63. फलीभूत होने वाली रिपोर्ट

डिंग ली, अमेरिका

यह दो साल पहले की गर्मियों की बात है। मैंने सुना था कि हमारी एक अगुआ बहन झोऊ ने भाई ली को सिंचन कार्य का उपयाजक बनाया है, यह कहते हुए कि उसमें अच्छी योग्यता है और सभाओं में उसकी संगति प्रबुद्ध करती है। मैं इस खबर से दंग रह गई थी। मैं उसके साथ काम कर चुकी थी और उसके बारे में थोड़ा-बहुत जानती थी। यह सच है कि वह अच्छी बात कर लेता था और संगति में बहुत कुछ कहता रहता था, पर इसमें ज्यादातर लफ्फाजी और धर्म-सिद्धांत होता था, जिससे व्यावहारिक समस्याएँ हल नहीं होती थीं। वह बहुत अहंकारी भी था और सब कुछ मनमाने ढंग से करता था, दूसरों से चर्चा करने के बजाय वह खुद ही काम से जुड़े फैसले ले लेता था। इससे कुछ मुश्किलें पैदा हो गईं और परमेश्वर के घर के काम को भी नुकसान पहुंचा। प्रभारी व्यक्ति ने कई बार उसे समझाने की कोशिश की, पर वह नहीं माना और नहीं बदला। मैंने भी उसे समझाने की कोशिश की थी। वह कभी आत्म-चिंतन करके खुद को समझने की कोशिश नहीं करता था, अपने बर्ताव को ही सही ठहराता रहता था। कुछ समय बाद मेरी समझ में आ गया कि वह सिर्फ धर्म-सिद्धांत पर भाषण झाड़ता रहता है, पर सत्य को स्वीकार नहीं करता। परमेश्वर के घर में अगुआओं और कार्यकर्ताओं को चुनने का सिद्धांत यह है कि उन्हें सत्य की सच्ची समझ होनी चाहिए, उनमें सत्य को स्वीकारने की क्षमता, जिम्मेदारी की भावना और अच्छी योग्यता होनी चाहिए। और सिंचन कार्य के उपयाजक को सत्य पर संगति से मुद्दों को सुलझाना, और कुछ व्यावहारिक काम भी आना चाहिए। बहन झोऊ ने सिर्फ इसलिए उसे सिंचन कार्य का उपयाजक बना दिया क्योंकि उसमें थोड़ी योग्यता और बात करने का हुनर है। पर यह सिद्धांत के अनुरूप नहीं था। मैंने इस बारे में जितना सोचा उतनी ही बेचैन होती रही, मैं बहन झोऊ से मिलकर उसे अपने मन की बात बताना चाहती थी। पर जैसे ही बात मेरी जुबान पर आई मैं हिचकिचाने लगी। आपको पता ही है, पहले मैं भी सिंचन कार्य की उपयाजिका रह चुकी थी, और मुझे लोगों की व्यावहारिक समस्याएँ न सुलझाने के कारण हाल ही में बर्खास्त किया गया था। अगर मैं अगुआ द्वारा अभी-अभी चुने गए व्यक्ति पर उंगली उठाती तो मेरी कैसी छवि बनती? क्या लोग कहते कि मैंने अभी-अभी यह ओहदा खोया है, इसलिए मैं अपनी जगह लेने वाले से जल रही हूँ और उसमें मीन-मेख निकाल रही हूँ। अगर कलीसिया के काम में रुकावट डालने के लिए मुझसे नया कर्तव्य भी छीन लिया गया तो? मैंने सोचा चुप रहने में ही मेरी भलाई है, बजाय अपनी टांग अड़ाकर मुसीबत मोल लेने के। इसलिए मैं मुंह खोलने ही वाली थी कि चुप हो गई। बाद में मैंने सुना कि किसी दूसरे समूह के भाई-बहन भी पहले भाई ली के साथ काम कर चुके थे, और उन्हें लगता था कि भाई ली ने कभी अपने कर्तव्य में कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई थी और वह उपयाजक के काम के लिए ठीक नहीं था। तब मुझे पक्का यकीन हो गया कि मैं सही सोच रही थी, मैंने सोचा कि मुझे बहन झोऊ से जल्द-से-जल्द बात करनी चाहिए ताकि एक गलत व्यक्ति की वजह से परमेश्वर के घर के काम में देर न हो। क्योंकि भाई ली को बहन झोऊ ने नियुक्त किया था, इसलिए अगर मैं यह मुद्दा उठाती तो उसके मुंह पर उसी को दोष देना न होता? मैं उसके साथ पहले काम कर चुकी थी, और जानती थी कि वह अहंकारी, जिद्दी और अकड़ू है। मैंने इन मामलों पर उससे बात की तो उसने न सिर्फ मानने से इनकार किया, बल्कि एक दिन मुझे बुरी हालत में पाकर मुझे लंबा-चौड़ा भाषण पिला दिया था। इसलिए मुझे लगा अगर मैं उसके काम में कोई कमी निकालूँ तो वह शायद सोचे कि मैं जानबूझकर अकड़ दिखा रही हूँ और उसे गिराना चाहती हूँ। फिर अगर वह मेरे पीछे पड़ जाए तो मैं क्या करूंगी? मुझे यह भी याद आया कि कुछ साल पहले जब मैंने और एक बहन ने एक अगुआ में कुछ कमियाँ देखी थीं, तो उसने हम पर गुट बनाकर उस पर हमला करने का आरोप लगा दिया था। इस बात पर मेरा काम भी छिन गया था। बाद में यह अगुआ एक मसीह-विरोधी के रूप में बेनकाब करके निकाल दिया गया, पर उसने अड़ंगे डालकर मुझे लंबे समय तक कोई काम नहीं मिलने दिया। मुझे डर था कि बहन झोऊ मेरी बात को मानेगी नहीं, और फिर किसी बहाने मुझसे मेरा काम छीन लेगी। परमेश्वर का कार्य जल्दी ही अपने समापन पर आने वाला है, इसलिए यह कर्तव्य निभाने का अहम समय है। अगर ऐसे समय में मैं कोई कर्तव्य निभाकर अच्छे कर्म न कर पाई, तो मैं उद्धार का अपना अवसर खो दूँगी। तो क्या यह घाटे का सौदा नहीं होगा? यह सोचकर मैंने यह मामला उठाने का ख्याल अपने दिमाग से निकाल दिया।

इसके बाद, मैंने कुछ भाई-बहनों को यह कहते सुना कि भाई ली जबसे सिंचन कार्य का उपयाजक बना था, वह सभाओं में सिर्फ धर्म-सिद्धांत झाड़ रहा था और डींगें हांक रहा था, वह लोगों की समस्याएँ सुलझाने में मदद नहीं कर रहा था। वह अपने कर्तव्य में कोई जिम्मेदारी भी नहीं उठा रहा था, और उसके साथ जुड़े कुछ नए विश्वासियों ने सभाओं में आना बंद कर दिया था, क्योंकि वे कम्युनिस्ट पार्टी के झूठ से बहक गए थे। उसने समय रहते उन्हें संगति और मदद नहीं दी थी, इसलिए उनमें से कुछ आस्था छोड़कर चले गए थे। यह सब सुनकर मुझे एहसास हुआ कि समस्या कितनी गंभीर थी। अगर वह सिंचन कार्य का उपयाजक बना रहा तो कलीसिया को और ज्यादा नुकसान होगा, इसलिए मुझे जल्द-से-जल्द इसकी रिपोर्ट करनी थी। पर उस समय, मुझे अगुआ की नाराजगी और मुसीबत मोल लेने से डर लग रहा था, इसलिए मैं बड़ी उलझन में थी। मैं रिपोर्ट करूँ या नहीं? अगर मैंने की तो मुझे खुद पर इसके असर का डर था, और अगर नहीं की तो मैं अपराध-बोध महसूस करती। मैं सोचती रही कि मैं कैसे यह मुद्दा उठाऊँ कि कुछ भी गलत न हो। मेरे मन में यही ख्याल उठते रहते, जिससे मैं बेचैन और परेशान हो जाती।

एक बार एक सभा में, एक समूह अगुआ ने हमसे पूछा कि क्या हम भाई ली की तरक्की के बारे में कोई विचार साझा करना चाहते हैं, अगर करना चाहें तो उसे एक संदेश भेजकर बताएं। यह सुनते ही मैं झूम उठी, और सोचने लगी कि यह बहुत अच्छा मौका था। वह आगे रहेगा और हमारे विचारों का सारांश अगुआ से साझा करेगा, तब अगुआ को पता भी नहीं चलेगा कि किसने क्या लिखा था। अगर उसने खोजबीन की भी तो हमारा समूह अगुआ हमारा सुरक्षा-कवच होगा। मैंने अपने हिसाब से समस्याओं के बारे में लिखकर उसे समूह अगुआ को थमा दिया। अगली सुबह उसने मुझे यह कहकर चौंका दिया कि उसने मेरे विचार आगे भेज दिए हैं। मेरे तो होश ही उड़ गए कि उसने उन्हें पूरे समूह के विचारों की तरह साझा नहीं किया था। मैंने पूछा, "तुमने मेरा मूल संदेश ही बहन झोऊ को आगे क्यों भेज दिया?" मेरी जोरदार प्रतिक्रिया देखकर उसने मुझसे कहा, "सभी के विचार अगुआ को भेजे गए हैं, और हमें अपने विचारों को लेकर ईमानदार होना चाहिए। चिंता की क्या बात है?" मैं समझ नहीं पाई कि इसका क्या जवाब दूँ। मैं हैरान भी थी और थोड़ी शर्मिंदा भी। मुझे यह सूझा ही नहीं था कि समूह अगुआ और दूसरे भाई-बहन पहले ही अगुआ को अपने सुझाव बता चुके थे। उनमें बोलने की हिम्मत थी, तो मैं क्यों इस मामले में आगे रहने से इतना डर रही थी? मैंने परमेश्वर के सम्मुख जाकर प्रार्थना की और अपनी खुद की हालत पर आत्मचिंतन किया। इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "विवेक और सूझ-बूझ दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें विवेक नहीं है और सामान्य मानवता की सूझ-बूझ नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। आओ, इसका बारीकी से विश्लेषण करें। ऐसा व्यक्ति किस लुप्त मानवता का प्रदर्शन करता है कि लोग कहते हैं कि इसमें इंसानियत है ही नहीं? ऐसे लोगों में कैसे लक्षण होते हैं? वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं? ऐसे लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं, और अपने को उन चीज़ों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे परमेश्वर की गवाही देने या अपने कर्तव्य को करने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते हैं और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। ... यहाँ तक कि कुछ अन्य लोग भी हैं जो अपने कर्तव्य निर्वहन में किसी समस्या को देख कर चुप रहते हैं। वे देखते हैं कि दूसरे बाधा और परेशानी उत्पन्न कर रहे हैं, फिर भी वे इसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर जरा सा भी विचार नहीं करते हैं, और न ही वे अपने कर्तव्य या उत्तरदायित्व का ज़रा-सा भी विचार करते हैं। वे केवल अपने दंभ, प्रतिष्ठा, पद, हितों और मान-सम्मान के लिए ही बोलते हैं, कार्य करते हैं, अलग से दिखाई देते हैं, प्रयास करते हैं और ऊर्जा व्यय करते हैं। ऐसे इंसान के कर्म और इरादे हर किसी को स्पष्ट होते हैं: जब भी सम्मान या आशीष प्राप्त करने का कोई मौका आता है, ये उभर आते हैं। लेकिन जब सम्मान पाने का कोई मौक़ा नहीं होता, या जैसे ही दुख का समय आता है, वैसे ही वे उसी तरह नज़रों से ओझल हो जाते हैं जैसे कछुआ अपना सिर खोल में छिपा लेता है। क्या इस तरह के इंसान में ज़मीर और विवेक होता है? क्या ऐसा बर्ताव करने वाले, ज़मीर और विवेक से रहित इंसान, आत्म-निंदा एहसास करता है? इस प्रकार के इंसान का ज़मीर किसी काम का नहीं होता, उसे कभी भी आत्म-निंदा का एहसास नहीं होता। तो, क्या वे पवित्र आत्मा की झिड़की या अनुशासन को महसूस कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत हूबहू बयाँ कर दी। मैं जानती थी कि अगुआ सिद्धांतों के अनुसार लोगों को नियुक्त नहीं कर रही थी, और भाई ली सिंचन कार्य के उपयाजक के तौर पर व्यावहारिक काम नहीं कर रहा था, बल्कि वह भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में बाधा बन रहा था। मुझे कलीसिया के काम की रक्षा करने के लिए आगे बढ़कर रिपोर्ट करनी चाहिए थी। यह परमेश्वर के चुने हुए सभी लोगों का परम कर्तव्य है। पर इसके बजाय मुझे बहन झोऊ की नाराजगी और अपने कर्तव्य से हटाए जाने का डर लग रहा था, इसलिए मैंने अपना मुँह छिपा लिया था और मामले से आँखें मूँद ली थी। मैंने अपने विचार लिखकर समूह अगुआ से साझा किए थे, पर मैं नहीं चाहती थी कि बहन झोऊ को पता चले कि यह मैंने लिखा है, ताकि वह मेरे लिए मुसीबत न खड़ी कर दे। मुझे एहसास हुआ कि मैं हर मामले में अपने भले के बारे में सोच रही थी, न कि परमेश्वर के घर के भले के बारे में। मुझमें अंतरात्मा और विवेक की कितनी कमी थी। मुझे परमेश्वर के वचनों से सिंचन और पोषण का कितना आनंद मिला है, पर जब परमेश्वर के घर के काम पर आंच आई, तो मैं सिर्फ खुद को बचाने की सोचती रही। परमेश्वर के लिए मेरी कोई निष्ठा नहीं थी। मैंने जिस थाली में खाया उसी में छेद किया। मुझमें मानवता नाम की चीज ही नहीं थी। मैं जितना सोचती रही उतनी ही दुखी होती रही, और मैंने सोचा : ऐसे मामले से सामना होने पर मैं इतनी भयभीत और चिंतित क्यों हो गई? सिर्फ एक सच्ची बात कहना भी मेरे लिए इतना मुश्किल हो गया—मैं किस तरह के स्वभाव के वश में थी?

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे सब कुछ साफ हो गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का कोई संकल्प और इच्छा नहीं होती है; सत्य उनका जीवन बन गया है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे दुष्ट या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान उठाना पड़ता है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? इनमें से तो कोई नहीं; बात यह है कि तुम कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित किये जा रहे हो। इन सभी स्वभावों में से एक है, कुटिलता। तुम यह मानते हुए सबसे पहले अपने बारे में सोचते हो, 'अगर मैंने अपनी बात बोली, तो इससे मुझे क्या फ़ायदा होगा? अगर मैंने अपनी बात बोल कर किसी को नाराज कर दिया, तो हम भविष्य में एक साथ कैसे काम कर सकेंगे?' यह एक कुटिल मानसिकता है, है न? क्या यह एक कुटिल स्वभाव का परिणाम नहीं है? एक अन्‍य स्‍वार्थी और कृपण स्‍वभाव होता है। तुम सोचते हो, 'परमेश्‍वर के घर के हित का नुकसान होता है तो मुझे इससे क्‍या लेना-देना है? मैं क्‍यों परवाह करूँ? इससे मेरा कोई ताल्‍लुक नहीं है। अगर मैं इसे होते देखता और सुनता भी हूँ, तो भी मुझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। यह मेरी ज़ि‍म्‍मेदारी नहीं है—मैं कोई अगुआ नहीं हूँ।' इस तरह की चीज़ें तुम्‍हारे अंदर हैं, जैसे वे तुम्‍हारे अवचेतन मस्तिष्‍क से अचानक बाहर निकल आयी हों, जैसे उन्‍होंने तुम्‍हारे हृदय में स्‍थायी जगहें बना रखी हों—ये मनुष्‍य के भ्रष्‍ट, शैतानी स्‍वभाव हैं। ये भ्रष्‍ट स्‍वभाव तुम्‍हारे विचारों को नियंत्रित करते हैं और तुम्‍हारे हाथ-पैर बाँध देते हैं, और वे तुम्‍हारी ज़ुबान को नियंत्रित करते हैं। जब तुम अपने दिल में कोई बात कहना चाहते हो, तो शब्‍द तो तुम्‍हारे होठों तक पहुँचते हैं लेकिन तुम उन्‍हें बोलते नहीं हो, या, अगर तुम बोलते भी हो, तो तुम्‍हारे शब्‍द गोलमोल होते हैं, और तुम्‍हें चालबाज़ी करने की गुंजाइश देते हैं—तुम बिल्कुल साफ़-साफ़ नहीं कहते। दूसरे लोग तुम्‍हारी बातें सुनने के बाद कुछ भी महसूस नहीं करते, और तुमने जो कुछ भी कहा होता है उससे समस्‍या हल नहीं होती। तुम मन-ही-मन सोचते हो, 'अच्‍छा है, मैंने बोल लिया। मेरा अन्‍त:करण निश्चिंत हुआ। मैंने अपनी ज़ि‍म्‍मेदारी पूरी कर दी।' सच्चाई यह है कि तुम अपने हृदय में जानते हो कि तुमने वह सब नहीं कहा है जो तुम्‍हें कहना चाहिए, कि तुमने जो कहा है उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और परमेश्‍वर के घर के कार्य का अहित ज्‍यों-का-त्‍यों बना हुआ है। तुमने अपनी ज़ि‍म्‍मेदारी पूरी नहीं की, फिर भी तुम खुल्‍लमखुल्‍ला कहते हो कि तुमने अपनी ज़ि‍म्‍मेदारी पूरी कर दी है, या जो कुछ भी हो रहा था वह तुम्‍हारे लिए स्‍पष्‍ट नहीं था। क्‍या तुम पूरी तरह अपने भ्रष्‍ट, शैतानी स्‍वभाव के वश में नहीं हो? भले ही तुम अपने दिल में जो सोचते और जिन चीजों को सही मानते हो, वे सकारात्मक और सत्य के अनुरूप हों, फिर भी अपने मुँह पर तुम्हारा वश नहीं है, और तुम जो कहते हो, वह जो तुम्हारे दिल में है, उससे कभी मेल नहीं खाता। जोर से बोले जाने से पहले तुम्हारे शब्द हमेशा तुम्हारे दिमाग और विचारों के माध्यम से संसाधित होते हैं। दूसरे लोग उनके पीछे का अर्थ नहीं बता सकते, और तुम स्वयं से बहुत प्रसन्न महसूस करते हो। तुम वास्तव में इस बात की परवाह नहीं करते कि काम हुआ या नहीं—यह तुम्हारी मानसिकता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचनों में इसका वर्णन देखकर मेरी समझ में आया कि मैं न तो सत्य का अभ्यास कर रही थी, न परमेश्वर के घर के काम की रक्षा, क्योंकि मैं प्रकृति से ढिलमुल, स्वार्थी और नीच थी। मैंने सोचा यह जानकर कि भाई ली की नियुक्ति में बहन झोऊ ने सिद्धांतों का पालन नहीं किया था, और वह कोई व्यावहारिक काम न करने के कारण कलीसिया के काम को नुकसान पहुंचा रहा था। यह दिन के उजाले की तरह साफ था और मुझे पता था कि मुझे इस पर उंगली उठानी चाहिए, यह कलीसिया के काम के हित में होगा, पर मैं कभी भी आगे बढ़कर कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। और जब एक समूह अगुआ ने पहल की तो मैंने आखिरकार अपने विचार लिख दिए, लेकिन यह पता चलते ही कि उसने उन्हें सीधे अगुआ को भेज दिया है, मैं सकपका गई और सोचने लगी कि उसने मेरी "पोल" खोल दी है। अपने सभी विचारों और कार्यों में, मैं यही तरकीब निकालने के लिए दिमाग लगा रही थी कि अपने-आपको कैसे बचाऊँ, ताकि मुझ पर कोई आंच न आए। मैं अच्छी तरह जानती थी कि भाई-बहनों के जीवन और कलीसिया के काम को नुकसान हो रहा है, पर मैं न सत्य को व्यवहार में ला रही थी, न समस्याओं के बारे में बोल रही थी। मैं ऐसे शैतानी फलसफों के अनुसार चल रही थी कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "चीजों को प्रवाहित होने दें यदि वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों," "ज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं," और "कील जो सबसे बाहर निकली होती है वही हथौड़ी से ठोकी जाती है।" ये बातें मेरे विचारों पर छाई हुई थीं और मुझे अपने वश में किए हुए थीं, जिससे मैं स्वार्थी और धूर्त बन गई। मेरे पास आस्था थी, मैं परमेश्वर के वचन पढ़ती थी, पर मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी। मैं किसी असली हालात पर शायद ही कोई सच्ची बात कह सकती थी या रोशनी डाल सकती थी। मैं शैतान के अनुचर की तरह चल रही थी और एक गई-गुजरी जिंदगी जी रही थी। स्वार्थी, घृणित और मानवता रहित होना, परमेश्वर को इससे सचमुच घृणा थी। मुझे बहुत पछतावा होने लगा और मैंने परमेश्वर से मौन प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं कितनी स्वार्थी और धूर्त हूँ। समस्या देखकर भी मैं जिम्मेदारी लेने से कतराती रही और मैं न सत्य का अभ्यास कर रही थी न परमेश्वर के घर के काम की रक्षा कर रही थी। मैं बहुत गिर गई थी। परमेश्वर, मैं इस तरह और नहीं जीना चाहती। कृपा करके मुझे इससे बचा लो। मैं सत्य का अभ्यास करना और तुम्हें संतुष्ट करना चाहती हूँ।" प्रार्थना के बाद मेरा आत्मविश्वास थोड़ा बढ़ा मैंने यह चिंता करनी छोड़ दी कि मेरी रिपोर्ट पढ़ने के बाद बहन झोऊ की क्या प्रतिक्रिया होगी।

उसने नियुक्ति के सिद्धांतों के उल्लंघन पर न तो कोई आत्मचिंतन किया, और न भाई ली के कर्तव्य में कोई बदलाव किया। वह धीमे या प्रभावहीन चल रहे कामों की समस्याओं से भी नहीं निपट रही थी। मैं सोच रही थी कि वह न तो सत्य को स्वीकार करती है और न कोई असली काम करती है, इसलिए झूठे अगुआओं की पहचान के सिद्धांतों के आधार पर ऐसा लगता था कि वह भी वैसी ही है। मैं ऊपर के स्तर पर इसकी रिपोर्ट करना चाहती थी, पर मैं एक बार फिर हिचकिचाने लगी। अगर मैंने उसकी शिकायत की और उसे पता चल गया तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगी? अगर वह बर्खास्त न हुई और अगुआ बनी रही, तो क्या वह मुझे दबाने के बहाने नहीं तलाशेगी? इससे अच्छा है कि इसे जाने दूँ। बदलाव या व्यावहारिक काम से इनकार करना उसका मामला था, मुझे अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहिए, फिर देखते हैं। इसलिए मैंने इसे दिमाग से झटक दिया और मामले को भविष्य पर छोड़ दिया। बाद में कुछ ऐसा हुआ जिसका मुझ पर बहुत गहरा असर हुआ मुझमें बहन झोऊ की रिपोर्ट करने की हिम्मत आ गई।

कुछ दिन बाद मैंने सुना कि किसी दूसरी कलीसिया का अगुआ मसीह-विरोधी के रूप में बेनकाब हो गया और निकाल दिया गया। उसने एक अगुआ के रूप में काफी कुकर्म किए थे, और हर कोई उसकी असलियत जान गया था, पर कुछ भी कहने से डरता था। पूरी कलीसिया में किसी एक ने भी उसकी शिकायत नहीं की, उसकी पोल खुल जाने और निकाल दिए जाने के बाद भी उन्होंने उसके कुकर्मों को उजागर नहीं किया। वे बस अपनी जिम्मेदारी से बचते रहे और अनजान बने रहे। वे सब उस मसीह-विरोधी को बचा रहे थे, पनाह दे रहे थे, जो सचमुच परमेश्वर के स्वभाव का अपमान था। नतीजा यह हुआ कि कलीसिया में हर किसी को अपने कर्तव्य का पालन बंद करके आत्मचिंतन करना पड़ा। इसका मुझ पर बहुत गहरा असर हुआ, और मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आ गए : "यदि कलीसिया में ऐसा कोई भी नहीं है जो सत्य का अभ्यास करने का इच्छुक हो, और परमेश्वर की गवाही दे सकता हो, तो उस कलीसिया को पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया जाना चाहिए और अन्य कलीसियाओं के साथ उसके संबंध समाप्त कर दिये जाने चाहिए। इसे 'मृत्यु दफ़्न करना' कहते हैं; इसी का अर्थ है शैतान को बहिष्कृत करना। यदि किसी कलीसिया में कई स्थानीय गुण्डे हैं, और कुछ छोटी-मोटी 'मक्खियों' द्वारा उनका अनुसरण किया जाता है जिनमें विवेक का पूर्णतः अभाव है, और यदि समागम के सदस्य, सच्चाई जान लेने के बाद भी, इन गुण्डों की जकड़न और तिकड़म को नकार नहीं पाते, तो उन सभी मूर्खों का अंत में सफाया कर दिया जायेगा। भले ही इन छोटी-छोटी मक्खियों ने कुछ खौफ़नाक न किया हो, लेकिन ये और भी धूर्त, ज़्यादा मक्कार और कपटी होती हैं, इस तरह के सभी लोगों को हटा दिया जाएगा। एक भी नहीं बचेगा! जो शैतान से जुड़े हैं, उन्हें शैतान के पास भेज दिया जाएगा, जबकि जो परमेश्वर से संबंधित हैं, वे निश्चित रूप से सत्य की खोज में चले जाएँगे; यह उनकी प्रकृति के अनुसार तय होता है। उन सभी को नष्ट हो जाने दो जो शैतान का अनुसरण करते हैं! इन लोगों के प्रति कोई दया-भाव नहीं दिखाया जायेगा। जो सत्य के खोजी हैं उनका भरण-पोषण होने दो और वे अपने हृदय के तृप्त होने तक परमेश्वर के वचनों में आनंद प्राप्त करें। परमेश्वर धार्मिक है; वह किसी से पक्षपात नहीं करता। यदि तुम शैतान हो, तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते; और यदि तुम सत्य की खोज करने वाले हो, तो यह निश्चित है कि तुम शैतान के बंदी नहीं बनोगे—इसमें कोई संदेह नहीं है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी')। परमेश्वर के वचनों से, मुझे उसके प्रतापी, धार्मिक स्वभाव का पता चला जो अपमान बर्दाश्त नहीं करता, मैंने सत्य को व्यवहार में न लाने वालों के लिए उसके प्रकोप को भी जाना। भले ही ऊपर से ऐसा प्रतीत होता हो कि उन्होंने सचमुच कोई दुष्टता नहीं की है, पर वे मसीह-विरोधियों को बुराई करते देखते रहते हैं और उनकी रिपोर्ट कर उन्हें बेनकाब करने के लिए कुछ नहीं करते। वे उन्हें मनमानी करने, परमेश्वर के घर को नुकसान पहुंचाने देते हैं, पर उंगली तक नहीं उठाते। वे मसीह-विरोधियों और शैतान के साथियों को पनाह देते हैं। यह मसीह-विरोधियों की बुराई में हाथ बँटाना और परमेश्वर के स्वभाव का गंभीर अपमान है। क्या मेरा व्यवहार भी बिल्कुल ऐसा ही नहीं था? मैंने परमेश्वर के कितने ही वचन पढ़े थे, भले-बुरे का कुछ ज्ञान भी था। मैंने देखा था कि एक अगुआ सिद्धांत का पालन नहीं कर रही थी, सत्य को नहीं स्वीकारती थी, और खासकर कोई व्यावहारिक काम नहीं करती थी। इससे परमेश्वर के घर के काम में अड़चन आई थी, और वह एक झूठी अगुआ थी। पर मुझे उसकी नाराजगी से डर लगता था कि वह मेरे काम में अड़चन डालेगी, इसलिए मैंने इसे जाने दिया क्योंकि इसका मुझ पर कोई असर नहीं पड़ता था। मैंने सोचा कि बदलना या न बदलना उसका मामला था, इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं। मुझे परमेश्वर से इतना पोषण मिला था, पर मैंने जिस थाली में खाया उसी में छेद किया, और शैतान के साथ खड़ी हो गई। मैं परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचते देख रही थी, पर बेपरवाह थी। क्या मैं शैतान की तरह ही नहीं थी? भले ही मैं एक कर्तव्य निभा रही थी, पर परमेश्वर की नज़र मेरी हर छोटी-से-छोटी हरकत पर थी। मैं जानती थी अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया तो परमेश्वर क्रोधित होकर मुझे हटा देगा। यह मेरे लिए बड़ा डरावना विचार था। मैं फौरन ही परमेश्वर से प्रार्थना करके प्रायश्चित करने लगी : "परमेश्वर, मैं बहन झोऊ को कलीसिया के काम में रुकावट डालते देख रही थी, पर मैंने खुद को बचाने के चक्कर में, सत्य का अभ्यास करके उसकी शिकायत नहीं की। मैं शैतान के लिए काम करती रही। मैं कितनी विद्रोही और घृणित हूँ। परमेश्वर, मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ, मुझे सत्य को व्यवहार में लाने के लिए प्रबुद्ध करो और रास्ता दिखाओ।"

मैं उस समय सोच रही थी, मैं अगुआ की रिपोर्ट करने से इतना डर क्यों रही थी? मुझे किस चीज का डर था? प्रार्थना और खोज के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े जिनसे मामला और भी साफ हो गया। "एक अगुआ या कार्यकर्ता के साथ व्यवहार करने के तरीके के बारे में लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? अगर अगुआ या कार्यकर्ता जो करता है वह सही है, तो तुम उसका पालन कर सकते हो; अगर वह जो करता है वह गलत है, तो तुम उसे उजागर कर सकते हो, यहाँ तक कि उसका विरोध कर सकते हो और एक अलग राय भी ज़ाहिर कर सकते हो। अगर वह व्यावहारिक कार्य करने में असमर्थ है, और खुद को एक झूठे अगुआ, झूठे कार्यकर्ता या मसीह विरोधी के रूप में प्रकट करता है, तो तुम उसकी अगुआई को स्वीकार करने से इनकार कर सकते हो, तुम उसके ख़िलाफ़ शिकायत करके उसे उजागर भी कर सकते हो। हालाँकि, परमेश्वर के कुछ चुने हुए लोग सत्य को नहीं समझते और विशेष रूप से कायर हैं, इसलिए वे कुछ करने की हिम्मत नहीं करते। वे कहते हैं, 'अगर अगुआ ने मुझे निकाल दिया, तो मैं बर्बाद हो जाऊँगा; अगर उसने सबको मुझे उजागर करने और मेरा त्याग करने पर मजबूर कर दिया, तो मैं परमेश्वर पर विश्वास नहीं कर पाऊँगा। अगर मैंने कलीसिया को छोड़ दिया, तो परमेश्वर मुझे नहीं चाहेगा और मुझे नहीं बचाएगा। कलीसिया परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है!' क्या सोचने के ऐसे तरीके उन चीजों के प्रति ऐसे व्यक्ति के रवैये को प्रभावित नहीं करते हैं? क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है कि अगर अगुआ ने तुमको निकाल दिया, तो तुमको बचाया नहीं जायेगा? क्या तुम्हारे उद्धार का प्रश्न तुम्हारे प्रति अगुआ के रवैये पर निर्भर है? इतने सारे लोगों में इतना डर क्यों है?" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं')। "परमेश्वर के सभी कार्य या मानवता के गंतव्य से संबंधित वचन प्रत्येक व्यक्ति के सार के अनुसार उचित रूप से लोगों के साथ व्यवहार करेंगे; थोड़ी-सी भी त्रुटि नहीं होगी और एक भी ग़लती नहीं की जाएगी। केवल जब लोग कार्य करते हैं, तब ही मनुष्य की भावनाएँ या अर्थ उसमें मिश्रित होते हैं। परमेश्वर जो कार्य करता है, वह सबसे अधिक उपयुक्त होता है; वह निश्चित तौर पर किसी प्राणी के विरुद्ध झूठे दावे नहीं करता" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे')। इसे पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि मैंने अगुआ की रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं की क्योंकि मेरी सोच गलत थी। मुझे लगता था एक अगुआ मेरा भविष्य और भाग्य तय कर सकती है, अगर मैंने उसे नाराज किया तो वह मुझे आगे नहीं बढ़ने देगी, कर्तव्य नहीं करने देगी, और मैं उद्धार की उम्मीद खो दूँगी। मैं अगुआओं को परमेश्वर से ऊपर रख रही थी। मैं सच्ची विश्वासी नहीं थी। मैं एक गैर-विश्वासी थी। इंसान का भाग्य परमेश्वर के हाथ में है। मेरा क्या होगा, क्या मुझे बचाया जाएगा, यह पूरी तरह परमेश्वर के हाथ में है। यह किसी इंसान के हाथ में नहीं है। हालांकि किसी अगुआ के काम पर उंगली उठाने के लिए मुझसे पहले भी बुरा व्यवहार किया गया था, पर बाद में भाई-बहनों को एहसास हुआ कि वह एक मसीह-विरोधी था और उसे कलीसिया से हटा दिया गया था। कुछ समय तक एक मसीह-विरोधी के अनुचित व्यवहार के बावजूद मैंने उद्धार का अवसर नहीं खोया था, उल्टे मैं मसीह-विरोधियों को पहचानने लगी थी और मैंने कुछ सबक सीखे थे। कुछ भाई-बहन होते हैं जो परमेश्वर के घर के काम को बचाने के लिए झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को बेनकाब कर उनकी रिपोर्ट करते हैं, फिर झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी उनके पीछे पड़ जाते हैं। उन्हें कलीसिया से निकाल भी दिया जाता है, पर अगर उनमें सच्ची आस्था है और वे सुसमाचार फैलाते और अपना कर्तव्य निभाते रहते हैं, तो उन्हें पवित्र आत्मा का कार्य और परमेश्वर का मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है। और जब मसीह-विरोधी को बेनकाब करके निकाल दिया जाता है तो वे वापस कलीसिया में लौट सकते हैं। इससे मुझे परमेश्वर की धार्मिकता और उसके घर में सत्य के राज का पता चला; हर चीज पर परमेश्वर का राज है। मैं उस कलीसिया के बारे में सोचने लगी जिसने मसीह-विरोधी को बेनकाब नहीं किया और उसकी बुराइयों से आँखें मूँदे रही, जो खुद उन पर असर न करे उसे अनदेखा करती रही, मसीह-विरोधी को कलीसिया में विघ्न डालने की खुली छूट दे दी। उन्हें दबाया नहीं गया और वे कलीसिया में अपना कर्तव्य करते रहे, पर वे एक मसीह-विरोधी को पनाह देकर परमेश्वर के खिलाफ खड़े हो गए। परमेश्वर ने उनसे घृणा की, उन्हें तिरस्कृत किया। यह सोचते हुए मुझे एहसास हुआ कि एक झूठे अगुआ की रिपोर्ट न करना कितनी गंभीर बात है। मैंने परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव भी देखा जो कोई अपमान बर्दाश्त नहीं करता, मैं डर-सी गई, मुझे खुद से नफ़रत होने लगी। इससे मुझे सत्य को व्यवहार में लाने की प्रेरणा मिली। मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश भी याद आया : "हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आगे का रास्ता भी दिखाया। मुझे परमेश्वर के घर की भलाई को सबसे पहले और सबसे ऊपर रखना था और सचेत रहकर अपनी गलत मंशाओं का त्याग करना था। मुझे अपने निजी हितों को आगे रखने से बचना था। इसलिए मैंने समस्याओं को लिखकर ऊंचे अगुआ से शिकायत की तैयारी कर ली।

तभी बहन लियू और कुछ दूसरी बहनों ने मुझे बताया कि उन्होंने भी देखा था कि बहन झोऊ व्यावहारिक काम नहीं करती और कोई अच्छा उम्मीदवार न मिल पाने के बहाने कम योग्यता वाले लोगों को हटाने से मना करती रहती थी, जो अपने काम में हमेशा लापरवाह रहते थे। इससे परमेश्वर के घर के काम को बहुत नुकसान पहुंचा था। वह कलीसिया की पुरानी चली आ रही समस्याओं पर ध्यान नहीं दे रही थी, और सिद्धांतों की बजाय मनमाने ढंग से लोगों को नियुक्त कर रही थी। सिद्धांतों के अनुसार, बहन झोऊ एक झूठी अगुआ थी। हम सबने मिलजुल कर उसकी शिकायत का पत्र लिखकर एक अगुआ को सौंप दिया। ऊपर के अगुआओं ने मामले की जांच की तो पाया कि बहन झोऊ ने कभी कोई व्यावहारिक काम नहीं किया था, उसका रवैया तानाशाही का था, वह पहले से तय कार्य व्यवस्थाओं के खिलाफ चलती थी, दूसरों को काबू में रखने के लिए अपने रुतबे का इस्तेमाल करती थी। उसकी एक झूठे अगुआ के रूप में पहचान हो गई और उसे हटा दिया गया। भाई ली को भी सिंचन कार्य के उपयाजक के तौर पर अयोग्य पाकर किसी दूसरे काम में लगा दिया गया। मामले के इस नतीजे का पता चलते ही मेरे मन में तरह-तरह की भावनाएँ उमड़ने लगीं। मैंने देखा कि परमेश्वर के घर में सचमुच मसीह और सत्य का बोलबाला है, सत्य को व्यवहार में लाने को लेकर मेरा आत्म-विश्वास और भी बढ़ गया। मैं परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता से भर गई। मैं परमेश्वर के वचनों के प्रबोधन और मार्गदर्शन के लिए सचमुच आभारी हूँ, जिसने धीरे-धीरे मुझे शैतानी फलसफों के बंधन से मुक्त किया मुझमें इतनी हिम्मत जगाई कि मैं सत्य का अभ्यास कर सकूँ, एक झूठे अगुआ की शिकायत कर सकूँ, और आत्मसम्मान से जी सकूँ!

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