52. सिद्धांत परिवार पर भी लागू होते हैं
अक्टूबर 2004 में, मैंने और मेरी पत्नी ने अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया, और हमारे दोनों बच्चे भी परमेश्वर में विश्वास रखने लगे थे। मैं यह सोचकर खासतौर से खुश था, “हमारा पूरा परिवार परमेश्वर में विश्वास रखता है। अगर हम सभी बचाए जा सकें और राज्य में प्रवेश कर सकें, तो यह कितनी अद्भुत बात होगी!” आगे चलकर, मैं और मेरी पत्नी दोनों अपना कर्तव्य निभाने लगे। मेरी पत्नी मुझसे भी ज्यादा उत्साही थी, मुझे हमेशा लगता था कि वह मुझसे ज्यादा सत्य का अनुसरण करती है।
2013 में, जब मेरी पत्नी समूह अगुआ के रूप में कार्यरत थी, तो कलीसिया अगुआ वांग जिंग ने एक बैठक के दौरान कर्तव्य-निर्वहन में उसके विचलन और समस्याओं पर बात की। बाद में, मेरी पत्नी ने वांग जिंग की भ्रष्टता के खुलासों को पकड़ लिया, मनमाने आकलन किए और उन्हें फैला दिया, इससे भाई-बहनों में वांग जिंग के प्रति पूर्वाग्रह पैदा हो गए, इसका नतीजा यह हुआ कि कई काम अमल में नहीं लाए जा सके और कलीसियाई जीवन भी बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया। अगुआ और उपयाजक ने उसके साथ कई बार संगति की, लेकिन वह उद्दंड और असंतुष्ट थी, यहाँ तक कि बहस और कुतर्क भी कर रही थी, उसे अपने बारे में कोई ज्ञान नहीं था। परिणामस्वरूप, कलीसिया ने उसे उसके पद से बर्खास्त कर दिया। बर्खास्त होने के बाद, उसे कोई पश्चात्ताप नहीं था और वांग जिंग में दोष ढूंढती रही, हर जगह उसकी आलोचना करती रही और अफवाहें फैलाती रही। कलीसियाई जीवन में उसके लगातार व्यवधान और गड़बड़ी के कारण, कुछ भाई-बहनों ने उसे उजागर कर उसकी रिपोर्ट कर दी। बाद में, कलीसिया के 80% सदस्यों के मतों से, मेरी पत्नी को कुकर्मी बताकर निष्कासित कर दिया गया। उस समय, यह घटना बहुत कष्टकारी लगी। मेरी पत्नी ने परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद कर्तव्य-निर्वहन के लिए अपना करियर छोड़ दिया था, बरसों तक हर तरह की मुश्किलों का सामना किया था, अब जब उसे निष्कासित कर दिया गया है, तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि उसके लिए सब कुछ खत्म हो गया? अब उसके उद्धार की कोई आशा नहीं रही। हालाँकि, मेरी पत्नी ने इन बातों की कोई परवाह नहीं की और बोली, “मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ। उन्होंने व्यर्थ में ही मुझे निष्कासित कर दिया। मैं निष्कासित होने के बाद भी परमेश्वर में विश्वास रखूँगी।” यह देखकर कि उसने इतनी सारी बुराइयाँ की हैं और तब भी वह खुद को नहीं जानती, और यह कि वह कलीसिया के फैसले से असहमत और नाराज है, मुझे लगा कि कलीसिया द्वारा उसे निष्कासित किया जाना बिल्कुल भी ज्यादती नहीं है। उसके निष्कासन के बाद, कई भाई-बहन हमारे घर आये, उसके साथ संगति की और उसे चिंतन करने और खुद को पहचानने का आग्रह किया, लेकिन वह इस बात को बिल्कुल भी स्वीकारने को तैयार नहीं थी और बेसिर-पैर के तर्क दे रही थी, और यह दावा कर रही थी कि अगुआ और कार्यकर्ता उसके खिलाफ हैं, इसीलिए उसे निष्कासित कर दिया। और तो और वांग जिंग से अपनी नाराजगी भी बरकरार रखी।
बाद में, परमेश्वर के घर ने सभी कलीसियाओं से कहा कि वे पहले निकाले गए या निष्कासित किए गए सदस्यों की समीक्षा करें और देखें कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जिसने वास्तव में पश्चात्ताप किया हो और उसे दोबारा शामिल किया जा सकता हो। मैंने सोचा, “क्या मेरी पत्नी फिर से प्रवेश योग्य है? अपने निष्कासन के बाद से, उसने न तो अपने कार्यों पर चिंतन किया है और न ही ज्ञान प्राप्त किया है, और वांग जिंग के खिलाफ पहले से ही अपना मन बना रखा है, उसकी पीठ पीछे उसकी आलोचना करती है। उसमें जरा-सा भी पश्चात्ताप नहीं दिखता, इसलिए सिद्धांतों के अनुसार, उसे दोबारा प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए।” लेकिन फिर मैंने सोचा, “निष्कासित किए जाने के बावजूद, वह अब भी समय-समय पर परमेश्वर के वचन पढ़ती है, और हमारे कर्तव्यों को पूरा करने में हमारा साथ देती है। इस घर की देखभाल भी करती है, और मेरी लकवाग्रस्त, बिस्तर पर पड़ी माँ की देखभाल भी करती है। क्या उसे एक और मौका नहीं मिल सकता?” उस समय, मैं निष्कासित और निकाले गए सदस्यों की सामग्री व्यवस्थित करने में अगुआओं की सहायता कर रहा था। मेरी बेटी ने मुझसे पूछा कि क्या माँ को फिर से कलीसिया में प्रवेश कराया जा सकता है, और मेरी पत्नी भी पूछती रही कि क्या उसे पुनः प्रवेश दिया जा सकता है। यह देखकर कि मैं यह नहीं कह रहा कि उसे प्रवेश मिल सकता है, मेरी पत्नी ने मुझ पर पत्थर-दिल होने का आरोप लगाया। मुझे बुरा लगा। मैंने सोचा, “‘एक बार जब एक स्त्री-पुरुष विवाह-बंधन में बंध जाते हैं, तो उनका प्रेम बंधन गहरा हो जाता है।’ अगर मैंने अपनी पत्नी को दोबारा प्रवेश दिलाने में मदद नहीं की, तो मेरे मन को शांति नहीं मिलेगी, और मेरी पत्नी और बेटी दोनों मुझसे नाराज रहेंगी।” यही सोचकर, मैंने अगुआओं से बात की और कहा, “निष्कासित किए जाने के बाद भी, मेरी पत्नी ने दृढ़तापूर्वक परमेश्वर में विश्वास रखना जारी रखा है। क्या उसे फिर से कलीसिया में प्रवेश मिल सकता है?” अगुआओं ने यह कहकर मेरे साथ संगति की, “लोगों को फिर से प्रवेश देने के लिए कलीसिया के अपने सिद्धांत हैं। जिन लोगों ने निष्कासित होने या निकाले जाने के बाद भी सुसमाचार का प्रचार करना जारी रखा है और सच्चा पश्चात्ताप किया है, केवल उन्हें ही फिर से प्रवेश मिल सकता है। फिर से प्रवेश पाने वालों को दोबारा कलीसिया में अशांति नहीं फैलानी चाहिए। इन सिद्धांतों के मद्देनजर, हालाँकि तुम्हारी पत्नी ने तुम्हारी आस्था का विरोध नहीं किया है और अपने निष्कासन के बाद से थोड़ा अच्छा व्यवहार दिखाया है, लेकिन फिर भी उसने न तो कभी इस पर चिंतन किया और न ही अपने उन कुकर्मों को पहचाना है जिन्होंने कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त किया, वह अपने निष्कासन को लेकर अभी भी असहमत और असंतुष्ट रहती है। ऐसे व्यक्ति को दोबारा प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए।” अगुआओं की संगति सुनकर मुझे शर्म आई। मैं साफ तौर पर जानता था कि जब से मेरी पत्नी का निष्कासन हुआ है, उसने अपने पिछले कुकर्म बिल्कुल नहीं पहचाने हैं, बल्कि उन अगुआ से नाराज रहती है जिन्होंने उसे निष्कासित किया था, लोगों की संगति के बावजूद उसने कभी भी खुद को बदलने के बारे में आत्म-चिंतन नहीं किया। वह हमेशा बेसिर-पैर के तर्क देती रही। इतने सालों तक उसके साथ रहने के बाद, मैं अच्छी तरह समझ गया था कि वह किस तरह की इंसान है। वह बहुत ही अहंकारी, अभिमानी और बेहद अविवेकी थी। हमारी शादी के बाद से ही, किसी भी हालत में, उसने एक बार भी स्वीकार नहीं किया कि वह गलत है। मेरे मीठा बोलने के बाद ही वह शांत होती। मैंने अपने मन को शांत किया और आत्म-चिंतन करते हुए सोचा, “मैं साफ तौर पर जानता हूँ कि मेरी पत्नी फिर से प्रवेश की शर्तों को पूरा नहीं करती, लेकिन फिर भी मैं उसका बचाव क्यों करता हूँ और उसके पक्ष में क्यों बोलता हूँ?”
फिर मैंने अपनी भक्ति के दौरान, परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग अनुभूतियों के बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं, वे अपने साथ होने वाली हर चीज के बारे में अपनी अनुभूतियों के आधार पर ही प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं; अपने दिलों में वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह गलत है, फिर भी वे वस्तुनिष्ठ होने में असमर्थ रहते हैं, सिद्धांत के अनुसार कार्य करना तो दूर की बात है। जब लोग हमेशा अनुभूतियों के वश में रहते हैं, तो क्या वे सत्य का अभ्यास कर पाते हैं? यह अत्यंत कठिन है। सत्य का अभ्यास करने में बहुत-से लोगों की असमर्थता अनुभूतियों के कारण होती है; वे अनुभूतियों को विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं, वे उन्हें सबसे आगे रखते हैं। क्या वे सत्य से प्रेम करने वाले लोग हैं? हरगिज नहीं। सार में, अनुभूतियां क्या होती हैं? वे एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव हैं। अनुभूतियों की अभिव्यक्तियों को कई शब्दों का उपयोग करते हुए बताया जा सकता है : भेदभाव, सिद्धांतहीन तरीके से दूसरों की रक्षा करने की प्रवृत्ति, भौतिक संबंध बनाए रखना, और पक्षपात; ये ही अनुभूतियां हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। “कौन से मसले भावनाओं से संबंधित हैं? पहला यह है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन कैसे करते हो और उनके कार्यकलापों को कैसे देखते हो। यहाँ ‘उनके कार्यकलापों’ में कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालना, पीठ पीछे लोगों की आलोचना करना, छद्म-विश्वासियों जैसी कुछ कार्य-पद्यतियाँ अपनाना, इत्यादि स्वाभाविक रूप से शामिल हैं। क्या तुम इन चीजों को निष्पक्ष रूप से देख सकते हो? जब तुम्हारे लिए अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन लिखना आवश्यक हो तो क्या तुम अपनी भावनाओं को एक तरफ रखकर वस्तुपरक और निष्पक्ष रूप से ऐसा कर सकते हो? इसका संबंध इस बात से है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों के प्रति कैसा रवैया रखते हो। इसके अलावा, क्या तुम उन लोगों के प्रति भावनाएँ रखते हो जिनके साथ तुम्हारी निभती है या जिन्होंने तुम्हारी पहले कभी मदद की है? क्या तुम उनके कार्यकलापों और व्यवहार को वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष और सटीक तरीके से देख पाते हो? अगर वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा करते हैं और बाधा डालते हैं तो क्या तुम इसके बारे में पता चलने के बाद तुरंत रिपोर्ट कर पाओगे या उन्हें उजागर कर सकोगे? यह भी कि क्या तुम उन लोगों के प्रति भावनाएँ रखते हो जो अपेक्षाकृत तुम्हारे करीब हैं या जिनकी रुचियाँ तुम्हारे ही जैसी हैं? क्या तुम्हारे पास उनके कार्यकलापों और व्यवहार का निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने, इन्हें परिभाषित करने और इनसे निपटने का तरीका है? मान लो कि जिन लोगों के साथ तुम्हारा भावात्मक संबंध है उनसे कलीसिया सिद्धांतों के अनुसार निपटती है और इसके परिणाम तुम्हारी अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते हैं—तो तुम इसे कैसे देखोगे? क्या तुम आज्ञापालन कर पाओगे?” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। परमेश्वर के वचनों ने समस्या की जड़ को स्पष्ट रूप से उजागर किया है। मैं अपनी भावनाओं से विवश था। मुझे अच्छी तरह पता था कि मेरी पत्नी ने कलीसियाई जीवन को बाधित और परेशान किया है और अगुआ की आलोचना की है, और निष्कासित किये जाने के बाद भी उसने कभी सच्चा पश्चात्ताप नहीं किया, इस वजह से वह कलीसिया में फिर से प्रवेश पाने योग्य नहीं है, लेकिन चूँकि मुझे डर था कि मेरी पत्नी और बेटी मुझे पत्थर-दिल कहेंगी, और इस बात की भी चिंता थी कि कहीं हमारी शादी न टूट जाये, मैं उसका बचाव करने के लिए सिद्धांतों के विरुद्ध गया। मैंने इस उम्मीद से उसकी तरफदारी करने के लिए अपने कर्तव्य का लाभ उठाया, कि उसे कलीसिया में फिर से स्वीकार कर लिया जाएगा। मेरी भावनाएँ बहुत प्रबल थीं! परमेश्वर का घर हमसे अपेक्षा करता है कि उन लोगों को फिर से प्रवेश मिले जिन्होंने निष्कासन या निकाले जाने के बाद सचमुच पश्चात्ताप किया है। जहाँ तक हो सके लोगों को पश्चात्ताप करने का मौका देना, परमेश्वर की सहनशीलता और दया ही है। अगर ऐसे लोग अपनी करनी से घृणा करते हैं और पछताते हैं, असली कार्यों के जरिए अपने अपराधों की भरपाई करते हैं, तो इससे पता चलता है कि उन्होंने अपनी मानवता और विवेक को पूरी तरह से नहीं खोया है और कम से कम, परमेश्वर में उनकी आस्था सच्ची है। लेकिन जिन्होंने सत्य नहीं स्वीकारा है और बहुत से कुकर्म किए हैं, तो वे ऐसे लोग हैं जिनका स्वभाव सार सत्य से विमुख होना और सत्य से नफरत करना है और वे कभी पश्चात्ताप नहीं करते। ऐसे लोगों को हटा दिया जाता है। मैं अपनी भावनाओं के भरोसे सिद्धांतों के विरुद्ध जाकर एक बुरे व्यक्ति को कलीसिया में फिर से प्रवेश दिलाना चाहता था, उसे कलीसियाई जीवन को बाधित करते रहने की छूट देना चाहता था। ऐसा करके, क्या मैं कलीसिया के काम में बाधा नहीं डाल रहा था? इसका एहसास होने पर, मुझे गहरा पश्चात्ताप हुआ और तय किया कि अब मैं अपनी भावनाओं के भरोसे नहीं जिऊँगा।
फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा था : ‘कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?’ ‘क्योंकि जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहिन और मेरी माँ है।’ ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : ‘परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।’ ये वचन बिल्कुल सीधे हैं, फिर भी लोग अक्सर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते। अगर कोई व्यक्ति ऐसा है, जो परमेश्वर को नकारता और उसका विरोध करता है, जो परमेश्वर द्वारा शापित है, लेकिन वह तुम्हारी माता या पिता या कोई संबंधी है, और जहाँ तक तुम जानते हो वह कोई दुष्ट व्यक्ति प्रतीत नहीं होता है और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, तो संभवतः तुम उस व्यक्ति से घृणा न कर पाओ, यहाँ तक कि उसके निकट संपर्क में बने रहो, तुम्हारे संबंध अपरिवर्तित रहें। यह सुनना कि परमेश्वर ऐसे लोगों से नफरत करता है, तुम्हें परेशान करेगा, और तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो पाओगे और उन लोगों को निर्ममता से नकार नहीं पाओगे। तुम हमेशा भावनाओं से बेबस रहते हो, और तुम उन्हें पूरी तरह छोड़ नहीं सकते। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम्हारी भावनाएँ बहुत तीव्र हैं और ये तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं। वह व्यक्ति तुम्हारे लिए अच्छा है, इसलिए तुम उससे नफरत नहीं कर पाते। तुम उससे तभी नफरत कर पाते हो, जब उसने तुम्हें चोट पहुँचाई हो। क्या यह नफरत सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगी? साथ ही, तुम परंपरागत धारणाओं से भी बँधे हो, तुम सोचते हो कि वे माता-पिता या रिश्तेदार हैं, इसलिए अगर तुम उनसे नफरत करोगे, तो समाज तुम्हारा तिरस्कार करेगा और जनमत तुम्हें धिक्कारेगा, कपूत, अंतरात्मा से विहीन, यहाँ तक कि अमानुष कहकर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसके लिए दैवीय निंदा और दंड भुगतना होगा। भले ही तुम उनसे नफरत करना चाहो, लेकिन तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें ऐसा नहीं करने देगी। तुम्हारी अंतरात्मा इस तरह काम क्यों करती है? इसका कारण यह है कि अपनी पारिवारिक विरासत, माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा और परंपरागत संस्कृति की समझ के जरिए तुम्हारे मन में बचपन से ही सोचने का एक ढर्रा बैठा दिया गया है। सोचने का यह ढर्रा तुम्हारे मन में बहुत गहरे पैठा हुआ है, और इसके कारण तुम गलती से यह विश्वास करते हो कि संतानोचित निष्ठा पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है, और अपने पुरखों से विरासत में मिली हर चीज हमेशा अच्छी होती है। पहले तुमने इसे सीखा और फिर यह तुम पर हावी हो जाता है, तुम्हारी आस्था में और सत्य स्वीकारने में आड़े आकर व्यवधान डालता है, और तुम्हें इस लायक नहीं छोड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में ला सको, तुम उससे प्रेम कर सको जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा कर सको जिससे परमेश्वर घृणा करता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से, मैं समझ गया कि परमेश्वर हमसे अपेक्षा करता है कि हम लोगों के साथ इस सिद्धांत के साथ व्यवहार करें कि जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करें और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करें। हमें उन लोगों के साथ प्रेम से पेश आएँ जो सत्य से प्रेम करते हैं और कलीसिया के कार्य को प्रेम से कायम रखते हैं, और उन कुकर्मियों से घृणा करें और ठुकराएँ जो सत्य से घृणा करते हैं, परमेश्वर का विरोध करते हैं और परमेश्वर के कार्य में बाधा डालते हैं। केवल इस तरह अभ्यास करना ही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप होना है। लेकिन मैं अपनी भावनाओं से विवश था, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करने में और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करने में मैं असमर्थ था। यह जानते हुए भी कि मेरी पत्नी ने कलीसियाई जीवन बाधित करने का कुकर्म किया है और सत्य को साफ तौर पर नकारा है, और उसका सार एक बुरे व्यक्ति का है जो सत्य से नफरत करता था, और उसे निष्कासित कर हटा दिया जाना चाहिए, मैं सिद्धांतों के विरुद्ध जाकर उसे कलीसिया में दोबारा प्रवेश दिलाने की कोशिश कर रहा था। मेरी भावनाएँ बहुत प्रबल थीं! मैं इन कहावतों में विश्वास करता था जैसे, “एक बार जब एक स्त्री-पुरुष विवाह-बंधन में बंध जाते हैं, तो उनका प्रेम बंधन गहरा हो जाता है,” “खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं,” और “मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?” इन शैतानी विष के सहारे जीने के कारण, मैं अच्छे और बुरे, सही और गलत में अंतर नहीं कर पा रहा था। हर चीज में, मैं बिना किसी सिद्धांत के, अपनी भावनाओं के अनुसार जिया था। यह देखकर कि मेरी पत्नी हमारे कर्तव्य-निर्वहन में मेरा और हमारे बच्चों का साथ दे रही है, घर का कामकाज संभाल रही है, और निष्कासित होने के बाद मेरी लकवाग्रस्त माँ की देखभाल करती है, तो मुझे लगा कि मैं उसका ऋणी हूँ। मुझे डर था कि अगर मैं उसके लिए नहीं लड़ा, तो मेरे बच्चे मुझसे नाराज हो जाएँगे और इस बात को पसंद नहीं करेंगे। अपने दैहिक भावनात्मक संबंधों और एक अच्छे पति और पिता के रूप में अपनी छवि बनाए रखने के लिए, मैंने उसकी तरफदारी की थी और उसके पक्ष में बोला था, उसे फिर से प्रवेश दिलाने का प्रयास कर रहा था, उसे इस बात की छूट दे रहा था कि वह कलीसियाई जीवन और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में बाधा पहुँचाती रहे। यह कुकर्म था और जमीर व मानवता से रहित था। परमेश्वर हमसे कभी भी बुरे लोगों के प्रति विवेक दिखाने को नहीं कहता, न ही वह यह कहता है कि शैतानी रिश्तेदारों को ठुकराना हृदयहीन होना या अमानवीय होना है, बल्कि वह हमसे अपेक्षा करता है कि हम उससे प्रेम करें जिससे वह प्रेम करता है और उससे घृणा करें जिससे वह घृणा करता है। इसका एहसास होने पर, मेरे मन में एक स्पष्टता आ गई, और मैं सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने को तैयार हो गया, अब मैं अपनी पत्नी का बचाव नहीं कर रहा था या अपनी भावनाओं के आधार पर काम नहीं कर रहा था।
इन चीजों का अनुभव करने के बाद, मुझे लगा कि मुझे भावनाओं के सार के बारे में थोड़ी-बहुत अंतर्दृष्टि मिल गई है। लेकिन आगे चलकर, मुझे अपनी बड़ी बेटी के निष्कासन का सामना करना पड़ा। दिसंबर 2020 में, मैं घर से दूर रहकर अपना कर्तव्य-निर्वहन कर रहा था। एक दिन अचानक मुझे घर से एक पत्र मिला, उसमें लिखा था कि मेरी बड़ी बेटी को एक बुरे व्यक्ति के रूप में उजागर किया गया है, उसे कलीसिया के काम में बाधा डालने, परेशान करने और कई कुकर्म करने और पश्चात्ताप न करने की वजह से कलीसिया से निष्कासित कर दिया गया है। यह पढ़कर मैं स्तब्ध रह गया और मुझे बहुत दुख हुआ, और मेरे मन में शिकायती लहजे में एक सवाल उठा, “मेरी बड़ी बेटी को क्यों निकाल दिया गया? उसने तो अपने कर्तव्य-निर्वहन के लिए अपनी पढ़ाई तक छोड़ दी। आँधी-तूफान के बावजूद, उसने कभी अपने कर्तव्यों में देरी नहीं की। अब उसे भी निष्कासित कर दिया गया है; क्या इसका मतलब यह नहीं है कि उसके उद्धार की अब कोई आशा नहीं बची?” आंखें बंद करते ही मेरे मन में अतीत के दृश्य उभर आते। पहले, चार लोगों का हमारा परिवार परमेश्वर में विश्वास रखता था। हम अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ते थे, भजन गाते थे और सत्य के बारे में मिलकर संगति किया करते थे। अब केवल मैं और मेरी छोटी बेटी ही बचे थे। यह सोच कर मुझे बहुत दुख हो रहा था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मेरी बड़ी बेटी को निष्कासित कर दिया गया। मैं जानता हूँ कि यह तेरी धार्मिकता है। लेकिन यह बात मेरे गले नहीं उतर रही है; मैं अपनी भावनाओं से अलग नहीं हो पा रहा हूँ। मुझे प्रबुद्ध और मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं तेरा इरादा समझ सकूँ।” उस समय, हम “कुकर्मी को निष्कासित करने की लड़ाई” नामक मंचीय नाटक का फिल्मांकन कर रहे थे। नायिका अपने पिता के निष्कासन के कारण दुःखी और नकारात्मक थी, और उसकी अवस्था मेरी जैसी ही थी। यह देखकर कि नायक अपनी भावनाओं की विवशता को दूर करने के लिए परमेश्वर के वचनों पर भरोसा कर रहा है, मैं बहुत प्रभावित हुआ। मैंने सोचा, “मुझे भी परमेश्वर पर भरोसा करना चाहिए, सत्य का अभ्यास कर अपनी गवाही पर दृढ़ रहना चाहिए। आज, यह जानकर कि मेरी बेटी को निकाल दिया गया है, मैं दुखी हो रहा हूँ, लेकिन मेरा मानना है कि परमेश्वर धार्मिक है। कलीसिया द्वारा किसी को हटाना या निष्कासित करना उस व्यक्ति के सार पर आधारित है, और किसी के साथ अन्याय नहीं हुआ है। मुझे समर्पण कर देना चाहिए और परमेश्वर के बारे में शिकायत और उसका विरोध करना बंद कर देना चाहिए।”
बाद में, मैंने शांत मन से अपनी बड़ी बेटी के एकरूप व्यवहार पर विचार किया और उसके निष्कासन नोटिस की समीक्षा की, जिससे इस बात की पुष्टि हो गई है कि वह वाकई बुरी इंसान है जिसने कई कुकर्म किए हैं। देखने में, वह तर्कसंगत लगती और ज्यादा नहीं बोलती थी, लेकिन जब उसके हितों की बात आती, तो उसका असली रंग सामने आ जाता। जब मेरी पत्नी को बर्खास्त किया गया और आत्म-चिंतन के लिए उसे अलग-थलग कर दिया गया, तो अगुआ वांग जिंग ने मेरी पत्नी के कुकर्मों के बारे में मेरी बेटी से बातचीत की। लेकिन उसने एक न सुनी बल्कि मेरी पत्नी का बचाव करते हुए कहा, “मैंने तो ऐसा कोई व्यवहार नहीं देखा है। मैं नहीं मानती कि मेरी माँ ने कलीसियाई जीवन को बाधित किया है।” अगुआ ने हर तरह से संगति की, लेकिन उसने इस बात को नहीं स्वीकारा और यही दावा करती रही कि अगुआ ने उसकी माँ का दमन कर उनके साथ अन्याय किया है, इस तरह वह लगातार कलीसिया जीवन को बाधित करती रही। उसके व्यवहार के कारण कलीसिया ने उसे बर्खास्त कर दिया। तब से, उसके मन में वांग जिंग के प्रति नाराजगी थी। बाद में, सतही तौर पर लगा कि उसमें सुधार हुआ है और उसने इस बात को भुला दिया है। कुछ समय बाद, उसे कलीसिया अगुआ बना दिया गया। उस समय, वास्तविक कार्य न कर पाने के कारण वांग जिंग को फिर से पाठ-आधारित कार्य दे दिया गया, मेरी बेटी को वांग जिंग से बदला लेने का मौका मिल गया। उसने न सिर्फ उसे उसके पाठ-आधारित कार्य से बर्खास्त कर दिया, बल्कि उसे कलीसिया से निष्कासित कराने के लिए भी सामग्री तैयार कर ली। मैंने उससे कहा, “कलीसिया की स्वच्छता सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। अगर किसी को अन्यायपूर्वक निष्कासित किया जाता है, तो यह कुकर्म करना और एक गंभीर अपराध है; वांग जिंग महज एक झूठी अगुआ है जो कोई वास्तविक कार्य नहीं कर पा रही है, लेकिन वह बुरी इंसान नहीं है और निष्कासन के मानदंडों पर नहीं बैठती।” मैंने उसके साथ कई बार संगति की, लेकिन उसने मेरी एक न सुनी, वह इसी बात पर जोर देती रही कि वांग जिंग एक बुरी इंसान और मसीह विरोधी है और निष्कासन के लायक ही है। बाद में, वांग जिंग के खिलाफ उसके सबूत काफी नहीं थे, अगुआओं, कार्यकर्ताओं और भाई-बहनों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। लेकिन उसने भी हार नहीं मानी और चुपचाप जानकारी जुटाती रही, उसने तय कर लिया था कि वह वांग जिंग को कलीसिया से निष्कासित कराकर ही रहेगी। वह न केवल वांग जिंग को निष्कासित करना चाहती थी, बल्कि उसने वांग जिंग के पति और बच्चे को भी दंडित कर उनका दमन किया, भाई-बहनों को गुमराह किया और और वांग जिंग के पति को बहिष्कृत करने और ठुकराने के लिए उकसाया और उसे बर्खास्त करने की धमकी तक दी, जिससे वांग जिंग का परिवार बहुत पीड़ा और नकारात्मकता में जिया। अपनी बड़ी बेटी की बर्खास्तगी के दौरान, मैं कलीसिया उपयाजक के रूप में वहाँ मौजूद था, और चूँकि मैंने उसका बचाव नहीं किया, इसलिए उसके मन में मेरे प्रति भी नाराजगी थी। बाद में, मूल्यांकन लिखते समय, उसने मुझे अमानवीय, अत्यंत स्वार्थी बताया, और लिखा कि मैं एक असंवेदनशील और क्रूर जानवर जैसा हूँ, और मुझे बहुत खराब मूल्यांकन दिए।
अपनी बेटी के व्यवहार पर चिंतन करते हुए, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब मसीह-विरोधियों की काट-छाँट की जाती है, तो उनका रवैया स्वीकारने और आज्ञापालन करने का नहीं होता। बल्कि वे इसके प्रतिरोधी और इससे विमुख होते हैं, जिससे नफरत पैदा होती है। वे अपने दिल की गहराई से उन सबसे नफरत करते हैं जो उनकी काट-छाँट करते हैं, जो उनके रहस्यों को प्रकट करते हैं और उनकी वास्तविक परिस्थितियों को उजागर करते हैं। वे किस हद तक तुमसे नफरत करते हैं? वे नफरत से अपने दाँत पीसते हैं, चाहते हैं कि तुम उनकी नजरों से ओझल हो जाओ और ऐसा महसूस करते हैं कि तुम दोनों एक साथ नहीं रह सकते। अगर मसीह-विरोधी लोगों के साथ ऐसा करते हैं, तो क्या वे परमेश्वर के उन वचनों को स्वीकार सकते हैं जो उन्हें उजागर करते हैं और उनकी निंदा करते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। जो कोई भी उन्हें उजागर करता है, वे सिर्फ उन्हें उजागर करने और उनके अनुकूल नहीं होने के कारण उनसे नफरत करेंगे और प्रतिशोध लेंगे। वे चाहते हैं कि काश उस व्यक्ति को अपनी नजरों से दूर कर सकें जिसने उनकी काट-छाँट की। वे इस व्यक्ति को कुछ भी अच्छा करते हुए नहीं देख सकते। अगर यह व्यक्ति मर जाए या आपदा में फँस जाए तो वे खुश होंगे; अगर यह व्यक्ति जिंदा है और अभी भी परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा रहा है और सब कुछ सामान्य रूप से चलता रहता है तो उनके दिलों में पीड़ा, बेचैनी और झुँझलाहट होती है। जब उनके पास किसी व्यक्ति के विरुद्ध प्रतिशोध लेने का कोई रास्ता नहीं होता है तो वे मन-ही-मन उसे कोसते हैं या परमेश्वर से उस व्यक्ति को दंड और प्रतिफल देने और साथ ही अपनी शिकायतों का निवारण करने की प्रार्थना तक करते हैं। एक बार जब मसीह-विरोधियों में ऐसी नफरत पैदा हो जाती है तो वे कई तरह के क्रियाकलाप करने लगते हैं। इनमें प्रतिशोध लेना, शाप देना और बेशक कुछ अन्य क्रियाकलाप करना भी शामिल हैं, जैसे कि दूसरों को फँसाना, बदनाम करना और निंदा करना, जो नफरत से जन्म लेते हैं। अगर कोई उनकी काट-छाँट करता है तो वे उस व्यक्ति की पीठ पीछे उसे हानि पहुँचाएँगे। जब वह व्यक्ति कुछ सही कहेगा तो वे उसे गलत कहेंगे। वे उस व्यक्ति द्वारा की गई सभी सकारात्मक चीजों को बिगाड़ देंगे और उन्हें नकारात्मक बना देंगे, इन झूठों को फैलाएँगे और उनकी पीठ पीछे गड़बड़ी पैदा करेंगे। वे उन लोगों को भड़काकर अपनी ओर आकर्षित करते हैं जो अनजान हैं और चीजों की असलियत नहीं समझ सकते या इनका भेद नहीं पहचान सकते, ताकि ये लोग उनके पक्ष में शामिल होकर उनका समर्थन करें। जाहिर है कि उनकी काट-छाँट करने वाले व्यक्ति ने कुछ भी खराब नहीं किया है, फिर भी वे इस व्यक्ति पर कुछ गलत कामों का आरोप लगाना चाहते हैं, ताकि हर कोई गलती से यह मान ले कि वे इस तरह के काम करते हैं और फिर सभी को इस व्यक्ति को ठुकराने के लिए एक साथ आने को मजबूर कर दें। मसीह-विरोधी इस तरह से कलीसियाई जीवन में बाधा डालते हैं और लोगों के लिए उनके कर्तव्य निभाने में बाधक बनते हैं। उनका लक्ष्य क्या है? यह उनकी काट-छाँट करने वाले व्यक्ति के लिए चीजें मुश्किल बनाना और सभी को इस व्यक्ति को त्यागने के लिए मजबूर करना है। कुछ मसीह-विरोधी ऐसे भी हैं जो कहते हैं : ‘तुमने मेरी काट-छाँट कर मेरे लिए चीजें मुश्किल बनाई हैं, इसलिए मैं तुम्हें चैन से जीने नहीं दूँगा। मैं तुम्हें इसका स्वाद चखाऊँगा कि काट-छाँट किए जाने और त्यागे जाने का क्या मतलब होता है। तुम मेरे साथ जैसा सलूक करोगे, मैं भी तुम्हारे साथ वैसा ही करूँगा। अगर तुम मुझे चैन से जीने नहीं दोगे, तो यह मत सोचो कि तुम चैन से जी सकोगे!’” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। परमेश्वर के वचनों से, मैंने देखा कि मसीह-विरोधी बहुत ही दुष्ट और दुर्भावनापूर्ण होते हैं, उन लोगों से तो उन्हें विशेष रूप से नफरत होती है जो उन्हें उजागर या अपमानित करते हैं, और वे तब तक हार नहीं मानते जब तक वे उनका दमन कर उन्हें बर्बाद न कर दें। जब इसकी तुलना मैंने अपनी बड़ी बेटी के व्यवहार से की, तो मुझे उसके बारे में थोड़ी समझ हासिल हुई। चूँकि उसने अपनी माँ का पक्ष लेकर कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था, उसे बर्खास्त कर दिया गया, उसके मन में अगुआ वांग जिंग के प्रति द्वेष-भाव था और वह बदला लेने का अवसर ढूँढ़ती रही। ओहदा मिलने के बाद उसने अपनी ताकत का इस्तेमाल वांग जिंग और उसके परिवार को फंसाने और प्रताड़ित करने के लिए करने की पूरी कोशिश की। सभी ने उसके साथ हर तरह से संगति कर ली कि वांग जिंग निकाले जाने या निष्कासन के मानदंडों को पूरा नहीं करती, लेकिन वह टस से मस नहीं हुई और वांग जिंग को कलीसिया से निकालने पर अड़ी रही। मैंने देखा कि मेरी बेटी का स्वभाव अत्यंत कपटी और दुर्भावनापूर्ण है, और वह हमेशा बुरे व्यक्ति का बचाव करती है और असहमति जताने वाले से बदला लेती है, और तब तक चैन से नहीं बैठती जब तक उसे बर्बाद न कर दे। मुझे एहसास हुआ कि वह शैतान है और उसे वाकई निष्कासित कर देना चाहिए। अगर वह कलीसिया में रहेगी, वह बाधा डालना और अशांति फैलाना जारी रखेगी, और कलीसिया के लिए अभिशाप बन जाएगी।
फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनसे अंतःकरण और प्रेम से पेश आते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि लोग इस बिंदु तक आ गए हैं और अच्छाई-बुराई में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर के इरादों को खोजने की कोई इच्छा किए बिना या परमेश्वर के इरादों को अपने इरादे मानने में असमर्थ रहते हुए आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं तो उनका अंत और भी अधिक खराब होगा। जो भी व्यक्ति देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ़ अंतःकरण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें न्यायबोध की कमी नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम विद्रोही नहीं हो? क्या तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ़ अंतःकरण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं? वे लोग जो केवल यीशु पर विश्वास करते हैं और अंत के दिनों के देहधारी परमेश्वर को नहीं मानते, और जो ज़बानी तौर पर देहधारी परमेश्वर में विश्वास करने का दावा करते हैं, परंतु बुरे कार्य करते हैं, वे सब मसीह-विरोधी हैं, उनकी तो बात ही क्या जो परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते। ये सभी लोग विनाश की वस्तु बनेंगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के परिवार में, मसीह सामर्थ्य रखता है, और सत्य का शासन होता है। कलीसिया ने मेरी बेटी को उसके सार के आधार पर निष्कासित कर, निष्कासन के सिद्धांतों का पालन किया था। लेकिन जब मेरे साथ ऐसा हुआ, तो मैंने परमेश्वर के इरादे की खोज नहीं की। मैं अपनी बेटी के शैतानी सार को समझ नहीं पाया, इसलिए मुझे उससे सहानुभूति हुई और उस पर दया आई। मुझे लगा कि चूँकि वह बचपन से ही परमेश्वर में विश्वास रखती आई है, और उसने अपनी पढ़ाई छोड़ दी, अब तक भी कष्ट सहे हैं और कीमत चुकाई है; उसे कैसे निष्कासित किया जा सकता है? इसलिए मैंने मन ही मन परमेश्वर से शिकायत की, उससे बहस की। क्या यह बिलकुल वैसा नहीं था जैसा परमेश्वर ने उजागर किया है “शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट करना” और “दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र करना”? क्या मैं परमेश्वर का विरोध और प्रतिरोध नहीं कर रहा था? मैंने बरसों परमेश्वर में विश्वास रखा, उसके बहुत से वचन खाए और पिए, और अक्सर दूसरों को बताया “किसी को निकालना और निष्कासित करना सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए, भावनाओं पर नहीं, भले ही वह तुम्हारे अपने माता-पिता ही क्यों न हों,” लेकिन जब मेरी पत्नी और बेटी को निष्कासित करने की बात आई, तो मैंने जानबूझकर नियम तोड़े, उन्हें भावनाओं के आधार पर कलीसिया में रखना चाहा, क्या मैं कलीसिया के काम में बाधा डालने वाले बुरे लोगों को माफ नहीं कर रहा था? यह बुरे लोगों की तरफदारी करना और परमेश्वर का विरोध करना था! इसका एहसास होने पर मन ही मन मुझे थोड़ा डर लगा, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं उससे पश्चात्ताप करने और भावनाओं की विवशता से मुक्त होने को तैयार था।
फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण उसके आचरण से पैदा होने वाले सार के अनुसार होता है और इसका निर्धारण सदैव उचित तरीक़े से होता है। कोई भी दूसरे के पापों को नहीं ढो सकता; यहाँ तक कि कोई भी दूसरे के बदले दंड नहीं पा सकता। यह सुनिश्चित है। ... अंत में, धार्मिकता करने वाले धार्मिकता ही करते हैं और बुरा करने वाले, बुरा ही करते हैं। अंततः धार्मिकों को बचने की अनुमति मिलेगी, जबकि बुरा करने वाले नष्ट हो जाएंगे। पवित्र, पवित्र हैं; वे गंदे नहीं हैं। गंदे, गंदे हैं और उनमें पवित्रता का एक भी अंश नहीं है। जो लोग नष्ट किए जाएँगे, वे सभी दुष्ट हैं और जो बचेंगे वे सभी धार्मिक हैं—भले ही बुरा कार्य करने वालों की संतानें धार्मिक कर्म करें और भले ही किसी धार्मिक व्यक्ति के माता-पिता दुष्टता के कर्म करें। एक विश्वासी पति और अविश्वासी पत्नी के बीच कोई संबंध नहीं होता और विश्वासी बच्चों और अविश्वासी माता-पिता के बीच कोई संबंध नहीं होता; ये दोनों तरह के लोग पूरी तरह असंगत हैं। विश्राम में प्रवेश से पहले एक व्यक्ति के रक्त-संबंधी होते हैं, किंतु एक बार जब उसने विश्राम में प्रवेश कर लिया, तो उसके कोई रक्त-संबंधी नहीं होंगे। जो अपना कर्तव्य निभाते हैं वे उनके शत्रु हैं जो अपने कर्तव्य नहीं निभाते हैं; जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं और जो उससे घृणा करते हैं, वे एक दूसरे के उलट हैं। जो विश्राम में प्रवेश करेंगे और जो नष्ट किए जा चुके होंगे, वे बेमेल किस्म के अलग-अलग सृजित प्राणी हैं। जो सृजित प्राणी अपने कर्तव्य अच्छे से निभाते हैं, बचने में समर्थ होंगे, जबकि वे जो अपने कर्तव्य नहीं निभाते, विनाश की वस्तुएँ बनेंगे; यही नहीं, यह सब अनंत काल तक चलेगा। ... आज लोगों में एक दूसरे के बीच भौतिक संबंध होते हैं, उनके बीच खून के रिश्ते होते हैं, किंतु भविष्य में, यह सब ध्वस्त हो जाएगा। विश्वासी और अविश्वासी आपस में मेल नहीं खाते हैं, बल्कि वे एक दूसरे के विरोधी हैं। वे जो विश्राम में हैं, विश्वास करेंगे कि कोई परमेश्वर है और उसके प्रति समर्पित होंगे, जबकि वे जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं, वे सब नष्ट कर दिए गए होंगे। पृथ्वी पर परिवारों का अब और अस्तित्व नहीं होगा; तो माता-पिता या संतानों या पति-पत्नियों के बीच के रिश्ते कैसे हो सकते हैं? विश्वास और अविश्वास की अत्यंत असंगतता से ये संबंध पूरी तरह टूट चुके होंगे!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचनों से, मैं समझ गया कि परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है। परमेश्वर बिना किसी दैहिक भावना के लोगों के परिणाम निर्धारित करता है, सभी के साथ उचित और न्यायपूर्ण व्यवहार करता है। परमेश्वर इस आधार पर न्याय नहीं करता कि किसी ने कितना त्याग किया है या खुद को कितना खपाया है, बल्कि लोगों के सार और कार्यों के आधार पर उनका परिणाम तय करता है, और बुरे लोगों का हटाया जाना तय है। मैं परमेश्वर की धार्मिकता को नहीं समझ पाया, इसलिए, जब मैंने सुना कि मेरी बेटी को निष्कासित कर दिया गया है, तो मैंने यह देखने के लिए सत्य की खोज नहीं की या उसके स्वभाव सार पर विचार नहीं किया कि वह वास्तव में किस प्रकार की व्यक्ति है, बल्कि मैं अपनी भावनाओं में जी रहा था, उसके प्रति सहानुभूति रख रहा था और उस पर दया कर रहा था। अब मैंने स्पष्ट रूप से देख लिया कि मेरी बेटी का पढ़ाई छोड़कर अपना कर्तव्य निभाना, कष्ट सहना और कीमत चुकाना, रुतबा और प्रतिष्ठा हासिल करने के प्रयास मात्र थे। जब उसका ओहदा छिन गया, और उसके हित प्रभावित हुए, तो उसका दुष्ट स्वभाव पूरी तरह उजागर हो गया। मुझे लगता था कि हमारा पूरा परिवार परमेश्वर में विश्वास रखता है, और हम सभी बचाये जाकर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन अब मैंने देखा कि यह महज मेरी धारणा और कल्पना थी। अगर कोई सत्य से प्रेम नहीं करता या सत्य से घृणा भी करता है, और बरसों तक परमेश्वर पर विश्वास रखने के बावजूद उसका शैतानी स्वभाव बिल्कुल नहीं बदलता है, तो उसे कैसे बचाया जा सकता है? मेरी बेटी और पत्नी के निष्कासन के अनुभव के जरिए, मैंने देखा कि हालाँकि हमारा पूरा परिवार शुरू में परमेश्वर में विश्वास रखता था, हमें परमेश्वर के वचनों की आपूर्ति मिली और हमने अपने कर्तव्य निभाये, कुछ वर्षों के बाद, हर किसी का सार और हमने जो मार्ग अपनाया वह धीरे-धीरे उजागर हो गया। मेरी पत्नी और बड़ी बेटी ने कई कुकर्म किए और दोनों बुरे इंसान के रूप में उजागर हुए; हम दो असंगत प्रकार के लोग हैं, और कोई भी दूसरे की मदद या बचाव नहीं कर सकता। मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में विचार किया : “भविष्य में, जब मानवता एक सुंदर क्षेत्र में प्रवेश करेगी, तब पति और पत्नी के बीच, पिता और पुत्री के बीच या माँ और पुत्र के बीच ऐसे कोई संबंध नहीं होंगे, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं। उस समय, प्रत्येक मनुष्य अपने प्रकार के लोगों का अनुसरण करेगा और परिवार पहले ही ध्वस्त हो चुके होंगे। पूरी तरह असफल होने के बाद, शैतान फिर कभी मानवता को परेशान नहीं करेगा और मनुष्यों में अब और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव नहीं होंगे। वे विद्रोही लोग पहले ही नष्ट किए जा चुके होंगे और केवल समर्पण करने वाले लोग ही बचेंगे। जब बहुत थोड़े से परिवार पूरी तरह बचेंगे; तो भौतिक संबंध कैसे बने रह सकते हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। मैंने परमेश्वर के कार्य को नहीं समझा, और भावनाओं में बहकर, अपनी पत्नी और बेटी को बचाया, मैं चाहता था कि हमारे दैहिक पारिवारिक रिश्ते बने रहें, लगभग परमेश्वर का विरोध करने के ही कृत्य कर रहा था। मैं बहुत मूर्ख और अंधा था! मैंने सोचा, “मैं अब अपनी भावनाओं से विवश नहीं हो सकता। मुझे भावनाओं के बंधन से मुक्त होकर इस स्थिति के सामने समर्पण कर देना चाहिए।” धीरे-धीरे मेरी स्थिति में सुधार हुआ और मुझे उतनी पीड़ा नहीं हुई।
इस सब अनुभव के बाद, मैं अपने परिवार को और ज्यादा जानने लगा। अब मैं दिल की गहराई से उनके प्रति भावुक नहीं होता। साथ ही मैंने यह भी साफ देखा भावनाओं में जीने वाला व्यक्ति अच्छे और बुरे, सही और गलत में भेद नहीं कर पाता, और वह ऐसे काम कर जाता है जो सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध होते हैं, वह परमेश्वर का विरोध और उससे विद्रोह कर बैठता है। भावनाएँ वास्तव में परमेश्वर की शत्रु होती हैं। भावनाओं में जीने से सत्य का अभ्यास करना असंभव हो जाता है। मैंने यह भी देखा कि मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, मेरी भावनाएँ बहुत प्रबल हैं, मुझमें परमेश्वर के प्रति सच्ची समर्पण की कमी थी, और मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के लिए परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने की आवश्यकता थी।