28. ईर्ष्या को खुद पर हावी न होने दें

2017 की गर्मियों में मैं कलीसिया अगुआ के तौर पर काम करती थी। काम की जरूरतें देखकर, उच्च अगुआ ने मेरे साथ काम करने के लिए बहन यांग और बहन वांग की व्यवस्था की, और मुझसे उनकी मदद करने को कहा। कुछ समय बाद, मैंने देखा ये दोनों बहनें अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी उठाकर तेजी से तरक्की कर रही थीं। मेरी फिक्र थोड़ी कम हो गई थी—ये दोनों चर्चा कर कुछ काम संभाल लेती थीं। शुरू में मैं बहुत खुश थी, मगर थोड़े समय बाद, मुझे बुरा लगने लगा। मैं अगुआ थी, तो असल में कलीसिया के छोटे-बड़े मामलों पर पहले मुझसे चर्चा होनी चाहिए। लेकिन अब, मुझसे बात किए बिना वे खुद ही कुछ व्यवस्थाएँ कर लेती थीं। वे अब मुझे गंभीरता से नहीं ले रही थीं! यूँ ही चलता रहा, तो मैं सिर्फ नाम की अगुआ रह जाऊँगी।

एक सभा में सुपरवाइजर ने मेरे साथ काम करने वाली उन दो बहनों का जिक्र किया। वह बोली, "वे सच में अपने कर्तव्य की जिम्मेदारी उठाती हैं। पहले सिंचन-कर्मियों की हमेशा कमी रहती थी, मगर उनके आने के बाद से, व्यवस्थाएँ जल्द होने लगी हैं, टीम भी बहुत प्रभावी है।" मैंने परमेश्वर को धन्यवाद तो दिया, मगर दिल से मैं उतनी खुश नहीं थी। मेरा चेहरा तमतमाने लगा। लगा, दूसरे लोग आखिर उन्हें मुझसे ज्यादा अच्छा मानते हैं। मैं अनेक वर्षों से अगुआ थी, मगर उन्हें आए तो कुछ ही दिन हुए थे। क्या वे मुझसे बेहतर थीं? मैं यह नहीं मानना चाहती थी। इसके बाद मैंने सुपरवाइजर की कोई बात नहीं सुनी। सभा के बाद मैं किसी तरह घर पहुँची। उस रात मैं बिस्तर पर पड़ी करवटें बदलती रही, सो नहीं पाई। मन में सुपरवाइजर की बातें कौंधने पर मैं बहुत परेशान हो जाती। वर्षों से अगुआ रहकर भी मैं इन बहनों की बराबरी नहीं कर पाई, जिन्होंने हाल में प्रशिक्षण देना शुरू किया था। पता लगा, तो उच्च अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या वे कहेंगी, मैं नाकाबिल थी, अगुआ के रूप में ठीक नहीं थी? दूसरे मुझे आदर से देखते थे, मगर अब सभी उन दो बहनों को बेहतर मानते थे। इसके बाद क्या वे मेरे बजाय उनका साथ देंगे? लगा, बहन यांग और बहन वांग ने मेरी चमक चुरा ली थी, मैं उनके प्रति जलन और रोष से भर गई। उस दौरान मेरे मन में खलबली मची हुई थी, डर लगा रहता था कि मेरी जगह सुरक्षित नहीं थी। मैंने मन-ही-मन खुद का हौसला बढ़ाया कि मुझे अच्छा काम करना है, सभी प्रोजेक्ट सही ढंग से पूरे करने हैं, ताकि सभी देखें कि मैं उनसे दोयम दर्जे की नहीं हूँ। इसके बाद, हर दिन मैं सुबह जल्द उठ जाती और रात देर से सोने जाती थी। किसी भी अहम काम के लिए सबसे आगे जाती और समस्याएँ तुरंत निपटा देती थी, इस डर से कि कहीं बहनें आगे न आ जाएँ। कभी-कभी यह भी मनाती कि उनसे काम बिगड़ जाए और वे मुँह न दिखा सकें। एक दिन कलीसिया की किताबों की जाँच करते समय, भेजी और प्राप्त की गई प्रतियों की संख्या में गलतियाँ दिखाई पड़ीं। किताबें बाँटने और वापस पाने का काम वे ही सँभालती थीं, इसलिए उन्हें इतनी बेचैनी से इसका कारण खोजते देख, उनकी मदद करना तो दूर, मैं यह सोचकर उनके दुर्भाग्य का मजा ले रही थी, "सोचती थी तुम लोग बड़ी काबिल हो—अब क्या करोगी?" मैंने फटकार के लहजे में कहा, "कलीसिया की किताबों के साथ समस्या बहुत बड़ी बात है।" यह सुनकर उन्हें बहुत तनाव हो गया, उनकी हालत बिगड़ गई। मैं मन-ही-मन खुश थी, "देखते हैं, इतनी बड़ी गलती के बाद, अगुआ क्या उन्हें बेहतर मानेंगी! अगर वे नकारात्मक हालत में पड़ी रहीं, तो मेरे ओहदे को कोई खतरा नहीं होगा।" तब मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ, एहसास हुआ मैं एक सीमा लांघ रही थी, मगर मैंने इस पर सोच-विचार नहीं किया।

बाद में, बहन वांग का कर्तव्य किन्हीं कारणों से बदल दिया गया, अब मैं और बहन यांग ही साथ काम करने को रह गए। एक दिन काम की एक चर्चा में, मैंने देखा उच्च अगुआ हमेशा बहन यांग की राय पूछ रही थीं, जबकि मैं एक ओर अपमानित-सी बैठी रहती थी। मैं कयास लगाए बिना नहीं रह सकी कि शायद अगुआ उसे छोटी और ज्यादा काबिल मानकर प्रशिक्षण देना चाहती थीं। मुझे लगा, मेरा काम तमाम हो गया। पहले, अगुआ विषयों पर हमेशा मुझसे चर्चा करती थीं, मगर अब वे बहन यांग की कद्र कर रही थीं। इससे कहीं वह मुझसे बेहतर तो नहीं लग रही है? मेरी ईर्ष्या फिर से सिर उठा रही थी। उस दौरान, उसके काम में जब कभी गलती दिखाई देती, मैं उसे डांटती, कभी-कभी उसकी अनदेखी कर देती। हर सभा में, मैं सबसे ऊँचे स्थान का हक जताती ताकि सबकी समस्याएँ सुलझा सकूँ, उसे संगति का मौका नहीं देती। उसकी हालत बद से बदतर हो गई, अब वह कलीसिया के कार्य की जिम्मेदारी नहीं उठाती थी। कुछ काम समय पर न होने से कलीसिया के कार्य को नुकसान हुआ। तब मैंने थोड़ा दोषी महसूस किया। लगा, उसकी नकारात्मक हालत के पीछे मेरा बड़ा हाथ था, मगर मैंने आत्मचिंतन नहीं किया, परमेश्वर का अनुशासन मुझ पर चलने तक मुझे अपनी हालत की समझ नहीं आई।

एक दिन मैंने अचानक बीमार और बुखार-सा महसूस किया, फिर खाँसी आने लगी। सोचा, शायद फिर से दमा जकड़ रहा है, मगर एक बहन ने मुझे चेताया, "हाल में मैंने देखा है, सभाओं में आप अकेली ही संगति करती हैं। बहन यांग कुछ भी नहीं कह पातीं। आपको सच में आत्मचिंतन करना चाहिए। ऐसा करते रहना खतरनाक है!" इसे स्वीकारना तो दूर, मैंने अपने मामले की पैरवी के लिए सब-कुछ किया : "आप उसे नहीं समझतीं, वह बातों में माहिर नहीं है। कभी-कभी, अगर मैं संगति न करूँ, तो सभाओं में मौन छाया रहेगा।" उसने आगे कुछ नहीं कहा। बाद में, मेरी खाँसी और बिगड़ गई, कोई भी दवा काम नहीं कर रही थी। चाहकर भी मैं सभाओं में संगति नहीं कर पा रही थी। मैं जाँच के लिए डॉक्टर के पास गई। डॉक्टर ने बताया, मुझे गंभीर ब्रॉन्कीएक्टैसिस और ट्यूबरकुलोसिस यानी टीबी था, ये गंभीर रोग थे, इन पर काबू पाने के लिए साल भर तक दवाएं लेनी पड़ेंगी। यह सुन मैं अवाक-सी बस बैठी रही, बहुत दुखी हो गई। मुझे पहले टीबी हुआ था और इसका इलाज बहुत मुश्किल था। पता नहीं, मुझे यह दोबारा कैसे हो गया, और वह भी इतना गंभीर। टीबी संक्रामक बीमारी होने के कारण मैं भाई-बहनों से मिल-जुल नहीं सकती थी। यानी मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती थी। आस्था के तमाम वर्षों में मैंने कर्तव्य निभाया था, खुद को खपाने के लिए परिवार और नौकरी तक छोड़ दी थी। खास तौर से उस वक्त काम जोरों पर था, और मैं सबसे आगे थी। मुझे ऐसी गंभीर बीमारी क्यों हो गई? परमेश्वर की इच्छा क्या थी? इस बारे में जितना सोचती, उतना ही बदतर लगता था, रजाई में मुँह छिपाकर रोती रहती थी। एक बार, मैंने रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! बहुत पीड़ा हो रही है। नहीं जानती इससे कैसे बाहर निकलूँ। मुझे प्रबुद्ध करो, ताकि मैं तुम्हारी इच्छा समझ सकूँ और इस बीमारी के जरिए सबक सीख सकूँ।"

एक दिन, मैंने अपने धार्मिक कार्यों में परमेश्वर के ये वचन पढ़े। परमेश्वर कहते हैं, "ज्यादातर समय, जब तुम किसी गंभीर बीमारी या असामान्य रोग से घिर जाते हो, और इससे तुम्हें बहुत पीड़ा होती है, तो ये चीजें अनायास ही नहीं होती; चाहे तुम बीमार हो या स्वस्थ, इन सब के पीछे परमेश्वर की इच्छा होती है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर पर विश्वास करने में सत्य प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है)। इस पर मनन कर मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने मुझे इतना बीमार यूँ ही नहीं होने दिया, इसमें जरूर उसकी इच्छा छिपी है। मुझे गंभीरता से आत्मचिंतन करना चाहिए। मैंने बार-बार प्रार्थना कर सत्य की खोज की। आत्मचिंतन में, मुझे एकाएक एहसास हुआ कि बहन यांग से निरंतर ईर्ष्या, और बदलाव के बिना शोहरत और लाभ के लिए मेरे लड़ते रहने से, उसने बेबस महसूस किया और इससे कलीसिया के कार्य पर बुरा असर पड़ा। मैं दोषी महसूस कर पछतावे से भर गई। परमेश्वर के वचनों में मैंने यह पढ़ा : "क्रूर मानवजाति! साँठ-गाँठ और साज़िश, एक-दूसरे से छीनना और हथियाना, प्रसिद्धि और संपत्ति के लिए हाथापाई, आपसी कत्लेआम—यह सब कब समाप्त होगा? परमेश्वर द्वारा बोले गए लाखों वचनों के बावजूद किसी को भी होश नहीं आया है। लोग अपने परिवार और बेटे-बेटियों के वास्ते, आजीविका, भावी संभावनाओं, हैसियत, महत्वाकांक्षा और पैसों के लिए, भोजन, कपड़ों और देह-सुख के वास्ते कार्य करते हैं। पर क्या कोई ऐसा है, जिसके कार्य वास्तव में परमेश्वर के वास्ते हैं? यहाँ तक कि जो परमेश्वर के लिए कार्य करते हैं, उनमें से भी बहुत थोड़े ही हैं, जो परमेश्वर को जानते हैं। कितने लोग अपने स्वयं के हितों के लिए काम नहीं करते? कितने लोग अपनी हैसियत बचाए रखने के लिए दूसरों पर अत्याचार या उनका बहिष्कार नहीं करते?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दुष्टों को निश्चित ही दंड दिया जाएगा)। "कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊँचे हैं, दूसरों का सम्मान होगा, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! केवल अपने हितों के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों पर कोई ध्यान नहीं देना, या परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचन मेरे दिल में चुभ गए। उसने ठीक मेरी ही हालत का खुलासा किया था। उन दोनों बहनों को कुशलता से अपना कर्तव्य निभाते, तेजी से सीखते, और मुझसे चर्चा किए बिना काम संभालते देखकर, मैं बेचैन हो गई थी, लगा, उन्होंने मेरी अनदेखी की थी। जब उस सुपरवाइजर ने कर्तव्य में प्रभावी होने पर उनकी प्रशंसा की, तो मुझे और ज्यादा लगा मानो वे मेरे ओहदे के लिए खतरा हैं, मेरी चमक चुराना चाहती हैं। खुद को उनसे बेहतर साबित कर अपना ओहदा सुरक्षित रखने के लिए, सभाओं में संगति कर और दूसरों की समस्याएँ सुलझाकर मैंने वह चमक वापस पा ली, और उन्हें संगति करने का मौका तक नहीं दिया। किताबों के मिलान में स्पष्टता न होने पर, कारण ढूँढ़ने में उनकी मदद करने के बजाय, मैंने उनकी मुसीबत का मजा लिया, ताने मारे, उन्हें तनाव और नकारात्मकता में जीने दिया। मैं इतनी ज्यादा विद्वेषी थी। यह सोचकर मैंने दोषी महसूस किया, मुझे पछतावा हुआ, मैंने रोते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, तुमने मुझे कर्तव्य निभाने के लिए ऊंचा उठाया। मैंने उसे अच्छे ढंग से निभाकर तुम्हारे प्रेम की कीमत चुकाना तो दूर, मैं काबिल लोगों से जलती रही, शोहरत और लाभ के लिए लड़ती रही। मेरा बर्ताव तुम्हारे लिए घिनौना, और चिढ़ पैदा करने वाला था। हे परमेश्वर, मैं प्रायश्चित कर बदलना चाहती हूँ।" मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े। "कोई समस्या आने पर, कुछ लोग दूसरों से उत्तर खोजते हैं, लेकिन जब वह व्यक्ति सत्य के अनुसार बोलता है, तो वे लोग उस बात को स्वीकार नहीं करते, वे मानने को तैयार नहीं हो पाते और मन ही मन सोचते हैं, 'मैं उससे बेहतर हूँ। अगर मैं इस बार उसके सुझाव सुन लेता हूँ, तो क्या ऐसा नहीं लगेगा कि वह मुझसे श्रेष्ठ है? नहीं, मैं इस मामले में उसकी बात नहीं सुन सकता। मैं यह काम सिर्फ अपने तरीके से करूंगा।' फिर वे दूसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण को नकारने का कोई कारण और बहाना ढूंढ लेते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को देखता है जो उनसे बेहतर है, तो लोगों के मन में अपनी जगह बचाए रखने के लिए वह उन्हें नीचे गिराने की कोशिश करता है, उनके बारे में अफवाहें फैलाता है, या उन्हें बदनाम करने और उनकी प्रतिष्ठा कम करने के लिए कुछ घिनौने तरीकों का इस्तेमाल करता है—यहाँ तक कि उन्हें रौंदता है—यह किस तरह का स्वभाव है? यह केवल अहंकार और दंभ नहीं है, यह शैतान का स्वभाव है, यह द्वेषपूर्ण स्वभाव है। यह व्यक्ति अपने से बेहतर और मजबूत लोगों पर हमला कर सकता है और उन्हें अलग-थलग कर सकता है, यह कपटपूर्ण और बुरा है। वह लोगों को नीचे गिराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगा, यह दिखाता है कि उसके अंदर का दानव काफी बड़ा है! शैतान के स्वभाव के अनुसार जीते हुए, संभव है कि वह लोगों को कमतर दिखाए, उन्हें फँसाने की कोशिश करे, और उनके लिए मुश्किलें पैदा कर दे। क्या यह कुकर्म नहीं है? इस तरह जीते हुए, वह अभी भी सोचता है कि वह ठीक है, अच्छा इंसान है—फिर भी जब वह अपने से अधिक मजबूत व्यक्ति को देखता है, तो संभव है कि वह उसे परेशान करे, उसे पूरी तरह कुचले। यहाँ मुद्दा क्या है? जो लोग ऐसे बुरे काम कर सकते हैं, क्या वे अनैतिक और स्वेच्छाचारी नहीं हैं? ऐसे लोग केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, वह केवल अपनी भावनाओं का खयाल करते हैं, वे केवल अपनी इच्छा, महत्वाकांक्षा और अपने लक्ष्य पाना चाहते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि वे कलीसिया के कार्य को कितना नुकसान पहुँचाते हैं, और वे अपनी प्रतिष्ठा और लोगों के मन में अपने रुतबे की रक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हितों का बलिदान करना पसंद करेंगे। क्या ऐसे लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट, स्वार्थी और नीच नहीं होते? ऐसे लोग न केवल अभिमानी और आत्मतुष्ट होते हैं, बल्कि वो बेहद स्वार्थी और नीच भी होते हैं। उन्हें परमेश्वर की इच्छा का बिल्कुल भी ध्यान नहीं है। क्या ऐसे लोगों को परमेश्वर का कोई डर है? उन्हें परमेश्वर का जरा-सा भी भय नहीं होता। यही कारण है कि वे बेतुके ढंग से आचरण करते हैं और वही करते हैं जो करना चाहते हैं उनमें दोष का कोई बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। यही वे अकसर करते हैं, और इसी तरह उन्‍होंने हमेशा आचरण किया होता है। इस तरह के आचरण की प्रकृति क्या है? हल्‍के-फुल्‍के ढंग से कहें, तो इस तरह के लोग बहुत अधिक ईर्ष्‍यालु होते हैं और उनमें निजी प्रसिद्धि और हैसियत की बहुत प्रबल आकांक्षा होती है; वे बहुत धोखेबाज और धूर्त होते हैं। और अधिक कठोर ढंग से कहें, तो समस्‍या का सार यह है कि इस तरह के लोगों के दिलों में परमेश्‍वर का तनिक भी डर नहीं होता। वे परमेश्वर का भय नहीं मानते, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, और वे अपने हर पहलू को परमेश्वर से ऊंचा और सत्य से बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में, परमेश्वर जिक्र करने के योग्य नहीं है और महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का बिलकुल भी कोई महत्व नहीं होता। क्‍या वो लोग सत्‍य का अभ्यास कर सकते हैं जिनके हृदयों में परमेश्‍वर के लिए कोई जगह नहीं है, और जो परमेश्‍वर में श्रद्धा नहीं रखते? बिल्कुल नहीं। इसलिए, जब वे सामान्‍यत: मुदित मन से और ढेर सारी ऊर्जा खर्च करते हुए खुद को व्‍यस्‍त बनाये रखते हैं, तब वे क्‍या कर रहे होते हैं? ऐसे लोग यह तक दावा करते हैं कि उन्‍होंने परमेश्‍वर के लिए खपाने की ख़ातिर सब कुछ त्‍याग दिया है और बहुत अधिक दुख झेला है, लेकिन वास्‍तव में उनके सारे कृत्‍य, निहित प्रयोजन, सिद्धान्‍त और लक्ष्‍य, सभी खुद के रुतबे, प्रतिष्ठा के लिए हैं; वे केवल सारे निजी हितों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। तुम लोग ऐसे व्यक्ति को बहुत ही बेकार कहोगे या नहीं कहोगे? किस तरह के लोगों को कई वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद भी, परमेश्वर का भय नहीं होता? क्या वे अहंकारी नहीं हैं? क्या वे शैतान नहीं हैं? और किनमें परमेश्वर का भय सबसे कम होता है? जानवरों के अलावा, दुष्टों और मसीह-विरोधियों में, दानवों और शैतान की किस्म में। वे सत्य को जरा-भी नहीं स्वीकारते; वे परमेश्वर के भय से रहित होते हैं। वे किसी भी बुराई को करने में सक्षम हैं; वे परमेश्वर के शत्रु और उसके चुने हुओं के शत्रु हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, पाँच शर्तें, जिन्हें परमेश्वर पर विश्वास के सही मार्ग पर चलने के लिए पूरा करना आवश्यक है)। परमेश्वर के वचन पढ़कर लगा परमेश्वर मेरे सामने मेरा न्याय कर रहा था। मैं सोचती थी, कई वर्षों से अगुआ हूँ, तो जरूर दूसरों से बेहतर हूँ, ऊँचे स्तर पर हूँ, इसलिए खुद से ज्यादा काबिल किसी से भी ईर्ष्या कर उसे बाहर रखती थी। मैं जानती थी, ये दो बहनें ज्यादा काबिल थीं, कर्तव्य की जिम्मेदारी उठाकर अच्छे नतीजे हासिल करती थीं। कलीसिया के कार्य और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश के लिए यह अच्छी बात थी। लेकिन मैंने इन पर ध्यान नहीं दिया—बस अपनी शोहरत और रुतबे की परवाह की। उनके साथ चुपचाप लड़ी, उनके काम की गलतियाँ और कमियाँ ढूँढ़ीं, उन्हें परेशान किया, बुरा दिखाया, उन्हें बुरी हालत में छोड़ दिया जिसके कारण कर्तव्य में अब वे जिम्मेदारी नहीं उठा पाईं। कलीसिया के कार्य को भी नुकसान पहुँचा। अपना रुतबा बनाए रखने के लिए, मैं ज्यादा काबिल लोगों से ईर्ष्या करती थी, बढ़िया काम करने वाली बहनों को हताश कर देती थी। इससे कलीसिया का कार्य बाधित हुआ, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा। मुझमें जरा भी मानवता नहीं थी, मैं शैतानी स्वभाव दिखा रही थी। शैतान बढिया काम करने वालों को देख नहीं सकता, वह उन्हें हताश और परमेश्वर को धोखा देते हुए देखने को बेताब है। मैं पूरी तरह शैतान की चाकर जैसी थी, कुकर्म कर परमेश्वर का विरोध कर रही थी। कलीसिया अगुआ के तौर पर, मुझे परमेश्वर की इच्छा का ख्याल कर, ज्यादा प्रतिभाशाली लोगों को कलीसिया के लिए तैयार करना चाहिए। मगर इसके बजाय, प्रतिभाशाली लोगों को तैयार करना तो दूर, मैं ईर्ष्या कर उनका दमन करती थी। इसे कर्तव्य निभाना कैसे कहेंगे? मैं बस कुकर्म कर परमेश्वर का विरोध करती थी! मैंने खुद से सच में घृणा की—लगा मैं इंसान हूँ ही नहीं, मैं जीने लायक ही नहीं।

एक दिन, मैंने एक बहन के सामने खुलकर अपनी ईर्ष्या पर संगति की। उसने मेरी बात सुनी, फिर उसने मुझे दाऊद से शाऊल की ईर्ष्या की मिसाल दी। वह बोली, "यह देखकर कि परमेश्वर युद्ध जीतने के लिए दाऊद का इस्तेमाल करता था और सारे इस्राएली उसका साथ देते थे, शाऊल दाऊद से जलने लगा और उसकी जान लेने दौड़ पड़ा। अंत में उसने परमेश्वर का गुस्सा भड़काया और परमेश्वर ने उसे नष्ट कर दिया।" यह सुनकर मैं सिहर उठी। अपने हाल के बर्ताव के बारे में सोचने लगी। उन दो बहनों को अपने कर्तव्य में अच्छे नतीजे हासिल करते देख, मैं उनसे जलने लगी, और हर मोड़ पर उनके लिए रुकावट पैदा करने लगी। यह लोगों के साथ मेल-जोल से रहना नहीं था, परमेश्वर का विरोध करना था। क्या यह ठीक शाऊल जैसा नहीं था? इस तरीके से सोचकर बहुत डर लगा, मुझे एहसास हुआ कि सही समय पर परमेश्वर के अनुशासन ने ही मुझे कुकर्म की राह में जाने से रोका था। अगर मैं उस राह में चलती रहती, तो परिणामों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। बाद में, मैंने इस पर बार-बार सोच-विचार किया। अच्छी तरह जानते हुए भी कि परमेश्वर को ईर्ष्या पसंद नहीं है, मैं दूसरों को किनारे करने से क्यों नहीं बच सकी? मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "एक मसीह-विरोधी के सार की सबसे स्पष्ट विशेषताओं में से एक यह होती है कि वे अपनी तानाशाही चलाने वाले किसी तानाशाह की तरह होते हैं : वे किसी की नहीं सुनते, वे हर किसी को तुच्छ समझते हैं, और लोगों की क्षमता की परवाह किए बिना, या वे क्या कहते हैं और क्या करते हैं, या उनके पास क्या अंतर्दृष्टि और राय है, वे कोई ध्यान नहीं देते; यह ऐसा है मानो कोई भी उनके साथ काम करने, या उनके किसी भी काम में भागीदारी के योग्य न हो। यह एक मसीह-विरोधी की तरह का स्वभाव है। कुछ लोग कहते हैं कि यह खराब मानवता वाला होना है—यह सिर्फ सामान्य खराब मानवता कैसे हो सकती है? यह पूर्णत: एक शैतानी स्वभाव है; इस तरह का स्वभाव अत्यंत उग्र होता है। मैं क्यों कहता हूँ कि उनका स्वभाव अत्यंत उग्र होता है? मसीह-विरोधी कलीसिया और परमेश्वर के घर के हितों को पूरी तरह से अपना मानते हैं, अपनी व्यक्तिगत संपत्ति की तरह, जिसका प्रबंधन पूरी तरह से उन्हीं के द्वारा किया जाना चाहिए, उसमें किसी और का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। कलीसिया के घर का कार्य करते समय वे केवल अपने ही हितों, अपनी ही हैसियत और अपनी छवि के बारे में सोचते हैं। वे किसी को भी अपने हितों को नुकसान नहीं पहुंचाने देते, जिसमें क्षमता है और जो अपने अनुभवों और गवाही के बारे में बात करने में सक्षम है, उसे अपने रुतबे और प्रतिष्ठा को जोखिम में डालने देने की तो बात ही छोड़ दें। ... जब थोड़ा कार्य करके कोई अलग दिखने लगता है, जब कोई चुने हुए लोगों को लाभान्वित करने, उन्हें सिखाने और उन्हें सहारा देने के लिए सच्चे अनुभवों और गवाही की बात करने में सक्षम होता है, और सभी से बड़ी प्रशंसा अर्जित करता है, तो मसीह-विरोधियों के मन में ईर्ष्या और नफरत बढ़ जाती है, वे उन्हें अलग-थलग करने और कमजोर करने की कोशिश करते हैं, और किसी भी परिस्थिति में ऐसे लोगों को कोई काम नहीं करने देते ताकि वे उन्हें उनके रुतबे को खतरे में डालने से रोक सकें। ... मसीह-विरोधी मन-ही-मन सोचते हैं, 'मेरा इसे सहना संभव नहीं है। तुम मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए मेरे क्षेत्र के भीतर एक भूमिका चाहते हो। यह असंभव है, इसके बारे में सोचना भी मत। तुम मुझसे अधिक सक्षम हो, मुझसे अधिक मुखर हो, मुझसे अधिक शिक्षित हो और मुझसे अधिक लोकप्रिय हो। तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे साथ काम करूँ? यदि तुमने मेरी सफलता चुरा ली, तो मैं क्या करूँगा?' क्या वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार कर रहे हैं? नहीं। वे किस बारे में सोच रहे हैं? वे केवल यही सोचते हैं कि अपनी हैसियत को कैसे बनाए रखें। हालाँकि वे जानते हैं कि वे वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हैं, फिर भी वे सत्य का अनुसरण करने और अच्छी योग्यता वाले लोगों को पोषण या बढ़ावा नहीं देते; वे केवल उन्हीं को बढ़ावा देते हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं, जो दूसरों की पूजा करने को तत्पर हैं, जो अपने दिलों में उनकी प्रशंसा और सराहना करते हैं, वे लोग जो सहज संचालक हैं, जिन्हें सत्य की कोई समझ नहीं है और जो अंतर करने में असमर्थ हैं" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक))। परमेश्वर मसीह-विरोधियों को उजागर कर बताता है कि वे परमेश्वर के घर के कार्य का जरा भी ख्याल नहीं रखते, और सारी शक्ति चाहते हैं। वे कलीसिया को अपने काबू में रखते हैं, किसी दूसरे को उससे जुड़ने नहीं देते। अपने रुतबे के लिए खतरा बनने वाले किसी को भी दूर रख उसका दमन करते हैं, असल में दूसरों की खूबियों और ताकतों को छिपाने का काम करते हैं। मैं ठीक मसीह-विरोधी जैसा बर्ताव कर रही थी। अपना रुतबा मजबूत करने के लिए, मैं सत्ता पर दबदबा चाहती थी और कलीसिया में अंतिम फैसले लेने वाली अकेली इंसान बनना चाहती थी, इन फलसफों के अनुसार चलते हुए कि "सिर्फ एक अल्फा पुरुष हो सकता है," और "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ।" मैं किसी को खुद से आगे नहीं जाने देती थी। इन बहनों से प्रतियोगी जैसी पेश आती थी, उन्हें डाँटने के मौके झपटकर, उनकी गलतियों के मजे लेती थी। मेरा स्वभाव बहुत बुरा था, मैं मसीह-विरोधी की राह पर थी। अगर मैं प्रायश्चित कर नहीं बदली, तो क्या अंत में मेरा भी वही हश्र नहीं होगा? उस मुकाम पर मैंने देखा कि परमेश्वर के अनुशासन, उसके वचनों के न्याय और खुलासों के बिना, मैं अपने कर्मों की गंभीर प्रकृति कभी नहीं देख पाती। कुछ समय तक, मुझे बहुत पछतावा और अपराध-बोध हुआ, मैंने खुद से घृणा की। मुझे पहले अपना कर्तव्य निभाने का मौका न संजोने का पछतावा हुआ, लगा, सच में परमेश्वर की ऋणी हूँ।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े। "कलीसिया का अगुआ होने का अर्थ केवल समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का इस्तेमाल करना सीखना नहीं है, बल्कि प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाकर उन्हें विकसित करना भी है, जिनसे तुम्हें बिल्कुल ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए या जिनका बिल्कुल दमन नहीं करना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से कलीसिया के काम को लाभ पहुंचता है। अगर तुम अपने सभी कार्यों में अच्छा सहयोग करने के लिए सत्य के कुछ अनुयायी तैयार कर सको, और अंत में, तुम सभी के पास अनुभवात्मक गवाहियाँ हों, तो तुम एक योग्य अगुआ होगे। यदि तुम हर चीज में सिद्धांतों के अनुसार काम कर सको, तो तुम अपनी निष्ठा के अनुरूप जी रहे होगे। ... अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर पाने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की सिफ़ारिशकरते हो और उसका प्रशिक्षण करके उसे कोई कर्तव्य निभाने देते हो, और इस तरह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर से जोड़ते हो, तब क्या तुम्हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या इस कर्तव्य के निर्वहन में तुमने अपनी निष्ठा के अनुरूप काम नहीं किया होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; कम से कम एक अगुआ में इतना विवेक और सूझ-बूझ तो होनी ही चाहिए" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि अगुआओं और कर्मियों को प्रतिभाशाली लोगों को खोजने और प्रशिक्षित करने पर ध्यान देना चाहिए। अपने हितों के लिए उन्हें दबाने और उनसे ईर्ष्या करने से, परमेश्वर को चिढ़ होती है। उन बहनों से पहले के सहयोग पर अपने पछतावे के बारे में सोचकर, मैंने ठान ली कि आगे से किसी के साथ भी काम क्यों न करूँ, परमेश्वर के घर के हितों को आगे रखूँगी, अपनी नजर में आई किसी भी प्रतिभा की तुरंत सिफारिश करूँगी, और इस तरह परमेश्वर के आदेश के अनुसार अपनी जिम्मेदारी पूरी करूँगी। बाद की एक सभा में, मैंने दूसरों के सामने अपनी भ्रष्टता का खुलासा कर विश्लेषण किया, और दूसरों के साथ काम करते समय खुद को निरंतर याद दिलाती रही कि कलीसिया के कार्य में बाधा डालने का कोई काम नहीं करना है। कुछ समय बाद, मेरी सेहत में सुधार हुआ, और मैंने कलीसिया में वीडियो बनाने का काम शुरू कर दिया।

जल्द ही, कलीसिया ने थोड़े कौशल प्रशिक्षण के लिए मेरे साथ एक और बहन को लगाया। उसकी काबिलियत अच्छी थी, वह जल्द समझ लेती थी। मैंने सोचा, "उसने अच्छा काम किया, तो क्या मेरी जगह ले लेगी? अगर अगुआ देखें कि मैं इस बहन की अपेक्षा धीमे सीखती हूँ, तो क्या मुझे नीची नजर से देखेंगी?" ये ख्याल आने पर, मैंने उसे लगन से प्रशिक्षण नहीं देना चाहा। फिर मुझे एहसास हुआ, मेरी हालत सही नहीं थी, तो मैं तुरंत प्रार्थना करने चली गई, परमेश्वर से अपने दिल की निगरानी करने को कहा। परमेश्वर के कुछ वचन मुझे याद आए : "तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान रखना चाहिए, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए, कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए, और इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपने रुतबे की स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। यह विचार आने पर, मैंने अपनी गलत सोच त्याग कर उसे प्रशिक्षित करने की भरसक कोशिश की, कुछ ही दिन बाद, वह अपना कर्तव्य अपने-आप निभाने लगी। साथ काम करने से कर्तव्य में हमारी कार्यक्षमता थोड़ी सुधर गई। मैंने खुद अनुभव किया कि मेल-जोल वाले सहयोग से पूरी आजादी और शांति मिलती है। इससे परमेश्वर की आशीष मिलती है। मुझमें हुआ यह बदलाव पूरी तरह परमेश्वर के कार्य से हासिल हुआ है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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