86. अनुराग से अपना मन दूषित न होने दें

क्षीण जिंग, चीन

जून 2015 की बात है, मैं एक कलीसिया में सुसमाचार उपयाजिका के रूप में सेवा करने गई। वहाँ सिंचन टीम में ली जिए नाम की एक महिला थी, हमें अक्सर साथ मिलकर काम करना होता था। हम करीब-करीब हमउम्र थीं, हमारा जीवन और व्यक्तित्व भी एक जैसा था। हम दोनों ने अपने पतियों के हाथों दमन झेला था—हममें बहुत-कुछ एक जैसा था। हमारे बीच बहुत बनती थी। इसके अलावा, मैं उस कलीसिया में नई थी, इसलिए मैं दूसरे सदस्यों को नहीं जानती थी, काम में मेरे सामने बहुत-सी चुनौतियाँ भी थीं। वह मेरे साथ संगति करती, और बड़े जोश से मेरी मदद करती, और जब उसके जीवन में कोई मुश्किल आती, मैं हमेशा उसका साथ देती। समय के साथ, हम अपने सबसे अंदरूनी विचार और भावनाएं आपस में साझा करने लगे। हमें घनिष्ठता महसूस हुई और हम खूब घुलने-मिलने लगे।

बाद में, मुझे कलीसिया की अगुआ चुना गया, फिर हम उतना ज्यादा संपर्क में नहीं रह पाए। दो-चार महीने गुजर गए, फिर मैंने कुछ भाई-बहनों को ली जिए को लेकर कुछ समस्याओं का जिक्र करते हुए सुना। उन्होंने कहा कि वह बहुत घमंडी है, जब दूसरों को समस्याएँ होतीं, तो वह न सिर्फ अपना सब्र खो देती है, बल्कि उन्हें डांटती और नीचा दिखाती है। सब उसके सामने बेबस महसूस करते। किसी प्रभारी ने उसका ध्यान इस ओर खींचा, लेकिन उसने इसे मानने से रूखेपन के साथ इनकार कर दिया। वह बैठक में बहुत अधिक बाधा डालती है। वह दूसरों की संगति को स्वीकार नहीं करती, बस दूसरों पर दोष थोप देती है। सबने कहा कि उसमें आत्मा का कार्य नहीं है, उसकी संगति संभ्रमित और उलझन में डालने वाली थी, कभी-कभी वह दूसरों को नीचा दिखाती। कुछ महीनों से वह नए आए हुए लोगों के सिंचन का काम ठीक से नहीं कर रही थी। जब मैंने ये सब सुना, तो समझ गई कि वह अब सिंचन-कार्य के लायक नहीं रही। कुछ सहकर्मियों ने कलीसिया के कार्य में देर होने की बात कहकर उसका स्थान किसी दूसरे को देने का सुझाव दिया। यह विचार मुझे बिल्कुल नहीं जंचा—मैं उसे निकालना नहीं चाहती थी। मैं जब कलीसिया के लिए नई थी, तो सबसे पहले ली जिए से संपर्क हुआ था, और उसने मेरी बहुत मदद की थी। हमारा रिश्ता बहुत बढ़िया था, इसलिए अगर मैंने उसे बर्खास्त किया, तो मुझे डर था कि वो जाने क्या सोचे, कहीं मुझे निर्दयी न कह दे। उसे शोहरत की बड़ी परवाह थी, तो निकाल दिए जाने से क्या वह दुखी नहीं हो जाएगी? ये सोचकर मैं उसे निकालने की बात सहन नहीं कर पाई। मैंने बहाना बनाया कि ली जिए हाल के दिनों में अच्छा काम नहीं कर रही थी, लेकिन दोष पूरी तरह से उसका नहीं है। जिन नवागतों का उसने सिंचन किया, वे धार्मिक धारणाओं में फंसे हुए थे, और धीमे सीख रहे थे, इसलिए उसका अच्छा न कर पाना सामान्य है। यही नहीं, वह कड़ी मेहनत से कई-कई घंटे काम कर सकती थी। अगर हमने उसे बर्खास्त कर दिया, तो उसकी जगह किसी अच्छे को ढूँढ़ने में समय लगेगा, इसलिए कोई न हो, इससे बेहतर है वही रहे। मेरी बात सुनकर कुछ सहकर्मी हिचकिचाए। फिर सभी लोग अनिच्छा से फिलहाल उसे उस काम में रहने, और किसी नए को ढूँढ़ने को राजी हो गए। मैंने राहत की साँस ली, मगर साथ ही सोच रही थी कि हालांकि उसे अभी निकाला नहीं गया है, मगर किसी अच्छे व्यक्ति के मिलते ही उसे निकालना पड़ेगा। हो सकता है अगर मैं उसकी मदद करूँ, तो उसका कामकाज सुधर जाए, फिर वह अपने काम पर बनी रह सकेगी। इसलिए उस रात, मैं अपनी संध्या सभा के बाद सीधे ली जिए के घर गई, मैंने उससे बात की कि उसके काम की खामियों और समस्याओं के पीछे क्या कारण हैं। वो खुद को नहीं जानती थी, बस बहाने बनाती रही। उसे ऐसा करते देखकर मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। इसके बाद मैंने उसका काम सुधारने में मदद करने के लिए काफी संगति की, लेकिन उसका कामकाज नहीं सुधरा। इससे मुझे बहुत ज्यादा बेचैनी हुई। अगले कुछ ही दिनों में, एक अगुआ ने मुझे पत्र लिखकर ली जिए के काम को बदलने के बारे में पूछा। मैंने टालते हुए लिख दिया कि मुझे उसकी जगह कोई अच्छा व्यक्ति नहीं मिल पाया है। ली जिए सलाह मानने से इनकार करती रही, वह बिना स्वीकृति के ऐसी बहन के संपर्क में थी जिसकी शायद पुलिस निगरानी कर रही थी। उसे काम से निकालने के सिवाय कोई चारा नहीं था।

फिर कलीसिया ने मुझे सुसमाचार कार्य का प्रभारी बना दिया, तब मुझे ली जिए का ख्याल आया, जो, कोई भी काम न होने से, घर पर दुखी बैठी होगी। उसमें सुसमाचार कार्य करने का बहुत जोश था, इसलिए लगा कि उसके लिए फिर से काम शुरू करने का यह बहुत अच्छा मौक़ा था। मैंने सहकर्मियों की एक बैठक में, अपने विचार सामने रखे कहा कि उसके पास इस किस्म का काम करने का अनुभव और खूबियाँ हैं, वह जानती है कि वह गलत थी और उसे इसका पछतावा है। मैंने उसे सुसमाचार टीम से जुड़ने के लिए मौक़ा देने की बात कही। दूसरे सभी लोग राजी हो गए। क्या कहें, जल्दी ही भाई-बहनों से ये सुनकर मैं चौंक गई कि सुसमाचार उपयाजिका से उसे कुछ समस्याएँ थीं, इसलिए सभाओं में, वह यह बताती रहती है कि पहले उपयाजिका ने उसे कैसे दबाकर रखा था, वो बार-बार इसे दोहराती रहती है। इससे बहुत-से भाई-बहन उपयाजिका के खिलाफ हो गए और उससे दूर रहने लगे। वह कार्य-बैठकों में उपयाजिका के साथ भिड़ जाती है, और कुछ दूसरी बहनें भी उसका साथ देती हैं। सुसमाचार उपयाजिका कोई काम नहीं कर पा रही, और कलीसिया के कार्य में गंभीर रुकावट आ गई है। यह सुनकर मैं स्तब्ध थी। मैं जानती थी कि उपयाजिका ने ली जिए से विधिवत माफी माँगी थी, और मैंने उसके साथ संगति की थी। उससे खुद को जानने, चीजों में जबरन न घुसने और सबक सीखने को कहा था। लेकिन मुझे आशा नहीं थी कि वह उन बातों को पकड़े रखेगी, छोड़ेगी नहीं। उसका व्यवहार कलीसिया में वैसे ही बहुत बाधाकारी था, ऐसा ही चलता रहा, तो उसे सुसमाचार टीम छोड़नी पड़ेगी। मैं उसके बारे में बहुत ज्यादा चिंता करने लगी। मैं कई बार उसके साथ संगति करने गई। उसने मेरे सामने तो सही बातें कहीं, लेकिन सभाओं में पुराने ढर्रे पर ही चलती रही। कुछ दूसरी उपयाजिकाओं ने भी उसके साथ संगति कर उसकी सहायता की थी, लेकिन वह खुद को नहीं जानती थी, वह बदलने वाली नहीं थी।

अगुआ को इन बातों के बारे में बहुत पहले ही पता चल गया था। वह कलीसिया में बाधाकारी थी, बार-बार संगति के बावजूद प्रायश्चित नहीं करती थी, और उसका बहुत बुरा असर हो रहा था। सिद्धांतों के अनुसार उसे हटाना जरूरी था, अगर वह फिर भी प्रायश्चित न करे, तो कलीसिया से निकालना जरूरी था। यह सुनकर मेरा कलेजा मुँह हो आ गया। मैंने इस बारे में सोचा कि कैसे उसने सब-कुछ छोड़ दिया था और इतने कष्ट सहे थे। उसे बाहर निकाल दिया गया तो क्या यह बेहद शर्म की बात नहीं होगी? जब मैं सुसमाचार उपयाजिका थी, तब उसने मेरी बहुत मदद की थी, और उस कलीसिया में मैं ही उसके सबसे करीब थी। अगर मैंने उसकी ओर से बात नहीं की, तो यह बड़ी निर्दयता होगी। अगर उसे सच में बाहर निकाल दिया गया, तो उसे दोबारा मुँह कैसे दिखाऊंगी? यकीनन वह मुझसे नाराज हो जाएगी, उसे सच में दुख पहुंचेगा। ऐसा सोचकर, मैंने उन सहकर्मियों से कहा कि ली जिए की कुछ समस्याएँ जरूर हैं, लेकिन वह लंबे समय से कलीसिया में सेवा कर रही है, और सुसमाचार कार्य भी उसने ठीक किया था, तो शायद यह बहुत सख्ती हो जाएगी। मैंने उसे एक और मौक़ा और ज्यादा मदद देने का सुझाव दिया, इससे शायद वह बदल जाएगी। एक सहकर्मी ने बड़ी सख्ती से यह कहकर जवाब दिया, "बहन शिन, आप सत्य के सिद्धांतों का पालन नहीं कर रही हैं, बल्कि भावना में फंसी हुई हैं। ली जिए ने पहले सुसमाचार कार्य ठीक किया था और वह बहुत मेहनती कार्यकर्ता है। मगर वह सत्य को स्वीकार नहीं करती—सत्य से घृणा करती है, नकारात्मक भूमिका निभाती है। उसने परमेश्वर के घर के कार्य में गंभीर बाधा डाली है। अपने अनुराग के चलते हम उसे सिर पर नहीं चढ़ा सकते। इस पर ज़रा विचार करें।" उसने जब यह कहा, तो मुझे लगा कि ली जिए के मामले में मैं सच में सिद्धांतों का पालन नहीं कर रही थी, मगर फिर भी मैं इसे सहन नहीं कर पाई, मैंने चाहा कि अगुआ उसे एक और मौका दें।

सभा से घर लौटते वक्त, मुझे लगा मानो सब घूम रहा है, मुझे आँखें खोलने में डर लगा। मैं चल भी नहीं पाई। मैं सड़क के किनारे ही बैठ गई, मुझे एहसास हुआ कि शायद परमेश्वर मुझे अनुशासित कर रहा है। मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की। तभी, परमेश्वर के कुछ वचन मन में कौंध गए। परमेश्वर कहते हैं, "जब लोग परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो हो सकता है, ऐसा किसी एक घटना या किसी एक बात की वजह से न होकर उनके रवैये और उस स्थिति के कारण हो, जिसमें वे हैं। यह एक बहुत ही भयावह बात है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII')। परमेश्वर के इन वचनों ने मेरे दिल में थोड़ा डर पैदा कर दिया। मैं समझ गई कि मैंने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया था। मैंने आत्मचिंतन किया, मुझे एहसास हुआ कि जब उस अगुआ ने मुझसे ली जिए को बर्खास्त कर उसे आत्मचिंतन करने देने को कहा, तो मैंने सत्य नहीं खोजा या परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान नहीं रखा। मैं अड़ियल बनकर उसी का साथ दे रही थी। परमेश्वर के लिए मेरे दिल में कोई स्थान नहीं था, और मैं उसका अपमान कर चुकी थी। मैंने शीघ्र परमेश्वर से प्रार्थना करके अपनी गलत मान ली, आशा की कि मैं आत्मचिंतन करूँगी। प्रार्थना करने के बाद, मैं लड़खड़ाते हुए घर लौटी। घर पहुँचकर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। परमेश्वर कहता है, "कुछ लोग बेहद भावुक स्वभाव के होते हैं; हर दिन, वे जो कुछ भी कहते हैं, और जिस तरह से वे दूसरों के प्रति व्यवहार करते हैं, उसमें वे अपनी भावनाओं से जीते हैं। वे किसी न किसी व्यक्ति के लिए स्नेह महसूस करते रहते हैं और उन्हें हर दिन उस व्यक्ति का एहसान चुकाना होता है और उसके लिए अच्छी भावनाएं प्रकट करनी होती हैं; वे जो कुछ भी करते हैं एक भावनात्मक दुनिया में जीते हुए करते हैं। ... तुम कह सकते हो कि भावनाएं उनका घातक दोष है। वे जो कुछ भी करते हैं, वह उनकी भावनाओं द्वारा नियंत्रित होता है, वे सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, या सिद्धांत के अनुसार कार्य नहीं कर पाते, और अकसर परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह कर बैठते हैं। भावनाएं उनकी सबसे बड़ी कमजोरी हैं, उनका घातक दोष हैं, जो उन्हें पूरी तरह से बरबाद करने में सक्षम हैं। जो लोग अत्यधिक भावुक होते हैं, वे सत्य को व्यवहार में लाने या परमेश्वर का आज्ञापालन करने में असमर्थ होते हैं। वे देह में लिप्त, मूर्ख और भ्रमित रहते हैं, भावनाओं में बह जाना उनकी प्रकृति होती है। वे भावनाओं से जीते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। इस अंश ने मेरे दिल को गहराई तक छू लिया, मैं अपने आँसू नहीं रोक सकी। समझ गई कि मैं दूसरों के लिए अपनी भावनाओं के प्रभाव में थी, यह मेरी कमजोर नब्ज थी, मेरी घातक कमजोरी थी। ली जिए मेरी मदद करने को इतनी तैयार और तत्पर रहती कि मैंने उसके प्रति लगाव महसूस किया, और समय के साथ, वह जैसे मेरी अपनी बन गई। जब भी उससे जुड़ी कोई बात सामने आती, मैं भावनाओं के प्रभाव में बोलती, हमेशा उसकी भावनाओं के लिए परेशान रहती, उसका साथ देती। मैं सिद्धांतों का उचित प्रयोग नहीं कर पाई। मुझे मालूम था कि वह अपना काम ठीक से नहीं कर रही थी, इससे बाधा हो रही थी, अच्छाई से ज्यादा तो बुराई थी, और उसे तुरंत बर्खास्त कर देना चाहिए। लेकिन हमारे घनिष्ठ रिश्तों के कारण, मैं उसका काम छूट जाने या उसके कलीसिया से बाहर निकाल दिए जाने के बारे में चिंतित थी, अपनी भावनाओं के चलते मैंने बहाने बनाए ताकि उसे रखने के लिए दूसरों को आश्वस्त कर सकूँ। मैं उसके कामकाज में सुधार के लिए मदद भी करना चाहती थी ताकि उसका पद सुरक्षित रह सके। अगर हमारा रिश्ता ऐसा न होता, तो मैं उसके लिए इतना ज्यादा नहीं बोलती। किसी भी दूसरे भाई-बहन से मैं सिद्धांतों के अनुसार ही पेश आई होती। उस मुकाम पर, मैं समझ गई कि मैं अपने काम में, पूरी तरह से अपने अनुराग के प्रभाव में थी, हर मोड़ पर, सिद्धांतों का ध्यान रखे बिना, उसका साथ देकर स्नेह दिखा रही थी। मैं दूर-दूर तक परमेश्वर के घर के कार्य या हितों का ध्यान नहीं रख रही थी, बल्कि मेरा काम और बातें पूरी तरह से भावनाओं पर आधारित थे—बहुत स्वार्थी व्यवहार था!

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे इस समस्या के प्रति मेरी आँखें थोड़ा और खुल गईं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "भावनाओं से संबंधित कौन-से मुद्दे हैं? एक तो यह है कि तुम अपने परिवार का मूल्यांकन कैसे करते हो, तुम उनके द्वारा किए जाने वाले कामों पर कैसी प्रतिक्रिया देते हो। 'उनके द्वारा किए जाने वाले कामों' में शामिल हैं उनका टाँग अड़ाना और दखल देना, लोगों की पीठ पीछे उनकी आलोचना करना, अविश्वासियों वाले काम करना, इत्यादि। क्या तुम अपने परिवार के प्रति निष्पक्ष हो सकते हो? अगर तुम्हें लिखित रूप में उनका मूल्यांकन करने के लिए कहा जाए, तो क्या तुम अपनी भावनाओं को एक तरफ रखकर निष्पक्ष और तटस्थ रूप से ऐसा करोगे? और क्या तुम उन लोगों के प्रति भावुक हो, जिनके साथ तुम उठते-बैठते हो या जिन्होंने पहले कभी तुम्हारी मदद की है? क्या तुम उनके कार्यों और व्यवहार के प्रति सटीक, निष्पक्ष और तटस्थ होगे? क्या तुम उन्हें हस्तक्षेप और घुसपैठ करते पाकर तुरंत उनकी रिपोर्ट करोगे या उन्हें उजागर करोगे? इसके अलावा, क्या तुम उन लोगों के प्रति भावुक हो, जो तुम्हारे करीब हैं या जिनके हित समान हैं? क्या उनके कार्यों और व्यवहार के प्रति तुम्हारा मूल्यांकन, परिभाषा और प्रतिक्रिया निष्पक्ष और तटस्थ होगी? और अगर सिद्धांत के तकाजे से कलीसिया तुमसे जुड़े किसी व्यक्ति या जिनके साथ तुम्हारा भावनात्मक संबंध है, उनके खिलाफ कोई कदम उठाए और वे कदम तुम्हारी धारणाओं के विपरीत हों, तो तुम कैसे प्रतिक्रिया करोगे? क्या तुम आज्ञापालन करोगे? क्या तुम उनके साथ गुप्त रूप से संपर्क बनाए रखोगे, क्या तुम अभी भी उनके द्वारा फुसलाए जाते रहोगे, क्या तुम अभी भी उनके लिए बहाने बनाने, उन्हें सही ठहराने और उनका बचाव करने के लिए तैयार हो जाओगे? क्या तुम उनके दोष अपने सिर लेकर उनकी मदद करोगे, जिन्होंने तुम पर दया दिखाई है, जो सत्य के सिद्धांतों से बेखबर हैं और परमेश्वर के घर के हितों की परवाह नहीं करते? ये सारे भावनात्मक मुद्दे हैं, है न? कुछ लोग कहते हैं, 'तुम जिन भावनाओं की बात कर रहे हो—क्या उनका संबंध मात्र रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों से नहीं है? क्या इनमें केवल माता-पिता, भाई-बहन और परिवार के अन्य सदस्य ही शामिल नहीं हैं?' नहीं; इनमें बहुत सारे विभिन्न लोग शामिल हैं। परिवार के सदस्यों की तो बात ही छोड़ दो, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने यार-दोस्तों के प्रति भी निष्पक्ष नहीं हो पाते। उनके मुँह से निकली हर बात पक्षपातपूर्ण होती है। उदाहरण के लिए, जब कोई लापरवाही करता है और दुष्टता की ओर प्रवृत्त होता है, तो वे उसे मौज-मस्ती करना, अल्हड़ होना, देर से सफल होने वाला कहते हैं। और क्या इन बातों में भावना है? जब लापरवाह व्यक्ति का उनसे कोई संबंध नहीं होता, तो उनके शब्द उतने हलके नहीं होते : 'वे स्पष्ट रूप से मसीह-विरोधी हैं, वे दुष्ट और बुरे हैं, वे जो कुछ भी करते हैं वह हस्तक्षेप और घुसपैठ करने वाला होता है।' सबूत माँगने पर वे जवाब देते हैं, 'अभी तक कोई सबूत नहीं है—लेकिन तुम सीधे कह सकते हो कि वे बेईमान हैं। परमेश्वर के वचन कहते हैं कि यह उनकी प्रकृति है।' वे उन्हें परिभाषित करने में कोई झिझक नहीं दिखाते। यह उनका भावनाओं से जीना है, है न? और वे कौन होते हैं, जो भावनाओं में जीते हैं? क्या ऐसे लोग निष्पक्ष होते हैं? क्या वे ईमानदार होते हैं? (नहीं।) जो लोग देह की प्रवृत्तियों और रुचियों के अनुसार जीते हैं, वे भावनाओं से जीते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (2)')। "मैं लोगों को अपनी भावनाओं को प्रकट करने का अवसर नहीं देता, क्योंकि मैं भावना-रहित हूँ, और चरम कोटि तक लोगों की भावनाओं से घृणा करने लगा हूँ। लोगों के बीच की भावनाओं के कारण ही मुझे एक तरफ कर दिया गया है, और इस रीति से मैं उनकी नज़रों में 'अन्य' बन गया हूँ; लोगों के बीच की भावनाओं के कारण ही मैं भुला दिया गया हूँ। यह मनुष्य की भावनाओं के कारण है कि वह अपने विवेक को पाने के लिए मिले अवसर को पकड़ लेता है। यह मनुष्य की भावनाओं के कारण है कि वह हमेशा मेरी ताड़नाओं से थका रहता है। यह मनुष्य की भावनाओं के कारण है कि वह मुझे पक्षपाती और अन्यायी कहता है, और कहता है कि चीज़ों को संभालते वक्त मैं मनुष्य की भावनाओं के प्रति असावधान होता हूँ। क्या पृथ्वी पर मेरे भी सगे-संबंधी हैं? किसने कभी, मेरी तरह, मेरे पूरे प्रबन्धन की योजना के लिए भोजन या नींद के बारे में न सोचते हुए, दिन रात काम किया है? मनुष्य की तुलना परमेश्वर से कैसे हो सकती है? वह कैसे परमेश्वर के सुसंगत हो सकता है?" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन' के 'अध्याय 28')। इसे पढ़ने से मुझे और ज्यादा स्पष्टता मिली कि अनुराग के प्रभाव में होने का क्या अर्थ होता है, और मैं समझ गई कि परमेश्वर का इससे बड़ी घृणा है। यह हमसे सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन, दुष्टता, और परमेश्वर का प्रतिरोध करवाता है, परमेश्वर ने मुझे उन्नत कर एक अगुआ बनाया, मगर दूसरों के साथ अपने व्यवहार में, मैं सत्य का अभ्यास नहीं करती, न ही सिद्धांतों के अनुसार उनसे उचित बर्ताव करती हूँ, मैंने हमारे सौहार्द के कारण ली जिए को बचाया, और जरूरत होने पर भी उसे बर्खास्त करने या बाहर निकालने से इनकार किया। मैं कलीसिया के हितों की बलि देकर, परमेश्वर के घर के कार्य का प्रयोग कर तरफदारी कर रही थी। इससे भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को हानि पहुँची, और परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा पैदा होने के सिवाय कुछ नहीं हुआ। मैं खाना खिलाने वाले हाथ को काट रही थी—मैं गद्दार बन गई थी। क्या यह परमेश्वर का अपमान और उसका प्रतिरोध करना नहीं था? ये सब समझ लेने के बाद मुझे बहुत पछतावा हुआ, और मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना और प्रायश्चित करने लगी। बाद की एक सभा में, मैंने खुल कर बताया कि पूरे हालात को संभालने में मैं किस तरह भावुकता के प्रभाव में थी। ली जिए के व्यवहार के आधार पर, मैंने उसे उसके काम से निकाल दिया, ताकि वह आत्मचिंतन कर सके।

करीब छह महीने बीत गए, फिर भी उसने अपने दुष्ट व्यवहार की कोई सच्ची समझ हासिल नहीं की, बल्कि अड़ी रही कि उसके साथ गलत हुआ, और अगुआ निष्पक्ष नहीं थी। उसने दूसरों को बताया कि अगुआ उसे नीची नज़रों से देखती है और उससे द्वेष रखती है। अगुआ ने उसके साथ सत्य के बारे में संगति की और उसके व्यवहार का विश्लेषण किया, मगर उसने एक न सुनी और बहाने बनाती रही। ली जिए ने उनसे कुछ न बोलने का खेल भी खेला, मूक विरोध में उनको पीठ दिखाती रही। वह शिकायत करती रही और दूसरों के बीच नकारात्मकता फैलाती रही, बताती रही कि उसने बहुत कष्ट झेले हैं पर आशीष मिले ही नहीं, जबकि अयोग्य लोगों को आशीष मिले। उसके संपर्क के कुछ भाई-बहन उसका साथ देने लगे, और उसे बचाने लगे। बहुत-से लोगों ने कहा कि वह कमजोर इंसानियत वाली है, अपने मेजबान के घर में खाने को लेकर भी वह बड़े नखड़े करती, अपनी मेजबान बहन की पीठ पीछे शिकायत करती कि वह उसके लिए खाना नहीं खरीदती है। अपने पैसे को लेकर वह कंजूस थी, गरीब होने का रोना रोती थी, जिससे भाई-बहन मूर्ख बनकर प्रेम के चलते उसकी मदद करते, उसे पैसे या दूसरी कुछ चीजें दे देते। और ये सब स्वीकार करके वह यूं जताती जैसे ये उसका हक़ है और वे सब मदद करने को बाध्य हैं। वह परमेश्वर के घर में एक परजीवी थी। इन सब बातों से मुझे "जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी" में शामिल परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया। परमेश्वर कहते हैं, "जो लोग कलीसिया के भीतर विषैली, दुर्भावनापूर्ण बातों का गुबार निकालते हैं, भाइयों और बहनों के बीच अफवाहें व अशांति फैलाते हैं और गुटबाजी करते हैं, तो ऐसे सभी लोगों को कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए था। अब चूँकि यह परमेश्वर के कार्य का एक भिन्न युग है, इसलिए ऐसे लोग नियंत्रित हैं, क्योंकि उन पर बाहर निकाले जाने का खतरा मंडरा रहा है। शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली पैशाचिक शैतान हैं। उनके आचरण से परमेश्वर के कार्य में बाधा पहुंचती है; उनके सभी कृत्य भाई-बहनों को अपने जीवन में प्रवेश करने में व्यवधान उपस्थित करते हैं और कलीसिया के सामान्य कार्यकलापों को क्षति पहुंचाते हैं। आज नहीं तो कल, भेड़ की खाल में छिपे इन भेड़ियों का सफाया किया जाना चाहिए, और शैतान के इन अनुचरों के प्रति एक सख्त और अस्वीकृति का रवैया अपनाया जाना चाहिए। केवल ऐसा करना ही परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना है; और जो ऐसा करने में विफल हैं वे शैतान के साथ कीचड़ में लोट रहे हैं" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश ने मुझे ली जिए के बारे में थोड़ी ज्यादा समझ दी। वह सत्य को नहीं स्वीकारती, सकारात्मक भूमिका निभाए बिना बाधाकारी और आलोचनात्मक रहती, हमारे कलीसियाई जीवन को खराब करने वाला एक सड़ा सेब थी। आलोचना होने और काम छिन जाने पर भी उसने कभी प्रायश्चित नहीं किया, बल्कि असंतुष्ट रहकर, अगुआओं के बारे में शिकायत की, कलीसियाई जीवन को बाधित किया। ऐसी सत्य से घृणा करने वाली, बदले की भावना वाली, आक्रामक, दुष्ट इंसान को कभी बचाया नहीं जा सकता था। वह बस कलीसिया के कार्य में बाधा डालती, जैसे मुर्गियों के दड़बे में दौड़ती लोमड़ी मुर्गियाँ निगल रही हो। दुष्ट लोगों को निकालना ही चाहिए, ताकि परमेश्वर के घर का कार्य आगे बढ़े और हम कलीसिया का उचित जीवन जी सकें। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है। वह उन्हें बचाता है, जिनमें अच्छी इंसानियत होती है, जो सत्य से प्रेम करते हैं, दुष्कर्मियों को नहीं। दुष्कर्मियों की प्रकृति सत्य से घृणा करने वाली होती है, और कितने भी मौके मिलें, वे सही मायनों में प्रायश्चित नहीं करते। सत्य से प्रेम करने वाले लोग भी भ्रष्टता दिखा सकते हैं, बाधाकारी होकर आलोचनात्मक बातें कह सकते हैं, लेकिन इस सच्चाई के बाद, वे आत्मचिंतन कर परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार सकते हैं, प्रायश्चित कर बदल सकते हैं। कलीसिया ने ली जिए को बहुत-से मौके दिए, लेकिन उसने कभी प्रायश्चित नहीं किया। उसने अपनी आक्रामक बातें और बाधाएं बढ़ा दीं। वह सार-रूप में दुष्ट थी। कलीसिया के सिद्धांतों के आधार पर उसे बाहर निकालना जरूरी था। कलीसिया की एक अगुआ होने के नाते, मैं जानती थी कि उसके दुष्कर्मों को उजागर करने के लिए मुझे दूसरों के साथ संगति करनी होगी, और उसको बाहर निकालने के दस्तावेजों पर दस्तखत करने होंगे। मुझे अभी भी ऐसा करने की इच्छा नहीं थी। मुझे चिंता थी कि कलीसिया से निकाले जाने पर उसका काम खत्म हो जाएगा। यह विचार आते ही मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, और अपनी भावना पर काबू करने का रास्ता दिखाने की विनती की।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों "परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे" के अंश 4 में यह पढ़ा। "शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं, क्या ये वे नहीं, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करते और परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ़ आशीष पाने की फ़िराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनके प्रति साफ़ अंत:करण और प्रेम रखते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दुष्टात्माओं के साथ संबद्ध नहीं हो रहे? यदि आज कल भी लोग अच्छे और बुरे में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर की इच्छा जानने का कोई इरादा न रखते हुए या परमेश्वर की इच्छाओं को अपनी इच्छा की तरह मानने में असमर्थ रहते हुए, आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं, तो उनके अंत और भी अधिक ख़राब होंगे। यदि कोई देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, तो वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ़ अंत:करण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें धार्मिकता की समझ का अभाव नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम अवज्ञाकारी नहीं हो? क्या तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ़ अंत:करण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं?" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़कर मैंने बहुत दोषी महसूस किया। मैं अच्छी तरह जानती थी कि वह उपद्रवी और बुरी औरत थी जो कभी प्रायश्चित नहीं करेगी, एक दुष्कर्मी जो सार रूप से सत्य से घृणा करती थी, मगर मैंने अभी भी उससे लाड़ किया, हमेशा उसे कलीसिया में रखना चाहा। मैं शैतान का साथ देकर, परमेश्वर के विरुद्ध जाकर, कलीसिया के कार्य को हानि पहुँचाने में एक दुष्कर्मी की मदद कर रही थी। शैतान के फलसफे, "खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं," "मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?" मुझे रास्ता दिखा रहे थे। मैंने हमेशा दूसरों के साथ संबंध को मूल्यवान माना था, यह सोचकर कि मानवीय होने का, नेक इंसान होने का यही एकमात्र रास्ता है। इसके अलावा और कुछ करना निर्दयता है, और दूसरे मुझे ठुकरा देंगे। मेरी यह सोच बिल्कुल हास्यास्पद थी। ये सांसारिक फलसफे सही लगते हैं, और इंसानी धारणाओं से मेल खाते हैं, मगर ये सत्य और सिद्धांतों के विरुद्ध हैं। अगर हम दूसरे सभी लोगों के प्रति भावुक और स्नेही हों, तो यह दूसरों से प्रेम करने का मूर्खतापूर्ण तरीका है, और पूरी तरह असैद्धांतिक है। परमेश्वर चाहता है कि हम दूसरों के साथ सिद्धांत से पेश आयें, भाई-बहनों के साथ प्रेम रखें और परमेश्वर के साथ अपने अंत:करण पर चलें, दुष्कर्मियों, गैर-विश्वासियों, दानवों और शैतान को ठुकराएं। इन किस्मों के लोगों के साथ भावुक होना, क्या बेवकूफी और भ्रम में होना नहीं है? इस किस्म के प्रेम में समझ और सिद्धांत नहीं हैं—यह बेवकूफी से पैदा होता है। इससे हम सिर्फ भटकते ही नहीं, बल्कि किसी दुष्कर्मी के पीछे चलकर सच में परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचा सकते हैं। मैं समझ गई कि मैं शैतानी फलसफों के साथ जी रही हूँ, और यह बहुत बड़ी बेवकूफी है, बहुत मर्यादाहीन है। मैं जानती थी कि ली जिए सत्य को स्वीकार नहीं करेगी, वह कलीसिया को बाधित करने वाली दुष्कर्मी है, और उसे निकालना जरूरी है। लेकिन मैं अपनी भावनाओं में फंसी रही, मेरे अनुराग ने मुझे रोक रखा था। मैं बार-बार उसे दुलारती रही। यह मेरे लिए दर्दभरा, थकाऊ और बांधने वाला था, लेकिन उससे भी अहम, जिन सत्यों को मैं समझती थी, उनका अभ्यास नहीं कर पा रही थी। मैं परमेश्वर के विरुद्ध लड़ रही थी। परमेश्वर के अनुग्रह और उद्धार का आनंद लेकर उसी के विरुद्ध काम कर रही थी, शैतान और एक दुष्कर्मी की रक्षा कर रही थी। मुझमें अंतरात्मा और समझ नहीं थी। आखिर मेरे मन में यह स्पष्ट हो गया कि भावना के प्रभाव में होने का अर्थ है परमेश्वर और सत्य से मुंह मोड़ना। मैंने सोचा वर्षों से परमेश्वर मेरे भीतर इतना कार्य करता रहा है और इतनी बड़ी कीमत चुकाता रहा है। मैंने बदले में उसे कुछ भी नहीं दिया, बल्कि मैं उसके विरुद्ध शैतान के साथ खड़ी थी। इस बारे में इस तरह सोचकर मैं पश्चाताप और अपराध बोध से भर गई।

इसके बाद अपने आराधना कार्यों में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? जिससे परमेश्वर प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है। हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से घृणा करते हैं और उसके विरुद्ध विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा, 'कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई? ... क्योंकि जो कोई मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और मेरी बहिन, और मेरी माता है।' यह कहावत अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थी, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक उपयुक्त हैं : 'उससे प्रेम करो, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करो, जिससे परमेश्वर घृणा करता है।' ये वचन बिलकुल सीधे हैं, फिर भी लोग अकसर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही तुम स्‍वयं को जान सकते हो')। इससे अभ्यास करने के लिए इस सिद्धांत के बारे में स्पष्टता मिली, "उससे प्रेम करो, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करो, जिससे परमेश्वर घृणा करता है।" जो लोग सच्ची आस्था रखते हैं, सत्य का अनुसरण करते हैं, और अपने काम में निष्ठावान हैं, वही वास्तविक भाई-बहन हैं, सिर्फ वही हमारे प्रेम के लायक हैं। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते, और कलीसिया में हमेशा बाधा डालते हैं, जो सत्य और परमेश्वर से घृणा करते हैं, वे सभी दुष्ट लोग हैं, गैर-विश्वासी, दानव और शैतान हैं। वे हमारी नाराजगी, और धिक्कार के लायक हैं। लोगों के साथ सिद्धांतों और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार पेश आने का यही रास्ता है। इसके बाद एक सभा में, मैंने इस बारे में संगति की कि दुष्ट व्यक्ति कौन है और उसे कैसे पहचाना जाए, और मैंने ली जिए के दुष्ट व्यवहार पर रोशनी डाली। मैंने किसी व्यक्ति को कलीसिया से निकालने के सिद्धांतों पर भी संगति की, और जब वे सब सत्य समझ गए, तो उन्होंने ली जिए के दुष्कर्मों को उजागर करना शुरू कर दिया। आखिरकार उसे बाहर निकाल दिया गया।

इन सबके बाद मैं परमेश्वर के प्रति सच में आभार से भर उठी। अगर परमेश्वर द्वारा प्रकाशित बातें और उसके वचनों का न्याय नहीं मिला होता, तो मैं दूसरों के प्रति अंधी सहानुभूति से भरी हुई, बुराई और अच्छाई, गलत और सही में भेद करने में असमर्थ, एहसास किए बिना परमेश्वर के विरुद्ध शैतान का साथ देकर, उन्हीं शैतानी फलसफों के आधार पर जीवन जीती रहती। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अनुराग के प्रभाव में होने के खतरे और परिणाम समझाए, अनुराग के बंधनों से बच निकलने में मेरी मदद की, ताकि मैं लोगों के साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुसार पेश आ सकूं। मैं परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के लिए उसकी बहुत आभारी हूँ।

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