81. मैं अब अपने कर्तव्य में नखरे नहीं करती हूँ
जब मैंने पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया तो मैंने देखा कि कैसे अगुआ भाई-बहन अक्सर लोगों के साथ परमेश्वर के वचनों पर संगति करते हैं ताकि उनकी समस्याओं का समाधान हो सके और भाई-बहन उनकी समस्याओं पर चर्चा करने के लिए उन्हें खोजने को तैयार रहते हैं। इससे मुझे उनसे बहुत जलन हुई और मैंने सोचा कि ऐसा कर्तव्य निभाते हुए वे जहां भी जाएँगे, उन्हें सम्मान और प्रशंसा मिलेगी। मेजबानी और सामान्य मामलों वाले कर्तव्यों को लेकर मेरा मानना था कि ऐसे कर्तव्य निभाने वाले भाई-बहन बस पर्दे के पीछे रहकर कड़ी मेहनत करते रहते हैं, लेकिन वे खुद को अलग पहचान नहीं दिला पाते, दूसरों को नजर नहीं आते और कोई भी उनकी प्रशंसा नहीं करता है। मुझे लगा कि अगर मैं भविष्य में ऐसा कर्तव्य निभा सकूँ जिससे मैं अपनी अलग पहचान बना सकूँ और प्रशंसा पा सकूँ तो यह बहुत अच्छी बात होगी। बाद में मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया और जिन सभाओं की मैंने अगुआई की, वहाँ भाई-बहन मेरे साथ बहुत गर्मजोशी से पेश आए। मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि वे कैसे मुझे ईर्ष्या से देखते हैं और मैंने खुद को बाकियों से एक कदम आगे पाया। अगुआई का कर्तव्य निभाना काफी तनावपूर्ण था और इसमें बहुत ज्यादा काम करना पड़ता था, लेकिन चाहे मुझे कितना कष्ट सहना पड़ा हो या मुझे कितनी भी थकान हुई हो, मैं कभी पीछे नहीं हटी या शिकायत नहीं की। इसके कुछ समय बाद मेरी कम काबिलियत होने और सिद्धांतों के अनुसार मामले न संभालने के कारण—अक्सर अपनी राय के आधार पर कार्य करने और नियमों पर अड़े रहने के कारण—और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचने के कारण मुझे बर्खास्त कर दिया गया। मेरी बर्खास्तगी के बाद मेरे अगुआ ने आकर मुझसे पूछा कि क्या मैं सामान्य मामलों वाला कोई कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ। थोड़ा प्रतिरोध महसूस करते हुए मैंने सोचा, “सामान्य मामलों का काम कलीसिया में विभिन्न विविध कार्य संभालना है, यह सिर्फ बुनियादी, शारीरिक श्रम है। अगर दूसरे भाई-बहनों को पता चले कि मैं ऐसा कर्तव्य निभा रही हूँ तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं ऐसा काम इसलिए कर रही हूँ क्योंकि मेरे पास सत्य वास्तविकता नहीं है?” हालाँकि यह जानते हुए कि एक कर्तव्य मिलना परमेश्वर का आदेश है और इसे स्वीकारना चाहिए और इसके लिए समर्पित होना चाहिए, मैंने अनिच्छा से सहमति दे दी।
बाद में जब मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए बाहर गई तो अक्सर मेरी मुलाकात उन भाई-बहनों से होने लगी जिन्हें मैं पहले से जानती थी। जब वे मुझसे पूछते कि मैं क्या कर्तव्य निभा रही हूँ तो मुझे उन्हें बताने में शर्म आती, मुझे यह चिंता होती कि अगर उन्हें पता चलेगा कि मैं सामान्य मामलों का कर्तव्य निभा रही हूँ तो वे मुझे नीची नजरों से देखेंगे। लेकिन जिस बात का मुझे सबसे ज्यादा डर था, वही हुआ। एक बार मैं एक बहन के घर उसका स्कूटर उधार लेने गई और बातचीत में मैंने उससे कह दिया कि मैं सामान्य मामलों का कर्तव्य निभा रही हूँ। उसने हैरान होकर पूछा, “अब तुम सामान्य मामले क्यों देख रही हो? मुझे लगा कि तुम पाठ-आधारित कर्तव्य निभा रही हो?” मुझे बहुत ही अजीब लगा और मैंने जानबूझकर बात बदल दी, कुछ इधर-उधर की बातें कीं और जितना जल्दी हो सका, वहाँ से निकल गई। घर लौटते समय मेरे मन में रह-रहकर यही चलता रहा कि उस बहन ने यह सुनकर कैसे हैरानी जताई थी कि मैं सामान्य मामले देख रही हूँ। मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने सोचा कि वह बहन मेरे बारे में क्या सोचेगी। क्या वह सोचेगी कि मुझे यह कर्तव्य इसलिए सौंपा गया है क्योंकि मेरे पास सत्य वास्तविकता की कमी है और मेरी काबिलियत कम है? क्या वह मुझे नीची नजरों से देखेगी? इसने मुझे उस कर्तव्य के प्रति और भी प्रतिरोधी बना दिया। कभी-कभी मैं जरूरी पत्र पहुँचाने में टालमटोल करती और उन्हें अपने भाई-बहनों के पास समय पर नहीं पहुँचाती। कभी-कभी मैं भूल जाती और मेरे भाई-बहन लापरवाह और गैर-जिम्मेदार होने के लिए मेरी काट-छाँट करते और मुझे अपने कर्तव्य में और अधिक मेहनती होने और विचारशील होने की याद दिलाते। इस स्थिति का सामना करते हुए मैंने न सिर्फ आत्म-चिंतन करना बंद कर दिया, बल्कि मैं अपने कर्तव्य के प्रति और भी अधिक प्रतिरोधी हो गई। मुझे याद आया कि जब मैं अगुआ थी तो सामान्य मामलों के कार्यकर्ता मुझे परमेश्वर के वचनों की पुस्तकें और पत्र सौंपने आते थे लेकिन अब हालात बदल गए थे और दौड़-भाग करने और भाई-बहनों को चीजें पहुँचाने का काम मुझे सौंप दिया गया था। मुझे लगा कि मेरा रुतबा अचानक घट गया है और मैं लगातार दुखी और उदास होती गई।
एक सुबह जब मैं अपना इलेक्ट्रिक स्कूटर चला रहा थी, तभी उसकी मेरी बैटरी खत्म हो गई और मुझे स्कूटर को धक्का देकर लाना पड़ा। स्कूटर को धक्का देते समय मैंने गलती से एक्सीलेटर घुमा दिया और स्कूटर आगे की ओर उछल गया, इससे पहले कि मुझे कुछ समझ आता, मैं इसके ऊपर गिर पड़ी। मेरा मुँह स्कूटर के आगे वाले किनारे से टकराया, जिससे मेरे कुछ दाँत हिल गए और मेरे चेहरे पर खरोंचें आ गईं और पैर में चोट लग गई। घर लौटने के बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! इन दिनों सामान्य मामलों के अपने कर्तव्य के प्रति मुझमें बहुत प्रतिरोध है और मैं नहीं जानती कि इस समस्या को कैसे सुलझाऊँ। मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं खुद को जान सकूँ और समर्पण कर सकूँ।” प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े, जिसमें कहा गया था : “परमेश्वर के घर में परमेश्वर का आदेश स्वीकारने और इंसान के कर्तव्य-निर्वहन का निरंतर उल्लेख होता है। कर्तव्य कैसे अस्तित्व में आता है? आम तौर पर कहें, तो यह मानवता का उद्धार करने के परमेश्वर के प्रबंधन-कार्य के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आता है; ख़ास तौर पर कहें, तो जब परमेश्वर का प्रबंधन-कार्य मानवजाति के बीच खुलता है, तब विभिन्न कार्य प्रकट होते हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए लोगों का सहयोग चाहिए होता है। इससे जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य उपजते हैं, जिन्हें लोगों को पूरा करना है, और यही जिम्मेदारियाँ और विशेष कार्य वे कर्तव्य हैं, जो परमेश्वर मानवजाति को सौंपता है। परमेश्वर के घर में जिन विभिन्न कार्यों में लोगों के सहयोग की आवश्यकता है, वे ऐसे कर्तव्य हैं जिन्हें उन्हें पूरा करना चाहिए। तो, क्या बेहतर और बदतर, बहुत ऊँचा और नीच या महान और छोटे के अनुसार कर्तव्यों के बीच अंतर हैं? ऐसे अंतर नहीं होते; यदि किसी चीज का परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के साथ कोई लेना-देना हो, उसके घर के काम की आवश्यकता हो, और परमेश्वर के सुसमाचार-प्रचार को उसकी आवश्यकता हो, तो यह व्यक्ति का कर्तव्य होता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। “तुम्हारा चाहे जो भी कर्तव्य हो, उसमें ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो। मान लो तुम कहते हो, ‘हालाँकि यह काम परमेश्वर का आदेश और परमेश्वर के घर का कार्य है, पर यदि मैं इसे करूँगा, तो लोग मुझे नीची निगाह से देख सकते हैं। दूसरों को ऐसा काम मिलता है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। मुझे यह काम दिया गया है, जो मुझे विशिष्ट नहीं बनाता, बल्कि परदे के पीछे मुझसे कड़ी मेहनत करवाता है, यह अनुचित है! मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा। मेरा कर्तव्य वह होना चाहिए, जो मुझे दूसरों के बीच खास बनाए और मुझे प्रसिद्धि दे—और अगर प्रसिद्धि न भी दे या खास न भी बनाए, तो भी मुझे इससे लाभ होना चाहिए और शारीरिक आराम मिलना चाहिए।’ क्या यह कोई स्वीकार्य रवैया है? मीन-मेख निकालना परमेश्वर से आई चीजों को स्वीकार करना नहीं है; यह अपनी पसंद के अनुसार विकल्प चुनना है। यह अपने कर्तव्य को स्वीकारना नहीं है; यह अपने कर्तव्य से इनकार करना है, यह परमेश्वर के खिलाफ तुम्हारी विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति है। इस तरह मीन-मेख निकालने में तुम्हारी निजी पसंद और आकांक्षाओं की मिलावट होती है। जब तुम अपने लाभ, अपनी ख्याति आदि को महत्त्व देते हो, तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी नहीं होता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। परमेश्वर के वचन मेरी वर्तमान अवस्था का स्पष्ट प्रकाशन थे। मैंने देखा कि अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया और विचार गलत थे। मैंने कर्तव्यों में उच्च और निम्न का भेद किया, इन्हें श्रेणियों और वर्गों में बाँटा। मैंने सोचा कि अगुआ होना या पाठ-आधारित कर्तव्य करना किसी को बाकी लोगों से बेहतर बनाता है और दूसरों से प्रशंसा और सम्मान दिलाता है। इस तरह के कर्तव्य में मुझे चाहे कितना ही कष्ट या थकान क्यों न होती हो, मैं इसे करने के लिए अत्यंत तैयार रहती थी। जहाँ तक उन कर्तव्यों की बात है जिनमें शारीरिक श्रम की जरूरत पड़ती है और जो मुझे अपनी अलग पहचान नहीं दिलाते और लोगों की नजरों में नहीं लाते, मैं उन्हें निभाने को तैयार नहीं रहती थी, मुझे लगता था कि ऐसे कर्तव्य स्पष्ट रूप से काफी निम्न स्तर के हैं और उन्हें निभाने पर लोग मुझे नीची नजरों से देखेंगे। इन भ्रामक विचारों के प्रभाव में होने के कारण जब मेरे अगुआ ने मुझे सामान्य मामलों का कर्तव्य सौंपा तो मुझे लगा कि यह निम्न स्तर का कर्तव्य है और मेरी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाएगा, इसलिए मैं प्रतिरोधी हो गई और समर्पण के लिए तैयार नहीं हुई और मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह और गैर-जिम्मेदाराना ढंग से पेश आई। मेरे विचार कितने बेहूदा थे! यह देखते हुए कि मैं कितनी भ्रष्ट थी और मेरी काबिलियत कितनी कम थी, यह परमेश्वर का उत्कर्ष और अनुग्रह ही था कि मैं परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभा पा रही थी, लेकिन मैंने परमेश्वर के इरादों पर जरा भी विचार नहीं किया, परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाना नहीं जाना, सिर्फ अपने हितों और प्रतिष्ठा के बारे में सोचा और अपने कर्तव्य में जैसा चाहा वैसा ही किया, इसका इस्तेमाल अपने हित साधने के लिए किया। मेरी मानवता कहाँ चली गई थी? परमेश्वर निश्चित रूप से ऐसे आचरण से घृणा करता है!
एक दिन मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? पहले तो तुम्हें यह पता लगाने की कोशिश में कि वह कौन था जिसने तुम्हें यह सौंपा था, इसका विश्लेषण नहीं करना चाहिए; इसके बजाय तुम्हें उसे परमेश्वर से मिला हुआ, परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया मानना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए और परमेश्वर से अपने कर्तव्य को ग्रहण करना चाहिए। दूसरे, ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो, और उसकी प्रकृति के बारे में न सोचो, क्या वह तुम्हें लोगों के बीच खास बनाता है, यह सभी के सामने किया जाता है या पर्दे के पीछे। इन चीजों पर गौर मत करो। एक और रवैया भी है : आज्ञाकारिता और सक्रिय सहयोग” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने जाना कि हमारे कर्तव्य परमेश्वर का आदेश हैं और उन्हें निभाना हमारा दायित्व और जिम्मेदारी है। कर्तव्य चाहे हमें अलग पहचान दिलाने और दिखने का अवसर दे या न दे और यह चाहे हमें दूसरों से सम्मान और प्रशंसा दिलाए या न दिलाए, सृजित प्राणियों के रूप में हमें ऐसे कर्तव्य स्वीकारने चाहिए, उनके प्रति समर्पण करना और अपनी पूरी निष्ठा दिखानी चाहिए। अपने कर्तव्यों में हमारा यही रवैया होना चाहिए और यही विवेक हम सभी के पास होना चाहिए। मैंने सोचा कि सामान्य मामले भले ही कोई आकर्षक कर्तव्य न हों, लेकिन यह परमेश्वर के घर के कार्य का अनिवार्य पहलू है। अगर हमारे पास किताबें और पत्र बाँटने वाले लोग नहीं होंगे तो हमारे भाई-बहन समय पर परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ पाएँगे और कुछ परियोजनाएँ समय पर पूरी नहीं हो पाएँगी, जिससे कलीसिया के काम पर असर पड़ेगा। चूँकि मुझे सामान्य मामलों का कर्तव्य सौंपा गया था, इसलिए मुझे यह समझना चाहिए था कि मुझे सौंपे गए काम पूरे करना मेरी जिम्मेदारी है। यह एहसास होने पर मैं आखिरकार स्वीकार और समर्पण करने को तैयार हो गई। चाहे दूसरे मेरा सम्मान करें या न करें, फिर भी मैं अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने की पूरी कोशिश करूँगी। उसके बाद मैंने अपनी सारी ऊर्जा और सोच अपने कर्तव्य में लगा दी। हर दिन जब पत्र भेजने और लेने का समय आता तो मैं कर्तव्यनिष्ठा से उन्हें जाँचती और दिल लगाकर अपना काम करती। जब मेरी साथी बहन को दूसरे काम संभालने के लिए बाहर जाना पड़ता तो मैं सक्रियता से उसका काम आगे बढ़ाने में मदद करती और अपना काम भी ठीक से करने की कोशिश करती। इस कर्मठ और समग्र तरीके से काम करके मैं बहुत सहज हो गई। जब दूसरे भाई-बहन मुझसे पूछते कि मैं क्या कर्तव्य निभा रही हूँ तो मैं साफ कह देती कि मैं सामान्य मामले देख रही हूँ और मुझे अब शर्मिंदगी नहीं होती थी।
जून 2019 में मेरे अगुआ ने मुझे खोजा और मुझसे पूछा कि क्या मैं कुछ बहनों की मेजबानी करना चाहूँगी। मैंने मन में सोचा, “मैं कर्तव्य स्वीकारने के लिए तैयार हूँ, लेकिन अगर मेरे करीबी भाई-बहनों को पता चले कि मैं एक मेजबान के रूप में अपने दिन बर्तन माँजने और खाना पकाने में बिता रही हूँ तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे मुझे नीची नजरों से देखेंगे?” मैंने जल्दी से बहन वांग युन का नाम सुझाते हुए कहा कि मुझे लगता कि इस कर्तव्य के लिए वह ज्यादा ठीक रहेगी, लेकिन अगुआ ने जवाब दिया कि बहन वांग युन हाल-फिलहाल बीमार चल रही थी और इस काम के लिए वह ठीक नहीं रहेगी। मुझे एहसास हुआ कि यह कर्तव्य मुझे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के माध्यम से मिला है, इसलिए मैंने इसे टालने की कोशिश करना बंद कर दी। मेजबानी के दौरान मैंने देखा कि बहनें अक्सर यह संगति करती हैं कि अपने कर्तव्यों के लिए अनुकूल कौशल और ज्ञान क्या है और अपने अनुभवों से उन्होंने क्या हासिल किया है। जब उनकी सुपरवाइजर आती थी तो वह भी बहनों के साथ उनके काम के बारे में संगति करती थी। मुझे उनसे जलन हुई कि वे ऐसा काम कर पा रही हैं जबकि मैं अपने घर के माहौल को सुरक्षित बनाए रखने या रसोई में खाना बनाने में लगी रहती हूँ। उस हीन भावना ने मुझे बहुत दुखी कर दिया। कभी-कभी खाना बनाते समय मेरा ध्यान कहीं और भटक जाता और मैं बहुत ज्यादा नमक डाल देती या नमक डालना ही भूल जाती। कुछ बहनें मसालेदार खाना नहीं खा पाती थीं, इसलिए एक बहन ने मुझसे विनम्रता से कहा कि क्या मैं तीखी मिर्च डालने से पहले कुछ खाना अलग रख सकती हूँ। मैंने उसका अनुरोध मान लिया लेकिन मन ही मन सोचा, “पहले जब मैं अगुआ थी तो आदेश मेरा चलता था। अब जब मैं मेजबानी का काम कर रही हूँ तो न सिर्फ मुझे दूसरों से सम्मान नहीं मिल रहा है, बल्कि मुझे दूसरों के आदेशों का पालन भी करना पड़ रहा है।” इस कारण मैं उदास और त्रस्त महसूस करने लगी। कभी-कभी जब बहनें अपने कर्तव्यों में व्यस्त होती थीं तो वे मुझे रोजमर्रा की जरूरतों की चीजें खरीदने में मदद करने के लिए कहती थीं, जिससे मुझे लगता था कि मुझ पर हुक्म चलाया जा रहा है और मैं यहाँ बस दौड़-भाग के काम करने के लिए हूँ। बाद में मुझे एहसास हुआ कि मेरी दशा खराब है। फिर भी मैं न चाहते हुए भी अक्सर उसी दशा में जीती थी। मुझे बहुत बुरा लगता था और ऐसा लगता था मानो मेरा दिल परमेश्वर से भटक गया है।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े, जिनमें कहा गया था : “ऐसी गंदी जगह में जन्म लेकर मनुष्य समाज द्वारा गंभीर हद तक संक्रमित हो गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित हो गया है, और उसे ‘उच्चतर शिक्षा संस्थानों’ में पढ़ाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन के बारे में क्षुद्र दृष्टिकोण, सांसारिक आचरण के घृणित फलसफे, बिल्कुल बेकार अस्तित्व, भ्रष्ट जीवन-शैली और रिवाज—इन सभी चीजों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर घुसपैठ कर ली है, उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। “शैतान राष्ट्रीय सरकारों और प्रसिद्ध एवं महान व्यक्तियों की शिक्षा और प्रभाव के माध्यम से लोगों को दूषित करता है। उनके शैतानी शब्द मनुष्य के जीवन और प्रकृति बन गए हैं। ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’ एक प्रसिद्ध शैतानी कहावत है जिसे हर किसी में डाल दिया गया है और यह मनुष्य का जीवन बन गया है। सांसारिक आचरण के फलसफों के लिए कुछ अन्य शब्द भी हैं जो इसी तरह के हैं। शैतान प्रत्येक देश के लोगों को शिक्षित करने, गुमराह करने और भ्रष्ट करने के लिए की पारंपरिक संस्कृति का इस्तेमाल करता है, और मानवजाति को विनाश की विशाल खाई में गिरने और उसके द्वारा निगल लिए जाने पर मजबूर कर देता है, और अंत में, परमेश्वर लोगों को नष्ट कर देता है क्योंकि वे शैतान की सेवा करते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं। ... अभी भी लोगों के जीवन, आचरण और व्यवहार में कई शैतानी विष उपस्थित हैं। उदाहरण के लिए, सांसारिक आचरण के उनके फलसफे, काम करने के उनके तरीके, और उनकी सभी कहावतें बड़े लाल अजगर के विषों से भरी हैं, और ये सभी शैतान से आते हैं। इस प्रकार, लोगों की हड्डियों और रक्त से बहने वाली सभी चीजें शैतान की हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्यों के बीच उच्च और निम्न का भेद करने और उन्हें श्रेणियों और वर्गों में बाँटने के मूल में क्या है—मन में शैतानी जहर समाने के कारण मैं भ्रष्ट हो गई थी, जैसे “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “जो लोग अपने दिमाग से परिश्रम करते हैं वे दूसरों पर शासन करते हैं, और जो अपने हाथों से परिश्रम करते हैं, वे दूसरों के द्वारा शासित होते हैं,” और “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है।” मैं इन शैतानी जहरों के अनुसार जीती थी, प्रसिद्धि, लाभ, रुतबे और सम्मान की तलाश में रहती थी। मुझे लगता था कि सिर्फ ऐसे जीना ही गरिमापूर्ण और सम्माननीय है। परमेश्वर के घर के कर्तव्यों के बारे में भी मैं शैतानी फलसफे और विचारों के संदर्भ में ही सोचती थी, मैं मानती थी कि अगुआ होने, पाठ आधारित कार्य करने और वीडियो बनाने जैसे जिन कर्तव्यों में कौशल और प्रतिभा की जरूरत होती है, उनका लोग सम्मान करते हैं, जबकि मेजबानी और सामान्य मामलों जैसे शारीरिक श्रम वाले कर्तव्यों को निम्न माना जाता है। भ्रामक विचारों से प्रभावित होकर मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह हो गई थी, ध्यान केंद्रित नहीं करती थी, अक्सर पत्र भेजना भूल जाती थी और काम में देरी करती थी, क्योंकि मुझे बस यही लगता था कि इस कर्तव्य का सम्मान नहीं है। मैंने जो खाना बनाती थी वह या तो बहुत फीका होता था या बहुत ही ज्यादा नमकीन और मैं यह ख्याल नहीं रखती थी कि मेरी बहनें इसे खा भी पाएँगी या नहीं, मैं जैसा चाहती थी बस वैसा ही खाना बनाना पसंद करती थी। जब बहनों ने मुझसे कहा कि मैं उनके लिए चीजें खरीदकर ले आऊँ तो मुझे लगा कि वे मेरे साथ एक मामूली चाकर जैसा सलूक कर रही हैं और मैंने जानबूझकर टालमटोल की। मैंने देखा कि मेरे दिल में शैतानी जहर पहले ही गहराई तक समा चुके थे और मेरी प्रकृति बन चुके थे जिससे मैं स्वार्थी, नीच और मानवता रहित बन गई थी। मैंने अपने कर्तव्य को प्रतिष्ठा और रुतबा पाने का तरीका माना और अपने कर्तव्य का इस्तेमाल अपने भाई-बहनों से सम्मान और प्रशंसा पाने के अवसर के रूप में करना चाहा। मैं परमेश्वर को धोखा दे रही थी और उसका प्रतिरोध कर रही थी! मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत ही खतरनाक स्थिति में हूँ, इसलिए मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अब प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछा नहीं भागना चाहती। मैं तुमसे पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ। अभ्यास का मार्ग खोजने में मेरा मार्गदर्शन करो।”
उसके बाद मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश मिले : “सत्य के सामने हर कोई बराबर है और परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाने वालों के लिए उम्र या नीचता और कुलीनता का कोई भेद नहीं है। अपने कर्तव्य के सामने हर कोई बराबर है, वे बस अलग-अलग काम करते हैं। वरिष्ठता के आधार पर उनके बीच कोई भेद नहीं है। सत्य के सामने सबको विनम्र, आज्ञाकारी और स्वीकारने वाला दिल रखना चाहिए। लोगों में यही सूझ-बूझ और रवैया होना चाहिए” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। “जब परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाएं तो वह उनसे एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने या किसी महान उपक्रम को संपन्न करने को नहीं कह रहा है, और न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का निर्वहन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या उत्कृष्ट व्यक्ति बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने सुना है उसे अच्छे से याद रखो और जब अभ्यास का समय आए, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार ऐसा करो। उन्हें तुम्हारा जीवन, तुम्हारी वास्तविकताएं और जो तुम लोग जीते हो, वह बन जाने दो। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। ... अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में कठिन नहीं है, और न ही उसे निष्ठापूर्वक और स्वीकार्य मानक तक करना कठिन है। तुम्हें अपने जीवन का बलिदान या कुछ भी खास या मुश्किल नहीं करना है, तुम्हें केवल ईमानदारी और दृढ़ता से परमेश्वर के वचनों और निर्देशों का पालन करना है, इसमें अपने विचार नहीं जोड़ने हैं या अपना खुद का कार्य संचालित नहीं करना है, बल्कि सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चलना है। अगर लोग ऐसा कर सकते हैं, तो उनमें मूल रूप से एक मानवीय सदृशता होगी। जब उनमें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण होता है, और वे ईमानदार व्यक्ति बन जाते हैं, तो उनमें एक सच्चे इंसान की सदृशता होगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। सच में, चाहे हम परमेश्वर के घर में कोई भी कर्तव्य निभाएँ, चाहे वह अगुआई का कर्तव्य हो, पाठ-आधारित कर्तव्य हो या मेजबान के रूप में सेवा करना हो या सामान्य मामलों का काम करना हो, ये सभी अलग-अलग काम हैं और इनमें से कोई भी एक दूसरे से छोटा-बड़ा नहीं है। चाहे हम कोई भी कर्तव्य निभाएँ, हम सभी परमेश्वर का आदेश मान रहे हैं और सृजित प्राणियों के रूप में अपना काम कर रहे हैं। परमेश्वर किसी के बारे में बहुत अच्छी राय सिर्फ इसलिए नहीं रखेगा कि उसके पास प्रतिभा और कौशल है या वह कोई विशेष कर्तव्य निभाता है। इसी तरह वह किसी को सिर्फ इसलिए नीची नजरों से नहीं देखेगा क्योंकि वह कम आकर्षक कर्तव्य निभाता है। परमेश्वर इस बात की परवाह करता है कि क्या लोग अपने कर्तव्य के दौरान सत्य का अनुसरण करते हैं या नहीं और क्या वे अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पण करते हैं और इसके प्रति निष्ठावान रहते हैं या नहीं। कलीसिया ने मुझे मेजबान के रूप में सेवा करने का कार्य सौंपा था, इसलिए मुझे यह दायित्व और कर्तव्य निभाना चाहिए था। चाहे लोग मेरे बारे में ऊँचा सोचें या नहीं, मुझे इसे स्वीकारना चाहिए और समर्पित होना चाहिए—यही विवेक मेरे पास होना चाहिए था। मैंने सोचा कि परमेश्वर ने जो असंख्य चीजें बनाई हैं, चाहे वे बड़ी हों या छोटी, वे सभी परमेश्वर की संप्रभुता और आदेश के अनुसार मौजूद हैं और परमेश्वर ने उन्हें जो भी कार्य दिया है, उसे पूरा करती हैं। घास का एक छोटा सा तिनका अपनी ऊँचाई की तुलना किसी ऊँचे पेड़ से नहीं करता, न ही फूलों से प्रतिस्पर्धा करता है कि कौन अधिक सुंदर है; यह सिर्फ आज्ञाकारी होकर अपना काम करता है। अगर मैं घास के उस तिनके की तरह बन पाती, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करती, व्यावहारिक तरीके से आचरण करती और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी भूमिका निभाने की कोशिश करती तो मुझे रुतबा न मिलने पर इतना कष्ट नहीं होता। इसके अलावा परमेश्वर के घर में अगुआ होने का मतलब लोगों को आदेश देना नहीं है, जैसा कि मैं मानती थी अगुआ के लिए सभी लोगों का सेवक बनना, भाई-बहनों की मदद करने के लिए सत्य की संगति करना, जीवन प्रवेश में उनके वास्तविक मुद्दे सुलझाना और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में उनका मार्गदर्शन करना जरूरी है। मेजबानी का काम भी कोई छोटा कर्तव्य नहीं है—इसके लिए मेजबानी का माहौल बनाए रखते हुए अपना कर्तव्य निभाने की जरूरत होती है ताकि भाई-बहन शांति से अपना कर्तव्य निभा सकें। हममें से हर कोई अपनी भूमिका के रूप में अपना हाथ बँटाता है ताकि राज्य के सुसमाचार का विस्तार हो। यह सब जानकर मुझे मुक्ति की भावना का एहसास हुआ। परमेश्वर का घर लोगों को उनके कौशल, क्षमता और आध्यात्मिक कद के आधार पर कर्तव्य सौंपता है। मैंने पहले अगुआई और पाठ-आधारित कर्तव्यों में सेवा की थी, लेकिन मेरी काबिलियत कम थी, मैं कार्यों के लिए उपयुक्त नहीं थी और उन भूमिकाओं के लिए अनुपयुक्त थी। फिर भी मैं असल में खुद को नहीं समझती थी, हमेशा अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचती थी और दूसरों से सम्मान चाहती थी। मैं कितनी विवेकहीन थी! कलीसिया ने मुझे मेरी काबिलियत और मेरे घर के माहौल के आधार पर मेजबानी का कर्तव्य सौंपा—यह कर्तव्य मेरे लिए बहुत उपयुक्त था। मेजबान के रूप में मेरी भूमिका के लिए मुझे बहुत सम्मान नहीं मिला, लेकिन इस कर्तव्य ने अनुसरण को लेकर मेरे गलत विचारों और मेरे भ्रष्ट स्वभाव को उजागर कर दिया और मुझे सत्य खोजने और अपनी कुछ समझ हासिल करने को प्रेरित किया। यही वह सबसे मूल्यवान चीज है जो मैं इस कर्तव्य से हासिल कर सकी। मैंने अपने दिल की गहराई से परमेश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने मुझे शुद्ध करने और बदलने के लिए इस वातावरण का आयोजन किया और मैं उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने और उसके प्रेम का बदला चुकाने के लिए मेजबानी का कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए तैयार हो गई।
बाद में मैं अपनी बहनों के लिए खाना बनाने के तरीके में सिद्धांतों में प्रवेश करने का प्रयास करने लगी, मैं यह विचार करने लगी कि किस तरह का खाना उनकी सेहत के लिए सबसे अधिक फायदेमंद होगा। जब वे व्यस्त नहीं होती थीं तो वे घर के कामों में मेरी मदद करती थीं और कोई हीन समझकर मुझ पर हुक्म नहीं चलाती थीं। जब मुझे अपने कर्तव्य में मुश्किलों का सामना करना पड़ता तो वे धैर्यपूर्वक मेरे साथ संगति करतीं और मेरा साथ देतीं और हम सभी अपनी-अपनी भूमिका निभाकर अपना हाथ बँटाती थीं। इस तरह से बहनों के साथ मेरे काफी सामंजस्यपूर्ण संबंध बनने लगे और मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए खुशी-खुशी तैयार रहती। ये सभी लाभ और बदलाव परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का नतीजा थे।