89. एक "अच्छे अगुआ" का आत्मचिंतन

रबयलें, फ़िलीपीन्स

बचपन से ही मेरे माता-पिता ने मुझे लोगों से दोस्ताना बर्ताव करना, समानुभूति रखना, और मिलनसार होना सिखाया। अगर मेरे आसपास के लोगों की कोई समस्या या कमियाँ होतीं, तो मैं यह उनके सामने उजागर नहीं कर पाती थी, मुझे उनकी गरिमा का ख्याल रखना होता था। इस शिक्षा के कारण, मेरा कभी किसी के साथ मनमुटाव या झगड़ा नहीं हुआ, मेरे आसपास के लोग मुझे नेकदिल मानते और मेरे साथ जुड़ना चाहते। मुझे भी लगता कि लोगों के साथ यूँ पेश आना अच्छी बात है। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी मैं भाई-बहनों के साथ इसी तरह मिल-जुलकर रहती थी। खास तौर से कलीसिया अगुआ बनने के बाद, लगा मुझे दूसरों के साथ दोस्ती बनाकर रहना चाहिए, कभी किसी पर हल्का-सा भी दोष नहीं मढ़ना चाहिए। इस तरह, हमारे बीच का अच्छा रिश्ता खराब नहीं होता, वे मेरे साथ मिल-जुलकर रहना चाहते, एक मिलनसार और अच्छी अगुआ के रूप में मेरी तारीफ करते।

बाद में, मैंने देखा एक समूह अगुआ बहन जोअन जिम्मेदारी के बिना अपना कर्तव्य निभा रही थी। मैंने उसे कई बार याद दिलाया, "एक समूह अगुआ के तौर पर, तुम्हें अपने भाई-बहनों की हालत समझनी चाहिए, और समूह कार्य की खोज-खबर लेनी चाहिए।" मगर फिर भी उसने यह नहीं किया, तो मुझे उसे फिर से याद दिलाकर इसका कारण पूछना पड़ा। उसने कहा कि उसके पास सिर्फ एक घंटे का खाली वक्त था, मगर इस वक्त का इस्तेमाल वह फेसबुक और फिल्में देखने में करती थी, इसलिए उसने किसी भी चीज की खोज-खबर नहीं ली। यह सुनकर, मैं नाराज हो गई, मैंने सोचा, "तुम इतनी आलसी हो, जरा भी जिम्मेदारी नहीं उठाती हो। जब भाई-बहन सभाओं में नहीं आते, तो तुम उन्हें सहारा देने के बारे में नहीं सोचती!" अपना कर्तव्य यूँ ही निपटा देने और गैर-जिम्मेदार होने पर मैं उसका निपटान करना चाहती थी, मगर मुझे लगा, निपटान करने पर कहीं वह मुझसे दूरी न बना ले, और कहे कि मैं एक अच्छी अगुआ नहीं हूँ, मिलनसार नहीं हूँ। मैं हमारा मैत्रीपूर्ण रिश्ता खराब नहीं करना चाहती थी, तो निपटान करने के बजाय मैंने उसे प्रोत्साहित किया। मैंने कहा, "तुम इस खाली वक्त का इस्तेमाल भाई-बहनों की हालत समझने की कोशिश में लगा सकती हो, फिर तुम अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकोगी।" कुछ दिन तक उसने अच्छा किया, मगर वही समस्या हमेशा फिर से उभरती रही। उसके अपना कर्तव्य यूँ ही निपटा देने के कारण और भी ज्यादा नए सदस्य सभाओं में भाग लेने में अनियमित हो गए, कुछ नए सदस्यों ने तो आना जरूरी ही नहीं समझा। मैं बहुत नाराज थी। यह समूह अगुआ इतनी गैर-जिम्मेदार थी! मैं सच में उसका निपटान करना चाहती थी, मगर यह सोचकर कि कहीं वह मुझसे दूरी न बना ले, मैंने कुछ नहीं कहा, इन नए सदस्यों के सिंचन और उन्हें सहारा देने का काम मुझे ही करना पड़ा। इन नए सदस्यों से बात करने के बाद, मुझे पता चला कि वे सभाओं में इसलिए नहीं आते थे क्योंकि उनकी बहुत-सी मुश्किलें हल नहीं की गई थीं, मगर जोअन ने पहले मुझे बताया था कि उन लोगों ने संदेशों का जवाब नहीं दिया था। अपने कर्तव्य के प्रति जोअन का रवैया देखकर मैं सच में उसका निपटान करना चाहती थी। मैं उसे उसकी गैर-जिम्मेदारी के गंभीर परिणामों के बारे में बताना चाहती थी। लेकिन मैं एक अच्छी अगुआ भी बनना चाहती थी, जो स्नेही और मिलनसार हो, इसलिए मैंने अपना इरादा बदल लिया, और इसके बजाय उसे प्रोत्साहित करने की बातें कहीं। इस वजह से वह कभी नहीं बदली। एक सभा में, जोअन ने शिकायत की, "मैं इस समूह में बहुत समय से हूँ। किसी ऊंचे रुतबे वाले पद पर मेरी तरक्की क्यों नहीं की गई?" जोअन की बात सुनकर मैंने सोचा, "तुम इतनी आलसी हो, अपना कर्तव्य यूं ही निपटा देती हो और गैर-जिम्मेदार हो। तुम्हें भला कैसे तरक्की दी जाती?" हालाँकि मैं उससे नाराज थी, फिर भी मैंने उसे यह कहकर सुकून पहुँचाया, "हम जो भी कर्तव्य निभाते हैं, वह परमेश्वर की सार्वभौम व्यवस्था के कारण करते हैं। हमारे कर्तव्य भले ही अलग हैं, फिर भी हम सभी नए सदस्यों का सिंचन कर परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं।" मुझे लगा इससे वह सोचेगी कि मैं उसे समझती हूँ, उसकी परवाह करती हूँ, और मैं एक अच्छी अगुआ हूँ। इसलिए, दूसरों की समस्याएँ देखने पर भी मैंने न कभी उजागर किया, न उनका निपटान किया। इसके बजाय, मैं सुकून और प्रोत्साहन देने के कुछ मीठे बोल बोल देती। सोचती इससे सबके दिलों में मेरे मिलनसार होने की अच्छी छवि बनी रहेगी।

एक बार, सुसमाचार उपयाजिका एडना और समूह अगुआ एन के बीच नहीं बन रही थी। एडना ने मुझसे गुस्से से कहा, "एन बहुत आलसी है। मैंने उसके समूह के लोगों की हालत और मुश्किलों के बारे में पूछा, तो उसने बहुत देर से जवाब दिया। मुझे उनकी हालत का पता नहीं चला, यानी वह अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभाती है।" मैं जानती थी कि एडना का स्वभाव थोड़ा अहंकारी था, अक्सर उसका लहजा एक आदेश या अपेक्षा जैसा होता था, जिसे स्वीकारना दूसरों के लिए मुश्किल होता, और एन को अपने गौरव की चिंता थी। संभव है उसने एडना का लहजा सुना हो और उसे अच्छा न लगा हो, इसलिए जवाब न देना चाहा हो। मैं यह बात एडना के ध्यान में लाना चाहती थी, लेकिन मैं यह भी नहीं चाहती थी कि उसका दिल दुखे या वह सोचे कि मैं उसे नहीं समझती, तो मैंने उससे दोस्ताने ढंग से कहा, "शायद एन व्यस्त रही हो और उसने तुम्हारा संदेश न देखा हो।" इसके बाद, मैं एन के पास गई, तो एन ने नाखुश होकर कहा, "एडना बहुत घमंडी है, वह पूछती रहती है मैं कर्तव्य कैसे निभाती हूँ, इसलिए मैं उसके संदेशों का जवाब नहीं देना चाहती हूँ।" मैंने देखा वह नहीं चाहती थी कि दूसरे उसे सलाह दें, मैं उसे इस बारे में याद दिलाना चाहती थी, लेकिन मुझे फिक्र थी कि वह यह बात नहीं मानेगी और इससे हमारे बीच का तालमेल नष्ट हो जाएगा, तो मैंने कहा, "हो सकता है, तुमने एडना को गलत समझा हो। वह बस चाहती है तुम अपना कर्तव्य सही ढंग से निभाओ।" मैंने उससे सिर्फ सुकून और प्रोत्साहन के दो बोल बोले, उसे उनकी समस्याएँ नहीं बताईं। उनमें से कोई भी खुद को नहीं समझता था। एडना अब भी एन के कामकाज की खोज-खबर नहीं रख पाती थी, और एन को लगता उसके साथ गलत हुआ था, और वह यह कर्तव्य नहीं निभा सकती थी। मुझे पता था एक अगुआ के रूप में मैं अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभा रही थी, यानी उन लोगों को अपनी समस्याओं का एहसास नहीं हो पाया था। इन नतीजों का कारण मैं ही थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, परमेश्वर से मुझे प्रबुद्ध करने की विनती की ताकि मैं खुद को जान सकूँ।

परमेश्वर के वचनों में मैंने पढ़ा, "सत्य का अभ्यास करना खोखले शब्द बोलना और निर्धारित वाक्यांशों का पाठ करना नहीं है। जीवन में व्यक्ति का सामना चाहे किसी भी चीज से हो, यदि यह इंसानी आचरण के सिद्धांत, घटनाओं पर दृष्टिकोण या कर्तव्य निर्वहन के मामले से जुड़ा हो, तो उन्हें विकल्प चुनना होता है, और उन्हें सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में आधार और सिद्धांत तलाशने चाहिए और तब उन्हें अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए; इस तरह का अभ्यास करने वाले ही सत्य के मार्ग पर चलते हैं। कितनी भी बड़ी मुसीबतें आने पर, इस तरह सत्य के मार्ग पर चल पाना, पतरस के मार्ग पर चलना और सत्य का अनुसरण करना है। उदाहरण के तौर पर : लोगों से बातचीत करते समय किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए? तुम्हारा मूल दृष्टिकोण यह है कि तुम्हें किसी को ठेस नहीं पहुंचानी चाहिए, बल्कि शांति बनाए रखनी चाहिए और किसी को भी शर्मिंदा करने से बचना चाहिए, ताकि भविष्य में, हर कोई साथ मिलकर चल सके। इस दृष्टिकोण के दायरे में, जब तुम किसी को कुछ बुरा करते हुए देखो, गलती करते हुए देखो या कोई ऐसा कार्य करते हुए देखो जो सिद्धांतों के विरुद्ध हो, तो तुम उस व्यक्ति के साथ इस मामले को उठाने के बजाय, उसे सह लोगे। अपने दृष्टिकोण से सीमित होकर, तुम किसी को ठेस नहीं पहुँचाना चाहते। तुम किसी के साथ भी जुड़ो, उस व्यक्ति के चेहरे को याद करके, भावनाओं या बरसों के मेलमिलाप से विकसित हुए जज्बात के संकोच में आकर, तुम हमेशा उस व्यक्ति को खुश करने के लिए अच्छी-अच्छी बातें कहोगे। जहाँ तुम्हें कुछ चीजें असंतोषजनक लगती हैं, तुम उन्हें सह लेते हो। तुम अकेले में अपनी भड़ास निकाल लेते हो, उसकी आलोचना कर लेते हो, लेकिन जब उससे मुलाकात होती है, तो तुम उसके साथ अपने संबंध खराब नहीं करते बल्कि मधुरता बनाए रखते हो। ऐसे आचरण के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या ऐसा व्यक्ति जी-हुजूरी करने वाला नहीं है? क्या यह अस्थिर होना नहीं है? यह आचरण के सिद्धांतों का उल्लंघन है; तो क्या इस तरह से कार्य करना नीचता नहीं है? ऐसा करने वाले न तो अच्छे लोग होते हैं और न ही नेक होते हैं। तुमने चाहे कितने भी कष्ट सहे हों, कोई भी कीमत चुकाई हो, यदि तुम्हारा आचरण सिद्धांतों से रहित है, तो तुम असफल हो गए हो और परमेश्वर के सामने तुम्हें कोई स्वीकृति नहीं मिलेगी, न तो परमेश्वर तुम्हें याद करेगा और न ही वह तुमसे प्रसन्न होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने कर्तव्य को अच्छी तरह निभाने के लिए कम से कम, एक जमीर का होना आवश्यक है')। परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार करने के बाद, मैं समझ गई कि चाहे कुछ भी हो जाए, सत्य पर अमल करना यानी लोगों का दिल दुखाने से डरे बिना, सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना होता है। लेकिन भाई-बहनों के साथ मेलजोल करते समय, मैं सिर्फ अपनी छवि और रुतबा कायम रखने, और दूसरों के साथ स्नेह बनाए रखने पर ध्यान देती थी, एक मिलनसार और समानुभूति रखने वाली इंसान बनने की कोशिश करती थी, ताकि भाई-बहनों की सराहना पा सकूँ, मगर मैंने सत्य पर अमल करने की अनदेखी की। जब मैंने जोअन को बिना किसी जिम्मेदारी के, आलसी और कपटी बनकर अपना कर्तव्य निभाते देखा, तो मैंने गैर-जिम्मेदार होने के लिए उसका निपटान करना चाहा, लेकिन उसके साथ अच्छा रिश्ता बनाए रखने के लिए और उसे यह महसूस कराने के लिए कि मैं एक अच्छी और मिलनसार अगुआ हूँ, मैंने उसकी समस्या उजागर नहीं की। नतीजतन, उसकी गैर-जिम्मेदारी के कारण, कुछ नए सदस्य अपनी समस्याएँ नहीं सुलझा पाए, और वे सभाओं में नहीं आए। एडना और एन के साथ, मैंने देखा कि वे स्नेह के साथ सहयोग नहीं कर सकते थे और खुद को नहीं जानते थे, लेकिन उनकी समस्याएँ बताने या खुद को जानने में उनकी मदद करने के बजाय, मैंने अस्पष्ट समाधान दिए, सुकून और आग्रह के बोल बोलकर उनके बीच का झगड़ा कम करने की कोशिश की। नतीजतन, एडना अब भी काम की खोज-खबर रखने में असमर्थ थी, और एन अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा रही थी, वह चाहती थी कोई और उसका काम संभाल ले। मैंने देखा कि एक स्नेही और मिलनसार अच्छी अगुआ की अपनी छवि बनाए रखने के लिए, मैंने परमेश्वर के घर के हितों की जरा भी रक्षा नहीं की। मैंने लोगों के साथ रिश्ते बनाए रखने के लिए काम का नुकसान होने दिया। मैं बहुत स्वार्थी और घिनौनी थी। मैं एक खुशामदी और कपटी इंसान थी। मेरा काम करने का तरीका और आचरण पूरी तरह से मेरे भ्रष्ट स्वभाव पर आधारित था। मैं सत्य का अनुसरण नहीं कर रही थी। लोग भले ही मेरी सराहना करें, परमेश्वर कभी मेरी सराहना नहीं करेगा। इसके अलावा, मैंने भाई-बहनों की समस्याओं को न कभी उजागर किया, न उन्हें बताया, मैंने उन्हें सुलझाने के लिए सत्य पर संगति भी नहीं की, इसलिए वे अपना भ्रष्ट स्वभाव पहचान नहीं पाए, अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा पाए, जिससे सुसमाचार कार्य प्रभावित हुआ। इसका एहसास होने पर ही मैं देख पाई कि मैं बिल्कुल भी एक नेक इंसान नहीं थी, क्योंकि मैं भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में आगे बढ़ने में मदद नहीं कर रही थी। इसके बजाय, मैंने सबसे अपना बचाव करवाया, तारीफ करवाई, और सबसे आदर पाने की कोशिश की, जिससे परमेश्वर को नफरत है। इसका एहसास होने पर, मुझे बहुत दुख हुआ, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, अपना भ्रष्ट स्वभाव ठीक करने का रास्ता दिखाने की विनती की।

बाद में, मेरी हालत के बारे में जानकर, एक बहन ने परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा। "'अच्छा' व्यवहार के पीछे के सार जैसे कि सुलभ और मिलनसार होने को एक शब्द में बयाँ किया जा सकता है : दिखावा। ऐसा 'अच्छा' व्यवहार परमेश्वर के वचनों से उत्पन्न नहीं होता, न ही सत्य का अभ्यास या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने से होता है। फिर यह कैसे उत्पन्न होता है? यह लोगों के इरादों, षड्यंत्रों से पैदा होता है, उनके दिखावे, नाटक करने और धोखेबाज होने से पैदा होता है। जब लोग इन 'अच्छे' व्यवहारों से चिपके रहते हैं, तो उनका उद्देश्य मनचाही चीजें पाना होता है; यदि न मिलें, तो वे कभी भी इस तरह से खुद को दुखी करके अपनी इच्छाओं के विपरीत नहीं जिएंगे। अपनी इच्छाओं के विपरीत जीने का क्या मतलब है? इसका मतलब यह है कि उनकी वास्तविक प्रकृति शिष्टता, निष्कपटता, सौम्यता, दयालुता और सदाचार का नहीं होता, जैसा कि लोग सोचते हैं। वे अंतरात्मा और विवेकानुसार नहीं जीते; बल्कि, वे एक उद्देश्य-विशेष या अपेक्षा को पूरा करने के लिए जीते हैं। उनकी वास्तविक प्रकृति स्थिर नहीं रहती और अज्ञानी होती है। परमेश्वर द्वारा प्रदत्त नियमों और आज्ञाओं के बिना, लोगों को पता नहीं होता कि पाप क्या है। क्या मानवजाति पहले ऐसी ही नहीं थी? जब परमेश्वर ने नियम और आज्ञाएं जारी कीं, तब जाकर लोगों को पाप के बारे में कुछ समझ आया। लेकिन तब भी उनके मन में सही-गलत या सकारात्मक और नकारात्मक चीजों की कोई धारणा नहीं थी। तो ऐसी स्थिति में, वे बोलने और पेश आने के सही सिद्धांतों से अवगत कैसे हो सकते थे? क्या उन्हें पता था कि सामान्य मानवता में पेश आने के कौन से तरीके, कौन-से अच्छे व्यवहार होने चाहिए? क्या वे जान सकते थे कि वास्तव में अच्छा व्यवहार किस तरह से आता है, इंसानियत से जीने के लिए उन्हें किन बातों का पालन करना चाहिए? उन्हें जानकारी नहीं हो सकती थी। लोग अपनी शैतानी प्रकृति के कारण, अपनी सहज प्रवृत्ति के कारण, केवल दिखावा कर सकते थे, शालीनता और गरिमा से जीने का नाटक कर सकते थे—यही चीजें परिष्कृत और समझदार होने, मृदु आचरण, विनम्र, बुजुर्गों का सम्मान करने, युवाओं की देखभाल करने, मिलनसार और सुलभ होने जैसे कपट को जन्म दिया; इस प्रकार धोखे की ये तरकीबें और तकनीकें सामने आईं। और एक बार जब ये चीजें सामने आ गईं, तो लोग चुनकर इनमें से एक-दो कपट से चिपक गए। कुछ लोगों ने मिलनसार और सुलभ होना चुना, कुछ ने परिष्कृत और समझदार होना चुना, कुछ ने सौम्यता चुनी, कुछ ने विनम्र होना, बुजुर्गों का सम्मान करना और युवाओं की देखभाल करना चुना और कुछ ने तो इन सारी चीजों को ही चुन लिया। फिर भी मैं ऐसे 'अच्छे' व्यवहार वाले लोगों को एक शब्द से परिभाषित करता हूँ। वह शब्द क्या है? 'चिकना पत्थर।' चिकने पत्थर क्या होते हैं? ये नदी के किनारे के वे चिकने पत्थर होते हैं जिनका नुकीलापन बरसों बहते जल से घिस-घिसकर चिकना हो गया है। हालाँकि उन पर पैर रखने से चोट नहीं लगती है, लेकिन लापरवाही करने पर लोग उन पर फिसल सकते हैं। दिखने में और आकार में, ये पत्थर बहुत सुंदर होते हैं, लेकिन घर ले जाने पर बेकार साबित होते हैं, किसी काम के नहीं होते। मगर तुम उन्हें फेंकना भी नहीं चाहते, लेकिन रखने का भी कोई मतलब नहीं होता—'चिकना पत्थर' यही होता है। मेरे हिसाब से, ऐसे अच्छे व्यवहार वाले लोग नीरस होते हैं। वे बाहर से अच्छे होने का ढोंग करते हैं, लेकिन कभी सत्य नहीं स्वीकारते, वे अच्छी लगने वाली बातें करते हैं, लेकिन वास्तविक कुछ नहीं करते। वे चिकने पत्थरों के अलावा और कुछ नहीं होते" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। पहले, मुझे हमेशा लगता था कि मिलनसार और स्नेही लोग नेक इंसान होते हैं। मैंने कभी नहीं सोचा कि ऐसे नेक कर्मों के पीछे शैतानी भ्रष्ट स्वभाव होता है, निजी लक्ष्य और इरादे होते हैं। मैं बचपन से ही एक मिलनसार और स्नेही इंसान बनने की कोशिश करती थी, विचारशील और स्नेही होने को लेकर मेरे दोस्त, भाई-बहन सब मेरी सराहना करते थे, लेकिन अपने दिल की गहराई में, मैं बस लोगों से आदर और सराहना पाने की कोशिश करती थी। मैं मिलनसार और स्नेही होने के मुखौटे का इस्तेमाल, अपने भाई-बहनों की आँखों में धूल झोंक कर उन्हें छलने के लिए करती थी। मैंने देखा कि परमेश्वर ऐसे अच्छे बर्ताव वाले लोगों को "चिकने पत्थर" मानता है। ये पत्थर बाहर से अच्छे दिखते हैं, और चलने पर ये पाँव में नहीं चुभते, लेकिन उन पर फिसलकर गिर पड़ना बहुत आसान होता है। उन्हें देखना अच्छी बात है, मगर उनका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं है। मुझे एहसास हुआ मैं ऐसी ही थी, एक ऐसी इंसान जो मिलनसार और स्नेही दिखाई देती थी, मगर भाई-बहनों की कोई व्यावहारिक मदद नहीं करती थी। मेरा दिल छल-कपट और धूर्तता से सराबोर था। मैं सबके प्रति दयालु थी, किसी का दिल नहीं दुखाती थी। मैं बस एक "चिकना पत्थर" थी, एक खुशहाल साधन से चिपकी रहने वाली चापलूस और एक कपटी पाखंडी थी। ठीक वैसे ही जैसे परमेश्वर के वचन खुलासा करते हैं, "जो लोग किसी सुखद माध्यम से चिपके रहते हैं वे सबसे भयावह होते हैं। वे किसी का अपमान नहीं करने की कोशिश करते हैं, वे लोगों-को-खुश करने वाले होते हैं, वे सभी चीज़ों में हामी भरते हैं, और कोई भी उनकी वास्तविकता नहीं जान सकता है। इस तरह का व्यक्ति एक जीवित शैतान है!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य को अभ्यास में लाकर ही तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियों को तोड़ सकते हो')। मैं सोचती थी कि परमेश्वर और दूसरे लोग मिलनसार लोगों को पसंद करते हैं, उन्हें स्वीकृति देते हैं, मगर अब मैं जानती हूँ, मेरे कर्म सत्य के सिद्धांतों और परमेश्वर के वचन के अनुरूप नहीं थे। मैं सिर्फ अपना कपटी स्वभाव दिखा रही थी। ऐसे लोगों की कोई गरिमा या चरित्र नहीं होता, परमेश्वर उनसे घृणा करता है। मैं जानती थी, अगर मैं प्रायश्चित कर नहीं बदली, तो एक दिन परमेश्वर मेरा खुलासा कर मुझे त्याग देगा। मैं ऐसी इंसान नहीं बनना चाहती थी। तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, और प्रायश्चित किया, परमेश्वर से मेरा स्वभाव बदलने, सत्य पर अमल करने की शक्ति देने, और परमेश्वर और भाई-बहनों के प्रति एक सच्चा दिल रखने में मदद करने की विनती की।

एक दिन, एक बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश भेजे : "वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य की वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। "अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ : 1. परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और समझने, और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने में लोगों की अगुआई करो। 2. हर तरह के व्यक्ति की स्थितियों से परिचित हो, और जीवन-प्रवेश से संबंधित जिन विभिन्न कठिनाइयों का वे अपने जीवन में सामना करते हैं, उनका समाधान करो। 3. उन सत्य के सिद्धांतों के बारे में संगति करो, जिन्हें प्रत्येक कर्तव्य को ठीक से निभाने के लिए समझा जाना चाहिए। 4. विभिन्न कार्यों के निरीक्षकों और विभिन्न महत्वपूर्ण कार्यों के लिए जिम्मेदार कर्मियों की परिस्थितियों से अवगत रहो, और आवश्यकतानुसार तुरंत उनका काम या उन्हें बदलो, ताकि लोगों का गलत उपयोग करने से होने वाला नुकसान रोका या कम किया जा सके, और कार्य की दक्षता और सुचारु प्रगति की गारंटी दी जा सके। 5. कार्य की प्रत्येक परियोजना की स्थिति और प्रगति की अद्यतन जानकारी और समझ बनाए रखो, और कार्य में आने वाली समस्याएँ ठीक करने, विचलन सही करने और चूक सुधारने में तुरंत सक्षम हो, ताकि वह सुचारु रूप से आगे बढ़े" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैं समझ गई कि हमारी मानवता का आकलन करने का परमेश्वर का मानक यह नहीं है कि हम बाहर से कितने नेक कर्म करते हैं या कितने ज्यादा लोग हमारे बारे में ऊँचा सोचते हैं। इसके बजाय, मानक यह है कि क्या हम परमेश्वर के आज्ञाकारी हैं, क्या हमारी सोच और करनी सत्य पर अमल करने की गवाही देती है। सिर्फ ऐसे लोगों में ही अच्छी मानवता होती है। मैंने जोअन को अपना कर्तव्य यूँ ही निभाते और गैर-जिम्मेदार होते देखा, साथ ही एडना और एन को अपने भ्रष्ट स्वभाव के साथ जीते और एक-दूसरे की अनदेखी करते हुए देखा। इन सब चीजों ने कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाया। एक कलीसिया अगुआ के तौर पर, मुझे उनके साथ संगति कर उन्हें उजागर करना चाहिए था, उनके कर्मों की प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए था, मगर इसके बजाय, मैंने उनसे मीठे बोल बोले, शांतिदूत बनने की कोशिश की। परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान होते देखकर भी मुझे अपनी अच्छी छवि बनाए रखनी थी। न सिर्फ मेरे पास सत्य पर अमल करने की गवाही नहीं थी, मैं एक कलीसिया अगुआ के तौर पर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में भी नाकाम थी, और मैंने भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में लेशमात्र भी मदद नहीं की थी। मैं सोचती थी कि अगर मैं भाई-बहनों के साथ स्नेह से रह सकी, और वे महसूस कर सके कि मैं मिलनसार और स्नेही हूँ, तो मैं एक अच्छी अगुआ थी। अब इस बारे में सोचती हूँ, तो लगता है ऐसा समझना गलत है। एक सचमुच अच्छी अगुआ, समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य पर संगति कर सकती है, सिद्धांतों के अनुसार काम कर सकती है, दूसरों का दिल दुखाने से नहीं डरती, और भाई-बहनों के जीवन की जिम्मेदारी उठा सकती है। अपने भाई-बहनों की समस्याओं का सामना होने पर, उन्हें इस बारे में बताने और सत्य की वास्तविकताओं में प्रवेश करने में उनकी मदद करने के बजाय, मैंने अपनी छवि बचाने की चालें चलीं, उन्हें सुकून और प्रोत्साहन दिया, और असली समस्याओं को नहीं सुलझाया। क्या मैं भाई-बहनों को बस बेवकूफ बनाकर उनसे छल नहीं कर रही थी? मुझे एहसास हुआ कि एक अच्छी अगुआ होने की मेरी पहले वाली समझ गलत थी, परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप तो बिल्कुल भी नहीं थी। मेरी सारी कथनी और करनी परमेश्वर के वचन के सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। अगर मैंने सत्य पर अमल नहीं किया, तो यह परमेश्वर के प्रतिरोध के मार्ग पर चलना होगा। परमेश्वर ऐसे लोग चाहता है जो उसके वचनों और अपेक्षाओं के अनुसार बोलें और कर्म करें, बजाय इसके कि पारंपरिक सांस्कृतिक मूल्यों से चिपके रहें, सराहना पाने की कोशिश करें, बेईमानी से बोलें और कर्म करें, और सत्य का अनुसरण न करें। इस बारे में सोचकर एहसास हुआ कि मुझे लोगों के साथ अपने मेल-जोल का ढंग बदलना होगा। एक कलीसिया अगुआ होकर अब मैं अपना कर्तव्य अपनी ही मर्जी से नहीं निभा सकती। इसके बजाय, मुझे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार काम करना होगा, परमेश्वर के वचनों के अनुसार भाई-बहनों की मुश्किलें हल करने में मदद करनी होगी, ताकि वे सत्य और सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य निभा सकें। यह मेरी जिम्मेदारी है। परमेश्वर के वचन में, मुझे अभ्यास का एक मार्ग मिला। तो, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, और अपनी भ्रष्टता ठीक करने के लिए सत्य पर अमल करने में मेरा मार्गदर्शन करने की विनती की।

बाद में, मैंने परमेश्वर का वचन पढ़ा। "लोगों को परमेश्वर के वचनों को ही अपना आधार और सत्य को अपना मापदंड बनाने का सर्वाधिक प्रयास करना चाहिए; तभी वे प्रकाश में रह सकते हैं और मनुष्य की सामान्य छवि को जी सकते हैं। जैसा तुम्हारा आचरण होता है, वैसा ही तुम्हारे कार्य होते हैं। तुम्हारा आचरण ही तुम्हारे कार्यों और व्यवहार को निर्धारित करता है; तुम्हारा व्यवहार तुम्हारे आचरण से अलग नहीं है। और केवल सिद्धांत के साथ ही तुम्हारे आचरण का एक आधार होता है; एक बार जब लोग अपने आचरण का आधार गँवा देते हैं और केवल अच्छे व्यवहार पर ध्यान देते हैं, तो इससे अनिवार्य रूप से जालसाजी और ढोंग का जन्म होता है। यदि लोगों के आचरण में कोई सिद्धांत न हों, तो फिर उनका व्यवहार कितना भी अच्छा क्यों न हो, वे पाखंडी होते हैं; वे कुछ समय के लिए दूसरों को धोखा दे सकते हैं, लेकिन वे कभी भी भरोसेमंद नहीं होंगे। जब लोग परमेश्वर के वचनों के अनुसार कार्य और आचरण करते हैं, तभी उनकी बुनियाद सच्ची होती है। उनका आचरण कैसा होना चाहिए, इस आधार के बिना क्या केवल 'अच्छे' व्यवहार पर ध्यान देकर लोग अच्छे बन सकते हैं? बिलकुल नहीं। अच्छा व्यवहार लोगों का सार नहीं बदल सकता। केवल सत्य और परमेश्वर के वचन ही लोगों का स्वभाव, विचार और राय बदल सकते हैं, और उन्हें सच्चा जीवन प्राप्त करने दे सकते हैं। ... कभी-कभी, सीधे तौर पर लोगों के दोषों, कमियों और गलतियों को बताना और उनकी आलोचना करना आवश्यक होता है। यह लोगों के लिए बहुत ही हितकारी होता है। क्या यह उनकी सच्ची मदद है? क्या यह उनके लिए रचनात्मक है?" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे स्वभाव में बदलाव का मार्ग दिखाया, यानी परमेश्वर के वचनों के अनुसार कर्म करना, सत्य को अपने मानदंड की तरह इस्तेमाल करना, ऊपर से नेक दिखने वाले कर्मों का मुखौटा नहीं लगाना, सत्य पर अमल करके एक ईमानदार इंसान बनना। जब मैं चीजों को सत्य के सिद्धांतों के विरुद्ध होते देखूँ, या भाई-बहनों को भ्रष्ट स्वभाव के साथ अपना कर्तव्य निभाते हुए देखूँ, तो मुझे उनके साथ ईमानदार होना चाहिए, उनसे सिद्धांतों के अनुसार पेश आना चाहिए, और संगति कर, मसले बताने चाहिए, या जरूरी निपटान करना चाहिए। सिर्फ इसी तरह, भाई-बहन अपने कर्तव्य निर्वाह में हुए भटकावों को जान पाएंगे, और समय रहते चीजों को सुधार पाएंगे। यह भाई-बहनों की सच में मदद करना, और परमेश्वर के वचन के अनुसार उनके साथ रिश्ते रखना है। लोगों के बीच सामान्य संबंध इसी को कहते हैं। सत्य पर अमल करने का तरीका समझ लेने के बाद, मैंने खुद से कहा, "दूसरों की गलतियों के बारे में बोलने से न डर, हमेशा मीठी बातें ही न कर। परमेश्वर नाटक और छल करने वालों से घृणा करता है। मेरी कथनी और करनी परमेश्वर के वचनों और सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप होनी चाहिए।" बाद में, जब मैंने जोअन को फिर से आलस करते देखा, तो मैंने उसे बताना चाहा, लेकिन जब इस पर अमल करने का वक्त आया, तो ऐसा करना बहुत मुश्किल लगा। मुझे अभी भी फिक्र थी कि कहीं उसके दिल में मेरी अच्छी छवि बिगड़ न जाए। मैंने पहले पढ़े हुए परमेश्वर के वचनों को याद किया, फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने व्यवहार और आचरण में अब भी मिलनसार और स्नेही होने के विचार पर भरोसा कर रही थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे सत्य पर अमल करने में मेरा मार्गदर्शन करने की विनती की। इसके बाद, मैंने जोअन के पास जाकर कहा, "बहन, पता नहीं तुम्हें एहसास है या नहीं, मगर तुम अपना कर्तव्य यूँ ही निपटा देती हो और गैर-जिम्मेदार हो, इस वजह से बहुत-से नए सदस्य सभाओं में नहीं आते हैं। अपने कर्तव्य को इस तरह निभाने से नए सदस्यों के सिंचन में बहुत देर हो रही है..." उसकी समस्या बताने के बाद, मैंने अपना अनुभव भी उसके साथ साझा किया। मुझे लगा वह मुझसे नाराज होकर मेरी अनदेखी करेगी, लेकिन जो हुआ उससे मैं चौंक गई। वह नाराज तो हुई ही नहीं, उसने आत्मचिंतन भी किया, और बोली, "यह मेरी कमी है, और मुझे इसे बदलना होगा।" इसके बाद, बहन जोअन ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने लगी, और जिन नए सदस्यों का उसने सिंचन किया था, वे सभाओं में ज्यादा नियमित रूप से आने लगे। मेरे मार्गदर्शन और मदद से हमारे बीच का रिश्ता टूटा नहीं, बेहतर हो गया। बाद में, जब मैंने फिर से उसकी भ्रष्टता देखी, तो मैंने उसे सीधे बता दिया, और वह इसे स्वीकार कर खुद को जान सकी। अब, अपने कर्तव्य के प्रति उसका रवैया बहुत बदल गया है, बाद में कलीसिया अगुआ के रूप में उसकी तरक्की भी कर दी गई। मैंने एडना और एन की समस्याएँ भी बताईं। एडना को उसके अहंकार का एहसास हुआ, उसने कहा कि उसे दूसरों से बात करने का अपना तरीका बदलना होगा, और एन अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचान कर बोली कि वह बदलने को तैयार है। इससे मुझे बड़ी खुशी मिली। परमेश्वर का धन्यवाद! सिर्फ परमेश्वर के वचन ही लोगों को बदल सकते हैं।

इन चीजों का अनुभव करके मैं देख सकी कि एक सचमुच नेक इंसान वह नहीं होता जो ऊपरी तौर पर वैसा बर्ताव करता है जिसे लोग अच्छा समझते हैं। इसका अर्थ होता है परमेश्वर के वचन पर चलना, सत्य पर अमल करना, और एक ईमानदार इंसान बनना। इसी किस्म के इंसान से परमेश्वर प्रेम करता है। मैं यह भी समझ गई कि दूसरों में समस्याएँ देखने पर, मुझे उनके साथ जल्द संगति कर मदद करनी चाहिए, और जरूरी होने पर उन्हें उजागर कर उनका निपटान करना चाहिए। सिर्फ इसी तरीके से वे अपनी भ्रष्टता और कमियों का एहसास कर सकते हैं, सत्य खोजने में समर्थ होकर, सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकते हैं। उनकी मदद करने का यह सबसे बढ़िया तरीका है। अब, मुझे भाई-बहनों की समस्याएँ बताने में डर नहीं लगता। वे मेरे बारे में चाहे जो सोचें, मैं एक ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करना चाहती हूँ, सिद्धांतों का पालन कर परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करना चाहती हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!

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