53. मेरे कर्तव्य ने मेरा स्वार्थ उजागर कर दिया

रोक्साना, ताइवान

मैं दो साल से वीडियो कार्य की पर्यवेक्षक हूँ। कुछ समय पहले काम की जरूरतों के चलते हमारे समूह को दो छोटे समूहों में बाँट दिया गया। बहन लायला एक समूह की प्रभारी बनी और दूसरे समूह का प्रभार मुझे दिया गया। भले ही बहन लायला ने अभी-अभी इस काम की देखरेख शुरू की थी, पर वह हमेशा वीडियो बनाने पर अहम सुझाव देती थी और वह अक्सर काम की संयुक्त समीक्षा करने और तकनीकी कौशल सीखने में भाई-बहनों की अगुआई करती थी। मैं इस बात से बहुत खुश नहीं थी, सोच रही थी “इस दर से वे जरूर तेजी से प्रगति करेंगे और वह वक्त ज्यादा दूर नहीं है जब मेरा समूह उनकी तुलना में अच्छा नहीं दिखेगा।” मुझे लगा जैसे संकट निकट है, और मैंने मन ही मन कहा कि मुझे हर वीडियो पर अच्छा काम करना होगा ताकि लायला और उसके समूह से पीछे न रह जाऊँ। उस समय हम एक ऐसा वीडियो बना रहे थे जो तकनीकी रूप से चुनौतीपूर्ण था और मैं अन्य भाई-बहनों के साथ मिलकर संबंधित कौशल का बारीकी से अध्ययन कर रही थी। जब हमारे सामने मुश्किलें आतीं तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती और सभी के साथ समाधान तलाशती। बहुत मेहनत के बाद वीडियो पूरा हो गया और इसे देखने वाले भाई-बहनों ने कहा कि यह बहुत बढ़िया बना है। इससे संतोष मिला क्योंकि यह बताता था कि मैं हुनरमंद हूँ और लायला और उसके समूह से अधिक सक्षम हूँ। मैंने वीडियो अन्य समूहों में भाई-बहनों को भेजा और कुछ दिनों बाद उन्होंने जवाब दिया कि वीडियो बहुत जीवंत लग रहा है और पूछा कि मैंने अपना तकनीकी कौशल कैसे सुधारा। यह सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई और मैंने मन में सोचा, “अब जब भाई-बहन जान गए हैं कि मैंने क्या कर सकती हूँ तो उन्हें मेरा मान और प्रशंसा करनी ही पड़ेगी।” मैंने खुद से वादा किया कि मैं आइंदा हर वीडियो पर पूरी लगन से काम करूँगी।

इसके बाद लायला और उसके समूह को एक वीडियो में मुश्किलें आने लगीं और इन्हें सुलझाने में उन्होंने मुझसे मदद मांगी। मैंने मन ही मन सोचा, “यह वीडियो तुम्हारी जिम्मेदारी है। अगर मैं इन समस्याओं को सुलझाने में समय लगाती हूँ तो मुझे इसका श्रेय भी नहीं मिलेगा और इससे मेरा अपना काम भी रुक जाएगा। मेरे लिए अपनी जिम्मेदारी वाले वीडियो में ही ज्यादा मेहनत करना बेहतर होगा, बजाय इसके कि मैं तुम्हारी समस्याएँ सुलझाने में मदद करने लगूँ।” इसलिए मैंने उनकी मदद न करने का फैसला किया। बाद में जब लायला को अभी भी कोई समाधान नहीं मिला तो वह फिर मेरे पास आई। उसने कहा कि उन्होंने कई तरीके आजमाए पर सफलता नहीं मिली और पूछा कि मैं ऐसी मुश्किलों से कैसे निपटी थी। मैंने सोचा, “अगर मैं तुम्हारे समूह की समस्याओं पर समय लगाती हूँ और तुम्हारा काम मुझसे अच्छा हो जाता है तो क्या हर कोई तुम्हें मुझसे बेहतर समूह अगुआ नहीं मानेगा, भले ही तुमने अभी-अभी शुरुआत की हो? मैं अक्षम दिखूँगी!” यह सोचकर मैंने उसे बातों-बातों में कह दिया कि मैं उसकी कोई मदद नहीं कर सकती। लायला के पास वापस जाकर खुद ही मुश्किलों की जांच करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। फिर उसने समूह चैट में वीडियो का एक नमूना भेजा ताकि हम देख सकें कि कोई समस्या तो नहीं है। मैंने जवाब देने के बारे में नहीं सोचा क्योंकि मुझे लगा कि वीडियो देखने में मेरा समय बर्बाद होगा। लेकिन साथ मुझे यह भी चिंता हुई कि अगर मैंने इसे नहीं देखा तो भाई-बहन कहेंगे मैं काम की देखरेख में लापरवाह हूँ और समूह अगुआ के तौर पर गैर-जिम्मेदार हूँ। इसलिए मैंने अनिच्छा से फाइल खोली और वीडियो देखा। मुझे कई जगहों पर समस्याएँ दिखीं, लेकिन मैंने उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। फिर लायला ने वीडियो अगुआ को भेजा, उसने कई समस्याएँ बताईं, इसलिए उनके वीडियो पर फिर से काम करने और उसे सुधारने की जरूरत पड़ी। परिणामस्वरूप काम की प्रगति में देरी हुई। बाद में जब अगुआ मेरे साथ काम पर चर्चा करने आया तो उसने मेरी समस्याओं बताईं और कहा, “जब हम कलीसिया में अपने कर्तव्य निभाते हैं तो हम काम को बाँट देते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम एक-दूसरे से मतलब रखे बिना काम करें। तुम एक समूह अगुआ हो, इसलिए तुम्हें ज्यादा जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। लायला ने अभी-अभी समूह अगुआ के रूप में अभ्यास शुरू किया है, इसलिए तुम्हें उसके और उसके समूह द्वारा बनाए गए वीडियो की अधिक बारीकी से जाँच करनी होगी, ताकि कुछ समस्याएँ समय रहते सुलझाई जा सकें।” तब मुझे एहसास हुआ कि मैं इस देरी की जिम्मेदारी लेने से नहीं बच सकती क्योंकि यह सब मेरे बहुत स्वार्थी होने, सिर्फ अपने काम पर ध्यान देने और लायला के साथ सहयोग नहीं करने के कारण हुआ था। हालाँकि मैंने इस मामले पर बहुत गहराई से विचार नहीं किया। इसके बाद जब भी मैं वीडियो बनाती तो मेरी सोच धुंधली हो जाती और मैं सुस्त और भटकाव महसूस करने लगती। मैं भाई-बहनों के कर्तव्यों में समस्याएँ नहीं ढूँढ़ पा रही थी और मुझे यह भी समझ नहीं आ रहा था कि प्रार्थना करते समय क्या कहना है। मुझे एहसास हुआ कि मेरी अवस्था ठीक नहीं है और परमेश्वर ने मुझसे अपना चेहरा छिपा लिया है। इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की और उससे खुद को समझने की दिशा में मार्गदर्शन करने के लिए कहा।

एक रात को सोने से पहले, मैंने अपने हालिया प्रदर्शन पर विचार किया। मैंने सोचा कि परमेश्वर कैसे मसीह-विरोधियों को उजागर करता है जो अपने कर्तव्य निर्वहन में सिर्फ अपने ही काम की परवाह करते हैं। मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “मसीह-विरोधियों में कोई जमीर, विवेक या मानवता नहीं होती। वे न केवल शर्म से बेपरवाह होते हैं, बल्कि उनकी एक और खासियत भी होती है : वे असाधारण रूप से स्वार्थी और नीच होते हैं। उनके ‘स्वार्थ और नीचता’ का शाब्दिक अर्थ समझना कठिन नहीं है : उन्हें अपने हित के अलावा कुछ नहीं सूझता। अपने हितों से संबंधित किसी भी चीज पर उनका पूरा ध्यान रहता है, वे उसके लिए कष्ट उठाएँगे, कीमत चुकाएँगे, उसमें खुद को तल्लीन और समर्पित कर देंगे। जिन चीजों का उनके अपने हितों से कोई लेना-देना नहीं होता, वे उनकी ओर से आँखें मूँद लेंगे और उन पर कोई ध्यान नहीं देंगे; दूसरे लोग जो चाहें सो कर सकते हैं—मसीह-विरोधियों को इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि कोई विघ्न-बाधा पैदा तो नहीं कर रहा, उन्हें इन बातों से कोई सरोकार नहीं होता। युक्तिपूर्वक कहें तो, वे अपने काम से काम रखते हैं। लेकिन यह कहना ज्यादा सही है कि इस तरह का व्यक्ति नीच, अधम और दयनीय होता है; हम उन्हें ‘स्वार्थी और नीच’ के रूप में परिभाषित करते हैं। मसीह-विरोधियों की स्वार्थपरता और नीचता कैसे प्रकट होती हैं? उनके रुतबे और प्रतिष्ठा को जिससे लाभ होता है, वे उसके लिए जो भी जरूरी होता है उसे करने या बोलने के प्रयास करते हैं और वे स्वेच्छा से हर पीड़ा सहन करते हैं। लेकिन जहाँ बात परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कार्य से संबंधित होती है, या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन के विकास को लाभ पहुंचाने वाले कार्यों से संबंधित होती है, वे पूरी तरह इसे अनदेखा करते हैं। यहाँ तक कि जब बुरे लोग विघ्न-बाधा डाल रहे होते हैं, सभी प्रकार की बुराई कर रहे होते हैं और इसके फलस्वरूप कलीसिया के कार्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहे होते हैं, तब भी वे उसके प्रति आवेगहीन और उदासीन बने रहते हैं, जैसे उनका उससे कोई लेना-देना ही न हो। और अगर कोई किसी बुरे व्यक्ति के बुरे कर्मों के बारे में जान जाता है और इसकी रिपोर्ट कर देता है, तो वे कहते हैं कि उन्होंने कुछ नहीं देखा और अज्ञानता का ढोंग करने लगते हैं। ... मसीह-विरोधी व्यक्ति चाहे जो भी कार्य करें, वे कभी परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते। वह केवल इस बात पर विचार करता है कि कहीं उसके हित तो प्रभावित नहीं हो रहे, वह केवल अपने सामने के उस छोटे-से काम के बारे में सोचता है, जिससे उसे फायदा होता है। उसकी नजर में, कलीसिया का प्राथमिक कार्य बस वही है, जिसे वह अपने खाली समय में करता है। वह उसे बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेता। वह केवल तभी हरकत में आता है जब उसे काम करने के लिए कोंचा जाता है, केवल वही करता है जो वह करना पसंद करता है, और केवल वही काम करता है जो उसकी हैसियत और सत्ता बनाए रखने के लिए होता है। उसकी नजर में, परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कोई भी कार्य, सुसमाचार फैलाने का कार्य, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन-प्रवेश महत्वपूर्ण नहीं हैं। चाहे अन्य लोगों को अपने काम में जो भी कठिनाइयाँ आ रही हों, उन्होंने जिन भी मुद्दों को पहचाना और रिपोर्ट किया हो, उनके शब्द कितने भी ईमानदार हों, मसीह-विरोधी उन पर कोई ध्यान नहीं देते, वे उनमें शामिल नहीं होते, मानो इन मामलों से उनका कोई लेना-देना ही न हो। कलीसिया के काम में उभरने वाली समस्याएँ चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, वे पूरी तरह से उदासीन रहते हैं। अगर कोई समस्या उनके ठीक सामने भी हो, तब भी वे उस पर लापरवाही से ही ध्यान देते हैं। जब ऊपर वाला सीधे उनकी काट-छाँट करता है और उन्हें किसी समस्या को सुलझाने का आदेश देता है, तभी वे बेमन से थोड़ा-बहुत काम करके ऊपर वाले को दिखाते हैं; उसके तुरंत बाद वे फिर अपने धंधे में लग जाते हैं। जब कलीसिया के काम की बात आती है, व्यापक संदर्भ की महत्वपूर्ण चीजों की बात आती है, तो वे इन चीजों में रुचि नहीं लेते और इनकी उपेक्षा करते हैं। जिन समस्याओं का उन्हें पता लग जाता है, उन्हें भी वे नजरअंदाज कर देते हैं और समस्याओं के बारे में पूछने पर लापरवाही से जवाब देते हैं या आगा-पीछा करते हैं, और बहुत ही बेमन से उस समस्या की तरफ ध्यान देते हैं। यह स्वार्थ और नीचता की अभिव्यक्ति है, है न? इसके अलावा, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल यही सोचते हैं कि क्या इससे वे सुर्ख़ियों में आ पाएँगे; अगर उससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है, तो वे यह जानने के लिए अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं कि उस काम को कैसे करना है, कैसे अंजाम देना है; उन्हें केवल एक ही फिक्र रहती है कि क्या इससे वे औरों से अलग नजर आएँगे। वे चाहे कुछ भी करें या सोचें, वे केवल अपनी प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत से सरोकार रखते हैं। वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल इसी स्पर्धा में लगे रहते हैं कि कौन बड़ा है या कौन छोटा, कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है, किसकी ज्यादा प्रतिष्ठा है। वे केवल इस बात की परवाह करते हैं कि कितने लोग उनकी आराधना और सम्मान करते हैं, कितने लोग उनका आज्ञापालन करते हैं और कितने लोग उनके अनुयायी हैं। वे कभी सत्य पर संगति या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करते। वे कभी विचार नहीं करते कि अपना काम करते समय सिद्धांत के अनुसार चीजें कैसे करें, न ही वे इस बात पर विचार करते हैं कि क्या वे निष्ठावान रहे हैं, क्या उन्होंने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर दी हैं, क्या उनके काम में कोई विचलन या चूक हुई है या अगर कोई समस्या मौजूद है, तो वे यह तो बिल्कुल नहीं सोचते कि परमेश्वर क्या चाहता है और परमेश्वर के इरादे क्या हैं। वे इन सब चीजों पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं देते। वे केवल प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के लिए, अपनी महत्वाकांक्षाएँ और जरूरतें पूरी करने का प्रयास करने के लिए कार्य करते हैं। यह स्वार्थ और नीचता की अभिव्यक्ति है, है न? यह पूरी तरह से उजागर कर देता है कि उनके हृदय किस तरह उनकी महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और बेहूदा माँगों से भरे होते हैं; उनका हर काम उनकी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से नियंत्रित होता है। वे चाहे कोई भी काम करें, उनकी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और बेहूदा माँगें ही उनकी प्रेरणा और स्रोत होता है। यह स्वार्थ और नीचता की विशिष्ट अभिव्यक्ति है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर मसीह-विरोधियों को अत्यधिक स्वार्थी के रूप में उजागर करता है। जो मामले उनके अपने हितों से जुड़े होते हैं या जो उन्हें दूसरों से अलग दिखाते हैं, उनमें वे लगन और खुशी से काम करते हैं, चाहे इसके लिए उन्हें कितनी भी कीमत चुकानी पड़े या कष्ट सहना पड़े। लेकिन अगर कोई चीज उनके अपने हितों से जुड़ी नहीं होती तो वे उसे अनदेखा कर देते हैं। वे ऐसे मामलों पर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं होते, चाहे दूसरों को कितनी भी मुश्किलें क्यों न आ रही हों या कलीसिया के काम को कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए। वे जो कुछ भी करते हैं, वह अपनी निजी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए करते हैं और वे कलीसिया के हितों पर जरा भी विचार नहीं करते। तब मुझे एहसास हुआ कि मैं इसी तरह का व्यवहार कर रही थी। हमारे समूह के दो भागों में विभाजित होने के बाद मैंने देखा कि लायला तेजी से प्रगति कर रही है और अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी उठा रही है। मुझे चिंता हुई कि वह मुझसे आगे निकल जाएगी, इसलिए जब उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ा और मदद के लिए मेरे पास आई तो मैं अनिच्छुक हो गई। मुझे लगा कि यह मेरी प्राथमिक जिम्मेदारी नहीं है और ऐसा करने में मेरा समय और ऊर्जा खर्च होगी। इतना ही नहीं, बल्कि अगर वीडियो अच्छा भी बन जाता तो भी मेरी मेहनत पर किसी का ध्यान नहीं जाता—इसके बजाय दूसरे लोगों का लगता कि लायला का स्तर भी मेरे जैसा है, जबकि उसने अभी-अभी समूह अगुआ के तौर पर अभ्यास शुरू किया है। ऐसी स्थिति में मैं अपना दिखावा नहीं कर पाती। फिर जब लायला ने मुझसे उनका वीडियो देखने और उन्हें सुझाव देने के लिए कहा तो मैंने परवाह नहीं की। मैं इसे देखने में समय और ऊर्जा नहीं लगाना चाहती थी। आखिरकार मैंने इसे देख तो लिया—लेकिन सिर्फ अनिच्छा से, बस औपचारिकता के लिए, क्योंकि मुझे चिंता थी कि दूसरे लोग कहेंगे कि मैं गैर-जिम्मेदार हूँ। इस वजह से वीडियो—जिसमें कई मुद्दे थे—फिर से तैयार करना पड़ा। अगर मैंने थोड़ा और प्रयास किया होता तो मैं उन मुद्दों को जल्दी से पहचान कर सुलझा सकती थी। लेकिन चूँकि मैं बहुत स्वार्थी थी और सिर्फ अपने हितों के बारे में सोच रही थी, इसलिए कलीसिया के काम में देर हो गई। यह सोचकर मुझे बहुत अपराध बोध हुआ। कलीसिया ने मुझे समूह अगुआ बनाया था, इसलिए मुझे अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए थीं और भाई-बहनों को उनके कर्तव्यों में आने वाली विभिन्न मुश्किलें और समस्याएँ सुलझाने में सतर्क रहना चाहिए था। लेकिन मैंने परमेश्वर के इरादों की जरा भी परवाह नहीं की। मुझे बस इस बात की परवाह थी कि मेरी जिम्मेदारी वाले वीडियो अच्छे से बनाए गए हैं या नहीं और मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों से अपनी प्रशंसा कैसे करवा सकती हूँ। जब लायला को मुश्किलों का सामना करना पड़ा तो स्पष्ट रूप से मेरे पास उन्हें सुलझाने के लिए कुछ विचार थे, लेकिन मैंने जरा भी मदद नहीं की। मैंने तो यहाँ तक सोचा, “अच्छा ही है कि उन्हें कुछ मुश्किलों का सामना करना पड़ा। अगर उनके नतीजे खराब रहे तो मैं ही बेहतर दिखूँगी। भाई-बहन सोचेंगे कि मैं अपने समूह की आधार हूँ और वे मेरे बिना नहीं कुछ नहीं सकते।” जिस तरह से मैंने सोचा और बर्ताव किया वह वाकई घृणित था! बाद में जब मैं काम पर गई तो मैंने कुछ बहनों को यह कहते हुए सुना, “यह वीडियो बहुत अच्छा नहीं बना है और मैं इसके बारे में कुछ हद तक नकारात्मक महसूस कर रही हूँ। लगता है इस कर्तव्य के लायक मेरी काबिलियत नहीं है।” यह सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा और मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी स्वार्थी थी। मुझे सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की परवाह थी। मुझे अच्छी तरह पता था कि उसने अभी-अभी अभ्यास करना शुरू किया है और उसे मदद और सहयोग की जरूरत है। लेकिन मैं तो बस चुपचाप बैठी रही, जरा भी प्यार नहीं दिखाया। जितना मैंने इसके बारे में सोचा, उतना ही मुझे लगा कि मुझमें मानवता की कमी है। मैं इतना घृणित और बुरा काम कैसे कर सकती थी?

एक सभा के दौरान मैंने एक भाई को अपने अनुभव के बारे में संगति करते हुए सुना और पाया कि मुझे इससे वाकई लाभ हुआ। उसकी संगति में परमेश्वर के वचनों का एक अंश था जिसने वाकई मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों को अच्छे या बुरे के रूप में आंका जाता है? वह यह है कि वह अपने विचारों, प्रकाशनों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य वास्तविकता को जीने की गवाही रखता है या नहीं। यदि तुम्‍हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को कैसे देखता है? परमेश्वर के लिए, तुम्‍हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हराते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और उस अपमान से निशानों से भरे हुए हैं जो तुमने परमेश्वर का किया है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुमपरमेश्वर के लिये खुद को खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि अपने फायदे के लिए काम कर रहे हो। ‘अपने फायदे के लिए’ इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है, शैतान के फायदे के लिए काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, ‘हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।’ परमेश्वर की नजर में तुम्‍हारे कार्यों को अच्‍छे कर्मों के रूप में नहीं देखा जाएगा, बल्कि उन्‍हें बुरे कर्म माना जाएगा। उन्‍हें न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि उनकी निंदा भी की परमेश्वर में ऐसे विश्‍वास से कोई क्‍या हासिल करने की आशा कर सकता है? क्या इस तरह का विश्‍वास अंततः व्‍यर्थ नहीं हो जाएगा?(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर यह नहीं देखता कि कोई व्यक्ति कितने कर्तव्य निभाता है या दूसरे लोग उसकी कितनी प्रशंसा करते हैं। वह तो यह देखता है कि क्या किसी व्यक्ति के पास अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में अपने कर्तव्य के दौरान सत्य का अभ्यास करने की गवाही है। परमेश्वर इस तरह फैसला करता है कि उस व्यक्ति का काम अच्छा है या बुरा। परमेश्वर लोगों के दिलों की जाँच-पड़ताल करता है और अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर की गवाही देने और उसे संतुष्ट करने के इरादे के बिना अपना कर्तव्य निभाता है और इसके बजाय अपने हितों की रक्षा के लिए कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाता है तो चाहे वह व्यक्ति कितनी भी कीमत चुकाए, वह परमेश्वर की नजर में अभी भी बुराई कर रहा है। मुझे हमेशा लगता था कि मैं अपने कर्तव्य में ईमानदार और जिम्मेदार हूँ और मैं उतनी बुरी नहीं हूँ। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में अपने व्यवहार पर विचार करके भले ही मैंने देखा कि चाहे मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया और अपनी जिम्मेदारी वाले काम में सावधानी बरती, मगर इसके पीछे मेरे भाई-बहनों के दिल में जगह बनाने का इरादा छिपा था; मेरा इरादा था कि लोग सोचें मैं समूह की आधार हूँ और मेरे बिना वे कुछ नहीं कर सकते। यहाँ तक कि जब लायला को मुश्किलों का सामना करना पड़ा और अपने काम में प्रगति नहीं कर पाई तो भी मुझे परवाह नहीं हुई। इसके बजाय मुझे खुशी हुई कि उसे कठिनाइयाँ हो रही हैं मुझे लगा कि इससे मुझे दूसरों से अलग दिखने में मदद मिलेगी। ऐसे घृणित इरादों के साथ अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं बुराई कर रही थी और परमेश्वर द्वारा निंदित थी। अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया तो आखिरकार परमेश्वर मुझे निकाल देगा, भले ही मैंने बहुत काम किया हो और बड़ी कीमत चुकाई हो। इस विचार ने मुझे डरा दिया और मुझे लगा कि मैं गंभीर खतरे में हूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए प्रतिज्ञा की कि मैं अब अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार नहीं जीऊँगी और अगर भविष्य में भी मेरे साथ ऐसा कुछ हुआ तो मैं कलीसिया के काम पर समग्रता से विचार करूँगी और कलीसिया के हितों की रक्षा करूँगी।

इसके बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का मार्ग मिला। परमेश्वर कहता है : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्‍वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्‍हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्‍हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्‍हें अपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्‍यों को दूर रखना चाहिए, तुम्‍हें परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशीलता दिखानी चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगे कि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्‍ट व्‍यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्‍मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्‍ट करने की तुम्‍हारी इच्छा घटती चली जाएगी(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए किसी को अपने व्यक्तिगत इरादों, उद्देश्यों, गर्व और रुतबे को अलग रखना चाहिए और हर समय कलीसिया के हित आगे रखने चाहिए। इसके बाद मैंने सचेत होकर परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाया और स्वार्थी और नीच बनना और सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में सोचना बंद कर दिया। एक बार लायला को वीडियो बनाते समय एक कठिनाई का सामना करना पड़ा और वह चाहती थी कि मैं देखूँ कि इसे कैसे सुलझाया जाए। मैं कुछ हद तक अनिच्छुक थी और मैंने मन ही मन सोचा, “मैंने अभी तक अपना वीडियो पूरा नहीं किया है। क्या उसकी समस्या सुलझाने में मदद करने से मेरे काम की प्रगति प्रभावित होगी? अगर मैं इसे समय पर पूरा नहीं कर पाती हूँ तो क्या दूसरे लोग कहेंगे कि मैं समूह अगुआ होने के बावजूद अक्षम हूँ?” मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जी रही हूँ। मुझे परमेश्वर से की गई प्रतीज्ञा याद आई—कि मैं कलीसिया का काम समग्रता से देखूँगी और सिर्फ अपने काम से मतलब नहीं रखूँगी—और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं देह के विरुद्ध विद्रोह करने, अपने हितों को अलग रखने और लगन से लायला की मदद करने के लिए तैयार हो गई। मैंने ध्यान से वीडियो देखा, समस्याओं को नोट किया, फिर लायला और उसके समूह से मिलने गई ताकि मौके पर मार्गदर्शन दे सकूँ। लायला ने कहा कि मेरी संगति ने उसके लिए एक रास्ता खोल दिया है और मुझे अपने दिल में बहुत शांति मिली। शुरू में मैंने सोचा था कि उनकी मदद करने से मेरा काम रुक जाएगा, लेकिन अंत में कोई देरी नहीं हुई। हमारे दोनों समूहों का काम पहले से कहीं ज्यादा कुशलता से आगे बढ़ा और एक महीने के भीतर सफलतापूर्वक पूरा हो गया। इसके बाद जब भी भाई-बहनों ने मुझसे अपनी मुश्किलों के लिए मदद मांगी तो मैंने इनकार नहीं किया। इसके बजाय मैंने अपनी पूरी क्षमता से उनकी मदद की। हालाँकि मैं चीजों की जाँच करने और सुझाव देने में ज्यादा समय और प्रयास लगा रही थी, लेकिन इस तरह से अभ्यास करने से मुझे शांति मिली।

बाद में मैंने कुछ आत्म-चिंतन किया और खुद से पूछा कि मैं अपने हितों से जुड़े मामलों में इतनी तत्पर क्यों रहती हूँ, लेकिन जब मेरे हित शामिल नहीं होते हैं तो मैं सहयोग क्यों नहीं करती। इस समस्या का सार क्या है? मैंने परमेश्वर के कुछ वचन देखे : “अपने घमंड और अभिमान की रक्षा करने के लिए, और अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत बनाए रखने के लिए कुछ लोग खुशी से दूसरों की मदद करने और हर कीमत पर अपने दोस्तों के लिए त्याग करने को तैयार होते हैं। लेकिन जब उन्हें परमेश्वर के घर के हितों, सत्य और न्याय की रक्षा करनी होती है, तो उनके अच्छे इरादे छू-मंतर हो जाते हैं, वे पूरी तरह से गायब हो जाते हैं। जब उन्हें सत्य का अभ्यास करना चाहिए, तो वे बिल्कुल भी अभ्यास नहीं करते। यह क्या हो रहा है? अपनी गरिमा और अभिमान की रक्षा के लिए वे कोई भी कीमत चुकाएँगे और कोई भी कष्ट सहेंगे। लेकिन जब उन्हें वास्तविक कार्य करने और व्यावहारिक मामले संभालने होते हैं, कलीसिया के कार्य और सकारात्मक चीजों की रक्षा करनी होती है, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा करने और उन्हें पोषण प्रदान करने की आवश्यकता होती है, तो उनमें कोई भी कीमत चुकाने और कोई भी कष्ट सहने की ताकत क्यों नहीं रहती? यह अकल्पनीय है। असल में, उनका स्वभाव सत्य से विमुख रहने वाला होता है। मैं क्यों कहता हूँ कि उनका स्वभाव सत्य से विमुख रहने वाला होता है? क्योंकि जब भी किसी चीज में परमेश्वर के लिए गवाही देना, सत्य का अभ्यास करना, परमेश्वर के चुने हुए लोगों की रक्षा करना, शैतान की चालों से लड़ना, या कलीसिया के कार्य की रक्षा करना शामिल होता है, तो वे भागकर छिप जाते हैं, और किसी भी उचित मामले पर ध्यान नहीं देते। कष्ट उठाने की उनकी वीरता और जज्बा कहाँ चला जाता है? उन चीजों का वे इस्तेमाल कहाँ करते हैं? यह देखना आसान है। भले ही कोई उन्हें फटकारे और कहे कि उन्हें इतना स्वार्थी और नीच नहीं होना चाहिए, और खुद को बचाते नहीं रहना चाहिए और उन्हें कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी चाहिए, फिर भी वे वास्तव में इसकी परवाह नहीं करते। वे अपने मन में कहते हैं, ‘मैं ये चीजें नहीं करता, और इनका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। इस तरह कार्य करने से मेरी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के अनुसरण को क्या फायदा होगा?’ वे सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति नहीं होते। वे केवल प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागना पसंद करते हैं, और वह काम तो बिल्कुल नहीं करते जो परमेश्वर ने उन्हें सौंपा होता है। इसलिए जब कलीसिया का कार्य करने के लिए उनकी जरूरत पड़ती है तो वे बस भाग जाना चुनते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अपने दिल में वे सकारात्मक चीजों को पसंद नहीं करते और सत्य में रुचि नहीं रखते। यह सत्य से विमुख होने की स्पष्ट निशानी है। जो सत्य से प्रेम करते हैं और जिनमें सत्य वास्तविकता होती है, वही लोग तब आगे आ सकते हैं, जब परमेश्वर के घर के काम को और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उनकी आवश्यकता होती है, वही लोग खड़े होकर, बहादुरी और कर्तव्य-निष्ठा से, परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं, सत्य पर संगति कर सकते हैं, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सही मार्ग पर ले जा सकते हैं और उन्हें परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होने में सक्षम बना सकते हैं। यही जिम्मेदारी का रवैया है और परमेश्वर के इरादों की परवाह दिखाने की अभिव्यक्ति है। यदि तुम लोगों में यह रवैया नहीं है, तथा चीजों को संभालने में तुम निपट लापरवाह रहते हो, और तुम सोचते हो, ‘मैं अपने कर्तव्य के दायरे में चीजों को तो करूँगा, लेकिन मुझे किसी और चीज की परवाह नहीं है। यदि तुम मुझसे कुछ करने को कहोगे, मैं तुम्हें उत्तर दूँगा—यदि मैं अच्छे मूड में हुआ तो करूँगा, नहीं तो नहीं करूँगा। यह मेरा रवैया है,’ तो इस तरह का स्वभाव भ्रष्ट स्वभाव है, है न? केवल अपनी हैसियत, अपनी प्रतिष्ठा और अभिमान की रक्षा करना, और केवल अपने हित से चीजों की रक्षा करना—क्या ऐसा करना एक न्यायोचित ध्येय की रक्षा करना है? क्या यह परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना है? इन ओछे, स्वार्थी मंसूबों के पीछे सत्य से विमुख रहने वाला स्वभाव है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “जब परमेश्वर देखता है कि लोग तुच्छ क्षमता के हैं, कि उनमें कुछ कमियाँ हैं, और उनमें भ्रष्ट स्वभाव या एक ऐसा सार है जो परमेश्वर का विरोध करता है, तो उसे उनसे कोई विकर्षण नही होता, और वह उन्हें अपने से दूर नहीं रखता। परमेश्वर का ऐसा इरादा नहीं है, और न ही यह इंसान के प्रति उसका दृष्टिकोण है। परमेश्वर लोगों की तुच्छ क्षमता को नापसंद नहीं करता, वह उनकी मूर्खता को नापसंद नहीं करता, और वह इस बात को भी नापसंद नहीं करता कि उनके स्वभाव भ्रष्ट हैं। लोगों में वह क्या चीज है, जिससे परमेश्वर सबसे ज्यादा नापसंद करता है? वह है उनका सत्य से विमुख होना। अगर तुम सत्य से विमुख हो, तो केवल इसी एक कारण से, परमेश्वर कभी भी तुमसे खुश नहीं होगा। यह बात पत्थर की लकीर है। अगर तुम सत्य से विमुख हो, अगर तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, अगर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया परवाह न करने वाला, तिरस्कारपूर्ण और अहंकारी, यहाँ तक कि ठुकराने, प्रतिरोध करने और नकारने का है—अगर तुम इस तरह से व्यवहार करते हो, तो परमेश्वर तुमसे बिल्कुल निराश है, और तुम मृतप्राय हो और बचाए नहीं जाओगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्‍य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्‍य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते या कलीसिया के हितों की रक्षा नहीं करते, हमेशा व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और रुतबे की रक्षा करते हैं जो कुछ भी उनके हित साधता है और उन्हें दूसरों से अलग दिखाता है, उसके लिए तत्पर रहते हैं जबकि जिससे उन्हें कोई उन्हें लाभ नहीं मिलता, उसे खारिज और नजदअंदाज कर देते हैं, वे शैतानी स्वभाव के लोग हैं जो सत्य से विमुख हैं। इस तरह के इंसान अपने हितों से जुड़े मामलों में चाहे कितने भी मेहनती क्यों न हों, चाहे वे कितनी भी बड़ी कीमत चुकाएँ या उनके काम के नतीजे कितने भी प्रभावशाली क्यों न हों, उनका इरादा हमेशा प्रतिष्ठा और रुतबे की अपनी जरूरतें पूरा करना होता है। जब कलीसिया के हितों की बात आती है तो वे सत्य साफ समझते हुए भी उसका अभ्यास नहीं करते हैं और कलीसिया का काम कायम नहीं रखते हैं। चिंतन करने पर मुझे एहसास हुआ कि मैं भी ऐसे ही अपना कर्तव्य निभा रही थी। मैं प्रयास करने और कीमत चुकाने के लिए तैयार थी बशर्ते मैं दूसरों से अलग और बेहतर दिख सकूँ। मुश्किलों का सामना करने पर भी मैं अडिग रही और नतीजे पाने के लिए खुद को पूरी तरह से खपा दिया। लेकिन जैसे ही मैंने देखा कि यह काम ठीक से करने से मैं दूसरों से अलग नहीं दिख पाऊँगी या मुझे व्यक्तिगत रूप से कोई लाभ नहीं होगा तो मैंने इससे दूरी बना ली। कलीसिया के काम को नुकसान होते देखकर भी मुझे चिंता नहीं हुई। मैं सत्य से विमुख होने का शैतानी स्वभाव बेनकाब कर रही थी! इतने वर्षों की अपनी आस्था और अब तक पढ़े हुए परमेश्वर के सभी वचनों से मैं सिद्धांत के तौर पर जानती थी कि एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे अपने कर्तव्य पूरे दिल, दिमाग और शक्ति से निभाने हैं और मुझे हर समय कलीसिया के हितों को सबसे पहले रखना है। मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती थी कि मैं उसके प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य निभाऊँगी। लेकिन जब मुझे वास्तविक स्थिति का सामना करना पड़ा तो मैंने कलीसिया के हितों की रक्षा करने के बजाय अपनी स्वार्थी इच्छाएँ पूरी करना चुना। मैंने हमेशा कलीसिया के हितों से पहले अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को प्राथमिकता दी। मैं कितनी दुष्ट हूँ! अगर मैं सत्य के प्रति विमुख होने के अपने शैतानी स्वभाव से नहीं निपटी तो मेरे जीवन स्वभाव में भी कभी परिवर्तन नहीं आएगा, उद्धार पाना तो दूर की बात है, फिर चाहे मैं कितने ही वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करती रहूँ। यह सोचकर मुझे एहसास हुआ कि मेरा यह स्वभाव कितना घातक था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उसे इस भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ने में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहा।

कुछ समय बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “परमेश्वर के घर में, सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोग परमेश्वर के सामने एकजुट रहते हैं, न कि विभाजित। वे सभी एक ही साझा लक्ष्य के लिए कार्य करते हैं : अपने कर्तव्य को निभाना, खुद को मिला हुआ कार्य करना, सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना, परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार कार्य करना और उसके इरादों को पूरा करना। यदि तुम्हारा लक्ष्य इसके लिए नहीं है बल्कि तुम्हारे अपने लिए है, अपनी स्वार्थी इच्छाओं को पूरा करने के लिए है, तो यह एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का खुलासा है। परमेश्वर के घर में लोग सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभाते हैं, जबकि अविश्वासियों के कार्य उनके शैतानी स्वभावों द्वारा नियंत्रित होते हैं। ये दो बहुत अलग रास्ते हैं। अविश्वासी अपने षड्यंत्र मन में पाले रहते हैं, उनमें से हर एक के अपने लक्ष्य और योजनाएँ होती हैं और हर कोई अपने हितों के लिए जीता है। यही कारण है कि वे सभी अपने लाभ के लिए छीना-झपटी करते रहते हैं और जो भी उन्हें मिलता है उसका एक इंच भी छोड़ने को तैयार नहीं होते। वे विभाजित होते हैं, एकजुट नहीं होते, क्योंकि उनका एक सामान्य लक्ष्य नहीं होता। वे जो करते हैं उसके पीछे का इरादा और उद्देश्य एक ही होता है। वे सभी अपने लिए ही प्रयास करते हैं। इस पर सत्य का शासन नहीं होता बल्कि इस पर भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का शासन होता है और वही इसे नियंत्रित करता है। वे अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के नियंत्रण में रहते हैं और अपनी सहायता नहीं कर सकते और इसलिए वे पाप में गहरे से गहरे धंसते चले जाते हैं। परमेश्वर के घर में, यदि तुम लोगों के कार्यों के सिद्धांत, तरीके, प्रेरणा और प्रारंभ बिंदु अविश्वासियों से अलग नहीं होंगे, यदि तुम भी भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के कब्जे, नियंत्रण और बहकावे में रहोगे और यदि तुम्हारे कार्यों का प्रारंभ बिंदु तुम्हारे अपने हित, प्रतिष्ठा, गर्व और हैसियत होगी, तो फिर तुम लोग अपना कर्तव्य उसी तरह निभाओगे जैसे अविश्वासी लोग कार्य करते हैं। यदि तुम लोग सत्य का अनुसरण करते हो तो तुम लोगों को अपने कार्य करने के तरीके को बदलना चाहिए। तुम्हें अपने हितों और अपने व्यक्तिगत इरादों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। जब तुम लोग कार्य करते हो तो तुम्हें सबसे पहले सत्य पर एक साथ संगति करनी चाहिए और आपस में कार्य विभाजित करने से पहले परमेश्वर के इरादों और अपेक्षाओं को समझना चाहिए और साथ ही इस बात पर भी नजर रखनी चाहिए कि कौन किसमें अच्छा है और कौन बुरा। तुम्हें उन कार्यों को लेना चाहिए जिन्हें तुम करने में सक्षम हो और अपने कर्तव्य को दृढ़ता से निभाना चाहिए। चीजों के लिए लड़ो या छीना-झपटी मत करो। तुम्हें समझौता करना और सहनशील होना सीखना चाहिए। यदि किसी ने अभी-अभी कोई कर्तव्य निभाना शुरू किया है या किसी कार्य क्षेत्र के लिए कोई कौशल बस सीखा ही है, लेकिन वह कुछ कार्य करने में सक्षम नहीं है, तो तुम्हें उन्हें मजबूर नहीं करना चाहिए। तुम्हें उन्हें ऐसे कार्य सौंपने चाहिए जो थोड़े आसान हों। इससे उनके लिए अपने कर्तव्य निर्वहन में परिणाम प्राप्त करना आसान हो जाता है। सहनशील, धैर्यवान और सैद्धांतिक होने का यही मतलब है। यही वो चीज है जो सामान्य मानवता में होनी चाहिए; परमेश्वर भी लोगों से इसी की अपेक्षा करता है और लोगों को भी इसी का अभ्यास करना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे समझाया कि कलीसिया में कर्तव्य निभाना अविश्वासियों के काम करने के तरीके से कितना अलग है। अविश्वासियों की दुनिया में लोग सांसारिक आचरण के शैतानी फलसफों के अनुसार व्यवहार करते हैं जैसे “चीजों को वैसे ही चलने दो अगर वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों” और “अपना काम करो, दूसरों के मामले में दखल न दो।” वे सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचते हैं और यह भी देखते हैं कि क्या तरक्की या धन की संभावना है। कोई भी दूसरों की मुश्किलों में कोई दिलचस्पी या परवाह नहीं दिखाता। अपने कर्तव्य में मैं कैसे व्यवहार कर रही थी, इस पर विचार करने पर मुझे एहसास हुआ कि मैं बिल्कुल एक अविश्वासी की तरह व्यवहार कर रही थी। मैं इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ थी कि लायला ने अभी-अभी अभ्यास करना शुरू किया है और उसे अपने कर्तव्य में कठिनाइयाँ हो रही हैं, लेकिन मुझे अपने काम मे देरी होने और उसके आगे निकल जाने का डर था, इसलिए मैं मदद करने के लिए अनिच्छुक थी। परिणामस्वरूप न सिर्फ वीडियो पर फिर से काम करना पड़ा और देरी हुई, बल्कि मैं एक भ्रष्ट स्वभाव में जीती रही, जिससे परमेश्वर घृणा करता है अपने कर्तव्य में मुझे उसका मार्गदर्शन भी नहीं मिला। इससे मैं देख पाई कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है, परमेश्वर हमारे दिल की गहराई तक हमारी जाँच-पड़ताल करता है, परमेश्वर हमारे कर्तव्य निर्वहन में हमारे स्वार्थी इरादे साफ देखता है और अगर हम अपने कर्तव्यों में गलत इरादे रखते हैं तो हम पवित्र आत्मा का कार्य नहीं पाते। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि कलीसिया में हम अपने मामलों को संभालने के बजाय एक कर्तव्य निभा रहे हैं और हम भ्रष्ट स्वभाव के आधार पर अपना निजी उद्यम नहीं चला सकते। चाहे कुछ भी हो, हमें सत्य का अभ्यास करना होगा और कलीसिया के हितों के लिए खड़ा होना होगा और अपने भाई-बहनों की परस्पर सहायता और सहयोग करना होगा, ताकि कलीसिया का काम सुचारू रूप से आगे बढ़ सके। मैंने परमेश्वर के बहुत से वचनों के सिंचन और पोषण का आनन्द लिया था और कलीसिया ने इतने लंबे समय तक मुझे विकसित किया था। अगर मैं अभी भी अपने लिए योजना बना रही थी, अपनी स्वार्थी इच्छाओं को पूरा कर रही थी और परमेश्वर के प्रेम का बदला चुकाने के लिए अपने कर्तव्य ठीक ने नहीं निभा पा रही थी तो वाकई मुझमें अंतरात्मा नहीं थी और परमेश्वर ने मुझे जो कुछ भी दिया है, उसके लायक नहीं थी, परमेश्वर के सामने जीने के लायक होना तो दूर की बात है। इस एहसास ने मुझे पश्चात्ताप से भर दिया। मुझे अपने कर्तव्य के साथ ऐसे पेश नहीं आना चाहिए था और मुझे जल्द से जल्द खुद को बदलने की जरूरत थी। भविष्य में मुद्दों से निपटने के लिए जब तक यह कलीसिया का काम था, मुझे इसे कायम रखने और अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने की जरूरत थी, चाहे यह मेरे दायरे में हो या नहीं और मैं इससे अच्छी दिखूँ या न दिखूँ। इसके बाद से भाई-बहनों के मुश्किलों का सामना करने और मेरी मदद माँगने पर मैं कभी मना नहीं करूँगी, और मैं उन्हें खुद के द्वारा सारांशित कुछ अच्छे रास्तों के बारे में बता पाऊँगी। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हुए मुझे शांति और सुकून मिला।

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