य के बिना मनुष्य द्वारा समझे जाने वाले शब्द और धर्म-सिद्धांत किस काम के हैं? किसी काम के नहीं। जब किसी व्यक्ति के पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं रह जाता, तो वह अंदर से खाली हो जाता है, उसे कुछ भी महसूस नहीं होता, वह मृत समान हो जाता है और अब तक, वह स्तब्ध हो चुका होता है। मानवजाति में सारी प्रेरणा, ज्ञान, बुद्धि, अंतर्दृष्टि और प्रबुद्धता परमेश्वर से आती है; यह सब परमेश्वर का कार्य है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे उसके धार्मिक स्वभाव का एहसास हुआ। लोग जैसा बर्ताव करते हैं, उनके बारे में वैसा ही नजरिया परमेश्वर अपनाता है। अगर अपने काम में किसी का उद्देश्य सही हो, वह सत्य खोजे और दूसरों के साथ मिलजुल कर कलीसिया के काम को बनाए रखे तो उसे पवित्र आत्मा का कार्य मिलता है। मगर, वे सत्य का अभ्यास न करें, शैतानी स्वभाव के अनुसार जीएँ तो परमेश्वर घृणा से भरकर उन्हें त्याग देता है। मैंने दूसरी टीम के उन भाई-बहनों के बारे में सोचा जो हमसे सीखने आए थे। जब मैंने देखा कि वे तेजी से सीखते थे और हमसे ज्यादा प्रभावशाली थे, तो मुझे उनसे पिछड़ने का डर लगा, इसलिए मैंने उन्हें समूह से हटा दिया, उन्हें हमारे प्रशिक्षण में भाग नहीं लेना दिया। मैं किसी अविश्वासी की तरह पेश आ रही थी, चालें चल रही थी और बाहर निकलने का रास्ता छोड़ रही थी—यह सब मैं अपने हित साधने के लिए कर रही थी। डरती थी कि दूसरे हमसे आगे निकल जाएँगे जिससे मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे पर आँच आएगी। मैं बेहद स्वार्थी और घिनौनी थी। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “परमेश्वर के कार्य के बिना मनुष्य द्वारा समझे जाने वाले शब्द और धर्म-सिद्धांत किस काम के हैं? किसी काम के नहीं। जब किसी व्यक्ति के पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं रह जाता, तो वह अंदर से खाली हो जाता है, उसे कुछ भी महसूस नहीं होता, वह मृत समान हो जाता है और अब तक, वह स्तब्ध हो चुका होता है।” जब मैंने यह काम सँभाला था तो मैं हुनर हासिल करके अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती थी। जब दिक्कतें आईं तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे मदद माँगी, मैंने तेजी से सीखा और कभी थकान महसूस नहीं की। लेकिन जब से मैं आपसी होड़ की भावना में जीने लगी, तब से मैंने सत्य नहीं खोजा, हर मोड़ पर अपनी भ्रष्टता से प्रेरित होकर काम किया, परमेश्वर को घृणा हुई और उसने मुझे त्याग दिया। मेरे काम में न कोई दिशा रही, न उद्देश्य और मैं हर कदम पर अनाड़ी दिखने लगी। मैंने देखा कि जब मुझ पर परमेश्वर की कृपा नहीं रही तो मेरा थोड़ा-बहुत पेशेवर ज्ञान भी बेकार हो गया। अपने कर्तव्य में सही उद्देश्य न होने, हमेशा अपने हितों की सुरक्षा करने और सत्य का अभ्यास न करने का यह हश्र हुआ।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश के बारे में सोचा, जहाँ परमेश्वर उजागर करता है कि कैसे मसीह-विरोधी अपने ही हित साधने में लगे रहते हैं और परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचते हैं। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मसीह-विरोधी व्यक्ति चाहे जो भी कार्य करें, वे कभी परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते। वह केवल इस बात पर विचार करता है कि कहीं उसके हित तो प्रभावित नहीं हो रहे, वह केवल अपने सामने के उस छोटे-से काम के बारे में सोचता है, जिससे उसे फायदा होता है। उसकी नजर में, कलीसिया का प्राथमिक कार्य बस वही है, जिसे वह अपने खाली समय में करता है। वह उसे बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेता। वह केवल तभी हरकत में आता है जब उसे काम करने के लिए कोंचा जाता है, केवल वही करता है जो वह करना पसंद करता है, और केवल वही काम करता है जो उसकी हैसियत और सत्ता बनाए रखने के लिए होता है। उसकी नजर में, परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कोई भी कार्य, सुसमाचार फैलाने का कार्य, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन-प्रवेश महत्वपूर्ण नहीं हैं। चाहे अन्य लोगों को अपने काम में जो भी कठिनाइयाँ आ रही हों, उन्होंने जिन भी मुद्दों को पहचाना और रिपोर्ट किया हो, उनके शब्द कितने भी ईमानदार हों, मसीह-विरोधी उन पर कोई ध्यान नहीं देते, वे उनमें शामिल नहीं होते, मानो इन मामलों से उनका कोई लेना-देना ही न हो। कलीसिया के काम में उभरने वाली समस्याएँ चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, वे पूरी तरह से उदासीन रहते हैं। अगर कोई समस्या उनके ठीक सामने भी हो, तब भी वे उस पर लापरवाही से ही ध्यान देते हैं। जब ऊपर वाला सीधे उनकी काट-छाँट करता है और उन्हें किसी समस्या को सुलझाने का आदेश देता है, तभी वे बेमन से थोड़ा-बहुत काम करके ऊपर वाले को दिखाते हैं; उसके तुरंत बाद वे फिर अपने धंधे में लग जाते हैं। जब कलीसिया के काम की बात आती है, व्यापक संदर्भ की महत्वपूर्ण चीजों की बात आती है, तो वे इन चीजों में रुचि नहीं लेते और इनकी उपेक्षा करते हैं। जिन समस्याओं का उन्हें पता लग जाता है, उन्हें भी वे नजरअंदाज कर देते हैं और समस्याओं के बारे में पूछने पर लापरवाही से जवाब देते हैं या आगा-पीछा करते हैं, और बहुत ही बेमन से उस समस्या की तरफ ध्यान देते हैं। यह स्वार्थ और नीचता की अभिव्यक्ति है, है न? इसके अलावा, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल यही सोचते हैं कि क्या इससे वे सुर्ख़ियों में आ पाएँगे; अगर उससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है, तो वे यह जानने के लिए अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं कि उस काम को कैसे करना है, कैसे अंजाम देना है; उन्हें केवल एक ही फिक्र रहती है कि क्या इससे वे औरों से अलग नजर आएँगे। वे चाहे कुछ भी करें या सोचें, वे केवल अपनी प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत से सरोकार रखते हैं। वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल इसी स्पर्धा में लगे रहते हैं कि कौन बड़ा है या कौन छोटा, कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है, किसकी ज्यादा प्रतिष्ठा है। वे केवल इस बात की परवाह करते हैं कि कितने लोग उनकी आराधना और सम्मान करते हैं, कितने लोग उनका आज्ञापालन करते हैं और कितने लोग उनके अनुयायी हैं। वे कभी सत्य पर संगति या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करते। वे कभी विचार नहीं करते कि अपना काम करते समय सिद्धांत के अनुसार चीजें कैसे करें, न ही वे इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे निष्ठावान रहे हैं, क्या उन्होंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर दी हैं, क्या उनके काम में कोई विचलन या चूक हुई है या अगर कोई समस्या मौजूद है, तो वे यह तो बिल्कुल नहीं सोचते कि परमेश्वर क्या चाहता है और परमेश्वर के इरादे क्या हैं। वे इन सब चीजों पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं देते। वे केवल प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के लिए, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और जरूरतें पूरी करने का प्रयास करने के लिए कार्य करते हैं। यह स्वार्थ और नीचता की अभिव्यक्ति है, है न? यह पूरी तरह से उजागर कर देता है कि उनके हृदय किस तरह उनकी महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और बेहूदा माँगों से भरे होते हैं; उनका हर काम उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से नियंत्रित होता है। वे चाहे कोई भी काम करें, उनकी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और बेहूदा माँगें ही उनकी प्रेरणा और स्रोत होता है। यह स्वार्थ और नीचता की विशिष्ट अभिव्यक्ति है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं कि मसीह-विरोधी सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए काम करते हैं कलीसिया के कार्य की नहीं सोचते। उनके लिए कलीसिया की व्यवस्थाएँ मायने नहीं रखती हैं, न ही दूसरों को काम में आ रही दिक्कतें कोई मायने रखती हैं। भाई-बहनों की समस्याओं को देखकर वे आँखें मूँद लेते हैं, वे स्वार्थी और नीच होते हैं, उनमें मानवता नहीं होती। मैंने मसीह-विरोधियों का व्यवहार देखा और सोचा कि मैं भी कष्ट उठाकर कीमत चुकाकर और काम के हुनर सीखने के लिए पूरा प्रयास करते दिखती थी, लेकिन मैं परमेश्वर के इरादे का ख्याल नहीं रख रही थी। मैं अपने कर्तव्य से ऐसे पेश आ रही थी मानो वह रुतबा और प्रतिष्ठा पाने का हथियार हो। मेरी एक ही सोच थी कि क्या लोगों के बीच मेरा रुतबा है या नहीं, क्या दूसरे लोग मेरी सराहना करेंगे, मुझे अहमियत देंगे। मैंने कभी नहीं सोचा कि परमेश्वर क्या चाहता है या मैं उसे कैसे संतुष्ट कर सकती हूँ। जब मुझे अपने काम में कुछ नतीजे मिले और हर कोई मेरे पास सवाल लेकर आता था, तो मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे की लालसा पूरी हो जाती। लेकिन दूसरों के साथ अपनी पेशेगत जानकारी साझा करते हुए, मैं धोखेबाजी पर उतर आती, चालें चलने लगती और अपने कुछ मुख्य कौशल छिपा लेती थी। मैंने अपना सारा कौशल साझा नहीं किया और सीखने आए लोगों को अपने समूह से हटा दिया ताकि वे हमसे सीख न पाएँ, क्योंकि मुझे डर था कि वे कार्यकुशल बनकर मेरी चमक चुरा लेंगे। मैं जानती थी कि हमने परमेश्वर के वचनों के प्रसार के लिए वीडियो बनाये हैं, हमें काम अच्छे से करने के लिए मुझे दूसरों के साथ मिलकर एक मन और एक दिल से काम करना चाहिए था, ताकि परमेश्वर के प्रकटन के लिए तरसने वाले जल्द उसके सामने आ सकें, सत्य का अनुसरण कर सकें और बचाए जा सकें, लेकिन अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने की खातिर, मैं किसी के साथ अपना हुनर साझा करने को राजी नहीं थी। मैंने अपने पेशेवर कौशल और शिक्षण साधनों को अपनी निजी मिल्कियत समझा जो बस मेरे लिए है। मैं बस दिखावा करना और दूसरों से सराहना पाने की अपनी महत्वाकाँक्षा और लालसा पूरी करना चाहती थी। मैंने कलीसिया के काम या परमेश्वर के इरादे के बारे में जरा भी नहीं सोचा। फिर मेरा व्यवहार किसी मसीह-विरोधी से अलग कैसे था? मुझे यह निहायत खतरनाक स्थिति लगी, इसलिए मैंने मन ही मन प्रार्थना की : “हे परमेश्वर! मैं अपनी अंतरात्मा को अनदेखा कर सिर्फ अपने हितों के बारे में नहीं सोचना चाहती। मैं पश्चात्ताप करने, सबको अपना हुनर सिखाने और अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए तैयार हूँ।”
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो उनके लिए अपने हित छोड़ने से कठिन कुछ नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उनके जीवन-दर्शन हैं ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’ और ‘मनुष्य धन के लिए मरता है, जैसे पक्षी भोजन के लिए मरते हैं’ जाहिर है, वे अपने हितों के लिए जीते हैं। लोग सोचते हैं कि अपने हितों के बिना—अगर उन्हें अपने हित छोड़ने पड़े—तो वे जीवित नहीं रह पाएँगे, मानो उनका अस्तित्व उनके हितों से अविभाज्य हो, इसलिए ज्यादातर लोग अपने हितों के अतिरिक्त सभी चीजों के प्रति अंधे होते हैं। वे अपने हितों को किसी भी चीज से ऊपर समझते हैं, वे अपने हितों के लिए जीते हैं, और उनसे उनके हित छुड़वाना उनसे अपना जीवन छोड़ने के लिए कहने जैसा है। तो ऐसी परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए? लोगों को सत्य स्वीकारना चाहिए। सत्य समझकर ही वे अपने हितों के सार की सच्चाई देख सकते हैं; तभी वे उन्हें छोड़ना और उनके प्रति विद्रोह करना शुरू कर सकते हैं, उनसे अलग होने की पीड़ा को सहन करने योग्य हो सकते हैं जो उन्हें प्रिय है। और जब तुम ऐसा कर सकते हो, और अपने हितों को त्याग सकते हो, तो तुम अपने मन में शांति और सुकून की अधिक अनुभूति करोगे और ऐसा करने से तुम अपनी दैहिक इच्छाओं पर जीत पा लोगे। अगर तुम अपने हितों से चिपके रहते हो और उन्हें त्यागने से इनकार कर देते हो और अगर तुम सत्य को जरा-भी स्वीकार नहीं करते हो—तो मन ही मन तुम कह सकते हो, ‘अपने फायदे के लिए कोशिश करने और किसी भी नुकसान को नकारने में क्या गलत है? परमेश्वर ने मुझे कोई दण्ड नहीं दिया है, लोग मेरा क्या बिगाड़ लेंगे?’ कोई भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, लेकिन अगर परमेश्वर में तुम्हारी यही आस्था है, तो तुम अंततः सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाओगे। यह तुम्हारी भयंकर हानि होगी—तुम उद्धार नहीं प्राप्त कर सकोगे। क्या इससे बड़ा कोई पछतावा हो सकता है? अपने हितों के पीछे भागने का अंततः यही परिणाम होता है। अगर लोग सिर्फ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, अगर वे सिर्फ अपने हितों के पीछे भागते हैं, तो वे कभी भी सत्य और जीवन प्राप्त नहीं कर पाएँगे और अंततः वे ही नुकसान उठाएँगे। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने वालों को ही बचाता है। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव पर आत्मचिंतन करने और उसे जानने में असमर्थ रहते हो, तो तुम सच्चा पश्चात्ताप नहीं करोगे और तुम जीवन-प्रवेश नहीं कर पाओगे। सत्य को स्वीकारना और स्वयं को जानना तुम्हारे जीवन के विकास और उद्धार का मार्ग है, यह तुम्हारे लिए अवसर है कि तुम परमेश्वर के सामने आकर उसकी जाँच को स्वीकार करो, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकार करो और जीवन और सत्य को प्राप्त करो। अगर तुम प्रसिद्धि, लाभ, रुतबे और अपने हितों के लिए सत्य का अनुसरण करना छोड़ देते हो, तो यह परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को प्राप्त करने और उद्धार पाने का अवसर छोड़ने के समान है। तुम प्रसिद्धि, लाभ, रुतबा और अपने हित चुनते हो, लेकिन तुम सत्य का त्याग कर देते हो, जीवन खो देते हो और बचाए जाने का मौका गँवा देते हो। किसमें अधिक सार्थकता है? अगर तुम अपने हित चुनकर सत्य को त्याग देते हो, तो क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है? आम बोलचाल की भाषा में कहें तो यह एक छोटे से फायदे के लिए बहुत बड़ा नुकसान उठाना है। प्रसिद्धि, लाभ, रुतबा, धन और हित सब अस्थायी हैं, ये सब अल्पकालिक हैं, जबकि सत्य और जीवन शाश्वत और अपरिवर्तनीय हैं। अगर लोग प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे दौड़ाने वाले भ्रष्ट स्वभाव दूर कर लें, तो वे उद्धार पाने की आशा कर सकते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि अगर मैं हमेशा अपने हितों से चिपकी रही और सत्य के अभ्यास की अनदेखी करती रही, तो नुकसान मुझे ही होगा, किसी और को नहीं। मैं सत्य जानने का मौका गँवा दूँगी और निपट मूर्ख बन जाऊँगी। पहले मैं शैतानी फलसफों के अनुसार जिंदगी जीती थी। मैं यह मानती थी कि “जब कोई छात्र हर वो चीज़ सीख जाएगा जो उसका गुरु जानता है, तो गुरु के हाथ से उसकी आजीविका चली जाएगी” और सोचती थी कि दूसरों को अपना ज्ञान सिखाकर मैं पिछड़ जाऊँगी। अगर वे अच्छे शिष्य हुए और मुझसे ज्यादा हासिल कर बैठे तो लोगों के बीच मेरा कोई विशेष दर्जा नहीं रह जाएगा। उसके बाद ही मुझे समझ में आया कि यह तो शैतानी फरेब है और चीजों को देखने का गलत तरीका है। इस तरह जीने से तो मैं सिर्फ निपट स्वार्थी, धोखेबाज और मानवता हीन बन जाऊँगी। अंत में परमेश्वर मुझे बेनकाब करके निकाल देगा। मुझे अपने हित परे रखकर दूसरों को वो सब कुछ सिखाना था जो मैं जानती थी। यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होता और इसी से मैं अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर सकती थी। अपने दिल को चैन देने का भी यही तरीका था। यही नहीं, जब भाई-बहन मेरी सिखाई बातों के आधार पर नए विचार लाएँगे, तो इससे मेरा हुनर भी बढ़ जाएगा। यह नुकसान हरगिज नहीं था। मैं खुदगर्जी से जीना नहीं चाहती थी, और जब भी कोई अच्छा तरीका या गुर मेरे हाथ लगता, तो मैं सबको खुशी से बताती।
एक दिन, एक बहन ने मुझसे अपनी कार्यकुशलता सुधारने के बारे में पूछा। मुझे फिर सूझा कि अगर अपनी टीम के तरीके उसे बताती हूँ और उसकी टीम ने बेहतर काम किया तो हम खराब दिखेंगे। तब लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? तभी, मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “तुम्हें अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्यों को दूर रखना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्ट व्यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्ट करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। वह बहन कलीसिया के कार्य के बारे में सोच रही थी, इसीलिए अपनी कार्यकुशलता सुधारने के लिए मेरे पास आई। मुझे अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे का ख्याल छोड़कर कलीसिया के हितों के बारे में सोचना होगा, अपनी स्वार्थी लालसाओं और मंसूबों को छोड़कर दूसरों की मदद करनी होगी। इसलिए मैं जो जानती थी, वह उस बहन को बता दिया। ऐसा करके मुझे शांति का एहसास हुआ। मुझे हैरत हुई जब उसने भी मुझे कुछ अच्छी शिक्षण सामग्री दी, इससे मुझे अपना हुनर निखारने में मदद मिली। मैं इतनी भावुक हो गई कि कुछ कहते नहीं बना। मैंने मन ही मन परमेश्वर को बार-बार धन्यवाद कहा। अपने निजी हितों को छोड़ने के बारे में धीरे-धीरे सीखने से मुझे सत्य के अभ्यास की मिठास का एहसास हुआ। उसके बाद, मेरे पास जो भी शिक्षण सामग्री और उपयोगी कौशल और तरकीबें थीं, मैंने दूसरों को दे दीं।
इस अनुभव से पता चला कि शैतान ने मुझे किस कदर भ्रष्ट बना रखा था। हर चीज में मेरे निजी हित सर्वोपरि रहते थे और मैं कलीसिया के कार्य के बारे में नहीं सोचती थी। मैंने बिल्कुल किसी मसीह-विरोधी जैसा स्वभाव प्रकट किया था, लेकिन परमेश्वर ने मुझसे मेरे अपराधों के अनुरूप सलूक नहीं किया। उसने एक के बाद एक ऐसी स्थिति खड़ी की जिससे मैं शुद्ध होकर बदल जाऊँ। यह परमेश्वर का प्यार था। मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का अनुभव भी हुआ। जब मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव में जीती थी, प्रसिद्धि और लाभ की होड़ में थी और कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं करती थी, तो परमेश्वर ने अपना मुँह मोड़ लिया और मैं जो कुछ करती, उसमें बाधाएँ पाती। जब मैंने परमेश्वर के वचनों का अभ्यास किया, अपने इरादे सुधारे, कलीसिया के कार्य को कायम रखा, अपना ज्ञान सबके साथ साझा किया, तो हर कोई अपने कौशल और तकनीकों का आदान-प्रदान करने लगा और हमारी टीम का वीडियो कार्य सुधर गया। परमेश्वर के वचनों के अनुसार चलने से मिलने वाली शांति को मैंने सच्चे दिल से अनुभव कर लिया। समस्याएँ सामने आने पर मैं अब भी कभी-कभी अपने हितों की सोचती हूँ, लेकिन मैं परमेश्वर के सहारे खुद के खिलाफ विद्रोह करना सीख चुकी हूँ। उद्धार के लिए परमेश्वर का धन्यवाद!