24. मुझे छोड़कर सबकी तरक्की हुई

ली फे, इटली

जनवरी 2021 में, जिस प्रोजेक्ट के लिए मैं जिम्मेदार थी, वह पूरा होने वाला था। भाई-बहनों को धीरे-धीरे दूसरे कामों के लिए तबादला कर दिया गया, बचा-खुचा काम पूरा करने के लिए सिर्फ मैं और मेरी कुछ साथी रह गईं। उस समय जो काम मेरे हाथ में था, मैं उसे पूरा करने और आखिर तक टिके रहने की सोच रही थी। लेकिन एक दिन, अचानक पता चला कि मेरी एक साथी को तरक्की देकर अगुआ बना दिया गया है। वह सुसमाचार कार्य की प्रभारी होगी। इसने मुझे बेचैन कर दिया और मन में थोड़ी खटास आ गई। मुझे अगुआ क्यों नहीं बनाया गया? क्या मैं बतौर अगुआ या सुपरवाइजर काम नहीं कर सकती थी? पर फिर मैंने सोचा, "शायद उसे अधिक काबिल कर्मी होने की वजह से तरक्की दी गई। वैसे भी यहाँ मेरा काम अभी पूरा नहीं हुआ है और मेरे साथी भी यहाँ अपना काम कर रहे हैं, तो काम पूरा हो जाने पर, शायद हमारे लिए नए कामों की व्यवस्था की जाए।" लेकिन जल्दी ही, मेरे बाकी तीन साथियों को भी तरक्की देकर कलीसिया अगुआ या नवागंतुक कलीसियाओं का प्रभारी बना दिया गया। यह सुनकर तो मैं और भी बेचैन हो गई। वे सब अगुआ और कर्मी बना दिए गए और मैं वहीं की वहीं थी। उन सबका कार्यभार मुझे सौंप दिया गया। ऐसा लग रहा था जैसे अंत तक इन सब के लिए मुझे ही जिम्मेदार होना है। मैंने भी तो टीम में ही काम किया है, तो मेरे बजाय उन्हें क्यों तरक्की दी गई? क्या मैं वाकई इतनी बुरी थी? लगा जैसे भाई-बहन सोच रहे हों कि वे मुझसे बेहतर हैं। अब मैं सभी साथियों में सबसे खराब थी। कहीं अगुआओं को यह तो नहीं लग रहा कि मैं पोषण के लायक नहीं हूँ? उनके मन में मेरे प्रति कोई पूर्वाग्रह तो नहीं? मैं उनका कार्यभार नहीं लेना चाहती थी। लगा मैं जितना अधिक कार्यभार लूँगी, दूसरे काम उतने ही कम कर पाऊँगी। जब तक मेरा काम खत्म होगा, मेरे साथी अभ्यास कर आगे बढ़ चुके होंगे। वे अपने काम से परिचित होकर सिद्धांतों में महारत हासिल कर चुके होंगे, लेकिन मैं नौसिखिया ही बनी रहूँगी। अगर मुझे बाद में सुसमाचार का प्रचार करने या नए सदस्यों के सिंचन के लिए भेजा गया, और मेरा कोई पूर्व साथी मेरा सुपरवाइजर बन गया, तो इतना बड़ा अंतर बड़ा शर्मनाक होगा। इस बारे में सोच-सोचकर मुझे बहुत बुरा लगा। जब भाई-बहनों ने मुझे अपने कार्य का प्रभार लेने को कहा, तो मैंने इसका विरोध किया। मैं परेशान थी और कार्यभार नहीं लेना चाहती थी। दो दिन तक तो मैंने उनके सौंपे गए कामों को सीखने की भी कोशिश नहीं की। मुझे अपने काम की भी ज्यादा परवाह नहीं रही, मैंने देरी होने दी और काम का जायजा भी नहीं लिया, न तो किसी समस्या को हल करने पर विचार किया और न ही काम को अच्छे से करने की जरूरत महसूस की। हालाँकि मैंने चाहा कि मैं परमेश्वर के बनाए माहौल के अनुसार चलूँ, लेकिन मैं अभी भी निष्क्रिय थी, न जोश था, न रुचि। समझ नहीं आया प्रार्थना कर क्या कहूँ, मैंने दिल लगाकर परमेश्वर के वचन भी नहीं पढ़े। थोड़ा-बहुत एहसास था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं अपने साथियों के काम का भार नहीं लेना चाहती। जानती हूँ मेरी हालत ठीक नहीं है, मेरा मार्गदर्शन करो ताकि खुद को जान सकूं।"

प्रार्थना के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मुझे मेरी स्थिति से अवगत कराया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "अब, तुम सभी अपने कर्तव्यों का पूर्णकालिक निर्वहन करते हो। तुम परिवार, विवाह या धन-संपत्ति से बेबस या उनके बंधन में नहीं हो। तुम पहले ही इससे निकल चुके हो। लेकिन, तुम्हारे दिमाग में जो धारणाएँ, कल्पनाएँ, ज्ञान, और निजी इरादे व इच्छाएँ भरी हुई हैं, वे अपने मूल स्वरूप से बदली नहीं हैं। तो, जैसे ही रुतबे, इज्जत या प्रतिष्ठा पर बात आती है—उदाहरण के तौर पर, जब लोग सुनते हैं कि परमेश्वर के घर की तमाम प्रकार की प्रतिभाओं को पोषण देने की योजना है—हर किसी का दिल प्रत्याशा में उछलने लगता है, तुममें से हर कोई अपना नाम करना चाहता है और अपनी पहचान बनाना चाहता है। तुम सभी रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए लड़ने लगोगे। जिनमें थोड़ी समझ होती है, उन्हें होड़ करने पर शर्मिंदगी होती है, पर न करने पर उन्हें बुरा लगता है। कुछ लोगों को तब ईर्ष्या और नफरत होती है जब कोई व्यक्ति भीड़ से अलग दिखता है, और वे चिढ़ जाते हैं, और उन्हें यह अनुचित लगता है। 'मैं दूसरों से विशिष्ट क्यों नहीं हो सकता? हमेशा दूसरे लोगों को कीर्ति क्यों मिलती है? कभी मेरी बारी क्यों नहीं आती?' उन्हें कुछ नाराज़गी महसूस होती है। वे इसे दबाने की कोशिश करते हैं, लेकिन ऐसा नहीं कर पाते। वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और कुछ समय के लिए बेहतर महसूस करते हैं, लेकिन जब फिर से उनका सामना इसी तरह के मामले से होता है, तो वे इससे जीत नहीं पाते। क्या यह एक अपरिपक्व कद नहीं दिखाता है? जब लोग ऐसी स्थितियों में गिर जाते हैं, तो क्या वे शैतान के जाल में नहीं फँस गए हैं? ये शैतान की भ्रष्ट प्रकृति के बंधन हैं जो इंसानों को बाँध देते हैं। ... तुम जितना अधिक संघर्ष करोगे, उतना ही अंधेरा तुम्हारे आस-पास छा जाएगा, तुम उतनी ही अधिक ईर्ष्या और नफ़रत महसूस करोगे, और कुछ पाने की तुम्हारी इच्छा अधिक मजबूत ही होगी। कुछ पाने की तुम्हारी इच्छा जितनी अधिक मजबूत होगी, तुम ऐसा कर पाने में उतने ही कम सक्षम होगे, जैसे-जैसे तुम कम चीज़ें प्राप्त करोगे, तुम्हारी नफ़रत बढ़ती जाएगी। जैसे-जैसे तुम्हारी नफ़रत बढ़ती है, तुम्हारे अंदर उतना ही अंधेरा छाने लगता है। तुम्हारे अंदर जितना अधिक अंधेरा छाता है, तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन उतने ही बुरे ढंग से करोगे; तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन जितने बुरे ढंग से करोगे, तुम उतने ही कम उपयोगी होगे। यह एक आपस में जुड़ा हुआ, कभी न ख़त्म होने वाला दुष्चक्र है। अगर तुम कभी भी अपने कर्तव्य का निर्वहन अच्छी तरह से नहीं कर सकते, तो धीरे-धीरे तुम्हें हटा दिया जाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत का खुलासा कर दिया। उन दिनों मुझमें काफी प्रतिरोध और असंतोष का भाव था क्योंकि इज्जत और रुतबे की मेरी चाह अधूरी थी। जब मैंने देखा कि मेरे साथियों की तरक्की हो रही है, तो मेरे दिल में हलचल मच गई। मैं चाहती थी कि मुझे भी तरक्की मिले, ताकि रुतबा और लोगों का सम्मान हासिल कर सकूं, लेकिन जब पता चला कि अगुआ मुझे तरक्की देने के बजाय, मुझ पर साथियों के काम का भार डाल रहे हैं, तो मुझे अपने साथियों से ईर्ष्या होने लगी और यकीन हो गया कि अगुआ मेरे प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं या फिर मुझे नीची नजर से देखते हैं। जब मुझे लगा कि मैं अगुआओं की नजर में बदतर हूँ, मेरे सभी साथियों को तरक्की देकर अगुआ और सुपरवाइजर बनाया जा चुका है, जबकि मेरे पास कोई पद नहीं है, तो मैं बहुत दुखी और बेचैन हो गई। मैंने अपना गुस्सा काम पर निकाला। सौंपे गए काम की परवाह करनी बंद कर दी और अपने काम में भी अब मेरा दिल नहीं लगता था। मुझे इस विद्रोही हालत में देखना परमेश्वर को पसंद नहीं था, प्रार्थना के लिए न तो मेरे पास कोई शब्द थे, न उसके वचनों से मुझे कोई प्रबोधन मिल रहा था, अपने काम में भी मैं बदतर हो चुकी थी। परमेश्वर के वचनों के मुताबिक रुतबे के लिए होड़ अंधकार की ओर ले जाने वाला दुष्चक्र है जिसमें मैं फंस चुकी थी। बीते दिनों के बारे में सोचा तो मुझे अपनी शपथ याद आई कि अंत तक अपना कर्तव्य निभाऊँगी, लेकिन जैसे ही मैंने देखा कि औरों को तरक्की दी जा रही है, जबकि रुतबा पाने की मेरी हसरत अधूरी है, तो अपने कर्तव्य में मेरी रुचि समाप्त हो गई। रुतबा पाने की मेरी चाह बहुत प्रबल थी, मुझे इस हालत से निकलने के लिए तुरंत सत्य की खोज करनी थी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा कि तरक्की और पोषण को किस नजरिए से देखें जिसने मेरी हालत का समाधान किया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "यदि तुम अगुआई के लिए खुद को उपयुक्त मानते हो, तुम्हें लगता है कि तुम्हारे अंदर प्रतिभा, क्षमता और मानवता होते हुए भी परमेश्वर के घर ने तुम्हें पदोन्नत नहीं किया और भाई-बहनों ने तुम्हें नहीं चुना है, तो तुम्हें इस मामले में कैसे पेश आना चाहिए? यहाँ एक मार्ग है जिसका तुम अभ्यास कर सकते हो। अपने आपको को भली-भांति जानो। यह देखो कि कहीं तुम्हारी मानवता में वाकई कोई समस्या तो नहीं है या कहीं तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव का कोई पहलू लोगों में घृणा तो नहीं पैदा करता; कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे अंदर सत्य की वास्तविकता न हो और लोग आश्वस्त न होते हों, या तुम्हारे द्वारा किया गया कार्य असंतोषजनक तो नहीं है। तुम्हें इन सब बातों पर चिंतन कर देखना चाहिए कि वास्तव में तुममें क्या कमी है। कुछ समय आत्मचिंतन करने पर जब तुम्हें पता चल जाए कि समस्या कहाँ है, तो तुम्हें इसे दूर करने के लिए तुरंत सत्य खोजना चाहिए, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, बदलाव लाकर आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए, ताकि आस-पास के लोग तुम्हें देखकर कहें, 'आजकल यह व्यक्ति पहले से कहीं बेहतर हो गया। यह ठोस काम करता है, अपने पेशे को गंभीरता से लेता है और खासतौर से सत्य के सिद्धांतों पर ध्यान देता है। वह आवेश में आकर या लापरवाही और अनमने ढंग से कोई काम नहीं करता, अपने काम को लेकर बहुत ही कर्तव्यनिष्ठ और जिम्मेदार है। वह पहले अपना ढिंढोरा पीटा करता था, लेकिन अब बहुत ही शालीन हो गया है और अहंकार नहीं करता। वह अपने काम को लेकर डींगें नहीं हाँकता, कोई कार्य खत्म करने के बाद, यह सोचकर बार-बार चिंतन करता है कि कहीं उससे कुछ गलत तो नहीं हो गया। वह काम करते समय बहुत सतर्क रहता है और अब वह अपने हृदय में परमेश्वर का भय मानता है—और सबसे बड़ी बात, वह समस्याएँ दूर करने के लिए सत्य पर सहभागिता कर सकता है। वास्तव में, उसका काफी विकास हुआ है।' तुम्हारे आस-पास के लोग तुमसे बातचीत करने पर पाएंगे कि तुममें साफ तौर पर बदलाव आया है और तुम्हारा विकास हुआ है; अपने दैनिक जीवन और दूसरों के प्रति अपने आचरण में, काम के प्रति अपने रवैये में और सत्य के सिद्धांतों के साथ अपने व्यवहार में, तुम पहले की तुलना में अधिक प्रयास करते हो, बहुत सावधानी से बोलने और कार्य करने लगे हो। यदि भाई-बहन यह सब देखकर प्रभावित हो जाएँ, तो शायद तुम अगले चुनाव में प्रत्याशी के रूप में खड़े हो सकते हो। एक प्रत्याशी के रूप में, तुम्हारे पास उम्मीद होगी; यदि तुम वास्तव में कोई महत्वपूर्ण कार्य कर पाओ, तो तुम्हें परमेश्वर का आशीर्वाद मिलेगा। यदि तुमने सही मायने में बोझ उठाया है और तुममें जिम्मेदारी की भावना है, तुम भार वहन करना चाहते हो, तो तुम अपने आपको प्रशिक्षित करो। सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान दो और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करो; एक बार जब तुम्हारे पास जीवन का अनुभव आ जाता है और तुम गवाही के निबंध लिखने योग्य हो जाते हो, तो इसका अर्थ है कि सच में तुम्हारा विकास हो गया है। और यदि तुम परमेश्वर की गवाही दे सकते हो, तो तुम निश्चय ही पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त कर सकते हो। यदि पवित्र आत्मा काम कर रहा है, तो परमेश्वर तुम पर अनुग्रह की दृष्टि से देखता है और पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन पाकर तुम्हारे लिए शीघ्र ही अवसर का निर्माण होगा। तुम पर इस समय भार हो सकता है, लेकिन तुम्हारा आध्यात्मिक कद अपर्याप्त है और जीवन अनुभव बहुत उथला है, इसलिए यदि तुम अगुआ बन भी जाओ, पर तुम्हारे लड़खड़ाने की संभावना रहेगी। तुम्हें जीवन में प्रवेश करना चाहिए, अपनी असाधारण इच्छाएँ नियंत्रित करनी चाहिए, स्वेच्छा से अनुयायी बनना चाहिए और बिना कुड़कुड़ाए, परमेश्वर चाहे जो भी आयोजन करे या योजना बनाए, उसका पालन करना चाहिए। जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद ऐसा बन जाएगा, तो तुम्हारा अवसर आ जाएगा। यह अच्छी बात है कि तुम भारी बोझ उठाना चाहते हो और तुम पर यह बोझ है। यह दर्शाता है कि तुममें एक सकारात्मक, अग्रसक्रिय हृदय है, तुम परमेश्वर की इच्छा का पालन करना चाहते हो और उसके इरादों के प्रति विचारशील होना चाहते हो। यह महत्वाकांक्षा नहीं है, बल्कि एक सच्चा भार है; यह सत्य का अनुसरण करने वालों का दायित्व है और उनके अनुसरण का लक्ष्य भी है। यदि तुम निःस्वार्थ हो, तुम अपने लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर की गवाही देने और उसे संतुष्ट करने के लिए कटिबद्ध हो, तब तुम जो कर रहे हो, उसे परमेश्वर का सर्वाधिक आशीष प्राप्त है, वह तुम्हारे लिए उपयुक्त व्यवस्था कर देगा। ... परमेश्वर की इच्छा अधिक लोगों को प्राप्त करने की है जो उसके लिए गवाही दे सकें; उसकी इच्छा उन सभी को पूर्ण करने की है जो उससे प्रेम करते हैं और जल्द से जल्द ऐसे लोगों का एक समूह बनाना चाहता है जो उसके साथ हृदय और मन से एक साथ हैं। इसलिए, परमेश्वर के घर में सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोगों के लिए भरपूर संभावनाएं हैं, जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर से प्रेम करते हैं, उनके लिए असीम संभावनाएं हैं। सभी को उसकी इच्छा समझनी चाहिए। इस भार को वहन करना वाकई एक सकारात्मक बात है। जिन लोगों में अंतरात्मा और विवेक है, उन्हें इसे वहन करना चाहिए, लेकिन जरूरी नहीं कि हर कोई भारी बोझ वहन कर सके। यह विसंगति कहाँ से आती है? तुम्हारी क्षमता या योग्यता कुछ भी हो, तुम्हारा बौद्धिक स्तर कितना भी ऊँचा हो, यहाँ महत्वपूर्ण है तुम्हारा लक्ष्य और वह मार्ग जिस पर तुम चलते हो" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि तुम्हारी तरक्की और पोषण तुम्हारे अनुसरण और मार्ग पर निर्भर करते हैं। अगर तुम सत्य का अनुसरण कर सच्चे मन से जिम्मेदारी लेते हो, अगर तुममें थोड़ी काबिलियत और प्रतिभा है, तो परमेश्वर का घर तुम्हें मौके देगा, तरक्की देकर तुम्हारा पोषण करेगा और महत्वपूर्ण कार्य सौंपेगा। लेकिन अगर लोग सत्य का अनुसरण न करें और गलत मार्ग अपना लें, तो अगुआ बनकर भी वे लंबे समय तक नहीं टिक सकते। ऐसे लोग तरक्की पाने के लिए उपयुक्त नहीं होते। परमेश्वर के वचन खुद पर लागू करने पर मुझे शर्मिंदगी हुई। मैंने देखा कि मैं गलत थी, मुझे अपने या अपने वास्तविक आध्यात्मिक कद का कोई ज्ञान नहीं था। मुझे लगता था कि मैं खास तौर पर काबिल और अच्छी हूँ, अगर मेरे साथियों को तरक्की दी गई, तो मैं भी तरक्की पाने लायक हूँ। मैंने यह नहीं देखा कि क्या मैं सत्य का अनुसरण करती हूँ, क्या मुझमें मानवीय पात्रता है और क्या मैं काम की जिम्मेदारी उठा सकती हूँ। बल्कि, मैंने आँख मूँदकर तुलना की और तरक्की पाने के पीछे लगी रही। सच तो यह है कि मुझे परमेश्वर की इच्छा का कोई ख्याल नहीं था। मैं कलीसिया के काम में हाथ बँटाकर अपनी जिम्मेदारियां पूरी नहीं करना चाहती थी। साबित करना चाहती थी कि मैं अपने साथियों से बदतर नहीं हूँ, मैं उच्च पद पाना चाहती थी ताकि लोगों के सामने दिखावा कर उनका सम्मान अर्जित कर सकूँ। कर्तव्य निर्वहन के पीछे मेरी अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ थीं, अगर मैं अगुआ बन जाती, तो भी रुतबे के पीछे ही भागती। इज्जत और रुतबे के लिए काम करने से अच्छी तरह कर्तव्य निभा पाना असंभव है। मेरा अगुआ न बनना मेरे लिए सुरक्षा थी। मैं यह भी समझ गई कि तरक्की न मिलने पर सच्चा विवेकशील इंसान अपना कर्तव्य अच्छे से निभाकर संतुष्ट होगा। वह अपनी कमियों पर विचार कर अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजेगा, प्रगति करने और बदलाव लाने का प्रयास करेगा। परमेश्वर के वचनों के आधार पर आत्मचिंतन करते हुए, मैंने जाना कि दरअसल मुझमें औसत दर्जे की काबिलियत है और मैंने सत्य का अनुसरण भी नहीं किया है। मैं बस अपने दैनिक कार्य निबटा कर ही संतुष्ट थी, कभी अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने पर ध्यान नहीं दिया, परमेश्वर में बरसों विश्वास रखने के बावजूद, मैं बहुत प्रतिस्पर्धी बनी रही, अक्सर मुझे अपनी इज्जत और रुतबे की चिंता रहती, और जब मुझे रुतबा न मिलता, तो अपना गुस्सा काम पर निकालकर उसकी अवहेलना करती। मुझमें सत्य की कोई वास्तविकता नहीं थी, इसके बावजूद तरक्की चाहती थी। मुझे अपने बारे में जरा-सा भी ज्ञान न था। मुझे पता था कि अब तरक्की के पीछे नहीं भागना होगा। आज्ञाकारी बनकर विनम्रता से अपना काम करना होगा। मुझमें यह विवेक होना चाहिए। इस का एहसास होने पर, मेरी बेचैनी खत्म हो गई और मैंने अपने काम में सामान्य प्रगति करनी शुरू कर दी। मैं यह भी विचार करने लगी कि काम को बारीकी से और बखूबी कैसे पूरा किया जाए, ताकि काम खत्म होने पर कोई पछतावा न रहे। मैं भाई-बहनों के साथ कर्तव्य के भटकावों, गलतियों और लाभों पर भी विचार करती। इस तरह अभ्यास करते हुए, मैं सहज और सुरक्षित महसूस करती।

कुछ समय बाद, कलीसिया ने मेरे लिए कई नवागंतुक कलीसियाओं की अंशकालिक निगरानी की व्यवस्था की। इस व्यवस्था के बारे में सुनकर, मेरी प्रतिक्रिया मिली-जुली थी। लगा कि मुझमें बहुत-सी कमियां हैं और मैं नए लोगों के सिंचन से अपना अभ्यास शुरू करूंगी, लेकिन कलीसिया ने सुपरवाइजर बनाकर मुझे पोषण का मौका दिया था। मैंने अपने अगुआओं को गलत समझकर यह अनुमान लगाया कि मेरे प्रति उनके मन में पूर्वाग्रह है और जानबूझकर मुझे तरक्की नहीं दे रहे, जबकि वे लोगों के चयन और उनकी उपयोगिता के सिद्धांतों के आधार पर और कलीसिया के काम की जरूरतों को देखकर चीजों का मूल्यांकन करते हैं। मेरी ऐसी सोच रुतबे के लिए होड़ की स्थिति में जीने के कारण थी, इसलिए मैं गलत थी। यह सोचकर ही मुझे शर्मिंदगी होने लगी। सुपरवाइजर के रूप में अभ्यास करते हुए, मैं काफी दबाव महसूस करती, मैं चाहती थी कि सत्य हासिल कर अपना काम अच्छे से करूँ। उसके बाद के दिनों में, अगर कोई चीज समझ न आती, तो मैं अपने साथियों से मदद लेती, मेरा लगभग सारा समय कलीसिया के काम में बीत जाता। लेकिन कुछ समय बाद, मैं जिन कलीसियाओं के काम की निगरानी कर रही थी, वह उतना प्रभावी नहीं था, तब जाकर समझ में आया कि मुझमें बहुत-सी कमियाँ हैं। मुझे यह भी एहसास हुआ कि रुतबा होने के बावजूद, अगर सत्य न हो, तो अच्छी तरह कार्य करना असंभव है, मुझे और भी ज्यादा शर्मिंदगी महसूस हुई कि मैं हमेशा से ही अगुआ बनना चाहती थी। उस दौरान, मैंने यह सोचना बंद कर दिया कि लोगों की प्रशंसा कैसे हासिल करूँ, बस अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती थी। मैं अपने कर्तव्य के प्रति और भी विनम्र हो गई, तो लगा मेरा शोहरत और रुतबे के पीछे भागना थोड़ा कम हुआ है, और मैं अपने काम पर ठीक से ध्यान दे पा रही हूँ। लेकिन एक दूसरा माहौल मिलते ही, मैं फिर से उजागर हो गई।

जून 2021 में, कलीसिया ने मुझे एक दूसरा प्रोजेक्ट सौंपा जिसमें ज्यादा काम था और समय सीमा बहुत सख्त थी। हालाँकि मुश्किलें बहुत थीं, लेकिन हम सबकी कड़ी मेहनत से, कुछ ही महीनों में हमारा काम काफी प्रभावी होने लगा, और पिछले साल के मुकाबले हमने दोगुना काम कर डाला। मुझे बहुत गर्व हुआ, मुझे लगा ये परिणाम हासिल करने में मेरी अहम भूमिका रही है, इसलिए अगर अगुआ किसी को तरक्की देना चाहेंगे, तो शायद मेरे बारे में सोचेंगे। अप्रत्याशित रूप से, अगले कुछ दिनों में, मैंने सुना कि अगुआ लोगों को तरक्की और प्रशिक्षण देने पर चर्चा कर रहे हैं बीच-बीच में मुझे अपने परिचित भाई-बहनों के नाम सुनाई देने लगे। यह खबर सुनकर मेरा मन खट्टा हो गया और मन में फिर से वही उथल-पुथल चलने लगी, "लगता है वे हर जगह तरक्की और पोषण देने के लिए लोगों की तलाश कर रहे हैं, और जो थोड़ा भी उपयुक्त है, उसके नाम पर विचार कर रहे हैं। मैं अपने काम में प्रभावी रही हूँ, जब लोगों की कमी पड़ रही है, तो अगुआओं ने मुझे तरक्की देने पर विचार क्यों नहीं किया? क्या अगुआओं ने मेरे अंदर झाँककर देखा है और फैसला किया कि मैं सत्य का अनुसरण नहीं करती? क्या उन्हें यही लगता है कि मैं केवल बाहरी काम संभालने लायक हूँ? अगर वे ऐसा ही सोचते हैं, तो क्या मुझे कभी तरक्की और पोषण पाने का मौका मिलेगा?" इन विचारों से असहज होकर, मुझे अपना भविष्य अंधकारमय लगने लगा। लगा चाहे कितनी भी कोशिश कर लूं, मुझे तरक्की का मौका कभी नहीं मिलेगा। मैं अगुआओं के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हो गई। जब कभी अगुआ मुझसे बात करते, तो मैंने उन्हें अनदेखा कर देती। मैं कम से कम बोलती और बहनों से मिलने की इच्छा भी न होती। मन खिन्न रहता, ज्यादा बोलने का मन न करता, सारा समय अकेले बिताना चाहती थी। अनजाने में मैंने अपने कर्तव्य का बोझ उठाना भी बंद कर दिया। लगा मैं कितना भी अच्छा करूँ, जब अगुआ मेरे प्रयास और समर्पण को देखते ही नहीं, तो मैं इतनी मेहनत क्यों करूं? बस चलताऊ काम ही करूँगी।

एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास और सत्य की खोज हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज है; हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज सत्य की खोज भी है, और हैसियत और प्रतिष्ठा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा या हैसियत नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या आराधना या उनका अनुसरण नहीं करता, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन ही मन कहते हैं, 'क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?' वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में उनके पास शक्ति हो, प्रतिष्ठा हो, ताकि वे लाभ और हैसियत प्राप्त कर सकें—वे अक्सर ऐसी चीजों पर विचार करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे दौड़ते हैं। वे हमेशा ऐसी बातों के बारे में ही क्यों सोचते रहते हैं? परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, प्रवचन सुनने के बाद, क्या वे वाकई यह सब नहीं समझते, क्या वे वाकई यह सब नहीं जान पाते? क्या परमेश्वर के वचन और सत्य वास्तव में उनकी धारणाएँ, विचार और मत बदलने में सक्षम नहीं हैं? मामला ऐसा बिलकुल नहीं है। समस्या उनके साथ शुरू होती है, यह पूरी तरह से इसलिए है क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, क्योंकि अपने दिल में वे सत्य से ऊब चुके होते हैं, और परिणामस्वरूप, वे सत्य के प्रति बिल्कुल भी ग्रहणशील नहीं होते—जो उनके स्वभाव और सार से निर्धारित होता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के वचनों से, मैंने देखा कि मसीह-विरोधी शोहरत और रुतबे को संजोते हैं और उसी को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं। रुतबा न मिलने पर, परमेश्वर में विश्वास उन्हें उबाऊ लगने लगता है। परमेश्वर में आस्था या कर्तव्यों के प्रति उनमें कोई निष्ठा नहीं होती, न ही वे सत्य समझने के लिए ये काम करते हैं। बल्कि, वे शोहरत और रुतबा हासिल करने, लोगों की प्रशंसा और सम्मान पाने के लिए करते हैं। इससे पता चलता है कि मसीह-विरोधी का स्वभाव बुरा होता है। मुझे याद आया कि कैसे मैं तरक्की और पोषण के पीछे भागा करती थी और न मिलने पर निष्क्रिय हो जाती और सारा जोश चला जाता था। शोहरत और रुतबे के पीछे भागना मेरे काबू में नहीं था। यह वैसा ही था जैसा एक मसीह-विरोधी में देखा जाता है। मुझे याद आया कि पढ़ाई के दौरान, मैंने "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है," "जो सैनिक सेनापति बनने का सपना न देखे, वह एक बुरा सैनिक है," और ऐसे ही शैतानी विषों के अनुसार जीने का नियम बना लिया था, सबसे अच्छे ग्रेड पाने की कोशिश करती थी। अगर मुझे प्रथम स्थान न मिले, तो भी कम से कम काबिल छात्र बनकर अपने सहपाठियों और शिक्षकों की प्रशंसा तो पानी ही थी। परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, मैंने यह सोचकर अगुआ बनने को अपना लक्ष्य बना लिया कि अगर रुतबा होगा, तो मुझे परमेश्वर के घर में जगह मिल जाएगी, मैं अपनी मौजूदगी का एहसास करा पाऊँगी, अधिक लोगों से सम्मान और प्रशंसा पा सकूँगी, फिर मेरी बातों का भी वजन होगा। फिर जब कलीसिया के काम के लिए तत्काल लोगों की जरूरत थी और अगुआओं ने मेरे नाम पर विचार नहीं किया, तो मैंने खुद को निष्क्रिय और दयनीय महसूस किया, काम करने का उत्साह नहीं रहा, यहाँ तक कि परमेश्वर में अपनी आस्था में आगे कोई दिशा या लक्ष्य नजर नहीं आया। शोहरत और रुतबे की चाह ही मेरी जिंदगी बन गई थी। हर दिन मेरा जीवन और मेरे कार्य इसी से नियंत्रित होते थे, मैं चाहे किसी भी समूह में क्यों न रहूँ, हमेशा यही चाहती थी कि लोग मेरी प्रशंसा करें, मुझे पीछे छूटना पसंद नहीं था। जब अगुआओं ने मेरी सराहना की, मेरे बारे में ऊँची राय रखी और महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए तरक्की दी, तो मुझे अच्छा लगा, लेकिन उनकी सराहना और तरक्की के बिना, मैं नकारात्मक और पथभ्रष्ट हो गई, मैं चलताऊ काम करने लगी, मेरी रुचि खत्म हो गई, इच्छा हुई कि छोड़ दूँ। अब मुझे साफ समझ आया कि परमेश्वर में मेरा विश्वास सच्चा नहीं था, यह केवल रुतबे के लिए था। जब मेरा रुतबा ऊँचा था, तो मैंने डटकर अनुसरण किया, लेकिन रुतबा नहीं मिला, तो मैं भटक गई और अपना लक्ष्य खो दिया। शोहरत और रुतबे का लालच मेरी नस-नस में समा चुका था। जब भी ऐसी स्थिति आती, तो मैं नकारात्मक और कमजोर हो जाती, विद्रोह की स्थिति में रहती, काम करने का मन न करता। फिर अचानक एहसास हुआ कि अगर ऐसे ही चलता रहा, तो गंभीर खतरे में पड़ जाऊँगी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा, "अगर तुम रुतबे और प्रतिष्ठा की इच्छा संजोए रहते हो, तुम्हें उनसे गहरा लगाव है, तुम उन्हें छोड़ना सहन नहीं कर सकते, अगर तुम्हें हमेशा यह लगता है कि रुतबे और प्रतिष्ठा के बिना जीने में कोई खुशी या आशा नहीं है, कि इस जीवन में आशा केवल तब ही होती है जब तुम रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए जीते हो, कि यदि तुम अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो, तब भी तुम रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए लड़ते रहोगे, तुम कभी हार नहीं मानोगे, थोड़े-से यश और रुतबे से भी लोगों की प्रशंसा पाई जा सकती है—यदि यह तुम्हारी मानसिकता है, यदि तुम्हारा हृदय ऐसी बातों से भरा है, तो तुम न तो सत्य से प्रेम कर सकते हो और न ही उसका अनुसरण कर सकते हो, परमेश्वर के प्रति तुम्हारी आस्था में सही दिशा और लक्ष्यों की कमी है, तुम आत्म-ज्ञान का अनुसरण नहीं कर सकते, अपनी भ्रष्टता दूर कर एक इंसान की तरह नहीं जी सकते; तुम अपना कर्तव्य निभाते समय चीजों को अनदेखा करते हो, तुममें जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, तुम बस इस बात से संतुष्ट हो जाते हो कि तुम कोई बुराई नहीं कर रहे, कोई मुसीबत खड़ी नहीं कर रहे और तुम्हें निकाला नहीं जा रहा। क्या ऐसे लोगों का कर्तव्य पालन स्वीकार्य स्तर का हो सकता है? और क्या उन्हें परमेश्वर के द्वारा बचाया जा सकता है? असंभव। तुम प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए कार्य करते समय भी सोचते हो, 'दिखावा करना बुरा नहीं है। मैं अपना काम कर रहा हूँ; अगर मैं कोई बुरा काम नहीं कर रहा और उससे कोई अशांति पैदा नहीं होती, तो फिर भले ही मेरी मंशा गलत हो, कोई उसे न तो देख सकता है और न ही मेरी निंदा कर सकता है।' तुम्हें पता नहीं कि परमेश्वर सबकी की जांच करता है। यदि तुम सत्य नहीं स्वीकारते या उसका अभ्यास नहीं करते, और अगर परमेश्वर तुमसे घृणा कर तुम्हें नकार दे, तो समझो तुम्हारे लिए सब खत्म हो गया है। जो लोग परमेश्वर का भय नहीं मानते, वे खुद को चतुर समझते हैं; वास्तव में, उन्हें पता भी नहीं चलता कि उन्होंने कब उसे ठेस पहुँचा दी। कुछ लोग इन बातों को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते; उन्हें लगता है, 'मैं तो केवल अधिक कार्य करने और अधिक जिम्मेदारियाँ लेने के लिए ही प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे पड़ा हूँ। इससे परमेश्वर के घर के कार्य में कोई रुकावट या व्यवधान थोड़ी आ रहा है और निश्चित रूप से उसके घर के हितों को नुकसान नहीं पहुंच रहा। यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। परमेश्वर कोई ज्यादा अपेक्षा नहीं करता, वह लोगों को वो काम करने के लिए बाध्य नहीं करता जो वे नहीं कर सकते या नहीं करेंगे। अगर मुझे अपने रुतबे से प्रेम है और मैं उसकी रक्षा करता हूँ, तो यह कोई बुरा काम नहीं है।' हो सकता है कि देखने में इस तरह का मकसद बुरा कार्य न लगे, लेकिन अंत में इसका नतीजा क्या होता है? क्या ऐसे लोगों को सत्य प्राप्त होता है? क्या वे उद्धार प्राप्त कर पाएँगे? बिल्कुल नहीं। इसलिए, प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे भागना सही मार्ग नहीं है—यह मार्ग सत्य की खोज के बिल्कुल विपरीत दिशा में है। संक्षेप में, तुम्हारी खोज की दिशा या लक्ष्य चाहे जो भी हो, यदि तुम प्रतिष्ठा और रुतबे की खोज पर विचार नहीं करते और अगर तुम्हें इन चीजों को दरकिनार करना बहुत मुश्किल लगता है, तो इनका असर तुम्हारे जीवन प्रवेश पर पड़ेगा; जब तक तुम्हारे दिल में रुतबा बसा हुआ है, तब तक यह तुम्हारे जीवन की दिशा और उन लक्ष्यों को पूरी तरह से नियंत्रित और प्रभावित करेगा जिनके लिए तुम प्रयासरत हो और ऐसी स्थिति में अपने स्वभाव में बदलाव की बात तो तुम भूल ही जाओ, तुम्हारे लिए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना भी बहुत मुश्किल होगा; तुम अंततः परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह मामला बेशक अलग है। इसके अलावा, यदि तुमने कभी रुतबे के पीछे भागना नहीं छोड़ा, तो इससे तुम्हारे ठीक से कर्तव्य निभाने की क्षमता पर भी असर पड़ेगा। तब तुम्हारे लिए परमेश्वर का एक स्वीकार्य प्राणी बनना बहुत मुश्किल हो जाएगा। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? जब लोग रुतबे के पीछे भागते हैं, तो परमेश्वर को इससे बेहद घृणा होती है, क्योंकि रुतबे के पीछे भागना शैतानी स्वभाव है, यह एक गलत मार्ग है, यह शैतान की भ्रष्टता से पैदा होता है, परमेश्वर इसका तिरस्कार करता है और परमेश्वर इसी चीज का न्याय और शुद्धिकरण करता है। लोगों के रुतबे के पीछे भागने से परमेश्वर को सबसे ज्यादा घृणा है और फिर भी तुम अड़ियल बनकर रुतबे के लिए होड़ करते हो, उसे हमेशा संजोए और संरक्षित किए रहते हो, उसे हासिल करने की कोशिश करते रहते हो। क्या इन तमाम चीजों की प्रकृति परमेश्वर-विरोधी नहीं है? लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, और अंततः उन्हें परमेश्वर का एक स्वीकार्य प्राणी, परमेश्वर का एक छोटा और नगण्य प्राणी बनाता है—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिसकी हजारों लोगों द्वारा आराधना की जाती हो। और इसलिए, इसे चाहे किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, रुतबे के पीछे भागने का मतलब एक अंधी गली में पहुँचना है। रुतबे के पीछे भागने का तुम्हारा बहाना चाहे जितना भी उचित हो, यह मार्ग फिर भी गलत है, और परमेश्वर इसकी प्रशंसा नहीं करता। तुम चाहे कितना भी प्रयास करो या कितनी बड़ी कीमत चुकाओ, अगर तुम रुतबा चाहते हो, तो परमेश्वर तुम्हें वह नहीं देगा; अगर परमेश्वर तुम्हें रुतबा नहीं देता, तो तुम उसे पाने के संघर्ष में नाकाम रहोगे, और अगर तुम संघर्ष करते ही रहोगे, तो उसका केवल एक ही परिणाम होगा : तुम्हें उजागर करके निकाल दिया जाएगा, जिसके आगे कोई मार्ग नहीं है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं घबरा गई, लगा यह मेरे लिए परमेश्वर की चेतावनी है। अगर अभी भी मन में रुतबे को संजोए रखा और सोचा कि रुतबे और अहम भूमिकाओं के बिना जीवन बेकार है, तो रुतबे के लिए होड़ करना और परमेश्वर के विरुद्ध जाना मेरा लक्ष्य बन जाएगा, यह एक सृजित प्राणी के आचरण और अपने कर्तव्य से विमुख होना होगा, इस मार्ग पर चलना अंधे कुएँ में गिरना है, अंतत: मुझे नरक में भेजकर दंडित किया जाएगा! भय से कांपते हुए, मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को बार-बार पढ़ा, और दिल से महसूस किया कि परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का अपमान नहीं किया जा सकता। मुझे लगता था चूँकि इंसानों का स्वभाव भ्रष्ट होता है, इसलिए शोहरत और रुतबे के पीछे भागना सामान्य बात है, हर व्यक्ति बेहतर रुतबा चाहता है, और जो ऐसा नहीं चाहते, वो महत्वाकांक्षी नहीं होते, उनका न कोई लक्ष्य होता है, न दृढ़ संकल्प। इसलिए, मैंने अपनी इस भ्रष्टता को गंभीरता से नहीं लिया। कभी-कभी मुझे बस नकारात्मकता महसूस होती और सोचती कुछ दिनों के बाद बेहतर महसूस होने लगेगा। इससे मेरे काम में बहुत देर नहीं होती और कुछ गलत काम भी नहीं करती, तो मुझे यह कोई बड़ी समस्या नहीं लगती थी। लेकिन परमेश्वर ने साफ तौर पर बता दिया कि रुतबे पीछे भागना एक अंधा कुआँ है! मनन करने से कुछ बातें समझ में आईं। शोहरत और रुतबे के पीछे भागना एक शैतानी स्वभाव है, यह परमेश्वर के विरोध का मार्ग है। इस तरह अनुसरण करना परमेश्वर के खिलाफ जाना और रुतबे के लिए उससे होड़ करना है, और जो ऐसा करते हैं, उन्हें परमेश्वर अपने प्रतिरोध की वजह से दंडित करेगा। मैंने महादूत के बारे में सोचा, जिसका रुतबा पहले ही काफी ऊँचा था, लेकिन वह संतुष्ट नहीं था। उसे परमेश्वर के पद की लालसा थी और उसी के बराबर बनना चाहता था, अंत में, परमेश्वर ने उसे हवा में उड़ा दिया। मैं पहले से ही कलीसिया में किसी कार्य की प्रभारी थी। अपनी काबिलियत और आध्यात्मिक कद को देखते हुए, मैं उतना महत्वपूर्ण कार्यभार लेने के लायक नहीं थी। फिर भी मैं संतुष्ट नहीं थी। मैंने अपने कार्य में सबसे अच्छे नतीजे हासिल करने का प्रयास नहीं किया। बल्कि मैं दिखावा करने और लोगों का सम्मान पाने के लिए ही अधिक काम करना चाहती थी। क्या मैं महादूत की तरह ही नहीं थी? मेरा शोहरत और रुतबे के लिए संघर्ष की हालत में रहना, मेरी सोच के मुताबिक केवल कुछ दिनों की नकारात्मकता नहीं थी, इससे काम बाधित होता था और नौबत यहाँ तक आ गई थी कि रुतबा न मिलने पर मैं पद छोड़ने तक को तैयार थी, जहाँ मैंने परमेश्वर के घर के काम को गंभीरता से नहीं लिया, जहाँ मैं अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन थी, चलताऊ काम और टाल-मटोल करने में लगी रहती थी, मुझे परमेश्वर के घर के काम को होने वाले नुकसान की कोई परवाह नहीं थी। मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं के आगे समर्पित होने को तैयार नहीं थी, हमेशा रुतबे के लिए लड़ती थी, और रुतबा न मिलने पर निष्क्रिय होकर दुश्मन बन जाती थी। मैं परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर चल रही थी, तो परमेश्वर मुझसे घृणा कैसे न करता? यह सोचकर मुझे डर और अफसोस होने लगा। मैंने तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की कि मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ, अब शोहरत और रुतबे के पीछे नहीं भागना चाहती।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में शोहरत और रुतबे की बेड़ियों से बचने का मार्ग खोज लिया और समझ गई कि एक सृजित प्राणी को क्या करना चाहिए। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "जीवधारियों में से एक होने के नाते, मनुष्य को अपनी स्थिति को बना कर रखना होगा और शुद्ध अंतःकरण से व्यवहार करना होगा। सृष्टिकर्ता के द्वारा तुम्हें जो कुछ सौंपा गया है, कर्तव्यनिष्ठा के साथ उसकी सुरक्षा करो। अनुचित ढंग से आचरण मत करो, या ऐसे काम न करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की चेष्टा मत करो, दूसरों से श्रेष्ठ होने की कोशिश मत करो, न ही परमेश्वर बनने की कोशिश करो। लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना और भी अधिक लज्जाजनक है; यह घृणित है और नीचता भरा है। जो काम तारीफ़ के काबिल है और जिसे प्राणियों को सब चीजो से ऊपर मानना चाहिए, वह है एक सच्चा जीवधारी बनना; यही वह एकमात्र लक्ष्य है जिसे पूरा करने का निरंतर प्रयास सब लोगों को करना चाहिए" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I')। परमेश्वर के वचन साफ कहते हैं कि रुतबे के पीछे भागने और महामानव बनने जैसी चीजों से परमेश्वर को घृणा है। लोगों का असली लक्ष्य एक सच्चा सृजित प्राणी बनना होना चाहिए। परमेश्वर के वचन पढ़कर, समझ गई कि मुझे क्या करना चाहिए। मैं एक सृजित प्राणी हूँ और परमेश्वर अच्छी तरह जानता है कि मैं कौन-सा काम कर सकती हूँ। मैं चाहे किसी भी पद पर रहूँ, परमेश्वर चाहता है कि मैं विनम्र रहकर एक सृजित प्राणी की भूमिका निभाऊँ और ठीक से अपने कर्तव्य का पालन करूँ। मुझे अपनी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ त्यागने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, चाहे कोई भी कार्य करूँ, मुझे परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए। ईमानदारी से जिम्मेदारियाँ निभाते हुए, अपने कार्य में प्रभावी होने का प्रयास करना चाहिए। एक सृजित प्राणी को यही करना चाहिए। उसके बाद, मैंने तरक्की पाने या न पाने का विचार त्याग दिया। बल्कि समझदारी से विचार किया कि सबसे अच्छे नतीजे पाने के लिए और अधिक कुशल कैसे बनूँ, मैंने समस्याएं हल करने के अनेक तरीकों पर विचार किया। कुछ समय बाद, मैंने कुछ मुश्किलें हल करने के लिए भाई-बहनों के साथ मिलकर काम किया, इससे हमारी कार्य-कुशलता बढ़ गई।

आने वाले दिनों में भी, मैं बीच-बीच में सुनती कि मेरे पहले के साथियों को अगुआ या सुपरवाइजर के रूप में तरक्की दी गई है। हालाँकि अभी भी थोड़ी निराशा होती थी, क्योंकि मुझे लगता कि बाकी लोग तरक्की पाकर अपनी मौजूदगी दिखा सकते हैं, जबकि मैं अभी भी वहीं अटकी हुई थी, लेकिन तुरंत एहसास होता कि रुतबा पाने की मेरी इच्छा फिर से सिर उठा रही है। तो मैं फौरन प्रार्थना करती और अपनी इच्छाओं का त्याग करती, मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आते, "लोगों के लिए रुतबे को परमेश्वर ने नियत नहीं किया है; परमेश्वर लोगों को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान करता है, और अंततः उन्हें परमेश्वर का एक स्वीकार्य प्राणी, परमेश्वर का एक छोटा और नगण्य प्राणी बनाता है—वह इंसान को ऐसा व्यक्ति नहीं बनाता जिसके पास रुतबा और प्रतिष्ठा हो और जिसकी हजारों लोगों द्वारा आराधना की जाती हो।" तब, मेरे लक्ष्य स्पष्ट थे। मैंने जाना कि परमेश्वर लोगों का रुतबा पहले से तय नहीं करता। तुम्हारा कर्तव्य चाहे कुछ भी हो, तुम अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हो। यह सही पद पर रहकर अपनी क्षमताओं और योग्यताओं का इस्तेमाल करना भी है। अगुआ होने का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे पास रुतबा है, कोई पद छोटा-बड़ा नहीं होता। परमेश्वर की अपेक्षा यह है कि हम योग्य सृजित प्राणी बनकर, परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन करें। केवल यही सही अनुसरण है। अगर लोग परमेश्वर की आज्ञा न मानें और अपने कर्तव्यों का पालन न करें, केवल ऊँचाई पर पहुँचने और रुतबा हासिल करने की सोचें, तो यह शर्मनाक है। मैं यह भी समझ गई कि अपने आस-पास के भाई-बहनों की तरक्की के बारे में देखना-सुनना मेरे लिए परमेश्वर की परीक्षा थी। परमेश्वर मेरे रवैये को देख रहा था। प्रार्थना करने और परमेश्वर के वचन पढ़ने से, मैं इन बातों को सही ढंग से समझ पाई, अब मैं नकारात्मक नहीं थी और ठीक से अपना कर्तव्य निभा सकती थी। इन बातों के अनुभव से, मुझे परमेश्वर के नेक इरादों का एहसास हुआ। अगर पद के लालच में, मैं वाकई अगुआ बन गई होती, तो मैं अनजाने में मसीह-विरोधी मार्ग पर चलकर खुद को तबाह कर लेती। अब मैं आज्ञाकारी और विनम्र बनकर कर्तव्य-पालन करती हूँ। ये है परमेश्वर के वचनों के न्याय का प्रभाव। परमेश्वर का धन्यवाद!

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