100. ईमानदारी से बोलकर मुझे क्या हासिल हुआ

कीउ गुओ, अमेरिका

कुछ समय पहले, मैंने परमेश्वर की संगति का एक अंश सुना, जिसमें कहा गया था, "चिकनी-चुपड़ी बातें करना, खुशामद करना, वह बात कहना जो तुम्हारे विचार से लोग सुनना चाहते हैं : इन शब्दों का शाब्दिक अर्थ सभी को पता चल ही जाएगा। ऐसा करने वाले लोग आम भी हैं। चिकनी-चुपड़ी बातें करना, खुशामद करना, वह बात कहना जो तुम्हारे विचार से लोग सुनना चाहते हैं : ज्यादातर समय बोलने का यह तरीका लोगों का अनुग्रह या प्रशंसा प्राप्त करने के लिए, या किसी तरह का लाभ बटोरने के लिए होता है। यह चाटुकारों के बोलने का सबसे अधिक दिखने वाला तरीका है, और यह कहना उचित है कि ऐसी चीजें कमोबेश सभी भ्रष्ट मनुष्यों में अभिव्यक्त होती हैं, और शैतानी फलसफों के बोलने के तरीकों में से एक मानी जाती हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो)')। तब, परमेश्वर के वचनों में, ऐसे लोगों का खुलासा सुनकर, मैंने उन्हें खुद पर लागू नहीं किया। ऐसे लोगों से मुझे चिढ़ थी, मुझे वे अच्छे नहीं लगते थे, मैं उनके साथ वक्त नहीं बिताना चाहती थी, मुझे लगता मैं ऐसे लोगों से बेहतर हूँ। एकाएक जब तथ्यों ने मेरा खुलासा किया, तो मैं समझ पाई कि अपने निजी हितों के लिए मैं लोगों को खुश करने, उनकी कृपा पाने और मधुर बातें करने की कोशिश करती थी, जो धूर्तता भी थी और कपट भी।

कुछ दिन पहले, मैं एक समूह की बैठक में गई। बैठक के बाद, अगुआ ने मुझे संदेश भेजकर भाई झांग की संगति के बारे में पूछा। संदेश देखकर मैं थोड़ी घबरा गई, "अगुआ अचानक मुझसे यह सवाल क्यों पूछ रहे हैं? मैं इसका जवाब कैसे दूँ? अगर मैंने गलत जवाब दिया, तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या अगुआ सोचेंगे कि मैं यह भी परख नहीं पाती कि दूसरे लोग कितनी अच्छी संगति करते हैं, मेरी काबिलियत कमजोर है, मुझे व्यावहारिक अनुभव नहीं है। अगर ऐसा हुआ, तो क्या अगुआ आगे से अहम कामों के लिए मुझ पर भरोसा करेंगे? जल्दी ही शायद समूह अगुआ का मेरा ओहदा भी छिन जाए।" मैं बस अपनी छवि और ओहदा कायम रखना चाहती थी, ताकि वे समझें कि मुझे चीजों को परखना आता है, तो मैं सोचने लगी, उनकी बात का मतलब क्या था। उन्होंने पूछा था, तो उन्हें लगा होगा कि भाई झांग की संगति में कोई समस्या थी, तो मुझे अगुआ की स्वीकृति भला कैसे मिल सकेगी? मुझे लगा, हालांकि भाई झांग की संगति के कुछ हिस्से में धर्म-सिद्धांतों की बातें थीं, कुछ जगहों पर वह व्यावहारिक था। लेकिन मुझे फिक्र थी कि मैंने चीजों को सही ढंग से नहीं देखा, तो मैंने अगुआ को अपने असली विचार नहीं बताए। इसके बजाय, मैंने कहा, "भाई झांग ने बहुत-से खोखले धर्म-सिद्धांतों पर संगति की।" मेरे अगुआ ने जवाब में कहा, "सिर्फ उसकी बातों में ही धर्म-सिद्धांत थे। आगे से उन्हें जरूर याद दिलाकर उनकी मदद करें।" अगुआ का जवाब पढ़कर मैंने सोचा, "सौभाग्य से मैंने अपने असली विचार नहीं बताए। वरना, मैं खुद को बुरा बना लेती। फिर मेरे अगुआ मेरी असलियत जान जाते!"

इसके तुरंत बाद, मैं एक और समूह की बैठक में गई। बैठक के बाद, अगुआ ने मुझे एक संदेश भेजकर पूछा, "आपको बहन लियू की संगति कैसी लगी?" संदेश देखकर मैं थोड़ी हैरान रह गई। बैठक में मेरा मन भटक गया था, तो मैंने बहन की संगति ठीक से नहीं सुनी। मैं क्या जवाब देती? अगर मैंने ईमानदारी दिखाई, तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मुझे याद आया कि मैंने पहले अगुआ को यह कहते सुना था कि यह बहन अक्सर धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलती थी, तो क्या अगुआ इसकी पुष्टि के लिए मुझे संदेश भेज रहे थे? पिछली बार, अगुआ ने मुझे इसलिए पूछा था क्योंकि उनके विचार में भाई झांग ने धर्म-सिद्धांतों की बात की थी। मुझे लगा, इस बार भी वही कारण होगा। तो मैंने जवाब दिया, "उसकी संगति में, मैंने उसके आत्मज्ञान के बारे में, या उसके कौन-से विचार बदल गए थे, इस बारे में नहीं सुना।" मेरा जवाब पढ़ने के बाद, अगुआ ने कुछ नहीं कहा। इस बार मैं शांत नहीं रह पाई, और सोचने लगी, "क्या अगुआ मेरे जवाब से असंतुष्ट हैं? क्या मैंने गलत जवाब दिया था? अगर मैंने ऐसा किया है, तो हो गया मेरा काम तमाम। क्या अगुआ सोचेंगे कि मैं कमजोर काबिलियत वाली हूँ?" उन दिनों, इस बात से मैं कभी-कभी परेशान हो जाती।

कुछ दिन बाद, एक बैठक के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जो मेरे दिल में चुभ गया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "ऐसे धोखेबाज़ लोग जो दूसरों के सामने एक तरह से व्यवहार करते हैं और उनकी पीठ पीछे दूसरी तरह से कार्य करते हैं तो वे पूर्ण बनने के इच्छुक नहीं होते। वे सब बरबादी और विनाश के पुत्र होते हैं; वे परमेश्वर के नहीं, शैतान के होते हैं। ऐसे लोगों को परमेश्वर नहीं चुनता!" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'जो सच्चे हृदय से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे')। मैं उस दिन की घटना के बारे में सोचे बिना नहीं रह सकी, जब अगुआ ने मुझसे भाई और बहन की संगति के बारे में मेरी राय पूछी थी। मैंने अगुआ को अपनी असली राय व्यक्त करने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि मुझे फिक्र थी कि गलत जवाब अगुआ के दिल में मेरी छवि और रुतबे पर बुरा असर डालेगा, इसलिए मैंने कपटपूर्ण ढंग से जवाब दिया। मैंने अपने अगुआ की सोच का अंदाजा लगाया, फिर उनकी सोच से मेल खाता जवाब देने की कोशिश की। मुझे लगा, इससे मैं गलती करने से थोड़ा बच सकूंगी, अपनी कमियाँ उजागर नहीं करूंगी, वे मेरी असलियत नहीं जान पाएँगे और मेरा ओहदा ज्यादा सुरक्षित रहेगा। मुझे लगा, मैं अपने अगुआ को बेवकूफ बनाकर और अपने विचार छिपाकर चालाकी दिखा रही थी, मगर परमेश्वर धार्मिक है, वह सब समझता है। परमेश्वर ने बिल्कुल स्पष्ट रूप से मेरे कपटी इरादों और चालों को समझ लिया, और उसने इसकी पूरी तरह से निंदा की। परमेश्वर के वचनों पर मैंने जितना मनन किया, मुझे उतना ही डर लगा। सोचने लगी, मेरी सोच इतनी दुष्ट, घिनौनी और बेशर्म कैसे हो सकती है।

मुझे यह भी याद आया कि कैसे परमेश्वर ने मसीह-विरोधियों के इन लक्षणों का खुलासा किया था, "चिकनी-चुपड़ी बातें करना, खुशामद करना, वह बात कहना जो तुम्हारे विचार से लोग सुनना चाहते हैं", फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति अंधे होते हैं, उनके हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं होता। मसीह से सामना होने पर वे उसे एक साधारण व्यक्ति से अलग नहीं मानते, लगातार उसकी अभिव्यक्ति और स्वर से संकेत लेते रहते हैं, स्थिति के अनुरूप अपनी धुन बदल लेते हैं, कभी नहीं कहते कि वास्तव में क्या हो रहा है, कभी कुछ ईमानदारी से नहीं कहते, केवल खोखले शब्द और सिद्धांत बोलते हैं, अपनी आँखों के सामने खड़े वास्तविक परमेश्वर को धोखा देने और उसकी आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करते हैं। वे परमेश्वर से जरा भी नहीं डरते। वे परमेश्वर के साथ दिल से बात करने, कुछ भी वास्तविक कहने में पूर्णतया असमर्थ रहते हैं। वे ऐसे बात करते हैं जैसे एक साँप रेंगता है, लहरदार और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता चुनते हुए। उनके शब्दों का अंदाज और दिशा किसी खंभे पर चढ़ती खरबूजे की बेल की तरह होते हैं। जब तुम लोग कहते हो कि किसी में भरपूर योग्यता है और उसे आगे बढ़ाया जा सकता है, तो वे फौरन बताने लगते हैं कि वे कितने अच्छे हैं, और उनमें क्या अभिव्यक्त और उजागर होता है; और अगर तुम लोग कहते हो कि कोई बुरा है, तो वे यह कहने में देर नहीं लगाते कि वे कितने बुरे और दुष्ट हैं, और वे किस तरह कलीसिया में उत्पात मचाते और व्यवधान पैदा करते रहते हैं। जब तुम लोग किसी चीज के बारे में सच्चाई जानना चाहते हो, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता; वे टालमटोल करते रहते हैं और इंतजार करते हैं कि तुम खुद ही कोई निष्कर्ष निकल लो, वे तुम्हारे शब्दों का अर्थ टटोलते हैं, ताकि वे तुमसे वह कह सकें जो तुम सुनना चाहते हो। वे जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ चापलूसी, चमचागीरी और निचले दर्जे की चाटुकारिता होती है; उनके मुंह से सत्य का एक शब्द भी नहीं निकलता" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो)')। "परमेश्वर ईमानदार लोगों से प्रेम करता है, लेकिन धोखेबाज और चालाक लोगों से घृणा करता है। अगर तुम एक विश्वासघाती व्यक्ति की तरह कार्य करते हो और छल करने का प्रयास करते हो, तो क्या परमेश्वर तुमसे घृणा नहीं करेगा? क्या परमेश्वर का घर तुम्हें बिना सजा दिए छोड़ देगा? देर-सवेर तुम्हें जवाबदेह ठहराया जाएगा। परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है और विश्वासघाती लोगों को नापसंद करता है। सभी को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए, और भ्रमित होना और मूर्खतापूर्ण कार्य करना बंद कर देना चाहिए। क्षणिक अज्ञान समझ में आता है, लेकिन सत्य को स्वीकार करने से एकदम इनकार कर देना, बदलने से हठपूर्वक इनकार करना है। ईमानदार लोग जिम्मेदारी ले सकते हैं। वे अपनी लाभ-हानि पर विचार नहीं करते, बल्कि परमेश्वर के घर के काम और हितों की रक्षा करते हैं। उनके दिल दयालु और ईमानदार होते हैं, साफ पानी के उस कटोरे की तरह, जिसका तल एक नजर में देखा जा सकता है। उनके कार्यों में भी पारदर्शिता होती है। धोखेबाज व्यक्ति हमेशा छल करता है, हमेशा चीजें छिपाता है, लीपापोती करता है, और खुद को ऐसा ढक लेता है कि कोई भी उसकी असलियत नहीं देख सकता। लोग तुम्हारे आंतरिक विचार नहीं देख सकते, लेकिन परमेश्वर तुम्हारे दिल में मौजूद गहनतम चीजें देख सकता है। अगर परमेश्वर देखता है कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, कि तुम धूर्त हो, कि तुम कभी सत्य को नहीं स्वीकारते, कि तुम हमेशा उसे धोखा देने की कोशिश करते हो, और तुम अपना दिल उसके हवाले नहीं करते, तो परमेश्वर तुमसे प्रेम नहीं करेगा, वह तुमसे नफरत करेगा और तुम्हें त्याग देगा। जो लोग अविश्वासियों के बीच लोकप्रिय होते हैं—जो वाक्पटु और हाजिरजवाब होते हैं—वे किस तरह के लोग होते हैं? क्या यह तुम लोगों को स्पष्ट है? उनका सार कैसा होता है? कहा जा सकता है कि वे सभी असाधारण रूप से शातिर होते हैं, वे सब अत्यंत धूर्त और लिजलिजे होते हैं, वे असली दुष्ट शैतान होते हैं। क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को बचा सकता है? परमेश्वर शैतानों से सबसे ज्यादा नफरत करता है—वे लोग जो चालबाज और कपटी होते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को कभी नहीं बचाएगा, इसलिए तुम कुछ भी करो, पर तुम्हें इस तरह का व्यक्ति नहीं होना चाहिए। जो हमेशा सतर्क रहते हैं और बहुत सोच-समझकर बोलते हैं, जो देखते हैं कि हवा किस तरफ बह रही है और अपने मामले छल-कपट से सँभालते हैं—मैं कहता हूँ, परमेश्वर ऐसे लोगों से सबसे ज्यादा नफरत करता है, इस तरह के लोगों के लिए छुटकारे की कोई आशा नहीं होती। जब लोग चालबाज और कपटी होते हैं, तो वे कितना ही मीठा क्यों न बोलें, ये छल भरे झूठ ही होते हैं। उनके शब्द जितने मीठे होते हैं, वे उतने ही बड़े दुष्ट शैतान होते हैं। इसलिए वे बिलकुल उस किस्म के लोग होते हैं जिनसे परमेश्वर सबसे ज्यादा घृणा करता है। तुम लोग क्या कहते हो : जो लोग चालबाज होते हैं, झूठ बोलने में माहिर होते हैं, मीठा-मीठा बोलते हैं—क्या वे पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे पवित्र आत्मा का प्रकाश और प्रबुद्धता प्राप्त कर सकते हैं? बिलकुल नहीं। चालबाज और कपटी लोगों के प्रति परमेश्वर का रवैया क्या होता है? वह उन्हें तिरस्कृत कर देता है। वह उन्हें दरकिनार करके उनकी तरफ ध्यान तक नहीं देता। वह उन्हें पशुओं की श्रेणी का मानता है। परमेश्वर की नजरों में ऐसे सभी लोग सिर्फ मनुष्य की खाल पहने होते हैं, और सार में, वे दुष्ट शैतान की श्रेणी के होते हैं, वे चलती-फिरती लाशों की तरह हैं, और परमेश्वर उन्हें कभी भी नहीं बचाएगा" (नकली अगुआओं की पहचान करना)

परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि मसीह-विरोधियों का एक खास दुष्ट स्वभाव होता है। अपने लक्ष्य पाने के लिए, मसीह की मौजूदगी में भी, वे चापलूसी करके देखते हैं कि हवा का रुख किस ओर है, उन्हें लगता है कि मसीह उनकी चालों को नहीं समझेगा, वे उसके साथ छल कर सकेंगे। इसलिए वे परमेश्वर से खुल्लम-खुल्ला छल करने, उसका इस्तेमाल करने, उससे इंसान की तरह पेश आने की हिम्मत करते हैं। परमेश्वर के प्रति उनका रवैया गुस्सा दिलाने वाला और घिनौना होता है। हालाँकि मैं मसीह से सीधे संपर्क में नहीं थी, मैंने जो स्वभाव दिखाया वह मसीह-विरोधी जैसा ही था। दरअसल, अगुआ का भाई और बहन की संगति के बारे में मेरी राय पूछना बहुत आम सवाल था, और मैं अपने मन की बात कह सकती थी, लेकिन मैंने चीजों को उलझा दिया, मेरे दिमाग ने मुश्किल हालात पैदा किए। मैं सोचने लगी कि क्या अगुआ मेरी परख की परीक्षा ले रहे थे, मुझे डर था कि मैंने गलती की, तो वे मुझसे घृणा करेंगे और अब मेरी कद्र नहीं करेंगे, मेरा पोषण नहीं करेंगे। उनके दिल में अपनी छवि और ओहदा बनाए रखने के लिए, मैंने अपने सच्चे विचारों को छिपाया और जान-बूझकर उनके मन की बात से तालमेल बिठाने की कोशिश की। परमेश्वर के वचन से हुए खुलासे की तरह, मेरा बर्ताव रेंगते हुए सांप और खरबूजे की चढ़ती बेल जैसा, आड़ा-तिरछा और पेचीदा था। मैं लोगों से इसी तरह पेश आती और उनके साथ इसी तरह निभाती थी, पूरी तरह से उन्हें धोखा देने और उनसे खिलवाड़ करने के लिए। मैं खास तौर पर धूर्त और चालबाज थी। ये बातें कहते समय ऐसा नहीं था कि मुझे मालूम नहीं था। मैं सोच-समझकर, हिसाब लगाकर बोली थी। जान-बूझकर ऐसा किया था। मैंने यह भी सोचा कि परमेश्वर मेरी चालें नहीं जानता, तो मैंने खुल्लम-खुल्ला झूठ बोलने और छल करने की हिम्मत की। मेरे मन में परमेश्वर के प्रति जरा भी सम्मान नहीं था, मैं उसके साथ परमेश्वर की तरह बिल्कुल पेश नहीं आती थी। मैं झूठ बोलने और दूसरे लोगों से छल करने की हिम्मत करती थी, अगर कभी भी मसीह के संपर्क में आई, तो मैं परमेश्वर के साथ यकीनन छल करूँगी, और उसके स्वभाव का अपमान करूँगी। परमेश्वर के ये वचन मेरे सामने स्पष्ट थे : "परमेश्वर की नजरों में ऐसे सभी लोग सिर्फ मनुष्य की खाल पहने होते हैं, और सार में, वे दुष्ट शैतान की श्रेणी के होते हैं, वे चलती-फिरती लाशों की तरह हैं, और परमेश्वर उन्हें कभी भी नहीं बचाएगा।" इन वचनों से मैं अवाक रह गई। परमेश्वर मेरी प्रकृति का खुलासा कर मेरे कर्मों का चित्रण कर रहा था। मैंने याद किया कि दूसरों के साथ अपनी बातचीत में मैं खास तौर से उनकी बातों और हाव-भाव पर ध्यान देती थी। अगुआओं और कर्मियों की मैं खास तौर पर खुशामद करती थी। मैं हमेशा उनकी सोच का अंदाजा लगाने और उनके मतलब से मिलती-जुलती बात बोलने की कोशिश करती थी, मैं सोचती थी, इस तरह जीना चालाकी है, क्योंकि कोई मेरी असलियत नहीं जान पाएगा। लेकिन परमेश्वर मेरी असलियत जान चुका था, और परमेश्वर मुझ जैसे लोगों से खास तौर पर घृणा करता है। आखिरकार, अब मैं समझ सकी कि परमेश्वर क्यों कहता है कि वह ईमानदार लोगों से प्रेम और कपटी लोगों से घृणा करता है। ऐसा इसलिए कि ईमानदार लोगों के दिल पानी की तरह साफ और शुद्ध होते हैं, वे लोगों और परमेश्वर से ईमानदारी से पेश आते हैं, वे कभी भी जान-बूझकर अपनी कमियाँ नहीं छिपाते या स्वांग नहीं करते। ऐसे लोग थकाऊ जीवन नहीं जीते, दूसरे उनसे मिलना-जुलना पसंद करते हैं, परमेश्वर उन्हें पसंद करता है। लेकिन कपटी लोगों के मन उलझे हुए होते हैं, वे साजिश रचते हैं, हर चीज में उनकी अपनी मंशाएं होती हैं, और उनके साथ, बड़े सरल मामले और बातें भी बहुत जटिल हो जाती हैं। कपटी लोगों की सारी कथनी और करनी, अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए दूसरों को उलझन में डालने, उनसे छल करने के लिए होती है। वे दानवी प्रकृति का जीवन जीते हैं, और परमेश्वर ऐसे लोगों को कभी नहीं बचाता। इस बारे में सोचकर, मैं थोड़ा डर गई। मैं समझ गई कि मेरी प्रकृति शैतान की ही तरह कपटी और दुष्ट है, और अगर मैंने अब भी सत्य का अनुसरण कर खुद को नहीं बदला, तो परमेश्वर मुझे त्याग कर मुझे दंड देगा। परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है, और जो लोग परमेश्वर के राज्य में रहेंगे, वे सभी सत्य का अभ्यास करने को तैयार ईमानदार लोग होंगे। एक कपटी इंसान कभी परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं करेगा। इस बारे में सोचकर मुझे गहरा पछतावा हुआ, अब मैं अपने कपटी और दुष्ट स्वभाव के साथ नहीं जीना चाहती थी, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि मैं एक ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करना चाहती हूँ, चाहे जो भी हो, मैं हर किसी के साथ खुलकर ईमानदारी से बात करना चाहती हूँ। इसके बाद, एक बैठक में, मैं अपने घिनौने इरादों और इन दोनों मामलों में दिखाई भ्रष्टता के बारे में खुलकर बोली। ऐसा करने के बाद, मुझे बड़ी राहत मिली, सुकून मिला।

इसके बाद, मैंने सोचा मैं अपने बारे में अगुआ की राय की हमेशा क्यों परवाह करती थी, और इस बात को लेकर मैं क्यों झूठ बोल कर छल कर पाती थी। एक दिन परमेश्वर के वचनों में मैंने यह पढ़ा, "किसी अगुआ या कार्यकर्ता का कोई भी स्तर हो, अगर तुम लोग उनकी सत्य की समझ और उनके गुणों के लिए उनकी आराधना करते हो और मानते हो कि उनके पास सत्य है और वे तुम्हारी मदद कर सकते हैं, और अगर तुम सभी चीजों में उन पर श्रद्धा रखते हो और उन पर निर्भर रहते हो, और इसके माध्यम से उद्धार प्राप्त करने का प्रयास करते हो, तो अंत में इन सबका कोई फल नहीं निकलेगा, क्योंकि प्रस्थान-बिंदु ही अंतर्निहित रूप से गलत है। कोई कितने भी सत्य समझता हो, मसीह का स्थान नहीं ले सकता, और चाहे वे कितने भी प्रतिभाशाली हों, इसका यह मतलब नहीं कि उनके पास सत्य है—और इसलिए लोगों की आराधना, श्रद्धा और अनुसरण करने वाले सभी अंततः त्याग दिए जाएँगे, वे सभी निंदित होंगे। जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे केवल परमेश्वर की ही आराधना और उसका ही अनुसरण कर सकते हैं। अगुआओं में उनका स्तर चाहे जो हो, अगुआ आम इंसान ही होते हैं। अगर तुम उन्हें अपना आसन्न वरिष्ठ समझते हो, अगर तुम्हें लगता है कि वे तुमसे श्रेष्ठ हैं, तुमसे ज़्यादा योग्य हैं, वे तुम्हारी अगुवाई करें, वे उस वर्ग में सर्वश्रेष्ठ हैं, तो फिर यह ग़लत है—यह तुम्हारा भ्रम है। ... अगर तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तो तुम्हें उसके वचन सुनने चाहिए, और अगर कोई सही तरीके से बोलता है और कार्य करता है, और यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है, तो क्या सत्य का पालन करना सही नहीं है? तुम इतने नीच क्यों हो? अनुसरण के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करने की ज़िद पर क्यों अड़े रहते हो जिसकी तुम आराधना करते हो? तुम शैतान के गुलाम क्यों बनना चाहते हो? इसके बजाय, तुम सत्य के सेवक क्यों नहीं बनते? यह दिखाता है कि किसी व्यक्ति में समझदारी और गरिमा है या नहीं। तुम्हें खुद से शुरू करना चाहिए : खुद को विभिन्न प्रकार के सत्यों से लैस करो, विभिन्न मामलों और लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की पहचान करने में सक्षम बनो, जानो कि विभिन्न लोगों में जो अभिव्यक्त होता है उसकी प्रकृति क्या है और उनमें कौन-सा स्वभाव प्रकट होता है, विभिन्न प्रकार के लोगों के सार पहचानना सीखो, इस बारे में स्पष्ट रहो कि तुम्हारे आसपास किस तरह के लोग हैं, तुम किस तरह के व्यक्ति हो, और तुम्हारा अगुआ किस तरह का व्यक्ति है। जब तुम यह सब स्पष्ट रूप से देख लो, तो तुम्हें इन लोगों से सत्य के सिद्धांतों के अनुसार सही तरीके से व्यवहार करने में सक्षम होना चाहिए : अगर वे भाई-बहन हैं तो तुम्हें उनका प्यार से सामना करना चाहिए, और अगर वे भाई-बहन नहीं हैं तो तुम्हें उन्हें छोड़ देना चाहिए और उनसे दूरी बनाकर रखनी चाहिए; अगर वे ऐसे लोग हैं जिनमें सत्य की वास्तविकता है, तो भले ही तुम उन पर श्रद्धा रखो, तुम्हें उनकी आराधना नहीं करनी चाहिए। मसीह का स्थान कोई नहीं ले सकता, केवल मसीह ही वास्तविक परमेश्वर है। अगर तुम ये चीजें स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, तो तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद है, और तुम्हारे मसीह-विरोधियों द्वारा ठगे जाने की आशंका नहीं है, और न ही तुम्हें इस बात से डरने की आवश्यकता है कि तुम मसीह-विरोधियों द्वारा ठगे जाओगे" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अजीब और रहस्यमय तरीके से व्यवहार करते हैं, वे स्वेच्छाचारी और तानाशाह होते हैं, वे कभी दूसरों के साथ संगति नहीं करते, और वे दूसरों को अपने आज्ञापालन के लिए मजबूर करते हैं')। परमेश्वर ने मेरी हालत का ही खुलासा किया था। हालाँकि मैं कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करती थी, मगर मेरे दिल में उसके लिए कोई जगह नहीं थी। मैं लोगों की सत्ता और रुतबे पर ही ध्यान केंद्रित किए हुए थी, मैं शैतान के इस जहर पर भरोसा करती थी कि "एक उच्च अधिकारी एक स्थानीय अधिकारी जैसा नहीं हो सकता," और मुझे हमेशा लगता कि मुझ पर परमेश्वर की प्रभुसत्ता और नियंत्रण बहुत दूर की बात है, मानो मेरे सामने वाला अगुआ ही मेरे लिए सारे फैसले लेता है, क्या मेरी कद्र होगी, क्या मुझे पोषण दिया जाएगा, क्या मैं अपना कर्तव्य निभा भी पाऊँगी, ये सब अगुआ की बातों पर निर्भर करते हैं। क्या यह अविश्वासियों का नजरिया नहीं है? अपने अगुआओं की सराहना हासिल करने और अपने ओहदे और नौकरी को बचाए रखने के लिए, अविश्वासी पालतू कुत्तों की तरह, हर चीज में अपने अगुआओं को खुश करते हैं, हर जगह उनकी चापलूसी करते हैं, मानो उनका कोई चरित्र या गरिमा ही न हो। उनमें और मुझमें क्या फर्क था? अगुआ की सराहना पाने और अपना रुतबा कायम रखने के लिए मैं हमेशा उन्हें खुश करना चाहती थी, उनकी पसंद के साथ तालमेल बिठाने के लिए, अंदाजा लगाने की भरसक कोशिश करती थी। मैं बस हवा का रुख देखकर काम करने वाली एक धूर्त खलनायिका बन गई थी। अपने निजी हितों के लिए, मैंने अपनी इंसानी गरिमा खो दी, और पूरी तरह से अमानवीय बन गई। दरअसल, अविश्वासियों की दुनिया के विपरीत, परमेश्वर के घर में लोगों को चुनने और उनका पोषण करने के सिद्धांत हैं। अविश्वासी इस कहावत पर अमल करते हैं कि "खुशामदी और चापलूसी के बिना कोई कुछ भी हासिल नहीं कर पाता है।" अगर वे अपने वरिष्ठों के तलवे चाट सकते हैं, तो असली प्रतिभा और ज्ञान के बिना भी वे कृपापात्र बनकर तरक्की पा सकते हैं। लेकिन परमेश्वर के घर की बात अलग है। उसके घर में सत्य का राज होता है। लोगों का चयन और पोषण सत्य के सिद्धांतों के आधार पर होता है। अगर आप नेक इंसान हैं, सत्य को स्वीकार सकते हैं, आपका दिल परमेश्वर पर लगा है, आप परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर सकते हैं, तो भले ही आपकी काबिलियत थोड़ी कमजोर हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। कलीसिया सभी के लिए सही कर्तव्य की व्यवस्था करती है। अगर आप चरित्र से बुरे हैं, सत्य का अनुसरण नहीं करते, सिर्फ चालें चलते और साजिश रचते हैं, तो अगुआ के कृपापात्र बनकर आपको कोई अहम भूमिका नहीं मिलेगी। एक बार भाई-बहनों ने आपको परख कर समझ लिया, तो आपसे घृणा कर आपको ठुकरा देंगे। कुछ झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी, सिद्धांतों के विरुद्ध जाकर, चापलूसी करने और उनके तलवे चाटने वालों की तरक्की कर भी दें, तो देर-सवेर उनका खुलासा हो जाएगा, परमेश्वर के घर में वे दोबारा पैर नहीं जमा सकते। यह समझ लेने के बाद, मुझे अब यह फिक्र नहीं रही कि अगुआ मुझे किस नजर से देखते हैं। इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं, और क्या मैं अपने कर्तव्य पर कायम रह सकूँगी, यह इस पर निर्भर करता है कि क्या मैं सत्य का अनुसरण कर अपना कर्तव्य सही ढंग से निभाती हूँ। अब मुझे बस अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने, और अपनी समस्याएँ और मुश्किलें हल करने के लिए अपने कर्तव्य में सत्य खोजने पर ध्यान देना चाहिए। मुझे इसी तरह अभ्यास करना चाहिए, यही मेरी असली जिम्मेदारी है।

इसके बाद, परमेश्वर के वचन में मैंने अभ्यास का मार्ग खोजा और मुझे यह अंश मिला। "तुम सभी लोग जानते हो कि परमेश्वर उन लोगों से घृणा करता है, जो चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, खुशामद करते हैं, और तुमसे वह बात कहते हैं जो उनके विचार से तुम सुनना चाहते हो। तो लोगों को किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? ... ईमानदार रहो : यही वह सिद्धांत है, जिसका परमेश्वर के साथ बातचीत करते समय पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर से चिकनी-चुपड़ी बातें करने या उसकी खुशामद करने की आवश्यकता नहीं है, ईमानदार होना ही पर्याप्त है। और ईमानदार होने का क्या मतलब है? इसे अभ्यास में कैसे लाया जाना चाहिए? (बस कोई दिखावा किए बिना या कुछ छिपाए बिना या कोई रहस्य रखे बिना परमेश्वर के सामने खुलना, परमेश्वर से सच्चे दिल से मिलना, और बिना किसी छल या फरेब के स्पष्टवादी होना।) यह सही है। ईमानदार होने के लिए तुम लोगों को पहले अपनी निजी इच्छाओं को एक तरफ रखना होगा। यह ध्यान देने की बजाय कि परमेश्वर तुम्हारे साथ किस तरह का व्यवहार करता है, जो कुछ तुम्हारे दिल में है वह कह दो, और इस बात की चिंता या परवाह न करो कि तुम्हारे शब्दों का क्या परिणाम होगा; जो कुछ तुम सोच रहे हो वह कह दो, अपनी मंशाओं को एक तरफ रख दो, और बस किसी मकसद को हासिल करने के लिए शब्दों को मत कहो। जब तुम्हारे अनेक व्यक्तिगत इरादे होते हैं, तो तुम हमेशा यह सोचते हुए तोलकर बातें करते हो कि 'मुझे इस बारे में बात करनी चाहिए, उस बारे में नहीं, मैं जो कहता हूँ उसके बारे में सावधान रहना चाहिए। मैं इसे उस तरह कहूँगा जिससे मुझे फायदा हो और जो मेरी कमियाँ ढक दे, और परमेश्वर पर अच्छा प्रभाव छोड़े।' क्या तुम्हारे पास प्रेरणाएँ नहीं हैं? मुँह खोलने से पहले तुम्हारा दिमाग कुटिल विचारों से भरा होता है, तुम जो कहना चाहते हो उसे कई बार संशोधित करते हो, जिससे जब शब्द तुम्हारे मुँह से निकलते हैं तो वे इतने शुद्ध नहीं होते, और जरा भी वास्तविक नहीं होते, और उनमें तुम्हारे अपने इरादे और शैतान के षड्यंत्र शामिल होते हैं। ईमानदार होने का मतलब यह नहीं है। यह क्या है? इसे कहते हैं बुरे इरादे, कुटिल प्रयोजन। और तो और, जब तुम बात करते हो, तो तुम हमेशा दूसरे व्यक्ति के चेहरे के भावों और उनकी आँखों के रुख से अपने संकेत लेते हो : अगर व्यक्ति के चेहरे पर सकारात्मक अभिव्यक्ति होती है, तो तुम बात करते रहते हो; अगर नहीं, तो तुम बात दबा लेते हो और कुछ नहीं कहते; अगर दूसरे व्यक्ति की आँखों का रुख खराब है, और अगर ऐसा लगता है कि उन्हें वह पसंद नहीं है जो वे सुन रहे हैं, तो तुम इसके बारे में सोचते हो और मन में कहते हो, 'ठीक है, मैं कुछ ऐसा कहूँगा जो तुम्हें रुचिकर लगे, जो तुम्हें खुश कर दे, जिसे तुम पसंद करोगे, और जो तुम्हें मेरे अनुकूल बना दे।' क्या यह ईमानदार होना है? यह ईमानदार होना नहीं है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो)')। "परमेश्वर उन लोगों को पसंद नहीं करता, जो चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, खुशामद करते हैं, या वह बात कहते हैं जो उनके विचार से वह सुनना चाहता है। तो परमेश्वर किस तरह के लोगों को पसंद करता है? परमेश्वर लोगों द्वारा अपने साथ किस तरह बातचीत और संगति किया जाना पसंद करता है? परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है, जो ईमानदार और स्पष्टवादी होते हैं। वह नहीं चाहता कि तुम उसे आजमाओ और पढ़ने की कोशिश करो और उससे अपने संकेत ग्रहण करो; वह चाहता है कि तुम खरे बनो और ईमानदार रहो। वह नहीं चाहता कि तुम कुछ छिपाओ या अपने दिल में कोई ढोंग या दिखावा करो, वह चाहता है कि बाहर वही हो जो तुम्हारे दिल में है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो)')। परमेश्वर के वचन अभ्यास के मार्ग को बहुत स्पष्ट कर देते हैं। परमेश्वर और लोगों के साथ बातचीत में, आपको बेबाक, ईमानदार और सत्य बोलने में सक्षम होना चाहिए, आपको सत्ता और रुतबे के काबू में नहीं होना चाहिए, निजी मंशाएँ नहीं रखनी चाहिए, और आपको परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर एक ईमानदार इंसान बनना चाहिए। तब, परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़कर मुझे प्रभु यीशु का पतरस से पूछा यह प्रश्न याद आया, "शमौन, योना के पुत्र, क्या तूने कभी मुझसे प्रेम किया है?" पतरस ने सच्चाई से जवाब दिया, "प्रभु! मैंने एक बार स्वर्गिक पिता से प्रेम किया था, किंतु मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने तुझसे कभी प्रेम नहीं किया।" पतरस सच्चा और ईमानदार था। उसने यह नहीं सोचा कि प्रभु यीशु को कैसे खुश करूँ, उसने बस वही कहा, जो उसके मन में था। पतरस का दिल सच्चा और निर्मल था, इसलिए वह प्रभु यीशु के साथ ईमानदार रह पाया। पतरस ने जो जीवन जिया, उससे परमेश्वर संतुष्ट हुआ, उसने उसे स्वीकृति दी। ये बातें समझ लेने के बाद, मैं अभ्यास के मार्ग को और स्पष्ट रूप से जान पाई, और मैं समझदारी से अपने जीवन में ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करने लगी।

एक दिन, एक बैठक के बाद, मेरे अगुआ ने मुझसे और दो समूह अगुआओं से एक बहन के बारे में हमारा आकलन जानना चाहा। यह सुनकर मैं थोड़ी घबरा गई, और फिर से अंदाजा लगाने लगी, "मेरे अगुआ आकलन चाहते हैं, तो क्या उन्हें लगता है कि इस बहन के साथ कोई समस्या है? वे हमसे पूछने आए हैं, तो क्या वे हमारी परख की परीक्षा लेना चाहते हैं? अगुआ ने कहा कि इन दोनों अगुआओं की काबिलियत अच्छी है, और वे उनका पोषण करना चाहते हैं, ऐसे में अगर मेरी नजर उनके जैसी पैनी नहीं रही, तो क्या फिर भी मेरी कद्र होगी, मेरा पोषण किया जाएगा?" तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अंदाजा लगाकर छल करने वाली थी। मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया, "परमेश्वर उन लोगों को पसंद नहीं करता, जो चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, खुशामद करते हैं, या वह बात कहते हैं जो उनके विचार से वह सुनना चाहता है। तो परमेश्वर किस तरह के लोगों को पसंद करता है? परमेश्वर लोगों द्वारा अपने साथ किस तरह बातचीत और संगति किया जाना पसंद करता है? परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है, जो ईमानदार और स्पष्टवादी होते हैं। वह नहीं चाहता कि तुम उसे आजमाओ और पढ़ने की कोशिश करो और उससे अपने संकेत ग्रहण करो; वह चाहता है कि तुम खरे बनो और ईमानदार रहो। वह नहीं चाहता कि तुम कुछ छिपाओ या अपने दिल में कोई ढोंग या दिखावा करो, वह चाहता है कि बाहर वही हो जो तुम्हारे दिल में है।" मैं क्या सोचती हूँ, क्या करना चाहती हूँ, यह सब परमेश्वर देखता है, परमेश्वर चाहता है कि मैं एक ईमानदार इंसान बनूँ, किसी स्वांग, छुपाव या अपने अंदरूनी विचारों से विसंगति के बिना वही बोलूँ जो वास्तव में सोचती हूँ। मुझे परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास कर दूसरों के साथ ईमानदार होना चाहिए। इसलिए, मैंने अगुआ को सीधे अपनी राय बता दी। बात पूरी हो जाने पर, मुझे बड़ा सुकून मिला, मैंने महसूस किया कि ईमानदार इंसान होने का अभ्यास करके मुझे सुकून मिला, मैंने शांत और सुरक्षित महसूस किया। ऐसा अनुभव मुझे पहले कभी नहीं हुआ था। मैंने सत्य बोलने की थोड़ी मिठास का भी अनुभव किया, लगा, लोगों को अपना आचरण ऐसा ही रखना चाहिए। परमेश्वर का धन्यवाद!

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