38. असफलताओं से सीखे सबक

जियांग पिंग, चीन

पहले जब मैं प्रभु यीशु में विश्वास करती थी तो मैं अक्सर बाइबल पढ़ती और प्रभु का सुसमाचार फैलाती थी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करने और उसके वचनों को पढ़ने के बाद मैंने जाना कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर लोगों का न्याय करने—उन्हें स्वच्छ करने और उन्हें बचाने का कार्य करने के लिए अंत के दिनों में सत्य व्यक्त करता है। इसलिए मैं सुसमाचार फैलाने के अपने कर्तव्य में और भी अधिक सक्रिय हो गई। अभ्यास के माध्यम से मैं परमेश्वर के कार्य की गवाही देने के सत्य के बारे में अधिक स्पष्ट हो गई, सुसमाचार प्रचार के सिद्धांत समझे और कुछ अनुभव पाए, इसलिए मेरा प्रचार काफी प्रभावी था। मेरे सभी भाई-बहनों ने कहा कि मैं इसमें वाकई अच्छी थी और मैं सुसमाचार उम्मीदवारों की धारणाएँ समझकर संगति से उन्हें सुलझा सकती थी। उन्हें मुश्किल लगने वाली समस्याएँ मेरे लिए बड़ी चुनौती नहीं होती थीं। बाद में पुलिस ने मुझे सुसमाचार का प्रचार करते हुए गिरफ्तार कर लिया और एक साल की जेल की सजा सुनाई। रिहा होने पर मैंने जल्दी ही फिर से सुसमाचार फैलाना शुरू कर दिया। मेरे कई भाई-बहनों ने अभी-अभी सुसमाचार का प्रचार करना सीखा था और उन्हें अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे, इसलिए अगुआ ने मुझे सुसमाचार कार्य का प्रभारी बना दिया। अपने भाई-बहनों के साथ मैंने कुछ धारणाओं का विश्लेषण किया जो आम तौर पर सुसमाचार उम्मीदवारों में होती थीं और बताया कि संगति के माध्यम से उन्हें कैसे हल किया जाए। कभी-कभी हमारा सामना बहुत सारी धार्मिक धारणाओं वाले सुसमाचार उम्मीदवारों से होता था और भाई-बहन उनके साथ कई बार संगति करते थे, लेकिन कोई असर नहीं पड़ता था। लेकिन जब मैं उनके साथ संगति करती थी तो मैं उनकी धारणाओं को तुरंत सुलझा देती थी। जैसे-जैसे समय बीता, हमारी कलीसिया के सुसमाचार कार्य को और बेहतर नतीजे मिलते गए। और धीरे-धीरे मैं खुद की प्रशंसा करने लगी। मुझे लगा कि मेरे पास वाकई ऊँची काबिलियत है और मैं उन समस्याओं को आसानी से सुलझा सकती हूँ जिन्हें अन्य भाई-बहन हल नहीं कर सकते। मुझे लगने लगा कि मुझमें दुर्लभ प्रतिभा है। मैं खुद को बहुत बड़ा समझने लगी और दूसरों की लापरवाही और खराब काबिलियत के लिए उनका मजाक उड़ाने लगी।

एक बार नवांतुकों का सिंचन करने वाली एक बहन मेरे पास आई। उसने कहा कि एक नवांतुक ने कुछ सवाल उठाए हैं और वह चाहती है कि मैं उसके साथ मिलकर संगति करूँ। मैं उससे बहुत नाराज हो गई। मैंने सोचा : “इतनी सरल समस्या का समाधान तुम क्यों नहीं कर सकती? क्या तुम अपने कर्तव्य में इतनी लापरवाह, इतनी गैर-जिम्मेदार हो? क्या तुम्हारी काबिलियत इतनी खराब है कि तुम एक नए व्यक्ति की धारणाओं का समाधान भी नहीं कर सकती?” तो मैंने उसे डांटा और कहा : “अगर तुम एक नवांतुक का सिंचन भी नहीं कर सकती हो तो तुम किस काम की हो?” मेरी बहन ने बस अपना सिर झुका लिया और कुछ नहीं कहा। उसकी आँखों से आँसू बह निकले। मुझे पता था कि ऐसा कहना सही नहीं था। लेकिन मैंने सोचा : “अगर मैं उसके साथ सख्ती नहीं करूँगी तो वह इसे दिल से नहीं लेगी और वह सुधार नहीं कर पाएगी।” उसके बाद जब भी उसे कोई समस्या आई तो उसने मेरे पास आने की हिम्मत नहीं की। वह नकारात्मक और बेबस थी। उसे लगता था कि कर्तव्य निभाने और नवांतुकों के सिंचन में उसकी काबिलियत बहुत कम है। मुझे पता था कि उसे कैसा लग रहा था लेकिन मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। मैंने उसके साथ संगति करने या उसकी मदद करने की कोशिश नहीं की। मन ही मन मैंने उसे तुच्छ समझा : क्या उससे यह काम करवाने से चीजों में देरी नहीं हो रही थी खासकर जब वह इतनी सरल समस्याओं को नहीं सुलझा पाती थी? इसलिए फिर मैंने उसे उस नवांतुक का सिंचन करने से रोक दिया। एक और बार मैंने और कलीसिया के एक अगुआ ने नवांतुकों के लिए एक सभा बुलाई। लेकिन अगुआ की संगति के बाद नवांतुकों की समस्याएँ हल नहीं हुईं। मैंने सोचा : “तुम अगुआ हो लेकिन तुम नवांतुकों का सिंचन भी नहीं कर सकती।” इसलिए मैंने पहल की और उनसे पूछा : “क्या तुम सभी ने अभी बहन द्वारा कही गई बात को समझा?” उन्होंने अपना सिर हिलाया और कहा कि वे अभी भी नहीं समझे हैं। उसके बाद मैंने उनसे परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के बारे में विस्तार से बात की। उन्होंने खुशी से सुना और उनमें से कई ने कहा : “तुमने इस तरह से समझाया तो हम समझ गए हैं।” मेरे प्रति उनका ऐसा रवैया देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। मुझे लगा कि मैं सुसमाचार का प्रचार करने और सिंचन करने में अगुआ से बेहतर हूँ।

इसके बाद मैं लगातार अपनी बड़ाई करती रही और दूसरों को नीचा दिखाती रही। मेरा स्वभाव अधिक से अधिक अहंकारी होता गया। मैंने काम से जुड़े सभी मामलों में मनमर्जी की, चाहे वह काम बड़ा हो या छोटा। मुझे बस यही लगता था कि मैं अपने भाई-बहनों से बेहतर हूँ और अगर मैं उनके साथ चीजों पर चर्चा भी करती हूँ तो भी सब मेरे हिसाब से ही होगा, इसलिए मुझे बस अपने निर्णय लेने चाहिए और समय बर्बाद करने से बचना चाहिए। और प्रचार और सिंचन कार्य करते हुए मुझे लगता था कि बाकी सब मुझसे कमतर हैं और अगर मैं सब कुछ खुद ही करूँ तो बेहतर होगा। इसलिए मैंने एक ही समय पर प्रचार और सिंचन करना शुरू कर दिया। मैंने हर तरह के काम खुद पर ले लिए। मैं इतनी व्यस्त हो गई कि मेरे पैर मुश्किल से जमीन पर टिकते थे। लेकिन फिर अगुआ को पता चला कि मैं किसी को प्रशिक्षित नहीं कर रही हूँ, कि मैं दूसरों को अभ्यास नहीं करने दे रही हूँ, और उसने मेरी काट-छाँट की। उसने कहा : “तुम सब कुछ खुद ही सँभाल रही हो। क्या तुम्हें नहीं लगता कि यह अहंकार है?” काट-छाँट और फटकारे जाने के बाद भी मुझे नहीं लगा कि यह कोई बड़ी बात है। मुझे लगता था कि हर दिन मैं सुबह से शाम तक प्रचार और नवांतुकों के सिंचन में व्यस्त रहती थी। मेरी राय में इससे पता चलता था कि यह कर्तव्य के लिए जिम्मेदार होना था। मैं यह भी सोचती थी कि मेरी काबिलियत और कार्यक्षमता अच्छी हैं और जब तक मुझे नतीजे मिल रहे हैं, मेरा अहंकार कोई समस्या नहीं है। इसके बाद मैं अपने तरीके से काम करती रही। जो भी मामला उठता, मैं दूसरों से बात किए बिना खुद ही उससे निपट लेती। मेरे कुछ भाई-बहन बेबस महसूस करते थे। उन्हें लगता था कि वे उतने अच्छे नहीं हैं और नकारात्मक रहते थे। दूसरे लोग विशेषकर मुझ पर निर्भर हो गए। वे अपने कर्तव्यों में कोई जिम्मेदारी नहीं उठाते थे, हमेशा मेरे निर्देशों की प्रतीक्षा करते रहते थे, और इससे सुसमाचार और सिंचन कार्य प्रभावित होता था। इसके कुछ ही समय बाद मेरी आँखों से लगातार आँसू निकलने लगे। कभी-कभी बात इतनी बिगड़ जाती कि मैं देख तक नहीं पाती थी। डॉक्टर ने कहा कि मेरी आँसू की नलिकाएँ बंद हो गई हैं और मुझे सर्जरी की जरूरत है। जब मैं घर जा रही थी तो मैं सोचने लगी, “अचानक आँख की बीमारी होने के पीछे जरूर परमेश्वर का इरादा होगा। क्या मैंने किसी तरह से परमेश्वर को नाराज किया है?” तभी मैंने अपने कर्तव्य निर्वहन की अवस्था पर चिंतन करना शुरू किया। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे प्रबुद्ध करने के लिए कहा ताकि मैं अपनी समस्या समझ सकूँ।

जब मैं घर पहुँची तो मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “कुछ लोग जिन्होंने थोड़ा-सा काम किया है और किसी कलीसिया का अच्छी तरह से नेतृत्व किया है, वे सोचते हैं कि वे दूसरों से श्रेष्ठ हैं, और अक्सर ऐसी बातें फैलाते हैं : ‘परमेश्वर ने मुझे एक महत्वपूर्ण पद पर क्यों रखा है? वह बार-बार मेरा नाम क्यों लेता है? वह मुझसे बात क्यों करता रहता है? परमेश्वर मेरे बारे में ऊँची राय रखता है क्योंकि मेरे पास क्षमता है और मैं सामान्य लोगों से ऊपर हूँ। तुम लोगों को इस बात से भी ईर्ष्या हो रही है कि परमेश्वर मेरे साथ बेहतर व्यवहार करता है। तुम्हें किस बात से ईर्ष्या है? क्या तुम लोग देख नहीं सकते कि मैं कितना काम और त्याग करता हूँ? परमेश्वर ने मुझे जो भी अच्छी चीजें दी हैं, उनसे तुम लोगों को ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मैं उनका हकदार हूँ। मैंने कई वर्षों तक काम किया है और बहुत कुछ सहा है। मैं श्रेय का पात्र हूँ और योग्य हूँ।’ कुछ अन्य लोग भी हैं जो कहते हैं : ‘परमेश्वर ने मुझे सह-कार्यकर्ता बैठकों में शामिल होने और उसकी संगति सुनने की अनुमति दी। मेरे पास यह योग्यता है—क्या तुम लोगों के पास वह योग्यता है? पहली बात, मेरे पास उच्च क्षमता है, और मैं तुम्‍हारी तुलना में अधिक सत्य का अनुसरण करता हूँ। इसके अलावा, मैं खुद को तुम लोगों से अधिक खर्च करता हूँ और मैं कलीसिया का काम पूरा कर सकता हूँ—क्या तुम लोग वह कर सकते हो?’ यह अहंकार है। लोगों के कर्तव्य-पालन और कार्यों के परिणाम अलग-अलग होते हैं। कुछ के परिणाम अच्छे होते हैं, जबकि कुछ के परिणाम खराब होते हैं। कुछ लोग अच्छी क्षमता के साथ पैदा होते हैं और सत्य की खोज करने में भी सक्षम होते हैं, इसलिए उनके कर्तव्यों के परिणामों में तेजी से सुधार होता है। यह उनकी अच्छी क्षमता के कारण है, जो परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है। परंतु कर्तव्यपालन से खराब परिणाम की समस्या का समाधान कैसे किया जाए? तुम्हें निरंतर सत्य की खोज करनी चाहिए और कड़ी मेहनत करनी चाहिए, तब तुम भी धीरे-धीरे अच्छे परिणाम प्राप्त कर सकते हो। जब तक तुम सत्य के लिए प्रयास करते रहते हो और अपनी क्षमताओं की सीमा तक परिणाम हासिल करते रहते हो, परमेश्वर इसे स्वीकार करेगा। लेकिन तुम्‍हारे कार्य के नतीजे चाहे अच्छे हों या नहीं, तुम्‍हें गलत विचार नहीं रखने चाहिए। ऐसा मत सोचो, ‘मैं परमेश्वर के बराबर होने के योग्य हूँ,’ ‘परमेश्वर ने मुझे जो दिया है उसका आनंद लेने के मैं योग्य हूँ,’ ‘मैं परमेश्वर से अपनी स्तुति करवाने के योग्य हूँ,’ ‘मैं दूसरों का नेतृत्व करने के योग्य हूँ,’ या ‘मैं दूसरों को व्याख्यान देने के योग्य हूँ।’ मत कहो कि तुम योग्य हो। लोगों को ऐसे विचार नहीं रखने चाहिए। यदि तुम्‍हारे मन में ये विचार हैं, तो यह साबित करता है कि तुम अपनी सही जगह पर नहीं हो, और तुम्‍हारे पास वह बुनियादी समझ भी नहीं है जो एक इंसान के पास होनी चाहिए। तो तुम अपना अहंकारी स्वभाव कैसे त्याग सकते हो? तुम ऐसा नहीं कर सकते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी अवस्था उजागर कर दी। मुझे एहसास हुआ कि मेरे व्यवहार पर मेरे अहंकारी स्वभाव का प्रभुत्व था। जब मुझे प्रचार और सिंचन के काम में नतीजे मिलते थे तो मुझे बेहतर महसूस होता था। मैं सोचती थी कि मेरी योग्यताएँ और काबिलियत इतनी अच्छी हैं कि मैं सुसमाचार के काम के लिए अपरिहार्य हूँ। मैंने इन कौशलों को पूँजी के रूप में लिया। मैं इतनी अहंकारी थी कि मैंने बाकी सभी को नजरअंदाज कर दिया। मैंने ऐसा व्यवहार किया जैसे मैं दूसरों से ऊपर हूँ, उन्हें डाँटा और बेबस किया। जब मेरी बहन को नवांतुकों के सिंचन में कठिनाई हुई तो मैंने समस्या सुलझाने में उसकी मदद नहीं की—मैंने उसे फटकारने के लिए अपने रुतबे का इस्तेमाल किया। और जब अगुआ और मैंने मिलकर नवांतुकों का सिंचन किया और अगुआ उनकी समस्याओं को नहीं सुलझा पाई तो मैंने संगति में सहयोग नहीं किया। इसके बजाय मैंने अगुआ को नीचा दिखाया और जानबूझकर उसे नए लोगों के सामने शर्मिंदा किया। जब काम में समस्याएँ आईं तो मैंने सत्य सिद्धांतों की तलाश नहीं की या अपने भाई-बहनों के साथ चर्चा नहीं की। मुझे लगा कि मेरे पास चीजों को साफ देखने का अनुभव है, मैं खुद ही निर्णय ले सकती हूँ और सब कुछ सँभाल सकती हूँ। मैंने किसी और को अभ्यास करने का मौका नहीं दिया और जब मेरी काट-छाँट की गई तो भी मैंने इसे समस्या नहीं माना। मैं सोचती थी कि मैं अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी उठा रही हूँ। मैंने खुद को वरिष्ठ समझा और काट-छाँट स्वीकार नहीं की। मैं वाकई बहुत घमंडी थी। मैंने अपने दिल में परमेश्वर का भय नहीं माना, न ही समर्पण किया। मैं सुसमाचार कार्य की प्रभारी थी। मुझे अपने भाई-बहनों को भी सुसमाचार का प्रचार करने के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए था। लेकिन इसके बजाय मैंने उनका तिरस्कार किया और नीचा दिखाया और सब कुछ खुद ही सँभालती रही। नतीजा यह हुआ कि वे मुझसे बेबस महसूस करने लगे और कुछ वाकई मुझ पर निर्भर हो गए, अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी उठाने में असमर्थ हो गए, और सुसमाचार का काम प्रभावित हुआ। यह मेरा कर्तव्य निभाना नहीं था—यह बुराई करना था और सुसमाचार के काम में बाधा डालना था। पहले मैं सोचती थी कि मैं सब कुछ खुद करके अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी उठा रही हूँ। लेकिन वास्तव में मैं बस घमंडी हो रही थी। मैं खुद को दूसरों से ऊपर मानती रही थी उन्हें महत्वहीन समझती थी और हर चीज का प्रभार खुद ही लेती थी, अपने अहंकारी स्वभाव के साथ मनमर्जी और लापरवाही से काम करती रही थी, परमेश्वर या दूसरे लोगों के बारे में नहीं सोचती थी। क्या यह प्रधान स्वर्गदूत का स्वभाव नहीं था? अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करती तो मुझे परमेश्वर द्वारा ठुकराकर निकाल दिया जाता। यह सोचकर मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर मुझे इस बीमारी के साथ ताड़ना देकर अनुशासित कर रहा था। अगर परमेश्वर ने मेरे लिए यह स्थिति नहीं बनाई होती तो मैं अपने अहंकारी स्वभाव के भीतर काम करना जारी रखती। मैं बुरी चीजें करती जाती, परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करती और सजा पाती। जब मुझे इसका एहसास हुआ तो मैंने रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर! मैं इतनी अहंकारी हूँ कि मुझमें कोई मानवता या विवेक नहीं है। मैं तुम्हारे सामने रहने के योग्य नहीं हूँ। परमेश्वर! मैं तुम्हारा विरोध या विद्रोह नहीं करना चाहती। मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ!” उसके बाद मैंने अपने भाई-बहनों के साथ अपनी अवस्था को खुलकर साझा किया। मैंने इसे उजागर कर गहन विश्लेषण किया कि कैसे अपने अहंकारी स्वभाव के कारण मैंने उन्हें चोट पहुँचाई थी, और माफी माँगी। उसके बाद मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में और विनम्र हो गई। मैं अपने भाई-बहनों से सारी बातों पर चर्चा करती थी और कुछ ही समय में मेरी बीमारी ठीक हो गई। मैंने दिल की गहराई से परमेश्वर का शुक्रिया अदा किया।

कुछ समय बाद सुसमाचार कार्य की आवश्यकताओं के कारण कलीसिया ने मुझे एक अलग जगह पर सुसमाचार फैलाने का काम सौंपा। मैं फिर से खुद अपनी बड़ाई करने से नहीं रोक पाई : ऐसा लगा कि मैंने सुसमाचार का प्रचार करने में अच्छा काम किया था। नहीं तो वे मुझे सुसमाचार फैलाने के लिए कहीं और क्यों भेजते? एक दिन मैं दो धार्मिक विश्वासियों के पास सुसमाचार का प्रचार करने गई। मुझे नहीं लगा कि यह मुश्किल होगा इसलिए मैंने पहले से उनकी स्थिति या उनकी मुख्य धारणाओं को समझने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय मैंने पहले की तरह ही सीधे परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों की गवाही दी। जैसे ही उन्होंने इसे सुना, वे समझ गए कि मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वासी हूँ और वे रक्षात्मक हो गए। वे कुछ और सुनने को तैयार नहीं थे। उस समय मैं दंग रह गई। मैं यहाँ तक पहुँचने के लिए इतनी दूर आई थी और मैंने सोचा था कि मैं सुसमाचार कार्य का जल्दी से विस्तार कर सकती हूँ। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं इतनी जल्दी असफल हो जाऊँगी। अब मैं सुसमाचार कार्य कैसे आगे बढ़ाऊँगी? मैं अभी भी हार मानने के लिए तैयार नहीं थी। मुझे लगा शायद यह सिर्फ एक बार की समस्या थी और मैंने इस बार कुछ गड़बड़ कर दी थी। मैं इतने सालों से सुसमाचार प्रचार कर रही थी, इसलिए मुझे यकीन था कि मैं लोगों को जीत सकती हूँ। लेकिन मैं जहाँ भी गई, असफल रही। मैंने बहुत निराश हो गई और हताशा की अवस्था में चली गई। उसके बाद मुझे बरखास्त कर दिया गया। मुझे यह सोचकर दुख हुआ कि मेरा प्रचार इतना अप्रभावी था। मुझे लगा कि मैं बेकार हूँ। अगर यह ऐसे ही चलता रहा तो क्या मुझे निकाल नहीं दिया जाएगा? मुझे वे दिन याद आ गए जब मैं पूरे जोश के साथ सुसमाचार का प्रचार करती थी। हालाँकि काम कठिन और थकाऊ होता था लेकिन इतने अच्छे नतीजे पाकर मुझे खुशी होती थी। लेकिन अब मैं वे नतीजे क्यों नहीं पा सकती? यह सोचकर मेरे दिल में असहनीय दर्द उठा। दर्द के बीच मैंने बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना की : “हे परमेश्वर! मुझे इस स्थिति से क्या सबक सीखने की जरूरत है? कृपया, मुझे प्रबुद्ध करो और मुझे खुद को समझने के लिए मार्गदर्शन करो।”

खोज करते समय मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : “जब किसी व्यक्ति के पास गुण होता है या कोई प्रतिभा होती है, तो इसका मतलब है कि वह किसी चीज में स्वाभाविक रूप से बेहतर है या दूसरों की तुलना में किसी न किसी तरह से उत्कृष्ट है। उदाहरण के लिए, हो सकता है तुम दूसरों की तुलना में थोड़ी तेजी से प्रतिक्रिया देते हो, हो सकता है तुम चीजों को दूसरों की तुलना में थोड़ा तेजी से समझते हो, हो सकता है तुमने किसी पेशेवर कौशल में महारत हासिल कर ली हो, या तुम एक शानदार वक्ता हो, इत्यादि। ये ऐसे गुण और प्रतिभाएँ हैं जो किसी व्यक्ति के पास हो सकती हैं। यदि तुम में कुछ प्रतिभाएँ और क्षमताएँ हैं, तो तुम उन्हें कैसे समझते हो और कैसे सँभालते हो, यह बहुत महत्वपूर्ण होता है। यदि तुम सोचते हो कि तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता क्योंकि तुम्हारे जैसे गुण और प्रतिभाएँ किसी और के पास नहीं हैं, और यदि तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपने गुणों और प्रतिभाओं का उपयोग करते हो तो तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो, तो यह दृष्टिकोण सही है या गलत? (गलत है।) तुम क्यों कहते हो कि यह गलत है? प्रतिभाएँ और गुण वास्तव में क्या होते हैं? तुम्हें उन्हें कैसे समझना चाहिए, कैसे उनका उपयोग करना चाहिए और कैसे उनसे निपटना चाहिए? सच तो यह है कि तुम्हारे पास चाहे जो भी गुण या प्रतिभा हो, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास सत्य और जीवन है। यदि लोगों के पास कुछ निश्चित गुण और प्रतिभाएँ हैं, तो उनके लिए ऐसा कर्तव्य निभाना उचित होता है जिसमें इन गुणों और प्रतिभाओं का उपयोग होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं, न ही इसका मतलब यह है कि वे सिद्धांतों के अनुसार काम कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, यदि तुम गायन का गुण लेकर पैदा हुए हो, तो क्या तुम्हारी गायन क्षमता सत्य के अभ्यास का प्रतिनिधित्व करती है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम सिद्धांतों के अनुसार गाते हो? ऐसा नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लें कि तुम में शब्दों के प्रति स्वाभाविक प्रतिभा है और तुम लिखने में अच्छे हो। यदि तुम सत्य नहीं समझते, तो क्या तुम्हारा लेखन सत्य के अनुरूप हो सकता है? क्या यह जरूरी है कि इसका मतलब यही हो कि तुम्हारे पास अनुभवात्मक गवाही है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) इसलिए गुण और प्रतिभाएँ सत्य से भिन्न हैं और उनकी तुलना सत्य से नहीं की जा सकती। चाहे तुम्हारे पास जो भी गुण हो, यदि तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाओगे। कुछ लोग अक्सर अपने गुणों का दिखावा करते हैं और आमतौर पर महसूस करते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, इसलिए वे अन्य लोगों को तुच्छ समझते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते समय दूसरों के साथ सहयोग करने को तैयार नहीं होते। वे हमेशा प्रभारी बने रहना चाहते हैं, और परिणामस्वरूप वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय अक्सर सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, और उनकी कार्यकुशलता भी बहुत कम होती है। गुणों ने उन्हें अहंकारी और आत्म-तुष्ट बना दिया है, दूसरों को नीचा दिखाने पर मजबूर किया है, और उन्हें हमेशा यह महसूस कराया है कि वे अन्य लोगों से बेहतर हैं और कोई भी उनके जितना अच्छा नहीं है, और इस वजह से वे आत्मसंतुष्ट हो गए हैं। क्या ये लोग अपने गुणों के कारण बर्बाद नहीं हुए हैं? वास्तव में बर्बाद हुए हैं। जिन लोगों में गुण होते हैं और प्रतिभा होती है, उनके अहंकारी और आत्म-तुष्ट होने की संभावना सबसे अधिक होती है। यदि वे सत्य का अनुसरण नहीं करते और हमेशा अपने गुणों के सहारे जीते हैं, तो यह बहुत खतरनाक बात होती है। चाहे कोई व्यक्ति परमेश्वर के घर में कोई भी कर्तव्य निभाए, चाहे उसके पास किसी भी प्रकार की प्रतिभा हो, यदि वह सत्य का अनुसरण नहीं करता तो वह निश्चित रूप से अपना कर्तव्य पूरा करने में विफल रहेगा। व्यक्ति के पास जो भी गुण और प्रतिभा है, उसे उसी से संबंधित कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए। यदि वह सत्य भी समझ सकता है और सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकता है, तो उसके गुण और प्रतिभा की उस कर्तव्य के प्रदर्शन में भूमिका होगी। जो लोग सत्य स्वीकार नहीं करते, और सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते, और चीजों को करने के लिए केवल अपने गुणों पर भरोसा करते हैं, वे अपने कर्तव्य पूरा करके कोई परिणाम प्राप्त नहीं करेंगे, और उनके हटा दिए जाने का जोखिम बना रहेगा। ... जो लोग गुणी और प्रतिभाशाली होते हैं, वे खुद को बहुत चतुर समझते हैं, उन्हें लगता है कि वे सब कुछ समझते हैं—लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता कि गुण और प्रतिभा सत्य का प्रतिनिधित्व नहीं करते, इन चीजों का सत्य से कोई संबंध नहीं होता। जब लोग अपने कार्यों में उपहारों और कल्पनाओं पर भरोसा करते हैं, तो उनके विचार और राय अक्सर सत्य के विपरीत चलते हैं—लेकिन उन्हें यह दिखता ही नहीं, वे फिर भी सोचते हैं, ‘देखो मैं कितना होशियार हूँ; मैंने इतने चतुराई भरे विकल्प चुने! इतने बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लिए! तुम लोगों में से कोई भी मेरी बराबरी नहीं कर सकता।’ वे सदैव आत्मुग्धता और आत्म-प्रशंसा की मनःस्थिति में रहते हैं। उनके लिए अपने हृदय को शांत कर पाना और यह सोच पाना कठिन होता है कि परमेश्वर उनसे क्या चाहता है, सत्य क्या है और सत्य सिद्धांत क्या हैं। इसलिए उनके लिए सत्य समझना कठिन होता है, भले ही वे कर्तव्य निभाते हैं, पर वे सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, और इसलिए उनका सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाना भी बहुत मुश्किल होता है। संक्षेप में, यदि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं कर सकता और सत्य स्वीकार नहीं कर सकता, तो चाहे कितना भी गुणी या प्रतिभावान हो, वह अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा पाएगा—इसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं हो सकता(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, वह वास्तव में क्या है, जिस पर लोग जीने के लिए निर्भर हैं?)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद मुझे समझ आया कि विशेष प्रतिभा और खूबियाँ होने का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास सत्य है। अगर तुम सत्य नहीं समझते हो या सिद्धांतों की खोज किए बिना अपना कर्तव्य निभाते हो और हमेशा अपनी प्रतिभा और अनुभवों का इस्तेमाल पूँजी के रूप में करते हो तो तुम समय के साथ और अधिक अहंकारी हो जाआगे। मुझे एहसास हुआ कि जब से मैंने अपना कर्तव्य शुरू किया था, मैं अपनी खूबियों के सहारे जी रही थी। मैंने बाइबल अच्छी तरह से पढ़ी थी और मुझे सुसमाचार का प्रचार करने का अनुभव था, इसलिए मैंने इन चीजों को पूँजी माना था और अधिक से अधिक अहंकारी होती गई थी। मैं बाकी सभी को नीची नजरों से देखती थी। मैंने उन सभी के साथ ऐसा व्यवहार किया जैसे कि उनका कोई महत्व ही न हो। अगुआ ने मेरे अहंकार के लिए मेरी काट-छाँट की लेकिन मैंने इसे नहीं स्वीकारा। मैं अभी भी अपनी खूबियों को पूँजी के रूप में इस्तेमाल करती थी और उसके सुझावों को नकार देती थी। अन्यत्र प्रचार करते समय मैंने सत्य सिद्धांतों की तलाश नहीं की। मैं अपनी खूबियों और अनुभव पर भरोसा करती थी, महान चीजें हासिल करने की कोशिश करती थी। और नतीजा यह हुआ कि मैं बार-बार असफल होती रही। लेकिन तब भी मुझे नहीं लगा कि मेरे रवैये में कोई समस्या है। मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। मैंने बेशर्मी से सोचा कि चूँकि मेरे पास खूबियाँ और अनुभव हैं तो मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभा सकती हूँ। मैं बहुत अहंकारी और तर्कहीन थी। मैंने पौलुस के बारे में सोचा जो गुणी, बुद्धिमान और वाक्पटु था। उसे इंजील का गहरा ज्ञान था और वह सुसमाचार का प्रचार करने और लोगों को परिवर्तित करने में उत्कृष्ट था लेकिन उसने इसका इस्तेमाल पूँजी के रूप में किया। उसका स्वभाव अधिक से अधिक अहंकारी होता गया और उसने अन्य लोगों की उपेक्षा की। उसने दावा किया कि वह देवदूतों के पीछे नहीं है और केवल पुरस्कार और ताज के लिए काम करता था। उसने यहाँ तक दावा किया कि उसके लिए जीना ही मसीह है। और अंत में उसे परमेश्वर ने दंडित किया। उसकी कहानी से पता चलता है कि गुण होने का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे पास सत्य वास्तविकता है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते हो तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदलेगा और तुम्हें बेनकाब कर निकाल दिया जाएगा। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा जिससे मुझे कुछ स्पष्टता मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “क्‍या तुम अपना कर्तव्य निभाने के दौरान परमेश्वर का मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा का प्रबोधन महसूस करने में सक्षम हो? (हाँ।) अगर तुम पवित्र आत्मा के कार्य को महसूस करने में सक्षम हो, फिर भी अपने बारे में ऊँची राय रखते हो और सोचते हो कि तुम वास्तविकता से युक्त हो, तो यह क्या हो रहा है? (जब हमारा कर्तव्य-पालन कुछ सफल हो जाता है, तो हम सोचते हैं कि आधा श्रेय परमेश्वर का है और आधा हमारा। हम अपने सहयोग को असीम रूप से बढ़ा-चढ़ा लेते हैं, और सोचते हैं कि हमारे सहयोग से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं था, और परमेश्वर का प्रबोधन इसके बिना संभव नहीं होता।) तो परमेश्वर ने तुम्हें प्रबुद्ध क्यों किया? क्या परमेश्वर अन्य लोगों को भी प्रबुद्ध कर सकता है? (हाँ।) जब परमेश्वर किसी को प्रबुद्ध करता है, तो यह परमेश्वर का अनुग्रह होता है। और तुम्हारी ओर से वह छोटा-सा सहयोग क्या है? क्या वह कोई ऐसी चीज है, जिसके लिए तुम्हें श्रेय दिया जाए—या वह तुम्हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है? (यह हमारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है।) जब तुम मानते हो कि यह तुम्‍हारा कर्तव्य और जिम्मेदारी है, तो तुम सही मनःस्थिति में होते हो, और तब तुम इसका श्रेय लेने की कोशिश करने के बारे में नहीं सोचोगे। अगर तुम हमेशा यह सोचते हो, ‘यह मेरा योगदान है। क्या परमेश्वर का प्रबोधन मेरे सहयोग के बिना संभव होता? इस कार्य के लिए इंसान के सहयोग की जरूरत है; यह उपलब्धि मुख्य रूप से हमारे सहयोग की बदौलत होती है,’ तो तुम गलत हो। अगर पवित्र आत्मा ने तुम्हें प्रबुद्ध न किया होता, और अगर किसी ने तुम्हारे साथ सत्य सिद्धांतों पर संगति न की होती, तो तुम सहयोग कैसे कर पाते? तुम्हें पता ही नहीं होता कि परमेश्वर की क्या अपेक्षा है, न ही तुम्हें अभ्यास का मार्ग पता होता। अगर तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सहयोग करना भी चाहते, तो भी तुम यह न जानते कि कैसे करें। क्या तुम्हारा यह ‘सहयोग’ केवल खोखले शब्द नहीं हैं? सच्चे सहयोग के बिना, तुम केवल अपने विचारों के अनुसार कार्य कर रहे होते हो—उस स्थिति में, तुम जो कर्तव्य निभाते हो, क्या वह मानक के अनुरूप हो सकता है? बिल्कुल नहीं, और यह विचाराधीन मुद्दे की ओर संकेत करता है। यह किस समस्या का संकेत देता है? व्यक्ति चाहे जो भी कर्तव्य करे, उसमें क्या वह परिणाम प्राप्त करता है, क्या मानक के अनुरूप अपना कर्तव्य निभाता है और परमेश्वर का अनुमोदन पाता है या नहीं, यह परमेश्वर के क्रियाकलापों पर निर्भर करता है। भले ही तुम अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य पूरे कर दो, लेकिन अगर परमेश्वर कार्य न करे, अगर वह तुम्हें प्रबुद्ध न करे और तुम्हारा मार्गदर्शन न करे, तो तुम अपना मार्ग, अपनी दिशा या अपने लक्ष्य नहीं जान पाओगे। अंततः इसका क्या परिणाम होता है? लगातार परिश्रम करने के बाद, तुमने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया होगा, न ही तुमने सत्य और जीवन प्राप्त किया होगा—यह सब व्यर्थ हो गया होगा। इसलिए, तुम्हारे कर्तव्य का मानक अनुरूप होना, इससे तुम्हारे भाई-बहनों को लाभ मिलना, और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करना, ये सब परमेश्वर पर निर्भर करता है! लोग केवल वही चीजें कर सकते हैं, जिन्हें करने में वे व्यक्तिगत रूप से सक्षम होते हैं, जिन्हें उन्हें करना चाहिए और जो उनकी अंतर्निहित क्षमताओं के भीतर होती हैं—इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए, अंततः प्रभावशाली ढंग से कर्तव्य निभाना परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन और पवित्र आत्मा के प्रबोधन और अगुआई पर निर्भर करता है; केवल तभी तुम सत्य को समझ सकते हो और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए गए मार्ग और उसके द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर का आदेश पूरा कर सकते हो। ये परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष हैं, अगर लोग यह नहीं देख पाते, तो वे अंधे हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैं समझ गई कि सुसमाचार का प्रचार करने और नए लोगों के सिंचन के दौरान मैंने जो नतीजे पाए, वे मेरी साख और पूँजी नहीं थे। यह परमेश्वर का अनुग्रह और पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन था। अगर परमेश्वर के वचन सत्य सिद्धांतों के सभी पहलुओं पर संगति नहीं करते ताकि हमें दिशा और अभ्यास का मार्ग मिल सके तो मैं क्या समझ पाती? पवित्र आत्मा के प्रबोधन और परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन के बिना चाहे मैं कितनी भी वाक्पटु, उच्च-काबिलियत वाली या बाइबल जानने वाली क्यों न होऊँ, मैं उन धार्मिक लोगों की धारणाओं को कभी नहीं सुलझा पाऊँगी। तथ्यों के प्रकाशन से मैंने देखा कि पवित्र आत्मा के प्रबोधन के बिना मैं बस एक मूर्ख थी जो कुछ भी नहीं सुलझा सकती थी, जो किसी एक व्यक्ति को भी परिवर्तित नहीं कर सकती थी। मैंने हमेशा सोचा था कि अपने कर्तव्य में नतीजे पाने का मतलब है कि मेरी काबिलियत अच्छी है, कि मैं सक्षम हूँ। लेकिन वास्तव में, मैं परमेश्वर के कार्य को नहीं समझती थी या खुद अपना माप नहीं जानती थी। मैं हमेशा इन चीजों का इस्तेमाल दिखावे के लिए पूँजी के रूप में करती थी। मैं इसके बारे में बहुत बेशर्म थी।

बाद में मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है, मानवजाति की देखभाल करता है, मानवजाति के लिए चिंता दिखाता है, इसके साथ ही साथ लगातार और बिना रुके मानवजाति के लिए आपूर्तियाँ करता है। वह कभी अपने हृदय में यह महसूस नहीं करता कि यह एक अतिरिक्त कार्य है या जिसे ढेर सारा श्रेय मिलना चाहिए। न ही वह यह महसूस करता है कि मानवता को बचाना, उनके लिए आपूर्तियाँ करना, और उन्हें सब कुछ देना, मानवजाति के लिए एक बहुत बड़ा योगदान है। वह मानवजाति को अपने तरीके से और स्वयं के सार और जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसके माध्यम से बस खामोशी से एवं चुपचाप प्रदान करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति को उससे कितना भोजन प्रबंध एवं कितनी सहायता प्राप्त होती है, परमेश्वर इसके बारे में कभी नहीं सोचता या श्रेय लेने की कोशिश नहीं करता। यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है और साथ ही यह परमेश्वर के स्वभाव की बिल्कुल सही अभिव्यक्ति भी है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैं भावुक हो गई। परमेश्वर का स्वभाव कितना अच्छा और सुंदर है! हमें बचाने के लिए, जो शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट हो चुके हैं, परमेश्वर ने दो बार देहधारण किया है। उसने बहुत काम किया है, बहुत कुछ कहा है और बहुत अपमान और पीड़ा सहन की है। लेकिन परमेश्वर ने कभी भी मानवजाति के सामने अभिव्यक्त नहीं किया। उसने कभी भी इसे इतना बड़ा मामला नहीं समझा कि जिसे बहुत सारा श्रेय दिया जाए। परमेश्वर के सार में अहंकार का कोई निशान या दिखावा प्रकट नहीं होता। इसके बजाय वह अपना काम चुपचाप पूरा करता रहता है। परमेश्वर की विनम्रता और अदृश्यता सराहनीय है। मैं चींटी के बराबर भी अच्छी नहीं हूँ। मुझे अपने कर्तव्य में कुछ अच्छे नतीजे मिले और मुझे लगा कि मैं अद्भुत हूँ। मुझे लगा कि मैंने इतना कुछ हासिल कर लिया है कि मैं बाकी सभी को नीची नजर से देखने लगी। जब मैंने सोचा कि मैंने दूसरे लोगों को उपदेश देते वक्त मैंने कैसा व्यवहार किया था और उन्हें नीचा माना था—मेरा लहजा, मेरा तरीका—मुझे घृणा महसूस हुई। यदि परमेश्वर ने मुझे बेनकाब करने और काट-छाँट करने के लिए यह सब व्यवस्था नहीं की होती तो मेरा अहंकारी स्वभाव कलीसिया के काम में बाधा और गड़बड़ी डालता। लेकिन परमेश्वर ने मुझे उस बुरे रास्ते पर जाने से रोक दिया और मुझे पश्चात्ताप करने और बदलने की अनुमति दी। परमेश्वर मुझे बचा रहा था। मैं उसकी बहुत आभारी थी! इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर! मैं अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार नहीं जीना चाहती। मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे बचाओ और मुझे एक इंसान के रूप में जीने में मदद करो।”

कुछ समय बाद मेरी अवस्था में थोड़ा सुधार हुआ। मेरे अगुआ ने मुझे फिर से नवांतुकों के सिंचन में लगाया। एक बार मेरी एक बहन को एक नवांतुक के सिंचन में परेशानी हो रही थी और उसे नहीं पता था कि क्या करना है। इसलिए वह संगति की तलाश में मेरे पास आई। पता चला कि वह उस नवांतुक की समस्याओं का मूल ठीक से नहीं समझ पाई थी और मैं उसके प्रति तिरस्कार महसूस करने लगी। मैंने सोचा : “तुम्हारी काबिलियत बहुत कम है। तुम नवांतुक की समस्याएँ भी नहीं देख सकती। अगर हर कोई तुम्हारी तरह नवांतुकों का सिंचन करेगा तो क्या कलीसिया का काम रुक नहीं जाएगा?” लेकिन इस बार मुझे पता था कि मैं अपना अहंकारी स्वभाव बेनकाब कर रही थी। इसलिए मैंने खुद के खिलाफ विद्रोह करते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की। बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “पेशेवर ज्ञान में माहिर होने के नाते तुम्हें अपनी योग्यता का दिखावा नहीं करना चाहिए या उनके बारे में बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताना चाहिए; तुम्हें नौसिखियों को अपना कौशल और ज्ञान आगे बढ़कर सिखाना चाहिए, ताकि हर कोई मिलकर अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह पालन कर सके। ऐसा हो सकता है कि तुम अपने पेशे के बारे में सबसे अधिक जानकार हो और कौशल में सबसे आगे हो, लेकिन यह खूबी तुम्हें परमेश्वर ने दी है, तो तुम्हें इसका उपयोग अपने कर्तव्य को निभाने और अपनी खूबियों के सही इस्तेमाल में करना चाहिए। चाहे तुम कितने भी कुशल या प्रतिभाशाली क्यों न हो, तुम अकेले काम नहीं कर सकते; किसी कर्तव्य को सबसे अधिक प्रभावी ढंग से तभी किया जाता है जब हर कोई उस पेशे के कौशल और ज्ञान को समझने में सक्षम हो। जैसे कि कहावत है, एक सक्षम इंसान को तीन अन्य लोगों का सहारा चाहिए होता है। कोई व्यक्ति कितना भी काबिल क्यों न हो, एक-दूसरे की मदद के बिना वह काफी नहीं होता। इसलिए किसी को भी अहंकारी नहीं होना चाहिए और किसी को भी खुद ही काम करने या फैसले लेने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। लोगों को दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करना चाहिए, अपने विचारों और मतों को किनारे रखकर सबके साथ मिलकर सामंजस्य में काम करना चाहिए। जिसके पास पेशेवर ज्ञान है, उसे प्रेम से दूसरों की मदद करनी चाहिए, ताकि वे भी इन कौशल और ज्ञान में महारत पा सकें। यह कर्तव्य निर्वहन के लिए फायदेमंद है। ... अगर तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील हो और उसके घर के कार्य के प्रति वफादार रहने को तैयार हो, तो तुम्हें अपनी खूबियों और कौशल को अर्पित कर देना चाहिए, ताकि दूसरे लोग उन्हें सीख और समझकर अपने कर्तव्यों को बेहतर ढंग से निभा सकें। यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है; केवल ऐसे ही लोगों में मानवता होती है, और उन्हें ही परमेश्वर का प्रेम और आशीष प्राप्त होता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिखाया। मेरी बहन नवांतुकों को सिंचन का प्रशिक्षण दे रही थी। यह स्वाभाविक था कि वह कुछ मुद्दों को समझने या हल करने में सक्षम नहीं होगी। मुझे उसकी मदद करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए और उसे उन मुद्दों को हल करने का तरीका सिखाना चाहिए। इसलिए मैंने उसके साथ संगति की और साथ मिलकर हमने परमेश्वर के वचनों के प्रासंगिक अंश खोजे। बाद में नवांतुक के मुद्दे हल हो गए और वह सुसमाचार का प्रचार करने के लिए तैयार हो गया। मेरी बहन और मैं बहुत खुश थे। उसके बाद जब मैंने अपने भाई-बहनों के साथ काम किया तो मैं और अधिक विनम्र हो गई। कभी-कभी सुसमाचार का प्रचार और नए लोगों को सिंचन करते समय वे सुसमाचार के उम्मीदवारों और नए लोगों की समस्याएँ नहीं सुलझा पाते हैं लेकिन मैं अब उन्हें छोटा नहीं समझती। इसके बजाय हम संगति करते हैं और साथ मिलकर सिद्धांतों की तलाश करते हैं। जब वे वैकल्पिक सुझाव देते हैं तो मैं सचेत रूप से खुद को नकारती हूँ और उनकी बात सुनती हूँ। मैं अब उन्हें निर्देश नहीं देती या उन्हें नीचा नहीं दिखाती। ऐसा करने से मुझे अपने दिल में शांति और मुक्ति मिली है।

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