49. अपनी गलतियाँ स्वीकारना इतना मुश्किल क्यों है?
मैं अपनी कलीसिया में वीडियो कार्य के लिए जिम्मेदार हूँ। एक दिन मेरी एक बहन ने जल्दबाजी में मुझे फोन किया। उसने एक वीडियो ठीक से जांचा नहीं था, अब उस पर फिर से काम करना था, जिससे देरी हो गई थी, श्रम और संसाधनों का खर्च भी बढ़ गया था। उस वीडियो का नाम सुनकर एहसास हुआ कि उसकी जांच में तो मैंने भी मदद की थी, मगर मुझे भी कोई गलती नहीं दिखी थी। फोन सुनते ही मैं यह पता लगाने भागी कि आखिर बात क्या है, पता चला कि वीडियो का नाम ही गलत लिखा गया था। बेशक, काम की गलतियों के बारे में अगुआ को रिपोर्ट करनी चाहिए या उसे उजागर किया जाना चाहिए ताकि आगे ऐसी समस्याएं न हों। मगर फिर मैं हिचकी : “मैंने ऐसी बुनियादी गलती कर दी है। इसके बाद अगुआ मुझे कैसी नजर से देखेगा? क्या उसे लगेगा कि मैं काम में गंभीर या भरोसेमंद नहीं हूँ? ऐसा हुआ तो मैं प्रभारी का अपना ओहदा गँवा दूंगी।” फिर सोचा कि कैसे मैं हमेशा भाई-बहनों को वीडियो बनाने के काम में पूरा ध्यान रखने के महत्व पर जोर देती थी। अगर सबको मेरी यह गलती पता चल गई, तो क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि मैं प्रभारी बनने लायक नहीं हूँ? फिर मेरी क्या इज्जत रह जाएगी? इसलिए मैं दूसरों को अपनी गलती बताना नहीं चाहती मैंने बहाने ढूंढे, “हमने जानबूझकर अनमनापन नहीं दिखाया। जो कुछ जाँचना जरूरी था हमने जाँचा। मैंने ऐसे विशेष हालात की अपेक्षा नहीं की थी। जो नुकसान हो चुका उसे पलटा तो नहीं जा सकता, लेकिन आगे से सतर्क रहने पर सब ठीक रहेगा। और सिर्फ मैंने ही तो इस वीडियो को नहीं जाँचा था। अगर सबको सच पता चल गया, तब भी दोष सिर्फ मेरा तो नहीं होगा। बात यहीं खत्म हो सकती है। जो लोग शामिल हैं उन्हें ही पता चलेगा और इतना काफी है।” इसलिए, मैंने अगुआ को या समूह के अन्य भाई-बहनों को कुछ नहीं बताया। भले ही थोड़ा असहज लगा और जानती थी कि मैं जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही हूँ, मगर जब सोचा कि इस गलती को मानने का मेरी इज्जत और ओहदे पर क्या असर पड़ेगा, तो मैं अड़ियल बनते हुए काम में लग गई मानो कुछ हुआ ही न हो।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचन में यह पढ़ा : “भ्रष्ट मनुष्य छद्मवेश धारण करने में कुशल होते हैं। चाहे वे कुछ भी करें या किसी भी तरह की भ्रष्टता प्रकट करें, वे हमेशा छद्मवेश धारण करते ही हैं। अगर कुछ गलत हो जाता है या वे कुछ गलत करते हैं, तो वे दूसरों पर दोष मढ़ना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि अच्छी चीजों का श्रेय उन्हें मिले और बुरी चीजों के लिए दूसरों को दोष दिया जाए। क्या वास्तविक जीवन में इस तरह का छद्मवेश बहुत अधिक धारण नहीं किया जाता? ऐसा बहुत होता है। गलतियाँ करना या छद्मवेश धारण करना : इनमें से कौन-सी चीज स्वभाव से संबंधित है? छद्मवेश धारण करना स्वभाव का मामला है, इसमें अहंकारी स्वभाव, दुष्टता और धूर्तता शामिल होती है; परमेश्वर इससे विशेष रूप से घृणा करता है। वास्तव में, जब तुम छद्मवेश धारण करते हो, तो हर कोई समझता है कि क्या हो रहा है, लेकिन तुम्हें लगता है कि दूसरे इसे नहीं देखते, और तुम अपनी इज्जत बचाने और इस प्रयास में कि दूसरे सोचें कि तुमने कुछ गलत नहीं किया, बहस करने और खुद को सही ठहराने की पूरी कोशिश करते हो। क्या यह बेवकूफी नहीं है? दूसरे इस बारे में क्या सोचते हैं? वे कैसा महसूस करते हैं? ऊब और घृणा। यदि कोई गलती करने के बाद तुम उसे सही तरह से ले सको, और अन्य सभी को उसके बारे में बात करने दे सको, उस पर टिप्पणी और विचार करने दे सको, और उसके बारे में खुलकर बात कर सको और उसका गहन-विश्लेषण कर सको, तो तुम्हारे बारे में सभी की राय क्या होगी? वे कहेंगे कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो, क्योंकि तुम्हारा दिल परमेश्वर के प्रति खुला है। तुम्हारे कार्यों और व्यवहार के माध्यम से वे तुम्हारे दिल को देख पाएँगे। लेकिन अगर तुम खुद को छिपाने और हर किसी को धोखा देने की कोशिश करते हो, तो लोग तुम्हें तुच्छ समझेंगे और कहेंगे कि तुम मूर्ख और नासमझ व्यक्ति हो। यदि तुम ढोंग करने या खुद को सही ठहराने की कोशिश न करो, यदि तुम अपनी गलतियाँ स्वीकार सको, तो सभी लोग कहेंगे कि तुम ईमानदार और बुद्धिमान हो। और तुम्हें बुद्धिमान क्या चीज बनाती है? सब लोग गलतियाँ करते हैं। सबमें दोष और कमजोरियाँ होती हैं। और वास्तव में, सभी में वही भ्रष्ट स्वभाव होता है। अपने आप को दूसरों से अधिक महान, परिपूर्ण और दयालु मत समझो; यह एकदम अनुचित है। जब तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और सार, और उनकी भ्रष्टता के असली चेहरे को पहचान जाते हो, तब तुम अपनी गलतियाँ छिपाने की कोशिश नहीं करते, न ही तुम दूसरों की गलतियों के करण उनके बारे में गलत धारणा बनाते हो—तुम दोनों का सही ढंग से सामना करते हो। तभी तुम समझदार बनोगे और मूर्खतापूर्ण काम नहीं करोगे, और यह बात तुम्हें बुद्धिमान बना देगी। जो लोग बुद्धिमान नहीं हैं, वे मूर्ख होते हैं, और वे हमेशा पर्दे के पीछे चोरी-छिपे अपनी छोटी-छोटी गलतियों पर देर तक बात किया करते हैं। यह देखना घृणास्पद है। वास्तव में, तुम जो कुछ भी करते हो, वह दूसरों पर तुरंत जाहिर हो जाता है, फिर भी तुम खुल्लम-खुल्ला वह करते रहते हो। लोगों को यह मसखरों जैसा प्रदर्शन लगता है। क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है? यह सच में मूर्खतापूर्ण ही है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों से एहसास हुआ कि बहाने बनाना, लीपापोती करना और अपनी गलती न स्वीकारना सामान्य-सी गलती करने से कहीं अधिक गंभीर है। वे कपटी और धूर्त हैं! इसके उलट, जब लोग खुद को खोलकर अपनी गलती की जिम्मेदारी लेते हैं, तो दूसरे उन्हें नीची नजरों से नहीं देखते, बल्कि सरलता से और खुलकर सच बोलने के लिए उनका सम्मान करते हैं। हम सब कभी-न-कभी गलतियाँ करते हैं। परमेश्वर लोगों की गलतियों के लिए यूं ही उनकी निंदा नहीं करता, वह देखता है कि वे सच्चे मन से पश्चात्ताप करते हैं या नहीं। मगर मैं यह समझ नहीं पाई। मैंने सोचा कि गलतियाँ करना शर्मनाक है, खासकर सुपरवाइजर होने के नाते, अगर मैंने बुनियादी गलतियाँ कीं, तो लोग मुझे नीची नजर से देखेंगे। वे सोचेंगे कि मैं भाई-बहनों से बेहतर नहीं हूँ, और मुझे बदला भी जा सकता है। इसलिए मेरे जाँचे वीडियो में गलती मिलने पर, मुझे खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं हुई, मैं लीपापोती करती रही। जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने के लिए मैंने ऐसा दिखाया मानो कुछ हुआ ही न हो, और मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। यह सोचकर अपराध-बोध हुआ, पर मैं अभी भी सबको सच बताने को तैयार नहीं थी। कितनी बड़ी धूर्तता थी! मैंने साफ तौर पर कलीसिया के काम को नुकसान पहुंचाया, पर कुछ न बोलकर, अपनी गलती पर परदा डालने की कोशिश की। मैंने अगुआ और भाई-बहनों को सिर्फ अपना अच्छा पहलू दिखाया, अपनी गलती नहीं देखने दी। इस तरह, हर कोई सोचेगा मैं अपने काम में गंभीर और व्यावहारिक हूँ। ऐसा करके मैं अपनी छवि और सुपरवाइजर का ओहदा कायम रखूँगी। यह मेरा बेहद घिनौना बर्ताव था! मुझे डर था कहीं लोगों को मेरी गलती न पता चल जाए, इसलिए खुद को छिपाने की भरसक कोशिश की। मैंने अपने गंदे पहलू को ढककर लोगों से छल किया और सच छिपाया। मैं चरित्र या गरिमा के बिना जी रही थी। मैं अपनी गलती पर परदा डालती और लोगों से छल करती नहीं रह सकती थी। इसलिए, मैंने इस स्थिति के बारे में अगुआ को लिखकर बताया और सबके साथ अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात की। मैंने उन्हें सच बताया, ताकि वे मेरी मिसाल से सीख सकें। ऐसा करके मुझे थोड़ा सुकून मिला।
बाद में, जब मैंने अपने काम की सूची के बारे में बताया, तो पता चला कि शायद एक और वीडियो दो-दो बार बन गया था। मुझे यकीन ही नहीं हुआ। मैं किसे कौन-सा काम सौंप रही हूँ, इसका हिसाब रखती थी, फिर एक और गलती कैसे हो सकती थी? मगर जाँचने पर पता चला, वीडियो सच में दो बार बनाया गया था। उस वक्त मुझे काठ मार गया : बहुत बुरी बात थी। मैंने अगुआ के सामने अपनी गलती स्वीकार ली, और वह स्थिति को अच्छे से समझ पाता, इससे पहले ही मैंने फिर से गड़बड़ कर दी। वह मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या उसे लगेगा कि मैं लगातार गलतियाँ कर रही हूँ, और प्रभारी बनने लायक नहीं हूँ? और अगर भाई-बहनों को पता चला, तो क्या वे सोचेंगे कि मैं भरोसे के लायक नहीं हूँ और र ऐसी बुनियादी गलतियाँ करती रहती हूँ? अगली बार जब मैं काम में गंभीर और जिम्मेदार होने के बारे में संगति करूंगी, तब भी क्या वे इसे गंभीरता से लेंगे? नहीं, मुझे पता लगाना ही होगा कि इस गलती की वजह क्या थी, मुझे उम्मीद थी कि मैं इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार नहीं थी। अगर मेरा कुछ दोष होगा भी तो वह बहुत मामूली-सा होगा। इस तरह, मेरी छवि खराब नहीं होगी और मेरा रुतबा बचा रहेगा। आखिर, सावधानी से छानबीन करने पर पता चला कि काम सौंपने के बाद मैं उस बारे में सिर्फ पुरानी कार्यसूची में लिखती थी, जिससे समूह अगुआ को इसका पता नहीं चला और उसने वह काम किसी और को सौंप दिया। बेशक—मैं ही मुख्य रूप से जिम्मेदार थी। यह एहसास होने पर मैं सन्न रह गई। मैं इतनी बदकिस्मत कैसे हो सकती हूँ? मैं इन समस्याओं में उलझ गई जो होनी ही नहीं चाहिए थी। किस्मत ही खराब थी! मैं एकदम हक्का-बक्का रह गई। इस गलती के बारे में अगुआ को बताऊँ या नहीं? अगर सब जान गए कि मैंने लगातार दो बुनियादी गलतियाँ की हैं, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मैं अगुआ को सच बताना नहीं चाहती थी। लेकिन मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया, जो छिपाव के बारे में बात करते हैं कि झूठ और कपट कैसे सामान्य गलतियों से कहीं अधिक गंभीर हैं, परमेश्वर को इन चीजों से बहुत नफरत है। मैं बहुत डर गई। मुझे कड़वा घूँट पीकर अगुआ को इस गलती के बारे में बताना होगा, मगर मेरा डर खत्म नहीं हुआ। मैं आशंकाओं से भर गई। दिल भारी हो गया, मानो उस पर कोई भारी पत्थर रख दिया हो। काम करते हुए ध्यान भटकने लगा और रातों की नींद उड़ गई। मैं जानती थी कि यह स्थिति ठीक नहीं है, इसलिए परमेश्वर से प्रार्थना कर खुद को जानने में प्रबुद्धता और मार्गदर्शन माँगा।
बाद में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर मैंने अपनी हालत समझी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कोई मसीह-विरोधी चाहे कितने भी और किसी भी तरह के गलत काम करे, चाहे वह गबन करना हो, अपव्यय करना हो, परमेश्वर की भेंटों का दुरुपयोग करना हो, या चाहे वह कलीसिया के काम को बाधित कर रहा और बिगाड़ रहा हो और उसमें भारी गड़बड़ी करके परमेश्वर का क्रोध भड़का रहा हो, वह हमेशा शांत, संयमित और पूरी तरह से बेफिक्र रहता है। मसीह-विरोधी चाहे किसी भी तरह की बुराई करे या उसके जो भी परिणाम हों, वह अपने पाप स्वीकारने और पश्चात्ताप करने के लिए कभी यथाशीघ्र परमेश्वर के सामने नहीं आता या वह कभी अपनी गलतियाँ मानने, अपने अपराध जानने और अपनी भ्रष्टता पहचानने और अपने बुरे कर्मों पर पछतावा करने के लिए खुद को उजागर करने और अपना दिल खोलने के रवैये के साथ भाई-बहनों के सामने नहीं आता। इसके बजाय, वह जिम्मेदारी से बचने के लिए तमाम बहाने खोजने को अपना दिमाग चलाता है और अपनी इज्जत और हैसियत बहाल करने के लिए दोष दूसरों पर मढ़ देता है। वह कलीसिया के काम की नहीं, बल्कि इस बात की परवाह करता है कि उसकी प्रतिष्ठा और हैसियत किसी भी तरह से क्षतिग्रस्त या प्रभावित तो नहीं हो रही। वह अपने अपराधों के कारण परमेश्वर के घर को हुए नुकसान पर विचार नहीं करता या इसकी भरपाई करने के तरीकों के बारे में नहीं सोचता और न ही वह परमेश्वर का ऋण चुकाने का प्रयास करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि वह कभी यह स्वीकार नहीं करता कि वह कुछ गलत कर सकता है या उससे कोई भूल हो गई है। मसीह-विरोधियों के दिलों में, सक्रिय रूप से गलतियाँ स्वीकार करना और तथ्यों का ईमानदार लेखा-जोखा देना अक्षमता और मूर्खता है। अगर उनके बुरे कर्मों का पता चल जाता है और उनका पर्दाफाश हो जाता है, तो मसीह-विरोधी केवल असावधानी से हुई कोई क्षणिक गलती ही स्वीकार करेंगे, कर्तव्य में अपनी चूक और गैर-जिम्मेदारी कभी स्वीकार नहीं करेंगेऔर वे अपने ऊपर से दाग हटाने के लिए जिम्मेदारी किसी और पर डालने का प्रयास करेंगे। ऐसे समय, मसीह-विरोधी इस बात की चिंता नहीं करते कि परमेश्वर के घर को हुए नुकसान की भरपाई कैसे करें, खुलकर बात कैसे करें, अपनी गलतियों को कैसे स्वीकार करें या परमेश्वर के चुने हुए लोगों को इसका हिसाब कैसे दें। वे ऐसे तरीके खोजने में लगे रहते हैं जिससे बड़ी समस्याओं को छोटी दिखा सकें और छोटी समस्याओं को ऐसे दिखा सकें जैसे वे कोई समस्या ही न हों। वे दूसरों को समझाने और उनकी सहानुभूति पाने के लिए वस्तुनिष्ठ कारण देते हैं। वे दूसरे लोगों के मन में अपनी प्रतिष्ठा बहाल करने, खुद पर अपने अपराधों के पड़ने वाले अत्यंत नकारात्मक प्रभाव को कम से कम करने और यह सुनिश्चित करने की भरसक कोशिश करते हैं कि ऊपरवाले पर उनके बारे में कोई गलत प्रभाव न पड़े और ऊपरवाला कभी भी उन्हें जवाबदेह न ठहराए, उन्हें बर्खास्त न करे, स्थिति की जाँच न करे या उनसे निपट न ले। अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत बहाल करने के लिए, ताकि उनके हितों को नुकसान न पहुँचे, मसीह-विरोधी कितनी भी पीड़ा सहने के लिए तैयार रहते हैं और वे कोई भी कठिनाई हल करने के लिए हर संभव तरीका सोचते हैं। अपने अपराध या गलती की शुरुआत से ही मसीह-विरोधियों का कभी भी अपने द्वारा किए गए गलत कामों की जिम्मेदारी लेने का कोई इरादा नहीं होता, अपने गलत कामों के पीछे के उद्देश्य, इरादे और भ्रष्ट स्वभाव को स्वीकार करने, उनके बारे में संगति करने, उन्हें उजागर करने या उनका विश्लेषण करने का उनका कोई इरादा नहीं होता और स्वयं द्वारा कलीसिया के काम को पहुँचाई गई क्षति और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को पहुँचाए गए नुकसान की भरपाई करने का उनका कोई इरादा तो निश्चित रूप से नहीं होता। इसलिए, चाहे तुम इस मामले को किसी भी दृष्टिकोण से देखो, मसीह-विरोधी वे लोग होते हैं, जो हठपूर्वक अपने गलत कार्यों को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं और पश्चाताप करने की अपेक्षा मरना पसंद करते हैं। छुटकारे की आशा से रहित, मसीह-विरोधी बेशर्म और मोटी चमड़ी वाले होते हैं और वे जीवित शैतानों से कम नहीं होते” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद ग्यारह)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मसीह-विरोधी खासकर अपनी इज्जत और रुतबे को अहमियत देते हैं। वे अपने काम में चाहे जितनी भी गलतियाँ या चूक करें, या कलीसिया के काम को बड़ा नुकसान पहुंचाएं, वे कभी गलती नहीं मानेंगे। वे डरते हैं कि लोग उनकी कमियाँ जान जाएंगे और उन्हें नीची नजर से देखेंगे। इसलिए, ऐसी किसी गलती का एहसास होने पर, जो उन्हें नीचा दिखाएगी, वे परेशान हो जाते हैं, उनका खाना या सोना भी मुश्किल हो जाता है। वे अपनी गलतियों को छिपाने और अपनी इज्जत वापस पाने के तरीके ढूँढने में दिमाग लड़ाते हैं। मेरा व्यवहार भी ऐसा ही था। मैं अपनी इज्जत और रुतबे को इतना अहम मानती थी कि काम में कोई समस्या दिखने पर मुझे अपनी चूक के लिए कोई पछतावा नहीं होता था। आगे ऐसी गलती से बचने के लिए जो कुछ हुआ उस पर विचार नहीं करती थी। मैं सिर्फ यह सोचती थी कि जब लोगों को मेरी इन बुनियादी गलतियों का पता चलेगा तो वे क्या सोचेंगे, क्या वे मुझे नीची नजर से देखेंगे या सोचेंगे कि मैं इस काम के लायक ही नहीं। अपनी इज्जत और रुतबा कायम रखने की चिंता में, मैं दिन भर बेचैन रहती, यहाँ तक कि सो भी नहीं पाती। मैं सिर्फ अपनी गलती छिपाने और लोगों की नजर से बचने के तरीके सोचती रहती थी। मैं अपनी जिम्मेदारी से बचना, अपनी गलतियाँ छिपाना, और दूसरों को इसका पता नहीं चलने देना चाहती थी। मैं आगे बढ़कर अपनी गलती नहीं स्वीकारना चाहती थी। मैं बहुत धूर्त थी, मुझमें चरित्र या गरिमा नहीं थी! असल में, एक प्रभारी के तौर पर, मैं उन तरीकों से अच्छी तरह वाकिफ थी। बेशक मुख्य रूप से मैं ही जिम्मेदार थी। फिर भी उम्मीद करती थी कि इससे बच निकलूँगी और सारा दोष औरों पर लगा दूँगी। अंत में, यह एहसास होने पर कि मैं अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती, खुद को पीड़िता की तरह दिखाकर इसे अपनी बदकिस्मती बताने लगी। आत्मचिंतन नहीं किया। बस अपनी बदकिस्मती का रोना रोती रही। मैंने अपनी गलतियों पर पर्दा डाला और अपना रुतबा बचाने के लिए छल किया। यह मसीह-विरोधी व्यवहार था। यह एहसास होने पर मैं डर गई। मैं जानती थी, इस तरह बिना पश्चात्ताप किये काम करते रहना कितना खतरनाक था, जैसे कोई मसीह-विरोधी करता है!
मुझे यह भी एहसास हुआ कि मैं इतनी अड़ियल क्यों थी और अपनी गलती क्यों नहीं स्वीकारना चाहती थी, दरअसल प्रभारी होने के नाते मैं अपने ओहदे से बंधी और बेब थी, जिसके कारण अपनी गलतियाँ ठीक से समझ नहीं पाई। फिर मुझे इससे जुड़े परमेश्वर के कुछ वचन मिले। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “एक साधारण और सामान्य इंसान बनने के लिए तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? यह कैसे किया जा सकता है? ... पहली बात, खुद को यह कहते हुए कोई उपाधि देकर उससे बँधे मत रहो, ‘मैं अगुआ हूँ, मैं टीम का मुखिया हूँ, मैं निरीक्षक हूँ, इस काम को मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता, मुझसे ज्यादा इन कौशलों को कोई नहीं समझता।’ अपनी स्व-प्रदत्त उपाधि के फेर में मत पड़ो। जैसे ही तुम ऐसा करते हो, वह तुम्हारे हाथ-पैर बाँध देगी, और तुम जो कहते और करते हो, वह प्रभावित होगा। तुम्हारी सामान्य सोच और निर्णय भी प्रभावित होंगे। तुम्हें इस रुतबे की बेबसी से खुद को आजाद करना होगा। पहली बात, खुद को इस आधिकारिक उपाधि और पद से नीचे ले आओ और एक आम इंसान की जगह खड़े हो जाओ। अगर तुम ऐसा करते हो, तो तुम्हारी मानसिकता कुछ हद तक सामान्य हो जाएगी। तुम्हें यह भी स्वीकार करना और कहना चाहिए, ‘मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मुझे वह भी समझ नहीं आया—मुझे कुछ शोध और अध्ययन करना होगा,’ या ‘मैंने कभी इसका अनुभव नहीं किया है, इसलिए मुझे नहीं पता कि क्या करना है।’ जब तुम वास्तव में जो सोचते हो, उसे कहने और ईमानदारी से बोलने में सक्षम होते हो, तो तुम सामान्य विवेक से युक्त हो जाओगे। दूसरों को तुम्हारा वास्तविक स्वरूप पता चल जाएगा, और इस प्रकार वे तुम्हारे बारे में एक सामान्य दृष्टिकोण रखेंगे, और तुम्हें कोई दिखावा नहीं करना पड़ेगा, न ही तुम पर कोई बड़ा दबाव होगा, इसलिए तुम लोगों के साथ सामान्य रूप से संवाद कर पाओगे। इस तरह जीना निर्बाध और आसान है; जिसे भी जीवन थका देने वाला लगता है, उसने उसे ऐसा खुद बनाया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। “जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए उन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में उन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही अगुआ के रूप में मानक स्तर का है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआई का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। ज्यादातर लोगों को इन चीजों को स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते, और अपनी कल्पनाओं के आधार पर वे इन पदोन्नत लोगों का सम्मान करते हैं, पर यह एक भूल है। जिन्हें उन्नत किया जाता है, उन्होंने चाहे कितने ही वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा हो, क्या उनके पास वास्तव में सत्य वास्तविकता होती है? ऐसा जरूरी नहीं है। क्या वे परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाएँ लागू करने में सक्षम हैं? अनिवार्य रूप से नहीं। क्या उनमें जिम्मेदारी की भावना है? क्या वे निष्ठावान हैं? क्या वे समर्पण करने में सक्षम हैं? जब उनके सामने कोई समस्या आती है, तो क्या वे सत्य की खोज करने योग्य हैं? यह सब अज्ञात है। क्या इन लोगों के अंदर परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय हैं? और परमेश्वर का भय मानने वाले उनके हृदय कितने विशाल हैं? क्या काम करते समय वे अपनी इच्छा का पालन करना टाल पाते हैं? क्या वे परमेश्वर की खोज करने में समर्थ हैं? अगुआई का कार्य करने के दौरान क्या वे अक्सर परमेश्वर के इरादों की तलाश में परमेश्वर के सामने आने में सक्षम हैं? क्या वे लोगों के सत्य वास्तविकता में प्रवेश की अगुआई करने में सक्षम हैं? निश्चय ही वे ऐसी चीजें कर पाने में अक्षम होते हैं। उन्हें प्रशिक्षण नहीं मिला है और उनके पास पर्याप्त अनुभव भी नहीं है, इसलिए वे ये चीजें नहीं कर पाते। इसीलिए, किसी को उन्नत और विकसित करने का यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही सत्य को समझता है, और न ही इसका अर्थ यह है कि वह पहले से ही अपना कर्तव्य एक मानक तरीके से करने में सक्षम है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (5))। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि अगुआ या प्रभारी होने का सीधा-सीधा अर्थ यह नहीं होता कि तुम दूसरों के मुकाबले अधिक योग्य, ऊँचे और उनसे बेहतर हो। यह अपना कौशल निखारने और काम करके सीखने का मौका है। प्रशिक्षण से लोगों का भ्रष्ट स्वभाव उजागर होता है; कमियाँ और नाकामियाँ होना स्वाभाविक है। यह बिल्कुल सामान्य है। लेकिन जब मैंने खुद को प्रभारी के ओहदे पर रखकर देखा, तो लगा मुझे दूसरों से बेहतर होना चाहिए, उनकी तरह गलतियाँ नहीं दोहरानी चाहिए, या उनकी जैसी भ्रष्टता नहीं दिखानी चाहिए। इसलिए, कोई गलती करने पर, उसे स्वीकारना नहीं चाहती थी। बस बहाने बनाती और लीपापोती करती रहती थी। मैं हर वक्त चिंता में रहती थी, जीना मुश्किल और थकाऊ होता था, सिर्फ इसलिए कि मैं अपनी इज्जत और रुतबे को अहमियत देती थी। मुझे यह भी एहसास हुआ कि गलतियाँ करना और शर्मिंदगी उठाना असल में बुरी चीजें नहीं हैं। जैसे कि परमेश्वर के वचन कहते हैं : “नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना अच्छी बात है। यह तुम्हें अपनी कमियाँ समझने, और अभिमान के प्रति अपना प्रेम देखने में तुम्हारी सहायता करता है। यह तुम्हें दिखाता है कि तुम्हारी समस्याएँ कहाँ हैं और स्पष्ट रूप से यह समझने में मदद करता है कि तुम एक पूर्ण व्यक्ति नहीं हो। कोई भी पूर्ण व्यक्ति नहीं होता और नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना बहुत सामान्य है। सभी लोगों के सामने ऐसा समय आता है, जब वे नादानी करके हँसी का पात्र बनते हैं या शर्मिंदा होते हैं। सभी लोग असफल होते हैं, विफलताएँ अनुभव करते हैं और सभी में कमजोरियाँ होती हैं। नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना बुरा नहीं है। जब तुम ऐसा करते हो लेकिन शर्मिंदा या भीतर गहराई में अवसाद-ग्रस्त महसूस नहीं करते, तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम चिकने घड़े हो; इसका मतलब यह है कि तुम इस बात की परवाह नहीं करते कि हँसी का पात्र बनने से तुम्हारी प्रतिष्ठा प्रभावित होगी या नहीं और इसका मतलब है कि तुम्हारा घमंड अब तुम्हारे विचारों पर हावी नहीं है। इसका मतलब है कि तुम अपनी मानवता में परिपक्व हो गए हो। यह अद्भुत है! क्या यह अच्छी बात नहीं है? यह एक अच्छी बात है। यह न सोचो कि तुमने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है या तुम्हारा भाग्य खराब है, और इसके पीछे वस्तुगत कारणों की तलाश न करो। यह सामान्य है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। लगातार गलतियाँ करने और उन्हें छिपाने की नापाक कोशिशों के बाद, आखिर मुझे खुद की थोड़ी समझ हुई। मैंने देखा कि मैं भाई-बहनों से कोई बेहतर नहीं थी। मैंने लापरवाही से काम किया, अपनी इज्जत और रुतबे की बहुत अधिक परवाह की। अपनी गलती के बारे में खुलकर बोलने की हिम्मत तक नहीं की। मैं लीपापोती कर सभी को धोखा देना चाहती थी। मैं एक धोखेबाज पाखंडी थी। दरअसल, काम में समस्याओं से सामना होना बुरी बात नहीं है। अगर तुम सच्चे और ईमानदार हो, शांत होकर अपनी गलतियों का सामना करते हुए उन पर सोच-विचार कर सकते हो, तो आगे ऐसी गलतियाँ करने से बच सकते हो, और कुछ हासिल कर सकते हो। यही रवैया और समझ लोगों में होना जरूरी है। अब परमेश्वर का इरादा समझने के बाद, मुझे कोई परवाह नहीं कि लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मैं पहले ही काम बिगाड़ चुकी हूँ। मुझे इन गलतियों की असली वजह जाननी होगी, ताकि उन्हें दोहराने से बच सकूं।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “जब व्यक्ति गंभीर हो सकता है, जिम्मेदारी ले सकता है, और अपना पूरा तन-मन दे सकता है, तो काम सही तरीके से पूरा किया जाएगा। कभी-कभी तुम्हारी मनःस्थिति सही नहीं होती, और साफ-साफ नजर आने वाली गलती भी ढूँढ़ या पकड़ नहीं पाते। अगर तुम्हारी मनःस्थिति ठीक होती, तो पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन से तुम वह समस्या पहचानने में सक्षम होते। अगर पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन करे और तुम्हें जागरूकता दे, दिल में स्पष्टता महसूस करने दे और जानने दे कि गलती कहाँ है, तो तब तुम भटकाव दूर करने और सत्य सिद्धांतों के लिए प्रयास करने में सक्षम होगे। अगर तुम्हारी मनःस्थिति सही न हो पाए, और तुम लोग अन्यमनस्क और लापरवाह रहो, तो क्या तुम गलती देख पाओगे? तुम नहीं देख पाओगे। इससे क्या पता चलता है? यह दिखाता है कि अपने कर्तव्य सही तरह से निभाने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि लोग सहयोग करें; उनकी मानसिक स्थिति बहुत महत्वपूर्ण है, और वे अपनी सोच और विचारों को कहाँ लगाते हैं, वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर इसकी जाँच करता है और यह देख सकता है कि अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय, लोग किस मनोदशा में होते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि अपने कार्य करते समय लोग उसमें अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति का प्रयोग करें। उनका सहयोग काफी महत्वपूर्ण घटक होता है। यदि लोग प्रयास करें कि वे जिन कर्तव्यों का निर्वहन कर चुके हैं और जो चीजें कर चुके हैं, उन्हें लेकर उनमें कोई अफसोस न रहे और वे परमेश्वर के प्रति कर्जदार न रहें, केवल तभी वे अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति से कार्य कर पाएँगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन कहते हैं कि जब किसी की मानसिकता गलत होती है, और वे अपने काम में बेपरवाह और ढीले होते हैं, वे अपनी आँखों के सामने हो रहीं गलतियाँ भी नहीं देख पाते। मेरी हालत वैसी ही थी जैसा परमेश्वर कहता है। ये दोनों गलतियाँ मेरी नजरों के सामने थीं—अगर मैं थोड़ा और ध्यान देती, तो आसानी से उन्हें पकड़ लेती। मगर मैंने ध्यान ही नहीं दिया। एक वीडियो पर दोबारा काम करना था और दूसरा दो बार बन गया था, जो श्रम और संसाधनों का दुरुपयोग था। दरअसल, यह सब उस वक्त की मेरी मानसिकता के कारण हुआ। मैं सोचती थी मुझे इस काम में महारत है, काम का बँटवारा तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है, इसलिए पहले जैसी सतर्क नहीं रही। मैं अहंकारी और लापरवाह थी। खासकर शुरुआती जांचों के मामले में, मुझे लगा यह चुटकियों का खेल है, मानो पिछले अनुभव के आधार पर बस इधर-उधर देख लेना काफी था। मैंने काम पर ध्यान ही नहीं दिया, सावधानी से जांच तक नहीं की, और आखिर में ऐसी बुनियादी गलतियाँ कर बैठी। इन सबकी वजह यही थी कि मैं अहंकारी स्वभाव में जी रही थी, अपने काम में लापरवाह थी। बाद में, मैंने अपने काम में हुई गलतियों के बारे में भाई-बहनों को खुलकर बताया। काम की समस्याओं का सारांश तैयार कर कुछ मानक सुझाये ताकि आगे ऐसी समस्याओं को रोकने में मदद मिले। ऐसा करके मेरे मन को थोड़ा सुकून मिला।
जल्दी ही, मैं एक नए प्रोजेक्ट की प्रभारी बन गई। चूंकि मैंने इस तरह का वीडियो कभी नहीं बनाया था, मुझे इसकी बारीकियों की समझ नहीं थी, इसलिए वीडियो बनाने के दौरान कुछ समस्याएं आईं। भले ही कई बार चिंता हुई कि लोग क्या सोचेंगे, मैंने अपने अहंकार और रुतबे से बेबस हुए बिना, उन समस्याओं को सही सोच के साथ देखा। हर गलती के बारे में लिखा और भटकावों का सारांश तैयार किया, ताकि ऐसा रास्ता खोजा जा सके जिससे दोबारा यह गलती न दोहराई जाए। ऐसा करने पर, मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन मिला, कलीसिया को कोई नुकसान पहुंचे, इससे पहले ही बहुत-सी समस्याएं पकड़ में आ गईं और उन्हें ठीक भी किया। इस अनुभव से मैंने सीखा कि सही मानसिकता होना और पूरी लगन से अपना कर्तव्य करने पर परमेश्वर का मार्गदर्शन और संरक्षण मिलता है। साथ ही, मैंने यह भी सीखा कि गलतियों या नाकामियों के कारण शर्मिंदा होना कोई बुरी बात नहीं है। इससे मुझे अपनी कमियाँ और भ्रष्टता जानने, अपने अहंकार को किनारे कर ठीक से पेश आने में मदद मिली। परमेश्वर का धन्यवाद!