82. झूठ बोलने की पीड़ा
अक्तूबर 2019 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया। सभाओं में मैंने देखा कि भाई-बहन अपने अनुभवों और समझ पर संगति करने में समर्थ थे। वे अपनी भ्रष्टता और कमियों के बारे में बिना किसी आशंका के खुल कर बोल पाते थे, और मुझे बड़ी जलन होती थी। मैं भी ईमानदार बनकर उन्हीं की तरह खुलकर बोलना चाहता था, मगर मौका आने पर मैं ईमानदारी से बोल नहीं पाता था। एक बार भाई-बहनों ने मुझसे पूछा, “आप युवा हैं, क्या अभी भी छात्र ही हैं?” सच यह था कि काफी समय से मैं छात्र नहीं था, एक रेस्तराँ में सिर्फ सफाई और खाना बनाने का काम करता था, लेकिन डरता था कि यह जान लेने पर दूसरे लोग मुझे नीची नजर से देखेंगे, इसलिए मैंने उन्हें बताया कि मैं अभी भी छात्र हूँ। ऐसा कहने के बाद मैंने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, और बस आगे बढ़ गया। एक दिन, एक अनुभवात्मक गवाही वीडियो में मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश देखा, जिससे मुझे आत्म-चिंतन की प्रेरणा मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर ईमानदार इंसान को पसंद करता है। मूल बात यह है कि परमेश्वर निष्ठावान है, अतः उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, उसका कार्य दोषरहित और निर्विवाद है, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके साथ पूरी तरह से ईमानदार होते हैं। ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीज़ें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ सका कि परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, ईमानदार लोग आसानी से परमेश्वर के सामने खुल सकते हैं, वे अपनी कथनी और करनी में सच्चे होते हैं, और वे परमेश्वर या दूसरों को धोखेबाजी की कोशिश नहीं करते। मगर अपने बारे में बोलूँ, तो जब दूसरों ने मुझसे पूछा, “क्या आप अभी भी छात्र हैं?” तो मैं सच भी नहीं बता पाया, परमेश्वर के सामने ईमानदार होना तो दूर, मैं ईमानदार भी नहीं था! इसलिए मैं दूसरों के साथ खुलना चाहता था, मगर डरता था कि वे मेरा मजाक उड़ाएँगे, फिर भी सच न बोलकर मैं अंदर से बेचैन हो गया था। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, सच बोलने और ईमानदार होने पर अमल करने में मेरी मदद करने की विनती की। बाद की एक सभा में, मैं अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बोला, झूठ और धोखेबाजी का इस्तेमाल करने का अपना इरादा उजागर कर दिया। ऐसा करने पर दूसरों ने मुझे नीची नजर से नहीं देखा, बल्कि उन्होंने संदेश भेजे कि मेरा अनुभव अच्छा था। इससे मुझमें ईमानदार बनने को लेकर आत्म-विश्वास बढ़ा। इस मौके पर ईमानदार होने और सच बोलने पर अमल करने के बावजूद, मैं अपने शैतानी स्वभाव से बिल्कुल अवगत नहीं था, जब बात मेरे रुतबे और हितों की होती, तो मैं मुखौटा लगाए बिना नहीं रह पाता था।
कुछ समय के बाद मुझे एक प्रचारक चुना गया और तीन कलीसियाओं के कार्य की जिम्मेदारी दी गई। सहकर्मियों की एक सभा में, एक अगुआ ने विस्तार से जानना चाहा कि कलीसिया में नए सदस्यों का सिंचन कैसे किया जा रहा था और पूछा कि कुछ सदस्यों को सही तरीके से सहारा क्यों नहीं दिया गया था। मैं थोड़ा परेशान होने लगा, क्योंकि मुझे सिर्फ एक ही कलीसिया के कामकाज की जानकारी थी, अन्य दो कलीसियाओं की नहीं। तो मुझे क्या कहना चाहिए था? अगर मैंने सच बोला, तो सब लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि इतनी-सी जानकारी न रखकर भी क्या मैं प्रचारक होने लायक था? या वे कहेंगे कि मैं वास्तविक काम नहीं करता था और इस कर्तव्य के काबिल नहीं था? मेरा तबादला हो गया या मुझे बर्खास्त कर दिया गया, तो बड़ी शर्मिंदगी होगी! मैं भाग जाना चाहता था, लेकिन अगर मैं जल्दी चला जाऊँ, मैं सबको पता चल जाने से डरता था इसलिए मेरे पास वहीं रहकर दूसरे प्रचारकों से उनके जिम्मे के काम के बारे में सुनने के सिवाय कोई चारा नहीं था। मैं बेहद घबराया हुआ था, नहीं जानता था, क्या करूँ। जब अगुआ ने मेरा नाम पुकारा, तो मैं घबराया हुआ था, मैंने उन्हें न सुनने का बहाना किया और पूछा, “आपने क्या कहा?” अगुआ ने कहा, “हम नए सदस्यों के सिंचन की बात कर रहे हैं और आपने सुना कि अभी सबने क्या कहा है। क्या आप अपने नए सदस्यों के बारे में बताएँगे?” मेरे दिल में उथल-पुथल हो रही थी। मेरे पास पहले अपनी जानकारी वाली कलीसिया के बारे में बताने के सिवाय कोई चारा नहीं था, लेकिन मैं बाकी दो कलीसियाओं के बारे में नहीं बोलना चाहता था। हालांकि, मुझे सबको पता चल जाने का डर था कि मैंने उन कलीसियाओं की खोज-खबर नहीं ली थी, तो मैंने दांत पीसकर झूठ बोला और कहा, “दूसरी कलीसिया के बहुत-से नए सदस्यों को सही तरीके से सहारा नहीं दिया जा रहा है, और महामारी के कारण हम उन तक नहीं पहुँच सकते हैं। तीसरी कलीसिया के हालात के बारे में मैं यकीन से नहीं कह सकता, क्योंकि इस पूरे समय मैं बाकी दो कलीसियाओं के काम की देखरेख कर रहा था।” मैं बहुत बेचैन हो गया कि ऐसा क्यों बोला, बुरी तरह डरा हुआ था कि सब मेरा झूठ पकड़ लेंगे, जो और भी ज्यादा अपमानित करने वाला होगा। पूरी सभा के दौरान मैं डरा हुआ था, सभा ख़त्म होने पर ही मैं राहत की साँस ले सका। मुझे हैरानी हुई जब अगुआ ने मुझे अलग से पूछा, “महामारी के कारण जिन नए सदस्यों को सही तरीके से सहारा नहीं दिया जा रहा है, क्या आपने सिंचन करने वालों से उनके बारे में फोन कर पूछताछ करने को कहा है?” अगुआ के सवाल से मैं भौंचक्का रह गया। मुझे हालात के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी। अगर मैं सच बोलता, तो क्या अगुआ समझ नहीं जाते कि मैंने झूठ बोला था? मैं नहीं कह सका कि मुझे पता नहीं था। इसलिए मैं झूठ बोलता चला गया, “मैंने इस बारे में उनसे बात की है, लेकिन कुछ नए सदस्यों ने फोन का जवाब नहीं दिया।” तब अगुआ ने पूछा, “कौन-से नए सदस्य?” मैंने मन-ही-मन सोचा, “क्या अगुआ मुझसे इसलिए सवाल पूछते जा रहे हैं क्योंकि उन्हें मेरे झूठ का पता चल गया है?” मैंने जल्दी से जवाब दिया, “मेरे ख्याल से ये ऐसे कुछ लोग हैं जिन्होंने परमेश्वर का कार्य स्वीकार लिया है।” यह देखकर कि मैं स्पष्ट नहीं समझा पा रहा था, अगुआ ने नए सिरे से कहा, “अच्छा, जब आप पता कर लें तो मुझे बता दें।” बात खत्म होने पर मुझे गहरा अपराध-बोध हुआ। मैंने फिर एक बार झूठ बोलकर धोखेबाजी की थी। एक झूठ छिपाने के लिए मुझे बहुत सारे झूठ बोलने पड़े। दूसरे झूठों को दबाने के लिए नये झूठ का सहारा लेना कितना मुश्किल है। मैंने सभा के बारे में दोबारा सोचा, एक प्रचारक ने कहा था कि जिन तीन कलीसियाओं का जिम्मा उसके पास था, उनमें से एक पर उसने ध्यान नहीं दिया था। उसने तो सच बोला था, सो मैं एक भी ईमानदार शब्द क्यों नहीं बोल पाया? मैंने झूठ बोला, धोखेबाजी की और इस तरह मुखौटा लगाया, लेकिन मैं परमेश्वर को धोखा नहीं दे सका। परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है। मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह था और देर-सवेर मैं बेनकाब हो जाऊँगा। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, आज सभा में, जब अगुआ काम के बारे में सवाल पूछ रहे थे, तो मैंने सच नहीं। मुझे डर था कि वे सच जान लेंगे तो सब लोग मुझे नीची नजर से देखेंगे और कहेंगे कि मैंने वास्तविक काम नहीं किया है। हे परमेश्वर, मुझे खुद को जानने का रास्ता दिखाओ, मेरे भ्रष्ट स्वभाव को दूर करो।”
मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा : “अपने रोजमर्रा के जीवन में लोग अक्सर बेकार बातें करते हैं, झूठ बोलते हैं, और ऐसी बातें कहते हैं जो अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण और रक्षात्मक होती हैं। इनमें से ज्यादातर बातें अभिमान और शान के लिए, अपने अहंकार की तुष्टि के लिए कही जाती हैं। ऐसे झूठ बोलने से उनके भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं। अगर तुम इन भ्रष्ट तत्वों का समाधान कर लो, तो तुम्हारा हृदय शुद्ध हो जाएगा, और तुम धीरे-धीरे ज्यादा शुद्ध और अधिक ईमानदार हो जाओगे। वास्तव में सभी लोग जानते हैं कि वे झूठ क्यों बोलते हैं। व्यक्तिगत लाभ और गौरव के लिए, या अभिमान और रुतबे के लिए, वे दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करने और खुद को वैसा दिखाने की कोशिश करते हैं, जो वे नहीं होते। हालाँकि दूसरे लोग अंततः उनके झूठ उजागर और प्रकट कर देते हैं, और वे अपनी इज्जत और साथ ही अपनी गरिमा और चरित्र भी खो बैठते हैं। यह सब अत्यधिक मात्रा में झूठ बोलने के कारण होता है। तुम्हारे झूठ बहुत ज्यादा हो गए हैं। तुम्हारे द्वारा कहा गया प्रत्येक शब्द मिलावटी और झूठा होता है, और एक भी शब्द सच्चा या ईमानदार नहीं माना जा सकता। भले ही तुम्हें यह न लगे कि झूठ बोलने पर तुम्हारी बेइज्जती हुई है, लेकिन अंदर ही अंदर तुम अपमानित महसूस करते हो। तुम्हारा जमीर तुम्हें दोष देता है, और तुम अपने बारे में नीची राय रखते हुए सोचते हो, ‘मैं ऐसा दयनीय जीवन क्यों जी रहा हूँ? क्या सच बोलना इतना कठिन है? क्या मुझे अपनी शान की खातिर झूठ का सहारा लेना चाहिए? मेरा जीवन इतना थका देने वाला क्यों है?’ तुम्हें थका देने वाला जीवन जीने की जरूरत नहीं है। अगर तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास कर सको, तो तुम एक निश्चिंत, स्वतंत्र और मुक्त जीवन जीने में सक्षम होगे। हालाँकि तुमने झूठ बोलकर अपनी शान और अभिमान को बरकरार रखना चुना है। नतीजतन, तुम एक थकाऊ और दयनीय जीवन जीते हो, जो तुम्हारा खुद का थोपा हुआ है। झूठ बोलकर व्यक्ति को शान की अनुभूति हो सकती है, लेकिन वह शान की अनुभूति क्या है? यह महज एक खोखली चीज है, और यह पूरी तरह से बेकार है। झूठ बोलने का मतलब है अपना चरित्र और गरिमा बेच देना। इससे व्यक्ति की गरिमा और उसका चरित्र छिन जाता है; इससे परमेश्वर नाखुश होता है और इससे वह घृणा करता है। क्या यह लाभप्रद है? नहीं, यह लाभप्रद नहीं है। क्या यह सही मार्ग है? नहीं, यह सही मार्ग नहीं है। जो लोग अक्सर झूठ बोलते हैं, वे अपने शैतानी स्वभावों के अनुसार जीते हैं; वे शैतान की शक्ति के अधीन रहते हैं। वे प्रकाश में नहीं रहते, न ही वे परमेश्वर की उपस्थिति में रहते हैं। तुम लगातार इस बारे में सोचते रहते हो कि झूठ कैसे बोला जाए, और फिर झूठ बोलने के बाद तुम्हें यह सोचना पड़ता है कि उस झूठ को कैसे छिपाया जाए। और जब तुम झूठ अच्छी तरह से नहीं छिपाते और वह उजागर हो जाता है, तो तुम्हें विरोधाभास दूर कर उसे स्वीकार्य बनाने के लिए अपने दिमाग पर जोर देना पड़ता है। क्या इस तरह जीना थका देने वाला नहीं है? निढाल कर देने वाला। क्या यह इस लायक है? नहीं, यह इस लायक नहीं है। झूठ बोलने और फिर उसे छिपाने के लिए अपना दिमाग लगाना, सब शान, अभिमान और रुतबे की खातिर, क्या मायने रखता है? अंत में तुम चिंतन करते हुए मन ही मन सोचो, ‘क्या मायने हैं? झूठ बोलना और उसे छिपाना बहुत थका देने वाला होता है। इस तरीके से आचरण करने से काम नहीं चलेगा; अगर मैं एक ईमानदार व्यक्ति बन जाऊँ, तो ज्यादा आसानी होगी।’ तुम एक ईमानदार व्यक्ति बनने की इच्छा रखते हो, लेकिन तुम अपनी शान, अभिमान और व्यक्तिगत हित नहीं छोड़ पाते। इसलिए तुम इन चीजों को बनाए रखने के लिए सिर्फ झूठ बोलने का ही सहारा ले सकते हो। ... अगर तुम सोचते हो कि झूठ वह प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बरकरार रख सकता है जो तुम चाहते हो, तो तुम पूरी तरह से गलत हो। वास्तव में झूठ बोलकर तुम न सिर्फ अपना अभिमान और शान, और अपनी गरिमा और चरित्र बनाए रखने में विफल रहते हो, बल्कि इससे भी ज्यादा शोचनीय बात यह है कि तुम सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अवसर चूक जाते हो। अगर तुम उस पल अपनी प्रतिष्ठा, रुतबा, अभिमान और शान बचाने में सफल हो भी जाते हो, तो भी तुमने सत्य का बलिदान करके परमेश्वर को धोखा तो दे ही दिया है। इसका मतलब है कि तुमने उसके द्वारा बचाए और पूर्ण किए जाने का मौका पूरी तरह से खो दिया है, जो सबसे बड़ा नुकसान और जीवन भर का अफसोस है। जो लोग धोखेबाज हैं, वे इसे कभी नहीं समझेंगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने जो उजागर किया वह बिल्कुल मेरी ही अवस्था थी। अगुआ प्रत्येक कलीसिया में सिंचन की स्थिति के बारे में जानना चाहते थे, जो कि एक बड़ी आसान-सी चीज थी, और बस सच बता देना काफी होता, लेकिन मेरे लिए इससे मुश्किल कोई काम नहीं था। मैं आशंकाओं में डूबा हुआ था, डरता था कि अगुआ और दूसरे प्रचारकों को सच पता चल जाने पर वे कहेंगे कि मैंने वास्तविक कार्य नहीं किया था, इस छोटे-से मामले पर भी मेरी पकड़ नहीं थी। अगर मुझे बर्खास्त कर दिया गया, तो यह अपमानजनक होगा! अपनी शोहरत, रुतबे और दूसरों के मन में बनी अपनी अच्छी छवि को बचाने के लिए, मैंने दो कलीसियाओं पर ध्यान देने के बारे में झूठ बोला, जबकि मुझे सिर्फ एक कलीसिया के बारे में ही समझ थी। मैंने दूसरी कलीसिया के बारे में भी विस्तार से बोल दिया, और कहा कि महामारी के कारण वहाँ नए सदस्यों को पूरी तरह से सहारा नहीं दिया जा सका था। क्या यह बेशर्म झूठ नहीं था? जब अगुआ ने मुझसे पूछा कि क्या मैंने सिंचन करने वालों को नए सदस्यों से फोन पर बात करने को कहा था, तो मुझे डर लगा कि मेरे अभी बोले झूठ के बारे में अगुआ जान जाएँगे, तो मैंने पहला झूठ दबाने के लिए दूसरा झूठ गढ़ लिया और उन्हें टरकाने के लिए बहाना बना दिया। अपनी शोहरत और रुतबे को बचाने की खातिर मैंने एक झूठ दबाने के लिए दूसरे झूठ का सहारा किया। मैं सचमुच कपटी था! मैंने बाइबल में दर्ज परमेश्वर और शैतान के बीच का एक संवाद याद किया। परमेश्वर ने शैतान से पूछा कि वह कहाँ से आया था, तो शैतान ने जवाब दिया, “पृथ्वी पर इधर-उधर घूमते-फिरते और डोलते-डालते आया हूँ” (अय्यूब 1:7)। शैतान बेहद शातिर था। उसने परमेश्वर के सवाल का सीधे जवाब नहीं दिया और बड़े लाग-लपेट के साथ बोला। यह बताना नामुमकिन है कि शैतान कहाँ से आया। उसका मुँह झूठ से भरा है, वह ईमानदारी से कभी नहीं बोलता, वह हमेशा गोल-मोल और अस्पष्ट रूप से बोलता है। अपने झूठ और कपट के कारण क्या मैं भी राक्षसी शैतान के समान ही नहीं था? हालाँकि मैंने अगुआ द्वारा माँगी गई जानकारी दे दी, लेकिन यह सब धुंधला और अस्पष्ट था, झूठ और धोखेबाजी से भरा हुआ था। मेरा जवाब सुनने के बाद भी, अगुआ मेरे जिम्मे के सिंचन कार्य की वास्तविक हालत के बारे में स्पष्ट रूप से नहीं जान पाए, और परख नहीं पाए कि मैं सही ढंग से काम की देखरेख कर रही थी या नहीं। दरअसल, इस तरह मेरा झूठ बोलना और धोखेबाजी करना मेरी शोहरत और रुतबे को अस्थाई रूप से बचा रहा था, लेकिन जो मैंने असल में खो दिया था वह था अपनी सत्यनिष्ठा, गरिमा और दूसरों का भरोसा। अगर मैं ऐसा ही करता रहा, तो देर-सवेर, सभी समझ जाएँगे कि मैं ईमानदार और भरोसेमंद इंसान नहीं था। कोई भी मुझ पर विश्वास नहीं करेगा, और यही नहीं, परमेश्वर को भी मुझ पर भरोसा नहीं होगा। क्या मैं पूरी तरह से सत्यनिष्ठा और गरिमा से रहित नहीं हो जाऊँगा? क्या यह मेरी मूर्खता नहीं होगी?
फिर मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर का लोगों से ईमानदार बनने का आग्रह करना यह साबित करता है कि वह धोखेबाज लोगों से सचमुच घृणा करता है, उन्हें नापसंद करता है। धोखेबाज लोगों के प्रति परमेश्वर की नापसंदगी उनके काम करने के तरीके, उनके स्वभावों, उनके इरादों और उनकी चालबाजी के तरीकों के प्रति नापसंदगी है; परमेश्वर को ये सब बातें नापसंद हैं। यदि धोखेबाज लोग सत्य स्वीकार कर लें, अपने धोखेबाज स्वभाव को मान लें और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार करने को तैयार हो जाएँ, तो उनके बचने की उम्मीद भी बँध जाती है, क्योंकि परमेश्वर सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करता है, जैसा कि सत्य करता है। और इसलिए, यदि हम परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले लोग बनना चाहें, तो सबसे पहले हमें अपने व्यवहार के सिद्धांतों को बदलना होगा : अब हम शैतानी फलसफों के अनुसार नहीं जी सकते, हम झूठ और चालबाजी के सहारे नहीं चल सकते। हमें अपने सारे झूठ त्यागकर ईमानदार बनना होगा। तब हमारे प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण बदलेगा। पहले लोग दूसरों के बीच रहते हुए हमेशा झूठ, ढोंग और चालबाजी पर निर्भर रहते थे, और शैतानी फलसफों को अपने अस्तित्व, जीवन और आचरण की नींव की तरह इस्तेमाल करते थे। इससे परमेश्वर को घृणा थी। गैर-विश्वासियों के बीच यदि तुम खुलकर बोलते हो, सच बोलते हो और ईमानदार रहते हो, तो तुम्हें बदनाम किया जाएगा, तुम्हारी आलोचना की जाएगी और तुम्हें त्याग दिया जाएगा। इसलिए तुम सांसारिक चलन का पालन करते हो और शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हो; तुम झूठ बोलने में ज्यादा-से-ज्यादा माहिर और अधिक से अधिक धोखेबाज होते जाते हो। तुम अपना मकसद पूरा करने और खुद को बचाने के लिए कपटपूर्ण साधनों का उपयोग करना भी सीख जाते हो। तुम शैतान की दुनिया में समृद्ध होते चले जाते हो और परिणामस्वरूप, तुम पाप में इतने गहरे गिरते जाते हो कि फिर उसमें से खुद को निकाल नहीं पाते। परमेश्वर के घर में चीजें ठीक इसके विपरीत होती हैं। तुम जितना अधिक झूठ बोलते और कपटपूर्ण खेल खेलते हो, परमेश्वर के चुने हुए लोग तुमसे उतना ही अधिक ऊब जाते हैं और तुम्हें त्याग देते हैं। यदि तुम पश्चाताप नहीं करते, अब भी शैतानी फलसफों और तर्क से चिपके रहते हो, अपना भेस बदलकर खुद को बढ़िया दिखाने के लिए चालें चलते और बड़ी-बड़ी साजिशें रचते हो, तो बहुत संभव है कि तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटा दिया जाए। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर धोखेबाज लोगों से घृणा करता है। केवल ईमानदार लोग ही परमेश्वर के घर में समृद्ध हो सकते हैं, धोखेबाज लोगों को अंततः त्याग कर हटा दिया जाता है। यह सब परमेश्वर ने पूर्वनिर्धारित कर दिया है। केवल ईमानदार लोग ही स्वर्ग के राज्य में साझीदार हो सकते हैं। यदि तुम ईमानदार व्यक्ति बनने की कोशिश नहीं करोगे, सत्य का अनुसरण करने की दिशा में अनुभव प्राप्त नहीं करोगे और अभ्यास नहीं करोगे, यदि अपना भद्दापन उजागर नहीं करोगे और यदि खुद को खोल कर पेश नहीं करोगे, तो तुम कभी भी पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर पाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करके, मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर कपटी लोगों को पसंद नहीं करता और वह उन्हें नहीं बचाता। चूँकि ये शैतान के होते हैं, कपटी लोग अपनी शोहरत, रुतबे और हितों को बचाने के लिए अपने हर काम में धोखेबाजी और चालबाजी करते हैं, ईमानदारी से नहीं बोलते हैं। इन लोगों के इरादे और तरीके परमेश्वर के लिए घिनौने और चिढ़ पैदा करने वाले होते हैं। हालाँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता था, पर मैंने कोई सत्य हासिल नहीं किया था और अभी भी शैतानी फलसफों के सहारे जी रहा था, जैसे कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” और “जैसे पेड़ को उसकी छाल की जरूरत है वैसे ही लोगों को आत्मसम्मान की जरूरत है।” ये शैतानी फलसफे मेरे दिल में गहराई से जड़ें जमाये हुए थे, मुझे गुमराह और भ्रष्ट कर रहे थे, मुझे प्रसिद्धि, लाभी और रुतबे के पीछे भागने की राह पर चला रहे थे। मैंने सोचा था कि लोगों को अपने लिए जीना चाहिए, भीड़ में अलग दिखना चाहिए, शोहरत और लाभ कमाना चाहिए, और तभी उन्हें नीची नजर से नहीं देखा जाएगा। मैं सोचता था कि अगर कोई इंसान हमेशा सच बोले, कभी झूठ न बोले, तो वह बेवकूफ है। इस कारण से मैंने सदा धोखेबाजी की थी, अपने हितों की खातिर झूठों का जाल बुना था, ज्यादा कपटी, नकली और सामान्य मानवता से हीन बन गया था। मैंने शोहरत और रुतबे को सच से ज्यादा अहम माना था, अपनी शोहरत और रुतबे को बचाने के लिए सच के खिलाफ जाकर झूठ बोलने को तैयार था। शैतान झूठा है, तो जब मैं इस तरह झूठ बोलकर धोखेबाजी करता हूँ, तो क्या मैं भी उस जैसा ही नहीं हूँ? इस बुरी दुनिया में, एक ईमानदार और निष्कपट इंसान होने से काम नहीं चलता। लेकिन परमेश्वर के घर में इसका ठीक उल्टा होता है। परमेश्वर के घर में, धार्मिकता और सत्य का बोलबाला है, इंसान जितना ज्यादा धोखेबाजी करता है, उसके गिरने की संभावना उतनी ही ज्यादा होती है, और आखिरकार सारे धोखेबाजों को परमेश्वर बेनकाब कर निकाल देगा। परमेश्वर कहता है : “अगर लोग चाहते हैं कि उन्हें बचाया जाए, तो उन्हें ईमानदार बनना शुरू करना होगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। “केवल ईमानदार लोग ही स्वर्ग के राज्य में साझीदार हो सकते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। परमेश्वर पवित्र है, और गंदे लोगों को स्वर्ग के राज्य में प्रवेश की इजाजत नहीं है। इसका एहसास होने पर, मुझे लगा कि परमेश्वर का पवित्र और धार्मिक स्वभाव अपमान सहन नहीं करता, मुझे भाई-बहनों से झूठ बोलने पर सचमुच पछतावा हुआ। मैंने सच में खुद से घृणा की और फिर कभी झूठ न बोलना और धोखेबाजी न करना चाहा। मैं सत्य पर अमल करना, ईमानदार इंसान बनना, और सबसे ईमानदारी से बोलना चाहता था। मैं अपने मुँह से झूठ और दिल से धोखेबाजी को खींचकर निकाल देना चाहता था। सिर्फ ऐसा करने से ही मैं परमेश्वर की स्वीकृति के योग्य हो पाऊँगा और मुझे सत्य का राज्य पाने और बचाए जाने का अवसर मिलेगा।
अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन का एक अंश पढ़ा : “ईमानदारी के अभ्यास के कई पहलू हैं। दूसरे शब्दों में, ईमानदार होने का मानक केवल एक तरीके से हासिल नहीं होता; ईमानदार होने से पहले, तुम्हें कई मामलों में मानक पर खरा उतरना होगा। कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि ईमानदार होने के लिए उन्हें बस यह देखना है कि वे झूठ न बोलें। क्या यह दृष्टिकोण सही है? क्या ईमानदार होने का मतलब केवल झूठ नहीं बोलना है? नहीं—इसके और भी कई पहलू हैं। पहली बात तो यह कि तुम्हारे सामने कोई भी मामला आए, चाहे यह तुम्हारी आँखों देखी बात हो या तुम्हें किसी और ने बताया हो, चाहे लोगों के साथ बातचीत करना हो या किसी समस्या को सुलझाने का मामला हो, चाहे यह तुम्हारा कर्तव्य हो जिसे तुम्हें निभाना ही चाहिए या परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया कोई कार्य हो, तुम्हें इन सारे मामलों में पूरी ईमानदारी से पेश आना चाहिए। इंसान चीजों को ईमानदार हृदय से देखने का अभ्यास कैसे करे? जो तुम सोचते और बोलते हो, उसे ईमानदारी से कहो; खोखली, आडंबरपूर्ण या मीठी लगने वाली बातें मत बोलो, चापलूसी वाली या पाखंडपूर्ण झूठी बातें मत बोलो, बल्कि वह बोलो जो तुम्हारे दिल में हैं। यह ईमानदार होना है। अपने दिल की सच्ची बातें और विचार व्यक्त करना—यही वह है जो ईमानदार लोगों को करना चाहिए। अगर तुम जो सोचते हो, वह कभी नहीं बोलते, तुम्हारे मन में कटु शब्द पलते रहते हैं और तुम जो कहते हो वह कभी तुम्हारे विचारों से मेल नहीं खाता, तो यह ईमानदार होना नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल एक ईमानदार व्यक्ति ही सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचन ने मुझे अभ्यास का एक मार्ग दिखाया। दूसरों के साथ मेल-जोल हो, या अपना कर्तव्य करना हो, मेरा रवैया ईमानदार दिल वाला होना चाहिए। चूँकि मैंने जायजा लेने का काम नहीं किया था, तो मुझे यही कहना चाहिए था और इसके प्रति ईमानदार रहना चाहिए था। मुझे यह नहीं सोचना चाहिए कि क्या मेरी शोहरत को नुकसान पहुँचेगा। ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करना सबसे अहम है। अगली सहकर्मी सभा में, मैंने पहल करके अपनी भ्रष्टता प्रकट करनी चाही, लेकिन मुझे फिक्र थी कि सब लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपनी शोहरत और रुतबे की रक्षा करना चाहता था, इसलिए मैंने परमेश्वर से मन-ही-मन प्रार्थना की, उससे मुझे मार्गदर्शन और शक्ति देने और अपनी भ्रष्टता प्रकट करने, सत्य का अभ्यास करने और ईमानदार इंसान बनने का साहस देने की विनती की। मुझे परमेश्वर के वचन का एक अंश याद आया जो मैंने पहले पढ़ा था : “अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास नहीं करते, कभी अपने रहस्यों और अपनी चुनौतियों का गहन विश्लेषण नहीं करते, दूसरों के सामने संगति में कभी खुल कर पेश नहीं आते, न संगति करते हो, न गहन विश्लेषण, न ही अपनी भ्रष्टता और घातक खामियों को सामने लाते हो, तो तुम बचाए नहीं जा सकते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास)। मुझे एहसास हुआ कि अगर मैं ईमानदार नहीं रहा, अपनी भ्रष्टता और कमियों को छुपाता रहा, खुलकर नहीं बोला, खुलासा नहीं किया, या अपना विश्लेषण नहीं किया, तो मैं कभी अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं छोड़ पाऊंगा और मुझे कभी बचाया नहीं जाएगा। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से एक और प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मुझे शक्ति दो ताकि मैं आसानी से खुलकर बोलूँ, और ईमानदार इंसान बन जाऊँ।” अपनी प्रार्थना के बाद, मैंने भाई-बहनों सामने स्वच्छ होने की पहल शुरू की और कहा कि पिछली सभा में जब अगुआ नए सदस्यों के सिंचन के बारे में पूछ रहे थे, तब मैंने झूठ बोला था और सबको धोखा दिया था...। यह कहने के बाद उन्होंने न तो मुझे फटकारा और न ही मुझे नीची नजर से देखा। इसके विपरीत, वे बोले कि यह अच्छी बात थी कि मैं खुलकर बोल पाया और ईमानदार इंसान बन पाया। इस तरह अभ्यास करके मैंने बहुत राहत और सुकून महसूस किया।
जल्दी ही, एक उच्च अगुआ ने मुझसे पूछा, “क्या आपको फिलहाल कलीसिया अगुआओं की हालत की समझ है?” मुझे भरोसा नहीं था कि इस सवाल का जवाब दे पाऊँगा, क्योंकि मैं सिर्फ एक कलीसिया अगुआ की हालत से अवगत था, बाकी दो की हालत से नहीं। मैंने मन-ही-मन सोचा, “अगर मैंने सच बोला, तो क्या अगुआ कहेंगे कि मैंने वास्तविक काम नहीं किया?” और इसलिए मैं कहना चाहता था कि मुझे समझ है। मगर मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से झूठ बोलना चाहता हूँ, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना। फिर मैंने सच बताया, “मैं सिर्फ एक कलीसिया अगुआ की हालत के बारे में जानता हूँ, और बाकी दो की हालत के बारे में नहीं।” यह सुनकर अगुआ ने मेरी आलोचना नहीं की, इसके बजाय कुछ सुझाव दिए और कहा कि मुझे कलीसिया अगुआओं की हालत के बारे में और ज्यादा नियमित ढंग से ध्यान देना चाहिए और उनकी कोई दिक्कतें हों तो उन्हें फौरन सुलझाना चाहिए, अगुआ ने कार्य करने के कुछ कुछ मार्गों पर मेरे साथ संगति भी की। मैंने जाना कि जब मैं सच बोलूँगा, ईमानदार रहूँगा, अपनी भ्रष्टता और कमियों प्रकट करूँगा, तो न सिर्फ मैं भाई-बहनों से मदद पाकर लाभ हासिल कर सकूँगा, बल्कि यह कलीसिया के कार्य और मेरी जीवन प्रगति के लिए भी लाभदायक होगा। पहले मैं अपनी शोहरत और रुतबे की रक्षा के लिए झूठ बोलता और धोखेबाजी करता था, लेकिन प्रत्येक झूठ बोलने के बाद, मेरे दिल पर बोझ होता था और अंतःकरण दोषी महसूस करता था, सबसे अहम बात यह थी कि मैंने अपनी सत्यनिष्ठा और गरिमा खो दी थी, और परमेश्वर ने मुझे घृणित और तिरस्कृत किया था। इस अनुभव से मैं समझ सका हूँ, कि ईमानदार लोगों को परमेश्वर और मनुष्य दोनों पसंद करते हैं, हम जितने ज्यादा ईमानदार होंगे, दूसरों के साथ हमारा मेल-जोल का रिश्ता उतना ही अच्छा होगा, और हम उतनी ही शांति और सुकून महसूस करेंगे। ऐसा करने से न सिर्फ दूसरे हमें नीची नजर से नहीं देखेंगे, बल्कि भाई-बहन भी हमारी मदद करेंगे। ईमानदार बनना सचमुच बढ़िया होता है!