37. चालाक और कपटी होने से सीखा एक पीड़ादायी सबक
2020 में मैं कलीसिया में डिजाइन का काम कर रही थी, खासकर रेखाचित्र बनाने का। कुछ समय बाद, मुझे लगा कि इस काम की गति बाकी कार्यों के मुकाबले धीमी है। मेरी निरीक्षक दूसरे काम की देखरेख की वजह से हमारे काम पर नजर नहीं रख पा रही थी। मैं भी ढीली पड़ने लगी। कोई मुझे ठेल नहीं रहा था, तो मैं भी बंधे-बंधाए काम करती। मुझे लगा अगर मैं बेकार न बैठूँ, रोज कुछ ड्रॉइंग बना दूँ, तो काफी है। वैसे भी, यह आरामदायक काम था। मुझे इसमें जल्दबाजी करने या कष्ट उठाने की जरूरत नहीं थी। मैं अपनी टीम में मुख्य थी, और सभी सिद्धांतों और कार्य से परिचित थी। तो मुझे यकीन था कि मैं उसी काम में बनी रहूँगी और बचा ली जाऊंगी। इस दृष्टिकोण के चलते, न तो मेरे काम का कोई लक्ष्य था, न ही कोई योजना थी। जितना हो पाता उतना ही करती, और अपने काम से संतुष्ट रहती। मैं कभी खाली नहीं दिखती थी, पर एकदम तनावमुक्त थी। ड्रॉइंग बनाते हुए मुझे ध्यान लगाने में काफी दिक्कत होती। चैट में आने वाले मैसेज तुरंत देखती थी और पढ़ती थी, कोई काम महत्वपूर्ण या तात्कालिक है या नहीं, इसकी परवाह किए बिना जवाब देती, मामले संभालती। अनजाने में मैं काफी समय बर्बाद करती थी। कभी-कभी हमारी सभाएँ सुबह होतीं, अगर उस दिन मैं समय का सदुपयोग करती तो तीन ड्रॉइंग बना सकती थी, लेकिन मैं एक ही ड्रॉइंग बनाकर संतुष्ट हो जाती थी, सोचती कि सुबह की सभा ने पहले ही आधा दिन ले लिया, दो ड्रॉइंग बनाना ही काफी है। तो मैं धीमे-धीमे काम करके केवल दो ही ड्रॉइंग बनाती। मैं अपना खाली समय समाचार देखने में लगाती। मैं अपने जीवन प्रवेश की या यह न सोचती कि मेरे काम में क्या समस्याएं हो सकती हैं। उस दौरान, मैं बस अपने काम के लिए मेहनत करती थी, परमेश्वर के वचन पढ़ने और आत्मचिंतन करने से दूर रहती। मुझे अपनी भ्रष्टता तो दिखती लेकिन उसे दूर करने के लिए सत्य न खोजती। मुझे लगता कि मेरे काम में कोई विशेष कठिनाई नहीं आई है, मैं काफी डिजाइन भी बना चुकी हूँ, तो मेरा काम ठीक-ठाक चल रहा है।
काम का बोझ बढ़ता गया, ड्रॉइंग की गति बहुत धीमी थी, इसलिए काम इकट्ठा होता गया। एक डिजाइन तो ऐसा था जो एक महीने तक अटका ही रहा। जब निरीक्षक को इसके बारे में पता चला तो उसने हमारा काम देखा, उसे लगा कि हमारी उत्पादकता बहुत कम है, काम में आलसी और लापरवाह होने के कारण वह हमारे साथ कठोरता से निपटी। काम का ढेर लग जाने के बावजूद, हमें तात्कालिकता का कोई एहसास नहीं था और किसी ने इसकी सूचना नहीं दी। हम लापरवाह थे, भार वहन नहीं कर रहे थे, काम में ढीले थे, सुसमाचार कार्य में यह एक बड़ी बाधा थी। निरीक्षक की यह बात सुनकर मैं दंग रह गई। मुझे लगता था कि मैं काफी व्यस्त रहती हूँ, बहुत काम करती हूँ, तो हिसाब लगाने पर काम इतना कम क्यों था? क्या मैं कलीसिया पर निर्भर रहने वाली परजीवी नहीं बन गई हूँ? यही चलता रहा तो मुझे बर्खास्त कर निकाल दिया जाएगा। उसके बाद, निरीक्षक की निगरानी में मेरी कार्य-कुशलता में थोड़ा सुधार हुआ। लेकिन अटके पड़े डिजाइनों को देखकर मुझे चिंता हुई। अब निरीक्षक भी काम पर ज्यादा बारीकी से नजर रख रही थी, कभी-कभी विस्तृत प्रश्न पूछती, हम कहाँ अटके हैं, इसकी जांच करती। हमें फिर से बेमन से काम करते देख उसने हमारे साथ कठोर लहजे में बात की। मुझे बहुत बुरा लगा। कहना आसान है पर करना मुश्किल—मुझे लगता कि वो ज्यादा ही सवाल पूछती है। उसे लगता है कि डिजाइन बनाना आसान है? मैं पहले ही काफी मेहनत कर रही हूँ। अगर वह ऐसी ही अपेक्षा करती रही तो? मैं सुपरमैन नहीं हूँ। मेरे अंदर प्रतिरोध था, इसलिए न मैं कष्ट उठाने को तैयार थी न कीमत चुकाने को। जल्दी करने के मेरे प्रयास सिर्फ निरीक्षक को दिखाने के लिए थे। मुझे डर था, अगर मैंने बहुत धीमे काम किया तो वह मुझसे निपटेगी। लगता जैसे मुझे जबर्दस्ती घसीटा जा रहा है, मैं रोज थककर चूर हो जाती। मैं अक्सर सोचती, काश ऐसा हो कि पलभर में सारी ड्रॉइंग बन जाए, मुझे बाकी बहनों से ईर्ष्या होती, सोचती कि उनका काम तो कितना आरामदेह है, जबकि मुझे हर दिन ढेरों डिजाइन बनाते पड़ते हैं। यह मुश्किल और थकाऊ था, काम धीमा हुआ तो मुझसे निपटा जाएगा। मुझे यह काम अच्छा नहीं लगा। चूंकि मैं सही हालत में नहीं थी, तो कुछ समय तक मुझे हमेशा नींद आती। रात को तो मैं अच्छे से सोती थी, फिर भी दिन में नींद आती रहती थी। मुझे डिजाइनों पर काम करने के लिए पूरी ऊर्जा लगानी पड़ती थी। उसके बाद मैंने देखा कि मेरी दो सहकर्मी बहनों के काम में कुछ समस्याएँ आ रही हैं। उनमें से एक को सिद्धांतों की समझ नहीं थी, छोटे-छोटे मुद्दों पर बहस करके प्रगति रोक रही थी। दूसरी बेमन से काम करती थी, मैंने बातों-बातों में इनका जिक्र किया पर कभी जायजा नहीं लिया, अपनी अगुआ को भी इस बारे में न बताया। हमारी टीम अगुआ को समस्या का पता लगा और उसने उन्हें संभाला, लेकिन हमारा काम पहले ही अटक चुका था।
एक दिन अगुआ ने अचानक ही मुझसे कहा, "तुम अपने काम में लापरवाह, चालाक, धोखेबाज और गैर-जिम्मेदार हो। तुम तभी काम करती हो जब कोई पीछे पड़ता है। तुम वास्तव में खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपा रही हो। तुम्हारे व्यवहार को देखते हुए, तुम्हें बर्खास्त किया जाता है। लेकिन तुम चाहो तो पार्ट-टाइम डिजाइन का काम कर सकती हो। अगर तुम पश्चात्ताप करोगी तो हम तुम्हें भविष्य में वापस ले लेंगे।" अगुआ द्वारा मेरे खुलासे से मैं अवाक रह गई। दरअसल मैं अपना कर्तव्य ऐसे ही निभा रही थी, लेकिन अचानक मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी। मैं उस सच्चाई को तुरंत स्वीकार नहीं पाई। मैंने माना कि मैंने अपने काम में देरी की थी और इससे नुकसान भी हुआ था। मैं बहुत दुखी थी, पछता रही थी और खुद को फटकार रही थी, महसूस हुआ कि परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव इंसान द्वारा अपमान सहन नहीं करता। परमेश्वर किसी में यह नहीं देखता कि उसका व्यवहार कितना अच्छा है या वह कितना व्यस्त है। वह सत्य और कर्तव्य के प्रति उसका दृष्टिकोण देखता है। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया बहुत ही ढीला था, मैं बेमन और धीमी गति से काम कर रही थी, लोगों को मेरे पीछे पड़ना पड़ता था। निपटे जाने के बाद भी मैं नहीं बदली, परमेश्वर मुझसे घृणा करता था। मेरी बर्खास्तगी परमेश्वर की ताड़ना और अनुशासन था। दोष मेरा ही था, जो बोया था वही काट रही थी। मैं समर्पित होने, आत्मचिंतन करने, और अपने पिछले अपराधों के लिए पश्चात्ताप करने को तैयार थी। लेकिन मुझे यह समझ नहीं आया कि पहले तो मैं अपना काम अच्छे से करना चाहती थी, तो फिर मैं अपना काम ऐसे क्यों करने लगी? उसका क्या कारण था? उसी उलझन में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे प्रबुद्ध करे ताकि मैं अपनी समस्या समझ सकूँ।
भक्ति कार्य में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "वास्तव में, यदि तुम लोग अपना कर्तव्य ईमानदारी और जिम्मेदारी से निभाओ, तो तुम लोग पांच-छह साल में ही अपने अनुभवों की बात करने लगोगे और परमेश्वर की गवाही दोगे, और विभिन्न कलीसियाओं का कार्य प्रभावशाली ढंग से किया जाएगा। लेकिन तुम लोग परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होने को तैयार नहीं हो और न ही तुम सत्य पर चलने का प्रयास करते हो। कुछ चीजें हैं जिन्हें कैसे करना है यह तुम लोग नहीं जानते, इसलिए मैं तुम्हें सटीक निर्देश देता हूँ। तुम लोगों को सोचना नहीं है, तुम्हें बस सुनना है और काम शुरू कर देना है। बस तुम्हें इतनी-सी जिम्मेदारी उठानी है—पर तुम लोगों से यह भी नहीं होता है। तुम लोगों की वफादारी कहाँ है? यह कहीं दिखाई नहीं देती! तुम लोग सिर्फ कर्णप्रिय बातें करते हो। मन ही मन में तो तुम लोग जानते हो कि तुम्हें क्या करना चाहिए, लेकिन तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते। यह परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह है, इसके मूल में सत्य से प्रेम का अभाव है। दिल ही दिल में तुम लोग अच्छी तरह जानते हो कि सत्य के अनुसार कैसे कार्य करना है—लेकिन तुम इसे अभ्यास में नहीं लाते। यह एक गंभीर समस्या है; तुम सत्य का अभ्यास करने के बजाय उसे घूरते रहते हो। तुम परमेश्वर का आज्ञापालन करने वाले इंसान नहीं हो। परमेश्वर के घर में कार्य करने के लिए, तुम्हें कम से कम सत्य की खोज और उसका अभ्यास करना चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। यदि तुम अपने काम में सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते, तो फिर इसका अभ्यास कहाँ करोगे? और यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते हो, तो तुम गैर-विश्वासी हो। यदि तुम लोग सत्य नहीं स्वीकारते—सत्य का अभ्यास तो बिल्कुल नहीं करते—और परमेश्वर के घर में बस जैसे-तैसे काम करते हो, तो असल में तुम्हारा मकसद क्या है? क्या तुम परमेश्वर के घर को अपना सेवानिवृत्ति घर या दानशाला बनाना चाहते हो? यदि ऐसा सोच रहे हो, तो यह तुम्हारी भूल है—परमेश्वर का घर मुफ्तखोरों और उड़ाने-खाने वाले लोगों के लिए नहीं है। जिन लोगों की इंसानियत अच्छी नहीं है, जो खुशी-खुशी अपना कर्तव्य नहीं निभाते, जो कर्तव्य निभाने योग्य नहीं हैं, उन सबको हटा दिया जाना चाहिए; जो गैर-विश्वासी सत्य बिलकुल नहीं स्वीकारते, उन्हें निकाल दिया जाना चाहिए। कुछ लोग सत्य समझते तो हैं लेकिन कर्तव्य निभाते हुए उसे अमल में नहीं लाते। समस्या देखकर भी वे उसका समाधान नहीं करते और जब उन्हें पता होता है कि अमुक चीज उनकी जिम्मेदारी है, तो वे उसे अपना सर्वस्व नहीं देते। जिन जिम्मेदारियों को तुम निभाने के काबिल होते हो, जब तुम उन्हें नहीं निभाते हो, तो तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का क्या मूल्य या प्रभाव रह जाता है? क्या इस तरह से परमेश्वर में विश्वास रखना सार्थक है? अगर कोई व्यक्ति सत्य समझकर भी उस पर अमल नहीं करता, उन कठिनाइयों को सह नहीं पाता जो उसे सहनी चाहिए, तो ऐसा व्यक्ति कार्य करने योग्य नहीं होता। कुछ लोग सिर्फ पेट भरने के लिए काम करते हैं। वे भिखारी होते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे परमेश्वर के घर में कुछ काम करेंगे, तो उनके रहने और जीविका का ठिकाना हो जाएगा, बिना नौकरी के ही उनके लिए हर चीज की व्यवस्था हो जाएगी। क्या ऐसी सौदेबाजी जैसी कोई चीज होती है? परमेश्वर का घर आवारा लोगों की व्यवस्था नहीं करता। यदि कोई व्यक्ति सत्य का थोड़ा भी अभ्यास नहीं करता, वह लगातार लापरवाह और बेमन से काम करता है और खुद को परमेश्वर का विश्वासी कहता है, तो क्या परमेश्वर उसे स्वीकारेगा? ऐसे तमाम लोग गैर-विश्वासी होते हैं और जैसा कि परमेश्वर उन्हें समझता है, वे दुष्टता करने वाले होते हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए व्यक्ति में कम से कम जमीर और विवेक तो होना ही चाहिए)। ऐसा लगा जैसे परमेश्वर के वचन मुझे ही उजागर कर रहे हैं। उसने हूबहू मेरा काम करने का अंदाज बयाँ किया। जो कुछ हुआ था, उस पर मैंने एक-एक कर विचार किया। जब मैंने देखा कि निरीक्षक मेरे काम का जायजा नहीं ले रही, तो मैंने धूर्त और चालाक बनकर उसका फायदा उठाना शुरू कर दिया। खाली न रहती पर काम कम करती। खाली समय में, मैं अपने जीवन प्रवेश या अपने कर्तव्य में आ रही समस्याओं के बारे में नहीं सोचती थी, बल्कि उत्सुकतावश समाचार देखती थी—मेरे मन में कुछ भी सही नहीं था। इससे अनजान थी कि मैं काम में देरी कर रही हूँ। निरीक्षक द्वारा कांट-छांट और निपटारे के बाद मैंने अपनी कार्य-कुशलता में थोड़ा सुधार किया, लेकिन मैं बर्खास्तगी से बचने के लिए जबरन काम कर रही थी। उसकी निगरानी और निरीक्षण को लेकर मुझमें विरोध और नाराजगी थी और मैं अपने कार्यभार से भी खुश नहीं थी। मुझे लगता जैसे यह बिना लाभ का और मुश्किल काम है। साथ काम करने वाली बहनों में से एक का मन काम में नहीं था, वह उसे अटका रही थी, लेकिन मैंने आंखें मूंद लीं। मुझे लगा कि मैं अपने काम में ईमानदार नहीं थी। मैं सत्य का अभ्यास नहीं कर रही थी, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील नहीं थी। मुझे सिर्फ दैहिक सुख-सुविधाओं और आराम की परवाह थी। मैं कलीसिया पर पलने वाली परजीवी थी। मुझमें न अंतरात्मा थी, न ही विवेक था! मैं उन गैर-विश्वासियों से अलग नहीं थी जो सिर्फ अपना पेट भरने और आशीष पाने की फिराक में रहते हैं। मेरे उस ढंग से काम न करने की वजह यह नहीं थी कि मुझे काम की समझ नहीं थी या सही कौशल नहीं था। इसकी वजह थी इंसानियत की कमी, सत्य का अनुसरण न करना, और दैहिक सुख-सुविधाओं की लालसा। मैं कलीसिया में कार्य करने योग्य थी ही नहीं।
मैंने आत्मचिंतन के दौरान परमेश्वर के ये वचन पढ़े। "परमेश्वर के सभी चुने हुए लोग अब अपने कर्तव्यों का पालन करने का अभ्यास कर रहे हैं, परमेश्वर लोगों के एक समूह को पूर्ण करने और दूसरे को निकालने के लिए उनके कर्तव्यों के प्रदर्शन का उपयोग करता है। तो कर्तव्य-प्रदर्शन हर तरह के व्यक्ति को उजागर करता है, हर तरह का धोखेबाज, गैर-विश्वासी और दुष्ट व्यक्ति अपने कर्तव्य-प्रदर्शन में उजागर हो जाता है और उसे निकाल दिया जाता है। पूरी निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाने वाले लोग ईमानदार होते हैं; निरंतर अपने कार्य में लापरवाही करने और अनमने रहने वाले लोग धोखेबाज और शातिर होते हैं और वे गैर-विश्वासी होते हैं; अपना कार्य करते हुए परेशानी और बाधा पैदा करने वाले लोग दुष्ट और मसीह-विरोधी होते हैं। ... सभी लोग अपने कर्तव्यों का पालन करते समय उजागर हो जाते हैं—बस किसी व्यक्ति को कोई कार्य सौंप दो, तुम्हें यह जानने में अधिक समय नहीं लगेगा कि वह व्यक्ति ईमानदार है या धोखेबाज, वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखते हैं; जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे परमेश्वर के घर के कार्य को जरा भी कायम नहीं रखते और अपने कर्तव्यों का पालन करने में भी गैर-जिम्मेदार होते हैं। जिनकी आँखें होती हैं, उन्हें यह दिखाई देता है। जो लोग अपने कर्तव्य का पालन अच्छे से नहीं करते, उन्हें सत्य से प्रेम नहीं होता या वे ईमानदार व्यक्ति नहीं होते; ऐसे लोग उजागर किए जाने और निकाले जाने के लक्ष्य होते हैं। अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने के लिए लोगों में जिम्मेदारी और भार-वहन की भावना होनी चाहिए। ऐसे में काम ठीक से न होने का सवाल ही नहीं उठता। ऐसा होना नहीं चाहिए पर यदि किसी में भार-वहन या जिम्मेदारी की भावना न हो, उससे हर काम कह-कहकर कराया जाए, वह हमेशा हड़बड़ाहट और लापरवाही से काम करे और जब समस्या पैदा हो, तो दूसरों को दोष देने की कोशिश करे, जिससे समस्याएँ खिंचती चली जाएँ और अनसुलझी रह जाएँ—तो क्या ऐसी स्थिति में काम ठीक से किया जा सकता है? क्या ऐसे काम का कुछ परिणाम हो सकता है? ऐसे लोग दिए गए कार्य नहीं करना चाहते, ऐसे लोग जब देखते हैं कि दूसरों को अपने काम में सहायता की आवश्यकता है, तो भी उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता। जब उन्हें काम करना ही पड़ता है, कोई और रास्ता नहीं होता, तभी वे लोग थोड़ा-बहुत काम करते हैं। यह कोई कर्तव्य-निर्वहन नहीं है—यह तो भाड़े का मजदूर होना है! भाड़े का मजदूर अपने मालिक के लिए काम करता है, दिहाड़ी मजदूरी पर काम करता है, जितने घंटे काम किया, उतने घंटे का वेतन ले लिया। वह बस मजदूरी की बाट जोहता रहता है। वह ऐसा कोई भी काम करना नहीं चाहता जिसे मालिक न देखे, वह डरता है कि उसे अपने हर काम के लिए इनाम नहीं मिलेगा, वह महज दिखावे के लिए काम करता है—यानी उसमें वफादारी नाम की कोई चीज नहीं होती" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, ईमानदार होकर ही व्यक्ति सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। "परमेश्वर में विश्वास करना जीवन में सही रास्ते पर चलना है, इंसान को सत्य का अनुसरण करना चाहिए। यह आत्मा और जीवन की बात है, यह अविश्वासियों के धन और महिमा के पीछे भागने और अपना नाम अमर करने से भिन्न है। ये बिल्कुल अलग रास्ते हैं। कार्य करते समय, अविश्वासी यही सोचता है कि कैसे वह कम काम करके अधिक पैसा कमा ले, अधिक पैसा कमाने के लिए वह और क्या चाल चल सकता है। वह दिन भर यही सोचता रहता है कि कैसे अमीर बनकर ढेर सारी दौलत इकट्ठा कर ले, वह अपने लक्ष्य को पाने के लिए हथकंडे तक अपनाता है। यह बुराई का, शैतान का मार्ग है और अविश्वासी लोग इसी मार्ग पर चलते हैं। परमेश्वर के विश्वासी सत्य के मार्ग पर चलकर जीवन प्राप्त करते हैं; यह परमेश्वर का अनुसरण करने और सत्य प्राप्त करने का मार्ग है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, ईमानदार होकर ही व्यक्ति सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)।
मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि अविश्वासियों का कार्य लेन-देन होता है—यह पैसा कमाने और स्वार्थ के लिए होता है। वे बिना कुछ किए ही पैसा कमाना चाहते हैं। काम की जाँच होने पर वे दिखाने के लिए काम करने लगते हैं, जब कोई नहीं देखता, तो वे धूर्त और कपटी बन जाते हैं। उनके काम की स्थिति कुछ भी हो, उन्हें चिंता नहीं होती। उन्हें तो बस पैसा चाहिए। मैं बिल्कुल वैसी ही थी। जब काम में कोई दबाव या कठिनाई न होती, कोई कष्ट न उठाने होते, कोई कीमत न चुकानी होती, तो मुझे लगता कि यह उतना बुरा भी नहीं है। मुझे लगता अगर मैं खाली नहीं हूँ और कुछ काम कर रही हूँ, तो मुझे निकाला नहीं जाएगा, कलीसिया में रहने की पात्रता बनी रहेगी और अंत में बचा ली जाऊँगी, तो यह एक तीर से दो निशाने होंगे। मैं आलसी नहीं दिखती थी, लोगों को भी कोई समस्या नहीं दिखती थी, लेकिन मैं पूरी लगन से काम नहीं कर रही थी—बस थोड़े-से काम से ही संतुष्ट थी। मैं बाकी समय महत्वहीन जानकारी खोजती रहती, कुछ नया पाने के लिए बेकार की चीजों के पीछे भागती थी। मैं समय बर्बाद कर रही थी। यह अविश्वासी का अपने मालिक के लिए काम करने जैसा था। जब हमारे काम में देरी होती, तो मैं ऐसा दिखाती जैसे कोई बड़ी बात न हो, मुझमें काम जल्दी करने का भाव नहीं था। जब मेरा निपटारा और खुलासा हुआ, तो शर्मिंदगी और बर्खास्तगी से बचने के लिए मैं थोड़ा और प्रयास किया, लेकिन जैसे ही मानदंड बढ़ाए गए, मैं विरोध और शिकायत करने लगी, आसान और आरामदेह काम खोजने लगी। ऐसा लगता जैसे मैं अपना काम कर रही हूं, लेकिन मैं सिर्फ निरीक्षक को दिखाने के लिए काम करती। मुझमें अपने काम या परमेश्वर के प्रति कोई ईमानदारी नहीं थी। स्वर्ग के राज्य की आशीषों के बदले छोटी कीमत चुकाना चाहती थी। यह परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश थी। सोचा नहीं था कि बरसों काम करके भी मैं एक धूर्त और चालाक के रूप में उजागर की जाऊँगी। मैंने परमेश्वर की कृपा और उसके वचनों के पोषण का आनंद लिया था, लेकिन मैं आसान और आरामदायक काम चाहती थी, ऐसा काम जिसमें मुझे कोई कष्ट न हो, मुझे कलीसिया के कार्य या परमेश्वर की तात्कालिक इच्छा की चिंता नहीं थी। परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं थी। यह कर्तव्य-निर्वहन कैसे हुआ? मैं कलीसिया के काम को अटका रही थी, अवसरवादी थी और कलीसिया में मुफ्तखोर थी। आत्मचिंतन कर मुझे एहसास हुआ कि मैं शैतानी दर्शन को कायम रखने वाली स्वार्थी इंसान हूँ, जैसे "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "एक व्यक्ति बेहतरीन भोजन और कपड़ों के लिए अधिकारी बनता है," और "जिंदगी छोटी है; जब तक हो सके आनंद उठाएँ।" ये बातें मेरा जीवन बन गई थीं। इन फलसफों के अनुसार जीते हुए, मैं अपने कार्यों में केवल दैहिक हितों की सोचती थी। मुझे लगता कि हमें जीवन में अपने आप पर दया करनी चाहिए, मेहनत करके खुद को थकाने का कोई मतलब नहीं है। आजादी और आराम-तलब जिंदगी बेहतर है, खुद को थकाना हारना है। अपने काम को लेकर मेरा यही रवैया रहा है, लापरवाह और आलसी रहना, जिससे कलीसिया के काम में देरी हुई, मेरा चरित्र बर्बाद हुआ। मैं विश्वासी थी, लेकिन परमेश्वर के वचनों का अभ्यास न करके शैतान की भ्रांतियों के अनुसार जी रही थी, स्वार्थी, चालाक और भ्रष्ट होती जा रही थी। मेरा कोई चरित्र या गरिमा नहीं थी, मैं भरोसे लायक नहीं थी। अगर कोई अविश्वासी भी अवसरवादी मानसिकता लेकर कोई काम करता है, तो शायद वह कुछ समय तक इसमें कामयाब हो जाए, लेकिन थोड़े समय बाद लोग उसे पहचान जाएँगे। मैं तो कलीसिया में कर्तव्य निभा रही थी, ठीक परमेश्वर के सामने, जो लोगों के दिलो-दिमाग देखता है। मैं कपट और चालबाजी कर रही थी, कुछ समय तक मेरी हरकतें छिपी रहीं, फिर भी परमेश्वर ने सब साफ देख लिया था। कि मैं खुद को खपा नहीं रही हूँ, बस यूँ काम चला रही हूँ। उस समय मुझे लगा—कोई आश्चर्य नहीं कि मैं उनींदी रहती थी, परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं कर पाती थी। इसका कारण था मेरी चालाकी और धोखेबाजी, जिससे परमेश्वर को घृणा है। उसने पहले ही मुँह मोड लिया था। पवित्र आत्मा के कार्य के बिना, मैं बहुत सुन्न हो गई थी, मैं काम में कितनी भी अच्छी या अनुभवी रहूँ, मैं अच्छा काम नहीं कर सकती थी।
बाद में मैंने परमेश्वर के और भी वचन पढ़े जिनसे अपने काम में लापरवाह होने की मेरी प्रकृति स्पष्ट हो गई और मैं देख पाई कि परमेश्वर का स्वभाव अलंघनीय है। परमेश्वर कहते हैं, "तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दण्डित किया जाना चाहिए। इसे स्वर्ग द्वारा आदेशित और पृथ्वी द्वारा स्वीकार किया गया है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए; यह उनका सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीक़े से विश्वासघात कर रहे हो, और तुम यहूदा से भी अधिक शोकजनक हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए। परमेश्वर के सौंपे हुए कार्य को कैसे लिया जाए, लोगों को इसकी एक पूरी समझ पानी चाहिए, और उन्हें कम से कम यह बोध होना चाहिए कि वह मानवजाति को जो आदेश देता है वे परमेश्वर से मिले उत्कर्ष और विशेष कृपाएँ हैं, ये सबसे महिमावान बातें हैं। अन्य सब कुछ छोड़ा जा सकता है; यहाँ तक कि अगर किसी को अपना जीवन भी बलिदान करना पड़े, तो भी उसे परमेश्वर के आदेश को पूरा करना चाहिए" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। "एक बार, मैंने किसी को कोई काम सौंपा। जब मैंने उसे काम समझाया, तो उसने ध्यान से उसे लिख लिया। मैंने देखा कि वह बहुत सावधानी से लिख रहा था—वह काम के प्रति दायित्व महसूस करता और एक सावधान, जिम्मेदार रवैया अपनाता प्रतीत होता था। उसे काम समझाकर मैं आगे की जानकारी मिलने की प्रतीक्षा करने लगा; दो हफ्ते बीत गए, लेकिन उसने कुछ नहीं बताया। इसलिए मैंने उसका पता लगाने की जिम्मेदारी खुद उठाई, और पूछा कि मैंने उसे जो कार्य दिया था, वह कैसा चल रहा है। उसने कहा, 'ओह, नहीं—मैं तो उसके बारे में भूल ही गया! फिर से बताना, वह क्या था।' तुम लोग उसके जवाब के बारे में कैसा महसूस करते हो? काम करते हुए उसका यही रवैया था। मुझे लगा, 'यह व्यक्ति भरोसे के लायक बिल्कुल नहीं है। मुझसे फौरन दूर हो जाओ! मैं तुम्हें दोबारा नहीं देखना चाहता!' मुझे ऐसा ही महसूस हुआ। इसलिए, मैं तुम लोगों को एक तथ्य बताता हूँ : तुम्हें परमेश्वर के वचन कभी किसी चालबाज के झूठ से नहीं जोड़ने चाहिए—ऐसा करना परमेश्वर के लिए घृणास्पद है। कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि वे अपने वचन के पक्के हैं, कि वे अपना वादा जरूर निभाते हैं। अगर ऐसा है, तो जब परमेश्वर के वचनों की बात आती है, तो क्या वे उन्हें सुनकर वैसा कर सकते हैं, जैसा उन वचनों में कहा गया है? क्या वे उन्हें उतनी ही सावधानी से पूरा कर सकते हैं, जितनी सावधानी से वे अपने निजी कार्य पूरे करते हैं? परमेश्वर का हर वाक्य महत्वपूर्ण होता है। वह मजाक में नहीं बोलता। वह जो कहता है, लोगों को उसे पूरा करना और कार्यान्वित करना चाहिए। जब परमेश्वर बोलता है, तो क्या वह लोगों से परामर्श करता है? निश्चित रूप से नहीं करता। क्या वह तुमसे बहुविकल्पी प्रश्न पूछता है? निश्चित रूप से नहीं पूछता। अगर तुम समझ पाओ कि परमेश्वर के वचन और कार्य आज्ञाएँ हैं, जिनका लोगों द्वारा पालन और कार्यान्वयन किया जाना चाहिए, तो तुम पर उनका पालन और कार्यान्वयन करने का दायित्व है। अगर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर के वचन केवल एक मजाक हैं, केवल आकस्मिक टिप्पणियाँ हैं, जिनका पालन किया सकता है—या नहीं भी किया जा सकता—जैसा मन करे, और तुम उनके साथ वैसे ही पेश आते हो, तो तुम बहुत नासमझ हो और इंसान कहे जाने लायक नहीं हो। परमेश्वर तुमसे फिर कभी बात नहीं करेगा। अगर कोई व्यक्ति हमेशा परमेश्वर की अपेक्षाओं, उसके आदेशों और कार्यों के संबंध में अपने चुनाव खुद करता है और उनके साथ बेमन से पेश आता है, तो वह ऐसा व्यक्ति है जिससे परमेश्वर घृणा करता है। जो चीजें मैं तुम्हें सीधे आदेश देकर सौंपता हूँ, उनमें अगर तुम हमेशा यह अपेक्षा करते हो कि मैं तुम्हारी निगरानी करूँ, तुमसे आग्रह करूँ, तुमसे उनके बारे में पूछता रहूँ, और हमेशा मुझे चिंता और पूछताछ करने के लिए बाध्य करते हो, मेरे लिए हर मोड़ पर जाँच-पड़ताल करते रहना जरूरी बनाते हो, तो फिर तुम्हें निकाल दिया जाना चाहिए" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसकी आज्ञा का पालन किया (भाग दो))। मैंने परमेश्वर के वचनों से यह सीखा कि वह जो कुछ भी कहता है, जो भी अपेक्षा करता है एक सृजित प्राणी को उसे पूरा और उसका पालन करना चाहिए। अगर हम परमेश्वर के वचनों को गंभीरता से न लें, हमेशा काम में दूसरों की निगरानी और चेतावनी की जरूरत पड़े, या हम बेमन से और दूसरों के विवश करने पर थोड़ा-बहुत काम करें, तो यह परमेश्वर से कपट और धोखा करना है, इससे परमेश्वर को घृणा है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के वचन सुनने या कलीसिया में रहने योग्य नहीं, उसे निकाल देना चाहिए। मैं परमेश्वर के वचनों पर, विशेषकर इस भाग पर, विचार कर डर गई, जहाँ वह कहता है, "यह व्यक्ति भरोसे के लायक बिल्कुल नहीं है। मुझसे फौरन दूर हो जाओ! मैं तुम्हें दोबारा नहीं देखना चाहता!" अपने पिछले बुरे कामों पर मुझे अफसोस हुआ, खुद को दोषी महसूस किया, मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे। अपने काम के प्रति मेरा रवैया वैसा ही था जैसा परमेश्वर ने उजागर किया था; बेहद लापरवाही भरा। राज्य के सुसमाचार के विस्तार के लिए यह बेहद अहम समय है सभी भाई-बहन काम करने के लिए पूरे जोश में हैं। लेकिन मुझे अपनी दैहिक सुख-सुविधाओं का लालच था, मैं बड़े इत्मीनान और बेमन से अपना काम कर रही थी, मैं बस सेवा करके ही संतुष्ट थी और निपुण बनने की कोशिश नहीं की, इसका असर मेरे कार्य-परिणामों पर पड़ा। मैं आलसी थी, काम की उपेक्षा कर इधर-उधर भटकती थी, बस अपनी संतुष्टि की सोचती थी। कलीसिया ने मुझे इतना महत्वपूर्ण काम सौंपा, पर मैंने कभी उसकी कद्र कर उसे गंभीरता से नहीं लिया। मैंने उसे अपनी पूंजी समझकर, कलीसिया पर जीने के लिए सौदेबाजी की, न तो मैंने कीमत चुकाई, न कष्ट सहा, न काम को बेहतर बनाने का सोचा। मैं कम से कम काम कर रही थी। मुझे अपनी धीमी प्रगति या परमेश्वर की अत्यावश्यक इच्छा की परवाह नहीं थी। मुझे तो बस खुद को थकाना नहीं था। मैं कर्तव्य में लापरवाह थी, ध्यान नहीं देती थी, बस धीरे-धीरे कामचलाऊ काम करती थी। मेरे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई जगह या उसके प्रति कोई श्रद्धा नहीं थी। अपने कर्तव्य के प्रति इतनी लापरवाही के कारण क्या मैं कुत्ते से भी बदतर नहीं थी? कुत्ते मालिकों के प्रति वफादार होते हैं। उनका मालिक साथ हो या न हो, वे जिम्मेदारी निभाते हुए मालिक के घर की रखवाली करते हैं। अपनी हरकतों के कारण मैं उस काम में बने रहने के काबिल नहीं थी। मैंने उस दिन कसम खाई कि मैं प्रायश्चित कर सारी भरपाई कर कर्ज चुकाऊँगी।
भक्ति-कार्य में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे अपना कर्तव्य निभाने का मार्ग दिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "एक बार जब परमेश्वर ने जहाज बनाने के आदेश जारी कर दिए तो नूह ने अपने मन में क्या सोचा? उसने सोचा, 'आज से, जहाज बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ नहीं है, इससे अहम और जरूरी कुछ नहीं है। मैंने सृष्टिकर्ता के हृदय से वचन सुने हैं, और मैंने उसकी प्रबल इच्छा को भी अनुभव किया है, इसलिए अब मुझे विलंब नहीं करना चाहिए; मुझे उस जहाज का निर्माण करना चाहिए जिसके बारे में परमेश्वर ने कहा था और जिसे परमेश्वर ने तुरंत बनाने के लिए आदेश दिया था।' नूह का रवैया कैसा था? उपेक्षा करने की हिम्मत न करना वाला। और उसने किस प्रकार जहाज बनाया? बिना विलंब किए। लापरवाही या बेमन से काम न करते हुए, परमेश्वर ने उसे जो भी निर्देश दिए थे उसने हर विवरण को शीघ्रता से, अपनी सारी ऊर्जा के साथ पूरा कर दिया। संक्षेप में, सृष्टिकर्ता के आदेश के प्रति नूह का रवैया आज्ञाकारिता का था। उसके प्रति वह बेपरवाह नहीं था, उसके हृदय में कोई प्रतिरोध का भाव नहीं था, न ही उदासीनता थी। बल्कि, हर विवरण को दर्ज करते समय उसने सृष्टिकर्ता की इच्छा को पूरी लगन से समझने की कोशिश की। जब उसने परमेश्वर की उत्कट इच्छा को समझ लिया, तो उसने तेजी से काम करने का फैसला किया, उस कार्य को पूरा करना तय किया जो परमेश्वर ने उसे शीघ्रता में करने को सौंपा था। 'शीघ्रता में' के क्या मायने हैं? इसके मायने हैं कि काम को कम से कम समय में पूरा करना, जिसमें पहले एक महीने का समय लगता, उसे समय से तीन या पांच दिन पहले पूरा कर लेना, ढिलाई न करना, टालमटोल बिल्कुल न करना बल्कि भरसक प्रयास करते हुए परियोजना को आगे बढ़ाना। स्वाभाविक रूप से, प्रत्येक कार्य को करते समय, वह नुकसान और त्रुटियों को कम करने की पूरी कोशिश करता था और ऐसा कोई काम नहीं करता था जिसे फिर से करना पड़े; वह गुणवत्ता की गारंटी देते हुए प्रत्येक कार्य और प्रक्रिया को भी समय पर और अच्छी तरह से पूरा कर लेता था। यह तत्परता से कार्य करने की सच्ची अभिव्यक्ति थी। तो ढिलाई न दिखाने की पूर्वापेक्षा क्या थी? (उसने परमेश्वर की आज्ञा सुनी थी।) हाँ, यही उसकी इस उपलब्धि की पूर्वापेक्षा और संदर्भ था। नूह ने ढिलाई क्यों नहीं दिखाई? कुछ लोग कहते हैं कि नूह में सच्ची आज्ञाकारिता थी। तो, उसमें ऐसा क्या था जिसके कारण उसमें सच्ची आज्ञाकारिता आई? (वह परमेश्वर की इच्छा के प्रति जागरूक था।) यह सही है! दिल होने का यही मतलब है! दिल रखने वाले लोग परमेश्वर की इच्छा के प्रति जागरूक रह पाते हैं; हृदयविहीन लोग खाली खोल होते हैं, मसखरे होते हैं, वे परमेश्वर की इच्छा के प्रति जागरूक होना नहीं जानते : 'मुझे परवाह नहीं कि यह परमेश्वर के लिए कितना जरूरी है, मैं तो वही करूँगा जो मैं चाहता हूँ—वैसे मैं आलस या निकम्मापन नहीं दिखा रहा।' ऐसा रवैया, ऐसी नकारात्मकता, सक्रियता का पूर्णतया अभाव—यह ऐसा इंसान नहीं जो परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत है, न ही वह यह समझता है कि परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत कैसे रहे। इस स्थिति में, क्या उसमें सच्चा विश्वास होता है? बिल्कुल नहीं। नूह परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत था, उसमें सच्चा विश्वास था, और इस प्रकार परमेश्वर के आदेश को पूरा कर पाया। तो केवल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करना और कुछ प्रयास करने का इच्छुक रहना ही पर्याप्त नहीं होता। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत रहते हुए सर्वस्व देकर समर्पित हो जाना चाहिए—इसके लिए जरूरी है कि लोगों में अंतःकरण और समझ हो; यही लोगों में होना चाहिए और यही नूह में था" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण तीन : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचन सुने और उसकी आज्ञा का पालन किया (भाग दो))। वचनों से जाना कि नूह ने परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त की क्योंकि उसे परमेश्वर में सच्चा विश्वास था और उसकी इच्छा का ध्यान था। परमेश्वर का आदेश पाकर उसने जहाज के निर्माण को प्राथमिकता दी। उसने अपने शारीरिक कष्टों के बारे में नहीं सोचा या यह कितना कठिन होगा। उस पूर्व-औद्योगिक युग में, विशाल जहाज बनाने के लिए उसे बहुत शारीरिक और मानसिक श्रम करना पड़ा होगा, लोगों का उपहास सहना पड़ा होगा। इन विकट परिस्थितियों में, परमेश्वर के आदेश के लिए नूह 120 वर्ष तक डटा रहा और अंतत: परमेश्वर को संतुष्ट किया। खुद को परमेश्वर के लिए खपाकर नूह उसके भरोसे का हकदार बना। और मैं कैसी थी, अगर कोई मुझे मजबूर न करे, मुझ पर नजर न रखे, तो मैं आलसी और धूर्त बनकर, दैहिक सुविधाओं का सुख भोगती रही, धीमी गति से काम करती, काम को अटकाती रही, इसकी परवाह न की। मैं मानवता से रहित थी, परमेश्वर के उद्धार के योग्य नहीं थी। अब मुझे पता था कि कर्तव्य-निर्वहन नूह के जहाज-निर्माण जैसा होना चाहिए, असल कार्य किया जाना चाहिए। मुझे हर पल का उपयोग करना चाहिए, अधिक कुशलता से काम करना चाहिए। कोई मजबूर न करे या नजर न रखे, तो भी मुझे काम के लिए जिम्मेदार होना चाहिए। विवेक और मानवता वाला व्यक्ति बनने का यही एकमात्र तरीका है।
उसके बाद मैंने समय-सूची बनाई। डिजाइन का काम न होने पर, मैं खाली समय में दूसरे कामों में मदद करने लगी मैं अपनी स्थिति पर नजर रखने लगी। मेरा हर दिन का कार्यक्रम व्यस्त रहता, इससे मुझे सुकून मिला, मैं अपने काम को पहले से ज्यादा समय देने लगी। अगर कभी कोई काम जल्दी खत्म हो जाता और फिर से सुस्ताने की इच्छा होती, या मेरे खराब समन्वय की वजह से काम बाधित होता तो मैं यह सोचती, कि मैं टीम की सदस्य तो हूँ नहीं और कोई मुझे ठेल नहीं रहा है, दूसरे, मैं अन्य कार्य में मदद कर ही रही हूँ, तो अगर डिजाइन का काम थोड़ा धीमा हो तो चलता है। इस तरह सोचा तो लगा कि मेरी स्थिति सही नहीं है मैंने उसके समाधान के लिए तुरंत सत्य खोजा। मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : "जब लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं तो वे दरअसल वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे परमेश्वर के सामने करते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य दिल से और ईमानदारी की भावना से निभाते हो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हो, तो क्या यह रवैया कहीं ज्यादा सही नहीं होगा? तो तुम इस रवैये को अपने दैनिक जीवन में कैसे व्यवहार में ला सकते हो? तुम्हें 'दिल से और ईमानदारी से परमेश्वर की आराधना' को अपनी वास्तविकता बनाना होगा। जब कभी भी तुम शिथिल पड़ना चाहते हो औरबिना रुचि के काम करना चाहते हो, जब कभी भी तुम धूर्तता से काम करना और आलसी बनना चाहते हो, और जब कभी तुम्हारा ध्यान बँट जाता है या तुम आनंद लेना चाहते हो, तो तुम्हें इन बातों पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए: इस तरह व्यवहार करके, क्या मैं विश्वास के नाकाबिल बन रहा हूँ? क्या यह कर्तव्य के निर्वहन में अपना मन लगाना है? क्या मैं ऐसा करके विश्वासघाती बन रहा हूँ? ऐसा करने में, क्या मैं उस आदेश के अनुरूप रहने में विफल हो रहा हूँ, जो परमेश्वर ने मुझे सौंपा है? तुम्हें इसी तरह आत्म-मंथन करना चाहिए। अगर तुम जान जाते हो कि तुम अपने कर्तव्य में हमेशा लापरवाह और असावधान रहते हो और विश्वासघाती हो, और तुमने परमेश्वर को चोट पहुँचाई है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें कहना चाहिए, 'मुझे उस क्षण लगा था कि यहाँ कुछ गड़बड़ है, लेकिन मैंने इसे समस्या नहीं माना; मैंने इसे बस लापरवाही से नजरअंदाज कर दिया। मुझे अब तक इस बात का एहसास नहीं हुआ था कि मैं वास्तव में लापरवाह और असावधान था, कि मैं अपनी जिम्मेदारी पर खरा नहीं उतरा। मुझमें सचमुच जमीर और विवेक की कमी है!' तुमने समस्या का पता लगा लिया है और अपने बारे में थोड़ा जान लिया है—तो अब तुम्हें खुद को बदलना होगा! अपना कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया गलत था। तुम उसके प्रति लापरवाह थे, मानो यह कोई अतिरिक्त नौकरी हो, और तुमने उसमें अपना दिल नहीं लगाया। अगर तुम फिर इस तरह लापरवाह और असावधान होते हो, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उसे तुम्हें अनुशासित करने देना चाहिए और ताड़ना देने देनी चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने के प्रति व्यक्ति की ऐसी ही इच्छा होनी चाहिए। तभी वह वास्तव में पश्चात्ताप कर सकता है। जब व्यक्ति का विवेक साफ होता है और अपना कर्तव्य निभाने के प्रति उसका रवैया बदल जाता है, तभी वह खुद को बदलता है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन करने में ही आगे का मार्ग है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे अभ्यास के मार्ग पर और स्पष्टता मिली। परमेश्वर द्वारा दिया गया कार्य हमारे लिए आदेश है। कोई हमारी निगरानी करे या न करे, हमें परमेश्वर की जांच को स्वीकार कर सर्वस्व देना चाहिए। अगर थोड़े से काम के लिए भी मुझे ठेलना पड़े, तो उसका अर्थ है समर्पण की कमी, यह दूसरों के लिए भी अपमानजनक है। मुझे ऐसा नहीं बने रहना है, मुझे परमेश्वर के प्रति श्रद्धा रख उसकी जांच को स्वीकारना है। मुझे सक्रिय होना चाहिए ताकि दूसरों को ठेलना न पड़े। जब दोनों कामों में व्यस्तता बढ़ी और मुझे कीमत चुकानी थी, तो मैंने कार्यक्रम को पहले व्यवस्थित कर लिया और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया कोशिश की कि इसे मन लगाकर करूँ। इस तरह से काम करने पर, थोड़े समय बाद ही मुझे काम में परिणाम मिलने लगे। मुझे पहले से ज्यादा मेहनत और ऊर्जा खर्च करनी पड़ती थी, लेकिन मुझे जरा भी थकावट महसूस नहीं हुई—शांति और सुकून मिला। जब काम के दौरान मुश्किलें आईं, तो मैंने सत्य खोजकर अप्रत्याशित लाभ प्राप्त किया। मैंने अपने तकनीकी कौशल और जीवन प्रवेश में भी प्रगति की।
जून 2021 में, एक दिन अगुआ ने मुझसे आकर कहा कि मुझे डिजाइन का काम फिर से सौंपा जा रहा है। मैं इतनी खुश हुई कि कुछ बोल नहीं पाई, बस परमेश्वर को दिल से धन्यवाद दिया। काम के बदलाव ने दिखा दिया कि मैं आलसी, स्वार्थी और नीच थी, मुझे खुद से घृणा होने लगी, मेरे मन में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा जागी। आज भी मैं कभी-कभी आलसी हो जाती हूँ, तब मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि वह मेरे मन पर नजर रखे अगर मैं लापरवाही, धूर्तता और नीचता करूँ तो मुझे तुरंत उजागर करे, फटकारे और अनुशासित करे। इस बात को व्यवहार में लाने पर, मेरी चालाकी और धोखेबाजी कम हो गई है, काम में अच्छे परिणाम मिले हैं। इससे थोड़ी थकावट हो जाती है, लेकिन मुझे संतोष भी मिलता है। अगुआ ने मुझसे कहा कि मैं पहले से काफी बेहतर काम कर रही हूँ। यह सुनकर मैं भावुक हो गई और प्रेरित भी हुई। अभी भी काफी नहीं था, मुझे और मेहनत करनी थी। परमेश्वर ने मुझे ताड़ना देकर अनुशासित किया, मैं उसकी आभारी हूँ, इससे काम के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदल गया।