13. लापरवाही बरतने से मुझे कैसे पहुँचा नुकसान
अक्टूबर 2021 में मैंने नए सदस्यों का सिंचन करना शुरू किया। हफ्ते भर में ही मुझे एहसास हो गया, अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है। मुझे खुद को सभी तरह के सत्य सिद्धांतों से परिचित कराना था और उनकी विभिन्न समस्याएँ और कठिनाइयाँ हल करने के लिए सत्य पर संगति करने का अभ्यास भी करना था, मगर सत्य को लेकर मेरी समझ उथली थी और बातचीत करने में भी अच्छी नहीं थी। मुझे यह कर्तव्य वास्तव में बहुत ही मुश्किल लगा, खासकर जब टीम अगुआ चाहती थी कि मैं नए सदस्यों की समस्याएँ और कठिनाइयाँ जल्द से जल्द हल करूँ। सभी नए सदस्यों की बहुत-सी समस्याएँ थीं, इसलिए उन्हें हल करने के लिए मुझे बहुत-से प्रासंगिक सत्य खोजने थे और स्पष्ट संगति करने का तरीका खोजने की जरूरत थी। ऐसा करने के लिए मुझे कितनी कीमत चुकानी पड़ती? मैंने पाया कि यह सब हासिल करना वाकई मुश्किल था, तो मैंने टीम अगुआ से कहा कि मुझमें काबिलियत की कमी है, मैं इसे अच्छे से नहीं कर सकती। टीम अगुआ ने मेरे साथ संगति की, कहा कि मुझे अपने कर्तव्य का बोझ उठाना चाहिए और कष्ट उठाने से डरना नहीं चाहिए। उसकी संगति सुनकर मैंने न चाहते हुए भी हामी भर दी, पर मैं दिल से कीमत नहीं चुकाना चाहती थी। सभाओं में मैं हमेशा की तरह नए सदस्यों के साथ संगति करती रही और चूँकि मुझे उनके संघर्ष नहीं पता थे, मैं संगति में बस इधर-उधर की बातें करती जिससे कोई नतीजे नहीं मिले, जिससे नियमित रूप से सभा में आने वाले नए सदस्यों की संख्या कम होने लगी। जब टीम अगुआ को समस्या दिखी, तो उसने फौरन मुझसे उनकी मदद और समर्थन करने को कहा। मगर मैंने सोचा, “सुसमाचार फैलाने वालों ने परमेश्वर के कार्य के दर्शन के सत्य के बारे में पहले ही उनके साथ काफी संगति कर ली हैं, फिर भी वे अभी भी सभाओं में नहीं आ रहे। तो क्या मेरी संगति से कुछ हासिल होगा? इसके अतिरिक्त वे सभी नए सदस्य कुछ दिनों से सभाओं में नहीं आ रहे थे, तो उनके साथ संगति करने में यकीनन काफी वक्त लगेगा, जो बड़ा थकाऊ काम होगा।” यह सोचकर मैंने बस हाल-चाल जानने के लिए उन्हें कुछ संदेश भेज दिए, जिन लोगों ने जवाब नहीं दिया उनको हटा दिया और उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। जिन लोगों को ज्यादा समस्याएँ थीं, उनको मैंने अपनी संगति की सूची में सबसे आखिर में रखा या बहाने बनाकर सुसमाचार फैलाने वालों के हवाले कर दिया। जल्दी ही कुछ नए सदस्यों ने सभाओं में आना ही बंद कर दिया क्योंकि उनकी समस्याएँ लंबे समय से अनसुलझी थीं। जब भी मैं नए सदस्यों को सभाओं में न आते देखती तो मुझे अपराध-बोध होता और मैं परेशान हो जाती, सोचती कि उनकी समस्याएँ हल करने के लिए मुझे ज्यादा कीमत चुकानी चाहिए। मगर जब मैं सोचती कि इसमें कितनी परेशानी होगी तो मैं इसे अनदेखा कर देती थी।
मुझे एक नए सदस्य की याद है, जो पहले कैथलिक थी, जिसने अंत के दिनों में देहधारी परमेश्वर के प्रकट होने और कार्य करने को लेकर धारणाएँ विकसित कर लीं और सभाओं में आना बंद कर दिया। मैंने उसे कितने ही कॉल या मैसेज किए, पर उसने अनदेखा कर दिया। दो दिन बाद उसने मुझे यह संदेश भेजा : “मैं एक कैथलिक परिवार में पैदा हुई हूँ। बचपन से ही कैथलिक रही हूँ, अब तो 64 साल हो गए। मैं सिर्फ प्रभु यीशु में विश्वास करती हूँ—मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास नहीं करूँगी।” मैंने जवाब दिया : “सर्वशक्तिमान परमेश्वर लौटकर आया प्रभु यीशु है। बचाए जाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का एकमात्र तरीका अंत के दिनों में प्रभु के प्रकटन और कार्य को स्वीकारना है।” उसके बाद उसने जवाब नहीं दिया। मैंने उसे कुछ और बार पूछना चाहा पर फिर भी उसने मुझे अनदेखा कर दिया। तो मैंने इस समस्या का हल टीम अगुआ पर छोड़ दिया। अप्रत्याशित रूप से उसने इससे जुड़े परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश भेजे और समस्या का हल करने के लिए सत्य खोजने को कहा। यह देखकर कि मुझे बहुत सत्य से सुसज्जित होना था और नतीजे पाने के लिए संगति का तरीका जानने पर विचार करना था, यह सब बहुत थकाने वाला लगा। नई सदस्य मुझे जवाब नहीं दे रही थी, अगर मैं सब जानने-समझने में समय लगा भी दूँ तब भी शायद वह मेरी संगति न सुने, तो मैंने उसे किनारे करके अनदेखा कर दिया। एक और नई सदस्य हर रोज काम में बहुत व्यस्त रहती थी, मैं उसे सभाओं में बुलाती तो उसके पास कभी वक्त न होता। पहले-पहल तो मैं उसे रोज परमेश्वर के वचन और भजन भेजती थी, मगर हर बार बस उसका जवाब एक ही होता—“आमीन” और वह सभाओं में न आती। आखिरकार मैंने उसे परमेश्वर के वचन भेजना बंद कर दिया। मुझे लगा वह काम में बहुत व्यस्त है और यह उसकी वास्तविक स्थिति है और चाहे मैं कितना भी वक्त लगा लूँ, उसकी समस्या को हल नहीं कर सकती। असल में मैं जानती थी कि मुझे उसकी कठिनाइयाँ देखते हुए सभा का उपयुक्त समय तय करना चाहिए और फिर उसकी धारणाओं पर उसके साथ संगति के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रसांगिक अंश ढूँढ़ने चाहिए और नतीजे पाने का यही एकमात्र तरीका था। लेकिन मुझे लगा ऐसा करना बेहद मुश्किल और थकाऊ है, तो मैं यह कीमत नहीं चुकाना चाहती थी। हालाँकि अगर मैं उसके साथ संगति नहीं करती और अगुआ को पता चल जाता, तो वह वास्तविक कार्य न करने के लिए मेरी काट-छाँट करती। तो मुझे खुद को मजबूर करके नए सदस्य के साथ कई बार संगति करनी पड़ी और जब मैंने देखा कि वह तब भी सभाओं में नहीं आ रही है, तो मुझे लगा कि उसे सत्य की प्यास नहीं है, और मेरी तरफ से कोशिश में कोई कमी नहीं है। तो मैंने बस उस पर भी ध्यान देना बंद कर दिया। मैं हमेशा अपने कर्तव्यों में लापरवाह रही हूँ, सभी मुश्किलों से जी चुराती रही हूँ। नए सदस्यों की धारणाओं या वास्तविक मुश्किलों से सामना होने पर मैं उन्हें हल करने का तरीका सोचने की जहमत नहीं उठाती थी, मैं बस उन मुद्दों को टीम अगुआ के हवाले कर देती थी। कुछ महीने बाद गिने-चुने नए सदस्य ही सामान्य रूप से सभा में आ रहे थे। समस्या का पता चलने पर कलीसिया अगुआ ने मेरी काट-छाँट की और मुझे उजागर किया। उसने कहा कि मैं अपने कर्तव्य में बहुत अनमनी हूँ और बोला कि मुझे फौरन खुद को बदलना चाहिए। तो मैंने मैंने संकल्प लिया कि मैं देह के खिलाफ विद्रोह करूँगी और नए सदस्यों का अच्छे से सिंचन करूँगी। मगर बहुत-सी समस्याओं वाले नए सदस्यों से सामना हुआ तो मैं अभी भी उनकी समस्याएँ हल करने के लिए कीमत चुकाने को तैयार नहीं थी। इसके बजाय मैं बस बहाना ढूँढ़ती रही और कहा कि मुझमें काबिलियत नहीं है, मैं इस कर्तव्य के लायक नहीं हूँ। यह देखकर कि मैं लापरवाह बनी हूँ और मेरे कर्तव्य में कोई सुधार नहीं हो रहा था, अगुआ ने मेरी कठोरता से काट-छाँट की, कहा : “तुम अपने कर्तव्य में बहुत लापरवाह हो। तुम कभी भी नए सदस्यों की समस्याओं के बारे में नहीं पूछतीं, यहाँ तक कि उनके बारे में थोड़ा-बहुत जानने के बाद भी तुम उन्हें हल करने का प्रयास नहीं करतीं। यह कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? तुम बस नए सदस्यों का नुकसान कर रही हो। अगर तुम नहीं बदली, तो बरखास्त कर दी जाओगी!” ऐसे काट-छाँट होने और चेतावनी दिए जाने पर मुझे अपराध-बोध हुआ और डर भी लगा। मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया : मैं यह कर्तव्य अच्छे से क्यों नहीं निभा पाई, मुझे हमेशा यह बेहद मुश्किल क्यों लगा?
एक दिन अपनी भक्ति में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “कुछ लोग कर्तव्य निभाते हुए कोई सिद्धांत नहीं अपनाते। वे लगातार अपने रुझानों के अनुसार चलते हैं और मनमाने ढंग से काम करते हैं। क्या यह अनमनापन नहीं दिखाता है? क्या वे परमेश्वर को धोखा नहीं दे रहे हैं? क्या तुम लोगों ने कभी ऐसे व्यवहार के दुष्परिणाम सोचे हैं? तुम लोग अपने कर्तव्य निर्वाह के जरिये परमेश्वर के इरादों के प्रति कोई परवाह नहीं दिखाते हो। तुम हर काम विचारहीन और अप्रभावी ढंग से करते हो, इसे पूरी लगन और मेहनत से नहीं करते। क्या तुम इस तरह परमेश्वर की स्वीकृति पा लोगे? बहुत-से लोग अपना कर्तव्य अनिच्छा से निभाते हैं, और वे डटे नहीं रह पाते। वे थोड़ा-सा भी कष्ट नहीं उठा पाते, और हमेशा महसूस करते हैं कि कष्ट उठाने से उनका बड़ा नुकसान हुआ है, न वे कठिनाइयाँ हल करने के लिए सत्य खोजते हैं। क्या वे इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर अंत तक परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं? क्या वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें अनमना होना ठीक है? क्या अंतरात्मा को यह स्वीकार्य होगा? मनुष्य के मानदंड के अनुसार भी मापा जाए, तो ऐसा व्यवहार अस्वीकार्य है—तो क्या इसे संतोषजनक ढंग से कर्तव्य निभाना माना जा सकता है? अगर तुम इस तरह से अपना कर्तव्य निभाते हो, तो तुम कभी सत्य प्राप्त नहीं कर पाओगे। तुम्हारा श्रम संतोषजनक नहीं होगा। तो फिर, तुम परमेश्वर का अनुमोदन कैसे प्राप्त कर सकते हो? बहुत-से लोग अपना कर्तव्य निभाते समय कठिनाई से डरते हैं, वे बहुत आलसी होते हैं, वे दैहिक सुविधाओं के लिए लालायित रहते हैं। वे अपने कौशल में महारत हासिल करने का कभी कोई प्रयास नहीं करते, न ही वे परमेश्वर के वचनों के सत्यों पर विचार करने की कोशिश करते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह लापरवाही करके वे परेशानी से बच जाते हैं। उन्हें कुछ भी शोध करने या दूसरे लोगों से राय लेने की जरूरत नहीं है। उन्हें अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करने या गहराई से सोचने की जरूरत नहीं है। इससे लगता है कि वे बहुत सारी मेहनत और शारीरिक असुविधा से बच जाते हैं, और किसी तरह काम पूरा कर लेते हैं। और अगर तुम उनकी काट-छाँट करते हो, तो वे विद्रोही तेवर अपनाकर बहस करते हैं : ‘मैं आलसी या निठल्ला बनकर नहीं बैठा था, काम हो गया था—तुम इतनी मीन-मेख क्यों निकाल रहे हो? क्या तुम सिर्फ बाल की खाल नहीं निकाल रहे हो? मैं इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर पहले से ही अच्छा काम कर रहा हूँ। तुम संतुष्ट क्यों नहीं हो?’ क्या तुम लोग सोचते हो कि ऐसे लोग आगे कोई प्रगति कर सकते हैं? अपना कर्तव्य निभाते समय वे लगातार अनमने रहते हैं, और हमेशा बहाने पेश कर देते हैं। जब समस्याएँ आती हैं तो वे किसी को भी इन्हें बताने नहीं देते। यह कैसा स्वभाव है? क्या यह शैतान का स्वभाव नहीं है? क्या ऐसे स्वभाव के साथ लोग अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभा सकते हैं? क्या वे परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पूरे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने वाला ही परमेश्वर से प्रेम करने वाला व्यक्ति होता है)। परमेश्वर कई लोगों को उनके कर्तव्य में बेहद आलसी होने, हमेशा शारीरिक सुख-सुविधाओं की लालसा रखने, परिश्रम की कमी और व्यस्तता के दिखावे से संतुष्ट रहने को लेकर उजागर करता है। इस तरह वे अपना कर्तव्य अच्छे से नहीं निभा सकते। मुझे एहसास हुआ कि कर्तव्य में नतीजे हासिल न कर पाने की वजह मुझमें काबिलियत की कमी नहीं, बस मेरा आलसी होना और कष्ट उठाने से डरना था। मुझे लगता था कि नए सदस्यों के सिंचन में मुझे बहुत से सत्य जानने होंगे, उनकी विभिन्न समस्याएँ और कठिनाइयाँ हल करने का तरीका सीखना होगा, जो वास्तव में बड़ा ही थकाऊ कर्तव्य था, इसलिए मैं उसे उलझाए रही। टीम अगुआ चाहती थी कि मैं नए सदस्यों की समस्याएँ जितना जल्द हो दूर करूँ और कड़ी मेहनत से मैं ऐसा कर भी सकती थी। मगर जब देखा कि इसमें काफी वक्त लगेगा और मेहनत करनी होगी, तो मैंने इसे टीम अगुआ और सुसमाचार फैलाने वालों पर डाल दिया। मैं जानती थी नए सदस्यों के सभाओं में न आने की वजह उनकी धारणाएँ थीं या फिर वे मुश्किलों और समस्याओं का सामना कर रहे थे, फिर भी मैं उदासीन बनी रही। दूसरों ने समाधान के रास्ते बताए, तब भी मैंने प्रतिक्रिया नहीं दी। कभी-कभी मैं नए सदस्यों को परमेश्वर के वचन या भजन भेज देती थी पर कुछ दिन बाद खोज-खबर न लेती, उपेक्षा कर देती थी। मैंने देखा कि मैं वास्तव में आलसी और देह-सुख की लालची थी, अपने कर्तव्य के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं थी। मैं कलीसिया में धोखेबाजी करके बस जैसे-तैसे काम कर रही थी। परमेश्वर के लिए मैं बहुत घिनौनी और घृणित थी!
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “वर्तमान में कर्तव्य निभाने के बहुत ज्यादा अवसर नहीं हैं, इसलिए जब भी संभव हो, तुम्हें उन्हें लपक लेना चाहिए। जब कोई कर्तव्य सामने होता है, तो यही समय होता है जब तुम्हें परिश्रम करना चाहिए; यही समय होता है जब तुम्हें खुद को अर्पित करना चाहिए और परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहिए, और यही समय होता है जब तुमसे कीमत चुकाने की अपेक्षा की जाती है। कोई कमी मत छोड़ो, कोई षड्यंत्र मत करो, कोई कसर बाकी मत रखो, या अपने लिए बचने का कोई रास्ता मत छोड़ो। यदि तुमने कोई कसर छोड़ी, या तुम मतलबी, मक्कार या विश्वासघाती बनते हो, तो तुम निश्चित ही एक खराब काम करोगे। मान लो, तुम कहते हो, ‘किसी ने मुझे चालाकी से काम करते हुए नहीं देखा। क्या बात है!’ यह किस तरह की सोच है? क्या तुम्हें लगता है कि तुमने लोगों की आँखों में धूल झोंक दी, और परमेश्वर की आँखों में भी? हालाँकि, वास्तविकता में, तुमने जो किया वो परमेश्वर जानता है या नहीं? वह जानता है। वास्तव में, जो कोई भी तुमसे कुछ समय तक बातचीत करेगा, वह तुम्हारी भ्रष्टता और नीचता के बारे में जान जाएगा, और भले ही वह ऐसा सीधे तौर पर न कहे, लेकिन वह अपने दिल में तुम्हारा आकलन करेगा। ऐसे कई लोग रहे हैं, जिन्हें इसलिए बेनकाब करके हटा दिया गया, क्योंकि बहुत सारे दूसरे लोग उन्हें समझ गए थे। जब उन सबने उनका सार देख लिया, तो उन्होंने उनकी असलियत उजागर कर दी और उन्हें बाहर निकाल दिया गया। इसलिए, लोग चाहे सत्य का अनुसरण करें या न करें, उन्हें अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना चाहिए; उन्हें व्यावहारिक काम करने में अपने विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। तुममें दोष हो सकते हैं, लेकिन अगर तुम अपना कर्तव्य निभाने में प्रभावी हो पाते हो, तो तुम्हें नहीं हटाया जाएगा। अगर तुम हमेशा सोचते हो कि तुम ठीक हो, अपने हटाए न जाने के बारे में निश्चित रहते हो, और अभी भी आत्मचिंतन या खुद को जानने की कोशिश नहीं करते, और तुम अपने उचित कार्यों को अनदेखा करते हो, हमेशा लापरवाह रहते हो, तो जब तुम्हें लेकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सहनशीलता खत्म हो जाएगी, तो वे तुम्हारी असलियत उजागर कर देंगे, और इस बात की पूरी संभावना है कि तुम्हें हटा दिया जाएगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सभी ने तुम्हारी असलियत देख ली है और तुमने अपनी गरिमा और निष्ठा खो दी है। अगर कोई व्यक्ति तुम पर भरोसा नहीं करता, तो क्या परमेश्वर तुम पर भरोसा कर सकता है? परमेश्वर मनुष्य के अंतस्तल की पड़ताल करता है : वह ऐसे व्यक्ति पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं कर सकता। ... भरोसेमंद लोग वे लोग होते हैं जिनमें मानवता होती है, और जिन लोगों में मानवता होती है उनमें अंतःकरण और विवेक होता है, और उनके लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना बहुत आसान होना चाहिए, क्योंकि वे अपने कर्तव्य को अपना दायित्व मानते हैं। अंतःकरण या विवेक से रहित लोगों का अपना कर्तव्य खराब तरीके से निभाना निश्चित है, और उनका कर्तव्य चाहे कुछ भी हो, उसके प्रति उनमें जिम्मेदारी का कोई बोध नहीं होता। दूसरों को हमेशा उनकी चिंता करनी पड़ती है, उनकी निगरानी करनी पड़ती है और उनकी प्रगति के बारे में पूछना पड़ता है; वरना उनके कर्तव्य निभाते समय चीजें गड़बड़ा सकती हैं, कार्य करते समय चीजें गलत हो सकती हैं, जिससे भारी परेशानी होगी। संक्षेप में, लोगों को अपने कर्तव्यों का पालन करते समय हमेशा अपनी जाँच करनी चाहिए : ‘क्या मैंने इस कर्तव्य को पर्याप्त रूप से पूरा किया है? क्या मैंने दिल लगाकर काम किया? या मैंने इसे जैसे-तैसे ही पूरा किया?’ अगर तुम हमेशा लापरवाह रहते हो, तो तुम खतरे में हो। कम से कम, इसका यह मतलब है कि तुम्हारी कोई विश्वसनीयता नहीं है, और लोग तुम पर भरोसा नहीं कर सकते। ज्यादा गंभीर रूप में, अगर तुम अपना कर्तव्य निभाते समय हमेशा बेमन से काम करते हो, और अगर तुम हमेशा परमेश्वर को धोखा देते हो, तो तुम बड़े खतरे में हो! जान बूझकर धोखेबाज़ बनने के दुष्परिणाम क्या हैं? हर कोई देख सकता है कि तुम जानबूझकर अपराध कर रहे हो, कि तुम किसी और चीज के अनुसार नहीं, बल्कि अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जी रहे हो, कि तुम लापरवाह होने के सिवाय कुछ नहीं हो, कि तुम बिल्कुल भी सत्य का अभ्यास नहीं करते—इसका अर्थ है कि तुम मानवता विहीन हो! अगर यह तुममें पूरी तरह प्रकट होता है, अगर तुम बड़ी गलतियाँ करने से बचते हो, लेकिन छोटी गलतियाँ निरंतर करते रहते हो, और शुरू से अंत तक पश्चात्ताप नहीं करते, तो तुम एक बुरे व्यक्ति हो, छद्म-विश्वासी हो, और तुम्हें बाहर निकाल दिया जाना चाहिए। इस तरह के परिणाम जघन्य हैं—तुम पूरी तरह से बेनकाब हो जाते हो और एक छद्म-विश्वासी और बुरे व्यक्ति के रूप में हटा दिए जाते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन में प्रवेश कर्तव्य निभाने से प्रारंभ होता है)। “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीक़े से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों के उजागर होकर सामने आने से मैंने अपने कर्तव्य में लापरवाही करने वालों के प्रति परमेश्वर की नफरत और क्रोध को महसूस किया। ऐसे लोगों में अंतरात्मा, विवेक, सत्यनिष्ठा और गरिमा नहीं होती, और वे बिल्कुल भी भरोसे लायक नहीं होते। अगर वे पश्चात्ताप न करें, तो वे कुकर्मी और छद्म-विश्वासी होते हैं और उन्हें निकाल दिया जाना चाहिए। नए सदस्यों का सिंचन एक अहम कार्य है। उन्होंने अभी-अभी परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकारा है और सच्चे मार्ग पर जड़ें जमाने के लिए अभी उन्हें और सिंचन की जरूरत है, ताकि शैतान उन्हें पकड़ न सके। इसके अलावा परमेश्वर के कार्य को स्वीकारने वाले इंसान के लिए यह आसान या सहज नहीं होता, यह सब परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के माध्यम से होता है और कई भाई-बहन उनके सिंचन कार्य, पोषण, सहारा देने और उनकी मदद करने के लिए कीमत चुकाते हैं। तभी उन्हें परमेश्वर के समक्ष लाया जा सकता है। सिंचन-कर्मी होने के नाते नए सदस्यों का सिंचन मेरी जिम्मेदारी थी। खासतौर पर जब मैं नए सदस्यों की मुश्किलें देखती थी, तो मुझे तत्परता दिखानी चाहिए थी और इन समस्याओं को हल करने के लिए तरीके खोजने चाहिए थे। मगर इसके बजाय मैंने मुश्किल कार्यों को टाल दिया और धूर्तता की। जब मैं नए सदस्यों को मुश्किलों का सामना करते देखती थी तो मैं वही समस्याएँ चुनती थी जिन्हें हल करना आसान होता था और मुश्किल मसलों को एक तरफ कर उन्हें अनदेखा कर देती थी। इतना ही नहीं मैं साफ तौर पर अपने कर्तव्य में धूर्त और गैर-जिम्मेदार थी, जिस कारण कुछ नए सदस्यों ने सभाओं में आना बंद कर दिया और कुछ ने सभा ही छोड़ दी, पर मैंने यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ा कि उनमें सत्य की प्यास नहीं है या कि दूसरों को धोखा देने और खुद को लापरवाही के दोष से बचाने के लिए कहा कि मुझमें काबिलियत नहीं है और मैं समस्याएँ हल नहीं कर पाई। क्या मैं अपना कर्तव्य बॉस की सेवा कर रहे ठीक एक अविश्वासी की तरह नहीं कर रही थी? मैं अंतरात्मा की किसी भी जागरूकता के बिना छल-कपट कर रही थी, लापरवाही से दिन गुजार रही थी। इतने सालों की आस्था के बाद भी मैंने बेफिक्र होकर परमेश्वर को मूर्ख बनाने और ठगने की कोशिश की। मैं कितनी कपटी और धोखेबाज थी! मुझमें जरा भी मानवता नहीं थी। जब मैंने पहली बार परमेश्वर के अंत के दिनों का सुसमाचार स्वीकारा, मैं हर दिन कार्य में व्यस्त रहती थी, मेरे माता-पिता मेरी आस्था में बाधक बन जाते थे। मैं बहुत परेशान रहती थी, यहाँ तक कि मैंने सभाओं में जाना भी छोड़ना चाहा। मगर भाई-बहन समय-समय पर धैर्यपूर्वक मेरे साथ सत्य पर संगति करते और मेरी सुविधा के हिसाब से सभाएँ रखते थे। कभी-कभी व्यस्तता के कारण मैं सभा में नहीं आ पाती थी, तो भाई-बहन बाइक पर लंबा सफर तय कर मेरे साथ परमेश्वर के वचन पर संगति करने आते, ताकि मेरी मदद और सहयोग कर सकें। और धीरे-धीरे मैंने परमेश्वर के कार्य को जाना और देखा कि बचाए जाने का एक ही रास्ता है, सत्य का अनुसरण करना। फिर मैं सभाओं में आने और कर्तव्य ग्रहण करने के लिए तैयार हो गई। कलीसिया हमेशा इस पर जोर देती है कि नए सदस्यों के सिंचन में धैर्य रखना और उनकी कठिनाइयों पर विचार करना जरूरी है, कि हमें उनकी प्रेम से मदद करनी चाहिए और उन्हें सभाओं में आने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि वे जल्द से जल्द सत्य के मार्ग पर अपनी नींव रख सकें। मैंने देखा, परमेश्वर हमारे लिए दया और प्रेम से भरा हुआ है, वह हर मुमकिन तरीके से हमें बचाता है। वह सच्चे मार्ग की जाँच कर रहे हर व्यक्ति के प्रति बेहद ईमानदार है। जरा सी भी उम्मीद है तो वह हार नहीं मानेगा। लेकिन मैं बहुत उदासीन थी और नए सदस्यों के प्रति जरा भी जिम्मेदार नहीं थी। मुझे उनके जीवन प्रवेश की कोई परवाह नहीं थी, जिससे उनकी समस्याएँ जल्दी हल नहीं हो रही थीं और कुछ लोग तो सभाओं में आना ही नहीं चाहते थे। मेरा बर्ताव देखें तो यह कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? मैं बस कुकर्म करके परमेश्वर को मूर्ख बनाना और धोखा देना चाहती थी! इसका एहसास होने पर मैंने बहुत अपराध बोध महसूस किया और इतनी मानवता न होने के कारण मुझे खुद से नफरत हुई।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्हें नहीं बचाया? ... मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के फटकार भरे वचनों को सुनकर मैंने बहुत अपराध बोध और आत्म ग्लानि महसूस की। हमारे भ्रष्ट स्वभावों को शुद्ध करने और बदलने, हमें उद्धार का मौका देने के लिए परमेश्वर ने ईमानदारी से हमें बहुत-से सत्य प्रदान किए हैं, सत्य के हर पहलू पर उसने हमारे साथ विस्तार से संगति की है, उसे डर है कि हम उसे समझ नहीं पाएँगे। परमेश्वर ने हमारे लिए अपने प्रयासों में बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। मानवता युक्त किसी भी इंसान को सत्य का अनुसरण करने और अपने कर्तव्य के लिए निष्ठावान होने का प्रयास करना चाहिए। मगर मुझमें बिल्कुल भी जमीर नहीं था। मैं बिल्कुल भी सत्य नहीं खोज रही थी, मुझे केवल शारीरिक सुख की चाह थी, मैं अभी भी इन शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी, जैसे “ऑटोपायलट पर जीवन जीएँ” और “ज़िंदगी छोटी है, तो जब तक है मौज करो।” मैंने इन शैतानी फलसफों को जीने के लिए ज्ञानपूर्ण शब्दों के रूप में लिया, यह सोचकर कि हम कुछ दशकों के लिए धरती पर हैं तो हमें अच्छे से अपना ख्याल रखना चाहिए और अपने आप पर ज्यादा बोझ नहीं डालना चाहिए और हमें अपने जीवन को चिंतामुक्त और खुशहाल बनाना चाहिए। मैं इस शर्त पर अपना कर्तव्य निभा रही थी कि मुझे दैहिक कष्ट और थकान न सहनी पड़े। मैंने वही किया जो आसान लगा। जहाँ भी मुझे ज्यादा दिमाग लगाना पड़ता, वहाँ मैं प्रतिरोधी होकर भाग जाती थी, मैं या तो समस्या किसी और पर छोड़ देती या उसे टाल देती और अनदेखा कर देती। मैं अपने कर्तव्य को बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं ले रही थी, इसलिए कुछ नए सदस्यों की समस्याएँ हल नहीं हुईं और उन्होंने सभाओं में आना बंद कर दिया। इतना सब होने के बाद मैंने देखा कि उन शैतानी फलसफों ने मुझे और ज्यादा कलुषित कर दिया था। मैं पूरे दिन आराम की लालसा करती थी और बिल्कुल भी सत्य का अनुसरण नहीं करती थी, मैंने अपने कर्तव्य का कबाड़ा कर दिया, यहाँ तक कि मुझे उसकी जरा भी परवाह नहीं थी। मैं अपने कर्तव्यों की अनदेखी कर रही थी, जो सत्य मुझे प्राप्त करने चाहिए थे उन्हें मैंने प्राप्त नहीं किया, अपनी जिम्मेदारियाँ भी पूरी नहीं कीं। क्या मैं बिल्कुल बेकार नहीं थी? मैंने वास्तव में अनुभव किया कि शारीरिक सुख की चाह मुझे नुकसान पहुँचा रही थी और मैं उद्धार पाने के मौके को गँवा रही थी। कर्तव्य में मुश्किलों का सामना करना परमेश्वर पर भरोसा करके सत्य खोजने का एक अच्छा मौका होता है। सत्य की खोज करने और कर्तव्यों में सिद्धांतों का पालन करने को मजबूर करने वाली कठिनाइयाँ मेरे लिए सत्य का अनुसरण करने और जीवन प्रवेश के अच्छे रास्ते थे। मगर मैं इन्हें बाधा और बोझ समझकर इनसे पल्ला झाड़ना चाहती थी। इसका एहसास होने पर मुझे वास्तव में अपने देह-सुख पर बहुत पछतावा हुआ, मैंने सत्य को समझने के बहुत से मौके गँवा दिए। मैं उलझन में नहीं रहना चाहती थी। मुझे देह-सुख के खिलाफ विद्रोह करना था और दिल से अपना कर्तव्य निभाना था।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसमें झूठे अगुआओं को उजागर किया गया है, जिससे मुझे अपने कर्तव्य में लापरवाही के परिणामों की बेहतर समझ मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मान लो कि किसी काम को एक व्यक्ति एक महीने में पूरा कर सकता है। अगर इस काम को करने में छह महीने लग जाते हैं, तो क्या बाकी पाँच महीने के खर्चे नुकसान साबित नहीं होंगे? मैं सुसमाचार प्रचार का एक उदाहरण देता हूँ। मान लो कि कोई व्यक्ति सच्चे मार्ग की छानबीन करना चाहता है और संभवतः सिर्फ एक महीने में उसे राजी किया जा सकता है, जिसके बाद वह कलीसिया में प्रवेश करेगा और सिंचन और पोषण प्राप्त करता रहेगा, और छह महीने के भीतर ही वह अपनी नींव जमा सकता है। लेकिन अगर सुसमाचार प्रचार करने वाले व्यक्ति का रवैया इस मामले को अवमानना और अनमनेपन की ओर ले जाता है, और अगुआ और कार्यकर्ता भी अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा करते हैं, और अंत में उस व्यक्ति को राजी करने में छह महीने लग जाते हैं, तो यह छह महीने का समय उसके जीवन के लिए एक नुकसान नहीं बन जाएगा? अगर वह भीषण आपदाओं का सामना करता है और उसने अब तक सच्चे मार्ग पर अपनी नींव नहीं तैयार की है, तो वह खतरे में होगा, और तब क्या वे लोग उन्हें निराश नहीं कर चुके होंगे? ऐसे नुकसान को पैसे या भौतिक चीजों से नहीं मापा जा सकता है। यदि उस व्यक्ति को सत्य समझने से छह महीने तक रोक दिया जाए; और उसके द्वारा एक नींव तैयार करने और अपना कर्तव्य निभाना शुरू करने में छह महीने की देरी हो जाए, तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या अगुआ और कार्यकर्ता इसकी जिम्मेदारी का भार उठा सकते हैं? किसी व्यक्ति के जीवन को रोककर रखने की जिम्मेदारी का भार कोई भी नहीं उठा सकता” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (4))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे शर्मिंदा किया और पश्चात्ताप महसूस कराया। मैं बस एक झूठी अगुआ की तरह थी जो वास्तविक कार्य नहीं करता, अपने कर्तव्य में लापरवाह और गैर-जिम्मेदार थी, जिस कारण नए सदस्य सभा में नहीं आते और कुछ तो आस्था ही छोड़ देते थे क्योंकि उनकी समस्याएँ हल नहीं होती थीं। क्या नए सदस्यों का इस तरीके से सिंचन उनका नुकसान नहीं कर रहा था? भले ही कुछ ने आस्था नहीं छोड़ी, पर उनके जीवन को नुकसान पहुँचा क्योंकि वे धारणाओं से चिपके रहकर लंबे समय तक सभा में नहीं आए। ये ऐसे नुकसान हैं जिनकी मैं भरपाई नहीं कर सकती थी। अगर मुझे देह-सुख की इतनी चिंता न होती, कीमत चुकाने में सक्षम होती और गंभीरता से हर नए सदस्य की समस्या को लिया होता, तो शायद उनमें से कुछ सत्य को समझ पाते और पहले ही सच्चे मार्ग पर अपनी जड़ें जमा पाते, कलीसिया का जीवन जीते, कर्तव्य करते, जल्दी ही अच्छे कर्म इकट्ठा करते और चीजें वैसी नहीं होतीं जैसी हुईं। मगर अब यह बातें बनाने का वक्त नहीं था। मुझे बहुत दुख और अपराध-बोध हुआ, मैं परमेश्वर की अत्यधिक ऋणी थी। यह एक अपराध था, एक ऐसा कलंक जो मैंने अपने कर्तव्य पर लगाया था! मैं पछतावे और भय से भी भरी हुई थी। मुझे लगा कि मैंने बड़ी समस्याएँ खड़ी कर दी हैं। रोते-रोते मैंने प्रार्थना की, “परमेश्वर, मैं हमेशा आराम की लालसा करती हूँ, और मैं अपने कर्तव्य में लापरवाह हूँ, जिससे तुम्हें घृणा है। मैं तुम्हारे आगे पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। कृपया मेरे दिल की पड़ताल करो। अगर मैं लापरवाही करना जारी रखती हूँ तो मुझे ताड़ना दो और अनुशासित करो।”
फिर मैंने उन नए सदस्यों की सूची बनाई जो निराश और कमजोर थे और सभाओं में नहीं आते थे और उनकी समस्याएँ हल करने के लिए मैंने परमेश्वर के प्रासंगिक वचन खोजे। मैंने उन बहनों से भी पूछा जो सिद्धांतों और नजरियों पर सिंचन करने में अच्छी थीं। फिर मैंने धार्मिक धारणाएँ रखने वाली उस नई सदस्य को ढूँढ़ा जो सभा में नहीं आती थी। मैंने उसे कई संदेश भेजे, जिनमें से उसने किसी का कोई जवाब नहीं दिया। मेरा उत्साह कम होने लगा और सोचा इसे भूल ही जाना चाहिए। वैसे भी उसने ही जवाब नहीं दिया—ये तो सच ही था। फिर मैंने उस नई सदस्य को भी एक संदेश भेजा जो व्यस्त रहती थी, पर जब मैंने देखा कि उसने सभा में आने के मेरे निमंत्रण को ठुकरा दिया है, तो मैं उसके समर्थन के लिए कोई और कीमत नहीं चुकाना चाहती थी। उस पल मैंने परमेश्वर से की गई अपनी प्रार्थना और उसके इन वचनों के बारे में सोचा : “जब लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे दरअसल वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे परमेश्वर के सामने करते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य दिल से और ईमानदारी की भावना से निभाते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो, तो क्या यह रवैया कहीं ज्यादा सही नहीं होगा? तो तुम इस रवैये को अपने दैनिक जीवन में कैसे व्यवहार में ला सकते हो? तुम्हें ‘दिल से और ईमानदारी से परमेश्वर की आराधना’ को अपनी वास्तविकता बनाना होगा। जब कभी भी तुम शिथिल पड़ना चाहते हो और बिना रुचि के काम करना चाहते हो, जब कभी भी तुम धूर्तता से काम करना और आलसी बनना चाहते हो, और जब कभी तुम्हारा ध्यान बँट जाता है या तुम आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हें विचार करना चाहिए : ‘इस तरह व्यवहार करके, क्या मैं गैर-भरोसेमंद बन रहा हूँ? क्या यह कर्तव्य निर्वहन में अपना मन लगाना है? क्या मैं ऐसा करके विश्वासघाती बन रहा हूँ? ऐसा करने में, क्या मैं परमेश्वर के सौंपे आदेश पर खरा उतरने में विफल हो रहा हूँ?’ तुम्हें इसी तरह आत्म-चिंतन करना चाहिए। अगर तुम्हें पता चलता है कि तुम अपने कर्तव्य में हमेशा अनमने रहते हो, कि तुम विश्वासघाती हो और यह भी कि तुमने परमेश्वर को चोट पहुँचाई है तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, ‘जिस क्षण मुझे लगा कि यहाँ कुछ गड़बड़ है, लेकिन मैंने इसे समस्या नहीं माना; मैंने इसे बस लापरवाही से नजरअंदाज कर दिया। मुझे अब तक इस बात का एहसास नहीं हुआ था कि मैं वास्तव में अनमना रहता था, कि मैं अपनी जिम्मेदारी पर खरा नहीं उतरा था। मुझमें सचमुच जमीर और विवेक की कमी है!’ तुमने समस्या का पता लगा लिया है और अपने बारे में थोड़ा जान लिया है—तो अब तुम्हें खुद को बदलना होगा! अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया गलत था। तुम उसके प्रति लापरवाह थे, मानो यह कोई अतिरिक्त नौकरी हो, और तुमने उसमें अपना दिल नहीं लगाया। अगर तुम फिर इस तरह अनमने रहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे तुम्हें अनुशासित करने और ताड़ना देने देना चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारी ऐसी ही इच्छा होनी चाहिए। तभी तुम सच्चा पश्चात्ताप कर सकते हो। जब तुम्हारी अंतरात्मा साफ होगी और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया बदल गया होगा, तभी तुम खुद को बदल पाओगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझने में मदद की कि अच्छी तरह कर्तव्य निभाना इतना भी मुश्किल नहीं है, कि हमें ईमानदार होना चाहिए, परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकारना चाहिए और हम जो जानते हैं, जो कर सकते हैं उसे क्रियान्वित करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए, हमें छल-कपट या लापरवाही नहीं करनी चाहिए और कर्तव्य निभाने के लिए हमारा रवैया ऐसा ही होना चाहिए। इसलिए मैंने संकल्प लिया कि मैं इस बार परमेश्वर को फिर से निराश नहीं करूँगी। भले ही वे नए सदस्य मेरी मदद और सहयोग के बाद भी सभाओं में नहीं आए हों, कम-से-कम मैंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली होगी और मुझे कोई पछतावा नहीं होगा।
मैं अभ्यास का मार्ग खोज रही एक और बहन से बात करने गई और मैंने संगति के लिए धार्मिक धारणाएँ रखने वाली उस नई सदस्य को भी खोजा। मैंने उसे अपनी आस्था के अनुभवों के बारे में खुलकर बताया। मुझे हैरानी हुई जब उसने मेरे संदेशों का जवाब दिया। उसे वास्तव में सभाएँ बहुत अच्छी लगती थीं, पर उसकी कुछ धारणाओं और उलझनों का हल नहीं हुआ था। इस नई सदस्य के दिल की बातों से मैं बहुत द्रवित हो गई और मैंने उसकी धारणाओं को लेकर संगति की। अंत में वह सभाओं में आने के लिए मान गई और जल्द ही एक कर्तव्य भी निभाने लगी। जब मैंने देखा कि चीजें इस तरह से बदल गईं तो मैंने जो महसूस किया उसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता। मुझे खुशी और पश्चात्ताप दोनों हुए। परमेश्वर के वचनों से प्रबोधन और रोशनी जिसने मुझे खुद को जानने और कर्तव्य के प्रति अपना रवैया बदलने की अनुमति दी, इसके बिना मैं और अपराध कर देती। इसके बाद मैंने काम में व्यस्त नई सदस्य को दोबारा खोजा। पहले मैं उसकी कठिनाइयों को समझे बिना ही उसे सभाओं में आने के लिए कहती रहती थी। इस बार मैंने उसके वास्तविक हालात के आधार पर मदद के लिए परमेश्वर के वचनों पर संगति की और सभाओं का समय उसी के हिसाब से तय किया। जब उसके पास सभा में आने का समय नहीं होता, तो मैं उसके खाली वक्त में उसे परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाती, धैर्यपूर्वक उसके साथ संगति करती। फिर वह मेरे सामने खुलकर परमेश्वर के वचनों पर बात करने के लिए राजी हो गई जिन्हें उसने पढ़ा था। उसने मुझे खुशी से यह भी बताया कि चाहे जो हो जाए, वह सभाओं में आना या परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना बंद नहीं करेगी। इसके बाद से उसने एक भी सभा नहीं छोड़ी, और चाहे वह कितनी भी व्यस्त हो, वह परमेश्वर के वचनों पर विचार के लिए समय निकाल लेती थी। नए सदस्यों के लिए इस तरह के समर्थन और मदद से उनमें से कुछ फिर से सभाओं में भाग लेने के लिए तैयार हो गए। एक बार जब मैंने अपना रवैया ठीक कर लिया, परमेश्वर पर भरोसा रखा, और सच्चा प्रयास किया तो मुझे कर्तव्य में बेहतर नतीजे मिलने लगे।
पहले मैं अपने कर्तव्य में हमेशा धूर्तता और लापरवाही बरतती थी। भले ही मैंने कोई शारीरिक कष्ट नहीं सहा पर हमेशा मुश्किलों में जी रही थी। मैं परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त नहीं कर पाई, मैं अपने कर्तव्य में कम से कम हासिल कर रही थी, मुझे हमेशा इस बात की फिक्र रहती थी कि परमेश्वर मुझे छोड़ देगा और निकाल देगा। मैं बहुत निराश और दर्द में थी। एक बार जब मैंने अपना दिल कर्तव्य में लगा दिया, मैं परमेश्वर की मौजूदगी और मार्गदर्शन महसूस कर पाई। मैंने अपने कर्तव्य में भी प्रगति की और शांति और स्थिरता का भाव भी प्राप्त किया। मैंने सचमुच अनुभव किया कि कर्तव्य के प्रति हमारा रवैया कितना महत्वपूर्ण होता है। कठिनाइयों का सामना करते समय केवल वास्तविक कीमत चुकाकर और परमेश्वर के इरादे के बारे में विचारशील होकर ही हमें पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन मिल सकता है और हम अपना कर्तव्य प्रभावी ढंग से कर सकते हैं।