88. कोई मुझसे आगे बढ़ जाए, मुझे यह डर क्यों सताए?

रीना, फ़िलीपीन्स

जून 2019 में, मैंने परमेश्वर का नया कार्य स्वीकार किया, और फिर मैंने नए सदस्यों का सिंचन शुरू किया। मेरी मदद पाने के बाद कुछ नए सदस्यों ने मेरा बहुत आभार माना, तो मुझे बड़ा गर्व महसूस हुआ, लगा मैं इस काम के लिए बहुत सही हूँ। बाद में, मैंने एक नए सदस्य को साथ लेकर, उसका शुरू में बड़ी गहराई से सिंचन किया, मगर फिर मैंने देखा कि वह चीजों को अच्छी तरह समझ कर तेजी से तरक्की कर रही थी, और हर बार सभाओं में मुझे लगता कि वह जो समझ साझा करती थी वह अच्छी थी। मुझे लगा, वह तेजी से मुझसे आगे निकल जाएगी, और जब ऐसा होगा, तो अगुआ उससे सबका सिंचन करने को कहेंगी और फिर मेरी जरूरत ही नहीं होगी। यह सोचकर, मैं उसका सही ढंग से सिंचन नहीं करना चाहती थी, तो मैं उससे सिर्फ कुछ बाहरी बातों पर चर्चा कर लेती थी। एक बार, अगुआ ने यह कहकर इस नए सदस्य के बारे में पूछा, "हमें अब सिंचन कर्मियों की जरूरत है। क्या वह पोषण करने लायक है?" मैं उसका बिल्कुल भी पोषण नहीं करना चाहती थी, क्योंकि वह चीजों को बहुत अच्छे ढंग से समझ लेती थी, और मुझे डर था कि वह भविष्य में एक अगुआ बनकर मुझसे ऊपर हो जाएगी। इसलिए मैंने अगुआ से कहा, "मुझे परखना नहीं आता। आप कहीं और जांच-पड़ताल करें, तो शायद ठीक रहेगा।" जब मैंने सुना कि अगुआ उससे बात करने गई थीं, तो मुझे बड़ी ईर्ष्या हुई और डर भी लगा, मैं अक्सर सोचने लगी, "कहीं उसका पोषण कर उसकी तरक्की न कर दी जाए, या उसे मेरी जगह न दे दी जाए।" बाद में, कलीसिया का बँटवारा हो गया, और वह दूसरी कलीसिया में चली गई। कुछ महीने बाद, मुझे पता चला कि वह कलीसिया अगुआ बन गई थी। उसकी तरक्की की रफ्तार देख मैं चौंक गई। मैंने उसे बधाई दी और खुशी जताई, लेकिन अंदर-ही-अंदर मुझे उससे ईर्ष्या थी। वह इतनी जल्दी अगुआ क्यों बन गई, जबकि मैं अब भी सिंचन कर्मी थी? मुझे बहुत असंतोष हुआ, तो मैंने जिन नए सदस्यों का सिंचन किया था उनकी खोज-खबर लेने में कड़ी मेहनत करने लगी, क्योंकि मैं अगुआ को साबित करना चाहती थी कि मैं भी कलीसिया अगुआ बनने लायक थी।

बाद में, मैं भी एक कलीसिया अगुआ चुन ली गई, मगर अपने से बेहतर लोगों को देखकर मुझे अब भी ईर्ष्या होती। एक बार, मैंने अगुआओं और उपयाजकों से नए सदस्यों को सहारा देने और उनकी मदद करने के बारे में चर्चा की, तो सुसमाचार उपयाजिका ने अपनी सोच साझा की। उच्च अगुआ और समूह अगुआओं ने उसके विचारों को अच्छा बताया। हमने सुसमाचार उपयाजिका के सुझावों के अनुसार नए सदस्यों को सहारा देकर उनका सिंचन करने की कोशिश की। वाकई, ये सुझाव बहुत प्रभावी थे। नए सदस्यों ने सभाओं में आकर कर्तव्य संभाले। सुसमाचार उपयाजिका ने भी प्रभावी ढंग से सुसमाचार का प्रचार किया। इससे मुझे थोड़ी ईर्ष्या हुई। मैंने सोचा, "सुसमाचार उपयाजिका मुझसे बेहतर प्रचार करती है। मुझे खुद को सुधारना होगा और ज्यादा सीखना होगा।" बाद में, मैंने सुसमाचार उपयाजिका से पूछा कि वह कितने वर्ष से अपना कर्तव्य निभा रही थी, उसने बताया, "छह महीने से।" मुझे बड़ा अचरज हुआ : सिर्फ छह महीने? मैं शर्मिंदा हो गई, क्योंकि मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य दो वर्ष पहले स्वीकार किया था, यह समूह में किसी का सबसे लंबा समय था, लेकिन मैं नौसिखिए जैसी थी, जिसके अपने कोई सुझाव नहीं थे। इसके बाद, मैं हमेशा खुद की उससे तुलना करने लगी। जब मैंने देखा कि वह एक कुशल कर्मी थी और काम की खोज-खबर लेने के उसके तौर-तरीके हमेशा अच्छे होते थे, तो मुझे उससे और भी ज्यादा ईर्ष्या हुई। मैंने सोचा, "काम के बारे में चर्चा करते समय अगर उसके पास हमेशा अच्छे विचार होंगे, तो उसकी काबिलियत अच्छी पाकर उच्च अगुआ उसे अगुआ बनाने के लिए प्रशिक्षित कर देंगी। इसके मायने यही होंगे न कि वह मेरी जगह ले लेगी?" एक बार, सुसमाचार उपयाजिका दूसरे किसी काम में व्यस्त होने के कारण एक बैठक में नहीं आई। बाद में, उसने मुझसे पूछा कि हमने बैठक में क्या सीखा। मैं सच में उसे बताना नहीं चाहती थी, तो मैंने बस इतना कहा कि भूल गई। फिर, मैंने देखा कि उच्च अगुआ उसके साथ तो अक्सर संगति करती थीं, लेकिन मेरे साथ विरले ही ऐसा करती थीं, इससे मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने सोचा, "अगर आप मुझसे बातें नहीं करेंगी, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाऊंगी।" तब, मैं बस एक ऐसे कर्तव्य में जाना चाहती थी जहां दूसरे मुझे आदर से देखें। मुझे लगा, अगर मैं प्रभावी ढंग से सुसमाचार का प्रचार कर सकी, तो शायद भाई-बहन मेरे बारे में ऊँचा सोचें, तो मैंने नए सदस्यों के सिंचन का काम छोड़कर, सुसमाचार का प्रचार शुरू कर दिया। उच्च अगुआ ने मुझे नए सदस्यों की दिक्कतें समझकर उन्हें जल्द सुलझाने की याद दिलानेवाला संदेश भेजा, तो मैंने जवाब दिया, "जरूर, मैं जल्द जाकर उनसे मिलूंगी।" लेकिन मुझे बस सुसमाचार के प्रचार की परवाह थी, मैं उनसे मिलने गई ही नहीं। उस दौरान, नए सदस्यों की समस्याएँ समय रहते हल नहीं की गईं, और सभाएं अनियमित हो गईं। जल्दी ही, उच्च अगुआ ने मुझे एक संदेश भेजकर पूछा कि नए सदस्य क्यों नहीं आ रहे हैं, और क्या मुझे कोई दिक्कत है, तो मैंने अगुआ को अपनी हालत के बारे में बताया। अगुआ ने मेरे साथ संगति की, "आप अगुआ हैं, कलीसिया के सारे कामों की जिम्मेदारी आपकी है, खास तौर से नए सदस्यों के सिंचन की, जो बहुत अहम है। आप चीजों को लेकर यूँ लापरवाह नहीं हो सकतीं, या उन्हें यूँ ही नहीं निपटा सकतीं।" अगुआ की बात सुनकर मैं रो पड़ी। मुझे उनकी बातें बहुत कठोर लगीं। उन्होंने सुसमाचार का प्रचार करने के मेरे प्रयास देखे ही नहीं।

बाद में, मैं अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये के बारे में सोचने लगी। बड़े लंबे समय से, मैं परेशान थी कि नए सदस्य मुझसे बेहतर हो जाएंगे, और मैं नहीं चाहती थी कि वे मुझसे आगे निकल जाएँ। अपना ओहदा बनाए रखने और भाई-बहनों का आदर पाने के लिए, मैंने उनका अच्छे ढंग से सिंचन नहीं किया, खास तौर पर अच्छी काबिलियत वाले नए सदस्यों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए मैंने बढ़ावा भी नहीं दिया। मैं अपनी जिम्मेदारी बिल्कुल नहीं निभा रही थी। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा, "कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊँचे हैं, दूसरों का सम्मान होगा, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! केवल अपने हितों के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों पर कोई ध्यान नहीं देना, या परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। "अब, तुम सभी अपने कर्तव्यों का पूर्णकालिक निर्वहन करते हो। तुम परिवार, विवाह या धन-संपत्ति से बेबस या उनके बंधन में नहीं हो। तुम पहले ही इससे निकल चुके हो। लेकिन, तुम्हारे दिमाग में जो धारणाएँ, कल्पनाएँ, जानकारियाँ, और निजी मंशाएँ व इच्छाएँ भरी हुई हैं, वे अपने मूल स्वरूप से बदली नहीं हैं। तो, जैसे ही रुतबे, प्रतिष्ठा या नाम मिलने की बात आती है—उदाहरण के तौर पर, जब लोग सुनते हैं कि परमेश्वर के घर की तमाम प्रकार की प्रतिभाओं को पोषण देने की योजना है—हर किसी का दिल प्रत्याशा में उछलने लगता है, तुममें से हर कोई अपना नाम करना चाहता है और अपनी पहचान बनाना चाहता है। हर कोई रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए लड़ना चाहता है, और उन्हें इस पर शर्मिंदगी भी महसूस होती है, पर होड़ न करना भी उन्हें अच्छा नहीं लगता। उन्हें तब ईर्ष्या और नफरत महसूस होती है जब कोई व्यक्ति भीड़ से अलग दिखता है, और वे चिढ़ जाते हैं, और उन्हें यह अनुचित लगता है। वे सोचते हैं, 'मैं दूसरों से विशिष्ट क्यों नहीं हो सकता? हमेशा दूसरे लोगों को कीर्ति क्यों मिलती है? कभी मेरी बारी क्यों नहीं आती?' उन्हें नाराज़गी महसूस होती है। वे इसे दबाने की कोशिश करते हैं, लेकिन ऐसा नहीं कर पाते। वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और कुछ समय के लिए बेहतर महसूस करते हैं, लेकिन जब फिर से उनका सामना इसी तरह के मामले से होता है, तो वे इससे जीत नहीं पाते। क्या यह एक अपरिपक्व कद नहीं दिखाता है? जब लोग ऐसी स्थितियों में गिर जाते हैं, तो क्या वे शैतान के जाल में नहीं फँस गए हैं? ये शैतान की भ्रष्ट प्रकृति के बंधन हैं जो इंसानों को बाँध देते हैं" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों ने सटीक ढंग से मेरी हालत का खुलासा किया था। जब दूसरे मुझसे बेहतर होते या मुझसे आगे निकल जाते, तो मुझे उनसे घृणा होती। जब मैं चीजों को अच्छी तरह समझने वाले और अच्छी काबिलियत वाले नए सदस्यों से मिलती, तो मुझे डर लगता कि वे मुझसे आगे निकलकर मेरी जगह ले लेंगे, इसलिए मैं अच्छे ढंग से उनका सिंचन नहीं करना चाहती थी, और नहीं चाहती थी कि अगुआ उनका पोषण करें। खास तौर पर सुसमाचार उपयाजिका के साथ काम करते समय, जब मैंने देखा कि उसका प्रचार प्रभावी था, वह हमेशा अच्छे सुझाव दे पाती थी, और उच्च अगुआ काम के बारे में चर्चा करने के लिए हमेशा उसके पास जाती थीं, तो मुझे उससे ईर्ष्या होती, मैं उससे अपनी तुलना करती, और चाहती कि उच्च अगुआ की नजर सुसमाचार का प्रचार करते समय मुझ पर पड़े। मैं सिर्फ अपने रुतबे और अपने बारे में दूसरों की ऊँची राय के बारे में ही सोचती रहती थी। मैं अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारी बिल्कुल नहीं निभा रही थी। मैंने बड़ी शर्मिंदगी महसूस की। परमेश्वर का इरादा था कि मैं इन नए सदस्यों का सिंचन करूँ, ताकि वे सच्चे मार्ग में अपनी बुनियाद बना पाएँ, मगर मैं परमेश्वर की इच्छा का ख्याल नहीं कर रही थी। मैं सिर्फ अपनी शोहरत और रुतबे का ही ख्याल कर रही थी, मैंने नए सदस्यों का गहराई से सिंचन कर उन्हें सहारा नहीं दिया, जिससे वे सभाओं में आने में अनियमित हो गए। मैं दुष्टता कर रही थी! मैं अपने कर्तव्य के लक्ष्यों पर आत्मचिंतन करने कगी। क्या मैं यह परमेश्वर के लिए कर रही थी या अपने ही हितों के लिए? अगर मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने और परमेश्वर के घर के हितों का ख्याल रखने की कोशिश कर रही थी, तो मुझे ज्यादा लोगों को परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने का प्रशिक्षण देने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय, मैंने इस उम्मीद से प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या की, और उन्हें दबाया कि अगुआ का ध्यान इन पर नहीं जाएगा। मैंने देखा कि मैं अपना कर्तव्य पूरी तरह से अपने ओहदे और हितों के लिए निभा रही थी। मैं बहुत स्वार्थी थी!

बाद में, जब एक बहन को मेरी हालत का पता चला, तो उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा। "कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे हमेशा देह के स्तर पर जीते हैं, हमेशा दैहिक-सुखों से चिपके रहते हैं, हमेशा अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाएँ पूरी करते हैं। ऐसे लोग चाहे कितने भी वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करें, वे कभी भी सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर सकते। यह परमेश्वर को अपमानित करने का संकेत है। तुम कहते हो, 'मैंने परमेश्वर के प्रतिरोध जैसा कुछ नहीं किया; मैंने परमेश्वर को कैसे अपमानित किया है?' तुम्हारे सभी विचार और ख्याल दुष्टतापूर्ण हैं। तुम्हारे कार्यों के पीछे के इरादों, लक्ष्यों और उद्देश्यों में, और तुम जो करते हो उसके परिणामों में—हर तरीके से तुम शैतान को संतुष्ट कर रहे हो, उसके उपहास के पात्र बनकर उसे अपनी गुप्त बातें बता रहे हो जिसका वो तुम्हारे विरुद्ध इस्तेमाल कर सकता है। तुमने एक भी गवाह नहीं बनाया है, जो कि एक ईसाई के तौर पर तुम्हें करना चाहिए। तुम शैतान के हो। तुम सभी चीज़ों में परमेश्वर का नाम बदनाम करते हो और तुम्हारे पास सच्ची गवाही नहीं है। क्या परमेश्वर तुम्हारे द्वारा किए गए कृत्यों को याद रखेगा? अंत में, परमेश्वर तुम्हारे कृत्यों और कर्तव्य के बारे में क्या निष्कर्ष निकालेगा? क्या उसका कोई नतीजा नहीं निकलना चाहिए, किसी प्रकार का कोई वक्तव्य नहीं आना चाहिए? बाइबल में, प्रभु यीशु कहता है, 'उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, "हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्‍टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्‍चर्यकर्म नहीं किए?" तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, "मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ"' (मत्ती 7:22–23)। प्रभु यीशु ने ऐसा क्यों कहा? धर्मोपदेश देने, दुष्टात्माओं को निकालने और प्रभु के नाम पर इतने सारे चमत्कार करने वाले लोग कुकर्मी क्यों हो गए? इसका कारण यह था कि उन्होंने प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त किए गए सत्य को स्वीकार नहीं किया, प्रभु यीशु की आज्ञाओं का पालन नहीं किया, और सत्य के लिए उनके दिल में कोई प्रेम नहीं था। वे सिर्फ प्रभु के लिए अपने काम, कष्टों और त्यागों के बदले में स्वर्ग के राज्य के आशीष चाहते थे। यह परमेश्वर के साथ सौदेबाजी है, यह परमेश्वर का इस्तेमाल करना और परमेश्वर को धोखा देना है, इसलिए प्रभु यीशु उनके लिए घृणा और नफरत करता था और उनकी कुकर्मियों के रूप में निंदा की। आज लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन कुछ अब भी नाम और रुतबे के पीछे भागते हैं, दूसरों से विशिष्ट दिखना चाहते हैं, हमेशा अगुआ और कार्यकर्ता बनना और नाम और रुतबा पाना चाहते हैं। हालांकि वे सभी कहते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, कि वे परमेश्वर के लिए त्याग करते हैं और खपते हैं, पर वे अपने नाम, हितों और रुतबे के लिए ही अपने कर्तव्य निभाते हैं और उनके सामने हमेशा अपनी निजी योजनाएँ रहती हैं। वे परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी या निष्ठावान नहीं हैं, वे अपने बारे में आत्मचिंतन किए बिना मनमाने ढंग से काम करते हैं, इसलिए वे कुकर्मी बन गए हैं। परमेश्वर ऐसे कुकर्मियों से घृणा करता है, और उन्हें बचाता नहीं है" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़कर मेरे दिल में खलबली मच गई। परमेश्वर जिन लोगों की दुष्टता की बात करता है, वे अविश्वासी नहीं, बल्कि परमेश्वर में विश्वास रखने वाले होते हैं। वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उसके लिए खुद को खपाते हैं, सुसमाचार का प्रचार करने जाते हैं, अलग-अलग जगहों पर काम करते हैं, और मुश्किलें झेलते हैं, लेकिन वे अपना कर्तव्य अपनी ही प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए निभाते हैं, ताकि लोग उन्हें आदर से देखें, या वे पुरस्कार और ताज हासिल कर सकें। वे परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं हो सकते, वे सत्य का अनुसरण कर परमेश्वर की आज्ञा नहीं मान सकते, इसलिए प्रभु यीशु ने कहा, "हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ" (मत्ती 7:23)। मैं उन जैसी ही थी, जो प्रभु के लिए प्रचार और काम करते थे। मैंने दो वर्ष से परमेश्वर में विश्वास रखा था, परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाने के लिए मैंने पढ़ाई छोड़ दी, कष्ट झेले और कीमत चुकाई, लेकिन मेरा इरादा परमेश्वर को संतुष्ट करने का नहीं था। मैं कलीसिया में सबसे अच्छी बनना चाहती थी ताकि भाई-बहन और अगुआ मेरे बारे में ऊँचा सोचें, इसीलिए मैंने सबकी नजर में आने के लिए इतनी मेहनत से कोशिश की। मगर मैं बस शैतान को संतुष्ट कर पाई। मेरे कर्म नेक नहीं, बल्कि कुकर्म थे। मैंने अपना कर्तव्य इस गलत इरादे से निभाया, जिससे परमेश्वर को सिर्फ घृणा हो सकती थी, अगर मैं ऐसा ही करती रहती, तो बस दंडित ही होती, क्योंकि परमेश्वर ऐसी आस्था को स्वीकृति नहीं देता। परमेश्वर कहता, "मुझसे दूर जाओ, मैं तुम्हें नहीं जानता!" यह समझ लेने के बाद, मुझे डर लगा। मैं प्रायश्चित करना चाहती थी, और अब अपने भाई-बहनों से ईर्ष्या नहीं करना चाहती थी, तो मैंने परमेश्वर का मार्गदर्शन पाने के लिए प्रार्थना की।

बाद में, मैंने उच्च अगुआ से अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर कहने का साहस जुटाया। मुझ पर आरोप लगाने के बजाय, अगुआ ने मेरी मदद के लिए अपना अनुभव साझा किया। तब उन्होंने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भी भेजा। "कलीसिया का अगुआ होने का अर्थ केवल समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का इस्तेमाल करना सीखना नहीं है, बल्कि प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाकर उन्हें विकसित करना भी है, जिनसे तुम्हें बिल्कुल ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए या जिनका बिल्कुल दमन नहीं करना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से कलीसिया के काम को लाभ पहुंचता है। अगर तुम अपने सभी कार्यों में अच्छा सहयोग करने के लिए सत्य के कुछ अनुयायी तैयार कर सको, और अंत में, तुम सभी के पास अनुभवात्मक गवाहियाँ हों, तो तुम एक योग्य अगुआ होगे। यदि तुम हर चीज में सिद्धांतों के अनुसार काम कर सको, तो तुम अपनी निष्ठा के अनुरूप जी रहे होगे। ... अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर पाने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की सिफ़ारिशकरते हो और उसका प्रशिक्षण करके उसे कोई कर्तव्य निभाने देते हो, और इस तरह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर से जोड़ते हो, तब क्या तुम्हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या इस कर्तव्य के निर्वहन में तुमने अपनी निष्ठा के अनुरूप काम नहीं किया होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; कम से कम एक अगुआ में इतना विवेक और सूझ-बूझ तो होनी ही चाहिए। जो लोग सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं। जब तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो, तो तुम्हारा हृदय निष्कपट हो जाता है। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो, हमेशा दूसरों की प्रशंसा और सराहना प्राप्त करना चाहते हो, लेकिन परमेश्वर की जाँच स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? ऐसे लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं होती। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा या हैसियत पर विचार मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, तू वफादार रहा है या नहीं, तूने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन पर बार-बार विचार कर और इनका पता लगा, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा। जब तेरी क्षमता कमज़ोर होती है, अगर तेरा अनुभव उथला है, या अगर तू अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं है, तब सारी ताकत लगा देने के बावजूद तेरे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, और परिणाम बहुत अच्छे नहीं हो सकते हैं। तू जो भी करता है, उसमें तू अपनी स्वार्थी इच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करता। इसके बजाय, तू लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करता है। भले ही तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से न निभा पाओ, पर तुम्हारा दिल सुधार दिया गया है; अगर, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम्हारा कर्तव्य मानक स्तर का होगा और तुम सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। यह है गवाही देना" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन स्पष्ट रूप से अभ्यास के सिद्धांत बताते हैं। सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों का ख्याल करना और उसके कार्य को सबसे आगे रखना सबसे अहम है। आपका रवैया सही हो, तो कर्तव्य निभाना आसान होता है। मुझे यह भी एहसास हुआ कि हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, किसी इंसान का अनुसरण नहीं करते। इसलिए हमें हर काम में परमेश्वर की इच्छा का ख्याल होना चाहिए, न कि दूसरों की सोच का। अगर मैं परमेश्वर को संतुष्ट करना और एक सुयोग्य अगुआ बनना चाहती हूँ, तो मुझे रुतबे और अपने हितों को छोड़ना होगा, और पोषण के लायक प्रतिभाशाली नए सदस्यों को ढूँढ़ना होगा, ताकि वे अपना कर्तव्य शुरू कर नेक कर्म इकट्ठा कर सकें। सिर्फ इसी तरह मैं अपना कर्तव्य निभा सकती हूँ। परमेश्वर हम सबके साथ निष्पक्ष होता है। परमेश्वर हमारी काबिलियत या रुतबा नहीं देखता, वह देखता है कि क्या हम सत्य पर अमल कर सकते हैं। अगर मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकी, हमेशा इसका ख्याल रख सकी कि अपना काम कैसे करूँ ताकि कलीसिया के कार्य को लाभ मिल सके, तो मेरी काबिलियत कमजोर होने पर भी, परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध कर अपना कर्तव्य सही ढंग से निभाने में मेरा मार्गदर्शन करेगा। परमेश्वर की इच्छा समझ लेने के बाद, मैंने प्रायश्चित के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, कहा कि मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए देह-सुख त्याग कर अपना कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ।

बाद में, जब हमने और ज्यादा नए सदस्यों को स्वीकार कर लिया, तो अगुआ ने मुझे और ज्यादा सिंचन कर्मियों को प्रशिक्षित करने को कहा। मुझे फिर से फिक्र होने लगी कि जिन नए सदस्यों का मैं पोषण करूँगी, कहीं वे मेरी जगह न ले लें, और फिर अगुआ तब मेरा पोषण न करें। इस तरह सोचने पर, एहसास हुआ कि मुझे अब अपनी छवि और रुतबे का नहीं, बल्कि परमेश्वर के घर के हितों का ख्याल करना चाहिए। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और मुझे उसके वचन याद आए, "कलीसिया का अगुआ होने का अर्थ केवल समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का इस्तेमाल करना सीखना नहीं है, बल्कि प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाकर उन्हें विकसित करना भी है, जिनसे तुम्हें बिल्कुल ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए या जिनका बिल्कुल दमन नहीं करना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से कलीसिया के काम को लाभ पहुंचता है। अगर तुम अपने सभी कार्यों में अच्छा सहयोग करने के लिए सत्य के कुछ अनुयायी तैयार कर सको, और अंत में, तुम सभी के पास अनुभवात्मक गवाहियाँ हों, तो तुम एक योग्य अगुआ होगे। यदि तुम हर चीज में सिद्धांतों के अनुसार काम कर सको, तो तुम अपनी निष्ठा के अनुरूप जी रहे होगे" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। एक कलीसिया अगुआ के तौर पर मेरी जिम्मेदारी नए सदस्यों को अपना कर्तव्य निभाने के लिए प्रशिक्षित करना है। यही नहीं, अपना कर्तव्य निभाना परमेश्वर के हर विश्वासी की जिम्मेदारी है। अगर बहुत थोड़े-से लोग सहयोग करेंगे, तो यह बिना टायरों वाली कार जैसी बात होगी, जिससे कलीसिया का कार्य पिछड़ जाता है। अगर मैंने लोगों को प्रशिक्षित नहीं किया, तो अब इतने ज्यादा लोगों के परमेश्वर का कार्य स्वीकार कर लेने से, समय पर उनका सिंचन नहीं हो पाएगा, उनके जीवन-प्रवेश पर बुरा असर पड़ेगा, और परमेश्वर के घर का कार्य भी प्रभावित होगा। बाद में, मैंने चार नए सदस्यों को चुना जिन्हें चीजों की अच्छी समझ थी, उन्हें समूह अगुआ बनने का प्रशिक्षण दिया, और बारी-बारी से सभाओं की मेजबानी करने का मौका दिया। मैंने उन्हें दूसरे नए सदस्यों का सिंचन करने की याद दिलाकर उनकी मदद भी की। उनके साथ सहयोग करके, मेरे पास पूरे काम पर ध्यान देने के लिए समय भी बचा, और हमारे काम की प्रभाविता में भी धीरे-धीरे सुधार हुआ। मुझे नए सदस्यों को तरक्की करते और अपना कर्तव्य निभाते देख बड़ी खुशी हुई। मुझे सुकून महसूस हुआ, मैंने परमेश्वर के वचनों की थोड़ी और समझ हासिल की। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की सिफ़ारिशकरते हो और उसका प्रशिक्षण करके उसे कोई कर्तव्य निभाने देते हो, और इस तरह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर से जोड़ते हो, तब क्या तुम्हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या इस कर्तव्य के निर्वहन में तुमने अपनी निष्ठा के अनुरूप काम नहीं किया होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; कम से कम एक अगुआ में इतना विवेक और सूझ-बूझ तो होनी ही चाहिए" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। मुझे यह समझ हासिल हो पाई, और अपने कर्तव्य में मेरा थोड़ा प्रवेश हो पाया, यह पूरी तरह से परमेश्वर के वचन से मिला प्रभाव है।

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