92. नाकामियों और बाधाओं से गुजरकर आगे बढ़ना

मैंने दिसंबर 2020 में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। कुछ महीने बाद ही मुझे कलीसिया-अगुआ चुना गया। कलीसिया में बहुत सारे काम करने थे और बहुत-से मसले सुलझाने थे। मैं बड़े जोश से काम में लग गई। कुछ समय बाद, मैं कलीसिया के कार्य को थोड़ा और जान सकी, फिर भी बहुत-सी समस्याएँ सामने आ रही थीं। बहुत-से नए सदस्य नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ रहे थे। कुछ लोग ऑनलाइन अफवाहों से बिदक रहे थे, कुछ लोग असल में दर्शन का सत्य नहीं समझ पा रहे थे, उनके मन में अनसुलझी धार्मिक धारणाएँ थीं, और कुछ लोग अपने कामों में व्यस्त होने के कारण नियमित रूप से सभाओं में नहीं आ पा रहे थे। इन मसलों का सामना करते हुए, मैं संघर्षों से उबरने में उनकी मदद के लिए परमेश्वर की इच्छा पर संगति करने की कड़ी मेहनत कर रही थी, लेकिन उनकी समस्याएँ अब भी सुलझ नहीं पाई थीं। मैं सचमच हताश हो गई थी। लगातार खुद से पूछ रही थी कि मेरी कड़ी मेहनत रंग क्यों नहीं ला रही। परमेश्वर हमारी कलीसिया को आशीष क्यों नहीं दे रहा? भाई-बहनों के बहुत-से मसले थे, और उनसे मेरी अनेक संगतियाँ नाकाम हो चुकी थीं। शायद मैं अगुआई के लायक नहीं थी? मैंने खुद को धिक्कारा : यह सब मेरी वजह से हो रहा था। अगर मैं जवाबदेही लेकर इस्तीफा दे दूँ, तो कोई और अगुआ के तौर पर सेवा कर सकेगा, और काम ज्यादा सफल होगा। मैं उदास हो रही थी, बस बर्खास्त होने के इंतजार में, अपने कर्तव्य में निष्क्रिय हो गई थी। मैं यह भी सोच रही थी कि मुझे उजागर करने, नाकाम करने के लिए, परमेश्वर ये मुश्किलें खड़ी कर रहा था, और शायद वह मुझे छोड़ चुका था। इस ख्याल से मैं सिहर गई। क्या परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया था? मैं प्रार्थना कर सत्य खोज रही थी, लेकिन अब भी परमेश्वर की इच्छा समझ नहीं पाई थी। यह ख्याल कि परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया था, समय-समय पर उभर रहा था। मैं हर वक्त उदास, थकी हुई और कमजोर महसूस कर रही थी। सच में डरी हुई थी, लग रहा था कि मुझमें अब पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है।

तब कलीसिया में कुछ टीम-अगुआओं की कमी थी, तो सुपरवाइजर ने कुछ नए सदस्यों के नाम सुझाए। मैंने बारीकियों पर ज्यादा गौर किए बिना सीधे उनकी नियुक्ति कर दी। शुरू-शुरू में उन सबने कोई कर्तव्य निभाने की अपनी इच्छा जताई, मगर जब उन सबने आधिकारिक तौर पर काम शुरू किया, तो एक ने कहा कि उसे नौकरी करनी थी और वह व्यस्त था, इसलिए वह हमारे काम का नहीं था, दूसरा पारिवारिक मामलों के कारण सभाओं में देर से आता, और वह भी काम नहीं सँभाल सकता था। आखिरकार मैंने तय किया कि फिलहाल वे टीम-अगुआओं के तौर पर विकसित करने लायक नहीं थे। काम में आई इन दिक्कतों को सुलझाने के लिए कड़ी मेहनत करने पर भी, मुझे कुछ समय तक अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे। उस समय, मैं सचमुच ये नाकामियाँ नहीं झेल पा रही थी। मैं सचमुच निराश थी, हर नए दिन का सामना करने से डरती थी। अब मैं कलीसिया का कार्य नहीं करना चाहती थी, क्योंकि मैं बहुत सारे काम करने पर भी, कुछ भी हासिल नहीं कर पाई थी। मुझे लगा, मैं ऐसी हालत इसलिए झेल रही थी कि परमेश्वर मुझे नाकाबिल के रूप में उजागर करना चाहता था, लेकिन मैं खुद को ऐसी दशा में डूबने नहीं देना चाहती थी। नहीं चाहती थी कि अपने कर्तव्य में नतीजे न पाने के कारण मुझे उजागर कर त्याग दिया जाए।

एक बार अपनी भक्ति में, मेरी नजर "जिम्‍मेदारी स्‍वीकार करने और त्‍यागपत्र देने के सिद्धांत" पर पड़ी : "अगर कोई झूठा अगुआ या कार्यकर्ता सत्‍य को स्‍वीकार नहीं करता, व्‍यावहारिक कार्य नहीं कर सकता, और लंबे समय तक पवित्र आत्‍मा के कार्य से वंचित रहा है, तो उसे जिम्मेदारी स्‍वीकार करनी चाहिए और त्‍यागपत्र दे देना चाहिए" (सत्य का अभ्यास करने के 170 सिद्धांत)। इसे पढ़कर मुझे और ज्यादा निराशा हुई। मुझे क्या करना चाहिए? मैंने कलीसिया की कोई भी समस्या नहीं सुलझाई थी, तो मैं एक झूठी अगुआ थी। क्या मुझे जवाबदेही मानकर इस्तीफा दे देना चाहिए, ताकि कोई सक्षम व्यक्ति अगुआ बन सके? मैं तीन महीनों से कलीसिया का कार्य कर रही थी, लेकिन कलीसिया में मौजूद समस्याएँ नहीं सुलझा पाई थी। और ऐसे हालात में, मैं अब भी परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ पाई थी और कोई तरक्की नहीं की थी। मैं परमेश्वर को गलत भी समझ रही थी। मुझे दूसरों के यह सोचने की फिक्र थी कि मैं बड़ी निराश थी, मुझे डर था कि मेरे इस्तीफे की सोच पर वे मुझे फटकारेंगे।

एक बार मैंने एक सभा में परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा : "तुम एक साधारण व्यक्ति हो। तुम्हें कई असफलताओं, भ्रम की कई अवधियों, निर्णय में कई त्रुटियों और कई भटकावों से गुजरना होगा। यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव, तुम्हारी कमजोरियाँ और कमियाँ, तुम्हारी अज्ञानता और मूर्खता पूरी तरह से उजागर कर सकता है, जिससे तुम खुद को फिर से जाँच और जान सकते हो, और परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और पूर्ण बुद्धिमत्ता, उसके स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कर सकते हो। तुम उससे सकारात्मक चीजें प्राप्त करोगे और सत्य समझकर वास्तविकता में प्रवेश कर जाओगे। तुम्हारे अनुभव के बीच बहुत-कुछ ऐसा होगा, जो तुम्हारी इच्छा के अनुरूप नहीं होगा, जिसके सामने तुम शक्तिहीन महसूस करोगे। ऐसा होने पर तुम्हें तलाश और प्रतीक्षा करनी चाहिए; प्रत्येक मामले का उत्तर परमेश्वर से प्राप्त करना चाहिए, और उसके वचनों से प्रत्येक मामले का अंतर्निहित सार और हर तरह के व्यक्ति का सार समझना चाहिए। एक साधारण, सामान्य व्यक्ति इसी तरह व्यवहार करता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के वचनों को सँजोना परमेश्वर में विश्वास की नींव है)। परमेश्वर बहुत ही बुद्धिमान है। मैंने नई समझ हासिल की कि परमेश्वर कार्य कैसे करता है। मैंने देखा कि हर किसी को अपने कर्तव्य में कुछ नाकामियों और बाधाओं से गुजरना होता है, और परमेश्वर की इच्छा थी कि मैं अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए इन सबसे गुजरकर सत्य खोजूँ। मैंने कर्तव्य में कुछ मुश्किलें झेली थीं, कुछ नाकामियों का अनुभव किया था, लेकिन मैंने न सत्य खोजा और न ही परमेश्वर की इच्छा खोजी। मैं बस हमेशा इस्तीफा देने के बारे में सोचती थी, क्योंकि मुझे लगता था कि कर्तव्य में मुझे कोई कामयाबी नहीं मिली या मैंने वह नहीं किया जो अगुआ को करना चाहिए था। मैंने अपनी असली हालत के बारे में दूसरों से कहने की भी हिम्मत नहीं की थी। मैं सचमुच अज्ञानी थी। मैं नहीं समझती थी कि परमेश्वर की इच्छा क्या है, या परमेश्वर मेरे साथ ऐसा क्यों होने देगा। फिर परमेश्वर के वचनों से समझ सकी कि मैं बस एक आम इंसान थी, तो अपने कर्तव्य में कुछ मुश्किलें और नाकामियाँ झेलना आम बात थी। परमेश्वर की इच्छा इसी में थी। इसलिए, मैंने भाई-बहनों से खुलकर अपनी हाल की दशा के बारे में बताया और उनसे मदद माँगी। यह भी बताया कि मैंने जवाबदेही मानकर इस्तीफा देने की भी सोची थी। उन्होंने मुझे नीची नजर से नहीं देखा, बल्कि उन्होंने मेरी मदद कर मुझे प्रोत्साहन दिया, और परमेश्वर के वचनों पर संगति की। उनकी बातों ने मेरे दिल को छू लिया।

उन्होंने मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कुछ वचन पढ़कर सुनाए। परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते समय, चाहे तुम कितनी भी बार असफल हुए हो, गिरे हो, तुम्हारी काट-छाँट की गई हो या उजागर किए गए हो, ये बुरी चीजें नहीं हैं। भले ही तुम्हारी कैसी भी काट-छाँट या निपटारा किया गया हो, चाहे किसी अगुआ या कार्यकर्ता ने किया हो या तुम्हारे भाई-बहनों ने, ये सब अच्छी चीजें होती हैं। तुम्हें यह बात याद रखनी चाहिए : चाहे तुम्हें कितना भी कष्ट हो, तुम्हें असल में इससे लाभ होता है। कोई भी अनुभव वाला व्यक्ति इसकी पुष्टि कर सकता है। चाहे कुछ भी हो जाए, काट-छाँट, निपटारा और उजागर किया जाना हमेशा अच्छा होता है। यह कोई निंदा नहीं है। यह परमेश्वर का उद्धार है और तुम्हारे लिए स्वयं को जानने का सर्वोत्तम अवसर है। यह तुम्हारे जीवन अनुभव को गति दे सकता है। इसके बिना, तुम्हारे पास न तो अवसर होगा, न ही परिस्थिति, और न ही अपनी भ्रष्टता के सत्य की समझ तक पहुँचने में सक्षम होने के लिए कोई प्रासंगिक आधार होगा। अगर तुम सत्य को सचमुच समझते हो, और अपने दिल की गहराइयों में छिपी भ्रष्ट चीजों का पता लगाने में सक्षम हो, अगर तुम स्पष्ट रूप से उनकी पहचान कर सकते हो, तो यह अच्छी बात है, इससे जीवन में प्रवेश की एक बड़ी समस्या हल हो जाती है, और यह स्वभाव में बदलाव के लिए भी बहुत लाभदायक है। स्वयं को सही मायने में जानने में सक्षम होना, तुम्हारे लिए अपने तरीकों में बदलाव कर एक नया व्यक्ति बनने का सबसे अच्छा मौका है; तुम्हारे लिए यह नया जीवन पाने का सबसे अच्छा अवसर है। एक बार जब तुम सच में खुद को जान लोगे, तो तुम यह देख पाओगे कि जब सत्य किसी का जीवन बन जाता है, तो यह निश्चय ही अनमोल होता है, तुममें सत्य की प्यास होगी, तुम सत्य का अभ्यास करोगे और इसकी वास्तविकता में प्रवेश करोगे। यह कितनी बड़ी बात है! यदि तुम इस अवसर को थाम सको और ईमानदारी से मनन कर सको, तो कभी भी असफल होने या नीचे गिरने पर स्वयं के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सकते हो, तब तुम नकारात्मकता और कमज़ोरी में भी फिर से खड़े हो सकोगे। एक बार जब तुम इस सीमा को लांघ लोगे, तो फिर तुम एक बड़ा कदम उठा सकोगे और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकोगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य प्राप्त करने के लिए अपने आसपास के लोगों, मामलों और चीज़ों से सीखना चाहिए)। "परमेश्वर द्वारा मानवजाति का उद्धार उन लोगों का उद्धार है, जो सत्य से प्रेम करते हैं, उनके उस हिस्से का उद्धार है, जिसमें इच्छा-शक्ति और संकल्प हैं, और उनके उस हिस्से का उद्धार है, जिनके दिल में सत्य और धार्मिकता के लिए तड़प है। किसी व्यक्ति का संकल्प उसके दिल का वह हिस्सा है, जो धार्मिकता, भलाई और सत्य के लिए तरसता है, और विवेक से युक्त होता है। परमेश्वर लोगों के इस हिस्से को बचाता है, और इसके माध्यम से, वह उनके भ्रष्ट स्वभाव को बदलता है, ताकि वे सत्य को समझ सकें और हासिल कर सकें, ताकि उनकी भ्रष्टता परिमार्जित हो सके, और उनका जीवन-स्वभाव रूपांतरित किया जा सके। यदि तुम्हारे भीतर ये चीज़ें नहीं हैं, तो तुमको बचाया नहीं जा सकता। ... पतरस को फल क्यों कहा जाता है? क्योंकि उसमें मूल्यवान चीजें हैं, जो पूर्ण करने के लायक हैं। उसने सभी बातों में सत्य की खोज की, उसमें संकल्प था और दृढ़ इच्छाशक्ति थी; उसमें विवेक था, वह कठिनाई सहने के लिए तैयार था और दिल से सत्य से प्रेम करता था; उसने आने वाली हर चीज को थामे रखा, और हर चीज से सबक सीख सका। ये सभी बड़ी खूबियाँ हैं। यदि तुम्हारे पास इनमें से कोई भी बड़ी खूबी नहीं है, तो यह परेशानी की बात है। तुम्हारे लिए सत्य प्राप्त करना और बचाया जाना आसान नहीं होगा। यदि तुम्हें नहीं पता कि अनुभव कैसे करना है या तुम्हें कोई अनुभव नहीं है, तो तुम अन्य लोगों की कठिनाइयों को हल करने में सक्षम नहीं होगे। चूँकि तुम परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने में असमर्थ हो, और तुम नहीं जानते कि अगर कुछ हो जाए तो क्या करना है और तुम परेशान हो जाते हो—आंसू बहाने लगते हो—जब तुम समस्याओं का सामना करते हो, तो नकारात्मक हो जाते हो और छोटी-मोटी असफलता पर भाग खड़े होते हो और कभी सही तरीके से प्रतिक्रिया नहीं दे पाते—इन सब के कारण, तुम्हारे लिए जीवन में प्रवेश करना असंभव है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। इसे पढ़ने के बाद, एक बहन ने मुझसे संगति की : "जैसी भी नाकामियों और बाधाओं से हमारा सामना हो, हमें प्रार्थना कर परमेश्वर की इच्छा खोजनी चाहिए, सत्य को और अपने कर्तव्य को नहीं छोड़ना चाहिए। अपना कर्तव्य छोड़ देना समस्या सुलझाने का मार्ग नहीं है। कर्तव्य में आने वाली दिक्कतों और समस्याओं से गुजरकर ही हमारी भ्रष्टता और कमियों का खुलासा होता है, और हम सच में खुद को जान सकते हैं। उन अनुभवों के बिना हम अपनी भ्रष्टता और कमियों को नहीं देख सकते। तो फिर हम कैसे बदल सकते हैं? इसलिए, नाकामियों और बाधाओं का अनुभव करना बुरी बात नहीं है। सत्य खोजने और सबक सीखने का यही समय है—हम परमेश्वर को गलत नहीं समझ सकते। अगर समस्याएँ आने पर हम इस्तीफा दे दें, अपना कर्तव्य छोड़ दें, तो हम परमेश्वर के कार्य का अनुभव और उद्धार का अनुसरण कैसे कर पाएँगे? हमारे पास कौन-सी गवाही होगी? परमेश्वर हमसे ज्यादा अपेक्षा नहीं रखता। अगर समस्याओं और मुश्किलों से सामना होने पर हम ठान लें, और सच्चे दिल से प्रार्थना कर सत्य को खोजें, तो परमेश्वर रास्ता दिखाएगा, हमारी मदद करेगा।" इस बहन की संगति ने मुझे सच में प्रबुद्ध किया। मुझे एहसास हुआ कि नाकामियों और बाधाओं का अनुभव करना परमेश्वर का प्रेम है, यह मेरे लिए सत्य खोजने और सबक सीखने का अच्छा मौका है। मुझे याद आया कि किस तरह पतरस ने अपने पूरे जीवन में अनेक परीक्षणों, शोधनों, बाधाओं और नाकामियों का अनुभव किया था। कभी-कभी उसने दैहिक कमजोरियाँ झेलीं, लेकिन उसने कभी भी परमेश्वर में आस्था नहीं खोई। वह सत्य का अनुसरण कर परमेश्वर की इच्छा खोजता रहा, अपनी कमियों की भरपाई करता रहा। अंत में उसने सत्य को समझ लिया, परमेश्वर को जान लिया, और परमेश्वर के प्रति समर्पण और प्रेम हासिल किया। मुझे भी पतरस की तरह मजबूत और अटल बनना चाहिए, बाधाओं और समस्याओं से सामना होने पर, मुझे परमेश्वर से प्रार्थना कर उसकी इच्छा खोजनी चाहिए, परमेश्वर को गलत समझकर, उसे दोष देने के बजाय अपनी कमियों पर सोच-विचार करना चाहिए।

एक बार अपनी भक्ति में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे परमेश्वर की इच्छा समझने में थोड़ी मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "लोगों को परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देना और उसके हृदय को समझना सीखना चाहिए। उन्हें परमेश्वर को गलत नहीं समझना चाहिए। दरअसल, कई मामलों में लोगों की चिंता अपने हितों से ही उपजती है। आम तौर पर, यह भय होता है कि उनका कोई परिणाम नहीं होगा। वह मन ही मन सोचता है, 'अगर परमेश्वर मुझे उजागर कर देता है, निकाल देता है और नकार देता है, तो क्या फर्क पड़ता है?' यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को गलत समझना है; ये केवल तुम्हारे अपने विचार हैं। तुम्हें पता लगाना होगा कि परमेश्वर का इरादा क्या है। परमेश्वर लोगों को निकालने के लिए उजागर नहीं करता। लोगों को इसलिए उजागर किया जाता है ताकि उन्हें अपनी कमियों का, गलतियों का और अपनी प्रकृति के सार का पता चले, ताकि वे खुद को जानकर सच्चा पश्चात्ताप करने में समर्थ हो सकें; इस तरह, लोगों को उजागर इसलिए किया जाता है ताकि वे अपने जीवन में विकास कर सकें। अच्छी समझ के बिना, लोग परमेश्वर की गलत व्याख्या करके नकारात्मक और कमजोर हो सकते हैं। वे बुरी तरह निराश भी हो सकते हैं। वास्तव में, परमेश्वर द्वारा उजागर किए जाने का अर्थ यह नहीं है कि लोगों को निकाल ही दिया जाएगा। यह इसलिए है ताकि तुम्हें ज्ञान मिले और तुम पश्चात्ताप करो। अक्सर ऐसा होता है कि लोग विद्रोही हो जाते हैं, और जब वे भ्रष्टता दिखाते हैं तो समाधान ढूँढ़ने के लिए सत्य की खोज नहीं करते, ऐसे में परमेश्वर को उन्हें अनुशासित करना पड़ता है। और इसलिए कभी-कभी, वह लोगों को उजागर कर उनकी कुरूपता और दयनीयता को प्रकट कर देता है, ताकि वे खुद जानें, इससे उनके जीवन में विकास होता है। लोगों को उजागर करने के दो अलग-अलग निहितार्थ हैं : दुष्ट लोगों के लिए, उजागर किए जाने का अर्थ है उन्हें निकाला जाना। जो लोग सत्य स्वीकार लेते हैं, उनके लिए यह एक अनुस्मारक और एक चेतावनी है; उन्हें आत्मचिंतन करने और अपनी वास्तविक स्थिति को देखने के लिए मजबूर किया जाता ताकि वे पथभ्रष्ट और लापरवाह न रहें, क्योंकि अगर उनका रवैया वैसा ही रहा, तो यह खतरनाक होगा। इस तरह से लोगों को उजागर करना उन्हें चेताना है, ताकि वे अपने कर्तव्य निर्वहन में भ्रमित और लापरवाह न हों, अपने कार्य को हल्के में न लें, थोड़े-बहुत प्रभावी होकर ही संतुष्ट न हो जाएँ, यह न सोचने लगें कि उन्होंने अपना काम एक स्वीकार्य मानक तक पूरा कर लिया है—जबकि सच्चाई यह है कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार मापने पर वे मानक से बहुत दूर होते हैं, फिर भी उनमें आत्मसंतुष्टि का भाव होता है और सोचते हैं कि वे ठीक-ठाक कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में, परमेश्वर लोगों को अनुशासित करता है, उन्हें सावधान कर चेतावनी देता है। कभी-कभी, परमेश्वर उनकी कुरूपता उजागर करता है—जो कि स्पष्ट रूप से उनके लिए एक चेतावनी होती है। ऐसे में तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए : इस तरह से अपने कर्तव्य का पालन करना ठीक नहीं है, इसमें विद्रोह शामिल होता है, बहुत अधिक नकारात्मकता होती है, बिल्कुल अनमना होता है। यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करते हो, तो तुम्हें दंडित किया जाएगा। परमेश्वर जब तुम्हें अनुशासित कर उजागर करता है, तो इसका मतलब यह नहीं होता कि तुम्हें निकाल दिया जाएगा। इस बात को सही ढंग से समझा जाना चाहिए। यहाँ तक कि अगर तुम्हें निकाल भी दिया जाए, तो तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए और इसके प्रति समर्पित होना चाहिए, और जल्दी से आत्मचिंतन करके पश्चात्ताप करना चाहिए" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अभ्यास करके और परमेश्वर की आज्ञा मानकर ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि लोगों को उजागर करने का उसका मकसद उन्हें त्यागना नहीं है, बल्कि उन्हें अपनी भ्रष्टता और कमियाँ पहचानने लायक बनाना है, ताकि वे अपनी समस्याएँ सुलझाकर जीवन में तेजी से तरक्की के लिए सत्य का अनुसरण कर सकें। मैंने आत्मचिंतन शुरू किया। तरह-तरह की मुश्किलों और समस्याओं का सामना करते हुए, मैंने सच्चे दिल से मनन कर परमेश्वर की इच्छा नहीं खोजी थी, या अपने मसलों के बारे में जानने के लिए आत्मचिंतन नहीं किया था। मैंने बस यही सोचा कि परमेश्वर इन हालात का इस्तेमाल मुझे उजागर कर त्यागने के लिए कर रहा था, कि मैं अगुआ बनने लायक नहीं थी और मुझे यह ओहदा छोड़ देना चाहिए। मैं परमेश्वर को गलत समझ रही थी। फिर मुझे एहसास हुआ कि काम के बहुत-से मसले खास तौर पर इसलिए अनसुलझे रह गए थे, क्योंकि मैं अपना कर्तव्य लगन से नहीं निभा रही थी। हमेशा लगता था कि मुझे बहुत-से काम पूरे करने थे, लेकिन काम करते समय मेरे सामने कोई दिशा या लक्ष्य नहीं था। मैं नतीजों की परवाह किए बिना जो मन में आता वही करती थी। कुछ लोग अफवाहों से गुमराह हो गए थे, पर मैंने नहीं खोजा कि उनकी धारणाएँ दुरुस्त करने के लिए मुझे सत्य के किस पहलू पर संगति करनी चाहिए, ताकि वे उन अफवाहों को जान-समझ सकें और सच्चे मार्ग पर दृढ़ता से बने रहें। लोगों को विकसित करने के काम में, मैंने सिद्धांत नहीं खोजे, या उनके असली हालात की साफ समझ हासिल नहीं की, बस यह काम आँखें बंद कर करती रही। नतीजतन, उस पहलू पर भी मैंने कुछ हासिल नहीं किया। नए सदस्यों के सिंचन में, मैंने पहले से नहीं सोचा कि उनके मसले सुलझाने के लिए मैं सत्य के किस पहलू पर संगति कर सकती थी, तो इसमें भी मुझे वास्तविक नतीजे हासिल नहीं हुए। हालाँकि ऊपर से लगता था कि मैं कड़ी मेहनत कर रही थी, पर मैं ध्यान नहीं देती थी और हमारे काम में समय से मसलों का लेखा-जोखा नहीं बना रही थी, यानी कुछ भी हासिल नहीं हो पाया था। न सिर्फ मैं आत्मचिंतन कर खुद को समझने में नाकाम रही, बल्कि जिन सत्यों में मुझे प्रवेश करना चाहिए उन्हें भी नहीं खोज पाई। मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि जिम्मेदारी परमेश्वर पर डाल दूँ, इस अंदाजे से कि वह मुझे जान-बूझकर उजागर कर रहा था, बुरी दिखा रहा था। मैं हमेशा भुनभुनाती रहती थी, नाकामियाँ और बाधाएँ नहीं झेलना चाहती थी, बल्कि हमेशा आसान रास्ता अपनाना चाहती थी, ताकि सब-कुछ आसानी से हो जाए। थोड़ी-सी दिक्कत होने पर भी मैं परमेश्वर को गलत समझकर दोष देती थी। ऐसे में, मैं परमेश्वर के कार्य और अपने कर्तव्य को ठीक से कैसे अनुभव कर पाती? मैं बड़ी नासमझ थी। एक सृजित प्राणी को इस तरह काम नहीं करना चाहिए। इसका एहसास होने पर, मुझे बहुत पछतावा हुआ, और मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, तुमने मुझे प्रशिक्षित करने और जीवन में आगे बढ़ने देने के लिए ऐसे हालत बनाए, लेकिन मैंने तुम्हारी इच्छा नहीं समझी—तुम्हें गलत समझा। मैं बहुत विद्रोही हूँ। मुझे रास्ता दिखाओ, अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझने में मेरी मदद करो।"

इसके बाद, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे खुद को समझने में मदद मिली। परमेश्वर कहते हैं, "मैं उन लोगों में प्रसन्नता अनुभव करता हूँ जो दूसरों पर शक नहीं करते, और मैं उन लोगों को पसंद करता हूँ जो सच को तत्परता से स्वीकार कर लेते हैं; इन दो प्रकार के लोगों की मैं बहुत परवाह करता हूँ, क्योंकि मेरी नज़र में ये ईमानदार लोग हैं। यदि तुम धोखेबाज हो, तो तुम सभी लोगों और मामलों के प्रति सतर्क और शंकित रहोगे, और इस प्रकार मुझमें तुम्हारा विश्वास संदेह की नींव पर निर्मित होगा। मैं इस तरह के विश्वास को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। सच्चे विश्वास के अभाव में तुम सच्चे प्यार से और भी अधिक वंचित हो। और यदि तुम परमेश्वर पर इच्छानुसार संदेह करने और उसके बारे में अनुमान लगाने के आदी हो, तो तुम यकीनन सभी लोगों में सबसे अधिक धोखेबाज हो। तुम अनुमान लगाते हो कि क्या परमेश्वर मनुष्य जैसा हो सकता है : अक्षम्य रूप से पापी, क्षुद्र चरित्र का, निष्पक्षता और विवेक से विहीन, न्याय की भावना से रहित, शातिर चालबाज़ियों में प्रवृत्त, विश्वासघाती और चालाक, बुराई और अँधेरे से प्रसन्न रहने वाला, आदि-आदि। क्या लोगों के ऐसे विचारों का कारण यह नहीं है कि उन्हें परमेश्वर का थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं है? ऐसा विश्वास पाप से कम नहीं है! कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि जो लोग मुझे खुश करते हैं, वे बिल्कुल ऐसे लोग हैं जो चापलूसी और खुशामद करते हैं, और जिनमें ऐसे हुनर नहीं होंगे, वे परमेश्वर के घर में अवांछनीय होंगे और वे वहाँ अपना स्थान खो देंगे। क्या तुम लोगों ने इतने बरसों में बस यही ज्ञान हासिल किया है? क्या तुम लोगों ने यही प्राप्त किया है? और मेरे बारे में तुम लोगों का ज्ञान इन गलतफहमियों पर ही नहीं रुकता; परमेश्वर के आत्मा के खिलाफ तुम्हारी निंदा और स्वर्ग की बदनामी इससे भी बुरी बात है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि ऐसा विश्वास तुम लोगों को केवल मुझसे दूर भटकाएगा और मेरे खिलाफ बड़े विरोध में खड़ा कर देगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पृथ्वी के परमेश्वर को कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों के खुलासे के सामने मैंने बड़ी शर्मिंदगी महसूस की। नाकामियों और बाधाओं से सामना होने पर मैंने परमेश्वर पर शक कर उसे गलत समझा, उसे लोगों की ही तरह बेपरवाह और निर्दयी समझा। मैंने सोचा कि जब परमेश्वर किसी का इस्तेमाल करना चाहता है, तो वह उन्हें अपने अनुग्रह का आनंद लेने देगा, वरना वह उन्हें त्याग देगा, किनारे कर देगा और उनकी अनदेखी करेगा। मैंने अधार्मिकता की मानसिकता के चलते परमेश्वर की आलोचना कर उस पर शक किया। मैं बड़ी धूर्त थी! मैं लंबे समय से आस्थावान नहीं थी, मेरी सत्य की समझ सीमित थी, और मुझमें बहुत-सी खामियाँ थीं, फिर भी भाई-बहनों ने मुझे अगुआ चुना था, अभ्यास का मौका दिया था, ताकि मैं जल्दी से सत्य सीख सकूँ और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकूँ। हालाँकि अपने कर्तव्य में पूरा ध्यान न देने के कारण कभी-कभी मैं कुछ भी हासिल नहीं कर पाई, फिर भी कलीसिया ने मुझे बर्खास्त नहीं किया। दूसरों ने फिर भी मेरी मदद कर मुझे प्रोत्साहित किया, परमेश्वर के वचनों पर मुझसे संगति की, परमेश्वर की इच्छा समझने और अपनी भ्रष्टता और कमियाँ पहचानने का रास्ता दिखाया। परमेश्वर मेरे लिए जो भी कर रहा था, वह सचमुच मुझे विकसित कर बचा रहा था। वह बहुत दयालु और मनोहारी है! लेकिन मैं परमेश्वर से बच रही थी, उस पर शक कर रही थी। यह परमेश्वर में सच्ची आस्था कैसे हो सकती थी? शैतान ने मुझमें बड़ी गहराई तक जहर भर दिया था, मैं हमेशा शैतान के झूठ पर चलती थी, जैसे कि "किसी पर विश्वास मत करो, क्योंकि अँधेरे में तुम्हारी छाया भी तुम्हें छोड़ देगी" और "तुम विद्वेषी नहीं हो सकते, मगर तुम्हें सतर्क रहना चाहिए।" मैं हर किसी से सतर्क थी, परमेश्वर से भी। इससे मैं समझ सकी कि मेरा कपटी स्वभाव सचमुच गंभीर था, और इसी कारण से मैं परमेश्वर को गलत समझकर उस पर शक करती थी। मुश्किलें झेलने पर मैंने परमेश्वर की आलोचना की, उसे गलत समझा, फिर भी परमेश्वर ने सत्य समझने में मेरा मार्गदर्शन किया, मुझे अपनी समस्याएँ देखने दीं। मैं परमेश्वर का प्रेम महसूस कर सकी और जान सकी कि मेरे लिए उसका उद्धार कितना सच्चा है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उसके सामने प्रायश्चित्त करने, अपने कपटी स्वभाव के सहारे जीने, और परमेश्वर पर शक कर, उसे गलत समझना बंद करने को तैयार हो गई।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "हो सकता है कि अब तुम अपना कर्तव्य स्वेच्छा से निभा रहे हो, और तुम स्वेच्छा से त्याग कर रहे हो और खुद को स्वेच्छा से खपा रहे हो, लेकिन यदि तुममें अभी भी गलतफ़हमियाँ, अटकलें, संदेह या परमेश्वर के बारे में शिकायतें हैं, यहाँ तक कि उसके प्रति विद्रोह और प्रतिरोध भी है, या तुम उसे और खुद पर उसकी संप्रभुता नकारने के लिए विभिन्न तरीके और तकनीकें इस्तेमाल करते हो, अगर तुम इन चीजों का समाधान नहीं करते—तो सत्य का तुम्हारे व्यक्तित्व का स्वामी होना लगभग असंभव होगा, और तुम्हारा जीवन पस्त करने वाला बन जाएगा। लोग अक्सर इन नकारात्मक अवस्थाओं में संघर्ष करते रहते हैं और त्रस्त होते रहते हैं मानो वे किसी दलदल में फंस गए हों, हमेशा सच और झूठ, सही और गलत के बीच जीते हुए। वे सत्य को कैसे पा और समझ सकते हैं? सत्य की तलाश करने के लिए, सबसे पहले व्यक्ति को समर्पण करना पड़ता है। फिर, अनुभव की एक अवधि के बाद, वे कुछ प्रबुद्धता प्राप्त कर पाएँगे, जिस बिंदु पर सत्य को समझना आसान होता है। अगर कोई हमेशा सही और गलत का निर्णय करने की कोशिश करता रहता है और सच और झूठ का भेद करने में उलझा रहता है, तो उसके पास सत्य की तलाश करने या उसे समझने का कोई तरीका नहीं होता है। और अगर कोई सत्य को कभी न पाए, तो इसका क्या परिणाम होगा? सत्य को न समझना परमेश्वर के बारे में धारणाओं और गलतफ़हमियों को जन्म देता है; गलतफ़हमियों के कारण व्यथित महसूस करना आसान होता है; जब शिकायतें फूटकर सामने आती हैं, तो वे विरोध बन जाती हैं; परमेश्वर का विरोध उसका प्रतिरोध और एक गंभीर अपराध है; और कई अपराध विविध बुराइयों में बदल जाते हैं, और तब उस व्यक्ति को दंड भोगना पड़ता है। यह एक ऐसी चीज है, जो सत्य को समझने में हमेशा असमर्थ रहने के परिणामस्वरूप आती है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है)। इसे पढ़कर मेरे मन में जो कुछ भी हुआ था उसे लेकर डर पैदा हो गया। अगर मैं निराशा की हालत में जीती रहती, सत्य नहीं खोजती, भाई-बहनों को खुलकर नहीं बताती, तो मैं अपने कपटी स्वभाव के सहारे, परमेश्वर को गलत समझते हुए जीती रहती। फिर मैं आसानी से परमेश्वर को दोष देकर उसका प्रतिरोध करती, जो कि एक अपराध होता। शायद मैं कुकर्म भी करती और परमेश्वर के खिलाफ हो जाती। कितना खतरनाक है! परमेश्वर को गलत समझकर उसकी आलोचना करने के उस दौर में, मेरी निराशा की हालत ने मुझ पर काबू कर रखा था। मैं हमेशा उजागर कर त्याग दिए जाने की फिक्र करती थी। मुझमें आजादी की भावना ही नहीं थी—यह बहुत थकाऊ था। अपने कर्तव्य में मैं बस मेहनत करने और काम निपटाने में खप जाती थी। जैसे ही समस्याएँ सामने आतीं, मैं परमेश्वर को गलत समझे बिना और काम छोड़ने की चाह के बिना नहीं रह पाती थी। परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे दूसरों के सामने खुलने, सत्य खोजने और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने की राह दिखाई थी। वरना, मैं परमेश्वर को गलत ही समझती रहती और अपना कर्तव्य छोड़ देने का फैसला कर लेती। इसके परिणाम भयानक होते।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मुझे कलीसिया के कार्य में समस्याओं से सामना होने पर अभ्यास करने का मार्ग मिला। परमेश्वर कहते हैं, "कलीसिया में उत्पन्न होने वाली समस्याओं के बारे में इतने भारी संदेहों से मत भरो। कलीसिया के निर्माण के दौरान गलतियाँ होना अपरिहार्य है, लेकिन जब तुम्हारे सामने समस्याएँ आएँ, तो घबराओ मत; बल्कि शांत और स्थिर रहो। क्या मैंने तुम लोगों को पहले ही नहीं बता दिया है? अकसर मेरे सामने आओ और प्रार्थना करो, और मैं तुम्हें अपने इरादे स्पष्ट रूप से दिखाऊँगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 41)। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि कलीसिया के कार्य में कई तरह की मुश्किलें जरूर आती हैं। यह बिल्कुल सामान्य है, और परमेश्वर ऐसा होने देता है। मुश्किलों से सामना होने पर, अगर हम परमेश्वर से सच्चे दिल से प्रार्थना करें और उसका सहारा लें, तो वह हमें आगे बढ़ने का रास्ता दिखाएगा। कुछ नए विश्वासी जिन्होंने हाल ही में परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा है, वे दर्शन का सत्य पूरी तरह नहीं समझ पाते और अफवाहों से अब भी गुमराह हो सकते हैं। मुझे परमेश्वर का और ज्यादा सहारा लेना होगा, शैतान की चालें उजागर करने के लिए उसके वचनों का इस्तेमाल करना होगा, और सच्चे मार्ग पर पाँव जमाने में नए विश्वासियों की मदद करनी होगी। परमेश्वर की इच्छा समझकर, कलीसिया के कार्य में वापस जाने के बाद, मैंने हमारे पुराने काम की गलतियों और समस्याओं का लेखा-जोखा बनाया, और नए विश्वासियों की समस्याओं से जुड़े सत्यों से खुद को लैस किया, फिर संगति से उनका समाधान करने में मदद की। लोगों को विकसित करने की बात करें, तो शुरू में, मैंने उन सिद्धांतों को खोजा और दिल से प्रार्थना की, फिर सभाओं में, मैंने यह देखने पर ध्यान दिया कि कौन-से लोग विकसित होने के सिद्धांतों के अनुरूप हैं। इस तरह लोगों का चयन करना कुछ हद तक ज्यादा सटीक था।

अपने कर्तव्य में अभी भी कई बार नाकामियों और मुश्किलों से मेरा सामना होता है, लेकिन अब मैं इन समस्याओं को एक अलग नजरिए से देखती हूँ। मैं खुद से पूछती हूँ : परमेश्वर इन हालात से मुझे कौन-सा सबक सिखाना चाहता है? मैं प्रार्थना करना, परमेश्वर के वचन पढ़ना, और अभ्यास का मार्ग खोजना बिल्कुल नहीं भूलती, और मैंने दूसरे भाई-बहनों से मदद माँगने का तरीका भी सीख लिया है। जब दूसरे लोग मेरे काम में समस्याएँ बताते हैं, तो मैं अपनी खामियाँ और कमियाँ देख पाती हूँ। मैं अब नहीं मानती कि परमेश्वर मुझे बुरी दिखाना चाहता है। इसके बजाय, मुझे लगता है कि यह आत्मचिंतन करने, खुद को जानने और जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश करने का एक मौका है। एक बार एक बहन ने मुझसे कहा, "मैंने देखा है कि नए सदस्यों का सिंचन करते समय तुम ज्यादा धैर्यवान हो गई हो, और समस्याएँ आने पर, तुम पहले के मुकाबले परमेश्वर की इच्छा खोजने में बेहतर हो गई हो।" उसकी इस बात ने मेरे दिल को छू लिया। हालाँकि यह मुझमें एक छोटा-सा बदलाव था, मुझे सच्चा और व्यक्तिगत अनुभव हुआ कि मानवजाति के लिए परमेश्वर का प्रेम और उद्धार निर्मल और सच्चा है। परमेश्वर हमेशा मुझे राह दिखाता है, मेरी अगुआई करता है—वह मेरे साथ ही है। अब मुझमें अपना कर्तव्य निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने का ज्यादा दृढ़ संकल्प है।

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