48. नेकी का कर्ज चुकाने पर गहरा सोच-विचार
2022 में, अपने गृह नगर की कलीसिया से मुझे एक पत्र मिला जिसमें एक बहन झांग हुआ का मूल्यांकन करने को कहा गया था। पत्र में लिखा था कि वह लोगों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर अपने समर्थकों को इकट्ठा करके कलीसिया के जीवन में उथल-पुथल मचा रही है। अगुआओं ने कई बार संगति की कोशिश की लेकिन उसने उलटे उन्हीं की कमियाँ बताकर बात बिगाड़ दी। कलीसिया ने झांग हुआ को निकालने का आधार तैयार करने के लिए मुझसे उसका मूल्यांकन लिख भेजने को कहा था। पत्र पढ़कर मुझे अहसास हुआ कि इस बार झांग हुआ का निष्कासन तय है क्योंकि वह लगातार ऐसा व्यवहार करती आ रही थी और अब भी बिल्कुल नहीं बदली थी। यह बहुत गंभीर स्थिति थी। झांग हुआ के निष्कासन की कल्पना कर मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगा। उसी ने मुझे आगे बढ़ाया और हमेशा मेरी देखभाल की थी। अगर उसे पता चले कि उसके बुरे कामों को उजागर मैंने किया था तो वह क्या सोचेगी? क्या वह मुझे अहसान फरामोश और बेरहम नहीं कहेगी? बस यही सोचकर मैं इस मामले से बचना चाहता था। मेरे पास करने को और भी काम था और इसे कुछ दिन के लिए टाल दिया।
यह मामला मेरे सिर पर तलवार की तरह लटका हुआ था—मुझे दस साल पुरानी बातें याद आ रही थीं। तब झांग हुआ कलीसिया की अगुआ थी और उसने मुझे तरक्की देकर लिखने-पढ़ने का काम सौंपा ताकि मैं और पारंगत हो जाऊँ। बाद में, मुझे लगातार तरक्की मिलती गई और अपना काम करने के लिए मैं शहर से बाहर चला आया। मैं मानता था कि मेरा लिखने-पढ़ने का काम करते रहने का संबंध कहीं न कहीं मुझे इतने साल तक तरक्की देने से था। मैंने उस संगति, सहायता और समर्थन के बारे में भी सोचा जो उसने अगुआ रहने के दौरान मुझे उपलब्ध कराई—हममें बहुत अच्छी छनती थी, और वह रोजमर्रा के जीवन में भी हमारी अच्छी देखभाल करती थी। उसने हमारे के लिए बेहतर घरों का इंतजाम तो किया ही, अगर हमें कपड़े-लत्ते या रोजमर्रा की जरूरतों की कमी पड़ती तो वह ये भी तुरंत दिला देती। मुझे याद है एक बार उसने हमारे के लिए एक बैठक बुलाई। जब उन्होंने सुना कि मुझे जिगर का रोग है, उसने एक डॉक्टर भाई से बात की और मुझे दर्जन भर दवा की बोतलें मुफ्त दिला दीं। यह बात मुझे गहरे छू गई। मेरी बीमारी की ऐसी चिंता मेरे परिवार के सिवाय कभी किसी और ने नहीं की थी। मुझे हमेशा लगा कि वह मेरा मान-सम्मान करती है और इसके लिए मैं उसका सदा शुक्रगुजार था। झांग हुआ का मूल्यांकन लिखना मेरे लिए, इसलिए भी, लगभग असहनीय रूप से तकलीफदेह था, क्योंकि मुझे पता था कि उसके बुरे कार्यों की लंबी सूची है—और अगर उनसे पर्दा उठ जाए तो उसका निष्कासन तय है। उदाहरण के लिए, अगुआ के रूप में काम के दौरान वह बहुत लापरवाह और उदासीन रहती थी जिससे कलीसिया के काम को गंभीर हानि पहुंची। अगुआ के पद से बरखास्त होने के बाद, वह सुसमाचार का संदेश देने लगी लेकिन फिर मसीह-विरोधियों का अनुसरण करने लगी और फिर से अगुआ बनने की कवायद में अगुआओं को झूठा बताकर बदनाम करने लगी। इसके फलस्वरूप, अगुआ और कार्यकर्ता अपना काम नहीं कर सके और कलीसिया के काम में गंभीर गड़बड़ी हुई। उसकी बहन बुरी इंसान थी और जब जब उसे निकाला गया तो उसे बचाने के लिए झांग हुआ रुष्ट होकर गलत धारणाएँ फैलाने लगी। तब मैं सोचे बिना न रह सका कि झांग हुआ हमेशा गलत लोगों का समर्थन क्यों करती है। तब मैंने परमेश्वर के इन वचनों पर विचार किया : “ऐसे कई लोग कलीसिया में मौजूद हैं, जिनमें कोई विवेक नहीं है। और जब कुछ गुमराह करने वाला घटित होता है, तो वे अप्रत्याशित रूप से शैतान के पक्ष में जा खड़े होते हैं। जब उन्हें शैतान का अनुचर कहा जाता है तो उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। यद्यपि लोग कह सकते हैं कि उनमें विवेक नहीं है, वे हमेशा उस पक्ष में खड़े होते हैं जहाँ सत्य नहीं होता है, वे संकटपूर्ण समय में कभी भी सत्य के पक्ष में खड़े नहीं होते हैं, वे कभी भी सत्य के पक्ष में खड़े होकर दलील पेश नहीं करते हैं। क्या उनमें सच में विवेक का अभाव है? वे अनपेक्षित ढंग से शैतान का पक्ष क्यों लेते हैं? वे कभी भी एक भी शब्द ऐसा क्यों नहीं बोलते हैं जो निष्पक्ष हो या सत्य के समर्थन में तार्किक हो? क्या ऐसी स्थिति वाकई उनके क्षणिक भ्रम के परिणामस्वरूप पैदा हुई है? लोगों में विवेक की जितनी कमी होगी, वे सत्य के पक्ष में उतना ही कम खड़ा हो पाएँगे। इससे क्या ज़ाहिर होता है? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि विवेकशून्य लोग पाप से प्रेम करते हैं? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि वे शैतान की निष्ठावान संतान हैं? ऐसा क्यों है कि वे हमेशा शैतान के पक्ष में खड़े होकर उसी की भाषा बोलते हैं? उनका हर शब्द और कर्म, और उनके चेहरे के हाव-भाव, यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि वे सत्य के किसी भी प्रकार के प्रेमी नहीं हैं; बल्कि, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से घृणा करते हैं। शैतान के साथ उनका खड़ा होना यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि शैतान इन तुच्छ इब्लीसों को वाकई में प्रेम करता है जो शैतान की खातिर लड़ते हुए अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं। क्या ये सभी तथ्य पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से, और इनकी तुलना झांग हुआ के विगत बुरे कर्मों और वर्तमान व्यवहार से करने पर, मैंने पाया कि वह हमेशा शैतान का पक्ष लेकर कलीसिया का काम बाधित कर रही थी। मैं समझ गया कि दरअसल वह शैतान की सेवक थी—कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालने वाली एक कुकर्मी थी। अगर मैं झांग हुआ के सभी बुरे कार्यों और व्यवहार को उजागर करता तो कलीसिया के सिद्धांतों के अनुसार उसे अवश्य ही बाहर कर दिया जाता। तब उसके पास न तो परमेश्वर के घर में कोई काम बचता, न ही मुक्ति का अवसर रहता। वह पहले ही अधेड़ उम्र की थी और उसके बच्चे भी नहीं थे। निष्कासित होने पर वह कहाँ जाने लायक बचती? उसने मेरी जो देखभाल की और मुझे तरक्की दी, उसके बारे में सोचकर मैं दुविधा में फँस गया। अगर मैंने उसे उजागर किया तो बुरे बर्ताव के कारण वह बरखास्त हो सकती थी। अगर नहीं किया तो मैं न तो कलीसिया के हितों की सुरक्षा कर रहा होता, न ही परमेश्वर के प्रति वफादार बना रहता। इस बारे में सोचते-सोचते मैंने बीच का रास्ता देखा। बरसों बीत चुके थे और मेरी याददाश्त भी अब इतनी अच्छी नहीं थी। मैं पहले ही कई ब्योरे भूल चुका था, इसलिए उन्हें याद करने के लिए बहुत ज्यादा सिर खपाना फिजूल था। मैं पहले से जाहिर कुछ बातों को लिखकर छुट्टी पा लूँगा। यह विचार सूझने पर मुझे कुछ आत्म ग्लानि हुई। क्या यह धोखा और छल नहीं है? परमेश्वर के कार्य के प्रकाशन का अब अंतिम चरण है, जहाँ लोगों को उनकी प्रकृति के आधार पर छांटा जाता है। केवल जब कुकर्मी, मसीह-विरोधी, छद्म-विश्वासी और बुरी आत्माएँ दूर की जाएंगी तभी कलीसिया साफ-सुथरी होकर अपने काम आसानी से कर सकेगी। मुझे अच्छी तरह पता था कि झांग हुआ बुरी है लेकिन उसका पर्दाफाश नहीं करना चाहता था—उसे शह देकर बचाना चाहता था। यह तो शैतान के पाले में खड़ा होना और परमेश्वर का विरोध हुआ। यह अहसास होने पर मैं डर गया। मैंने लगकर उसकी सारी करतूतों को याद किया और अगुवा को देने के लिए उन्हें लिख डाला।
इसे भेजकर मैं थोड़ा सहज हुआ लेकिन मन अब भी उदास था। अगर किसी दिन मैं अपने गृह नगर लौटा और झांग हुआ तो पता चला कि उसके बुरे कार्य मैंने ही उजागर किए तो क्या वह मुझे निष्ठुर और अहसान फरामोश कहेगी? कई दिनों तक इसके बारे में सोचकर मुझे लगता रहा, जैसे कुछ गलती कर बैठा हूँ। सोचता रहता था : जानता हूँ कि कुकर्मियों का पर्दाफाश करना और उनकी सूचना देना परमेश्वर के इरादे के अनुसार है और परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों का कर्तव्य है, तो फिर मैं उसके पर्दाफाश को लेकर इतना अनिच्छुक और परेशान क्यों था? ऐसा क्यों लगा जैसे कि मैं उसका ऋणी हूँ? इस बारे में सोचते हुए मैंने याद किया कि जब परमेश्वर ने नैतिक आचरण के बारे में तमाम कहावतों का गहन-विश्लेषण किया था तो उसने नेकी का कर्ज चुकाने के विषय को छुआ है, इसलिए मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने लगा। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “यह विचार कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, पारंपरिक चीनी संस्कृति में यह आँकने के लिए एक प्रारूपिक कसौटी है कि किसी व्यक्ति का आचरण नैतिक है या अनैतिक। किसी व्यक्ति की मानवता अच्छी है या बुरी, और उसका आचरण कितना नैतिक है, इसका आकलन करने का एक मापदंड यह है कि क्या वह किसी के एहसान या मदद का बदला चुकाने की कोशिश करता है—क्या वह ऐसा व्यक्ति है जो दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाता है या नहीं। पारंपरिक चीनी संस्कृति में, और मानवजाति की पारंपरिक संस्कृति में, लोग इसे नैतिक आचरण के एक अहम पैमाने के रूप में देखते हैं। अगर कोई यह नहीं समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए, और वह कृतज्ञता नहीं दिखाता है, तो ऐसा माना जाता है कि उसमें जमीर का अभाव है, वह मेलजोल के लिए अयोग्य है और ऐसे व्यक्ति से सभी लोगों को घृणा करनी चाहिए, उसका तिरस्कार करना चाहिए या उसे ठुकरा देना चाहिए। दूसरी तरफ, अगर कोई व्यक्ति यह समझता है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए—अगर वह कृतज्ञ है और उपलब्ध सभी साधनों का इस्तेमाल करके खुद पर किए गए एहसान या मदद का बदला चुकाता है—तो उसे जमीर और मानवता युक्त इंसान माना जाता है। अगर कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से लाभ या मदद लेता है, पर इसका बदला नहीं चुकाता, या सिर्फ जरा-सा ‘शुक्रिया’ कहकर आभार जता देता है, और इसके अलावा कुछ नहीं करता, तो दूसरा व्यक्ति क्या सोचेगा? शायद उसे यह असहज लगेगा? शायद वह सोचेगा, ‘यह इंसान मदद किए जाने के योग्य नहीं है। यह अच्छा व्यक्ति नहीं है। मैंने उसकी इतनी मदद की, अगर इस पर उसकी यही प्रतिक्रिया है, तो उसमें जमीर और इंसानियत नाम की चीज नहीं है, और इस योग्य नहीं है कि उससे संबंध रखा जाए।’ अगर उसे दोबारा कोई ऐसा व्यक्ति मिले, क्या वह तब भी उसकी मदद करेगा? कम-से-कम वह ऐसा करना तो नहीं चाहेगा। क्या तुम लोग भी, ऐसी परिस्थिति में यह नहीं सोचोगे कि सच में मदद करनी चाहिए या नहीं? पिछले अनुभव से तुमने जो सबक सीखा होगा वह यह होगा, ‘मैं हर किसी की यूँ ही मदद नहीं कर सकता—इन्हें यह बात समझ में आनी चाहिए कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए। अगर ये लोग एहसानफरामोश किस्म के हैं, जो मेरी मदद का बदला नहीं चुकाएंगे, तो बेहतर यही है कि मैं उनकी मदद न ही करूँ।’ क्या इस मामले में तुम लोगों की यही सोच नहीं होगी? (बिल्कुल होगी।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं जान गया कि क्यों मैं इतना दुःखी था और खुद को उसका कर्जदार समझता था। नेकी का कर्ज चुकाने की कहावत ने मुझे गुमराह किया और मुझमें जहर भर दिया था। बचपन से लेकर जवानी तक, मैंने माता-पिता, बड़े-बूढ़े और ग्रामीण लोगों के मुँह से अक्सर “नेकी का कर्ज चुकाने” का जुमला सुना था। जब भी वे सुनते थे कि मदद पाने वाले किसी व्यक्ति ने बाद में अहसान का बदला चुकाया तो वे उस व्यक्ति की तारीफों के पुल बांधकर कहते कि वह नेकनीयत, विवेकवान और मित्रतायोग्य है। ऐसे लोगों का वे सम्मान करते थे और मिलने पर खुश होकर उनसे दुआ-सलाम करते। लेकिन जब कोई अहसान का बदला नहीं चुकाता था तो वे उससे संबंध नहीं रखना चाहते थे। वे निजी तौर पर ऐसे लोगों को कृतघ्न, आत्मा व मानवता विहीन बताते और उनसे बिल्कुल भी दुआ-सलाम नहीं करते थे। बचपन से ही मैंने हमेशा नेकी का कर्ज चुकाने जैसे विचारों पर अमल किया। जिस किसी ने मेरी या मेरे परिवार की मदद की उसे याद रखना और जल्द से जल्द उसकी नेकी का कर्ज उतारना मेरा फर्ज बनता था। अगर तत्काल संभव न हो तो बाद में उचित अवसर का इंतजार करना होता था। एक श्रेष्ठ, विवेकी और खरे व्यक्ति को ऐसे ही पेश आना चाहिए, इससे मैंने आसपास के लोगों का दिल जीत लिया था। लेकिन जहाँ तक झांग हुआ की बात है, मुझे लगा कि उसने मुझे जो तरक्की दी, मेरी चिंता और मदद की, उन सबका बदला मैंने नहीं चुकाया है, उलटे उसके बुरे कार्य उजागर कर दिए। मैं अपराध बोध और कृतघ्नता के भाव से भर उठा। इन विचारों ने मुझे अभी भी ऐसे जकड़ रखा था कि यह जानते हुए भी कि बुरे लोग और छद्म-विश्वासी सिर्फ कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के कर्तव्य निर्वहन में खलल ही डालेंगे, मैं अब भी उसके बुरे कार्य उजागर करने को तैयार नहीं था। नेकी का कर्ज चुकाने की धारणा से मैं बेहद गुमराह और बंधा हुआ था।
तभी मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े जो कहते हैं : “नैतिक आचरण को लेकर ऐसे कथन कि ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,’ लोगों को यह नहीं बताते कि समाज में और मानवजाति के बीच उनकी जिम्मेदारियाँ क्या हैं। इसके बजाय, ये लोगों को एक खास तरीके से सोचने और व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं, भले ही वे ऐसा चाहें या न चाहें, और वे परिस्थितियाँ या संदर्भ चाहे कुछ भी हों जिनमें दयालुता के ऐसे व्यवहार उन पर किए जाते हैं। प्राचीन चीन से ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जहाँ दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक चुकाया गया है। उदाहरण के लिए, एक भूखे भिखारी लड़के को एक ऐसे परिवार ने अपने पास रख लिया जिसे उसे खाना, कपड़ा दिया और मार्शल आर्ट सिखाया, उसे हर तरह का ज्ञान दिया। उन्होंने उसके बड़े होने तक इंतजार किया और फिर उसे कमाई का जरिया बना लिया। उसे बुरे काम करने के लिए, लोगों को मारने और ऐसी चीजें करने के लिए भेजने लगे, जो वह नहीं करना चाहता था। अगर तुम उसकी कहानी को उन एहसानों की रोशनी में देखो जो उस परिवार ने उस पर किए, तो उसका बचाया जाना एक अच्छी बात थी। लेकिन अगर यह सोचा जाए कि उससे बाद में क्या करवाया गया तो क्या यह सचमुच अच्छी बात थी या बुरी बात? (बुरी बात थी।) लेकिन पारंपरिक संस्कृति की शिक्षा, जैसे कि ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ के कारण लोग इसमें भेद नहीं कर पाते। ऊपर से देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि लड़के के सामने बुरे काम करने, लोगों को चोट पहुंचाने और हत्यारा बनने के अलावा कोई रास्ता नहीं था—ऐसे काम जो ज्यादातर लोग नहीं करना चाहेंगे। लेकिन क्या अपने मालिक के कहने पर ऐसे बुरे काम करने और दूसरों की जान लेने के तथ्य के पीछे उसकी दयालुता का बदला चुकाने की गहरी भावना नहीं थी? खास तौर से पारंपरिक चीनी संस्कृति की ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ जैसी शिक्षा के कारण, लोग ऐसे विचारों के प्रभाव और नियंत्रण से बच नहीं पाते। वे जिस तरह व्यवहार करते हैं, और उनके इन कृत्यों के पीछे जो इरादे और मकसद होते हैं, वे यकीनन इनसे नियंत्रित होते हैं। जब लड़के ने खुद को इस स्थिति में पाया तो उसके मन में पहला विचार क्या आया होगा? ‘मुझे इस परिवार ने बचाया है, और वे सब मेरे साथ कितने अच्छे रहे हैं। मैं एहसान फरामोश नहीं हो सकता, मुझे उनकी दया का बदला चुकाना ही होगा। मेरी जिंदगी उनकी दी हुई है, इसलिए मुझे इसे उन पर अर्पित कर देना होगा। वे जो भी कहें मुझे करना चाहिए, चाहे इसका मतलब बुरे काम करना और लोगों की जान लेना हो। मैं यह नहीं सोच सकता कि यह सही है या गलत, मुझे उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना ही है। अगर मैंने ऐसा न किया तो क्या मैं मनुष्य कहलाने लायक भी हूँ?’ परिणामस्वरूप, जब भी परिवार उसे किसी की हत्या करने या कोई और बुरा काम करने के लिए कहता था, तो वह बिना किसी झिझक या संकोच के कर देता था। तो क्या उसका आचरण, उसके कृत्य, और उसकी निर्विवाद आज्ञाकारिता, सब इस विचार और दृष्टिकोण से संचालित नहीं होते थे कि ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’? क्या वह नैतिक आचरण के इसी मानक को पूरा नहीं कर रहा था? (हाँ।) तुम इस उदाहरण से क्या समझते हो? ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ की कहावत अच्छी बात है या नहीं? (यह अच्छी बात नहीं है, क्योंकि इसके पीछे कोई सिद्धांत नहीं है।) दरअसल, जो व्यक्ति दयालुता का बदला चुकाता है उसका एक सिद्धांत तो होता है, जो यह है कि दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए। अगर कोई तुम पर दया करता है तो बदले में तुम्हें भी दया करनी चाहिए। अगर तुम ऐसा नहीं कर पाते तो तुम मनुष्य नहीं हो, और अगर इसके लिए तुम्हारी निंदा की जाए तो तुम कुछ नहीं कह सकते। एक कहावत है कि ‘एक बूँद पानी की दया का बदला झरने से चुकाना चाहिए,’ पर इस मामले में, लड़के पर कोई छोटी-मोटी दया नहीं दिखाई जाती है, बल्कि उसकी जान बचाई जाती है, इसलिए उसके पास इसका मोल एक जीवन देकर चुकाने के सभी कारण मौजूद थे। उसे नहीं पता था कि दयालुता के प्रतिदान की सीमाएं और सिद्धांत क्या थे। उसका विश्वास था कि उसका जीवन उस परिवार का दिया हुआ था, इसलिए उसे बदले में अपना जीवन अर्पित करना होगा, और वे जो भी चाहते थे उसे करना होगा, चाहे किसी की हत्या हो या दूसरे बुरे काम। दयालुता के प्रतिदान के इस तरीके में न कोई सिद्धांत होता है न सीमा। उसने कुकर्मियों का साथ देने का काम किया और इस चक्कर में खुद को बर्बाद कर लिया। क्या उसका इस तरीके से दयालुता का बदला चुकाना सही था? बिल्कुल नहीं। यह चीजों को करने का एक मूर्खतापूर्ण तरीका था” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के बताए गए भिखारी के उदाहरण से मैंने जाना कि नेकी का कर्ज चुकाने की पारंपरिक संस्कृति एक शैतानी छलावा है जिसका मकसद हमारे मन में जहर घोलना है। नेकी का कर्ज चुकाने का विचार हमारी आत्मा को तो मजबूर करता ही है, हमारे विचारों को भी विकृत करता है, और इंसानों में साधारण किस्म की सहायता के आदान-प्रदान को अहसान के ऐसे कर्ज में बदल देता है जिसे याद रखना और चुकाना जरूरी है, वरना कहने लगेंगे कि ऐसे व्यक्ति की अंतरात्मा और मानवता मर चुकी है। पारंपरिक संस्कृति के इस गुमराह और विषाक्त किए जाने के कारण कितने लोग उचित आचरण को भुला बैठे हैं! हम यह नहीं देखते कि उपकार करने वाला चाहे कोई कुकर्मी हो या गलत इरादों वाला, लेकिन जिसे भी कुछ लाभ मिला है उसे तन-मन से नेकी का कर्ज चुकाना है, फिर चाहे इसके लिए खून करने या पाप की दूसरी हदों तक जाना पड़े। इस तरह, मैंने जाना कि नेकी का कर्ज चुकाने की भ्रांति लोगों में सचमुच जहर भर देती है। जब मैंने अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर हमला और कलीसिया का काम बिगाड़ती झांग हुआ के बारे में सोचा तो मुझे पता था कि अगुआओं का लक्ष्य यह मूल्यांकन कराना था कि झांग हुआ अमूमन कैसा व्यवहार करती है ताकि वे उसका निष्कासन करने या न करने का फैसला कर सकें। लेकिन “नेकी का कर्ज चुकाने” द्वारा गुमराह किए जाने और उसके प्रभाव तले, झांग हुआ के सारे उपकारों—मुझे आगे बढ़ाने और मेरी चिंता करने भर के ख्याल के कारण—मैं उसके बुरे कार्यों पर पर्दा डालने की सोचने लगा। मैं इतना भ्रमित हो गया कि अच्छे-बुरे, काले-गोरे का अंतर भी नहीं कर पाया! इस मुकाम पर, मैं नेकी का कर्ज चुकाने के विचार के बारे में कुछ बातों में फर्क करने में सक्षम था। मैं यह तो समझ रहा था कि यह कोई सकारात्मक बात नहीं है, बल्कि एक ऐसा छलावा है जिसका इस्तेमाल शैतान लोगों को गुमराह करने और भ्रष्ट करने के लिए करता है। मैं जानता था कि इस पर अमल नहीं करना चाहिए, इसे आचरण के सिद्धांत के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों में और पढ़ा जो कहते हैं : “‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए,’ इस पारंपरिक अवधारणा को ठीक-से समझने की जरूरत है। इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ‘दयालुता’ शब्द है—तुम्हें इस दयालुता को किस तरह देखना चाहिए? इसमें दयालुता के किस पहलू और प्रकृति की बात की गई है? ‘दयालुता का बदला कृतज्ञतापूर्वक लौटाना चाहिए’ का क्या महत्व है? लोगों को इन प्रश्नों के उत्तर खोजने चाहिए और किसी भी परिस्थिति में दयालुता का बदला चुकाने के इस विचार से बेबस नहीं होना चाहिए—जो व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है उसके लिए तो यह एकदम अनिवार्य है। मानवीय धारणाओं के अनुसार ‘दयालुता’ क्या है? एक छोटे स्तर पर, दयालुता का मतलब है, मुसीबत में किसी व्यक्ति का तुम्हारी मदद करना। उदाहरण के लिए, जब तुम भूख से बेहाल हो तो कोई तुम्हें चावल का कटोरा दे देता है, या जब तुम प्यास से तड़प रहे हो तो कोई तुम्हें पानी की बोतल दे देता है। या तुम गिर पड़ते हो और उठ नहीं पाते हो तो कोई तुम्हें हाथ पकड़कर उठा देता है। ये सभी दयालुता के काम हैं। दयालुता का बड़ा कर्म, किसी का तुम्हें उस समय बचा लेना है जब तुम बहुत ही कठिन परिस्थिति में फंस गए हो—यह जान बचाने वाली दयालुता है। जब तुम जान के खतरे में हो और कोई मौत से बचने में तुम्हारी मदद करता है, तो वह मूल रूप से तुम्हारी जान बचाता है। ये कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें लोग ‘दयालुता’ के रूप में देखते हैं। इस तरह की दयालुता किसी भी तरह के छोटे-मोटे, भौतिक एहसान से बहुत ऊपर है—यह महान दयालुता है, जिसे पैसे या भौतिक वस्तुओं से नहीं तोला जा सकता। जिन्हें इस तरह की दयालुता मिलती है, वे कृतज्ञता की ऐसी भावना महसूस करते हैं जिसे धन्यवाद के कुछ शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। पर क्या दयालुता को इस तरह से नापना सही है? (नहीं।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह सही नहीं है? (क्योंकि यह माप पारंपरिक संस्कृति के मापदंड पर आधारित है।) यह उत्तर परिकल्पना और धर्म-सिद्धांत पर आधारित है, और भले ही यह सही प्रतीत हो, यह मामले के मर्म को नहीं छूता। तो हम इसे व्यावहारिक तौर पर कैसे समझा सकते हैं? इस पर ध्यान से विचार करो। कुछ समय पहले, मैंने एक ऑनलाइन वीडियो के बारे में सुना, जिसमें एक आदमी का पर्स गिर जाता है और उसे पता नहीं चलता। एक छोटा-सा कुत्ता उस पर्स को उठाकर उस आदमी के पीछे भागता है, जब वह आदमी उसे देखता है तो पर्स चुराने के लिए कुत्ते को मारने लगता है। बेहूदी बात है न? आदमी में कुत्ते से कम नैतिकता है! कुत्ते की हरकत मनुष्य के नैतिक मापदंडों के अनुरूप थी। कोई मनुष्य होता तो कहता, ‘आपका पर्स गिर गया है!’ पर क्योंकि कुत्ता बोल नहीं सकता, इसलिए वह चुपचाप पर्स उठाकर आदमी के पीछे दौड़ पड़ा। तो अगर कुत्ता भी पारंपरिक संस्कृति द्वारा प्रोत्साहित अच्छे व्यवहार दिखा सकता है तो यह मनुष्यों के बारे में क्या बताता है? मनुष्य जमीर और विवेक के साथ पैदा होते हैं, इसलिए वे यह सब करने में ज्यादा सक्षम हैं। अगर किसी में अपने जमीर की समझ है, तो वह इस तरह की जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभा सकता है। इसके लिए कोई कड़ी मेहनत करने या कोई कीमत चुकाने की जरूरत नहीं है, बस थोड़े-से प्रयास की जरूरत होती है, और कुल मिलाकर कोई ऐसा काम करना होता है जिससे दूसरों की मदद हो और उनका भला हो। लेकिन क्या इस तरह के काम की प्रकृति सचमुच ‘दयालुता’ है? क्या यह दयालुता के एक कर्म के स्तर तक पहुँचती है? (नहीं पहुँचती।) तो फिर, क्या लोगों को इसका बदला चुकाने की बात करने की जरूरत है? इसकी कोई जरूरत नहीं है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरा मन रोशनी से भर उठा। परमेश्वर कहता है : “इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ‘दयालुता’ शब्द है—तुम्हें इस दयालुता को किस तरह देखना चाहिए?” “भलाई” के विचार को कैसे देखें, यह जानते ही मुझे सच्चाई दिखने लगी और मैं अब और देर गुमराह या सीमित नहीं हो सकता था, न ही इससे बंधा रह सकता था। इसलिए मैंने इस पर विचार किया। मैं सोचता था कि झांग हुआ ने मुझ पर दो तरह से उपकार किया। पहली बात, उसने मुझे तरक्की दी। दूसरी बात, अगुआ होने के दौरान उसने एक भाई से मुझे दवाइयाँ दिलाईं। तो क्या यह वास्तव में नेकी थी? वस्तुतः जब कोई व्यक्ति बीमारी या किसी मुसीबत से घिरा हो तो राहत भरा हाथ बढ़ाना आम व्यवहार है—यह एक ज़िम्मेदारी और सहज बुद्धि है। जिसके पास भी जमीर या विवेक हो वह यह हासिल कर सकता है और यह विशेष रूप से की गई भलाई की ऐसी कोई बात नहीं है जिसका कर्ज चुकाना पड़े। मगर उसकी मदद को दिल में बैठाकर मैं इसे नेकी का ऐसा विशेष कृत्य मानने लगा जिसका ऋण चुकाया ही जाना चाहिए, यहाँ तक कि उसके बुरे कार्यों पर पर्दा डालकर उसे कलीसिया में रहने देने के जतन करने लगा। उसकी नेकी का कर्ज इस तरह चुकाकर क्या मैं अपनी खातिर कलीसिया के हितों की कुर्बानी नहीं दे रहा था? मैं बिल्कुल भ्रम में था! मैं यह भी सोच रहा था कि क्या मुझे तरक्की देकर झांग हुआ ने कोई विशेष रूप से भलाई की। मैंने परमेश्वर के वचनों में इस बारे में सोचा : “तुम्हें यह समझना होगा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर कब या किस चरण में अपना काम कर रहा है, उसे हमेशा अपने साथ काम करने के लिए कुछ लोगों की जरूरत पड़ती है। इन लोगों का परमेश्वर के कार्य में उसका साथ देना या सुसमाचार फैलाने में मदद करना, उसके द्वारा पहले से निर्धारित है। ... परमेश्वर के घर में तुममें ऐसा कौन है जो इस समय संयोग से अपना कर्तव्य निभा रहा है? तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए चाहे जिस भी पृष्ठभूमि से आए, इसमें कुछ भी संयोग से नहीं हुआ है। इस कर्तव्य को बिना सोचे समझे सिर्फ कुछ विश्वासियों को खोज लेने से नहीं निभाया जा सकता; यह परमेश्वर ने युगों पहले से निर्धारित कर रखा था। किसी चीज के पहले से निर्धारित होने का क्या मतलब है? विशेषतः इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि अपनी पूरी प्रबंधन योजना में, परमेश्वर ने बहुत पहले ही योजना बना ली थी कि तुम धरती पर कितनी बार आओगे, अंत के दिनों के दौरान तुम किस वंश और किस परिवार में पैदा होगे, इस परिवार की परिस्थितियाँ क्या होंगी, तुम मर्द होगे या औरत, तुम्हारी ताकत क्या होगी, तुम्हारी शिक्षा किस स्तर की होगी, तुम कितना साफ-साफ बोलने वाले होगे, तुम्हारी क्षमता कितनी होगी और तुम कैसे दिखोगे। उसी ने यह तय किया कि तुम किस उम्र में परमेश्वर के घर में आकर अपना कर्तव्य निभाना शुरू करोगे और कब कौन-सा कर्तव्य निभाओगे। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए हर कदम पहले से निर्धारित कर दिया था। जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे और जब तुम अपने पिछले कई जीवनों में धरती पर आए थे तो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए पहले से ही व्यवस्था की थी कि कार्य के इस आखिरी चरण में तुम क्या कर्तव्य निभाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैंने परमेश्वर के वचनों पर जितना विचार किया, चीजें उतनी ही साफ होती गईं। ऐसा लगता है कि झांग हुआ ने मुझे तरक्की दी जिससे मुझे लिखने-पढ़ने का काम मिला, लेकिन असल में हर चीज की व्यवस्था करने वाला तो परमेश्वर है। परमेश्वर ही मुझे धीरे-धीरे इस भूमिका की ओर ले गया। अगर परमेश्वर के घर में यह काम होता ही नहीं तो मैं यह काम कर ही नहीं पाता। तो क्या यह सब परमेश्वर के कार्य का फल नहीं है? मुझे परमेश्वर का धन्यवादी और कृतज्ञ होना चाहिए था, फिर भी मैं झांग हुआ को इस उपकार का स्रोत समझता था और इसके लिए उसका कर्ज चुकाना चाहता था। मैंने परमेश्वर का अनुग्रह नहीं देखा बस मनुष्य की दयालुता देखी। मैं सच में अंधा, अज्ञानी, बुद्धिहीन और मूर्ख था। कलीसिया के अगुआ के रूप में झांग हुआ का काम परमेश्वर के घर की जरूरतों के अनुसार लोगों को प्रशिक्षित और उन्नत करना था—मुझे परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए था, जबकि मैं इसका हकदार किसी अन्य व्यक्ति को बना रहा था। यह बात समझ में आते ही मुझे चैन मिल गया। मेरे मन से उसकी नेकी का सारा बोझ हट गया—दस साल पुरानी कृतज्ञता, मेरी प्रशंसा के लिए उसके प्रति धन्यवाद का भाव और बदले में उसका कर्ज चुकाने की इच्छा। अब मैं न तो अपने को उसका कर्जदार समझता था, न ही उसके बुरे कार्यों को उजागर करने का मुझे खेद था। अहसान फरामोश होने का अपराध बोध भी खत्म हो गया और हमारे बीच किसी भी प्रकार की नेकी का कोई सवाल नहीं रह गया था। ठीक उसी तरह जैसा परमेश्वर कहता है : “मेरे लिए, इस तरह की ‘दयालुता’ का कोई अस्तित्व नहीं है, और मुझे उम्मीद है तुम लोगों के लिए भी ऐसा ही है। तो फिर तुम्हें इसे कैसे देखना चाहिए? इसे सीधे-सीधे एक दायित्व, एक जिम्मेदारी और कुछ ऐसा समझो जो एक मानवीय प्रवृत्तियों वाले किसी व्यक्ति को करना चाहिए। एक मनुष्य के रूप में तुम्हें इसे अपनी जिम्मेदारी और दायित्व की तरह देखना चाहिए, और इसे अपनी पूरी क्षमता से निभाना चाहिए। बस इतना ही” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (7))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे नेकी का कर्ज चुकाने के विचार से मुक्त कर इन विषयों पर मेरे दृष्टिकोण को दुरुस्त कर दिया। मैं परमेश्वर का बहुत आभारी हूँ।
खैर, मैंने सोचा कि बात खत्म हो चुकी है। लेकिन इसके कुछ समय बाद ही मेरे गृह नगर की कलीसिया ने फिर लिखा कि मैं झांग हुआ के व्यवहार के बारे में साफ-साफ लिखूँ और साथ ही यह भी बताऊँ कि यह सब कब और कहाँ हुआ, उसने कब-कब मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों का साथ दिया और बुरे काम करने के लिए मसीह-विरोधियों का अनुकरण किया। ऐसे सबूतों के बिना उसका निष्कासन असंभव होगा। पत्र पाकर मैं अब भी कुछ असहज था। अगर यह लिखता हूँ तो झांग हुआ का निष्कासन तय है। वह मेरे प्रति इतनी अच्छी थी और अगर मैंने ऐसा किया तो क्या मैं ... लेकिन फिर मुझे तुरंत अहसास हुआ कि नेकी का कर्ज चुकाने का शैतानी सिद्धांत यहाँ भी काम करने लगा है। मुझे इस विचार की अनदेखी कर परमेश्वर के वचनों पर चलना था। मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा था : ‘कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?’ ‘क्योंकि जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहिन और मेरी माँ है।’ ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : ‘परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।’ ये वचन बिल्कुल सीधे हैं, फिर भी लोग अक्सर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचन अच्छी तरह स्पष्ट करते हैं : हमें लोगों के साथ सिद्धांत सम्मत व्यवहार करना चाहिए, जिसे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करो और जिससे परमेश्वर घृणा करता है उससे घृणा करो। जो सत्य को खोजते और इस पर अमल करते हैं वे हमारे भाई-बहन हैं और उनके साथ प्रेम पूर्वक व्यवहार करना चाहिए। जो बिल्कुल भी सत्य को न तो खोजते हैं, न ही इस पर अमल करते हैं या कलीसिया के कार्य में खलल डालने वाले पाप करते हैं, वे हमारे भाई-बहन नहीं, बल्कि शैतान के सेवक हैं, बुरे लोग हैं। इन्हें बेपर्दा और पहचान करके कलीसिया से दूर करने की जरूरत है। सिर्फ यही परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। यह समझने के बाद मैं हिचकिचाया नहीं। पहले भेजे जा चुके कागजात और ठीक से दुबारा याद करके मैंने उसके बुरे कार्यों का ब्योरा तैयार किया। अपना जवाब भेजने के बाद मैंने खुद को शांत और सहज पाया। आखिरकार, मैं नेकी का कर्ज उतारने के विचार के दबावों से मुक्त हो गया और मेरे दिल को चैन मिल गया।