68. शोहरत और रुतबे से मिला दर्द

फ़ंगक्षीयंग, चीन

पिछले साल मार्च में, मुझे समूह अगुआ बनाया गया, मैं अब अनेक समूहों के सिंचन कार्य की प्रभारी थी। उस वक्त मुझे लगा कि मुझे समूह अगुआ चुना गया, यानी मेरी काबिलियत दूसरे भाई-बहनों से ज़रूर बेहतर होगी। यह सोचकर मैं बहुत खुश हो गयी, मगर मुझे थोड़ी फ़िक्र भी हुई। पहले कभी भी मैं किसी कार्य की प्रभारी नहीं रही—अगर मैं अपने भाई-बहनों की समस्याएँ नहीं सुलझा पायी या अच्छे से काम का प्रबंध नहीं कर पायी, तो भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? काम न संभाल पाने के कारण मुझे हटा दिया गया तो बड़े शर्म की बात होगी। थोड़ी चिंता के बावजूद मैं जानती थी कि यह परमेश्वर का आदेश है और मुझे इसे स्वीकार करके समर्पण करना चाहिए, इसलिए मैंने कर्तव्य स्वीकार कर लिया। यह देखकर कि मैं अभी काम से अवगत नहीं हूँ, मेरी सहकर्मी बहन ने मुझे पहले-पहल सिर्फ दो समूहों का प्रभारी बनाया। जब मैंने दूसरे भाई-बहनों के साथ सभा करने के बारे में सोचा, तो बेहद घबरा गयी। पहले मेरा मुख्य काम सिंचन करना होता था। अगर मेरी संगति थोड़ी सतही होती, या मैं अपना काम ठीक से पूरा नहीं कर पाती, तो यह आम बात थी। लेकिन अब मैं एक समूह अगुआ हूँ, उम्मीद की जाएगी कि मैं भाई-बहनों के हालात को सुलझाने के लिए सत्य की संगति करूंगी, साथ ही उनके कामों में आयी मुश्किलों या समस्याओं में उनकी मदद भी करूंगी। तभी लोग मुझे स्वीकार करेंगे और कहेंगे कि मैं एक प्रतिभाशाली कार्यकर्ता हूँ। अगर मैं उनकी समस्याएँ नहीं सुलझा पायी, तो वे ज़रूर मुझे नीची नज़रों से देखेंगे, और मेरे बारे में उनकी राय नीची होगी। यह सब सोचकर, मेरा आत्मविश्वास थोड़ा कम हो गया, मैंने सोचा कि अपना पहले वाला काम करते रहना ही बेहतर होगा। तब, कम-से-कम मेरी खामियां इतनी ज़्यादा उजागर नहीं होंगी, मेरी नाक कटने से बच जाएगी। अगले कुछ दिन, इन सबके बारे में सोचकर मेरा मन भटकता रहा। सभाओं में, मैं अपने मन को शांत नहीं कर पायी। मुझे फ़िक्र होती रही कि अगर मैंने अच्छी संगति नहीं की तो मेरे भाई-बहन मुझे नीची नज़र से देखेंगे, मुझे जितनी फ़िक्र होती, मैं उतनी ही ज़्यादा घबरा जाती। मैं भाई-बहनों की समस्याओं की जड़ को नहीं समझ पा रही थी, न ही उन्हें सुलझाने में मदद कर पा रही थी, मुझे सभाओं में जाने से भी डर लग रहा था। मैं बहुत ज़्यादा तनाव में थी, इसलिए मैंने कई बार परमेश्वर के सामने प्रार्थना की, मुझे अपनी हालत को बेहतर ढंग से समझने का रास्ता दिखाने की विनती की। तभी मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा; यह अंश "अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग" से लिया गया था। "सभी भ्रष्ट मनुष्य एक आम समस्या से ग्रस्त होते हैं : जब उनकी कोई हैसियत नहीं होती, जब वे साधारण भाई-बहन होते हैं, तो वे किसी के साथ परस्पर संपर्क के समय या बातचीत करते समय शेखी नहीं बघारते, न ही वे अपनी बोल-चाल में किसी निश्चित शैली या लहजे को अपनाते हैं; वे बस साधारण और सामान्य होते हैं, और उन्हें खुद को आकर्षक ढंग से पेश करने की आवश्यकता नहीं होती है। वे किसी मनोवैज्ञानिक दबाव को महसूस नहीं करते, और वे खुलकर, दिल से सहभागिता कर सकते हैं। वे सुलभ होते हैं और उनके साथ बातचीत करना आसान होता है; दूसरों को यह महसूस होता है कि वे बहुत अच्छे लोग हैं। लेकिन जैसे ही उन्हें कोई रुतबा प्राप्त होता है, वे ऊँचे और शक्तिशाली बन जाते हैं, मानो उन तक कोई नहीं पहुँच सकता; उन्हें लगता है कि वे इज्ज़तदार हैं, और आम लोग तो किसी और ही मिट्टी के बने हुए हैं। वे आम इंसान को नीची नज़रों से देखते हैं और उनके साथ खुलकर सहभागिता करना बंद कर देते हैं। वे अब खुले तौर पर सहभागिता क्यों नहीं करते हैं? उन्हें लगता है कि अब उनके पास ओहदा है, और वे अगुआ हैं। उन्हें लगता है कि अगुआओं की एक निश्चित छवि होनी चाहिए, उन्हें आम लोगों की तुलना में थोड़ा ऊँचा होना चाहिए, उनका क़द बड़ा और उन्हें अधिक जिम्मेदारी संभालने के योग्य होना चाहिए; उनका यह मानना होता है कि आम लोगों की तुलना में, अगुआओं में अधिक धैर्य होना चाहिए, उन्हें अधिक कष्ट उठाने और खपने में समर्थ होना चाहिए, और किसी भी प्रलोभन का सामना करने में सक्षम होना चाहिए। वे सोचते हैं कि अगुआ रो नहीं सकते, भले ही उनके परिवार के सदस्यों में से कितनों की भी मृत्यु हो जाए, और अगर उन्हें रोना ही है, तो उन्हें ऐसा गुप्त रूप से करना चाहिए, ताकि किसी को भी उनमें किसी तरह की कमी, दोष या, कमज़ोरी न दिखाई दे। उन्हें यहाँ तक लगता है कि अगुआ किसी को यह जानने नहीं दे सकते कि वे नकारात्मक हो गए हैं; इसके बजाय, उन्हें ऐसी सभी बातों को छिपाना चाहिए। उनका मानना है कि ओहदे वाले वाले व्यक्ति को ऐसा ही करना चाहिए। जब वे इस हद तक अपना दमन करते हैं, तो क्या हैसियत उनका परमेश्वर, उनका प्रभु नहीं बन गई है? और ऐसा होने पर, क्या उनमें अभी भी सामान्य मानवता है? जब उनमें ये विचार होते हैं—जब वे खुद को इस तरह सीमित कर लेते हैं, और इस तरह का कार्य करते हैं—तो क्या वे हैसियत के प्रति आसक्त नहीं हो गए हैं?" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों ने प्रकट किया कि रुतबे और शोहरत से बंधी और जकड़ी होने के कारण मैं किस तरह से आज़ाद नहीं जी पा रही थी। समूह अगुआ बनने से पहले मैं सभी के साथ काम के बारे में चर्चा और समस्याओं का विश्लेषण करती थी। मैं सोचती कि हम सभी भाई-बहन हैं, हम सबका कद लगभग एक जैसा है, इसलिए मुझे फ़िक्र नहीं होती थी कि दूसरे क्या सोचते हैं, मैं सबके सामने उन्मुक्त और आज़ाद थी। लेकिन समूह अगुआ बनते ही मुझे अचानक लगने लगा कि मेरा रुतबा भाई-बहनों से ऊंचा है, इसलिए मेरी सत्य की समझ उनसे ज़्यादा होनी चाहिए, अगर मैं उनमें से हरेक की समस्याएँ हल कर पाऊँ, तभी मैं अपना काम कर रही हूँ। सभा में भाग लेने से पहले ही, मुझे फ़िक्र होने लगती कि भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझा न पायी तो वे मुझे नीची नज़र से देखेंगे। उनके सामने बेवकूफ दिखने से बचने के लिए, मैंने सभा में भाग लेने की हिम्मत ही नहीं की। मैं बहुत ज़्यादा दुख और तनाव में थी। मैंने खुद को ऊंचाई पर रख लिया और अपना रुतबा छोड़ नहीं पायी। इस पर सोच-विचार करके मुझे एहसास हुआ कि मैं अपनी शोहरत और रुतबे में डूबी हुई थी। मैं सबके सामने हमेशा अच्छा दिखने की कोशिश में थी, जैसे ही मुझे अपनी कमज़ोरी के उजागर होने का खतरा नज़र आता, मैं मुखौटा लगाकर नकाब ओढ़ लेती। मैंने अपनी पदोन्नति को परमेश्वर का दिया आदेश और कर्तव्य नहीं, बल्कि रुतबे की निशानी माना। मैं रुतबे से खुद को बनाना और अपने भाई-बहनों की सराहना पाना चाहती थी। मैं कितनी नीच और कुटिल थी!

मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, उसे बताया कि मैं ये बुरे इरादे और धारणाएं छोड़ने को तैयार हूँ। फिर, परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया। "परमेश्वर लोगों से यह अपेक्षा नहीं करता कि उनमें एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने की क्षमता हो या वे कोई महान उपक्रम संपन्न करें, न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का प्रवर्तन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या माननीय बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चहता है कि तुम उसके वचनों को सुनो, और सुन लेने के बाद उन्हें दिल में बसा लो और ज़मीनी तौर पर अभ्यास करते समय उनका पालन करो, ताकि परमेश्वर के वचन तुम्हारी जीवन-शैली और तुम्हारा जीवन बन जाएँ। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। ... कर्तव्य निभाना वास्तव में कठिन नहीं है, और न ही उसे निष्ठापूर्वक और स्वीकार्य मानक तक करना कठिन है। तुम्हें अपने जीवन का बलिदान या कुछ भी समस्यात्मक नहीं करना है, तुम्हें केवल सही मार्ग पर चलते हुए, बिना अपने विचार जोड़े या बिना अपना खुद का कार्य संचालित किए, ईमानदारी और दृढ़ता से परमेश्वर के वचनों और निर्देशों का पालन करना है। अगर लोग ऐसा कर सकते हैं, तो उनमें मूल रूप से एक मानवीय सदृशता है, उनमें परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता है, और वे ईमानदार व्यक्ति बन गए हैं, जो एक वास्तविक व्यक्ति की सदृशता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ पायी कि वह हमसे ज़्यादा नहीं मांगता—वह नहीं कहता कि इतना काम करो या इतना हासिल करो, न ही यह कि हम सर्वशक्तिसंपन्न अतिमानव बन जाएं। वह बस इतना चाहता है कि हम सच्चे सृजित प्राणी बनें, उसकी अपेक्षाओं के अनुसार व्यावहारिक ढंग से अपना कर्तव्य निभायें। जब परमेश्वर ने समूह अगुआ का यह कर्तव्य सौंपकर मुझे उठाया, तो वह नहीं चाहता था कि मैं शोहरत और रुतबे के पीछे भागूं। उसकी इच्छा थी कि मैं उसका आदेश स्वीकार कर व्यावहारिक रूप से सत्य का अनुसरण करूं। अपने कर्तव्य में कोई मुश्किल होने पर, मैं परमेश्वर से प्रार्थना कर उसे सुलझाने का रास्ता ढूँढ़ने के लिए उस पर भरोसा करूं। भाई-बहनों के साथ सभाओं में, उतनी ही संगति करूं, जितनी मेरी समझ है, कुछ स्पष्ट न होने पर, ईमानदारी से सबके साथ मिलकर हल ढूँढूं। तभी मैं परमेश्वर का मार्गदर्शन हासिल कर पाऊँगी। परमेश्वर के इरादों को समझ लेने के बाद मुझमें कर्तव्य संभालने का विश्वास पैदा हुआ। अपने भाई-बहनों के साथ सभाओं में, मैंने परमेश्वर से जागृत मन से प्रार्थना की, नाम या रुतबे की फ़िक्र नहीं की, अपने भाई-बहनों के साथ अपनी भ्रष्टता के बारे में खुल सकी। चर्चा के दौरान, मुझे पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन का अनुभव हुआ और मुझे कुछ समस्याओं का पता चल सका। मैं उस मार्गदर्शन का प्रयोग असली हालात में करके सुझाव दे सकी। मुझमें अभी भी बहुत-से खोट और खामियां थीं, लेकिन सबके साथ बातचीत के जरिये मैं आगे का रास्ता निकाल सकी, पहले से कहीं ज़्यादा मुक्त महसूस किया। मैं समझ गई कि सही इरादे के साथ अपने कार्यों पर ध्यान लगाने, परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार व्यावहारिक ढंग से अपना कर्तव्य निभाने पर मुझे उसका मार्गदर्शन मिलेगा।

तीन महीने बाद, मुझे कुछ और समूहों का प्रभारी बनाया गया। इतने सारे भाई-बहनों के लिए सभाओं में संगति करने के विचार से ही मुझे बड़ी घबराहट हो गयी। हर समूह की हालत अलग थी, इन समूहों के भाई-बहनों से मैं पहले कभी नहीं मिली थी, उनके हालात नहीं जानती थी। अगर मैं उनके मसले नहीं सुलझा सकी, तो क्या वे मुझे नीची नज़र से देखेंगे, कहेंगे कि मैं व्यावहारिक समस्याएँ नहीं सुलझा सकी, मैं एक समूह अगुआ बनने लायक नहीं हूँ? सबकी स्वीकृति हासिल करने के लिए, खुद को सत्य से लैस करने को मैंने घंटों परमेश्वर के वचन पढ़े, लेकिन जब सभा का समय करीब आया, तो मैं अभी भी बेहद घबराई हुई थी। शुरू-शुरू में, जब मैं एक सभा में गयी, तो बहुत बेचैन थी, मेरे चेहरा तनाव से कसा हुआ था। मैं नहीं चाहती थी कि मेरे भाई-बहन ये देखें, इसलिए मैंने नाटक किया कि मैं शांति से कंप्यूटर पर परमेश्वर के वचन देख रही हूँ, लेकिन मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना कर रही थी, गुहार लगा रही थी कि वो शांत होने में मेरी मदद करे। मैंने कुछ भाई-बहनों से उनकी हालत और दिक्कतों के बारे में पूछा, संगति करने के बाद मुझे एहसास हुआ कि सबकी समस्याएँ अलग-अलग हैं, सबको परमेश्वर के वचनों के अलग-अलग अंशों की ज़रूरत है। इससे मैं वाकई पशोपेश में पड़ गयी—अगर मुझे ऐसे अंश मिल सकें जो सबकी मदद के लिए प्रयोग किये जा सकें, तो सभी खुश हो जाएंगे और मैं अच्छी लगूंगी, लेकिन अगर मुझे कुछ नहीं मिल पाया, तो यह सभा बेहद नीरस होगी। कितना बुरा होगा! मेरी घबराहट जितनी बढ़ी, मेरी सोच उतनी ही अस्पष्ट हो गयी। बहुत समय गुज़र गया, मगर मुझे परमेश्वर के वचनों का सही अंश नहीं मिल पाया। दरअसल, मैं अपने भाई-बहनों के साथ संगति में खुलकर उनके साथ मिल-जुलकर अच्छे अंश ढूँढ़ना चाहती थी, लेकिन मुझे फ़िक्र भी हुई कि एक समूह अगुआ होकर भी अगर मैं सही अंश नहीं ढूँढ़ पायी, तो मेरा मज़ाक बन जाएगा। मन में यह बात आने पर, मैं खुलकर बात नहीं कर पायी, आखिरकार मेरे पास परमेश्वर के वचनों के ऐसे अंशों को, यहाँ-वहां से चुन लेने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था, जो मेरे भाई-बहनों के हालात के लिए उपयुक्त नहीं थे। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद किसी ने भी संगति नहीं की, और मैंने ज़रा भी प्रकाशित अनुभव नहीं किया। आखिर, मैंने सैद्धांतिक ज्ञान के आधार पर एक जबरन संगति दे दी, लेकिन माहौल बहुत ही अजीब था। सभा विफल होकर यूं ही ख़त्म हो गयी। मैं जब सभा से लौटी, तो अपनी सहकर्मी बहन को, बड़े जोश के साथ एक दूसरे समूह की सभा में हासिल सबक के बारे में बताते सुना, मगर मैं दुखी थी, बेहद तनाव के कारण मेरी सांस मुश्किल से चल रही थी। मैंने इस बारे में जितना सोचा, उतना ही लगा कि मैं इस कर्तव्य के योग्य नहीं हूँ, मैं बस छोड़ देना चाहती थी। बहुत दुखी होकर, मैंने परमेश्वर से लगातार प्रार्थना की : "हे परमेश्वर! मैं बहुत दुखी हूँ। मेरा ध्यान हमेशा रुतबे और शोहरत पर बना रहता है, मैं नहीं जानती कि यह कर्तव्य कैसे निभाऊं, न ही मुझमें और मेहनत करने की इच्छा है। मैं विनती करती हूँ कि तुम मुझे रास्ता दिखाओ कि मैं खुद को समझूँ और इस नकारात्मक हालत से बाहर निकलूँ।"

अपनी खोज के दौरान, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जो मसीह-विरोधियों की प्रकृति और सार को प्रकट करता है, इससे मुझे गहरी प्रेरणा मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "मसीह-विरोधियों के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी वातावरण में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज के लिए प्रयास करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, हैसियत और प्रतिष्ठा ही उनका वह प्रयोजन, वह लक्ष्य होता है जिसका वे अनुसरण करते हैं, जिसे वे अपने दिलों से जाने नहीं दे सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और उनका सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी प्राचीन जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे हैसियत और प्रतिष्ठा को नहीं छोड़ेंगे; तुम उन्हें सामान्य लोगों के समूह में रख दो, फिर भी वे हैसियत और प्रतिष्ठा के बारे में ही सोचेंगे। और इसलिए, जब वे विश्वास प्राप्त कर लेते हैं, तो वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को परमेश्वर में विश्वास के अनुसरण के समान मानते हैं; कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलते हैं, तो वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का अनुसरण भी करते हैं। यह कहा जा सकता है कि अपने दिलों में वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास और सत्य की खोज हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज है; हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज सत्य की खोज भी है, और हैसियत और प्रतिष्ठा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर अगर उन्हें लगता है कि उन्होंने पर्याप्त हैसियत प्राप्त नहीं की है—अगर कोई उनका सम्मान या उनकी सराहना नहीं करता, अगर वे दूसरों के बीच महिमामंडित नहीं होते और उनके पास कोई वास्तविक शक्ति नहीं है—तो वे बहुत हतोत्साहित होते हैं, और मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई महत्व या मूल्य नहीं है। 'क्या विश्वास का मेरा तरीका परमेश्वर द्वारा अस्वीकृत है? क्या मुझे जीवन नहीं मिला?' अपने मन में अकसर वे इन्हीं बातों का हिसाब-किताब लगाया करते हैं; वे योजना बनाते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर या उस वातावरण में, जिसमें वे हैं, कोई पद प्राप्त कर सकते हैं, कैसे वे उच्च प्रतिष्ठा और एक निश्चित स्तर का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं, जब वे बोलते हैं तो कैसे वे लोगों को अपनी बात सुनने और अपनी चापलूसी करने पर बाध्य कर सकते हैं, कैसे वे उनसे अपनी बात मनवा सकते हैं, कैसे वे किसी समूह में चीजों पर एकतरफा मत रख सकते हैं और अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकते हैं। अपने मन में अकसर वे यही बात सोचा करते हैं। ऐसे लोग इसी के लिए प्रयास किया करते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो)')। अपनी हालत और व्यवहार के साथ इसकी तुलना कर मैं समझी कि मैं शोहरत और रुतबे से कितनी आसक्त हूँ। मैं हमेशा नाम कमाना चाहती थी, चाहती थी कि मुझे लोग पहचानें। अपना कर्तव्य निभाते समय मुझे बस यही फ़िक्र थी कि सराहना मिले, मेरी खुद की छवि बने। परमेश्वर की मेरे दिल में कोई जगह नहीं थी। मैंने दिखा दिया था कि मुझमें मसीह-विरोधी स्वभाव है। समूह अगुआ के रूप में पदोन्नत होते ही, खुद को रुतबे वाली मानकर—मैंने खुद को ऊंचे स्थान पर रख लिया, और इससे बहुत डर गई कि अगर व्यावहारिक मसले नहीं सुलझा सकी और भाई-बहनों का आदर गँवा दिया, तो अपना पद खो दूंगी, साथ ही उनकी नज़रों में अपना कथित रुतबा और छवि भी खो दूंगी। अपने भाई-बहनों के मसलों से निपटते समय, मुझे नहीं मालूम था कि उन्हें सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचनों के किन अंशों का प्रयोग करना है, मैं खुलकर बात करना और ईमानदारी से मिलकर खोजना और संगति करना नहीं चाहती थी। अपने खुद के रुतबे की रक्षा के लिए, मैंने कई चोले ओढ़े और भेस बदले, सब सामान्य दिखाने के इरादे से सैद्धांतिक ज्ञान के आधार पर जबरन संगति की, यह नहीं सोचा कि क्या मैं अपने भाई-बहनों की समस्याओं को वाकई सुलझा सकी हूँ। इसलिए सारी सभाएं प्रभावहीन थीं। इन मामलों के उभरने पर मैंने आत्मचिंतन नहीं किया, बल्कि नकारात्मक हो गयी, नाक कट जाने पर मैंने काम छोड़ देना चाहा। मुझमें इंसानियत की बेहद कमी थी! इन सबका एहसास करके मुझे बहुत पछतावा महसूस हुआ, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं प्रायश्चित करने और बदलने को तैयार थी।

मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को भी देखा : "संक्षेप में, तुम चाहे किसी भी दिशा में या किसी भी लक्ष्य के लिए प्रयास करो, और रुतबे का त्याग करने को लेकर तुम अपने आपसे जो भी अपेक्षा करो, जब तक तुम्हारे मन में रुतबे का निश्चित स्थान है, और वह तुम्हारे जीवन और उन लक्ष्यों को नियंत्रित और प्रभावित करने की स्थिति में है जिनके लिए तुम प्रयासरत हो, तो तुम्हारे स्वभाव में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आएगा, और तुम्हारे बारे में परमेश्वर की अंतिम राय एकदम अलग ही होगी। इतना ही नहीं, रुतबे के पीछे इस तरह भागने से परमेश्वर के एक स्वीकार्य प्राणी बनने की तुम्हारी योग्यता पर भी असर पड़ता है, और बेशक एक स्वीकार्य मानक के अनुसार काम करने की तुम्हारी क्षमता भी प्रभावित होती है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? लोगों के रुतबे के पीछे भागने से अधिक घृणास्पद परमेश्वर के लिए कुछ नहीं है, क्योंकि रुतबे के पीछे भागना भ्रष्ट स्वभाव है; यह शैतान की भ्रष्टता से पैदा होता है, और परमेश्वर की दृष्टि में यह मौजूद नहीं रहना चाहिए। परमेश्वर ने इसे मनुष्य को देना नियत नहीं किया था। अगर तुम हमेशा रुतबे के लिए ही प्रतिस्पर्धा और संघर्ष करते रहते हो, अगर तुम इसे लगातार सँजोते हो, अगर तुम हमेशा इस पर अपना कब्जा करना चाहते हो, तो क्या यह परमेश्वर के विरोध की प्रकृति रखना नहीं है? लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, और अंततः उन्हें परमेश्वर का एक स्वीकार्य प्राणी, परमेश्वर का एक छोटा और नगण्य प्राणी बनाता है—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिसकी हजारों लोगों द्वारा आराधना की जाती हो। और इसलिए, इसे चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, रुतबे के पीछे भागने का मतलब एक अंधी गली में पहुँचना है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। शुरू-शुरू में, परमेश्वर के वचनों की कड़ाई से मैं डर गई। मुझे एहसास हुआ कि रुतबे के पीछे भागने वालों से ज़्यादा परमेश्वर और किसी से नहीं चिढ़ता। इंसान का प्रायश्चित न करना उसे अंत में निजी हानि और बरबादी की और ले जाता है। मैंने परमेश्वर में अनेक वर्षों से विश्वास किया था, उसके अनुग्रह और वचनों के पोषण का आनंद लिया था। अब उसने मुझे एक समूह अगुआ के रूप में प्रशिक्षित होने का मौक़ा दिया है। उसने मेरा बोझ बढ़ाया है, अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य और सिद्धांतों को खोजने का तरीका सीखने का मौक़ा दिया है, मुझे और अधिक प्रबुद्ध किया है, ताकि मैं सत्य समझ सकूं, और जीवन में प्रवेश पा सकूं। लेकिन मैंने कभी विचार नहीं किया कि परमेश्वर का प्रेम चुकाने के लिए सत्य कैसे खोजूं। मैं हमेशा अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे का ही ख़याल करती थी। मुझमें ज़मीर और समझ बिल्कुल भी नहीं थी! गहराई से भ्रष्ट हुई इंसानियत को बचाने के लिए, परमेश्वर देहधारी होकर दुनिया में आया, बयां न होने वाला अपमान सहा। परमेश्वर सर्वोच्च और महान है, लेकिन उसने खुद को कभी महान नहीं कहा। उसने सत्य व्यक्त करने, हमारे भ्रष्ट स्वभाव के साथ न्याय करने और उसे शुद्ध करने का कार्य चुपचाप किया, ताकि हम अपनी गंदगी छोड़कर उसका उद्धार पा सकें। मैं समझ पायी कि परमेश्वर कितना विनम्र और मनोहर है। मैं एक तुच्छ-सी सृजित प्राणी हूँ, गंदगी और भ्रष्टता से भरी हुई, फिर भी मैं हमेशा लोगों का आदर पाने और उन्हें अपने सामने लाने के लिए अपनी छवि बनाने की कोशिश करती हूँ। मैं इतने असह्य रूप से घमंडी और बेशर्म हूँ। मैंने पौलुस को भी याद किया, जिसे दूसरों की सराहना और आदर पाने के लिए प्रचार और कार्य करना पसंद था। अनेक वर्षों की अपनी आस्था में, उसने कभी भी अपना स्वभाव बदलने की कोशिश नहीं की, बस सिर्फ रुतबे, पुरस्कार और ताजपोशी की कोशिश करता रहा। आखिरकार, उसने परमेश्वर होने का भी दावा कर डाला, लोगों के दिलों में परमेश्वर का स्थान लेने की नाकाम कोशिश की। पौलुस मसीह-विरोधी के परमेश्वर काविरोध करने वाले मार्ग पर चल रहा था, आखिरकार उसने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया और अनंत श्राप झेलने के लिए नरक में फेंक दिया गया। अगर मैंने चीज़ें नहीं बदलीं, तो मेरा हाल भी पौलुस जैसा होगा। इन नतीज़ों के बारे में जानने के बाद, मैंने परमेश्वर के सामने गिरकर प्रायश्चित किया, उससे अभ्यास का सही मार्ग पाने का रास्ता दिखाने की विनती की।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "रुतबे और प्रतिष्ठा को छोड़ना कठिन होता है। लोगों को सत्य का अनुसरण करना चाहिए। आंशिक रूप से, उन्हें स्वयं को जानना चाहिए और स्वयं को उजागर करने में सक्रिय होना चाहिए; आंशिक रूप से, उन्हें यह स्वीकार करना चाहिए कि वे सत्य से रहित हैं और उनमें बहुत अधिक कमियाँ हैं। अगर तुम लोगों को यह सोचने के लिए बाध्य करने की कोशिश करोगे कि तुम हर चीज में अच्छे और पूर्ण हो, तो यह जोखिम से भरा है—तुम्हारे प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा पाने के चक्कर में पड़ जाने की पूरी संभावना है। तुम्हें लोगों को यह दिखाना चाहिए कि तुममें कमियाँ हैं, कमजोरियाँ और दोष हैं, ऐसे काम भी हैं जो तुम नहीं कर सकते, जो तुम्हारी क्षमता से बाहर हैं। तुम एक साधारण व्यक्ति हो, तुम अतिमानव या सर्वशक्तिमान नहीं हो। जब तुम इस तथ्य को स्वीकार कर लेते हो और दूसरों को भी इस बात से अवगत करा देते हो, तो पहला काम यह तुम्हारे प्रतिस्पर्धी व्यवहार पर रोक लगाने का करता है; यह कुछ हद तक तुम्हारी प्रतिस्पर्धी मानसिकता और प्रतिस्पर्धा करने की इच्छा को नियंत्रित कर देता है। जब दूसरे लोग तुम्हारा तिरस्कार या उपहास करें, तो वे जो कहते हैं उससे केवल इसलिए विमुख मत हो जाओ क्योंकि वह अप्रिय है, या खुद से यह मत कहने लगो कि तुम्हारे अंदर कोई खराबी नहीं है या कि तुम पूर्ण हो—ऐसी बातों के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण ऐसा नहीं होना चाहिए। तुम्हारा दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए? तुम्हें अपने आपसे कहना चाहिए, 'मेरे अंदर दोष हैं, मेरी हर चीज दोषपूर्ण है और मैं एक साधारण-सा व्यक्ति हूँ। उनके द्वारा मेरा तिरस्कार और उपहास किए जाने के बावजूद, अगर वे जो कहते हैं उसका थोड़ा-सा हिस्सा भी सच है, तो मुझे इसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए।' अगर तुम ऐसा कर पाओ, तो यह इस बात का प्रमाण होगा कि तुम रुतबे, प्रतिष्ठा और दूसरे लोगों की राय के प्रति उदासीन हो। ... तुम्हें इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि तुममें प्रतिस्पर्धा करने की निरंतर इच्छा है। इसका समाधान न करने पर, प्रतिस्पर्धा करने की इच्छा का नतीजा केवल बुरी चीजें ही हो सकती हैं, इसलिए समय बर्बाद न करो और सत्य खोजो, अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता को शुरुआत में ही नष्ट कर दो, और इस प्रतिस्पर्धी व्यवहार को सत्य का अभ्यास करने से बदल दो। सत्य का अभ्यास करने पर तुम्हारी प्रतिस्पर्धात्मकता, अदम्य आकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी तरह से घट जाएँगी, और फिर वे परमेश्वर के घर के काम में हस्तक्षेप नहीं करेंगी। इस तरह, परमेश्वर द्वारा तुम्हारे कार्यों को याद रखा जाएगा और उनकी प्रशंसा की जाएगी" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। इन वचनों से मुझे एहसास हुआ कि मैं शैतान द्वारा भ्रष्ट की गई एक सृजित प्राणी भर हूँ, इसलिए मुझमें खोट और खामियाँ होना सामान्य है। परमेश्वर ने कभी अपेक्षा नहीं की कि मैं सर्वोत्तम कार्यकर्ता बनूँ, मुझमें उत्कृष्ट क्षमता और रुतबा हो, या मैं बड़ी और पूर्ण व्यक्ति बन जाऊं। वह बस इतना चाहता है कि मेरा दिल साफ़ और सच्चा हो, ताकि मैं व्यावहारिक रूप से सत्य खोजूँ और परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहूँ। परमेश्वर के घर में, अगुआ और समूह अगुआ के पद इसलिए बनाये गये क्योंकि वे काम के लिए ज़रूरी हैं, मगर हम सब अपना कर्तव्य निभाने वाले सृजित प्राणी ही हैं, हममें और हमारे भाई-बहनों के रुतबे में कोई वास्तविक फ़र्क नहीं है। हमारी काबिलियत और कद के आधार पर परमेश्वर हमें अलग-अलग काम सौंपता है। मेरे एक समूह अगुआ होने भर से यह अर्थ नहीं निकलता कि मुझमें सत्य-वास्तविकता है, मगर मैं हमेशा चाहती हूँ कि हर मसले की तह तक जाऊं, हर समस्या सुलझा लूं। यह अव्यावहारिक है और मेरे घमंड और खुद को न समझने के कारण है। मुझे खुद को अपने भाई-बहनों के बराबर समझना चाहिए, हमें एक-दूसरे से सीखना चाहिए, अपना कर्तव्य निभाते समय आने वाली समस्याओं को सुलझाने के लिए हमें साथ मिलकर सत्य खोजना चाहिए। अगर मैं कोई बात न समझ सकूं, तो मुझे झूठा मुखौटा नहीं लगाना चाहिए—मुझे बहादुरी से अपनी खामियां खुलकर बतानी और भाई-बहनों के साथ मिलकर खोजना चाहिए। तभी मैं अपना कर्तव्य बेहतर ढंग से निभा पाऊँगी।

कुछ भाई-बहन ऐसे थे जो नकारात्मकता में जी रहे थे, और मुझे उनके साथ सभा करके संगति करनी थी। शुरू-शुरू में मैं थोड़ी घबराई हुई थी। ठीक से संगति न करने पर वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे, मुझे इसकी फ़िक्र थी, इसलिए मैं समय से पहले घर पर परमेश्वर के वचनों के उचित अंश ढूंढ़ कर तैयारी करना चाहती थी, मुझे लगा इस तरह सभा में मैं उनकी समस्याएँ आसानी से सुलझा लूँगी, और सबका सम्मान पा सकूंगी। फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं गलत इरादे से कर्तव्य निभा रही हूँ। भाई-बहनों की तमाम समस्याओं को सुलझाने के पीछे मेरी यह चाह थी कि मैं उनकी सराहना और सम्मान पा सकूं—मैं अभी भी शोहरत और रुतबे के लिए ही काम कर रही थी। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वो गलत इरादों से लड़ने में मेरी मदद करे। मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा : "पवित्र आत्मा व्यक्ति के भीतर काम करे और उसकी अवस्था में सकारात्मक परिवर्तन लाए, इसके लिए उस व्यक्ति को अत्यधिक मात्रा में बदलने, चीजों को छोड़ने, पीड़ा सहने और त्याग करने में सक्षम होना चाहिए, ताकि उस व्यक्ति की चेतना धीरे-धीरे लौट सके। हालाँकि व्यक्ति को उजागर करना तुरंत होता है। अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभाते हो, लेकिन हमेशा सम्मान चाहते हो और पद, पहचान, प्रतिष्ठा, और अपने खुद के हितों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हो, तो ऐसी स्थिति में रहते हुए, क्या तुम सेवा करना चाहते हो? अगर तुम चाहो तो तुम सेवा कर सकते हो, लेकिन यह संभव है कि तुम्हारी सेवा पूरी होने से पहले तुम्हें उजागर कर दिया जायेगा। जैसे ही तुम्हें उजागर किया जाता है, सवाल यह नहीं रह जाता कि क्या तुम्हारी स्थिति में सुधार किया जा सकता है; इसके बजाय, यह संभव है कि तुम्हारा परिणाम पहले ही निर्धारित कर लिया गया हो—और यह तुम्हारे लिये एक समस्या बन जाएगी" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे एहसास हुआ कि अगर मेरा इरादा सभाओं और संगति का प्रयोग कर खुद को आगे बढ़ाने और सराहना पाने का है, काम के दौरान भाई-बहनों के सामने आयी समस्याओं को हल करने का नहीं है, तो मैं अभी भी परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर चल रही हूँ। मैं सभा में भाग ले भी लूं, तो भी मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन नहीं मिलेगा और सभा प्रभावशाली नहीं होगी। यह महसूस करके मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, अपने इरादों को दुरुस्त किया, फिर अपनी सहकर्मी बहन के साथ अपनी भ्रष्टता और खामियों के बारे में खुलकर संगति की। सभाओं में, मैंने बस उस बारे में ही संगति की जिसे मैं समझ सकती थी, मेरे भाई-बहनों ने भी अपनी समझ की चर्चा की। मिलकर हम लोगों ने अपनी संगति के जरिये अभ्यास का रास्ता पाया, और उनकी हालत में सुधार हुआ। मुझे पवित्र आत्मा के कार्य और मार्गदर्शन का एहसास हो रहा था, मैंने बड़ा सुकून और आज़ाद महसूस किया। मैं समझ गयी कि रुतबे और शोहरत की फ़िक्र छोड़ देने और भाई-बहनों के साथ मिलकर अपना कर्तव्य निभाने से, मुझे परमेश्वर का आशीष और मार्गदर्शन मिलेगा।

इस अनुभव के जरिये, मैं जान गयी कि मैं शोहरत और रुतबे से बहुत ज़्यादा आसक्त रही हूँ और मेरे दिल में परमेश्वर का बहुत ही छोटा स्थान है। मैंने अपने दिल से उससे प्रेम करके समर्पण नहीं किया, मैं गलत रास्ते पर चल रही थी। परमेश्वर के मार्गदर्शन और उसके वचनों के न्याय और प्रकाशन के कारण, आखिरकार मैं खुद को जानने लगी हूँ, अपना कर्तव्य निभाने को लेकर मेरे इरादों और रवैये में सुधार हुआ है। मैं अब साफ़ देखती हूँ कि शोहरत, रुतबे, दूसरों से आदर और सराहना पाने के पीछे भागना निरर्थक है—इससे सिर्फ हानि ही होती है। सिर्फ सत्य का अभ्यास और स्वभाव में परिवर्तन का प्रयास करने पर ध्यान देना और परमेश्वर की संतुष्टि के लिए कर्तव्य अच्छे से निभाना ही उचित अनुसरण हैं।

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