29. मैं हमेशा दिखावा क्यों करती हूँ?

क्रिस्टीन, फ़िलीपीन्स

अगस्त 2021 में मैंने नए विश्वासियों के सिंचन का प्रशिक्षण लेना शुरू किया। चूँकि मैं अंग्रेजी शब्दों का उच्चारण ठीक से नहीं कर पाती थी, तो मुझे डर था कि जब मैं उनके साथ संगति करूँगी तो वे मुझे हिकारत से देखेंगे, तो आमतौर पर मैं उनसे मैसेज लिखकर बात करती थी। हालांकि, ऐसा करते रहने से सिंचन-कार्य की प्रगति प्रभावित होती थी। एक सभा में, एक बहन ने बताया कि उसकी अंग्रेजी अच्छी नहीं थी, लेकिन चाहती थी कि वह नए लोगों से मौखिक संगति करने में समर्थ हो ताकि उनकी विभिन्न धारणाओं और कठिनाइयों को समय पर हल कर सके, इसलिए वह मदद के लिए अनुवाद सॉफ्टवेयर का उपयोग करती थी। इस तरह वह यथासंभव बातचीत करके उनके साथ संगति कर सकती थी। जब मैंने इसकी तुलना काम के प्रति अपने रवैये से की तो मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। भले ही वह अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल पाती थी, लेकिन फिर भी वह नवागंतुकों के साथ बातचीत करने का तरीका खोजने में समर्थ हो गई थी। मेरी दिक्कत केवल इतनी थी कि मेरा उच्चारण मानक स्तर का नहीं था। वैसे मैं दिन-प्रतिदिन की बातचीत में ठीक थी, लेकिन मुझे बस इस बात का डर था कि नवागंतुक सोचेंगे मेरी अंग्रेजी अच्छी नहीं है और इसलिए मैं उनके साथ बोलकर बातचीत नहीं करना चाहती थी। इसका सीधा असर मेरे सिंचन-कार्य के परिणाम पर पड़ रहा था। अधिक से अधिक नए विश्वासी परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर रहे थे, इसलिए हमें अपने सिंचन-कार्य को अधिक बढ़ाकर, यथाशीघ्र सच्चे मार्ग पर नींव स्थापित करने में उनकी मदद करनी थी। लेकिन मुझे केवल अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की चिंता थी, इस बात की नहीं कि नवागंतुकों का सिंचन तुरंत कैसे किया जाए। मैंने परमेश्वर के इरादों पर राई-रत्ती विचार नहीं किया! तो मैंने प्रार्थना की कि मैं परमेश्वर पर भरोसा कर, मौखिक बातचीत के जरिये नवागंतुकों के साथ संवाद की कोशिश करने को तैयार हूँ। उसके बाद मैंने अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करना शुरू कर दिया, शुरुआत उन नए विश्वासियों से की जिन्हें मैं पहले से जानती थी। कुछ समय बाद, मौखिक बातचीत करने की मेरी झिझक जाती रही। मुझे याद है, एक बार मैं एक नए विश्वासी के साथ बातचीत कर रही थी, न केवल मैंने धाराप्रवाह अपनी बात कही, बल्कि उसकी समस्या भी हल कर दी। इस पर यकीन करना मुश्किल है—मैंने कभी सोचा नहीं था कि एक बार की मौखिक चर्चा कई दिनों के मैसेजों से कहीं अधिक प्रभावी हो सकती है।

जैसे-जैसे कलीसिया में नए सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी, अगुआ ने बहन मेविस और मुझे साथ में सिंचन-कार्य की जिम्मेदारी सौंप दी। जब मैंने इस इंतजाम के बारे में सुना तो मैं वाकई हैरान रह गई। मैंने अभ्यास करना शुरू ही किया था, मुझे परमेश्वर के काम के बारे में अभी भी बहुत से सत्य समझने थे और मेरी अंग्रेजी का स्तर भी औसत ही था। मैं इस तरह की जिम्मेदारी कैसे ले सकती थी? मेविस मुझसे अधिक समय से नए सदस्यों का सिंचन-कार्य कर रही थी, तो उसे हर तरह से अधिक अनुभव था। वह अंग्रेजी भी काफी अच्छी बोल लेती थी। मेरी वास्तविक क्षमताओं को देखते हुए अगर मैं उसकी साथी बनी, तो मेरे मुँह खोलते ही, क्या सच बाहर नहीं आ जाएगा? हो सकता है वह कहे कि सत्य पर मेरी संगति स्पष्ट नहीं है, कि मैं उस कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। मैं इन बातों को लेकर झल्ला ही रही थी कि मेविस काम पर चर्चा करने आई और मुझसे पूछा कि मेरी अंग्रेजी कैसी है। मैंने तुरंत कह दिया, “मेरी अंग्रेजी अच्छी नहीं है। मैं समझ तो सकती हूँ, लेकिन ठीक से बोल नहीं पाती। वैसे लिखने में ठीक हूँ।” उसने कहा, “तो तुम नए विश्वासियों के साथ सभा का समय व्यवस्थित करने की जिम्मेदारी संभाल लो और मैं उनके साथ संगति करने की जिम्मेदारी ले लेती हूँ। हम मिलकर काम कर सकते हैं।” मेविस को यह कहते सुनकर, मुझे लगा कि यह कहना कि मैं बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल पाती, एक अच्छा बहाना था, और अब मुझे सभाओं में कुछ बोलना नहीं पड़ेगा। अगर मैं चुप रहूँगी, तो मेरे दोष और कमियां कभी सामने नहीं आएंगी। फिर जब मेविस नए विश्वासियों का सिंचन-कार्य करेगी, तो मैं सुन-सुनकर सीखती रहूँगी और कुछ समय बाद जब चीजों पर मेरी पकड़ मजबूत हो जाएगी, तो फिर मैं भी उनके साथ मौखिक संवाद करने लगूँगी। इस तरह किसी को मेरी असलियत नहीं पता चलेगी।

जब पहली बार मेविस और मैंने मिलकर नए विश्वासियों का सिंचन-कार्य किया, तो मैंने देखा कि वह उनके साथ धाराप्रवाह अंग्रेजी में बातचीत कर रही है, मगर मैं “हैलो!” के अलावा और कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाई। हम इस बात पर सहमत थे कि सभा के बाद मैं नए विश्वासियों की समस्याओं और मुश्किलों को समझने और उन्हें यथाशीघ्र हल करने के लिए उनसे बात करूँगी, लेकिन मैं ऐसा करना नहीं चाहती थी। मुझे लगा मेविस के साथ अपनी पहली बातचीत में, वे उसकी अच्छी अंग्रेजी सुन चुके थे, वह सत्य पर स्पष्ट रूप से संगति भी कर सकती है। अब अगर उसके बाद वे मुझे अटक-अटककर अंग्रेजी में बात करते देखेंगे, तो उन्हें तुरंत एहसास होगा हममें कितना बड़ा अंतर है। तब वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मैंने इस पर बार-बार सोचा और आखिरकार मैंने मैसेज लिखकर भेजने के जरिये ही बातचीत जारी रखने का फैसला किया। उसके बाद, जिन नए विश्वासियों को मैं थोड़ा अच्छे से जानती थी, उनके साथ थोड़ी मौखिक बातचीत करती, बाकियों के साथ, मैं टाइप किए मैसेजों के जरिये ही बातचीत करती थी। लेकिन यह बातचीत का एक धीमा तरीका था। अक्सर जब मैं किसी नवागंतुक को संदेश भेजती, तो वे ऑनलाइन नहीं होते थे और जब उनका जवाब आता, तो मैं उस पर ध्यान न दे पाती। कुछ समस्याएँ जो केवल मौखिक बातचीत से कुछ मिनटों में हल की जा सकती थीं, कई-कई दिनों तक भी टाइप किए मैसेजों से उनका समाधान नहीं हो पाता था। जब हमने अपने कार्य की समीक्षा की, तब जाकर मुझे पता चला कि जिन नए विश्वासियों के लिए मैं जिम्मेदार थी, उनमें से लगभग आधे सामान्य रूप से सभाओं में शामिल ही नहीं हो रहे थे। मैं दंग रह गई। ऐसा कैसे हो सकता है? मेविस ने मुझसे पूछा, “तुम हमेशा नए विश्वासियों को मैसेज क्यों भेजती हो? उनसे सीधे बात क्यों नहीं करती?” मैं हाँ-हूँ करने लगी, कुछ बताना नहीं चाहती थी। मुझे पता था, अगर मैं समस्याएँ और कठिनाइयाँ हल करने के लिए उनसे सीधे बात करती, तो उनमें से कुछ विश्वासी सभाओं में आने लगते। लेकिन मैं अपनी कमजोरी दिखाने से डरती थी, इसलिए मैसेजों का सहारा लेती रही, जिसका नतीजा यह हुआ।

उस रात मैं बस करवटें बदलती रही और सो नहीं पाई। जितना सोचती मुझे उतना बुरा लगता। अगर नए विश्वासियों की उलझनें और विभिन्न धारणाएँ तुरंत हल नहीं की गईं, तो वे कभी भी आस्था से हट सकते हैं। यह कर्तव्य की गंभीर अवहेलना थी! मैंने ऐसे मामलों में मैसेज क्यों भेजे जिन्हें मिनटों में बातचीत से हल किया जा सकता था? ऐसा नहीं है कि मैं अंग्रेजी नहीं बोल सकती। कुछ ही समय पहले मैं मौखिक बातचीत कर चुकी थी, तो फिर अब मैं ऐसा क्यों नहीं कर रही थी? यह सोच-सोचकर कि मेरे ठीक से सिंचन-कार्य न करने की वजह से कुछ नए विश्वासी सामान्य रूप से सभाओं में शामिल नहीं हो रहे थे, मैंने खुद को दोषी महसूस किया। मैं बहुत परेशान हो गई, मैंने परमेश्वर से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना की, ताकि खुद को समझ सकूँ। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह अंश पढ़ा : “लोग स्वयं भी सृजित प्राणी हैं। क्या सृजित प्राणी सर्वशक्तिमान हो सकते हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकते हैं? क्या वे हर चीज में दक्षता हासिल कर सकते हैं, हर चीज समझ सकते हैं, हर चीज की असलियत देख सकते हैं, और हर चीज में सक्षम हो सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते। हालांकि, मनुष्यों में भ्रष्ट स्वभाव और एक घातक कमजोरी है : जैसे ही लोग किसी कौशल या पेशे को सीख लेते हैं, वे यह महसूस करने लगते हैं कि वे सक्षम हो गये हैं, वे रुतबे और हैसियत वाले लोग हैं, और वे पेशेवर हैं। चाहे वे कितने भी साधारण हों, वे सभी अपने-आपको किसी प्रसिद्ध या असाधारण व्यक्ति के रूप में पेश करना चाहते हैं, अपने-आपको किसी छोटी-मोटी मशहूर हस्ती में बदलना चाहते हैं, ताकि लोग उन्हें पूर्ण और निष्कलंक समझें, जिसमें एक भी दोष नहीं है; दूसरों की नजरों में वे प्रसिद्ध, शक्तिशाली, या कोई महान हस्ती बनना चाहते हैं, पराक्रमी, कुछ भी करने में सक्षम और ऐसे व्यक्ति बनना चाहते हैं, जिनके लिए कोई चीज ऐसी नहीं, जिसे वे न कर सकते हों। उन्हें लगता है कि अगर वे दूसरों की मदद माँगते हैं, तो वे असमर्थ, कमजोर और हीन दिखाई देंगे और लोग उन्हें नीची नजरों से देखेंगे। इस कारण से, वे हमेशा एक झूठा चेहरा बनाए रखना चाहते हैं। जब कुछ लोगों से कुछ करने के लिए कहा जाता है, तो वे कहते हैं कि उन्हें पता है कि इसे कैसे करना है, जबकि वे वास्तव में कुछ नहीं जानते होते। बाद में, वे चुपके-चुपके इसके बारे में जानने और यह सीखने की कोशिश करते हैं कि इसे कैसे किया जाए, लेकिन कई दिनों तक इसका अध्ययन करने के बाद भी वे नहीं समझ पाते कि इसे कैसे करें। यह पूछे जाने पर कि उनका काम कैसा चल रहा है, वे कहते हैं, ‘जल्दी ही, जल्दी ही!’ लेकिन अपने दिलों में वे सोच रहे होते हैं, ‘मैं अभी उस स्तर तक नहीं पहुँचा हूँ, मैं कुछ नहीं जानता, मुझे नहीं पता कि क्या करना है! मुझे अपना भंडा नहीं फूटने देना चाहिए, मुझे दिखावा करते रहना चाहिए, मैं लोगों को अपनी कमियाँ और अज्ञानता देखने नहीं दे सकता, मैं उन्हें अपना अनादर नहीं करने दे सकता!’ यह क्या समस्या है? यह हर कीमत पर इज्जत बचाने की कोशिश करने का एक जीवित नरक है। यह किस तरह का स्वभाव है? ऐसे लोगों के अहंकार की कोई सीमा नहीं होती, वे अपनी सारी समझ खो चुके हैं। वे हर किसी की तरह नहीं बनना चाहते, वे आम आदमी या सामान्य लोग नहीं बनना चाहते, बल्कि अतिमानव, असाधारण व्यक्ति या कोई दिग्गज बनना चाहते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है! जहाँ तक सामान्य मानवता के भीतर की कमजोरियों, कमियों, अज्ञानता, मूर्खता और समझ की कमी की बात है, वे इन सबको छिपा लेते हैं और दूसरे लोगों को देखने नहीं देते, और फिर खुद को छद्म वेश में छिपाए रहते हैं। ... क्या ऐसे लोग कल्पना-लोक में नहीं रहते हैं? क्या वे सपने नहीं देख रहे हैं? वे नहीं जानते कि वे स्वयं क्या हैं, न ही वे सामान्य मानवता को जीने का तरीका जानते हैं। उन्होंने एक बार भी व्यावहारिक मनुष्यों की तरह काम नहीं किया है। यदि तुम कल्पना-लोक में रहकर दिन गुजारते हो, जैसे-तैसे काम करते रहते हो, यथार्थ में रहकर काम नहीं करते, हमेशा अपनी कल्पना के अनुसार जीते हो, तो यह परेशानी वाली बात है। तुम जीवन में जो मार्ग चुनते हो वह सही नहीं है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर, मैंने जाना कि मैं दिखावा कर खुद को छिपा रही थी। मुझे डर था कि नए विश्वासी मेरी मौखिक अंग्रेजी अच्छी न होने के कारण, मुझे हिकारत से देखेंगे, इसलिए मैं उनसे बातचीत करने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी। जब से मैं और मेविस मिलकर काम कर रहे थे, मैंने देखा था कि उसकी अंग्रेजी बहुत अच्छी है और सत्य पर उसकी संगति भी मुझसे ज्यादा स्पष्ट है। मुझे लगा उसकी तुलना में मेरे भाई-बहन मुझे निराशाजनक पाएँगे, और मुझे डर था कि मेविस मेरी असलियत जान जाएगी, इसलिए मैं और भी ज्यादा दिखावा कर रही थी। मेविस के पूछने पर मैंने जानबूझकर कहा कि मेरी अंग्रेजी अच्छी नहीं है और मुझे मौखिक संगति न करने का बहाना मिल गया। जब भी हम दोनों मिलकर सिंचन-कार्य कर रहे होते, तो मैं कुछ नहीं बोलती थी। मैं अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर रही थी। और जब मैं नए विश्वासियों का सिंचन करती, तो सीधी बातचीत करने के बजाय उन्हें केवल मैसेज भेजती, यानी नए विश्वासियों की जो समस्याएं तुरंत हल हो जानी चाहिए थीं, वे हल नहीं हो रही थीं, इसलिए उनकी नकारात्मकता बनी रही और वे सभाओं में शामिल नहीं हुए। मैं अपना काम अटका रही थी। मैं इस डर से हमेशा खुद को छुपाती थी कि कहीं मेरी कमजोरियों का खुलासा न हो जाए। मैं पर्दे के पीछे से चीजें सीखकर, फिर सामने आकर सबको हैरान कर देना चाहती थी। मैं कितनी अहंकारी थी! मैं ईमानदारी से अपने दोषों और कमियों का सामना नहीं कर सकी, लेकिन मैं असाधारण और बाकियों से अलग दिखना चाहती थी। यह ठीक वैसा ही है जैसा परमेश्वर ने खुलासा किया था : “वे हर किसी की तरह नहीं बनना चाहते, वे आम आदमी या सामान्य लोग नहीं बनना चाहते, बल्कि अतिमानव, असाधारण व्यक्ति या कोई दिग्गज बनना चाहते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है!” मेरी बोलचाल की अंग्रेजी बहुत अच्छी नहीं थी, और मुझे नए विश्वासियों का सिंचन करते हुए ज्यादा समय नहीं हुआ था। मुझे सिंचन-कार्य का ज्यादा अनुभव नहीं था। कलीसिया ने मेरे लिए नए विदेशी विश्वासियों का सिंचन करने की व्यवस्था की थी और इससे मुझे अभ्यास करने का बहुत बढ़िया मौका मिला था जिसे मुझे सँजोना चाहिए था। लेकिन अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के बजाय, मैं हमेशा सिर्फ अपनी कमियाँ छिपाकर दिखावा करना चाहती थी, ताकि लोग मेरा सम्मान और सराहना करें। मुझमें न तो विवेक था और न ही आत्म-जागरूकता। मैं जानती थी कि मुझे नाटक करना और खुद को छिपाना बंद करना होगा। लोग चाहे जो भी सोचें, मुझे अपना कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए अपना घमंड छोड़ना होगा। यही बात मुझे अपने व्यवहार में लानी थी।

मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े जिनसे मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके बारे में कुछ छिपाना नहीं चाहिए और उन सभी के बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक; दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना; परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कुछ गुप्त न रखना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “परमेश्वर की उपस्थिति में तुम खुद को चाहे जैसे लुकाओ-छिपाओ या अपने को चाहे जिस रूप में गढ़ो, परमेश्वर को तुम्हारे सभी सबसे सच्चे विचारों और तुम्हारे अंदर सबसे गहरे, अंतरतम हिस्सों में छिपी चीजों की स्पष्ट समझ होती है; ऐसा एक भी इंसान नहीं है जिसकी गुप्त, आंतरिक चीजें परमेश्वर की जाँच से बच सकती हों(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर, मुझे समझ आया कि अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए पहला कदम है खुलकर बात करना, बहानेबाजी और दिखावा न करना, अपनी कमियाँ, दोष और अपने द्वारा प्रकट की गई भ्रष्टता को प्रकाश में लाना। मुझे भाई-बहनों और परमेश्वर के सामने सरल और ईमानदार बनना होगा और जमीन से जुड़ा रहना होगा। तभी अपने कर्तव्य में शांत और मुक्त हो पाऊंगी। इसे समझने से मुझे सत्य पर अमल करने का आत्मविश्वास और साहस मिला, तो मैंने अगुआ और मेविस से बात की; उन्हें अपनी स्थिति और समझ के बारे में खुलकर बताया। उन्होंने मुझे हिकारत से नहीं देखा, बल्कि अपनी समस्या समझने में मेरी मदद करने के लिए अपने अनुभवों के आधार पर धैर्यपूर्वक मेरे साथ संगति की। उसके बाद, जब मैंने नए विश्वासियों का सिंचन किया, और अब मैं कभी अपने अभिमान से बेबस नहीं थी। मैंने उनके साथ मौखिक बातचीत करने पर ध्यान दिया ताकि तुरंत उनकी उलझनें दूर कर सकूं। अगर कोई ऐसा शब्द होता, जिसे मैं समझ न पाती या जिसका उच्चारण मैं न कर पाती, तो मैं शब्दकोश या अनुवाद सॉफ्टवेयर का सहारा लेती। समय के साथ, मेरी बोलचाल की अंग्रेजी में सुधार हुआ। मुझे एहसास हुआ कि भाई-बहनों के साथ खुलकर संगति करने और खुद को न छिपाने या नकली न बनने से, मैं अपनी भ्रष्टता और दोषों के बारे में जान सकी थी और अपनी बुरी स्थिति को तुरंत बदल सकती थी। जैसे कि परमेश्वर कहता है : “अपनी बात खुलकर कैसे रखें, यह सीखना जीवन-प्रवेश करने की दिशा में सबसे पहला कदम है और यही वह पहली बाधा है जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैंने सोचा, इन सब से गुजरकर, अब मैं खुलकर बातचीत कर सकती हूँ और मैं बदल गई हूँ। हालाँकि बाद में एक दूसरी स्थिति द्वारा मैं उजागर हो गई।

एक बार, कुछ नए विश्वासी कुछ परिवार के सदस्यों और दोस्तों के साथ सुसमाचार साझा करना चाहते थे, तो टीम अगुआ और मैंने उन्हें इसके सिद्धांत समझाए। मैंने अभी अपना परिचय दिया ही था कि उन नए विश्वासियों में से एक ने कहा कि वह मेरी बात नहीं समझ पा रही। टीम अगुआ ने तुरंत आगे आकर कहा कि मेरा अंग्रेजी का उच्चारण अच्छा नहीं है और फिर खुद नए विश्वासियों के साथ बातचीत करने लगी। उन्हें धाराप्रवाह बातचीत करते देख, लगा जैसे मैं कोई बाहरी व्यक्ति हूँ—मेरा चेहरा लाल हो गया। यह बहुत शर्मनाक था। मूलतः मैं चाहती थी कि टीम अगुआ मुझसे कुछ सीख सके और थोड़ा अभ्यास कर सके, लेकिन मैं तो अपना परिचय भी ठीक से नहीं दे पाई—टीम अगुआ और नए विश्वासी मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मेरी अंग्रेजी बहुत बुरी है तो मैं काम भी ठीक से नहीं कर पाती हूँ? उसके बाद जब मैं काम का जायजा लूँगी तो कौन मेरी बात सुनेगा? यह सब सोचकर मुझे असफलता का ऐसा एहसास हुआ जिसे मैं बयाँ नहीं कर सकती और मैं बहुत मायूस हो गई। उस समय कलीसिया अगुआ भी समूह की सदस्य थी। मुझे लगा वह ऑनलाइन जाकर देख लेगी कि क्या चल रहा है, सोचेगी मेरी अंग्रेजी खराब है, मैं काम नहीं करा सकती और मुझे बर्खास्त कर देगी। मैं नहीं चाहती थी कि उन्हें मेरे बारे में कुछ पता लगे, इसलिए मैं फिर से अपनी कमियाँ छिपाने लगी, और मौखिक बातचीत के बजाय मैसेज के जरिये बात करने लगी और समूह चर्चा को दो लोगों की आपसी बातचीत बना दिया। कुछ समय बाद, मैं थकने लगी। मुझे लगा अब सबको मामले का सच पता चल जाएगा और वे मुझे हिकारत से देखेंगे। मैं हर दिन उसी अवस्था में रहने लगी, मेरे पास अपना काम अच्छे से करने के लिए न तो समय रहता और न ही ऊर्जा बचती थी। मुझे अपने हृदय में अधिकाधिक अंधकार महसूस हो रहा था और मैं जरा-सा भी परमेश्वर का मार्गदर्शन महसूस नहीं कर पा रही थी। न ही मुझे अपने काम में कोई दिशा मिल रही थी। मुझे पता था कि मैं खतरनाक स्थिति में हूँ, लेकिन मैं इससे उबर नहीं पा रही थी। इसलिए मैंने मन-ही-मन प्रार्थना कर, इस स्थिति से निकालने के लिए परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगा।

एक दिन मैंने “बहानेबाजी के पीछे की वजह” नामक एक गवाही वीडियो देखा, उसमें दिखे परमेश्वर के कुछ वचनों ने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “जब लोग हमेशा मुखौटा लगाए रहते हैं, हमेशा खुद को अच्छा दिखाते हैं, हमेशा खास होने का ढोंग करते हैं जिससे दूसरे उनके बारे में अच्छी राय रखें, और अपने दोष या कमियाँ नहीं देख पाते, जब वे लोगों के सामने हमेशा अपना सर्वोत्तम पक्ष प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं, तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकार है, कपट है, पाखंड है, यह शैतान का स्वभाव है, यह एक दुष्ट स्वभाव है। शैतानी शासन के सदस्यों को लें : वे अंधेरे में कितना भी लड़ें-झगड़ें या हत्या तक कर दें, किसी को भी उनकी शिकायत करने या उन्‍हें उजागर करने की अनुमति नहीं होती। वे डरते हैं कि लोग उनका राक्षसी चेहरा देख लेंगे, और वे इसे छिपाने का हर संभव प्रयास करते हैं। सार्वजनिक रूप से वे यह कहते हुए खुद को पाक-साफ दिखाने की पूरी कोशिश करते हैं कि वे लोगों से कितना प्यार करते हैं, वे कितने महान, गौरवशाली और अमोघ हैं। यह शैतान की प्रकृति है। शैतान की प्रकृति की सबसे प्रमुख विशेषता धोखाधड़ी और छल है। और इस धोखाधड़ी और छल का उद्देश्य क्या होता है? लोगों की आँखों में धूल झोंकना, लोगों को अपना सार और असली रंग न देखने देना, और इस तरह अपने शासन को दीर्घकालिक बनाने का उद्देश्य हासिल करना। साधारण लोगों में ऐसी शक्ति और हैसियत की कमी हो सकती है, लेकिन वे भी चाहते हैं कि लोग उनके पक्ष में राय रखें और उन्हें खूब सम्मान की दृष्टि से देखें और अपने दिल में उन्हें ऊँचे स्थान पर रखें। यह भ्रष्ट स्वभाव होता है, और अगर लोग सत्य नहीं समझते, तो वे इसे पहचानने में असमर्थ रहते हैं। ... गलतियाँ करना या छद्मवेश धारण करना : इनमें से कौन-सी चीज स्वभाव से संबंधित है? छद्मवेश धारण करना स्वभाव का मामला है, इसमें अहंकारी स्वभाव, दुष्टता और धूर्तता शामिल होती है; परमेश्वर इससे विशेष रूप से घृणा करता है। ... यदि तुम ढोंग करने या खुद को सही ठहराने की कोशिश न करो, यदि तुम अपनी गलतियाँ स्वीकार सको, तो सभी लोग कहेंगे कि तुम ईमानदार और बुद्धिमान हो। और तुम्हें बुद्धिमान क्या चीज बनाती है? सब लोग गलतियाँ करते हैं। सबमें दोष और कमजोरियाँ होती हैं। और वास्तव में, सभी में वही भ्रष्ट स्वभाव होता है। अपने आप को दूसरों से अधिक महान, परिपूर्ण और दयालु मत समझो; यह एकदम अनुचित है। जब तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और सार, और उनकी भ्रष्टता के असली चेहरे को पहचान जाते हो, तब तुम अपनी गलतियाँ छिपाने की कोशिश नहीं करते, न ही तुम दूसरों की गलतियों के करण उनके बारे में गलत धारणा बनाते हो—तुम दोनों का सही ढंग से सामना करते हो। तभी तुम समझदार बनोगे और मूर्खतापूर्ण काम नहीं करोगे, और यह बात तुम्हें बुद्धिमान बना देगी। जो लोग बुद्धिमान नहीं हैं, वे मूर्ख होते हैं, और वे हमेशा पर्दे के पीछे चोरी-छिपे अपनी छोटी-छोटी गलतियों पर देर तक बात किया करते हैं। यह देखना घृणास्‍पद है। वास्तव में, तुम जो कुछ भी करते हो, वह दूसरों पर तुरंत जाहिर हो जाता है, फिर भी तुम खुल्लम-खुल्ला वह करते रहते हो। लोगों को यह मसखरों जैसा प्रदर्शन लगता है। क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं है? यह सच में मूर्खतापूर्ण ही है। मूर्ख लोगों में कोई अक्ल नहीं होती। वे कितने भी उपदेश सुन लें, फिर भी उन्हें न तो सत्य समझ में आता है, न ही वे चीजों की असलियत देख पाते हैं। वे अपने हवाई घोड़े से कभी नीचे नहीं उतरते और सोचते हैं कि वे बाकी सबसे अलग और अधिक सम्माननीय हैं; यह अहंकार और आत्मतुष्टि है, यह मूर्खता है। मूर्खों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती, है न? जिन मामलों में तुम मूर्ख और नासमझ होते हो, वे ऐसे मामले होते हैं जिनमें तुम्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होती, और तुम आसानी से सत्य को नहीं समझ सकते। मामले की सच्‍चाई यह है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत)। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया—यह मेरे लिए एक बड़ा झटका था। दिखावा करना और गलती करना, दोनों की प्रकृति अलग होती है। मेरी अंग्रेजी अच्छी नहीं थी, इसलिए जब मुझसे कोई गलती हो जाती, तो मैं सीखकर अभ्यास कर सकती थी। लेकिन मैं हमेशा खुद को छिपाती थी ताकि दूसरों को मेरा असली रूप दिखाई न दे। इसके पीछे अहंकार, धोखेबाजी और दुष्टता से भरा मेरा भ्रष्ट स्वभाव छिपा था। यह परमेश्वर की दृष्टि में बुरा और घृणायोग्य है। कर्तव्य कैसे किया जाए, मैं अभी भी इसका अभ्यास कर रही थी, इसलिए गलती, भूल-चूक और भ्रष्टता दिखना लाजमी था। इसमें शर्मिंदा महसूस करने जैसी कोई बात नहीं थी, उन्हें सत्य खोजकर दूर किया जा सकता था। लेकिन जब से सिंचन-कार्य की जिम्मेदारी संभाली, मैं खुद को एक प्रभारी की जगह पर रखा, और सोचा कि मुझे एक आम इंसान से बेहतर होना चाहिए, वरना नए विश्वासी मुझे हिकारत से देखेंगे। जब उस नई विश्वासी ने कहा कि वह मेरी बात समझ नहीं पा रही, तो मुझे लगा कि मेरी कमियां उजागर हो गईं, और मेरी छवि खराब हो गई, अब नए विश्वासी मुझे हिकारत से देखेंगे और मेरी बात नहीं मानेंगे। मैं इस बात से कहीं ज्यादा चिंतित थी कि अगुआ को पता लग जाएगा कि मुझमें क्या कमी है, मैं काम के काबिल नहीं हूँ, और फिर मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। मैंने अपना रुतबा और छवि बचाने के लिए अपनी नाकामियाँ छिपाने का एक तरीका सोचा, यहाँ तक कि मैंने कलीसिया का काम भी बाधित किया। मैंने मौखिक बातचीत के बजाय लिखकर बात की और काम पर चर्चा के लिए सामूहिक बैठक करने के बजाय मैं व्यक्तिगत चैट का इस्तेमाल करने लगी, जिससे हमारे सिंचन-कार्य में विलंब हुआ। मैं खुद को बचाने की अवस्था में जी रही थी और परमेश्वर से लगातार दूर होती चली जा रही थी। यह सब मेरी अत्यधिक धोखेबाजी थी! परमेश्वर के वचनों में शैतानी प्रकृति का न्याय और उसे उजागर करने वाले अंश पढ़कर मैं कांप गई। परमेश्वर कहता है कि शैतानी प्रकृति का सबसे प्रमुख पहलू छल-कपट और धोखा होता है, जो बहुत बड़ी दुष्टता है। बड़ा लाल अजगर दिखावा करने और धोखा देने में माहिर है। वह हमेशा अपनी “महान, शानदार और अच्छी” छवि की बात करता है ताकि लोग उसकी पूजा और अनुसरण करें, यह सब वह अपनी तानाशाही को बचाए रखने के लिए करता है। वह सब कुछ उन बुरे कामों को छिपाने के लिए करता है, जो वह पर्दे के पीछे रहकर करता है, इस प्रकार वह दुनिया को गुमराह कर धोखा देता है। अपने व्यवहार पर चिंतन करके, मैंने देखा कि मैं दिखावा कर रही थी ताकि लोगों के समाने मेरी सकारात्मक छवि बने और वे केवल मेरा अच्छा पक्ष ही देख सकें। मैं धोखेबाज और दुष्ट स्वभाव दिखा रही थी! क्या यह स्वभाव ठीक बड़े लाल अजगर जैसा ही स्वभाव नहीं था? धोखा और दिखावा करके लोगों का सम्मान और प्रशंसा पाने से क्या फायदा? अपने दोषों और कमियों को छुपाकर, परमेश्वर और लोगों के साथ कपट और मक्कारी करके, मैं कोई प्रगति तो नहीं कर पाई, लेकिन नवागंतुकों के सिंचन के काम में देरी जरूर कर दी। क्या यह मूर्खतापूर्ण नहीं था? बहुत से नए विश्वासी परमेश्वर के वचन पढ़कर मानवजाति को बचाने के लिए उसका इरादा समझ रहे थे। उन्हें बढ़ती हुई आपदाएँ और बदतर होती महामारी दिख रही थी, वे जानते थे कि परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारना ही लोगों के लिए बचने का एकमात्र मार्ग है। वे अपने मित्रों और परिवार के साथ सुसमाचार साझा करने को तैयार थे, उन्हें परमेश्वर के सामने लाना चाहते थे ताकि वे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त कर सकें। लेकिन मैं उनके जीवन प्रवेश के बारे में जरा भी चिंतित नहीं थी। अपना बेकार का अभिमान बनाए रखने की कोशिश में, मैं सुसमाचार साझा करने के बारे में भाई-बहनों की समस्याएँ तत्परता से हल नहीं कर रही थी। इस वजह से सच्चे मार्ग की जाँच-पड़ताल कर परमेश्वर की ओर मुड़ने में बहुत सारे लोगों को विलंब हो रहा था। क्या इससे मैं सुसमाचार के कार्य में बाधा और अड़चन नहीं बन रही थी? आत्मचिंतन करने पर, मुझे लगा कि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव में जी रही हूँ, हालाँकि देखने में तो लगता था कि मैं अपना कर्तव्य कर रही हूँ, जबकि सच यह था कि मैं परमेश्वर का विरोध कर रही थी और कलीसिया के कार्य में रुकावट डाल कर भाई-बहनों को नुकसान पहुंचा रही थी। मुझे खुद से बेहद घृणा होने लगी, दिल की गहराई से अपने आपको देखकर उबकाई आने लगी। मुझे लगा मैं परमेश्वर की बहुत ऋणी हूँ, मैंने अपने भाई-बहनों को निराश किया है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मैं पश्चाताप करने को तैयार हूँ और दृढ़तापूर्वक सत्य का अनुसरण कर अपना कर्तव्य-निर्वहन करना चाहती हूँ।

एक बार मैंने अपनी आध्यात्मिक भक्ति के दौरान परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जियोगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे। संगति करते समय कैसे खुलना है, यह सीखना जीवन-प्रवेश की ओर पहला कदम है। इसके बाद, तुम्हें अपने विचारों और कार्यों का विश्लेषण करना सीखना होगा, ताकि यह देख सको कि उनमें से कौन-से गलत हैं और किन्हें परमेश्वर पसंद नहीं करता, और तुम्हें उन्हें तुरंत उलटने और सुधारने की आवश्यकता है। इन्हें सुधारने का मकसद क्या है? इसका मकसद यह है कि तुम अपने भीतर उन चीजों से पीछा छुड़ाओ जो शैतान से संबंधित हैं और उनकी जगह सत्य को लाते हुए, सत्य को स्वीकार करो और उसका पालन भी करो। पहले, तुम हर काम अपने कपटी स्वभाव के अनुसार करते थे, जो कि झूठ और कपट है; तुम्हें लगता था कि तुम झूठ बोले बिना कुछ नहीं कर सकते। अब जब तुम सत्य समझने लगे हो, और शैतान के काम करने के ढंग से नफरत करते हो, तो तुमने उस तरह काम करना बंद कर दिया है, अब तुम ईमानदारी, पवित्रता और समर्पण की मानसिकता के साथ कार्य करते हो। यदि तुम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते, दिखावा नहीं करते, ढोंग नहीं करते, चीजें नहीं छिपाते, यदि तुम भाई-बहनों के सामने अपने आपको खोल देते हो, अपने अंतरतम विचारों और सोच को छिपाते नहीं, बल्कि दूसरों को अपना ईमानदार रवैया दिखा देते हो, तो फिर धीरे-धीरे सत्य तुम्हारे अंदर जड़ें जमाने लगेगा, यह खिल उठेगा और फलदायी होगा, धीरे-धीरे तुम्हें इसके परिणाम दिखाई देने लगेंगे। यदि तुम्हारा दिल ईमानदार होता जाएगा, परमेश्वर की ओर उन्मुख होता जाएगा और यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन करते समय परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना जानते हो, और इन हितों की रक्षा न कर पाने पर जब तुम्हारी अंतरात्मा परेशान हो जाए, तो यह इस बात का प्रमाण है कि तुम पर सत्य का प्रभाव पड़ा है और वह तुम्हारा जीवन बन गया है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का एक विशिष्ट मार्ग दिया। मुझे अपना कर्तव्य शुद्ध और ईमानदारी से निभाना चाहिए; मेरा आध्यात्मिक कद बड़ा हो या छोटा, मुझमें जो भी दोष और कमियाँ हों, मुझे कोई दिखावा नहीं करना चाहिए। मुझे लोगों को अपना असली रूप दिखाना चाहिए और अपने बारे में खुलकर बात करनी चाहिए। इस तरह जीना थकाऊ नहीं होगा और परमेश्वर भी इसे स्वीकृति देता है। दरअसल, अपनी समस्याएं और कमियां छिपाने से वे दूर नहीं होंगी, इसलिए मुझे शांति से उनका सामना करना चाहिए, अपनी कमियों को स्वीकार कर ऐसा इंसान बनना चाहिए जो खुद को खोलकर, खुलकर बात कर सके। अगर कुछ समझ में न आए, तो सवाल पूछना और सीखना होगा ताकि मैं धीरे-धीरे अपने काम में सुधार ला सकूं। इसके अतिरिक्त, अगर अगुआ मुझे प्रभारी बनाती है, तो यह ऐसी जिम्मेदारी होनी चाहिए जिसे मैंने परमेश्वर से स्वीकारती हूँ, यह रुतबा नहीं होना चाहिए। मुझे एक प्रभारी होने की पहचान भुलाकर अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देनी होगी। लोग चाहे जो सोचें या कहें, मुझे अपनी मंशा ठीक करनी होगी, अपनी औकात समझनी होगी और एक सृजित प्राणी होने का कर्तव्य निभाना होगा।

तब से, मैं अपना अभिमान त्यागकर नए विश्वासियों को मौखिक बातचीत के लिए सक्रियता से बुलाने और उनके काम में आ रही कठिनाइयाँ और समस्याएँ हल करने में मदद करने लगी। मैं बोलचाल की अंग्रेजी का और ज्यादा अभ्यास करने और उच्चारण सुधारने पर ध्यान देने लगी; अगर कुछ समझ न आता, तो भाई-बहनों से पूछने और उनकी खूबियों से सीखने लगी। एक बार मैं कुछ नए विश्वासियों के साथ एक ऑनलाइन सभा में भाग ले रही थी, तो एक-दूसरे का अभिवादन करते हुए, मैं एक विश्वासी के नाम को लेकर अटक गई। नई विश्वासी ने कई बार मेरा उच्चारण ठीक किया। मुझे बड़ी शर्मिंदगी हुई, मैं सोच रही थी कि वह अपने नाम को लेकर इतनी संजीदा क्यों हो रही है। जब सब लोग सुन रहे हों, तो एक बार ठीक कर देना काफी है! तब मुझे परमेश्वर की यह बात याद आई : “तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा, छवि और हैसियत की रक्षा करने के लिए किसी भी तरीके का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं है, न ही तुम्हें अपनी गलतियाँ ढकने या छिपाने की आवश्यकता है। तुम्हें इन बेकार के प्रयासों में लगने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम इन चीजों को छोड़ पाओ, तो तुम बहुत आराम से रहोगे, तुम बिना बाधाओं या पीड़ा के जिओगे, और पूरी तरह से प्रकाश में जियोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैंने मन में सोचा, “यह सच है—अगर मैं गलत हूँ, तो हूँ। मुझे हमेशा इस बात को छुपाना क्यों होता है? कर्तव्य में मन लगाने के बजाय, मैं ध्यान अपने अभिमान पर रखती हूँ; इस तरह का बोझ ढोते हुए किसी भी तरह से काम अच्छे से नहीं किया जा सकता।” इसलिए, मैंने अपने मन को शांत कर परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं अपने अभिमान का त्याग कर अपने काम पर ध्यान दे सकूँ। प्रार्थना के बाद मुझे अब शर्मिंदगी महसूस नहीं हुई और अपने उच्चारण के मानक स्तर के न होने को लेकर भी मैंने बेबस महसूस नहीं किया। मैंने नए विश्वासी से अपना उच्चारण सुधारने में मदद माँगी। थोड़ी देर बाद, एक बहन, जो मेरी साथी रह चुकी थी, बोली, “तुम आमतौर पर अंग्रेजी का अभ्यास कैसे करती हो? तुम नए विश्वासियों के साथ बड़ी सहजता से बातचीत करती हो। हम आखिरी बार जब मिले थे, तब से तुमने काफी प्रगति कर ली है!” उसकी यह बात मेरे दिल को छू गई, मुझे पता था कि यह केवल परमेश्वर का मार्गदर्शन और अनुग्रह था। इस तरह के अनुभव जितने अधिक होते हैं, उतना ही मुझे लगता है कि अपनी वास्तविक स्थिति के बारे में खुलकर बोलना, खुद को न तो छिपाना, न ढकना, और दृढ़ता से अपना कर्तव्य करना, एक ऐसा अभ्यास है जो मेरे दिल को सुकून देता है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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