80. बर्खास्त होने के बाद के विचार
अप्रैल 2021 में मैं कलीसिया में नए विश्वासियों का सिंचन कर रही थी। जब मैंने पहली बार यह कर्तव्य निभाया तो मुझमें बोझ उठाने की भावना थी और मैं सिद्धांतों पर कड़ी मेहनत करने पर ध्यान देती थी। जब कभी मैंने ऐसी समस्याओं का सामना किया जो मुझे समझ में नहीं आती थीं तो मैं प्रार्थना और खोज करती थी और अक्सर अपने भाई-बहनों के साथ संगति करती थी। धीरे-धीरे मैंने कुछ सिद्धांत समझ लिए और मेरे काम में नतीजे मिलने लगे। कुछ महीने बाद, जब बहुत सारे लोग सच्चे मार्ग की खोज और जाँच कर रहे थे तो कई लोगों ने परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। इन नए विश्वासियों का जल्द सिंचन करने के लिए अगुआ ने मुझे उनके तीन और समूहों का प्रभारी बना दिया। जब मैंने देखा कि बहुत सारे नए विश्वासी हैं तो मैंने इस बात पर आपत्ति जताते हुए सोचा, “मैं नए विश्वासियों के मौजूदा समूहों के सिंचन को लेकर पहले से ही बहुत चिंतित हूँ, उन्हें कई धारणाएँ, समस्याएँ और कठिनाइयाँ आ रही हैं, जिन्हें सुलझाने की जरूरत है। कभी-कभी नतीजे पाने के लिए उनके साथ बार-बार संगति करनी पड़ती है। अब बहुत सारे विश्वासी हो गए हैं तो उन सभी का ठीक से सिंचन करने के लिए बहुत समय देना पड़ेगा और मेहनत करनी पड़ेगी ताकि वे सच्चे मार्ग पर मजबूत नींव बना सकें। यह बहुत बड़ी परेशानी है। अगर हालात ऐसे ही रहे तो मैं शारीरिक रूप से कैसे सामना कर पाऊँगी? मेरी हालत पहले ही खराब है! अगर मैं थककर बीमार हो गई तो वाकई मुश्किल में पड़ जाऊँगी।” मुझे पता था कि पर्यवेक्षक लंबे समय से नए विश्वासियों का सिंचन कर रही है और उसकी इस काम के सिद्धांतों पर गहरी पकड़ है, इसलिए मैंने मन ही मन कहा, “भविष्य में बहुत जटिल समस्याएँ सुलझाने के लिए मुझे पर्यवेक्षक को ही कहना चाहिए। फिर मुझे परमेश्वर के वचन खोजने और नए विश्वासियों के साथ उन पर संगति करने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। न सिर्फ उनकी समस्याएँ जल्दी सुलझेंगी बल्कि मुझे भी कुछ राहत मिलेगी और मेरा समय और प्रयास भी बचेंगे। क्या ऐसे में चित भी मेरी और पट भी मेरी नहीं होगी?” तो तब से नए विश्वासियों का सिंचन करते हुए जब भी मुझे ऐसी कठिनाइयाँ या समस्याएँ दिखतीं जिन्हें मैं भली-भाँति नहीं समझ पाती थी तो मैं सत्य सिद्धांत नहीं खोजती थी, बल्कि समस्याएँ सीधे पर्यवेक्षक के सिर पर डालकर कह देती थी कि वह संगति कर इन्हें सुलझा ले।
एक सभा में पर्यवेक्षक ने मुझे उजागर कर दिया, “आजकल तुम्हारे साथ क्या चल रहा है? तुम अपने कर्तव्य में मेहनत नहीं कर रही हो। हर बार जब किसी नए विश्वासी को कोई समस्या या कठिनाई होती है तो तुम उसे सुलझाने के लिए सत्य नहीं खोजती हो, बल्कि सीधे मुझे उस पर संगति करने के लिए कह देती हो। इस तरह से हो सकता है तुम्हें शारीरिक कष्ट न उठाना पड़े, लेकिन क्या तुम सत्य हासिल कर सकोगी? अगर तुम बोझ उठाने की भावना के बिना अपना कर्तव्य निभाती हो और देह के सुखों की लालसा करती रहती हो तो पवित्र आत्मा का कार्य गँवा दोगी और देर-सवेर तुम्हें बेनकाब कर निकाल दिया जाएगा। तुम्हें सावधानी से आत्म-चिंतन करना चाहिए!” पर्यवेक्षक की बातें सुनकर मुझे निराशा और पछतावा हुआ और एहसास होने लगा कि इस तरह चलते रहना वाकई खतरनाक होगा। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और आत्म-चिंतन कर खुद को बेहतर ढंग से समझने के लिए उससे मार्गदर्शन माँगा।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग चाहे जो भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसमें अयोग्य होते हैं, वे उसका भार नहीं उठा सकते, और वे किसी भी उस दायित्व या जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ होते हैं, जो एक व्यक्ति को निभानी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? क्या वे अभी भी इंसान कहलाने लायक हैं? कमअक्ल लोगों, मानसिक रूप से अयोग्य, और जो शारीरिक अक्षमताओं से ग्रस्त हैं, उन्हें छोड़कर, क्या कोई ऐसा जीवित व्यक्ति है जिसे अपने कर्तव्यों को नहीं करना चाहिए और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहिए? लेकिन इस तरह के लोग अविश्वसनीय और सुस्त होते हैं, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते; निहितार्थ यह है कि वे एक उचित मनुष्य नहीं बनना चाहते हैं। परमेश्वर ने उन्हें इंसान बनने का अवसर दिया, और उसने उन्हें काबिलियत और विशेष गुण दिए, फिर भी वे अपने कर्तव्य-पालन में इनका इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे कुछ नहीं करते, लेकिन हर मोड़ पर चीजों का आनंद लेना चाहते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है? उन्हें कोई भी काम दे दिया जाए—चाहे वह महत्वपूर्ण हो या सामान्य, कठिन हो या सरल—वे हमेशा लापरवाह और शातिर होते हैं और कामचोरी करते हैं। समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं; कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, और वे अपना परजीवी जीवन जीते रहना चाहते हैं। क्या वे बेकार कचरा नहीं हैं? समाज में, किसे रोजी-रोटी कमाने के लिए खुद पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है? एक बार जब व्यक्ति व्यस्क हो जाता है, तो उसे अपना भरण-पोषण खुद करना चाहिए। उसके माता-पिता ने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है। भले ही उसके माता-पिता उसकी मदद करने के लिए तैयार हों, वह इससे असहज होगा। उन्हें यह समझने में समर्थ होना चाहिए कि उनके माता-पिता ने उनकी परवरिश करने का अपना लक्ष्य पूरा कर दिया है, और कि वे हृष्ट-पुष्ट वयस्क हैं, और उन्हें स्वतंत्र रूप से जीवन जीने में समर्थ होना चाहिए। क्या एक वयस्क में यह न्यूनतम सूझ-बूझ नहीं होनी चाहिए? अगर किसी व्यक्ति में सही मायने में सूझ-बूझ है, तो वह संभवतः अपने माता-पिता के पैसों पर जीवन निर्वाह नहीं कर सकेगा; वह दूसरों की हँसी का पात्र बनने से, अपनी नाक कटने से डरेगा। तो क्या किसी सुविधाभोगी और काम से घृणा करने वाले व्यक्ति में कोई विवेक होता है? (नहीं।) वे बिना काम किए कुछ हासिल करना चाहते हैं; वे कभी जिम्मेदारी पूरी नहीं करना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि मिठाइयाँ आसमान से सीधे उनके मुँह में टपकें; उन्हें हमेशा दिन में तीन बार अच्छा भोजन चाहिए होता है, वे चाहते हैं कि कोई उनके लिए पलकें बिछाए रहे और वे थोड़ा सा भी कार्य किए बिना बढ़िया खाने-पीने की चीजों का आनंद लेते रहें। क्या यह एक परजीवी की मानसिकता नहीं है? क्या परजीवियों में अंतश्चेतना और विवेक होता हैं? क्या उनमें ईमानदारी और गरिमा होती है? बिल्कुल नहीं। वे सभी मुफ्तखोर निकम्मे होते हैं, जमीर या विवेक से रहित जानवर। उनमें से कोई भी परमेश्वर के घर में बने रहने के योग्य नहीं है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (8))। परमेश्वर के वचनों को लेकर आत्म-चिंतन करते हुए मैंने पाया कि अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया बहुत ही तिरस्कारपूर्ण और लापरवाह था। मैं वह जिम्मेदारियाँ और दायित्व भी नहीं निभा पा रही थी जो मुझे निभाने चाहिए थे। मैं वाकई कचरे से अलग नहीं थी। जब भी मेरा काम बढ़ता और मुझे कष्ट सहना पड़ता और कीमत चुकानी पड़ती तो मैं सबसे पहले देह के बारे में सोचती। मैंने सोचा कि चूँकि बहुत से नए विश्वासियों का सिंचन करना पड़ेगा, इसलिए बहुत सी समस्याओं से निपटना और सुलझाना पड़ेगा। अगर मुझे हर नए विश्वासी के साथ धैर्यपूर्वक संगति करनी पड़ेगी और उसका साथ देना पड़ेगा तो मुझे बहुत ज्यादा चिंता और थकान हो जाएगी। मुझे डर था कि इतनी थकान होने से मैं बीमार पड़ जाऊँगी और कष्ट सहूँगी। इसलिए मैं काम में ढिलाई बरतने और लापरवाह होने लगी। जब भी मुझे कोई जरा सी भी जटिल समस्या दिखती तो मैं उसे सीधे अपने पर्यवेक्षक पर डाल देती थी, मैं सत्य खोजकर इसके समाधान की कोई कोशिश नहीं करती थी। मैं वाकई स्वार्थी और धोखेबाज थी! मुझे सिर्फ आराम करने और थकान से बचने की परवाह थी। मैंने दूसरे लोगों के काम और कठिनाइयों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचा या नहीं सोचा कि क्या मेरे व्यवहार से दूसरों के कर्तव्यों में देर होगी। भले ही इस तरह से मेरी देह को आराम मिला और मुझे ज्यादा कष्ट नहीं सहना पड़ा, लेकिन मेरा जीवन बिल्कुल आगे नहीं बढ़ रहा था क्योंकि मैं सत्य की खोज नहीं कर रही थी तो आखिर में मुझे क्या हासिल हो सकता था? क्या मैं खुद को नुकसान नहीं पहुँचा रही थी? परमेश्वर कहता है कि आलसी और धूर्त लोग बेकार का कचरा हैं और क्या परमेश्वर कचरे को ठुकराकर हटा नहीं देता? यह सोचकर मुझे कुछ हद तक पश्चात्ताप और डर महसूस हुआ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि मैं अपने कर्तव्यों के प्रति अपना रवैया बदलना और उन्हें लगन से निभाना चाहती हूँ।
उसके बाद जब भी मुझे नए विश्वासियों का सिंचन करते समय मुश्किलों का सामना करना पड़ा तो मैंने सचेत होकर प्रार्थना की, परमेश्वर पर भरोसा किया, सत्य की खोज की और उनकी मुश्किलें सुलझाने के लिए धैर्यपूर्वक संगति की और उन्हें दूसरों पर नहीं डाला। लेकिन कुछ नए विश्वासियों की मजबूत धार्मिक धारणाएँ थीं, जिन पर वे इतने दृढ़ता से अड़े हुए थे कि उन्हें उतार फेंकने से पहले मुझे उनके साथ कई बार संगति करनी पड़ी। कुछ समय बाद मुझे चिंता होने लगी और मेरी बहुत सारी ऊर्जा खर्च होने लगी। इस वक्त तक मुझे कुछ चिढ़ होने लगी और मैंने मन में सोचा, “अगर ऐसा ही चलता रहा तो नए विश्वासियों का सिंचन ठीक से करने के लिए मुझे कितना खपना पड़ेगा? यह बहुत थकाऊ है। मैं बस उनकी धारणाओं को लेकर परमेश्वर के वचनों के कुछ प्रासंगिक अंश देखकर उन्हें नए विश्वासियों को भेज सकती हूँ ताकि वे इन्हें खुद ही पढ़ लें, फिर भी अगर उन्हें कुछ समझ नहीं आता है तो उनके साथ संगति कर सकती हूँ। इससे मेरी कुछ चिंताएँ दूर हो जाएँगी।” लेकिन जब भी मैं ऐसा करती तो मैं थोड़ी बेचैन हो जाती। मैंने मन ही मन कहा, “जब मैं उनके साथ आमने-सामने विस्तार से संगति करती हूँ तो भी उन्हें अपनी धारणाएँ छोड़ने के लिए मनाना मुश्किल होता है। अगर मैं उन्हें सब कुछ खुद पढ़ने के लिए छोड़ दूँगी तो वे कैसे समझ पाएँगे? अरे, जो भी हो। मैं तब तक संगति नहीं करूँगी जब तक समस्याएँ न दिखें।” फिर मैंने ज्यादा नहीं सोचा और इस बात को यहीं छोड़ दिया। कुछ समय बाद कुछ नए विश्वासी अब सभा नहीं करना चाहते थे क्योंकि उनकी धार्मिक धारणाओं का तुरंत समाधान नहीं हो पाया था और कुछ ने तो पादरियों और एल्डरों से गुमराह और परेशान होकर विश्वास करना ही छोड़ दिया था। जब मैंने ऐसी चीजें होती देखीं तो मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ, लेकिन फिर मैंने सोचा, “सारी जिम्मेदारी मेरी ही नहीं है। मैंने उन्हें परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश पढ़ने के लिए भेजे; बात यह है कि ये नए विश्वासी बहुत ही घमंडी और आत्मतुष्ट हैं। वे हमेशा अपनी धारणाओं पर अड़े रहते हैं और सत्य नहीं स्वीकारते, इसलिए मैं उनकी कोई मदद नहीं कर सकती।” क्योंकि मैं अपना कर्तव्य निभाने में लगातार आलसी और लापरवाह थी, मुझे लगा कि परमेश्वर ने मुझसे अपना चेहरा छिपा लिया है और मेरे विचार लगातार धुंधले होते गए। मैं कई समस्याओं से बाहर निकलने का रास्ता नहीं देख पाई, और नए विश्वासियों के साथ मेरी संगति नीरस और उबाऊ थी। अपना कर्तव्य निभाना बहुत भारी काम बन गया और नतीजे लगातार खराब होते गए। बाद में पर्यवेक्षक ने देखा कि मेरी अवस्था में कोई बदलाव नहीं आया है और इससे मेरे कर्तव्य पर गंभीर असर पड़ रहा है, इसलिए उसने मुझे कर्तव्य निभाने के बजाय आत्म-चिंतन करने के लिए आध्यात्मिक भक्ति का अभ्यास करने को कहा। यह सुनकर मैं टूट गई और मैं बेबस होकर रोने लगी। मुझे अच्छी तरह से पता था कि यह अपनी देह के प्रति बहुत अधिक विचारशील होने और अपने कर्तव्य निभाने में लगातार लापरवाह होने का नतीजा था। मुझे लगा कि मैं खत्म हो गई हूँ। जैसे ही परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला था, मुझे मेरे कर्तव्य से निलंबित कर दिया गया। क्या मुझे निकाला नहीं जा रहा था? वे कुछ दिन बहुत कष्टदायक थे और मैं ठीक से खा या सो नहीं पा रही थी। अपनी पीड़ा के बीच मैंने घुटने टेके और परमेश्वर से ईमानदारी से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि मैंने जो किया है, उससे तुम्हें मुझसे चिढ़ और नफरत होती है, लेकिन मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। मुझे प्रबोधन और मार्गदर्शन दो ताकि मैं खुद को और अधिक समझ सकूँ।” प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कुछ लोग कर्तव्य निभाने के दौरान कष्ट सहने को तैयार नहीं रहते, कोई भी समस्या सामने आने पर हमेशा शिकायत करते हैं और कीमत चुकाने से इनकार कर देते हैं। यह कैसा रवैया है? यह अनमना रवैया है। अगर तुम अपना कर्तव्य अनमने होकर निभाओगे, इसे अनादर के भाव से देखोगे तो इसका क्या नतीजा मिलेगा? तुम अपना कार्य खराब ढंग से करोगे, भले ही तुम इस काबिल हो कि इसे अच्छे से कर सको—तुम्हारा प्रदर्शन मानक पर खरा नहीं उतरेगा और कर्तव्य के प्रति तुम्हारे रवैये से परमेश्वर बहुत नाराज रहेगा। अगर तुमने परमेश्वर से प्रार्थना की होती, सत्य खोजा होता, इसमें अपना पूरा दिल और दिमाग लगाया होता, अगर तुमने इस तरीके से सहयोग किया होता तो फिर परमेश्वर पहले ही तुम्हारे लिए हर चीज तैयार करके रखता ताकि जब तुम मामलों को संभालने लगो तो हर चीज दुरुस्त रहे और तुम्हें अच्छे नतीजे मिलें। तुम्हें बहुत ज्यादा ताकत झोंकने की जरूरत न पड़ती; तुम हरसंभव सहयोग करते तो परमेश्वर तुम्हारे लिए पहले ही हर चीज की व्यवस्था करके रखता। अगर तुम धूर्त या काहिल हो, अगर तुम अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते, और हमेशा गलत रास्ते पर चलते हो तो फिर परमेश्वर तुम पर कार्य नहीं करेगा; तुम यह अवसर खो बैठोगे और परमेश्वर कहेगा, ‘तुम किसी काम के नहीं हो; मैं तुम्हारा उपयोग नहीं कर सकता। तुम एक तरफ खड़े रहते हो। तुम्हें चालाक बनना और सुस्ती बरतना पसंद है, है ना? तुम आलसी और आरामपरस्त हो, है ना? तो ठीक है, आराम ही करते रहो!’ परमेश्वर यह अवसर और अनुग्रह किसी और को देगा। तुम लोग क्या कहते हो : यह हानि है या लाभ? (हानि।) यह प्रचंड हानि है!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि परमेश्वर लोगों से बहुत ज्यादा अपेक्षाएँ नहीं रखता; वह बस इतना चाहता है कि वे भरसक पूरा मन लगाकर अपना कर्तव्य निभाएँ। जब तक वे अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं, वे परमेश्वर द्वारा स्वीकारे जाएँगे। जो लोग अपने कर्तव्य निभाते समय हमेशा लापरवाह रहते हैं—जो लोग चालाक और अवसरवादी होते हैं और जो उन्हें करना चाहिए और कर सकते हैं उसके बजाय आलस और आराम खोजते हैं—ऐसे लोगों को परमेश्वर ठुकरा देता है और वे उसके द्वारा बचाए नहीं जाएँगे। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने और अपने पुराने कार्य देखते हुए मुझे लगा कि क्या मैं ऐसी इंसान नहीं थी जिसे परमेश्वर ने ठुकरा दिया था? मेरे लिए यह सम्मान की बात थी कि कलीसिया ने मुझे नए विश्वासियों का सिंचन करने का प्रभारी बनाया था। इस महत्वपूर्ण समय में ऐसा अहम कर्तव्य निभा पाना कितना सार्थक था, जब परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैल रहा था! लेकिन मैं अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन और लापरवाह होकर लगातार आराम की लालसा करती रही। थोड़े से प्रयास और त्याग से मैं नए विश्वासियों का सिंचन ठीक से कर सकती थी, लेकिन मैं इतनी रत्तीभर ज्यादा कठिनाई नहीं सहना चाहती थी। हालाँकि मैं बखूबी जानती थी कि नए विश्वासियों को परमेश्वर के वचन खुद पढ़ने से थोड़ी-सी ही समझ मिलेगी, फिर भी मैं उनके साथ संगति नहीं करना चाहती थी। नतीजा यह हुआ कि कुछ नए विश्वासी सभाओं में भाग नहीं लेना चाहते थे क्योंकि उनकी धार्मिक धारणाएँ नहीं सुलझी थीं और कुछ पादरियों और एल्डरों से गुमराह और परेशान हो गए थे, जिससे वे आस्था से दूर हो गए। अब तथ्य उजागर होने पर मुझे एहसास हुआ कि मैं अपना कर्तव्य बिल्कुल नहीं निभा रही थी, बल्कि कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा कर रही थी। उस समय मैंने खुद को जरा भी नहीं पहचाना था। इसके बजाय मैंने जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया और समस्याओं के लिए खुद नए विश्वासियों को दोषी ठहराया। मैं कितनी गैर जिम्मेदार थी! इससे परमेश्वर को मुझसे चिढ़ और नफरत क्यों नहीं होती? मुझे एहसास हुआ कि कलीसिया ने मुझे इतना महत्वपूर्ण काम सौंपा था और उम्मीद जताई थी कि मैं अपनी जिम्मेदारियाँ निभा सकूँ और नए विश्वासियों का ठीक से सिंचन कर सकूँ, ताकि वे जल्दी ही सच्चे मार्ग पर मजबूत नींव बना सकें और परमेश्वर का उद्धार स्वीकार सकें। फिर भी मैं आलस, काम टालने और छिपने पर आमादा थी, आराम की जिंदगी का आनन्द लेना चाहती थी और जब भी हो सके, कम से कम काम करती थी। मैंने परमेश्वर के इरादे पर जरा भी विचार नहीं किया और अपना कर्तव्य भी ठीक से नहीं निभा सकी। मुझमें अंतरात्मा और विवेक की इतनी कमी कैसे हो सकती है? कुत्ते भी जानते हैं कि अपने मालिक के प्रति वफादार कैसे रहना है और घर की रखवाली कैसे करनी है, जबकि मैं परमेश्वर के भरपूर प्रावधानों का आनन्द लेकर भी अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा पाई। क्या मैं इंसान कहलाने के भी लायक थी? परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है और इसका अपमान नहीं किया जा सकता। यह सब मेरी ही गलती थी कि मुझे बर्खास्त किया गया और अपना कर्तव्य निभाने से रोक दिया गया। मैंने अपना कर्तव्य निभाने और सत्य पाने का अवसर बर्बाद कर दिया था।
बाद में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसमें कहा गया है : “अपनी प्रकृति में लोग जिन चीजों को पसंद करते हैं, उन्हें उजागर करने के अलावा, प्रकृति की समझ के स्तर तक पहुँचने के लिए, उनकी प्रकृति से संबंधित कुछ बेहद महत्वपूर्ण पहलुओं को भी उजागर करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, चीजों पर लोगों के दृष्टिकोण, लोगों के तरीके और जीवन के लक्ष्य, लोगों के जीवन के मूल्य और जीवन पर दृष्टिकोण, साथ ही सत्य से संबंधित सभी चीजों पर उनके नजरिए और विचार। ये सभी चीजें लोगों की आत्मा के भीतर गहरी समाई हुई हैं और स्वभाव में परिवर्तन के साथ उनका एक सीधा संबंध है। तो फिर, भ्रष्ट मानवजाति का जीवन को लेकर क्या दृष्टिकोण है? इसे इस तरह कहा जा सकता है : ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए।’ सभी लोग अपने लिए जीते हैं; अधिक स्पष्टता से कहें तो, वे देह-सुख के लिए जी रहे हैं। वे केवल अपने मुँह में भोजन डालने के लिए जीते हैं। उनका यह अस्तित्व जानवरों के अस्तित्व से किस तरह भिन्न है? इस तरह जीने का कोई मूल्य नहीं है, उसका कोई अर्थ होने की तो बात ही छोड़ दो। व्यक्ति के जीवन का दृष्टिकोण इस बारे में होता है कि दुनिया में जीने के लिए तुम किस पर भरोसा करते हो, तुम किसके लिए जीते हो, और किस तरह जीते हो—और इन सभी चीजों का मानव-प्रकृति के सार से लेना-देना है। लोगों की प्रकृति का विश्लेषण करके तुम देखोगे कि सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं। वे सभी शैतान हैं और वास्तव में कोई भी अच्छा व्यक्ति नहीं है। केवल लोगों की प्रकृति का विश्लेषण करके ही तुम वास्तव में मनुष्य की भ्रष्टता और सार को जान सकते हो और समझ सकते हो कि लोग वास्तव में किससे संबंध रखते हैं, उनमें वास्तव में क्या कमी है, उन्हें किस चीज से लैस होना चाहिए, और उन्हें मानवीय सदृशता को कैसे जीना चाहिए। व्यक्ति की प्रकृति का वास्तव में विश्लेषण कर पाना आसान नहीं है, और वह परमेश्वर के वचनों का अनुभव किए बिना या वास्तविक अनुभव प्राप्त किए बिना नहीं किया जा सकता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए,” “आज मौज करो, कल की फिक्र कल करना,” और “ऑटोपायलट पर जीवन जीएँ” जैसे शैतानी फलसफों और नियमों ने मुझे बहुत ज्यादा जहरीला बना दिया था। इन नियमों के अनुसार जीने से मैं बहुत स्वार्थी, नीच, विश्वासघाती और धोखेबाज बन गई थी। मैंने चाहे जो भी किया, सिर्फ अपने शारीरिक हितों के बारे में सोच कर किया, आराम की लालसा की, श्रम को तुच्छ समझा, और अपना कर्तव्य निभाने में किसी भी तरह का बोझ उठाने या जिम्मेदारी की भावना नहीं अपनाई। मैं हर दिन बिना किसी लक्ष्य और दिशा के जीती रही, मेरे जीवन में थोड़ा सा भी मूल्य या अर्थ नहीं था। परमेश्वर में विश्वास करने से पहले मैं देह को बहुत महत्व देती थी और सुख-सुविधाओं की लालसा करती थी। मैं चाहे जो भी करती, जहाँ तक हो सके मैं अनमने ढंग से चलती थी, अपने दैहिक हितों को पूरा करने के लिए जो बन पड़े, वही करती थी और घृणित और दयनीय जीवन जीती थी। यहाँ तक कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी मैं इन्हीं भ्रामक विचारों के अनुसार जीती रही। जब भी मुझे बहुत सारे कर्तव्य निभाने पड़ते, जिसके लिए मुझे कष्ट सहना पड़ता और कीमत चुकानी पड़ती तो मैं शारीरिक परिश्रम से डर जाती और मेहनत और मानसिक रूप से थकाने वाले काम दूसरों पर डालने की कोशिश करती। मैं जरूरत से ज्यादा चिंता या परेशानी नहीं चाहती थी। चूँकि मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह थी, इसलिए नए विश्वासियों की समस्याओं का तुरंत समाधान नहीं हुआ, जिससे उनमें से कुछ लोग सभा करने के लिए अनिच्छुक हो गए और इससे सिंचन कार्य में बाधा और रुकावट आई। मुझे एहसास हुआ कि मैं शैतानी दर्शन और नियमों के अनुसार जी रही थी, मुझमें अंतरात्मा और विवेक बिल्कुल नहीं था। मैं स्वार्थी, नीच और खुदगर्ज थी। मैंने यह भी नहीं सोचा कि क्या नए विश्वासियों की कठिनाइयों का समाधान किया जा सकता है या क्या उन्हें अपने जीवन प्रवेश में नुकसान उठाना पड़ रहा है। मैं आराम का आनन्द लेने, बिना जाने ही परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने और उसका विरोध करने की अवस्था में जी रही थी। यह कितना खतरनाक था! इस बिंदु पर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “परमेश्वर लोगों को इतना भारी बोझ नहीं देता कि वे उठा न सकें। अगर तुम पचास किलो वजन ही उठा सकते हो, तो परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें पचास किलो से ज्यादा वजन नहीं देगा। वह तुम पर दबाव नहीं डालेगा। इसी तरह परमेश्वर सबके साथ है। और तुम किसी चीज से बेबस नहीं होगे—न किसी व्यक्ति से, न किसी विचार और दृष्टिकोण से। तुम स्वतंत्र हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (15))। परमेश्वर लोगों को वही जिम्मेदारी देता है जिसे वे निभा सकते हैं और थोड़े से प्रयास से पा सकते हैं। कभी-कभी सामान्य से ज्यादा नए विश्वासियों का सिंचन करना पड़ता है और साथ ही ज्यादा समस्याएँ और कठिनाइयाँ भी आती हैं जिन्हें सुलझाने के लिए सत्य की खोज और संगति करने में ज्यादा समय और ऊर्जा की जरूरत होती है, लेकिन थोड़े ज्यादा प्रयास और त्याग से ऐसा किया जा सकता है। इससे मैं थककर गिर नहीं जाऊँगी या बीमार नहीं पड़ूँगी। सभाओं के दौरान मेरे भाई-बहन अक्सर इस तथ्य पर संगति करते हैं कि अपने कर्तव्य निभाना हमारे लिए सत्य समझने का अच्छा अवसर है। अपने कर्तव्य निभाने में हमें कई तरह की समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, लेकिन सत्य की खोज करके हम उनसे सबक सीख सकते हैं और धीरे-धीरे कुछ सत्य समझ सकते हैं और सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं। लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि इस तरह से अपना कर्तव्य निभाना बहुत थकाऊ है और यहाँ तक कि थकान से बीमार पड़ने की चिंता भी होती थी, क्योंकि मैं आराम की बहुत ज्यादा चाहत रखती थी और कष्ट सहना नहीं चाहती थी। इसलिए मैं अपने कर्तव्य निभाते समय शिकायतें करती रही और बड़बड़ाती रही, अपने काम की उपेक्षा करती रही और यहाँ तक कि अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में भी नाकाम रही। मैंने आखिरकार समझ लिया कि शैतानी दर्शन के अनुसार जीने से मेरे जीवन बर्बाद हो जाएगा और इससे अंत में मुझे नुकसान ही होगा और मुझे नष्ट कर दिया जाएगा। इस एहसास ने मुझे कुछ हद तक डरा दिया, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, तुम्हारे प्रबोधन और मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद, जिसने मुझे खुद को थोड़ा-सा बेहतर समझने और शैतानी फलसफों के अनुसार जीने के नुकसान और दुष्परिणाम साफ देखने में मदद की है। मुझे यह भी एहसास हुआ है कि तुम्हारे धार्मिक स्वभाव को अपमानित नहीं किया जा सकता। हे परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। अब से मैं अपना कर्तव्य जमीन पर टिककर निभाऊँगी। मैं अब अपने कर्तव्य में लापरवाह नहीं रहूँगी और तुम्हें चोट नहीं पहुँचाऊँगी।”
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसने मुझे गहराई से झकझोर दिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “परमेश्वर का हर शब्द और वाक्यांश नूह के हृदय पर पत्थर की पटिया पर उकेरे गए शब्दों की तरह अंकित हो गया था। बाहरी दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से बेखबर, अपने आसपास के लोगों के उपहास से बेफिक्र, उस काम में आने वाली कठिनाई या पेश आने वाली मुश्किलों से बेपरवाह, वह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम में दृढ़ता से जुटा रहा, वह न कभी निराश हुआ और न ही उसने कभी काम छोड़ देने की सोची। परमेश्वर के वचन नूह के हृदय पर अंकित थे, और वे उसके हर दिन की वास्तविकता बन चुके थे। नूह ने जहाज के निर्माण के लिए आवश्यक हर सामग्री तैयार कर ली, और परमेश्वर ने जहाज के लिए जो रूप और विनिर्देश दिए थे, वे नूह के हथौड़े और छेनी के हर सजग प्रहार के साथ धीरे-धीरे आकार लेने लगे। आँधी-तूफान के बीच, इस बात की परवाह किए बिना कि लोग कैसे उसका उपहास या उसकी बदनामी कर रहे हैं, नूह का जीवन साल-दर-साल इसी तरह गुजरता रहा। परमेश्वर बिना नूह से कोई और वचन कहे उसके हर कार्य को गुप्त रूप से देख रहा था, और उसका हृदय नूह से बहुत प्रभावित हुआ। लेकिन नूह को न तो इस बात का पता चला और न ही उसने इसे महसूस किया; आरंभ से लेकर अंत तक उसने बस परमेश्वर के वचनों के प्रति दृढ़ निष्ठा रखकर जहाज का निर्माण किया और सब प्रकार के जीवित प्राणियों को इकट्ठा कर लिया। नूह के हृदय में परमेश्वर के वचन ही उच्चतम निर्देश थे जिनका उसे पालन और क्रियान्वयन करना था और वे ही उसकी जीवन भर की दिशा और लक्ष्य थे। इसलिए, परमेश्वर ने उससे चाहे जो कुछ भी बोला, उसे जो कुछ भी करने को कहा, उसे जो कुछ भी करने की आज्ञा दी हो, नूह ने उसे पूरी तरह से स्वीकार कर दिल में बसा लिया; उसने उसे अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज माना और उसे उसी के अनुसार सँभाला। वह न केवल उसे भूला नहीं, उसने न केवल उसे अपने दिल में बसाए रखा, बल्कि उसे अपने दैनिक जीवन में महसूस भी किया, और अपने जीवन का इस्तेमाल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार कर उसे क्रियान्वित करने के लिए किया। और इस प्रकार, तख्त-दर-तख्त, जहाज बनता चला गया। नूह का हर कदम, उसका हर दिन परमेश्वर के वचनों और उसकी आज्ञाओं के प्रति समर्पित था। भले ही ऐसा न लगा हो कि नूह कोई बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, नूह ने जो कुछ भी किया, यहाँ तक कि कुछ हासिल करने के लिए उसके द्वारा उठाया गया हर कदम, उसके हाथ द्वारा किया गया हर श्रम—वे सभी कीमती, याद रखने योग्य और इस मानवजाति द्वारा अनुकरणीय थे। परमेश्वर ने नूह को जो कुछ सौंपा था, उसने उसका पालन किया। वह अपने इस विश्वास पर अडिग था कि परमेश्वर द्वारा कही हर बात सत्य है; इस बारे में उसे कोई संदेह नहीं था। और परिणामस्वरूप, जहाज बनकर तैयार हो गया, और उसमें हर किस्म का जीवित प्राणी रहने में सक्षम हुआ” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग एक))। मैं परमेश्वर के आदेश के प्रति नूह के रवैये से बहुत प्रभावित हुई। परमेश्वर ने नूह से जहाज बनाने को कहा और वह पूरी तरह से आज्ञाकारी और विनम्र रहा, परमेश्वर के आदेश को पूरा करने के लिए उसने देह के सभी सुख पीछे छोड़ दिए। हालाँकि जहाज बनाना मुश्किल था पर नूह को परमेश्वर पर भरोसा था और वह कष्टों से नहीं डरता था। वह हर कठिनाई और अभाव का सामना करते हुए अडिग रहा, आखिरकार उसने परमेश्वर का आदेश पूरा किया और उसकी स्वीकृति पाई। नूह की तुलना में मुझे एहसास हुआ कि मुझमें मानवता की कमी थी, मैं अपने कर्तव्य के प्रति बेईमान, अवज्ञाकारी आलसी और धोखेबाज थी। मैंने सिर्फ देह के आराम की लालसा की, अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी समझने और उसे अच्छी तरह से निभाने की पूरी कोशिश नहीं की। अगर चीजें ऐसे ही चलती रहीं तो मेरी देह को आराम तो मिल जाएगा, पीड़ा और थकान भी नहीं होगी, लेकिन मुझे सत्य नहीं मिलेगा। सत्य के बिना क्या मैं जिंदा लाश नहीं बन जाऊँगी? ऐसे जीने का क्या मतलब है? मुझे एहसास हुआ कि मेरे कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया बहुत ही घृणित था और कलीसिया के काम को जो नुकसान मैंने पहुँचाया था, उसके लिए प्रायश्चित करने का कोई तरीका नहीं था, मुझे पश्चात्ताप और खेद हुआ। मैंने मन ही मन तय कर लिया कि मैं अब देह के सुखों में नहीं फँसूंगी। मुझे नूह के उदाहरण का अनुसरण करना था और पूरे दिल से अपना कर्तव्य निभाना था और परमेश्वर के हृदय के अनुरूप चलते हुए अपनी जिम्मेदारी निभानी थी, चाहे मुझे कितनी भी मुश्किलों का सामना करना पड़े।
एक महीने बाद अगुआ ने मुझे फिर से नए विश्वासियों के सिंचन कार्य में लगाने का फैसला किया। मैं आभारी थी और मैंने संकल्प लिया कि इस बार मैं निश्चित रूप से अपना कर्तव्य उचित ढंग से करूँगी और भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर काम करना बंद कर दूँगी। अपने पुराने ढर्रे पर वापस आने के डर से मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थनी करती हूँ, उससे विनती करती हूँ कि वह मेरा मार्गदर्शन और जाँच-पड़ताल करे और अक्सर खुद को अपना कर्तव्य पूरी लगन से निभाने की याद दिलाती हूँ। उसके बाद मैंने जब भी नए विश्वासियों के साथ सभा की, मैं उनकी समस्याओं और कठिनाइयों के आधार पर धैर्यपूर्वक उनके साथ संगति करती थी, सत्य को समझने और उनकी धार्मिक धारणाओं का समाधान करने में उनकी मदद करती थी। कभी-कभी जब बार-बार संगति करने से कोई नतीजा नहीं निकलता था तो तो मैं सोचती थी कि मैं उन्हें समझाने के लिए क्या कह सकती हूँ। धीरे-धीरे मेरे काम में नतीजे आने लगे जिससे मुझे सहजता और शांति महसूस होने लगी।
बर्खास्तगी के बाद मुझे अपने शैतानी स्वभाव को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति मेरा रवैया बदल गया। मैंने साफ देखा कि अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाह होने और सत्य का अनुसरण न करने का नतीजा विनाश और बर्बादी हैं और मैं अपने दिल में थोड़ा-सा परमेश्वर का भय मानने लगी। यह सब परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन के कारण हुआ। परमेश्वर का धन्यवाद!