54. व्यावहारिक बनकर शांति मिली
जब मैंने 2017 में कलीसिया में नए लोगों के सिंचन का काम शुरू किया तो मैंने सभी प्रासंगिक सत्य सिद्धांतों का अध्ययन करने और ज्ञान पाने में तेजी दिखाई ताकि मैं जल्द से जल्द अपने काम में सक्षम बन सकूँ। मैंने बहुत मेहनत की और अपने कर्तव्य में बहुत बड़ी कीमत चुकाई और इसलिए मुझे बेहतरीन नतीजे मिले। लगभग एक साल बाद मुझे समूह अगुआ चुना गया। सभी भाई-बहनों ने कहा कि समूह अगुआ बनने के बाद मैंने बहुत तेजी से प्रगति की है और जब भी उन्हें कोई समस्या होती थी तो वे सभी मेरे पास संगति के लिए आते थे। मैंने मन में सोचा, “ऐसा लगता है कि हर कोई वाकई मुझे मानता है। जब तक मैं सत्य का अनुसरण करती रहूँगी, मुझे निश्चित रूप से बाद में और भी ऊँचे पद पर तरक्की पाने का मौका मिलेगा। तब हर कोई वाकई मेरा सम्मान करेगा।”
कुछ समय बाद ही हमारे समूह के सुपरवाइजर को वास्तविक काम न करने के कारण बर्खास्त कर दिया गया। मैंने मन ही मन सोचा, “मैं हमेशा अपने कर्तव्य में बहुत सक्रिय रही हूँ, मैं कुछ भाई-बहनों की समस्याएँ और मुश्किलें भी सुलझा पाई हूँ और मैं अपने काम में असरदार रही हूँ। अब मैं एक समूह अगुआ हूँ और हम जल्द ही नया सुपरवाइजर चुनेंगे तो पक्का मैं ही पहली पसंद बनूँगी। यह खुद को अलग दिखाने का एक शानदार मौका है!” लेकिन कुछ ही दिनों बाद हमारे अगुआ ने दूसरी कलीसिया से तबादला करके एक बहन को हमारा सुपरवाइजर बना दिया, उसने कहा कि उसकी काबिलियत अच्छी है, वह सत्य का अनुसरण करती है और वह पोषित करने के लायक है। जब मैंने यह समाचार सुना तो मैं वाकई निराश हो गई। मैंने सोचा, “तो यह बहन पोषित होने के लिए एक अच्छी उम्मीदवार है और मैं नहीं हूँ?” लेकिन फिर मेरे मन में यह विचार आया कि अगर यह बहन वाकई वास्तविक कार्य कर सकती है तो यह सकारात्मक नतीजा है। यह एहसास होने के बाद मैं और ज्यादा समर्पण कर पाई। बाद में जब उस बहन को कलीसिया के कार्य की कुछ आवश्यकताओं के कारण फिर दूसरे काम पर लगा दिया गया तो मैं बहुत उत्साहित हो गई और सोचा, “वे इस बार पक्का सुपरवाइजर के पद के लिए मेरे नाम पर विचार करेंगे।” लेकिन कुछ ही दिनों बाद हमारे अगुआ ने बहन एडेल को सुपरवाइजर की भूमिका में तरक्की दे दी। इस बार मैंने इस समाचार को इतनी सहजता से नहीं लिया। मैंने सोचा, “मैं अपने कर्तव्य में वाकई कड़ी मेहनत करती हूँ और कुछ वास्तविक मुद्दों को सुलझाने में सक्षम हूँ। फिर अगुआ ने मुझे तरक्की क्यों नहीं दी? क्या उसे लगता है कि मैं पोषित होने के लायक नहीं हूँ? क्या वह मुझे कमतर मानता है? अब भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे क्योंकि मुझे दो बार तरक्की देने में दरकिनार किया गया है? एडेल का हाल ही में यहाँ तबादला हुआ है और वह अक्सर मेरे पास सुझाव लेने आती है क्योंकि उसे अभी तक काम की समझ नहीं आई है और फिर भी हमारा अगुआ उसका बहुत सम्मान करता है और उसे पोषित कर रहा है।” मेरे साथ यह सब हुआ तो मैं बहुत हताश हो गई, लगा मेरे साथ अन्याय हुआ है। बाद में जब एडेल ने काम में तेजी लाने के लिए मुझसे संपर्क किया और बहुत सारे सवाल पूछे तो मैं अधीर हो गई। मैंने सोचा, “क्या तुम सुपरवाइजर नहीं हो? अगर तुम ऐसे सवाल पूछती रहोगी जिनका उत्तर मैं पहले ही दे चुकी हूँ तो तुम्हारी काबिलियत उतनी अच्छी नहीं हो सकती!” कभी-कभी जब भाई-बहन नए लोगों के सिंचन से संबंधित प्रश्नों और कठिनाइयों के साथ एडेल के पास आते थे जिनसे वह पहले कभी नहीं निपटी थी तो उसे पता नहीं होता था उन्हें कैसे सुलझाया जाए और कैसे संगति की जाए और तब वह मेरी मदद माँगती थी। मैं जानबूझकर उत्तर देती थी, “यह आसान समस्या है। तुम्हें बस समस्या का मूल पहचानना है और इसके बारे में स्पष्टता से सत्य की संगति करनी है।” फिर मैं ऐसे उदाहरण देती थी कि मैंने इसी तरह के मुद्दों को कैसे सुलझाया है। मैंने सोचा, “मुझे सभी को दिखाना होगा कि मेरे पास प्रतिभा है। ऐसा नहीं है कि मेरे पास कौशल की कमी है, लेकिन मुझे सुपरवाइजर बनने का अवसर नहीं दिया गया है।” बाद में एडेल ने सुझाव दिया कि हम साथ में रहें ताकि जब भी कोई समस्या आए तो वह मुझसे सलाह ले सके। मैंने सोचा, “जब भी कोई समस्या आए तो मुझसे सलाह ले? लेकिन फिर समस्या सुलझने पर सारा श्रेय तुम्हें मिलेगा, मुझे नहीं। मैं पर्दे के पीछे रहकर तुम्हारी मदद क्यों करूँ?” यह सोचकर, मैंने उसे इस आधार पर मना कर दिया कि “नए लोगों के सिंचन में व्यस्त होने के कारण मेरे पास समय नहीं है।” एडेल ने मुझसे कई बार फिर पूछा लेकिन मैंने कभी सहमति नहीं दी। धीरे-धीरे, मैंने देखा कि एडेल मेरी वजह से थोड़ी बेबस लग रही थी और काम पर चर्चा करने में थोड़ी निष्क्रिय हो गई थी। लेकिन मैंने इस पर विचार नहीं किया और खुद को नहीं जाना, इसके बजाय मैंने सोचा कि एडेल को सुपरवाइजर के रूप में काम करने में मुश्किल हो रही है। इतना ही नहीं, मैंने सोचा अगर मैंने उसके साथ सक्रिय भागीदारी की और उसकी स्थिति सुधर गई और वह ठीक से काम करने लगी तो मुझे तरक्की पाने का कोई मौका नहीं मिलेगा। इसके विपरीत, जब वह नकारात्मकता में डूब जाती तो इससे मेरा उत्साह और पहल और बढ़ जाती। इसलिए जब हम काम पर चर्चा करते थे तो मैं बहुत सक्रिय और उत्साही रहती थी और खुद को अलग पहचान दिलाने के लिए अग्रणी भूमिका निभाती थी।
बाद में, चूँकि ज्यादा से ज्यादा लोग परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने लगे तो हमारे समूह में कुछ और सिंचनकर्ता नियुक्त किए गए, एडेल ने मुझे नए आए भाई-बहनों की मदद करने में अधिक समय बिताने के लिए कहा। मैं इन अवसरों का उपयोग लोगों को यह बताने के लिए किया कि मैंने नए लोगों की धारणाएँ और उलझनें सुलझाने के लिए सत्य की खोज कैसे की, उनके लिए अपने व्यक्तिगत अनुभव और अभ्यास के मार्गों को व्यवस्थित रूप से कैसे रेखांकित किया। उसके बाद जब भी भाई-बहनों को कोई समस्या होती तो वे चर्चा के लिए मुझसे संपर्क करते। कुछ मामलों में लोग मेरे पास ऐसी समस्याएँ लेकर भी आते थे जिन्हें एडेल स्वयं नहीं सुलझा सकती थी। मैं अंदर से बहुत खुश थी, और सोच रही थी, “लगता है कि इन दिनों मेरी सारी मेहनत रंग ला रही है और सभी मुझे मानते हैं। मैं भले ही सुपरवाइजर नहीं हूँ लेकिन मैं सुपरवाइजर का अधिकांश काम संभाल सकती हूँ। अगली बार जब कार्यकर्ताओं और अगुआओं के लिए चुनाव होगा तो भाई-बहन पक्का मुझे ही वोट देंगे।”
कुछ ही समय बाद वार्षिक चुनाव का समय आ गया और मैं वाकई उत्साहित थी। मैंने सोचा, “अगर मुझे अगुआ चुना जाता है तो मेरे पास कलीसियाई परियोजनाओं पर निर्णय लेने की शक्ति होगी। अगर कार्य मेरी देखरेख में आगे बढ़ता है तो भाई-बहन निश्चित रूप से मुझे अपने पद के योग्य समझेंगे और मेरा और भी अधिक सम्मान करेंगे।” लेकिन मुझे बड़ी हैरानी हुई, जब नतीजे घोषित किए गए तो मेरा नाम नहीं लिया गया। मेरा चेहरा लाल हो गया और मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। चोट पर नमक छिड़कते हुए भाई-बहनों ने कहा कि मेरा स्वभाव अहंकारी है, मैं अक्सर लोगों को बेबस करती हूँ, जीवन प्रवेश को प्राथमिकता नहीं देती, शायद ही कभी आत्म-चिंतन करती हूँ, और ना ही चीजों से ज्ञान पाती हूँ या सबक सीखती हूँ; संक्षेप में, मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया। जब मैंने यह सब सुना तो मुझे बहुत बुरा लगा—अब सभी भाई-बहन जानते थे कि मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया। न सिर्फ मैं खुद को अलग पहचान दिलाने में असफल रही, बल्कि मैं पूरी तरह से शर्मिंदा भी हो गई। उन दिनों मुझे डर था कि भाई-बहन मुझसे पूछेंगे कि मैंने उस परिस्थिति से क्या सीखा, लेकिन मुझे यह भी चिंता थी कि कोई भी मुझसे बात नहीं करेगा, वे मुझे पहचान लेंगे और मुझसे दूर रहेंगे। मेरी भावनाएँ हर जगह थीं और मैं बस यही सोच पा रही थी कि क्या हुआ था। मैं अपने कर्तव्य पर ध्यान नहीं दे पा रही थी और मैं बहुत दुखी और संतप्त हो गई थी। मैं सोचती रही कि मुझे इस तरह की परीक्षा का सामना क्यों करना पड़ा। बाद में कुछ भाई-बहनों ने मेरे साथ संगति की और कहा कि मैं अपने कर्तव्य निर्वहन पर चिंतन करने में ज्यादा समय लगाऊँ। उन्होंने यह भी बताया कि मेरे काम में कुछ योग्यताएँ होने के बावजूद मैंने सत्य का अनुसरण करने को प्राथमिकता नहीं दी, सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागी और गलत रास्ते पर चलती रही। मैं जानती थी कि भाई-बहनों की सलाह और मदद परमेश्वर से आती है और इसलिए मैं उसके सामने प्रार्थना करने आई, “हे परमेश्वर, इस तरह से बेनकाब होना मेरे लिए बहुत मुश्किल रहा है। प्रिय परमेश्वर, कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और मुझे अपने बारे में ज्ञान पाने और तुम्हारा इरादा समझने की अनुमति दो।”
एक दिन परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मुझे कुछ अंश मिले जिनमें परमेश्वर उजागर करता है कि कैसे मसीह-विरोधी प्रतिष्ठा और रुतबा चाहते हैं। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य करें, वे खुद को ऊँचे स्थान पर यानी प्रमुखता के स्थान पर रखने की कोशिश करेंगे। वे एक साधारण अनुयायी के रूप में अपने स्थान से कभी संतुष्ट नहीं हो सकते। और उन्हें सबसे अधिक जूनून किस चीज का होता है? लोगों के सामने खड़े होकर उन्हें आदेश देने, उन्हें डाँटने, और लोगों से अपनी बात मनवाने का जूनून। वे इस बारे में सोचते तक नहीं कि अपना कर्तव्य ठीक तरह कैसे करें—इसे करते हुए सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य सिद्धांतों को खोजना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे विशिष्ट दिखने के तरीके खोजने के लिए दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं, ताकि अगुआ उनके बारे में अच्छा सोचें और उन्हें आगे बढ़ाएँ, ताकि वे खुद अगुआ या कार्यकर्ता बन सकें, और दूसरे लोगों की अगुआई कर सकें। वे सारा दिन यही सोचते और इसी की उम्मीद करते रहते हैं। मसीह-विरोधी नहीं चाहते कि दूसरे उनकी अगुआई करें, न ही वे सामान्य अनुयायी बनना चाहते हैं, चुपचाप और बिना किसी तमाशे के अपने कर्तव्य करते रहना तो दूर की बात है। उनका कर्तव्य जो भी हो, यदि वे महत्वपूर्ण स्थान पर और आकर्षण का केंद्र नहीं हो सकते, यदि वे दूसरों से ऊपर नहीं हो सकते, और दूसरे लोगों की अगुआई नहीं कर सकते, तो उन्हें अपना कर्तव्य करना उबाऊ लगने लगता है, और वे नकारात्मक हो जाते हैं और ढीले पड़ जाते हैं। दूसरों से प्रशंसा और आराधना पाए बिना उनके लिए अपना काम और भी कम दिलचस्प हो जाता है, और उनमें अपना कर्तव्य करने की इच्छा और भी कम हो जाती है। लेकिन अगर अपना कर्तव्य करते हुए वे महत्वपूर्ण स्थान पर और आकर्षण का केंद्र हो सकते हों और अपनी बात मनवा सकते हों, तो वे अपनी स्थिति को मजबूत महसूस करते हैं और कैसी भी कठिनाइयाँ झेल सकते हैं। अपने कर्तव्य निर्वहन में हमेशा उनके व्यक्तिगत इरादे होते हैं, और वे हमेशा दूसरों को पराजित करने और अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने की अपनी जरूरत पूरी करने के एक साधन के रूप में खुद को दूसरों से अलग दिखाना चाहते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग सात))। “मसीह-विरोधियों के लिए प्रतिष्ठा और रुतबा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिल्कुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास प्रतिष्ठा और रुतबा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? प्रतिष्ठा और रुतबा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज का वे रोजाना अनुसरण करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए रुतबा और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी परिवेश में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज का अनुसरण करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी घने-पुराने जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचेंगे। भले ही मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, फिर भी वे प्रतिष्ठा और रुतबे के अनुसरण को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में आस्था के मार्ग पर चलते हैं, तो वे प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में उनकी आस्था में सत्य का अनुसरण प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण है; प्रतिष्ठा और रुतबे का अनुसरण सत्य का अनुसरण भी है, और प्रतिष्ठा और रुतबा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा, लाभ या रुतबा नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या सम्मान या उनका अनुसरण नहीं करता है, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन-ही-मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में अंतिम निर्णय उनका ही हो, और उनके पास शोहरत, लाभ और रुतबा हो—वे वास्तव में अपने दिलों में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे भागते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचन उजागर करते हैं कि कैसे मसीह-विरोधी प्रतिष्ठा और रुतबे को सबसे ज्यादा महत्व देते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कब और कहाँ, अच्छी प्रतिष्ठा और ऊँचा रुतबा पाना उनका अंतिम लक्ष्य है। वे केवल खुद को अलग दिखाने और दूसरों का सम्मान पाने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हैं। वे हमेशा रुतबे वाला पद पाने, अंतिम निर्णय लेने की शक्ति पाने और दूसरों पर अधिकार रखने के लिए प्रयासरत रहते हैं। अगर उन्हें रुतबा और प्रतिष्ठा न मिले तो वे सोचने लगते हैं कि परमेश्वर में विश्वास रखना व्यर्थ है और अपना कर्तव्य निभाने की कोई वजह नहीं है। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि बेनकाब हुआ मेरा स्वभाव और अनुसरण के बारे में मेरा दृष्टिकोण मसीह-विरोधियों से अलग नहीं था। मैं हमेशा सुपरवाइजर या अगुआ बनने का प्रयास करती थी क्योंकि मुझे लगता था कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं की बात अंतिम होती है, वे अहम फैसले ले सकते हैं और उन्हें बहुत सम्मान, समर्थन और आदर मिलता है। समूह अगुआ के रूप में मेरे अधिकार का दायरा सीमित था और मैं शायद ही कभी खुद को अलग पहचान दिला पाती थी, इसलिए जब भी मुझे अपने काम में नतीजे मिलते तो अचानक और अधिक शक्ति और अधिकार पाने की मेरी इच्छा बढ़ जाती ताकि और भी लोग मेरा सम्मान करें और मेरे इर्द-गिर्द रहें। जब मैंने सुना कि कलीसिया एक नया सुपरवाइजर चुनने जा रही है तो मैं चुनाव का इंतजार करने लगी क्योंकि मुझे लगा कि खुद को अलग पहचान दिलाने का मेरा मौका आखिरकार आ गया है। लेकिन फिर जब अगुआ ने दूसरी कलीसिया से तबादला कर किसी और को सुपरवाइजर बना दिया तो मैं बहुत निराश हुई और यह नतीजा स्वीकारने से इनकार कर दिया, मैंने माना कि अगुआ मुझे प्रशिक्षण का मौका नहीं देना चाहता और वह मेरे खिलाफ है। खुद को वर्तमान सुपरवाइजर से बेहतर साबित करने के लिए मैंने जानबूझकर उसके लिए चीजें मुश्किल बना दीं और उसे बाहर रखा, जिससे वह बेबस हो गई। यह सुनिश्चित करने के लिए कि मुझे ही सुपरवाइजर चुना जाए, मैंने भाई-बहनों की मदद करने के हर अवसर का इस्तेमाल दिखावा करने और खुद को स्थापित करने के लिए किया ताकि और लोग मुझे स्वीकारें और अगले चुनाव में मेरे लिए वोट करें। मैं केवल रुतबा और प्रतिष्ठा चाहती थी और मैंने जो कुछ भी किया वह सब रुतबा पाने के लिए था। मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। इसका एहसास होने पर मुझे बहुत पछतावा हुआ और इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं अपने कर्तव्य में सत्य का अनुसरण नहीं कर रही हूँ, मैं रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए होड़ करती हूँ और तुम्हारे खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध किया है। प्रिय परमेश्वर, मैं अब इस तरह से आगे नहीं बढ़ना चाहती और पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हूँ। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो ताकि मैं स्वयं को जान सकूँ।”
एक बार भक्ति के दौरान मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : “जब शैतानी स्वभाव लोगों में जड़े जमा लेता है और उनकी प्रकृति बन जाता है, तो यह उनके दिलों में अंधकार और बुराई रोपने और उन्हें गलत रास्ता चुनने और उस पर आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त होता है। भ्रष्ट शैतानी स्वभाव की संचालक शक्ति के प्रभाव में लोगों के आदर्श, आशाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, जीवन-लक्ष्य और दिशाएँ क्या हैं? क्या वे सकारात्मक चीज़ों के विपरीत नहीं चलते? उदाहरण के लिए, लोग हमेशा प्रसिद्धि पाना चाहते हैं या मशहूर हस्तियाँ बनना चाहते हैं; वे बहुत प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, और अपने पूर्वजों का सम्मान बढ़ाना चाहते हैं। क्या ये सकारात्मक चीज़ें हैं? ये सकारात्मक चीज़ों के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं हैं; यही नहीं, ये मनुष्यजाति की नियति पर परमेश्वर की संप्रभुता रखने वाली व्यवस्था के विरुद्ध हैं। ... क्या तुम लोग हमेशा अपने पंख फैलाकर उड़ना चाहते हो, हमेशा अकेले उड़ना चाहते हो, एक नन्ही चिड़िया के बजाय चील बनना चाहते हो? यह कौन-सा स्वभाव है? क्या यही मानवीय आचरण का सिद्धांत है? तुम्हारा मानवीय आचरण परमेश्वर के वचनों के अनुसार होना चाहिए; केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं। तुम लोग शैतान द्वारा बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिए गए हो और हमेशा पारंपरिक संस्कृति यानी शैतान की बातों को सत्य समझते हो, उसे ही अपना लक्ष्य समझते हो, जिससे तुम्हारा गलत रास्ते पर निकल जाना, परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर चलना आसान हो जाता है। भ्रष्ट इंसान के विचार, उसका दृष्टिकोण और जिन चीजों के लिए वह प्रयास करता है, वे सब परमेश्वर की इच्छाओं, सत्य, हर चीज पर परमेश्वर की संप्रभुता वाली व्यवस्थाओं, हर चीज के उसके आयोजन और इंसान की नियति पर उसके नियंत्रण के विपरीत होते हैं। इसलिए इंसानी विचारों और धारणाओं के अनुसार इस प्रकार का अनुसरण कितना भी उपयुक्त और उचित क्यों न हो, परमेश्वर के दृष्टिकोण से वे सकारात्मक चीजें नहीं होतीं और न ही वे उसके इरादों के अनुरूप होती हैं। चूँकि तुम मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता की सच्चाई के खिलाफ जाते हो, और चूँकि तुम अपना भाग्य अपने हाथ में लेकर अकेले चलना चाहते हो, इसलिए तुम हमेशा दीवार से इतनी जोर से टकराते हो कि तुम्हारे सिर से खून बहने लगता है, और कुछ भी कभी तुम्हारे काम नहीं आता। कुछ भी तुम्हारे काम क्यों नहीं आता? क्योंकि परमेश्वर ने जिन नियमों की स्थापना की है, वे किसी भी सृजित प्राणी द्वारा अपरिवर्तनीय हैं। परमेश्वर का अधिकार और शक्ति अन्य सबसे ऊपर हैं, किसी भी सृजित प्राणी द्वारा उनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। लोग अपनी क्षमताओं को बहुत ज्यादा आँकते हैं। किस वजह से लोग हमेशा परमेश्वर की संप्रभुता से मुक्त होने की कामना करते हैं और हमेशा अपने भाग्य को पकड़ना और अपने भविष्य की योजना बनाना चाहते हैं, और अपनी संभावनाएँ, दिशा और जीवन-लक्ष्य नियंत्रित करना चाहते हैं? यह शुरुआती बिंदु कहाँ से आता है? (भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से।) तो एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव लोगों के लिए क्या ले आता है? (परमेश्वर का विरोध।) जो लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं, उन्हें क्या होती है? (पीड़ा।) पीड़ा? नहीं पीड़ा नहीं बल्कि उनका विनाश होता है! पीड़ा तो इसकी आधी भी नहीं है। जो तुम अपनी आँखों के सामने देखते हो वो पीड़ा, नकारात्मकता, और दुर्बलता है, और यह विरोध और शिकायतें हैं—ये चीज़ें क्या परिणाम लेकर आएँगी? सर्वनाश! यह कोई तुच्छ बात नहीं और यह कोई खिलवाड़ नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भ्रष्ट स्वभाव केवल सत्य स्वीकार करके ही दूर किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे एहसास हुआ कि मनुष्य के शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद उसका जीवन अहंकार, दंभ, दुष्टता और कपट से युक्त शैतानी भ्रष्ट स्वभाव द्वारा संचालित होता है। वह अब परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं कर पाता और हमेशा महत्वाकांक्षा और इच्छा से भरा रहता है, एक महान, प्रसिद्ध व्यक्ति बनना चाहता है और ऊँचा रुतबा पाने और सबसे महान व्यक्ति बनने की कोशिश करता है। शैतानी फलसफे जैसे कि “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है” और “जो सैनिक सेनानायक नहीं बनना चाहता वह अच्छा सैनिक नहीं है।” बहुत पहले ही मेरे दिल में जड़ें जमा चुके थे, जिससे मैं प्रतिष्ठा और रुतबे की तलाश को एक वैध लक्ष्य के रूप में देखने लगी। स्कूल में मैं अव्वल छात्रा बनने का प्रयास करती थी और अगर मैं परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती तो कई दिनों तक उदास रहती थी। स्नातक होने के बाद जब मैं काम करने लगी तो मैंने सबसे अच्छे कर्मचारियों में जगह बनाने के लिए लगन से काम किया—मैं ओवरटाइम काम करने के लिए तैयार रहती थी और सबसे कठिन काम चुनती थी ताकि बॉस का विश्वास जीतने और तरक्की पाने का मौका पा सकूँ। जब मैंने आस्था में प्रवेश किया तो मुझे लगा कि मैं कलीसिया में सुपरवाइजर या अगुआ बनकर दूसरों का सम्मान और साथ पा सकती हूँ और इसलिए मैंने ऊँचा रुतबा पाने का प्रयास किया। खासकर जब मैं एक समूह अगुआ बन गई और अपने भाई-बहनों की स्वीकृति पा ली तो मेरी महत्वाकांक्षा और इच्छा नई ऊंचाइयों पर पहुँच गई। मैं बहुत घमंडी हो गई, सोचा कि मेरे पास पूंजी है और सुपरवाइजर या अगुआ के रूप में तरक्की पाने की योग्यता है। जब अगुआ ने मेरी जगह एडेल को तरक्की दी तो मैंने प्रतिरोध और नाराजगी महसूस की और हमारे काम में उसका समर्थन और सहयोग करने के लिए तैयार नहीं हुई। मैं हमेशा उसके साथ प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश भी करती थी। मैं अक्सर मौके का फायदा उठाकर दिखाती थी कि मैं समस्याओं को कैसे सुलझा सकती हूँ—एक तरफ मैं एडेल को जताना चाहती थी कि वह मेरे स्तर की नहीं है, दूसरी ओर मैं भाई-बहनों को यह दिखाने की कोशिश कर रही थी कि मैं उससे ज्यादा प्रतिभाशाली हूँ। इस तरह मुझे उम्मीद थी कि जब भी कोई समस्या होगी तो वे मेरे पास आएंगे और अगर कोई दूसरा चुनाव होगा तो वे सबसे पहले मेरे बारे में सोचेंगे। मैंने रुतबे को किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण माना और मैंने कभी आत्म-चिंतन नहीं किया, भले ही मुझे बार-बार असफलताएँ मिलीं। इतना ही नहीं, मैं नाराज और क्रोधित थी, सोच रही थी कि मेरे पास पूंजी है क्योंकि मैं कुछ काम ठीक से कर सकती हूँ और मुझे दूसरों का अगुआ बनाया जाना चाहिए। मैं अविश्वसनीय रूप से घमंडी और बेशर्म थी! इस पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैं केवल रुतबा पाने के लिए ही परमेश्वर में विश्वास रखती थी। मैंने सत्य का अनुसरण करने को प्राथमिकता नहीं दी और मेरे पास सत्य वास्तविकता बहुत कम थी—जैसे, मैं कोई भी महत्वपूर्ण काम नहीं कर पाऊँगी जो अगुआओं और कार्यकर्ताओं को करना चाहिए। मेरी मानवता भी खराब थी जिससे मैं अगुआ बनने के लिए और भी कम योग्य हो गई। अगर मुझे अगुआ के रूप में चुन लिया जाता तो इससे भाई-बहनों और कलीसिया दोनों को नुकसान होता!
उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े जिससे मुझे प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागने की प्रकृति और परिणामों को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “यदि कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है और वह सत्य का अनुसरण करता है, लेकिन सार में, जो लक्ष्य वह हासिल करना चाहता है, वह है अपनी अलग पहचान बनाना, दिखावा करना, लोगों का सम्मान प्राप्त करना और अपने हित साधना, और उसके लिए अपने कर्तव्य का पालन करने का अर्थ परमेश्वर के प्रति समर्पण करना या उसे संतुष्ट करना नहीं है बल्कि शोहरत, लाभ और रुतबा प्राप्त करना है, तो फिर उसका अनुसरण अवैध है। ऐसा होने पर, जब कलीसिया के कार्य की बात आती है, तो उनके कार्य एक बाधा होते हैं या आगे बढ़ने में मददगार होते हैं? वे स्पष्ट रूप से बाधा होते हैं; वे आगे नहीं बढ़ाते। कुछ लोग कलीसिया का कार्य करने का झंडा लहराते फिरते हैं, लेकिन अपनी व्यक्तिगत शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, अपनी दुकान चलाते हैं, अपना एक छोटा-सा समूह, अपना एक छोटा-सा साम्राज्य बना लेते हैं—क्या इस प्रकार का व्यक्ति अपना कर्तव्य कर रहा है? वे जो भी कार्य करते हैं, वह अनिवार्य रूप से कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त और खराब करता है। उनके शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने का क्या परिणाम होता है? पहला, यह इस बात को प्रभावित करता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग सामान्य रूप से परमेश्वर के वचनों को कैसे खाते-पीते हैं और सत्य को कैसे समझते हैं, यह उनके जीवन-प्रवेश में बाधा डालता है, उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है और उन्हें गलत मार्ग पर ले जाता है—जो चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाता है, और उन्हें बरबाद कर देता है। और यह अंततः कलीसिया के साथ क्या करता है? यह गड़बड़ी, खराबी और विघटन है। यह लोगों के शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने का परिणाम है। जब वे इस तरह से अपना कर्तव्य करते हैं, तो क्या इसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना नहीं कहा जा सकता? जब परमेश्वर कहता है कि लोग अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे को अलग रखें, तो ऐसा नहीं है कि वह लोगों को चुनने के अधिकार से वंचित कर रहा है; बल्कि यह इस कारण से है कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हुए लोग कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को अस्त-व्यस्त कर देते हैं, यहाँ तक कि उनका ज्यादा लोगों के द्वारा परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, सत्य को समझने और इस प्रकार परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने पर भी प्रभाव पड़ सकता है। यह एक निर्विवाद तथ्य है। जब लोग अपनी शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो यह निश्चित है कि वे सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे और ईमानदारी से अपना कर्तव्य नहीं पूरा करेंगे। वे सिर्फ शोहरत, लाभ और रुतबे की खातिर ही बोलेंगे और कार्य करेंगे, और वे जो भी काम करते हैं, वह बिना किसी अपवाद के इन्हीं चीजों के लिए होता है। इस तरह से व्यवहार और कार्य करना, बिना किसी संदेह के, मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना है; यह परमेश्वर के कार्य में विघ्न-बाधा डालना है, और इसके सभी विभिन्न परिणाम राज्य के सुसमाचार के प्रसार और कलीसिया के भीतर परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में बाधा डालना है। इसलिए, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने वालों द्वारा अपनाया जाने वाला मार्ग परमेश्वर के प्रतिरोध का मार्ग है। यह उसका जानबूझकर किया जाने वाला प्रतिरोध है, उसे नकारना है—यह परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसके विरोध में खड़े होने में शैतान के साथ सहयोग करना है। यह लोगों की शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागने की प्रकृति है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। “जब लोग रुतबे के पीछे भागते हैं, तो परमेश्वर को इससे बेहद घृणा होती है, क्योंकि रुतबे के पीछे भागना शैतानी स्वभाव है, यह एक गलत मार्ग है, यह शैतान की भ्रष्टता से पैदा होता है, परमेश्वर इसका तिरस्कार करता है और परमेश्वर इसी चीज का न्याय और शुद्धिकरण करता है। लोगों के रुतबे के पीछे भागने से परमेश्वर को सबसे ज्यादा घृणा है और फिर भी तुम अड़ियल बनकर रुतबे के लिए होड़ करते हो, उसे हमेशा संजोए और संरक्षित किए रहते हो, उसे हासिल करने की कोशिश करते रहते हो। क्या इन तमाम चीजों की प्रकृति परमेश्वर-विरोधी नहीं है? लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, ताकि वे अंततः मानक स्तर के सृजित प्राणी, एक छोटा और नगण्य सृजित प्राणी बन जाएँ—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिस पर हजारों लोग श्रद्धा रखें। और इसलिए, इसे चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, रुतबे के पीछे भागने का मतलब एक अंधी गली में पहुँचना है। रुतबे के पीछे भागने का तुम्हारा बहाना चाहे जितना भी उचित हो, यह मार्ग फिर भी गलत है और परमेश्वर इसे स्वीकृति नहीं देता। तुम चाहे कितना भी प्रयास करो या कितनी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम रुतबा चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें वह नहीं देगा; अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा नहीं देता, तो तुम उसे पाने की लड़ाई में नाकाम रहोगे, और अगर तुम लड़ाई करते ही रहोगे, तो उसका केवल एक ही परिणाम होगा : बेनकाब करके तुम्हें हटा दिया जाएगा, और तुम्हारे सारे रास्ते बंद हो जाएँगे। तुम इसे समझते हो, है ना?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग तीन))। परमेश्वर के वचन पढ़कर रुतबा और प्रतिष्ठा चाहने वालों का उसका गहन-विश्लेषण और चरित्र चित्रण देखना वाकई मेरे दिल को चीर गया। मुझे सचमुच एहसास नहीं था कि रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे भागने की प्रकृति और परिणाम कितने गंभीर थे। जब लोग इन चीजों के पीछे भागते हैं तो वे सीधे कलीसिया के कार्य को बर्बाद और नष्ट कर देते हैं और शैतान के अनुचर के रूप में काम करते हैं। परमेश्वर ऐसे कार्यों की निंदा करता है। रुतबा चाहना परमेश्वर की अपेक्षाओं के खिलाफ है और यह सीधे उसका विरोध करना है—इस तरह से व्यवहार करना बर्बादी का मार्ग है! हमारे पिछले सुपरवाइजर को वास्तविक काम न करने के कारण बर्खास्त किया गया था, इसलिए जब एडेल आई तो यह कलीसिया के काम के लिए बहुत फायदेमंद रहा क्योंकि वह सत्य की खोज करती थी और जब उसके सामने समस्याएँ आईं तो उसने वाकई सत्य सिद्धांतों की खोज को प्राथमिकता दी और वह कुछ वास्तविक काम कर पाई। मुझे उसका समर्थन और सहयोग करना चाहिए था लेकिन क्योंकि मुझ पर प्रतिष्ठा और रुतबे का जूनून सवार था, मैं यह स्वीकार ही नहीं पाई एडेल को सुपरवाइजर बनाया गया था। जब भी उसने प्रस्ताव दिया कि हम साथ मिलकर काम पर चर्चा करें तो मैंने बार-बार उसका साथ देने से इनकार कर दिया। इससे एडेल को बेबस और नकारात्मक महसूस हुआ और कलीसिया के काम पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। न केवल मैं आत्म-चिंतन करने में नाकाम रही, बल्कि मैंने उसके साथ जो कुछ भी किया था, उसकी जिम्मेदारी भी नहीं ली, सोचा कि वह सिर्फ इसलिए नकारात्मक हो गई थी क्योंकि वह सुपरवाइजर की भूमिका के लिए उपयुक्त नहीं थी। मुझे इस बात का भी इंतजार था कि आखिर कब उसे एहसास होगा कि यह उसके लिए बहुत ज्यादा है और वह पद छोड़ देगी, क्योंकि तब मैं उसकी जगह ले सकूँगी। क्या मैं कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी पैदा नहीं कर रही थी? मैंने खुद को अलग दिखाने के लिए काम पर चर्चा करने और भाई-बहनों की मदद करने के अवसरों का भी फायदा उठाया, ताकि जब उन्हें कोई समस्या हो तो वे मेरे पास आएँ, जिससे एडेल सिर्फ एक नाममात्र की सुपरवाइजर रह जाती। मैं शैतान के अनुचर की तरह काम कर रही थी और कलीसिया के काम बाधित और नष्ट कर रही थी। मैं बुराई कर रही थी और परमेश्वर की प्रतिरोधी थी! परमेश्वर के वचन कहते हैं : “तुम चाहे कितना भी प्रयास करो या कितनी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम रुतबा चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें वह नहीं देगा; अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा नहीं देता, तो तुम उसे पाने की लड़ाई में नाकाम रहोगे, और अगर तुम लड़ाई करते ही रहोगे, तो उसका केवल एक ही परिणाम होगा : बेनकाब करके तुम्हें हटा दिया जाएगा, और तुम्हारे सारे रास्ते बंद हो जाएँगे।” मुझे एहसास हुआ कि रुतबे की चाह में मैं परमेश्वर के प्रतिरोध के मार्ग पर चल रही थी और इसका एकमात्र नतीजा मृत्यु होगी। इससे मैं डर गई। रुतबे और प्रतिष्ठा की मेरी चाह एक गंभीर समस्या बन गई थी और अगर मैं इसी तरह चलती रही तो मेरी महत्वाकांक्षा और इच्छा बढ़ती रहेगी। किसे पता कि अगर वाकई मुझे रुतबा मिल जाए तो मैं क्या-क्या कुकर्म करूँगी। अगर मैंने जल्दी ही पश्चात्ताप नहीं किया और अनुसरण के उस गलत मार्ग पर चलती रही तो मैं अंततः कोई बड़ी बुराई करूँगी और परमेश्वर द्वारा हटाकर दंडित की जाऊँगी।
बाद में एक सभा के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : “सृजित मानवता के एक सदस्य के रूप में, मनुष्य को अपनी स्थिति बनाए रखनी चाहिए, और कर्तव्यनिष्ठा से आचरण करना चाहिए। सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें जो सौंपा गया है, उसकी कर्तव्यपरायणता से रक्षा करो। अनुचित कार्य मत करो, न ही ऐसे कार्य करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। महान इंसान, अतिमानव या एक भव्य व्यक्ति बनने की कोशिश मत करो, और परमेश्वर बनने का प्रयास मत करो। लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान या अतिमानव बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना तो और भी ज्यादा शर्मनाक है; यह घृणित और निंदनीय है। जो प्रशंसनीय है, और जो सृजित प्राणियों को किसी भी चीज से ज्यादा करना चाहिए, वह है एक सच्चा सृजित प्राणी बनना; यही एकमात्र लक्ष्य है जिसका सभी लोगों को अनुसरण करना चाहिए” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। परमेश्वर के वचनों के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि मनुष्य मात्र सृजित प्राणी हैं और हमें अपने नियुक्त पदों पर बने रहना चाहिए और अपने वर्तमान कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। मनुष्य की महत्वाकांक्षा, इच्छा और शैतानी स्वभाव के कारण ही वह हमेशा एक असाधारण व्यक्ति बनने की इच्छा रखता है, जिसका रुतबा बहुत ऊंचा हो। कलीसिया अगुआ के रूप में नियुक्त होने का मतलब तुम्हें रुतबा देना नहीं है, बल्कि सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना है। चाहे मेरे पास कोई रुतबा हो या न हो, मुझे अभी भी कर्तव्यनिष्ठा से व्यवहार करना था और अपना कर्तव्य निभाना था। मैंने एक मौन संकल्प लिया कि चाहे कोई भी अगुआ चुना जाए, मैं अपने वर्तमान पद पर दृढ़ रहूँगी और कर्तव्यनिष्ठा से अपनी जिम्मेदारी निभाऊँगी। चाहे मुझे चुना जाए या नहीं, मुझे ऊँचा रुतबा मिले या नहीं, मैं अगुआ के काम में साथ दूँगी और दिल और दिमाग से एकजुट होकर सभी अन्य लोगों के साथ ठीक से कर्तव्य निभाऊँगी। कुछ दिनों बाद जब नव निर्वाचित अगुआ हमारे काम के बारे में मुझसे जानकारी लेने आया तो मैंने सब कुछ यथासंभव स्पष्टता से समझाया ताकि अगुआ को काम की अच्छी समझ मिले और वह कुशलता से आगे बढ़ सके। काम पर चर्चा करते समय मैंने विचार किया कि कौन सा तरीका हमारे काम के लिए सबसे अधिक फायदेमंद होगा और मेरे पास जो भी अच्छे सुझाव होंगे उन्हें तुरंत सामने रखूँगी। चाहे कोई भी अगुआ हो, महत्वपूर्ण बात यह थी कि हम अपने काम में सहयोग करें और जो भी समस्याएँ सामने आएँ, उनका समाधान करें। एक बार जब मैंने अपने काम पर ध्यान देना शुरू किया और सबसे कुशल तरीके से अपना कर्तव्य निभाने के लिए सभी के साथ भागीदारी शुरू की तो मुझे बहुत सहजता महसूस हुई।
दो महीने बाद अगुआ को दूसरा कर्तव्य सौंपा गया और नए चुनाव में आखिरकार मुझे अगुआ चुन लिया गया। एक बहन ने मुझसे कहा “दरअसल तुम हमेशा एक प्रतिभाशाली कार्यकर्ता रही हो और अपने कर्तव्य में जिम्मेदार हो, बस पहले तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रही थी, इसलिए हमने तुम्हें वोट देने की हिम्मत नहीं की। अब हमने देखा है कि परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन का अनुभव करने के बाद तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव जान गई हो और कुछ बदलाव किए हैं, अपनी कथनी और करनी में अधिक स्थिर और शांत हो गई हो और तुमने सभाओं के दौरान अपनी संगति में अधिक अंतरतम और व्यावहारिक विचार साझा किए हैं। तुम्हारे यह मामूली बदलाव करने के बाद भी हर किसी को फर्क नजर आ रहा है और इसलिए हमने तुम्हें वोट दिया।” बहन के दयालु शब्द सुनकर मैंने परमेश्वर के प्रति बहुत आभार महसूस किया। यह परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के कारण ही था जिसने मुझे मेरे असली आध्यात्मिक कद, रुतबे और पहचान का एहसास करने में मदद की। मैं बस एक साधारण प्राणी हूँ जिसे शैतान ने गहराई से भ्रष्ट कर दिया है और जिसमें किसी भी सत्य वास्तविकता का अभाव है। भले ही मेरे पास प्रतिभा और काबिलियत थी, मैं अन्य भाई-बहनों से बेहतर नहीं थी। धीरे-धीरे मेरी महत्वाकांक्षा और रुतबा पाने की इच्छा कमजोर हो गई और मैं अधिक विनम्र व्यवहार करने लगी। अगुआ चुने जाने के बाद मैं आत्म-संतुष्टि में नहीं डूबी—इसके बजाय मैंने अपने कर्तव्य का भार और जिम्मेदारी की भावना महसूस की। यह सब परमेश्वर के उद्धार के कारण ही संभव हो पाया कि मैं यह छोटा-सा परिवर्तन कर सकी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!