55. खुशामदी लोगों के पीछे की सच्चाई

सू जिए, चीन

पिछले अक्तूबर में कलीसिया ने वांग ली के साथ मुझे ग्राफिक डिजाइन टीम का कामकाज देखने की जिम्मेदारी सौंपी, जिसके साथ मैंने पहले भी काम किया था। उसे अपनी छवि की बहुत फिक्र रहती थी और जो कोई उसे नाराज करता, वह उसके लिए समस्याएँ खड़ी कर देती। पर हमने बिना किसी बड़े मतभेद के अच्छी तरह मिल-जुलकर काम किया। हमारे बीच हमेशा अच्छा संबंध रहा। अब जब हम फिर से साथ मिलकर काम कर रहे थे, तो मैं चाहती थी, हमारे बीच अच्छा सहयोग रहे। एक बार वह टीम के सदस्यों के बारे में मुझे बता रही थी। जब बहन शिन की बात आई, तो उसने गुस्से से कहा, "उसमें अच्छी इंसानियत नहीं है और वो बहुत अहंकारी है। वो सिर्फ सुझाव मानने से ही इनकार नहीं करती, बल्कि हमेशा मेरी समस्याओं के बारे में बात करती है। वो टीम में सकारात्मक भूमिका नहीं निभाती। मैंने उसके बारे में अगुआ को लिखा है और दूसरों के मूल्यांकन जुटाए हैं। उसे बरखास्त किया जाने वाला है।" मैंने वे मूल्यांकन पढ़े थे, उनमें से ज़्यादातर में यही कहा गया था कि बहन शिन अपने काम में दक्ष और काबिल है, पर वो थोड़ी अहंकारी है और कभी-कभी अपनी राय पर अड़ जाती है। पर वो अच्छी सहभागिता से चीजें स्वीकार कर सकती है। कुल मिलाकर, वो विकसित करने लायक है। मैं सोच रही थी कि उसके बारे में वांग ली का मूल्यांकन निष्पक्ष नहीं है और उसे यूँ ही बरखास्त नहीं किया जाना चाहिए। क्या बहन शिन ने वांग ली को ऐसा फीडबैक दिया जिससे वो बुरी दिखे, ताकि वह उसके ख़िलाफ पक्षपाती होकर उसका काम छीन ले? अगर ऐसा है, तो वांग ली को आत्मचिंतन करना चाहिए। मैं इस समस्या की ओर उसका ध्यान दिलाना चाहती थी, पर फिर मैंने सोचा, वो अपनी छवि बचाने के बारे में इतना सोचती है—इसके बाद वो मुझे नापसंद तो नहीं करने लगेगी? अगर इससे बात बिगड़ गई, तो हम मिलजुलकर कैसे काम कर पाएँगे? इसलिए मैंने उससे चतुराई से कहा, "बहन शिन अपनी आस्था में नई है और वो थोड़ी अड़ियल भी है। पर उसकी समस्या इतनी गंभीर नहीं है कि उसे निकाल दिया जाए। आओ, सहभागिता के जरिये उसकी मदद करें।" उसका हाव-भाव पूरी तरह बदल गया और उसने गुस्से से कहा, "ऐसा नहीं है कि वो अड़ियल है, बल्कि उसका स्वभाव ही बुरा है। मैं भी तुम्हारी तरह सोचती थी, पर अब मुझे समझ आ गई है। परमेश्वर के वचनों के आधार पर उसे हटा दिया जाना चाहिए। तुम चाहो तो उसकी मदद कर सकती हो। तुम उसके काम की ज़िम्मेदारी सँभाल सकती हो।" मेरी समझ में बिलकुल नहीं आया कि क्या किया जाए। मैं अभी-अभी टीम में शामिल हुई थी और चीजों के बारे में नहीं जानती थी। पर उसने अपनी जिम्मेदारियाँ मुझ पर डाल दीं, इससे हमारा काम रुक सकता था। यह काफी गैर-जिम्मेदाराना बात थी। मैं उसके साथ अपने और भी विचार साझा करना चाहती थी, पर उसका संवेदनहीन बरताव देखकर मैं डर गई कि टकराव हमारा तालमेल न बिगाड़ दे, इसलिए मैंने अपना मुँह बंद रखा।

कुछ दिनों बाद काम की जरूरतों के कारण हम अपनी जगहें बदलने के लिए तैयार हो रही थीं। तभी वांग ली ने अचानक मुझसे कहा, "चलो, बहन शिन को नहीं लेते। उसे यहीं रहकर आत्मचिंतन करने दो।" मैंने सोचा, ये तो अजीब है। क्या उसे यहाँ अकेले छोड़ देने का मतलब उसे अलग-थलग कर देना नहीं है? यह उसे निकाल देने से अलग कैसे था? बहन शिन एक बड़ी भूमिका निभा रही थी। इससे हमारा काम रुक जाता और यह उसके साथ भी अन्याय होता। मुझे चिंता होने लगी। मैंने देखा कि वांग ली भ्रष्टता से काम कर रही है और अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके बहन शिन को निष्कासित करने के लिए मैं उसे उजागर करना चाहती थी। पर पिछले कुछ दिनों में जब हमने बहन शिन के बारे में चर्चा की, तो उसने मेरा प्रतिरोध किया और मेरे प्रति बुरा रवैया अपनाया, इसलिए अगर मैंने ज्यादा सीधे तरीके से इस समस्या का विश्लेषण किया, तो वो कह सकती है कि मैं बहन शिन का पक्ष लेकर उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हूँ, और वो मेरे खिलाफ हो सकती है। अगर हमारे बीच तकरार बढ़ गई और उसने नाराज होकर मुझे बाहर कर दिया, तो हम साथ काम कैसे कर पाएँगे? झिझकते हुए मैंने अपनी बात अपने अंदर ही दबा ली। मैंने सोचा, भूल जाओ। सत्य तकलीफ देता है, इसलिए मुझे सीधे-सीधे नहीं बोलना चाहिए। मुझे घुमा-फिराकर बात करनी चाहिए। फिर मैंने लड़खड़ाती जबान में कहा, "अगुआ ने उसके काम में किसी बदलाव की पुष्टि नहीं की है। क्या हमारे लिए उसे यहाँ छोड़ देना सही होगा? क्या हमें उसे बरखास्त करने के लिए अगुआ की मंजूरी का इंतजार नहीं करना चाहिए? उसे अपने साथ चलने देते हैं। काम ठीक से करने के लिए यह हमारे लिए भी बेहतर होगा।" मेरे ऐसा कहने के बाद वांग ली ने जोर नहीं दिया। मैं जानती थी कि मैंने उसकी समस्या ठीक से हल नहीं की है, और मुझे फिक्र थी कि वह बहन शिन को निशाना बनाती रहेगी। मैंने खुद को दोषी महसूस किया, पर फिर मैंने सोचा, चूँकि हम साथ मिलकर काम करते हैं, तो मैं उस पर नजर रखूँगी और उसे कोई बड़ी गलती करने से रोक दूँगी। वह जानबूझकर उसे बाहर करती रही। एक बार कलीसिया को प्रशिक्षण के लिए किसी व्यक्ति की जरूरत थी। बहन शिन साफ तौर पर सीखने में बहुत तेज थी, इसलिए प्रशिक्षण के लिए उसे भेजना सबसे अच्छा विकल्प था, ताकि वह लौटकर दूसरों को सिखा सके। पर वांग ली ने बहन लियु को भेजने पर जोर दिया, जो हमारे काम को ज्यादा नहीं जानती थी। मुझे दूसरे भाई-बहनों से भी पता चला कि बहन शिन ने कई बार वांग ली की राय से अलग राय जाहिर की थी, और सभी को लगा था कि बहन शिन के विचार बेहतर हैं, पर वांग ली ने उन्हें मानने से इनकार कर दिया और इस बात पर ज़ोर दिया कि बहन शिन उसकी बात सुने। एक सभा में जब बहन शिन ने अपनी समस्याओं का जिक्र किया, तो वांग ली नाराज हो गई और उसे अनदेखा कर दिया। जब बहन शिन को अपने काम में समस्याएँ आती थीं, तो वांग ली उसकी मदद नहीं करती थी, जिससे उसका काम रुक जाता और उसके लिए परेशानी खड़ी हो जाती। जब मैंने इन सबके बारे में सुना, तो मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा। वांग ली हमेशा बहन शिन के खिलाफ रही थी और उसे अलग करके रखा था। यह समस्या गंभीर होती जा रही थी। यह कलीसिया के काम में बाधक और नुकसानदेह होती जा रही थी। मैं समझ गई कि मुझे वांग ली से बात करनी होगी। हाँ। उस दिन मैंने थोड़ी हिम्मत जुटाई और कहा, "तुमने अब तक बहन शिन के खिलाफ भेदभाव करना नहीं छोड़ा ना? बहन शिन नई चीजें सीखने में अच्छी है। तुमने उसे नहीं जाने दिया, इसका मतलब यही है कि तुम उसके खिलाफ हो।" मेरे ऐसा कहते ही उसका चेहरा तमतमा गया और उसने गुस्से से कहा, "मैंने उसके खिलाफ भेदभाव करना छोड़ दिया है, पर अब मैं तुम्हारे खिलाफ हूँ। बहन शिन की टीम अपने काम में कुछ हासिल नहीं कर रही, और यह उसकी समस्या है। मैंने बहुत पहले तुमसे कहा था कि उसे बरखास्त कर देना चाहिए, पर तुम सहमत नहीं हुई।" एक टीम-अगुआ के रूप में, जब टीम अच्छा काम नहीं कर रही थी, तब उसने अपनी ओर नहीं देखा, बल्कि झूठा बहाना बनाया। मैं भी पागल थी, जो उसके कार्यों की प्रकृति को लेकर बेबाकी से बात करना चाहती थी। पर उसके प्रतिरोध ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया। मैंने सोचा कि मैंने उसे थोड़ा ही सच बताया है, पर उसने उसका भी बुरा मान लिया। अगर मैंने उसकी सारी समस्याएँ उजागर कर दी होतीं, तो उसने आसमान सिर पर उठा लिया होता। इससे हमारा रिश्ता बिगड़ना तय था। बेहतर यही था मैं और कुछ न कहूँ, वैसे भी मैंने उसे थोड़ा सचेत तो कर ही दिया था। चूँकि वो इसे स्वीकार न करती, इसलिए मैंने इसे छोड़ने का निश्चय किया। उसके बाद व्यवस्थाएँ बदल गईं, मैं मुख्य रूप से दूसरे काम की प्रभारी हो गई। हैरानी की बात है कि एक महीने बाद वांग ली का काम ठप हो गया, और टीम के लोग कमजोर और निराश महसूस करने लगे। उन्होंने कहा कि उन्हें अपना काम ठीक से न करते देखकर वह बस उनसे निपटती थी, कोई मार्गदर्शन नहीं करती थी। वे सब उसके कारण इतने बेबस और नकारात्मक महसूस करते थे कि अपना काम मुश्किल से ही कर पाते थे। उन्होंने यह भी कहा कि वह महीनों से बहन शिन के काम में मार्गदर्शन नहीं कर रही। उन सभी की आँखों में आँसू थे। मैं अब और चुप नहीं रह सकती थी। मैंने वांग ली की समस्याएँ बहुत पहले ही देख ली थीं, पर इन समस्याओं की प्रकृति की ओर उसका ध्यान नहीं दिलाया था। उसे अपने भ्रष्ट स्वभाव की कोई समझ नहीं थी, लेकिन वह पूर्वाग्रह के कारण इस हद तक लोगों को बाहर करती रही, कि टीम का काम करीब-करीब रुक ही गया। मुझे अपराध-बोध हुआ। घर पहुँचकर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिसमें मसीह-विरोधियों को उजागर किया गया था : "देखने में, मसीह विरोधियों की बातें हर तरह से दयालुतापूर्ण, सुसंस्कृत और विशिष्ट प्रतीत होती हैं। जो कोई भी सिद्धांत का उल्लंघन करता है, हस्तक्षेप और दखलंदाजी करता है, उसके साथ निपटा नहीं जाता, उसकी काट-छाँट नहीं की जाती या उसे उजागर नहीं किया जाता, फिर चाहे वह कोई भी क्यों न हो; मसीह-विरोधी आंखें मूंद लेता है, लोगों को यह सोचने देता है कि वह हर मामले में उदार-हृदय है। लोगों के भ्रष्टाचार और घिनौने कर्मों के प्रति उसका व्यवहार उपकार और सहनशीलता का होता है; मसीह-विरोधी क्रोध में नहीं आता, रोष में, गुस्से में आकर या किसी की गलती के कारण उसे वह चोट नहीं पहुँचाता। वह दिखाना चाहता है कि उसमें सहनशीलता और धैर्य है, वह किसी को चोट नहीं पहुँचायेगा या धमकी नहीं देगा। जबकि उसका असली मकसद अनुग्रह प्राप्त करना होता है, अपने कार्यों, व्यवहार और चरित्र के प्रति लोगों की सराहना और स्वीकृति पाना होता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दस)')। यह बात मेरे दिल में चुभ गई। मसीह-विरोधी, लोगों को परमेश्वर के घर के काम में रुकावट डालते देखकर भी कुछ नहीं कहते, ताकि वे अपनी अच्छी छवि बनाए रख सकें—वे बहुत स्वार्थी और नीच होते हैं। मुझे एहसास हुआ कि मैं एक मसीह-विरोधी जैसा ही बरताव कर रही थी। परमेश्वर के घर ने मेरे लिए वांग ली के साथ काम करने की व्यवस्था की थी, ताकि हम एक-दूसरे की कमजोरियों की भरपाई कर सकें, एक-दूसरे पर नजर रख सकें, मिलकर परमेश्वर के घर के काम को बनाए रख सकें। पर उसके साथ अपने "सामंजस्यपूर्ण" रिश्ते और अपनी "नेक इंसान" वाली छवि बनाए रखने के लिए, मैं बहन शिन के साथ उसका बहिष्कारी और दमनकारी बरताव उजागर करने की हिम्मत नहीं की। मैंने देखा कि दूसरों के साथ उसके बरताव पर उसकी भ्रष्टता हावी थी और काम पर बुरा असर डाल रही थी, पर मैं सत्य के सिद्धांतों पर नहीं टिक पाई और किसी अगुआ से इसकी शिकायत नहीं की। मुझे डर था, वो मुझे नापसंद करने लगेगी और हमारे बीच दरार पैदा हो जाएगी। जब मैंने कुछ कहने की हिम्मत की, तब भी मैंने सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा, उसके बरताव की प्रकृति की ओर उसका ध्यान नहीं दिलाया। मैंने हमेशा उसे बचकर निकलने दिया। मैंने देखा कि भाई-बहनों के साथ उसका बरताव कैसा था, जिससे परमेश्वर के घर के काम और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में गंभीर रुकावट आ गई। आखिरकार मुझे समझ आया कि एक नेक इंसान की तरह काम करने और किसी को नाराज नहीं करने के पीछे दरअसल मक्कारी और कपट भरी मंशाएँ छिपी होती हैं। मैंने जो भी किया, खुद को बचाने के लिए किया, यह सब अपने नाम और रुतबे को बनाए रखने के लिए था। इसका मकसद उदारता दिखाकर लोगों के दिलोदिमाग पर राज करना और उन्हें लुभाना था। मैं एक मसीह-विरोधी वाला दुष्ट स्वभाव दिखा रही थी। अपने कार्यों पर विचार करके मुझे काफी अपराध-बोध हुआ, और ऐसी मक्कार और कपटी इंसान होने के कारण मुझे खुद से नफरत होने लगी। परमेश्वर ने इतना महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए मुझे ऊँचा उठाया था, पर मैं गैर-जिम्मेदार थी और समस्याएँ देखकर भी सिद्धांतों पर कायम नहीं रही। मैंने परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाया और दूसरों के जीवन को अवरुद्ध किया। मैं उसी थाली में छेद कर रही थी, जिसमें खाना खाती थी। मैंने अपने लिए परमेश्वर की आज्ञा को नीचा दिखाया। यह अनुचित था! मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की और पश्चात्ताप किया, अब मैं परमेश्वर के प्रति विद्रोही होकर उसे दुख पहुँचाना नहीं चाहती थी। मैं सत्य का अभ्यास करूँगी और परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करूँगी।

अगले दिन जैसे ही मैंने बहन शिन की टीम की हालत का जिक्र किया, वांग ली का हाव-भाव बदल गया और वह बहन शिन द्वारा दूसरों को नीचा दिखाए जाने की शिकायत करने लगी। मैंने देखा कि उसमें आत्म-जागरूकता नहीं है और वह कोई फीडबैक नहीं ले सकती। बात कुछ अटपटी-सी लगी। मैं सोच रही थी कि मैंने अभी बोलना शुरु ही किया था और वह इतनी नाराज हो गई। अगर मैंने उसकी सभी समस्याओं के बारे में बात की, तो वह पक्का मुझसे चिढ़ जाएगी। क्या मुझे बात करनी चाहिए? मैं झिझकी और बेबस महसूस करने लगी, इसलिए मैंने मन ही मन प्रार्थना की, और सोचा, कैसे परमेश्वर हमसे ईमानदार होने और परमेश्वर के घर के हित कायम रखने की अपेक्षा करता है। इससे मुझे थोड़ी हिम्मत मिली। वह चाहे जो भी सोचे, मैं समझ गई कि मुझे अपनी ईमानदार राय साझा करनी होगी। इसलिए मैंने साफ तौर पर बताया कि कैसे वह बहन शिन को दबा रही है, मैंने उसकी प्रकृति और परिणामों के बारे में सहभागिता की। पर उसने कुछ नहीं सुना, बस बेकार बहस करती रही। उसने सच को स्वीकार करने या खुद को जानने से इनकार कर दिया। मैंने देखा, उसकी समस्या कितनी गंभीर है, और कि वह उस कार्य में बनी नहीं रह सकती, इसलिए मैंने अगुआ को इस बारे में बता दिया। अगुआ ने कहा कि उसने इस बारे में पहले कई बार वांग ली से सहभागिता की है, पर वो अब तक नहीं बदली। उसके व्यवहार से पता चलता है कि वह इस काम के लिए उपयुक्त नहीं है। उसमें अच्छी इंसानियत नहीं है और वह सत्य को स्वीकार नहीं करेगी, इसलिए उसे बरखास्त करना पड़ेगा। वो चाहती थी कि मैं ऐसा करूं। मेरा दिल जोर से धड़कने लगा, मैंने सोचा कि जबसे मैंने उसकी समस्याएँ उजागर की हैं, मेरे प्रति उसका रवैया बदल गया है। अगर मैंने खुद उसे बरखास्त किया, तो वह बहुत नाराज होगी। फिर क्या वह मुझसे नहीं नफरत करने लगेगी? अगर उसने सोचा कि मैंने अगुआ से शिकायत की है, तो क्या उसे यह नहीं लगेगा कि मैं उसे निशाना बना रही हूँ? मैं उलझन में पड़ गई और समझ नहीं पाई कि उसका सामना कैसे करूँ। इस पर क्षुब्ध होते हुए, मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "ज़्यादातर लोग सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना चाहते हैं, लेकिन अधिकतर समय उनके पास ऐसा करने का कोई संकल्प और इच्छा नहीं होती है; सत्य उनका जीवन बन गया है। इसके परिणाम स्वरूप, जब लोगों का बुरी शक्तियों से वास्ता पड़ता है या ऐसे दुष्ट या बुरे लोगों से उनका सामना होता है जो बुरे कामों को अंजाम देते हैं, या जब ऐसे झूठे अगुआओं और मसीह विरोधियों से उनका सामना होता है जो अपना काम इस तरह से करते हैं जिससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है—इस तरह परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान उठाना पड़ता है, और परमेश्वर के चुने गए लोगों को हानि पहुँचती है—वे डटे रहने और खुलकर बोलने का साहस खो देते हैं। जब तुम्हारे अंदर कोई साहस नहीं होता, इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह है कि तुम डरपोक हो या कुछ भी बोल पाने में अक्षम हो? या फ़िर यह कि तुम अच्छी तरह नहीं समझते और इसलिए तुम में अपनी बात रखने का आत्मविश्वास नहीं है? इनमें से तो कोई नहीं; बात यह है कि तुम कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित किये जा रहे हो। इन सभी स्वभावों में से एक है, कुटिलता। तुम यह मानते हुए सबसे पहले अपने बारे में सोचते हो, 'अगर मैंने अपनी बात बोली, तो इससे मुझे क्या फ़ायदा होगा? अगर मैंने अपनी बात बोल कर किसी को नाराज कर दिया, तो हम भविष्य में एक साथ कैसे काम कर सकेंगे?' यह एक कुटिल मानसिकता है, है न? क्या यह एक कुटिल स्वभाव का परिणाम नहीं है? एक अन्‍य स्‍वार्थी और कृपण स्‍वभाव होता है। तुम सोचते हो, 'परमेश्‍वर के घर के हित का नुकसान होता है तो मुझे इससे क्‍या लेना-देना है? मैं क्‍यों परवाह करूँ? इससे मेरा कोई ताल्‍लुक नहीं है। अगर मैं इसे होते देखता और सुनता भी हूँ, तो भी मुझे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। यह मेरी ज़ि‍म्‍मेदारी नहीं है—मैं कोई अगुआ नहीं हूँ।' इस तरह की चीज़ें तुम्‍हारे अंदर हैं, जैसे वे तुम्‍हारे अवचेतन मस्तिष्‍क से अचानक बाहर निकल आयी हों, जैसे उन्‍होंने तुम्‍हारे हृदय में स्‍थायी जगहें बना रखी हों—ये मनुष्‍य के भ्रष्‍ट, शैतानी स्‍वभाव हैं। ... तुम्हारा शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें नियंत्रित कर रहा है; तुम तो अपने मुँह के मालिक भी नहीं हो। भले ही तुम ईमानदारी भरे शब्दों को कहना चाहते हो, लेकिन इसके बावजूद तुम ऐसा करने में असमर्थ होने के साथ-साथ डरते भी हो। तुम्हें जो करना चाहिए, जो बातें तुमको कहनी चाहिए, जो ज़िम्मेदारियाँ तुम्हें निभानी चाहिए, उनका दस हज़ारवाँ हिस्सा भी तुम नहीं कर पा रहे; तुम्हारे हाथ-पैर, तुम्हारे शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव से बंधे हुए हैं। इन पर तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं है। तुम्हारा शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें यह बताता है कि बात कैसे करनी है, और तुम उसी तरीके से बात करते हो; यह तुम्हें बताता है कि क्या करना चाहिए और फ़िर तुम वही करते हो। अपने दिल में तुम सोचते हो, 'मैं इस बार कड़ी मेहनत करने वाला हूँ, और मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगा। मुझे दृढ़ रहना है और उन लोगों को फटकारना है, जो परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालते हैं, जो अपने कर्तव्य के प्रति गैरजिम्मेदार हैं। मुझे यह जिम्मेदारी सँभालनी चाहिए।' तो बड़ी मुश्किल से तुम हिम्मत जुटाते और बोलते हो। नतीजतन, जैसे ही दूसरा व्यक्ति क्रोधित होता है, तुम पीछे हट जाते हो। क्या तुम वास्तव में प्रभारी हो? तुम्हारा दृढ़ निश्चय और संकल्प किस काम आया? वे बेकार रहे। तुम निश्चित रूप से कई बार ऐसी परिस्थितियों का सामना कर चुके हो। पहली मुश्किल में तुम यह कहकर बहाना बनाते हो कि तुम कुछ नहीं कर सकते। अपने आपको सत्य-प्रेमी न मानते हुए, यह सोचते हुए कि तुम्हें एकदम से हटा दिया गया है, तुम हार मान लेते हो। यह सच है कि तुम्हें सत्य से प्रेम नहीं है, लेकिन क्या तुम सत्य का अनुसरण करते रहे हो? क्या तुम सत्य का अभ्यास करते रहे हो? ... तुम कभी सत्य की खोज नहीं करते, सत्य का अभ्यास तो तुम और भी कम करते हो। तुम बस प्रार्थना करते रहते हो, अपना निश्चय दृढ़ करते हो, संकल्प करते हो और शपथ लेते हो। यह सब करके तुम्हें क्या मिला है? तुम अब भी हर बात का समर्थन करने वाले व्यक्ति ही हो; तुम किसी को नहीं उकसाते और न ही किसी को नाराज करते हो। अगर कोई बात तुम्हारे मतलब की नहीं है, तो तुम उससे दूर ही रहते हो: 'मैं उन चीजों के बारे में कुछ नहीं कहूँगा जिनका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है, इनमें कोई अपवाद नहीं है। अगर कोई चीज़ मेरे हितों, मेरे रुतबे या मेरे आत्म-सम्मान के लिए हानिकारक है, मैं उस पर कोई ध्यान नहीं दूँगा, इन सब चीज़ों पर सावधानी बरतूंगा; मुझे बिना सोचे-समझे काम नहीं करना चाहिए। जो कील बाहर निकली होती है, सबसे पहली चोट उसी पर की जाती है और मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ!' तुम पूरी तरह से दुष्टता, कपट, कठोरता और सत्य से नफ़रत करने वाले अपने भ्रष्ट स्वभावों के नियंत्रण में हो। वे तुम्हें ज़मीन पर गिरा रहे हैं, ये तुम्हारे लिये इतने कठोर हो गये हैं कि तुम सुनहरे छल्ले वाले सुरक्षा कवच को पहनकर भी इसे बरदाश्त नहीं कर सकते। भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण में रहना हद से ज़्यादा थकाऊ और कष्टदायी है!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर का प्रत्येक वचन सीधे मेरे दिल में उतर गया। वांग ली के साथ मुझे हमेशा यह डर लगा रहता था कि कहीं वो नाराज न हो जाए, और मैंने सत्य का अभ्यास करने और तथ्यों का खुलासा करने की हिम्मत नहीं की। मैं दुष्ट, कपटी और सत्य से नफरत करने वाली इंसान होने के इन शैतानी स्वभावों के काबू में थी : "सामंजस्य एक निधि है; धीरज एक गुण है," "लोगों की कमियों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए," "जब पता हो कि कुछ गड़बड़ है, तो चुप रहना ही बेहतर है" और "निष्कपट होना दूसरों को खिझाता है।" ये शैतानी और दुनियावी फलसफे मेरे जीवन के नियम बन गए थे। मैंने जो समस्याएँ देखीं, उनके बारे में कहने की हिम्मत नहीं की, न ही परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करने के सिद्धांतों पर टिक पाई। मैं कायर थी। जब अगुआ चाहती थी कि मैं वांग ली को बरखास्त कर दूँ, तो यह बिलकुल साफ था कि मुझे फौरन ऐसा करना चाहिए, ताकि परमेश्वर के घर के कार्य में देरी न हो। पर मैं इस डर से अपना मुँह नहीं खोल पाई कि वो नाराज हो जाएगी। इससे यह लगा कि मैं एक नेक इंसान हूँ और किसी को ठेस नहीं पहुँचाना चाहती, पर मैं दूसरों के मन में अपनी अच्छी छवि बनाने के बदले में परमेश्वर के घर के हितों का सौदा कर रही थी। मैंने हर मोड पर वांग ली को सिर चढ़ाया और उसे परमेश्वर के घर के कार्य में रुकावट डालने दी। मैं परमेश्वर के घर में ऊधम मचाने वाले शैतान के लिए ढाल जैसी थी। मैं एक पाखंडी और कपटी इंसान थी! ये शैतानी फलसफे सिर्फ भ्रांतियाँ हैं, जो लोगों को गुमराह करती और चोट पहुँचाती हैं। यह समाज बहुत बुरा और दुष्ट है, क्योंकि लोग शैतानी फलसफों के अनुसार जीते हैं। वे कायर बन जाते हैं और रोशनी से नफरत करते हैं। किसी में भी खड़े होने, धार्मिकता को कायम रखने और सत्य को उजागर करने की हिम्मत नहीं है। पर जो लोग चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं और हमेशा हवा का रुख देखकर कदम उठाते हैं, वे कृपापात्र होते हैं और सत्ता पाते हैं। न्याय या धार्मिकता कहीं नहीं है। हर कोई एक-दूसरे को धोखा दे रहा है, ईमानदारी नाम की चीज ही नहीं है। शैतान की भ्रष्टता का यही नतीजा है। आखिरकार मैंने जाना कि ये शैतानी फलसफे इंसानी धारणाओं के अनुरूप हैं, पर ये असल में झूठ हैं, जिन्हें शैतान लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए इस्तेमाल करता है। इनके अनुसार जीकर हम बस अधिक से अधिक स्वार्थी, दुष्ट और कपटी बनते हैं। यह जीने का एक घिनौना और गैर-इंसानी तरीका है।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, "जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं" में। "यदि तुम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते हो, दिखावा नहीं करते हो, ढोंग नहीं करते हो, मुखौटा नहीं लगाते हो, यदि तुम भाई-बहनों के सामने अपने आपको खोल देते हो, अपने अंतरतम विचारों और चिंतन को छिपाते नहीं हो, बल्कि दूसरों को अपना ईमानदार रवैया दिखा देते हो, तो फिर धीरे-धीरे सत्य तुम्हारे अंदर जड़ें जमाने लगेगा, यह खिल उठेगा और फलदायी होगा, धीरे-धीरे तुम्हें इसके परिणाम दिखाई देने लगेंगे। यदि तुम्हारा दिल ईमानदार होता जाएगा, परमेश्वर की ओर उन्मुख होता जाएगा और यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना जानते हो, और इन हितों की रक्षा न कर पाने पर जब तुम्हारी अंतरात्मा परेशान हो जाए, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम पर सत्य का प्रभाव पड़ा है और वह तुम्हारा जीवन बन गया है। जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तब अगर कोई परमेश्वर की निंदा करता है, उसके प्रति कोई श्रद्धा नहीं रखता, अपने काम में लापरवाही दिखाता है, कलीसिया के काम में रुकावट या गड़बड़ी पैदा करता है, और जब तुम यह सब होते देखते हो तो तुम उस चीज को पहचानकर, जरूरत होने पर उसे उजागर कर सकते हो और सत्य के सिद्धांत के अनुसार उसका समाधान कर सकते हो। ... जब सत्य का तुम्हारे दिल में बोलबाला होता है और यह तुम्हारा जीवन बन गया होता है, तो जब भी तुम किसी निष्क्रिय, नकारात्मक, या बुराई को उभरते हुए देखते हो, तो तुम्हारे दिल में पूरी तरह से अलग प्रतिक्रिया होती है। पहले, तुम्हें धिक्कार और एक बेचैनी का अनुभव होता है जिसके तुरंत बाद यह भावना होती है, 'मैं यूँ ही अकर्मण्य बना नहीं रह सकता और न ही इसे अनदेखा कर सकता हूँ। मुझे उठना और बोलना चाहिए, मुझे खड़े होकर जिम्मेदारी लेनी चाहिए।' फिर तुम उठ सकते हो और इन बुरे कामों पर रोक लगा सकते हो, उनका पर्दाफ़ाश करते हुए, परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करने का प्रयास करते हुए, परमेश्वर के कार्य को बाधित होने से रोक सकते हो। न केवल तुममें यह साहस और संकल्प होगा, और तुम इस मामले को पूरी तरह से समझने में सक्षम होगे, बल्कि तुम परमेश्वर के कार्य और उसके घर के हितों के लिए भी उस ज़िम्मेदारी को पूरा करोगे जो तुम्हें उठानी चाहिए, और उससे तुम्हारे कर्तव्य की पूर्ति हो जाएगी" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। इसे पढ़कर मुझे अपराध-बोध भी हुआ और प्रेरणा भी मिली। अपनी आस्था के इतने वर्षों में, परमेश्वर के पोषण के जरिये सत्य का आनंद लेने के बाद भी, मैं परमेश्वर के घर के सिद्धांत या हित कायम नहीं रख सकी। यह बहुत अनुचित था। मुझे अपने एक खुशामदी इंसान होने का नकाब हटाने की जरूरत थी। मैं अपने दुष्ट, कपटी और भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीती नहीं रह सकती थी, बल्कि मुझे सत्य का अभ्यास करना था और कलीसिया के हित कायम रखने था। इसके बाद मैं वांग ली से बात करने गई और उसे बरखास्त कर दिया। सहभागिता में भी मैंने सत्य को स्वीकार न करने, लोगों को दबाने और कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचाने की उसकी अभिव्यक्तियों के बारे में एक-एक कर बात की। मैंने अच्छी लगने वाली बातें करना बंद कर दिया। मैं उसकी समस्याएँ उजागर करने में सचमुच उसकी मदद करना चाहती थी, ताकि वह अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझकर सच्चे मन से पश्चात्ताप कर सके। वह इतनी परेशान हो गई कि मेरी बात खत्म होते ही रोने लगी, और बोली कि वह परमेश्वर के घर की व्यवस्था स्वीकार करने और पश्चात्ताप करके सबक सीखने के लिए तैयार है। उसके बाद भाई-बहनों की हालत धीरे-धीरे सुधरने लगी और टीम के कार्य के अच्छे नतीजे आने लगे। मैंने सत्य का अभ्यास करने से मिलने वाली शांति और सुकून सच में महसूस किया। यह रोशनी में जीने का एकमात्र तरीका है।

बाद में कुछ तबादले हुए, इसलिए मैं कुछ और बहनों के साथ नए सदस्यों के सिंचन में लग गई। मैंने देखा कि बहन यान अपने काम की जिम्मेदारी उठाने के बजाय लापरवाह और गैर-जिम्मेदार हो रही है, जिसका हमारे काम पर असर पड़ा। मुझे इस बारे में फिक्र होने लगी, और मैंने इस ओर उसका ध्यान दिलाना चाहा, ताकि वो खुद को बदल सके, पर चूँकि हम एक-दूसरे से हाल ही में मिले थे और हमारा तालमेल भी अच्छा था, ऐसे में अगर मैंने काम में उसकी गैर-जिम्मेदारी पर सीधी बात की, तो क्या वो मुझसे नाराज नहीं हो जाएगी? मुझे एहसास हुआ, मैं फिर से एक खुशामदी इंसान की तरह सोच रही हूँ, इसलिए मैंने फौरन प्रार्थना की। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "'और यहोवा परमेश्वर ने आदम को यह आज्ञा दी, "तू वाटिका के सब वृक्षों का फल बिना खटके खा सकता है; पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना: क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाएगा उसी दिन अवश्य मर जाएगा।"' ... क्या तुम परमेश्वर द्वारा कहे गए इन संक्षिप्त वचनों में परमेश्वर के स्वभाव की कोई चीज़ देख सकते हो? क्या परमेश्वर के ये वचन सत्य हैं? क्या इनमें कोई छलावा है? क्या इनमें कोई झूठ है? क्या इनमें कोई धमकी है? (नहीं।) परमेश्वर ने ईमानदारी से, सच्चाई से और निष्कपटता से मनुष्य को बताया कि वह क्या खा सकता है और क्या नहीं खा सकता। परमेश्वर ने स्पष्टता से और सीधे-सीधे कहा। क्या इन वचनों में कोई छिपा हुआ अर्थ है? क्या ये वचन सीधे-स्पष्ट नहीं हैं? क्या किसी अटकलबाज़ी की ज़रूरत है? (नहीं।) अटकलबाज़ी की कोई ज़रूरत नहीं है। एक नज़र में इनका अर्थ स्पष्ट है। इन्हें पढ़ने पर आदमी इनके अर्थ के बारे में बिलकुल स्पष्ट महसूस करता है। यानी परमेश्वर जो कुछ कहना चाहता है और जो कुछ वह व्यक्त करना चाहता है, वह उसके हृदय से आता है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त चीज़ें स्वच्छ, सीधी और स्पष्ट हैं। उनमें कोई गुप्त उद्देश्य या कोई छिपा हुआ अर्थ नहीं है। उसने सीधे मनुष्य से बात की और बताया कि वह क्या खा सकता है और क्या नहीं खा सकता। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के इन वचनों से मनुष्य देख सकता है कि परमेश्वर का हृदय पारदर्शी और सच्चा है। उसमें ज़रा भी झूठ नहीं है; यह ऐसा मामला नहीं है, जिसमें तुमसे कहा जाए कि तुम उसे नहीं खा सकते जो खाने योग्य है, या न खा सकने योग्य चीज़ों के बारे में तुमसे कहा जाए कि 'खाकर देखो, क्या होता है'। परमेश्वर के कहने का यह अभिप्राय नहीं है। परमेश्वर जो कुछ अपने हृदय में सोचता है, वही कहता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IV')। परमेश्वर ने आदम और हव्वा से जो कहा, वह बिलकुल स्पष्ट था। वह ईमानदार है, कुछ नहीं छिपाता। परमेश्वर का सार बहुत पवित्र है। अंत के दिनों में परमेश्वर इंसान का न्याय करने और उसे ताड़ना देने के लिए सत्य व्यक्त करता है। उसके वचन सीधे शैतान द्वारा हमारी भ्रष्टता की प्रकृति को उजागर करके उसका विश्लेषण करते हैं, हमारी अंदरूनी कुरूपता और अधार्मिकता का खुलासा करते हैं। वे बिलकुल स्पष्ट हैं, कुछ नहीं छिपाते। उसके वचन कठोर हो सकते हैं, पर यह उसका प्रेम है, और यह सब हमें स्वच्छ करने और बदलने के लिए है, ताकि हम खुद को जान सकें, शैतान को छोड़ सकें और एक सच्चे इंसान की तरह जी सकें। शैतान इसके बिलकुल विपरीत है। वह पेचीदा, गूढ़ और दुष्ट है, वह जो चाहता है उसे सीधे कभी नहीं कहता। उसने सुनने में अच्छी लगने वाली चिकनी-चुपड़ी और झूठी बातें करके आदम और हव्वा को गुमराह किया, ताकि वे पाप करके परमेश्वर को धोखा दे दें। मैं शैतानी फलसफों के अनुसार जी रही थी, शैतान की तरह ही दुष्ट और कपटी स्वभाव दिखा रही थी। दूसरों के साथ अपने रिश्ते बचाने और उनकी नजर में अच्छा दिखने के लिए, मैं सोचती कुछ थी, कहती कुछ और थी, मैं साँप की तरह धूर्त थी, अटक-अटककर बातें करती थी। कोई न समझ पाता कि मैं क्या कहने की कोशिश कर रही हूँ। मैं बहुत ही मक्कार थी। मैं इंसान कम और शैतान अधिक थी। इसका एहसास होने पर मुझे खुद से नफरत हो गई, अब मैं एक खुशामदी इंसान, एक लोमड़ी नहीं बनना चाहती थी। मैं सत्य का अभ्यास करके एक ईमानदार इंसान बनना चाहती थी, जो परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रख सके। अगले दिन की सभा में मैंने बहन यान में देखी समस्याओं के बारे में खुलकर बात की, और उसके बाद हमने साथ मिलकर सहभागिता की। इससे वह अपनी समस्याओं को समझ पाई। मैंने देखा, उसके बाद उसकी स्थिति धीरे-धीरे बदलने लगी, और मैंने बहुत मुक्त महसूस किया।

इस अनुभव ने मुझे दिखाया है कि हमें शैतानी फलसफों के अनुसार जीने और एक-दूसरे को धोखा देने के बजाय सच्चा और ईमानदार बनना चाहिए। यही सच्चा प्रेम है, इसी से हर किसी को फायदा मिलता है। मैंने खुद अनुभव किया कि सिर्फ परमेश्वर के वचनों के अनुसार ईमानदार बनना और सिद्धांतों के अनुसार चलना ही इंसानियत है, यही आशीष, शांति और खुशी पाने का रास्ता है। यही एक नेक इंसान बनना है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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