23. सिद्धांतों के बिना कर्तव्य फल नहीं देता

शू किन, चीन

पिछले साल फरवरी में, मेरा एक कलीसिया में, अगुआ के रूप में तबादला हो गया। मैंने देखा कि कलीसिया का सारा कामकाज बहुत प्रभावी नहीं था, मैंने सोचा, "जिन अगुआओं ने मुझे कलीसिया में लाने की व्यवस्था की, वे मेरी बड़ी कद्र करते होंगे, और सोचते होंगे कि मैं इस कलीसिया का कामकाज सुधार पाऊँगा, तो मुझे बढ़िया काम करना होगा, अगुआओं को दिखाना होगा कि मैं व्यावहारिक काम कर सकता हूँ, और उन्होंने मुझे चुनकर सही किया।" फिर, मैं कामकाज का जायजा लेने और भाई-बहनों के काम में आई मुश्किलों और समस्याओं को ठीक करने के लिए कलीसिया के हर समूह के पास गया। कुछ भाई-बहनों की हालत बुरी थी, इसलिए मैंने प्यार से उनकी मदद की, उनका साथ दिया। जब मुझे ऐसे लोग मिले जो अपने कामों में ठीक नहीं थे, तो मैंने अपने सहभागी से चर्चा कर सिद्धांतों के अनुसार उनका तबादला कर दिया या उन्हें बदल दिया। कुछ समय बाद, कलीसिया का कामकाज थोड़ा-बहुत सुधर गया था। मुझे बहुत खुशी हुई, और मैं यह सोचे बिना नहीं रह सका, "लगता है मैं अब भी थोड़ा व्यवहारिक काम कर सकता हूँ। तो मुझे कड़ी मेहनत करते रहना होगा और नतीजे दिखाने होंगे, ताकि भाई-बहन देख सकें कि मुझमें काम करने की काबिलियत है और कहें कि मैं एक अच्छा अगुआ हूँ।"

एक दिन, हमने जब कुछ कामों पर नजर डाली, तो देखा कि सिंचन कार्य की प्रभाविता पहले से काफी घट गई थी, और बहुत-से नए सदस्य बैठकों में नहीं आ रहे थे। मुझे लगा, "दूसरा सारा कामकाज अब ज्यादा प्रभावी है, मगर सिंचन कार्य की प्रभाविता नीचे गिर गई है। सिंचन कार्य पूरे परिणामों को प्रभावित करे, ऐसा हम नहीं होने दे सकते, वरना सारे लोग कहेंगे मैं एक नाकाबिल अगुआ हूँ, और इससे उनके दिलों में मेरी छवि खराब हो जाएगी।" इसलिए, मैं फौरन सिंचन-कर्मियों के पास गया, उनके कामकाज पर गौर किया, और पाया कि उनकी समूह अगुआ बहन वू बैठकें और कर्तव्य तय करते समय, नए सदस्यों की मुश्किलों का ख्याल नहीं रखती थी। कुछ नए सदस्यों की बैठकें वह ऐसे समय तय करती थी जब उन्हें काम करना होता था, जिससे वे बैठकों में भाग नहीं ले पाते थे, और दिक्कतों वाले कुछ नए सदस्य सोचते कि वे कर्तव्य निभाने के काबिल नहीं और वे नकारात्मक महसूस करते। यह सुनकर मैं थोड़ा नाराज हो गया। सोचा, "मैंने उसे साफ-साफ बता दिया था कि बैठकें और कर्तव्य तय करते समय हमें नए सदस्यों के हालात का ख्याल रखना होगा। वह लचीली क्यों नहीं हो सकती, इस मामले में महारत हासिल कर इसका सही इस्तेमाल क्यों नहीं कर सकती? लगता है उसमें नए सदस्यों का सिंचन करने की काबिलियत नहीं है। हमें जो कमजोर परिणाम मिलते रहे हैं, सब उसी से जुड़े हुए हैं। वह एक अकेली पूरी कलीसिया के कार्य पर बुरा असर डाले, ऐसा मैं नहीं होने दे सकती। उसे तुरंत बर्खास्त करना होगा। अगर मैंने इसे बर्खास्त नहीं किया, तो कामकाज के परिणाम कभी नहीं सुधरेंगे। न सिर्फ इससे परमेश्वर के घर के काम में रुकावट आएगी, बल्कि मेरे वरिष्ठ, भाई-बहन सोचेंगे कि मैं कामकाज करने और असली समस्याएँ सुलझाने में नाकाबिल हूँ। मेरी काबिलियत पर सवाल उठानेवाले लोग मुझे नहीं चाहिए।" इसलिए, बैठक के बाद, मैंने बहन वू की बर्खास्तगी का मसला अपने सहभागी और उपयाजकों के सामने रखा। सिंचन उपयाजिका ने कहा, "पहले बहन वू नए सदस्यों के सिंचन में प्रभावी थी। संभवत: हाल में उसके हालात बिगड़े होंगे, और उसने नए सदस्यों के प्रशिक्षण में थोड़ी जल्दबाजी दिखाई होगी। हमें उसके हालात की जांच-पड़ताल करनी चाहिए, और फिर उसके साथ संगति कर उसकी मदद करनी चाहिए। कुछ समय बाद भी अगर वह न बदले, तो हम उसे बर्खास्त कर सकते हैं।" लेकिन तब मैं सिर्फ इतना ही सोच पाया कि संभवत: मेरी शोहरत और रुतबे को नुकसान होगा। मुझे लगा, "बहन वू ने नए सदस्यों का सिंचन शुरू ही नहीं किया था। मैंने इसे बारे में पहले उसे याद भी दिलाया था। मेरे ख्याल से वह नहीं चाहती कि कोई उसे याद दिलाए और मदद करे। अगर हम समय रहते उसे बर्खास्त न करें, और देर हो जाए या काम पर बुरा असर पड़े, तो हमेशा उसकी जिम्मेदारी मुझ पर ही लौटेगी, तो कुछ भी हो, इस बार मुझे उनसे अपनी बात मनवाकर बहन वू को बर्खास्त करना होगा।" इसलिए मैंने गुस्से से कहा, "बहन वू अपने कर्तव्य में प्रभावी नहीं है, जिससे साबित होता है कि वह नाकाबिल है, और इस कर्तव्य के लायक नहीं है। अगर आप उसे रखे रहें, और हमारे काम के परिणामों में सुधार न हो, तो आपमें से कौन वह जिम्मेदारी उठा सकेगा? आप मेरे बगैर उसकी मदद कर सकते हैं!" मेरा रवैया देखकर मेरे सहभागी और उपयाजकों ने कुछ नहीं कहा।

बाद में, मैंने सुना कि हटा दिए जाने के बाद बहन वू बहुत नकारात्मक थी। उसे लगा वह कई वर्षों से नए सदस्यों का सिंचन अच्छे परिणामों के साथ करती रही है। वह ऐसे नए सदस्यों को प्रशिक्षण दे रही थी, जो आस्था में नए थे, क्योंकि कलीसिया में सिंचन-कर्मियों की कमी थी, और उसने कई बैठक स्थलों को एक साथ मिला दिया था। बहुत व्यस्त रहने के कारण वह सभी नए सदस्यों की दिक्कतें नहीं सुलझा पा रही थी और इससे समस्याएँ खड़ी हो गईं। उसने नहीं सोचा था कि उसे इस तरह बर्खास्त किया जा सकता था, उसे लगा कि हमने सिद्धांत देखे बिना उसे बर्खास्त कर दिया, और हमने उसका क्षणिक व्यवहार देखकर ऐसा किया, न कि उसके निरंतर व्यवहार को संतुलित रूप से परख कर। लेकिन यह सुनकर मैंने न तो सत्य को खोजा और न ही आत्मचिंतन किया, बल्कि मुझे लगा कि बहन वू का आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, और न वह खुद को जान पाई थी और न ही सबक सीख पाई थी, तो मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया।

बहन वू की बर्खास्तगी के बाद, हमने बहन लियू को समूह अगुआ के रूप में चुना। मैंने खुशी से सोचा, "अब सिंचन कार्य ज्यादा प्रभावी होगा।" लेकिन कुछ समय बाद, मैंने पाया कि बहन लियू की कार्यक्षमता कमजोर थी, और वह बहन वू जैसी जिम्मेदार भी नहीं थी। वह समय रहते नए सदस्यों के हालात नहीं समझ पाती थी, उनकी समस्याएँ सुलझाना भी नहीं जानती थी। नतीजतन थोड़ा वक्त गुजर जाने पर भी सिंचन कार्य में सुधार नहीं हुआ। मुझे बेचैनी होने लगी, सोचने लगा, क्या बहन वू की बर्खास्तगी एक गलती थी, लेकिन इस मुकाम पर, मैंने बहन लियू के साथ संगति कर, उसकी ज्यादा मदद कर देखना चाहा कि क्या उसके नतीजे सुधर सकते हैं।

जब कलीसिया में नए सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी, तो फौरन और सिंचन-कर्मियों के प्रशिक्षण को ऊंची प्राथमिकता दी गई। मैं तेजी से उम्मीदवार ढूँढ़ने लगा। मैंने बहन चेन को याद किया, जो बर्खास्त होकर अब भी एकांत में आत्मचिंतन कर रही थी। वह पहले सुसमाचार का प्रचार करती थी और उसने कुछ अच्छे नतीजे दिखाए थे, तो मैंने उसे प्रशिक्षण देना चाहा। बस यही सोचा कि वह मिलनसार थी, लोगों से बातचीत में अच्छी थी, अगर हम उसे प्रशिक्षित कर दें, तो सिंचन कार्य के मसले संभाले जा सकेंगे, और मेरे वरिष्ठ यकीनन कहेंगे कि मेरी काबिलियत अच्छी थी और मैं एक अच्छा अगुआ था। इसलिए मैंने सिंचन उपयाजिका से बहन चेन के पोषण पर ध्यान देने को कहा। घबराकर सिंचन उपयाजिका ने कहा, "हमने ऐसी व्यवस्था करने के बारे में सोचा था, लेकिन हमने देखा कि बहन चेन को बर्खास्त होने के बाद अभी भी आत्मज्ञान नहीं था। जब वह सुसमाचार का प्रचार करती थी, तो शोहरत और फायदे की होड़ लगाती थी, ईर्ष्या और विवादों को बढ़ावा देती थी, जिस कारण से दूसरों का सामान्य ढंग से अपना कर्तव्य निभाना नामुमकिन हो जाता था। अगर अब हम उसे नए सदस्यों के सिंचन के लिए प्रशिक्षित करें, तो क्या वह और ज्यादा दुष्टता करके ज्यादा रोड़े नहीं अटकाएगी? सिंचन परमेश्वर के घर के सबसे अहम कामों में से एक है। इसका प्रशिक्षण लिए हुए लोगों में अच्छी इंसानियत होनी चाहिए, उन्हें परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित नहीं करना चाहिए। हमें चीजें सिद्धांत के अनुसार करनी चाहिए!" उसकी बातों से मैं बेचैन हो गया। मैंने सोचा, "बहन चेन मिलनसार है, उसमें अच्छी काबिलियत है। नए सदस्यों के सिंचन के लिए उसे प्रशिक्षित करने से काम यकीनन जल्दी ही ज़्यादा असरदार हो जाएगा। अगर हम उसके सच्चा प्रायश्चित न करने के कारण, उसे अभी प्रशिक्षित न करने का फैसला करें, तो अगुआ मेरी कार्यक्षमता नहीं देख सकेंगे। यह ठीक नहीं है। मुझे उसे मेरी इच्छा पूरी करने के लिए मनाना होगा। मैं हार नहीं मान सकता।" इसलिए, मैंने सिंचन उपयाजिका का यह कह कर निपटान किया, "क्या यह आँखें मूँद कर नियमों पर चलने का समय है? सिद्धांतों में भी कहा गया है कि जिन्होंने पहले अपराध किए थे उन्हें प्रायश्चित का मौका देना चाहिए। बहन चेन मिलनसार है, और नए सदस्यों के सिंचन की काबिलियत रखती है, इसलिए हम उसे प्रशिक्षित कर सकते हैं। हमें उस पर कड़ी नजर रखनी होगी और देखना होगा कि वह बाधाएँ न खड़ी करे। बहन चेन की काबिलियत अच्छी है और वह झट से सीख लेती है। एक और कुशल सिंचन-कर्मी के होने से कलीसिया की कई समस्याएँ दूर हो जाएँगी। जाओ, जाकर उसे बैठक में ले आओ!" जब सिंचन उपयाजिका ने मेरा अड़ियल रवैया देखा, तो वह और कुछ नहीं बोली।

लेकिन कुछ दिन बाद, सिंचन उपयाजिका ने सूचित किया कि बहन चेन ने सिंचन करने से पहले नए सदस्यों की धारणाओं और उलझनों की जाँच-पड़ताल नहीं की, और जरूरत के अनुसार संगति नहीं की। इसके बजाय, वह अपने विचारों के आधार पर संगति करने पर अड़ी रही, जिससे दो नए सदस्यों ने विरोध में प्रतिरोधी होकर विश्वास करना बंद कर दिया। तब मुझे थोड़ी बेचैनी हुई। बहन चेन की काबिलियत देखें, तो उसे ऐसा काम नहीं करना चाहिए था। बाद में, जब मैंने बहन चेन से बात की, तो मुझे एहसास हुआ कि वह अपने कर्तव्य में सिर्फ ऊपर-ऊपर से सक्रिय थी। उसे अपने पिछले अपराधों की जरा भी समझ नहीं थी, अपने सिंचन कार्य में ऐसी बड़ी समस्या होने के बाद भी, उसने आत्मचिंतन नहीं किया, कोई सबक नहीं सीखे। उसकी बुद्धि कुंद पड़ी थी। अब कहीं जाकर मैं थोड़ी जागरूक हुई कि उसका पोषण करने में मैंने शायद जल्दबाजी कर दी, शायद उसके लिए एकांत में रहकर आत्मचिंतन करना जरूरी था। लेकिन फिर सोचा, बहन चेन की काबिलियत अच्छी थी, वह एक अगुआ रही थी, तो अगर मैंने उसकी ज्यादा मदद की, तो शायद वह जल्दी ही समझ कर सुधार ला सके। मुझे बस उसे प्रशिक्षित करके सिंचन कार्य के नतीजे सुधारने हैं, और मेरे अगुआ मुझे स्वीकृति दे देंगे।

इधर मैं अच्छे नतीजों की उम्मीद में था कि एक सुबह मेरे सहभागी ने मुझसे कहा, "भाई-बहनों ने लिखा है कि आप सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य नहीं निभाते। आपने सिंचन कार्य के लिए जबरन बहन चेन की व्यवस्था की, जो अभी भी एकांत में रखी गई थी। इस दौरान, नए सदस्यों का सिंचन करते समय बहन चेन के सामने कई समस्याएँ आईं, लेकिन उसने न तो आत्मचिंतन किया और न ही खुद के बारे में समझ दिखाई। उसके निरंतर व्यवहार को देखें, तो वह पोषण के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं है, उन्होंने सुझाव दिया है कि उसे अभी भी खुद को अलग रखकर आत्मचिंतन करना चाहिए।" अपने सहभागी की ये बातें सुनकर मेरे दिल की धड़कन पल भर के लिए रुक गई। "काम तमाम। मैं खत्म हो गया! यह महज उसके काम की प्रतिक्रिया नहीं, यह सिद्धांतों के अनुसार काम न करने पर मुझे उजागर करने वाली औपचारिक शिकायत है। मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, और कभी किसी ने मेरी शिकायत नहीं की। अब मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे?" तब मुझे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने खुद को शांत करने की कोशिश में, अपना कप उठाकर दो-चार घूँट पानी पीया, लेकिन मेरे दिल में तूफानी समुद्र जैसी हलचल थी, "अगर मेरे अगुआओं को इस पत्र की बातों का पता चला, तो वे कहेंगे कि मैं सिद्धांतों के अनुरूप अपना कर्तव्य नहीं निभाता, और कलीसिया के कार्य को बाधित करता हूँ। कहीं इस बात पर वे मुझे बर्खास्त न कर दें?" मेरे मन में हलचल मची हुई थी। अंत में, मैं एक फुस्स हो चुकी गेंद की तरह कुर्सी पर गिर पड़ा। जब मेरी सहभागी ने मेरी हालत देखी, तो वह बोली, "भाई-बहनों द्वारा हमारी निगरानी कर हमें उजागर करना हमारे लिए मददगार है। अब, आपको परमेश्वर के बनाए इन हालात को समझना चाहिए।" मैंने अपने मुँह से परमेश्वर के बनाए हालात का सामना करने का वादा किया था, मगर मन को शांत नहीं कर पाया। पूरे दिन न कुछ खा पाया, न सो पाया। यह विचार मेरे दिल में चुभ गया कि इस पत्र में मेरे बर्ताव के तथ्य कैसे उजागर हुए। मैंने अपने घुटने टेककर परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, जानता हूँ कि मेरे साथ ऐसा होने देने के पीछे तुम्हारे इरादे नेक हैं। तुम्हारी इच्छा समझने और उससे सबक सीखने के लिए मेरा मार्गदर्शन करो।"

फिर, आत्मचिंतन करते और सत्य खोजते हुए मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। "मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी कर रहे हों, उनके हमेशा अपने लक्ष्य और इरादे होते हैं, वे अपनी योजना के अनुसार काम करते हैं। परमेश्वर के घर की व्यवस्था और कार्य के प्रति उनका दृष्टिकोण ऐसा होता है, 'हो सकता है कि तुम्हारी हजार योजनाएं हों, लेकिन मेरा एक नियम है'; यह सब मसीह-विरोधी के स्वभाव से निर्धारित होता है। क्या कोई मसीह-विरोधी अपनी मानसिकता बदलकर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य कर सकता है? यह बिल्कुल असंभव होगा। ... वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, हमेशा एक ही सिद्धांत पर टिके रहते हैं : उन्हें कुछ लाभ प्राप्त होना चाहिए। मसीह-विरोधी ऐसा काम सबसे ज्यादा पसंद करते हैं जिसके लिए उन्हें कोई कीमत न देनी हो, उन्हें कष्ट न उठाना पड़े या कोई मूल्य न चुकाना पड़े और उससे उनकी प्रतिष्ठा और रुतबे को लाभ होता हो। संक्षेप में, मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कार्य कर रहे हों, वे पहले अपना हित देखते हैं, वे तभी कार्य करते हैं जब वे हर चीज पर अच्छी तरह सोच-विचार कर लेते हैं; वे बिना समझौते के, सच्चाई से, ईमानदारी से और पूरी तरह से सत्य का पालन नहीं करते, बल्कि वे चुन-चुन कर अपनी शर्तों पर ऐसा करते हैं। यह कौन-सी शर्त होती है? शर्त है कि उनका रुतबा और प्रतिष्ठा सुरक्षित रहे, उन्हें कोई नुकसान न हो। यह शर्त पूरी होने के बाद ही वे तय करते हैं कि क्या करना है। यानी मसीह-विरोधी इस बात पर गंभीरता से विचार करते हैं कि सत्य के सिद्धांतों, परमेश्वर के आदेशों और परमेश्वर के घर के कार्य से किस ढंग से पेश आया जाए या उनके सामने जो चीजें आती हैं, उनसे कैसे निपटा जाए। वे इन बातों पर विचार नहीं करते कि परमेश्वर की इच्छा कैसे पूरी की जाए, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने से कैसे बचा जाए, परमेश्वर को कैसे संतुष्ट किया जाए या भाई-बहनों को कैसे लाभ पहुँचाया जाए; वे लोग इन बातों विचार नहीं करते। मसीह-विरोधी किस बात पर विचार करते हैं? वे सोचते हैं कि कहीं उनके अपने रुतबे और प्रतिष्ठा पर तो आँच नहीं आएगी, कहीं उनकी प्रतिष्ठा तो कम नहीं हो जाएगी। अगर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कुछ करने से कलीसिया के काम को फायदा होता है और भाई-बहनों को लाभ पहुँचता है, लेकिन इससे उनकी अपनी प्रतिष्ठा को धक्का लगता है, लोगों को उनके वास्तविक कद का एहसास हो जाता है और पता चल जाता है उनकी प्रकृति और सार कैसा है, तो वे निश्चित रूप से सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करेंगे। यदि व्यावहारिक काम करने से और ज्यादा लोग उनके बारे में अच्छी राय बना लेते हैं, उनका सम्मान और प्रशंसा करते हैं, उनकी बातों में अधिकार आ जाता है जिससे और अधिक लोग उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं, तो फिर वे काम को उस प्रकार करना चाहेंगे; अन्यथा, वे परमेश्वर के घर या भाई-बहनों के हितों पर ध्यान देने के लिए अपने हितों को तिलाँजलि कभी नहीं देंगे। यह मसीह-विरोधी की प्रकृति और सार है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के वचनों में जो खुलासा हुआ, उससे मैंने समझ लिया कि मसीह-विरोधी जो भी करते हैं वह उनकी शोहरत और रुतबे की रक्षा करने के लिए होता है। जिन मामलों में उनकी शोहरत और रुतबे का कुछ लेना-देना न हो, उनमें वे सत्य के सिद्धांतों के आधार पर कर्म कर सकते हैं, लेकिन अगर सत्य के सिद्धांतों के आधार पर काम करने से उनकी शोहरत और रुतबे को खतरा हो, तो मसीह-विरोधी सिद्धांतों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन करेंगे और अपने ही विचारों के अनुसार मनमानी करेंगे। वे अपने निजी हितों की सुरक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाना पसंद करेंगे। मैंने अगुआ बनने के बाद जो कुछ भी किया, उस बारे में आत्मचिंतन किया, तो पाया कि यह उन मसीह-विरोधियों जैसा ही था, जिनका खुलासा परमेश्वर के वचनों में किया गया है। यह साबित करने के लिए कि मैं सक्षम था, और व्यावहारिक कार्य कर सकता था, मैं जल्दी ही कोई उपलब्धि दिखाना चाहता था, ताकि मेरे वरिष्ठ और भाई-बहन देख सकें कि मुझे अगुआ बनाना उनका सही फैसला था। इसलिए, लोगों को चुनते और उनका इस्तेमाल करते समय मैंने सत्य के सिद्धांतों को बिल्कुल नहीं खोजा, मैंने नहीं सोचा कि परमेश्वर के घर के कार्य को कैसे लाभ पहुँचाएं। मैंने दूसरों की सलाह भी नहीं मानी, और खुद फैसले करने पर अड़ा रहा। यह देखकर कि बहन वू नए सदस्यों के लिए बैठकों और कर्तव्यों की व्यवस्था उनके वास्तविक हालात के आधार पर नहीं करती थी, तो मैंने उसकी हालत और मुश्किलों के बारे में नहीं पूछा, न ही उसकी समस्याओं के मूल का पता लगाने और सिद्धांतों में प्रवेश करने के लिए उसके साथ काम किया, ताकि वह वही ग़लतियाँ दोहराने से बच सके। मैंने सोचा कि उसके कर्तव्य से कुछ नतीजे नहीं मिले, इस बात से मेरी शोहरत और रुतबे को हानि हो सकती थी, इसलिए मैंने अनुचित ढंग से उस पर आरोप लगाया, उसे अलग किया और बर्खास्त करना चाहा। अपनी शोहरत और रुतबा बचाने के लिए, मैंने सिद्धांतों और अपने सहकर्मियों की सलाह की अनदेखी की, और जबरन बहन वू को निकाल दिया। फिर भी, मेरे मन में उसके लिए कोई स्नेह या सब्र नहीं था। मैं जानता था कि अपना कर्तव्य निभाने में उसे मुश्किल हो रही थी, लेकिन मैंने उसकी मदद करने के लिए संगति नहीं की, मैंने बस सीधे उसे बर्खास्त कर दिया। मैं एक बेदर्द हत्यारे जैसा था। सच में अमानवीय था! उसे बर्खास्त कर देने के बाद, जिस नई बहन को मैंने चुना, वह काम नहीं कर पाती थी, इससे सिंचन कार्य पर सीधे बुरा असर पड़ा। फिर भी मैंने नहीं जाना कि मुझे आत्मचिंतन करना चाहिए, मैं प्रतिभा के पोषण और सिंचन कार्य में सुधार के नाम पर कलीसिया के कार्य को बाधित करने वाले व्यक्ति को बढ़ावा देता रहा। मैंने प्रसंग से बाहर जाकर बेतुकी बात कही कि हमें उसे प्रायश्चित का एक मौका देना चाहिए। मैंने आँखें बंद करके नियमों का पालन करने को लेकर सिंचन उपयाजिका का निपटान किया, जिससे वह मेरी बात काटने से डर गई। नतीजा यह हुआ कि बहन चेन बिल्कुल उपयुक्त नहीं थी और उसने सिंचन कार्य को नुकसान पहुँचाया। मैंने देखा कि अपनी शोहरत और रुतबे के लिए, मैं अपने कर्तव्य में शॉर्टकट ले सकता था, सिद्धांतों और दूसरों द्वारा याद दिलाए जाने की अनदेखी कर सकता था, मेरी शिकायत होने और मेरे उजागर किये जाने के बावजूद, मुझे बस यही फिक्र थी कि अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मैंने अपनी विफलताओं के कारणों पर आत्मचिंतन नहीं किया, मैंने अड़ियल की तरह अपनी शोहरत और रुतबे को बचाए रखा, और अपने निजी हितों की सुरक्षा के लिए परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान होने दिया। मैंने जो दर्शाया, वह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव था!

फिर, अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा, "यदि कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है और वह सत्य का अनुसरण करता है, लेकिन सार में, जो लक्ष्य वह हासिल करना चाहता है, वह है अपनी अलग पहचान बनाना, दिखावा करना, लोगों का सम्मान प्राप्त करना और अपने हित साधना है, और उसके लिए अपने कर्तव्य का पालन करने का अर्थ परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना या उसे संतुष्ट करना नहीं है बल्कि प्रतिष्ठा और हैसियत प्राप्त करना है, तो फिर उसका अनुसरण अवैध है। ऐसा होने पर, जब कलीसिया के कार्य की बात आती है, तो उनके कार्य एक बाधा होते हैं या आगे बढ़ने में मददगार होते हैं? वे स्पष्ट रूप से बाधा होते हैं; वे आगे नहीं बढ़ाते। जो लोग कलीसिया का कार्य करने का झंडा लहराते फिरते हैं, लेकिन अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और हैसियत के पीछे भागते हैं, अपनी दुकान चलाते हैं, अपना एक छोटा-सा समूह, अपना एक छोटा-सा साम्राज्य बना लेते हैं—क्या इस प्रकार का व्यक्ति अपना कर्तव्य निभा रहा है? वे जो भी कार्य करते हैं, वह अनिवार्य रूप से कलीसिया के कार्य को बाधित करता है, अस्त-व्यस्त करता है और बिगाड़ता है। उनके हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे भागने का क्या परिणाम होता है? पहला, यह इस बात को प्रभावित करता है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के वचनों को कैसे खाते-पीते हैं और सत्य को कैसे समझतेहैं, यह उनके जीवन-प्रवेश में बाधा डालता है, यह उन्हें परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है और उन्हें गलत मार्ग पर ले जाता है—जो चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाता है, और उन्हें बरबाद कर देता है। और यह अंततः कलीसिया के साथ क्या करता है? यह विघटन, रुकावट और हानि है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गया कि जब हम अपना कर्तव्य निभाने के नाम पर निजी शोहरत और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो इसका सार शैतान के नौकरों की तरह काम कर परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित करना होता है। परमेश्वर के वचन ने मेरे कर्मों के सार का खुलासा किया। परमेश्वर ने मुझे ऊंचा उठाकर एक अगुआ के ओहदे पर इसलिए बिठाया क्योंकि उसे उम्मीद थी कि मैं उसकी इच्छा का ध्यान रखूंगा, भाई-बहनों का अच्छे ढंग से सिंचन करूँगा, उनकी मुश्किलों और जीवन प्रवेश की समस्याओं को हल करूँगा, कलीसिया के विभिन्न कामों के लिए उपयुक्त लोगों को तरक्की देकर उन्हें प्रशिक्षित करूँगा, और पक्का करूँगा कि कलीसिया का कार्य सुचारु रूप से चले। लेकिन मैंने परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षाओं का ध्यान नहीं रखा और मैंने एक अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाईं। लोगों को चुनकर उनका इस्तेमाल करते समय मैंने सिर्फ अपने निजी हितों का ध्यान रखा। नतीजा यह हुआ कि मैं न सिर्फ नए सदस्यों का साथ देने में विफल रहा, मैंने सिंचन कार्य में भी रुकावट पैदा की, जिसके कारण नए सदस्य पीछे हटने लगे। मैं अपना कर्तव्य किस तरह निभा रहा था? मैं परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित कर रहा था, दुष्टता कर रहा था! इस तरह भी, मुझमें जागरूकता नहीं थी। मैं बहुत स्वार्थी और बेहद मंदबुद्धि था। मैंने उन मसीह-विरोधियों और दुष्ट लोगों के बारे में सोचा जिन्हें कलीसिया से निकाल दिया गया था। वे हमेशा अपने फायदे के लिए चालें चलते रहते थे, अपनी शोहरत और रुतबा बनाए रखने के लिए सत्य के सिद्धांतों की अनदेखी करते थे, वे मनमानी से अपना कर्तव्य निभाते, अत्याचार करते, और परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीर रूप से बाधित करते थे, आखिरकार, उनके बहुत सारे बुरे कर्मों के कारण, परमेश्वर ने उनसे घृणा कर उन्हें निकाल दिया। मेरे कर्मों और इन मसीह-विरोधियों की करतूतों के सार में कोई अंतर नहीं था! यह पहचान लेने पर, मैं पसीने से तर हो गया, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, अपने कर्तव्य में मैं लापरवाह था। मैं शोहरत, रुतबे और झटपट सफलता पाने के पीछे भागा, गलत मार्ग पर चला। हे परमेश्वर, मैं तुमसे प्रायश्चित करना चाहता हूँ। मेरी अगुआई कर रास्ता दिखाओ।"

फिर, आत्मचिंतन करने और सत्य खोजने से मुझे एहसास हुआ कि अपने कर्तव्य में प्रभावी होने के लिए, हमारे इरादे सही होने चाहिए, हमें सत्य खोजने पर ध्यान लगाना चाहिए और सिद्धांतों के अनुसार कर्म करने चाहिए। तभी हम परमेश्वर का मार्गदर्शन पा सकेंगे, और अपने परिणामों में लगातार सुधार कर सकेंगे। मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए। "जब लोग परमेश्वर से कोई आदेश स्वीकार करते हैं, तो अपने कर्तव्य और मिशन को पूरा करने के लिए पहले उन्हें परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए। तुम्हें पता होना चाहिए कि यह आदेश परमेश्वर की ओर से आया है; यह उसकी इच्छा है, और तुम्हें इसे स्वीकार करना चाहिए, इसके प्रति सचेत रहना चाहिए, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उसके प्रति समर्पित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, तुम्हें अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय, इन सवालों का जवाब खोजना चाहिए कि किन सत्यों को समझना है, किन सिद्धांतों का पालन करना है और किस तरह अभ्यास करना चाहिए ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोगों और परमेश्वर के घर के कार्य को लाभ पहुँचे। तुम्हें इन सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। एक बार परमेश्वर की इच्छा को समझ लेने पर, तुम्हें इस तरह का कर्तव्य निभाने के लिए सत्य खोजने और समझने की कोशिश करने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए; एक बार इन सत्यों को समझ लेने पर, उन्हें व्यवहार में लाने के लिए सिद्धांतों और मार्ग का निर्धारण करना चाहिए। 'सिद्धांत' से क्या तात्पर्य है? विशेष रूप से, सिद्धांतों से तात्पर्य उन चीजों से है जिनका अनुसरण सत्य के अभ्यास के मानकों और प्रभावों को प्राप्त करने के लिए किया जाना चाहिए; सत्य का अभ्यास करने के लिए, लोगों को सिद्धांत की समझ होनी चाहिए—सिद्धांत सबसे महत्वपूर्ण और सबसे आधारभूत चीज है। एक बार जब कार्य करने के बुनियादी सिद्धांत तुम्हारी समझ में आ जाते हैं, तो यह इस बात का प्रमाण हो जाता है कि इस काम को करने के लिए आवश्यक मानक तुम्हारी समझ में आ गए हैं; सिद्धांतों की समझ पा लेना सत्य को व्यवहार में लाने के समर्थ होने के समान है। तो सत्य का अभ्यास करने की योग्यता किस आधार पर टिकी है? परमेश्वर की इच्छा और सत्य को समझने के आधार पर। क्या परमेश्वर क्या चाहता है, इसकी जानकारी मात्र को सत्य समझना माना जा सकता है? ऐसा नहीं है—तो यह मान लेने का मानक क्या है कि सत्य समझ लिया गया है? तुम्हें समझना चाहिए कि अपने कर्तव्य को निभाने के मायने और मूल्य क्या हैं; इन दोनों बातों को समझना अपने कर्तव्य पालन के सत्य को समझना है। इसके अलावा, सत्य समझ लेने पर, तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने के सिद्धांतों और अभ्यास के मार्ग को समझ लेना चाहिए। यदि तुम इस कर्तव्य निभाने के सिद्धांतों को समझकर उन्हें लागू कर पाओ और आवश्यकता पड़ने पर बुद्धि का प्रयोग भी कर सको, तो तुम यकीनन इस कर्तव्य को निभाने में प्रभावी होगे; और जब तुम सिद्धांत समझकर उसके अनुसार कार्य करोगे, तो यह सत्य का अभ्यास करना कहलाएगा। यदि यह मानवीय विचारों से दूषित न हो और पूरी तरह से परमेश्वर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार किया जाए तथा परमेश्वर के वचनों के अनुरूप हो, तो तुम्हारा कर्तव्य-प्रदर्शन पूरी तरह से मानक के अनुरूप है। फिर भले ही तुम्हारी प्रभावशीलता और परमेश्वर की अपेक्षाओं के बीच कुछ विसंगति हो, उसके बावजूद इसे परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करना माना जाएगा। यदि तुम्हारा कार्य-प्रदर्शन पूरी तरह से सिद्धांत के अनुरूप है और तुमने इसे समर्पण-भाव से किया है, अगर तुमने इसमें भरसक प्रयास किया है, तो तुम्हारे कर्तव्य का प्रदर्शन पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है और तुमने पूरे दिल से, पूरे मन से और अपनी पूरी शक्ति से परमेश्वर के प्राणी का कर्तव्य निभाया है—जो कि सत्य का अभ्यास करने से प्राप्त प्रभाव है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं')। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट थे। परमेश्वर के आदेश को स्वीकारने के लिए हमें पहले उसकी इच्छा खोजनी चाहिए, सत्य में प्रवेश करने के लिए कर्तव्य के सिद्धांतों को खोजना चाहिए, सत्य को समझना चाहिए, परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए और कर्तव्य में सत्य के सिद्धांतों का कड़ाई से पालन करना चाहिए। इसके अलावा, अपना कर्तव्य निभाते समय, हमें परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान रखना चाहिए, निजी फायदे की चाल न चलकर, अक्सर अपनी परीक्षा करनी चाहिए। इससे हमारे विचारों में मिलावट कम होती है, और हमारे कर्तव्य में गलतियाँ भी कम होती हैं। मैंने सोचा कि मैं किस तरह कर्तव्य में पूरी तरह अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार कर्म करता था, मैंने विरले ही सत्य के सिद्धांत खोजे होंगे, और थोड़ा-बहुत सत्य जानने पर भी मैंने उसका पालन नहीं किया। सिंचन कर्मियों को चुनते समय, सत्य की स्पष्ट संगति करना, सब्र रखना और जिम्मेदार होना जैसे अहम गुण जरूरी होते हैं। बहन वू अपने कर्तव्य में जिम्मेदार थी, नए सदस्यों के साथ स्नेही और धैर्यवान थी। नए सदस्यों की हालत या उनकी मुश्किलें जैसी भी हों, वह सक्रियता से संगति कर समस्याएँ सुलझा सकती थी, उसने नए सदस्यों के सिंचन के कुछ सिद्धांत भी समझ लिए थे। पहले, अपने कर्तव्य में वह प्रभावी थी, और अब उसने कुछ मुश्किलों के कारण कुछ गलतियाँ की थीं, जिन्हें वह संभाल नहीं सकी थी। ऐसी हालत में, हमें संगति कर प्रेम से उसकी मदद करनी चाहिए, या निपटान और काट-छाँट कर उजागर करना और फटकार लगाना चाहिए, लापरवाही से बर्खास्त नहीं कर देना चाहिए। साथ ही, बहन चेन को ऊपर से जोशीली, और मिलनसार देखकर मैंने सोचा था कि वह पोषण के लायक थी, लेकिन अब मुझे एहसास हुआ कि यह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था। बुरी इंसानियत वाले लोग जो दुष्टता करते हैं और परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित करते हैं, उनका पोषण नहीं करना चाहिए। शोहरत और रुतबे के लिए बहन चेन की आकांक्षा बहुत तेज थी, पहले भी वह उनके लिए अक्सर लड़ती थी, और कलीसिया के काम को बाधित करती थी। बर्खास्त करके अलग कर दिए जाने के बाद, उसने कभी भी अपने पहले के अपराधों की सच्ची समझ नहीं दिखाई। वह अब भी अपने कर्तव्य में गलत रास्ते पर ही चलती, और कभी भी ऐसे काम कर सकती थी, जिनसे कलीसिया के कार्य में बाधा पहुँचती हो। ऐसे लोग अहम पोषण का लक्ष्य नहीं हो सकते। मैंने देखा कि मैं लोगों को बर्खास्त करने और उनका इस्तेमाल करने के सिद्धांतों को नहीं समझता था, इसलिए मैं महत्वाकांक्षा और आकांक्षा के साथ चीजें करता था, जिससे परमेश्वर के घर का कार्य बाधित होता था, रुक जाता था, जो बहन चेन के लिए भी नुकसानदेह और तबाही लाने वाला था। इन चीजों का एहसास होने के बाद, मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया कि उसने भाई-बहनों द्वारा मेरी शिकायत करने, मुझे उजागर करने का पत्र लिखवाने की व्यवस्था की, जिसने मुझे अपने बुरे रास्ते पर चलने से रोका।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी करते हो, वह तुम्हारा अपना निजी उद्यम नहीं है; यह परमेश्वर के घर का काम है, यह परमेश्वर का काम है। तुम्हें इस ज्ञान और जागरुकता को लगातार ध्यान में रखना होगा और कहना होगा, 'यह मेरा अपना मामला नहीं है; मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ और अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर रहा हूँ। मैं कलीसिया का काम कर रहा हूँ। यह काम मुझे परमेश्वर ने सौंपा है और मैं इसे उसके लिए कर रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य है कोई निजी मामला नहीं है।' यह पहली बात है जिसे लोगों को समझना चाहिए। यदि तुम किसी कर्तव्य को अपना निजी व्यवसाय मान लेते हो, अपने कार्य करते हुए सत्य के सिद्धांत नहीं खोजते और उसे अपने निजी उद्देश्यों, विचारों और एजेंडे के अनुसार कार्यांवित करते हो, तो बहुत संभव है कि तुम गलतियाँ करोगे। अगर तुम अपने कर्तव्य और निजी मामलों में स्पष्ट अंतर रखते हो और जानते हो कि यह कर्तव्य है, तो तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए? (परमेश्वर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों को खोजना चाहिए।) बिल्कुल सही। यदि तुम्हारे साथ कुछ हो जाए और तुम्हें सत्य न समझ आए, और तुम्हें कुछ समझ आ रहा है, लेकिन चीजें अभी भी तुम्हारे लिए स्पष्ट नहीं हैं, तो तुम्हें संगति के लिए किसी ऐसे भाई-बहन को खोजना चाहिए जो सत्य समझता हो; यह सत्य खोजना है और सबसे पहले, कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया यही होना चाहिए। तुम्हें जो उचित लगे उसके आधार पर तुम्हें चीजों का फैसला नहीं करना चाहिए, हथौड़ा उठाया और मेज पर ठोककर कहा कि मामला खत्म—इससे समस्याएं आसानी से पैदा हो जाती हैं। कर्तव्य चाहे बड़ा हो या छोटा, यह तुम्हारा कोई व्यक्तिगत मामला नहीं है; परमेश्वर के घर के मामले किसी के निजी मामले नहीं होते। अगर यह कर्तव्य से जुड़ा है, तो यह तुम्हारा निजी मामला नहीं है, यह तुम्हारा अपना मामला नहीं है—इसका संबंध सत्य और सिद्धांत से है। तो पहला काम तुम लोगों को क्या करना चाहिए? सत्य और सिद्धांत खोजो। यदि तुम्हें सत्य की समझ नहीं है, तो पहले सिद्धांत खोजो; यदि तुम्हें सत्य की समझ पहले से है, तो सिद्धांतों की पहचान करना आसान होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का एक मार्ग दिखाया। कर्तव्य परमेश्वर का आदेश होते हैं, निजी मामले नहीं, इसलिए हम अपने निजी हितों को संतुष्ट करने के लिए इन्हें मनमाने ढंग से नहीं निभा सकते। हर चीज में, हमें सत्य के सिद्धांत खोजने होंगे, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करना होगा। अगर आप न समझें, तो आपको संगति करके दूसरों के साथ और ज्यादा सत्य खोजना चाहिए। दूसरे जो भी सोचें, आपको बस परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर अपना भरसक प्रयास करना चाहिए। काम में कभी कुछ गलतियाँ हो भी जाएँ और आपको अच्छे परिणाम झटपट न मिलें, तो भी अगर आप परमेश्वर के सामने काम करें, दूसरों को दिखाने के लिए नहीं, तो आप सही मार्ग पर चल रहे हैं, और परमेश्वर आपका मार्गदर्शन कर आपको आशीष देगा। फिर, मैं भाई-बहनों के सामने अपने बारे में खुलकर बोला, शोहरत और रुतबे के लिए अपना कर्तव्य निभाने, झटपट सफलता की अपनी आकांक्षा, लोगों का इस्तेमाल करने में सिद्धांतों के उल्लंघनों, मनमानी करके दूसरों को नुकसान पहुँचाने के साथ-साथ उनका निपटान करने और फटकार लगाने के लिए अपने ओहदे का इस्तेमाल करने, जैसी बातें उजागर कीं। मैंने दृढ़ता से उनसे माफी माँगी और मेरी ज्यादा निगरानी करने को कहा। जब मैंने इस तरह अभ्यास किया, तो भाई-बहनों ने मुझे नीची नजर से नहीं देखा, बल्कि उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया, कहा कि अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने के लिए हम एक-दूसरे की देखरेख करते हुए मिल-जुल कर काम कर सकते हैं।

जल्दी ही, एक और बात हुई। सुसमाचार उपयाजिका अपने परिवार की बंदिशों के कारण अस्थाई रूप से अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ थी। यह खबर सुनकर मैं थोड़ा बेचैन हो गया। मुझे लगा, "अब हरेक कलीसिया सुसमाचार का प्रचार करने की भरसक कोशिश कर रही है, इसलिए इस मुकाम पर, अगर सुसमाचार उपयाजिका अपना कर्तव्य नहीं निभा पाई, तो इससे हमारे काम पर बहुत बुरा असर पड़ेगा! अगर मैं समय रहते किसी दूसरे को न लाया, तो हमारे परिणाम कभी सुधर नहीं पाएंगे। मेरे वरिष्ठ इस काम के लिए यकीनन मुझे नाकाबिल समझेंगे, उपयुक्त नहीं मानेंगे।" इसलिए मैंने अपनी सहभागी से चर्चा की, क्या हमें सुसमाचार उपयाजिका का तबादला कर उसकी जगह किसी दूसरे को ले आना चाहिए। मेरी सहभागी ने कहा, "सुसमाचार उपयाजिका हमेशा से एक जिम्मेदार और सक्षम कार्यकर्ता रही है, सुसमाचार कार्य के परिणाम भी अच्छे रहे हैं। अगर वह फिलहाल की पारिवारिक बंदिश से निपट नहीं पाई हैऔर उसके कारण आप उसका तबादला कर दें, तो यह सिद्धांतों के विरुद्ध होगा।" मैं अपना तर्क देने ही वाला था, कि तुरंत मुझे ख्याल आया कि किस तरह मैंने बहन वू को जबरन हटा दिया था। क्या मैं फिर से अपनी शोहरत और रुतबा बचाने का काम नहीं कर रहा था? मेरी सहभागी ने मुझे याद दिलाया कि मुझे अपना कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार निभाना चाहिए। मैं लगभग एक और बड़ी गलती कर चुका था। मन-ही-मन परमेश्वर का धन्यवाद करके, मैंने अपनी सहभागी से कहा, "मेरे इरादे गलत हैं। मैं अपनी शोहरत बचाने के लिए सिद्धांतों का पालन किए बिना उसका तबादला कर रहा हूँ। वह सचमुच जिम्मेदार है और सही इंसान है। अगर वह फिलहाल अपना काम नहीं कर सकती, तो हम पिछड़ा हुआ काम हाथ में लेकर सुसमाचार कार्य करेंगे। चलो, हम उसकी हालत के बारे में और पता लगाते हैं, उसका साथ देने और मदद करने की कोशिश करते हैं।" मेरी बात सुनकर, मेरी सहभागी ने सहमति में सिर हिलाया, इस तरह अभ्यास कर मुझे बहुत सुकून मिला।

अब, जब मैं अपना काम करता, तो अक्सर खुद से पूछता, "क्या आज मैंने अपना कर्तव्य सत्य के सिद्धांतों के अनुसार निभाया? क्या मैंने लोगों के साथ अपने बर्ताव में भ्रष्ट स्वभाव के साथ काम किया?" अगर मैं कोई भी काम सिद्धांतों और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं करता, तो परमेश्वर से उसे बदल देने में मदद की प्रार्थना करता। इस तरह अभ्यास करने से मुझे परमेश्वर के आशीष दिखे, कलीसिया का कार्य थोड़ा सुधर गया, और भाई-बहन सक्रिय होकर अपना कर्तव्य निभा पा रहे थे। परमेश्वर का धन्यवाद!

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