20. मन की जलन हड्डियों को भी जला देती है
नवंबर 2020 में, मैं सिंचन टीम की अगुआ चुनी गई। मैं बहुत खुश थी। टीम की अगुआ चुने जाने पर, मुझे लगा मैं सत्य समझती हूँ और मेरा जीवन प्रवेश दूसरों से बेहतर है। मैं अपना काम अच्छे से करना चाहती थी ताकि सब मेरा सम्मान करें। कुछ समय बाद, मैं थोड़ी प्रगति करने लगी, भाई-बहनों ने कहा कि मेरी संगति स्पष्ट है और मैं समस्याएँ सुलझा सकती हूँ। उनकी इस तारीफ से मुझे खुद पर गर्व हुआ। लेकिन महीने भर बाद, बहन यू के आने से सब कुछ बदल गया। वह पहले अगुआ रह चुकी थी, उसकी संगति अच्छी थी, उसमें काम करने की क्षमता और कुशलता थी। उसे आते ही हमारे काम में कुछ समस्याएं दिख गईं और उन पर संगति करने के लिए उसने तुरंत परमेश्वर के वचन खोजे। फिर मैंने गौर किया कि भाई-बहन संगति के लिए उसे ही खोजते थे, इस बात से मुझे गुस्सा आने लगा। मैं टीम अगुआ थी, अगर समस्याएँ दूर करने मैं उसके जितनी सक्षम न हुई, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या उन्हें नहीं लगेगा कि मैं उनकी समस्याएँ दूर नहीं कर सकती, मैं अच्छी अगुआ नहीं हूँ? ये सोचकर मुझे शर्मिंदगी हुई और मुझमें बहन यू के लिए पूर्वाग्रह पैदा हो गया। मुझे लगा वह दिखावा करती है, टीम अगुआ के रूप में मेरा सम्मान नहीं करती, जानबूझकर मुझे शर्मिंदा करती है। मैंने सोचा, माना कि वह अगुआ रह चुकी है और थोड़ी अनुभवी है, लेकिन मेरी काबिलियत भी कम नहीं, मुझे नहीं लगता वह मुझसे आगे निकल सकती है। शर्मिंदगी से बचने के लिए, मैंने सभाओं में परमेश्वर के वचनों पर विचार करने और उससे बेहतर संगति करने का प्रयास किया। भाई-बहनों की समस्या सुलझाने के लिए मैंने परमेश्वर के वचन खोजने और अपने अनुभव साझा करने का प्रयास किया, ताकि लोग देख सकें कि असल में सत्य की वास्तविकता किसमें है। मैं ईर्ष्या-भाव रखकर हमेशा दूसरों से लड़ती रहती थी।
एक बार किसी सभा में, एक बहन ने अपने काम में आ रही कुछ कठिनाइयों का ज़िक्र किया। मुझे लगा इसका जवाब तो देना ही चाहिए, समस्या दूर करने के लिए परमेश्वर के वचन जरूर खोजने चाहिए। तब लोग मुझे बहन यू के बराबर समझेंगे। लेकिन मैंने जितना खोजा, मैं उतनी ही भ्रमित होती गई। पन्ने पलटती रही लेकिन कोई उपयुक्त अंश नहीं मिला। अंत में बहन यू को उससे चर्चा करने के लिए अंश मिल गया। मुझे लगा मैं नाकाम हो गई, शर्म से मेरा चेहरा लाल हो गया। काश कि धरती फटती और मैं उसमें समा जाती। खुद को जितना साबित करने की कोशिश करती उतनी ही बेवकूफ दिखती। मुझे लगा तमाम कोशिशों के बावजूद, मैं बहन यू से मुकाबला नहीं कर सकती। मेरी हालत खराब हो रही थी। मुझे लगा इस काम से मेरी इज़्ज़त चली गई है, लोगों ने मेरी असलियत देख ली है, भाई-बहन जरूर बहन यू को ज़्यादा काबिल टीम अगुआ मानते होंगे। अगर ऐसा है, तो अपनी बची-कुची इज़्ज़त बचाने के लिए, मुझे जल्दी, पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। मुझे पता था इस तरह की सोच परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं है, लेकिन मुझे उससे ईर्ष्या हो रही थी। मैं पीड़ित और उदास थी, और समझ नहीं पा रही थी कि नाम और रुतबे के बंधनों से कैसे बचूँ। मैं खुद को सीमाओं में बाँध रही थी, सोचती थी कि मैं हमेशा नाम और रुतबे के पीछे भागती हूँ, शायद यही मेरी प्रकृति है जिसे मैं अब बदल नहीं सकती। मैं भाई-बहनों को अपनी स्थिति बताना चाहती थी, लेकिन उनकी नज़र में गिरने से डरती थी। यह भी स्वीकारना नहीं चाहती थी कि मैं बहन यू जितनी काबिल नहीं हूँ। तो मेरी निराशा निरंतर बढ़ती ही चली गई और मैं बहन यू के प्रति और अधिक पक्षपाती हो गई। मैंने सभाओं में उसकी सक्रियता देखी थी, तो मुझे लगा यह उसका दिखावा है, वह रुतबे के लिए मेरे साथ होड़ कर रही है। मैं उसके साथ बात भी नहीं करना चाहती थी। मैंने अपनी स्थिति के बारे में एक और बहन से बात करने की भी सोची ताकि उसे लगे कि मेरी मायूसी का कारण बहन यू है। मैं चाहती थी कि वह बहन यू के बजाय मेरा पक्ष ले, मेरे साथ वह भी उसकी आलोचना करे। मन ही मन मुझे पता था कि मैं उसके खिलाफ गुटबाज़ी कर रही हूँ, लेकिन मैंने इसके बारे में ज़्यादा सोचा नहीं। एक शाम, मैंने एक बहन को अपनी मायूसी की हालत बयाँ की। आमतौर पर बहन यू सुझाती थी कि हमें परमेश्वर के किन वचनों पर संगति करनी चाहिए, वही प्रार्थनाओं की भी अगुआई करती थी। मुझे लगा वो मुझे अनदेखा करती है। मैं बेबसी में अब टीम अगुआ भी नहीं बनी रहना चाहती। मुझे लगा था कि वह मेरा पक्ष लेगी, लेकिन उसने कहा कि मुझे बहन यू के साथ ठीक से व्यवहार करना चाहिए। कुछ दिनों बाद, मैंने देखा कि वह बहन यू के साथ अच्छी तरह घुलमिल गई है, मुझे बहुत असहज महसूस हुआ। मैं सोच रही थी कि मैंने उसे इतना कुछ बताया, फिर भी उसने बहन यू के बारे में कोई खराब राय क्यों नहीं बनाई? इस सोच पर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ। मैं ऐसा सोच भी कैसे सकती थी? क्या मैं बहन यू को बाहर करने के लिए गुटबाज़ी नहीं कर रही थी? मेरा डर बढ़ता गया और मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया।
मुझे परमेश्वर के कुछ वचन याद आए : "अगर कुछ लोग किसी व्यक्ति को अपने से बेहतर पाते हैं, तो वे उस व्यक्ति को दबाते हैं, उसके बारे में अफ़वाह फैलाना शुरू कर देते हैं, या किसी तरह के अनैतिक साधनों का प्रयोग करते हैं जिससे कि दूसरे व्यक्ति उसे अधिक महत्व न दे सकें, और यह कि कोई भी किसी दूसरे व्यक्ति से बेहतर नहीं है, तो यह अभिमान और दंभ के साथ-साथ धूर्तता, धोखेबाज़ी और कपट का भ्रष्ट स्वभाव है, और इस तरह के लोग अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। ... सबसे पहले, इन बातों की प्रकृति के परिप्रेक्ष्य से बोला जाये, तो क्या इस तरीके से काम करने वाले लोग बस अपनी मनमर्ज़ी से काम नहीं कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के परिवार के हितों पर विचार करते हैं? वे परमेश्वर के परिवार के कार्य को होने वाले नुकसान की परवाह किये बिना, सिर्फ़ अपनी खुद की भावनाओं के बारे में सोचते हैं और वे सिर्फ़ अपने लक्ष्यों को हासिल करने की बात सोचते हैं। इस तरह के लोग न केवल अभिमानी और आत्मतुष्ट हैं, बल्कि वे स्वार्थी और घिनौने भी हैं; वे परमेश्वर के इरादों की बिलकुल भी परवाह नहीं करते, और निस्संदेह, इस तरह के लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। यही कारण है कि वे वही करते हैं जो करना चाहते हैं और बेतुके ढंग से आचरण करते हैं, उनमें दोष का कोई बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। इन वचनों की रोशनी में मैंने पहले आत्म-चिंतन नहीं किया था। मैंने देखा कि परमेश्वर मेरी स्थिति उजागर कर रहा है। मैंने नहीं सोचा था कि मैं इतनी दुष्ट हो जाऊंगी। ईर्ष्या के कारण बहन यू से हर समय मेरी अनबन रहती थी। उसकी संगति बेहतर थी और वह लोगों की व्यावहारिक समस्याएँ दूर कर सकती थी। मैं इस बात से खुश नहीं थी, यह मुझे अपमानजनक लगता था। मैं दूसरों की नज़रों में चढ़ना चाहती थी, मेरे सारे प्रयास उससे आगे निकलने के लिए थे। जब मैं ऐसा नहीं कर पाई, तो मुझे उस पर गुस्सा आया, कहा कि वह दिखावा करके मेरा सारा श्रेय ले रही है। मैं गुटबाज़ी कर उसके खिलाफ पूर्वाग्रह फैला रही थी ताकि सब उसे अकेला छोड़ दें और उसकी आलोचना करें। मैं बेहद अभिमानी थी और अपने से बेहतर किसी व्यक्ति को बर्दाश्त नहीं कर पाती थी। टीम अगुआ के अपने पद को बरकरार रखने के लिए कुछ भी कर सकती थी—यह कपट और नीचता थी। सिर्फ रुतबे के लिए लड़ने और लोगों को किनारे करने वाले मसीह-विरोधियों से मैं अलग कैसे थी? साफ तौर पर मुझमें जीवन प्रवेश की कमी थी और मैं लोगों की समस्याएँ दूर नहीं कर सकती थी। मैं बहन यू को लोगों की मदद और संगति करने नहीं दे रही थी। क्या मैं जीवन प्रवेश को बाधित कर, भाई-बहनों को आहत नहीं कर रही थी? मुझमें कोई इंसानियत नहीं थी! यह सोचकर खुद को और भी दोषी महसूस किया, मैंने भाई-बहनों को निराश किया था। फिर मैंने हिम्मत जुटाकर खुलकर बताया कि मैं बहन यू के साथ मुकाबला करना चाहती थी, और मैंने उससे माफी मांगी। उसने कहा कि उसे पता था कि मैं उसकी संगति साझा करने से खुश नहीं थी, इसलिए वो विवश महसूस कर ज़्यादा साझा नहीं करना चाहती थी, कि मुझ पर इसका असर पड़ेगा। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मेरे संघर्ष ने उस पर नकारात्मक प्रभाव डाला था, मुझे यह बहुत बुरा लगा। सभाएं नाम और लाभ की खातिर लड़ने की नहीं, बल्कि परमेश्वर की आराधना-स्थली हैं। लेकिन मेरा दिमाग ठिकाने पर नहीं था—मुझे तो उससे होड़ करनी थी, जिससे परमेश्वर के घर का काम बाधित हुआ और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में रुकावट आई। मुझे बेहद पछतावा हुआ। ऐसे शैतानी स्वभाव में जीना लोगों को आहत करता है, और मैं कटुता और पीड़ा में जीने लगती हूँ। दूसरों से ईर्ष्या करने से मुझे भी चोट पहुँचती है।
मैं अभ्यास का मार्ग खोजती रही। मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "कलीसिया का अगुआ होने के लिए, न केवल यह जानना जरूरी है कि समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य का इस्तेमाल कैसे करें, बल्कि यह भी कि प्रतिभा का पता लगाकर उसे बढ़ावा कैसे दें, प्रतिभाशाली लोगों को न तो दबाएँ और न ही उनसे ईर्ष्या करें। कर्तव्य का ऐसा निर्वहन मानक के अनुसार होता है, ऐसा करने वाले अगुआ और कर्मी मानक के अनुरूप होते हैं। यदि तुम हर चीज में सिद्धांतों के अनुसार काम कर सको, तो तुम अपनी निष्ठा के अनुरूप जी रहे होगे। कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊँचे हैं, दूसरों का सम्मान होगा और उनको अनदेखा कर दिया जाएगा। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! केवल अपने हितों के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों के कर्तव्यों पर कोई ध्यान नहीं देना, या परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है। अगर तुम वाकई परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार कर पाने में सक्षम होगे। अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति के पक्ष में दलील देते हो और उसे योग्य बनाते हो, उसके बाद परमेश्वर के घर में एक और प्रतिभाशाली व्यक्ति होगा, तब क्या तुम्हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या इस कर्तव्य के निर्वहन में तुमने अपनी निष्ठा के अनुरूप काम नहीं किया होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; कम से कम एक अगुआ में इतना विवेक और सूझ-बूझ तो होनी ही चाहिए। ... हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन चीज़ों पर बार-बार विचार कर, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे सिखाया कि अगुआओं और कार्यकर्ताओं को प्रतिभाशाली लोगों को पहचाना और विकसित करना सीखना चाहिए, उनसे ईर्ष्या करना परमेश्वर को नापंसद है। बहन यू की संगति गहरी थी और वह समस्याएँ दूर कर सकती थी। यह कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के लिए अच्छा है। मुझे परमेश्वर की इच्छा पर विचार कर, अपने नाम और रुतबे को त्यागना था, ताकि बहन यू के साथ अच्छे से काम करूँ और अपना कर्तव्य निभाऊँ। टीम अगुआ चुना जाना परमेश्वर द्वारा दिया अभ्यास का मौका था। इसका मतलब यह नहीं था कि मैं सब कुछ जानती हूँ। सत्य और कुछ अन्य मुद्दों की उथली समझ होना सामान्य बात है, तो मुझे बहन यू से सीखना चाहिए। लेकिन मैं तो खुद को टीम अगुआ के तौर पर देखती थी, सोचती थी कि मुझे हर समस्या को समझना और उसे दूर करना आना चाहिए, मैं किसी से कम योग्य कैसे हो सकती हूँ, इसलिए हमेशा बहन यू से प्रतिस्पर्धा करती थी और जब उससे बेहतर नहीं कर पाती तो मैं मायूस हो जाती। मैं बेहद मूर्ख थी। परमेश्वर कभी नहीं कहता कि अगुआ के पास हर समस्या का समाधान होना चाहिए। वह चाहता है कि हम ईमानदार बनें, जितना समझते हैं केवल उतने पर संगति करें, और जो समझ में नहीं आता उस पर भाई-बहनों से चर्चा करें। यही परमेश्वर की इच्छा है। परमेश्वर की इच्छा जानने के बाद मैंने बहन यू से ईर्ष्या करनी बंद दी, और उसके अच्छे विचारों को स्वीकारने और लागू करने लगी। हमने मिलकर संगति करनी शुरू कर दी और सभा में जो समस्या उठाई जाती, उसमें मदद करते, ऐसे बहुत लोगों की समस्याएं दूर होने लगीं।
इतना सब होने पर, मैंने सोचा मैं बदल गई, लगा अब नाम और रुतबे की ओर मेरा इतना ध्यान नहीं है। लेकिन शैतान मुझे बुरी तरह भ्रष्ट कर चुका था। अनुकूल स्थिति आते ही, मैंने फिर अपना वही रूप दिखा दिया। जुलाई 2021 में, टीम अगुआ की ज़िम्मेदारी नहीं निभा पाने के कारण मुझे बर्खास्त कर दिया गया। मेरी जगह बहन यू को चुन लिया गया। मुझे पता था यह बदलाव सकारात्मक है और वह सच में बेहतर काम करेगी। उसके चयन से भाई-बहनों के जीवन को लाभ होगा। लेकिन फिर मैंने देखा कि अपने काम के लिए उसने कितना बोझ उठा रखा है, वह टीम के सदस्यों की हर कठिनाई को तुरंत संभालने में सक्षम थी। उसने हमारे कलीसियाई जीवन की कमियों का सारांश भी तैयार किया। मुझे यह बात चुभ गई। अगर बहन यू टीम अगुआ रहते हुए अधिक काम करती है, तो क्या इससे मैं अयोग्य नज़र नहीं आऊँगी? सब मेरे बारे में क्या सोचेंगे? सब मुझे बेकार और नाकाबिल समझेंगे। यह सोचकर, मैंने कलीसियाई जीवन के पुनरुद्धार की आशा का त्याग कर दिया। पहले, चाहे हम परमेश्वर के वचनों पर संगति कर रहे हों या अपने काम की समस्याओं पर बात कर रहे हों, मैं सक्रिय रहती थी और सबको व्यस्त रखती थी। लेकिन अब मैं सभाओं के अंत में ही बोलती थी, कभी मुझे कुछ प्रबोधन मिलता था, तो भी मैं उस बारे में बात नहीं करना चाहती थी। संगति के अंत में मैं बेमन से दो शब्द बोलती थी। जब बहन यू मुझे और बोलने के लिए कहती, तो भी मैं कुछ साझा नहीं करना चाहती थी। कुछ समय तक काम में आने वाली मुश्किलों के चलते, भाई-बहनों की स्थिति खराब हो गई, बहन यू के पास तुरंत उनसे निपटने का समय नहीं था। मैंने कोई मदद नहीं की, बल्कि यह सोचकर उन हालात का मज़ा लिया, "तुम भी कोई खास बढ़िया अगुआ नहीं हो—मुझसे बेहतर नहीं हो!" मैंने लोगों को बुरी स्थिति में और कलीसिया को नुकसान होते देखा, और चाहा कि यही हालात बने रहें। फिर मैंने बहन यू को समय निकालकर उन मुद्दों को हल करते देखा। मुझे बहुत बुरा लगा। मेरे मन में उसके प्रति नफ़रत बढ़ती गई। नौबत यहाँ तक आ गई कि वह जो भी कहती, जो भी राय देती, मुझे बिल्कुल पसंद न आती। वह सभाओं में संगति भी करती, तो मैं मुँह घुमा लेती। मुझे पता था कि मेरी ईर्ष्या के बद से बदतर और इतनी ज़हरीली होने से उसे और हमारे कलीसियाई जीवन दोनों को नुकसान हो सकता है। मैं नहीं चाहती कि ऐसा हो, लेकिन मैं इससे बच नहीं सकती थी। पीड़ित होकर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं बहन यू से ईर्ष्या नहीं करना चाहती, पर मैं खुद को रोक नहीं पा रही। मुझे बचाओ ताकि मैं नाम और रुतबे के खतरों को देख सकूं, ताकि अपने भ्रष्टाचार के बंधन से मुक्त हो पाऊँ।" प्रार्थना के बाद, मैंने लोगों से अपने हालात साझा किए। बहन यू ने कहा कि उसने कभी नहीं सोचा था कि मैं उसके बारे में ऐसा महसूस करूंगी, उसे बहुत बुरा लगा। उसकी यह बात सुनकर मैंने खुद को दोषी महसूस किया। हम एक-दूसरे को इतने लंबे समय से जानते थे, मैं उससे ईर्ष्या करती थी, पीठ पीछे उसकी आलोचना करती थी, लेकिन उसने कभी कोई हंगामा नहीं किया। वह मेरा ख्याल रखती थी, मेरी मदद के लिए सत्य पर संगति करती थी। जबकि मैं उससे दुर्भावनापूर्ण और अमानवीय व्यवहार कर रही थी।
फिर एक सभा में, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "मसीह-विरोधी अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। ये लोग कुटिल, धूर्त और दुष्ट ही नहीं, बल्कि प्रकृति से विद्वेषपूर्ण भी होते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि उनकी हैसियत खतरे में है, या जब वे लोगों के दिलों में अपना स्थान खो देते हैं, जब वे लोगों का समर्थन और स्नेह खो देते हैं, जब लोग उनका आदर-सम्मान नहीं करते, और वे बदनामी के गर्त में गिर जाते हैं, तो वे क्या करते हैं? वे अचानक बदल जाते हैं। जैसे ही वे अपनी हैसियत खो देते हैं, वे कुछ नहीं करना चाहते, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह घटिया होता है। कर्तव्य-पालन में उनकी कोई रुचि नहीं होती। लेकिन यह सबसे खराब अभिव्यक्ति नहीं होती। सबसे खराब अभिव्यक्ति क्या होती है? जैसे ही ये लोग अपनी हैसियत खो देते हैं और कोई उनका सम्मान नहीं करता, कोई उनके बहकावे में नहीं आता, तो उनकी ईर्ष्या और प्रतिशोध बाहर आ जाता है, घृणा बाहर आ जाती है। उन्हें न केवल परमेश्वर का कोई भय नहीं रहता, बल्कि उनमें आज्ञाकारिता का कोई अंश भी नहीं होता। इसके अतिरिक्त, उनके दिलों में कलीसिया, परमेश्वर के घर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं से घृणा करने की संभावना होती है; वे दिल से चाहते हैं कि कलीसिया के कार्य में समस्याएँ आ जाएँ या वह ठप हो जाए; वे परमेश्वर के घर और भाई-बहनों पर हँसना चाहते हैं। वे उस व्यक्ति से भी घृणा करते हैं, जो सत्य का अनुसरण करता है और परमेश्वर का भय मानता है। वे उस व्यक्ति पर हमला करते हैं और उसका मजाक उड़ाते हैं, जो अपने कर्तव्य के प्रति वफादार और कीमत चुकाने का इच्छुक होता है। यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है—और क्या यह विद्वेषपूर्ण नहीं है?" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो)')। परमेश्वर हमें दिखाता है कि मसीह-विरोधी चालाक, दुष्ट और शातिर प्रकृति के होते हैं। अगर वे रुतबा या लोगों का समर्थन गँवा देते हैं, तो वे ईर्ष्यालु होकर बदला लेना चाहते हैं। वे अपना काम लापरवाही से करते हैं और चाहते हैं कि कलीसिया का काम बिगड़ जाए। वे परमेश्वर के घर और भाई-बहनों का तमाशा बना देना चाहते हैं। मुझे एहसास हुआ कि मैं भी उसी स्थिति में हूँ जैसा परमेश्वर ने अपने वचनों में वर्णन किया है। बर्खास्त होने के बाद, मैंने देखा बहन यू पर काम का भारी बोझ है, वह असली समस्याओं का समाधान करती है। मुझे लगा अगर उसने अच्छा काम करके कलीसियाई जीवन सुधार दिया, तो ज़ाहिर हो जाएगा कि वह मुझसे बेहतर है। अपना रुतबा और छवि बचाने के लिए, मैं चाह रही थी कि कलीसियाई जीवन की स्थिति खराब ही बनी रहे। मैं अपनी स्पष्ट अंतर्दृष्टि साझा नहीं करना चाहती थी। जब मैंने देखा कि बहन यू समय पर समस्याओं का समाधान नहीं कर पा रही है तो मुझे मज़ा आ रहा था। मुझे उसका कुछ भी पसंद नहीं था, मैं उसे पूरी तरह नकार चुकी थी। मैं मसीह-विरोधी दुष्ट स्वभाव दिखा रही थी। मैं जानती थी कि कलीसियाई जीवन का सीधा असर भाई-बहनों के जीवन प्रवेश पर पड़ता है, वे तभी अपना काम अच्छे से कर सकते हैं जब उनकी स्थिति अच्छी हो और उन्हें जीवन प्रवेश मिले। लेकिन मुझे तो लोगों की नज़रों में अपना रुतबे बनाए रखना था, तो मैं न केवल कलीसियाई जीवन को बनाए रखने में नाकाम रही, बल्कि लोगों की समस्याएँ न सुलझते, और काम को निष्फल होते देख खुश होती। मैं कपटी और दुर्भावनापूर्ण हो चुकी थी। जब परमेश्वर का घर किसी को बढ़ावा देता या बर्खास्त करता है, तो वह काम के लिए होता है। मैं अपना दायित्व नहीं निभा सकी, इसलिए मुझे निकाल दिया गया, मेरी जगह एक बेहतर व्यक्ति को रखा गया। मैं इससे खुश नहीं थी और उसके साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से काम नहीं कर रही थी, मैं उसे कम आंक रही थी, अशांति फैलाकर उसे आहत कर रही थी। क्या मुझमें इंसानियत थी? यह सोचकर ही मुझे पछतावा होने लगा और मेरी आँखों में आँसू आ गए। अपनी दुष्टता से मुझे घृणा होने लगी, मैं परमेश्वर के सामने रहने लायक नहीं थी। मुझे बाइबल का यह पद याद आया : "मन के जलने से हड्डियाँ भी जल जाती हैं" (नीतिवचन 14:30)। इसमें कितनी सच्चाई है। ईर्ष्या घृणा को जन्म देती है और लोगों को गलत काम करने के लिए उकसाती है।
उसी रात, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "जब उन चीजों की बात आती है जिन्हें परमेश्वर सुरक्षित रखना चाहता है, तो अगर तुम हमेशा उन्हें अस्त-व्यस्त, बाधित और विघटित करते रहते हो, और अगर तुम हमेशा उनसे घृणा करते रहते हो और अपनी धारणाएँ और विचार रखते हो, तो इसका क्या तात्पर्य है? इसका तात्पर्य यह है कि तुम परमेश्वर के साथ बेकार की बहस करना चाहते हो, उससे अलग पक्ष लेना चाहते हो, और तुमने उसके घर के काम और हितों को महत्व नहीं दिया है। तुम हमेशा उसे नष्ट करने की कोशिश करते हो, हमेशा विनाशकारी ढंग से कार्य करना चाहते हो, हमेशा उससे लाभ उठाना चाहते हो, और हमेशा कठिनाइयाँ पैदा करने और बुरे काम करने की कोशिश कर रहे हो। ऐसे में, परमेश्वर तुमसे रुष्ट होगा या नहीं? (होगा।) और यह रोष कैसा दिखेगा? (वह हमें दंड देगा।) वह तुम्हें अवश्य दंड देगा। परमेश्वर तुम्हें माफ नहीं करेगा; इसकी बिल्कुल संभावना नहीं है। इसका कारण यह है कि तुम्हारे द्वारा किए गए बुरे कामों ने कलीसिया के काम को कमजोर किया, बदनाम किया और बिगाड़ा, वे परमेश्वर के घर के काम के साथ हितों का टकराव थे, एक बड़ी बुराई थे, वे परमेश्वर के विरुद्ध थे, और परमेश्वर के स्वभाव के प्रति एक प्रत्यक्ष अपराध थे—तो परमेश्वर तुमसे रुष्ट कैसे नहीं हो सकता था? अगर कुछ लोग अपनी खराब क्षमता के कारण कार्य करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं, और वे गलती से कुछ छोटे-मोटे दुष्कर्म कर देते हैं, तो परमेश्वर उनके गलत कामों की गंभीरता के अनुसार उनसे उचित तरीके से निपट सकता है। लेकिन अगर अपने व्यक्तिगत हितों की खातिर तुम जानबूझकर ईर्ष्या और विवादों में लिप्त होते हो, और जानबूझकर अपराध करते हो, और कुछ ऐसी चीजें करते हो जो परमेश्वर के कार्य को बाधित, अस्त-व्यस्त और नष्ट करती हैं, तो तुम उसके स्वभाव को ठेस पहुँचा दोगे। क्या वह तुम पर दया करेगा? परमेश्वर ने अपना सारा खून, पसीना और आँसू यहीं अपनी छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन-योजना के कार्य में लगा दिए हैं। अगर तुम उसके खिलाफ काम करते हो, जानबूझकर उसके घर के हितों को नुकसान पहुँचाते हो और उसके घर के हितों की कीमत पर अपने हित साधते हो, व्यक्तिगत प्रसिद्धि और हैसियत पाने की कोशिश करते हो, परमेश्वर के घर के काम को नष्ट करने या उसे बाधित और बरबाद करने, यहाँ तक कि परमेश्वर के घर को बड़ा भौतिक और वित्तीय नुकसान पहुँचाने की परवाह नहीं करते, तो क्या तुम लोग कहोगे कि तुम जैसे व्यक्ति को क्षमा कर दिया जाना चाहिए? (नहीं।)" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। मुझे परमेश्वर के वचनों से उसके अपमान सहन न करने वाले स्वभाव का आभास हुआ। मैं सबके सामने अपना रुतबा कायम रखना चाहती थी, इसी वजह से मैं बहन यू के खिलाफ थी, चाहती थी कि उसकी छवि खराब हो। मैंने कलीसिया के काम में रुकावट पैदा की थी। मैं किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं बल्कि परमेश्वर के खिलाफ जा रही थी। मैं अपना मकसद पूरा करने के लिए परमेश्वर के घर के हितों का इस्तेमाल कर रही थी। इंसान को बचाने के लिए परमेश्वर ने इतनी बड़ी कीमत अदा की है, उसे उम्मीद है कि हम सत्य पाकर अपना स्वभाव बदलेंगे, उसके द्वारा बचाए जाएँगे। अच्छा कलीसियाई जीवन और अच्छा अगुआ पाकर ही भाई-बहन सत्य की वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हैं और परमेश्वर से उद्धार पा सकते हैं। मैं एक सृजित प्राणी और परमेश्वर की अनुयायी हूँ, लेकिन मैंने परमेश्वर की इच्छा की कोई परवाह नहीं की। मैंने जब कलीसियाई जीवन को कष्ट में देखा, तो मुझे खुशी हुई। बल्कि चाहा कि हालात खराब ही बने रहें। मैं इतनी नीच और दुष्ट कैसे हो गई? शैतान चाहता है कि परमेश्वर की प्रबंधन योजना पूरी न हो, परमेश्वर के घर का काम पंगु बना रहे, सब परमेश्वर को धोखा देकर उसका उद्धार गँवा दें, और अंतत: सब शैतान के साथ ही नरक में चले जाएँ। इस तरह की सोच और हरकत से, क्या मैं शैतान की तरह परमेश्वर के घर के काम को बाधित नहीं कर रही थी? परमेश्वर का स्वभाव अपराध सहन नहीं करता। अगर मैंने प्रायश्चित नहीं किया, तो मैं कभी न कभी कोई बड़ी दुष्टता कर बैठूँगी, परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर बैठूँगी और उसके द्वारा हटा दी जाऊँगी। तब मुझे समझ आया कि नाम और रुतबे के पीछे भागना अच्छा मार्ग नहीं है। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "शैतान मनुष्य के विचारों को नियन्त्रित करने के लिए प्रसिद्धि एवं लाभ का तब तक उपयोग करता है जब तक लोग केवल और केवल प्रसिद्धि एवं लाभ के बारे में सोचने नहीं लगते। वे प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए कठिनाइयों को सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए जो कुछ उनके पास है उसका बलिदान करते हैं, और प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते वे किसी भी प्रकार की धारणा बना लेंगे या निर्णय ले लेंगे। इस तरह से, शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनके पास इन्हें उतार फेंकने की न तो सामर्थ्य होती है न ही साहस होता है। वे अनजाने में इन बेड़ियों को ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पाँव घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते, मनुष्यजाति परमेश्वर को दूर कर देती है और उसके साथ विश्वासघात करती है, तथा निरंतर और दुष्ट बनती जाती है। इसलिए, इस प्रकार से एक के बाद दूसरी पीढ़ी शैतान के प्रसिद्धि एवं लाभ के बीच नष्ट हो जाती है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI')। मैंने नाम और रुतबे के पीछे भागने को गंभीरता से लेने के बजाय, यह चाहा कि लोग मेरा सम्मान करें। मुझे लगा ही नहीं कि मैं भाई-बहनों या परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान कर सकती हूँ। लेकिन परमेश्वर के वचनों और तथ्यों ने मुझे दिखा दिया कि नाम और रुतबे के ज़रिए शैतान लोगों को चोट पहुँचाता है, उन्हें फंसाता है। इन बेड़ियाँ से शैतान ने मुझे बाँध लिया था। समय सही देखकर उसने मुझ पर पकड़ बना ली और मैं परमेश्वर के खिलाफ ही काम करने लगी। अगर मैं सत्य का अनुसरण कर, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को न स्वीकारती, और उन्हीं चीज़ों के पीछे भागती रहती, तो मैं खुद को तबाह कर लेती। आदिकाल से ही, रुतबे और ताकत के फेर में, अच्छे दोस्त आपस में कट्टर दुश्मन बन जाते हैं, प्यार-भाईचारे वाले अपने हित के लिए स्वार्थी और क्रूर बन जाते हैं। बहन यू के प्रति मेरा भी यही बर्ताव था। अपने रुतबे की सोचकर, मैं उसे बर्दाश्त नहीं कर पाती थी। मुझे लगा वह मेरा पद छीन रही है, इसलिए मैं उससे मुकाबला करना चाहती थी, जब मैं उससे बेहतर नहीं कर पाई, तो उसकी आलोचना के लिए मैंने गुटबाज़ी शुरू कर दी। कलीसियाई जीवन की खराब हालत देखकर भी मैंने उसकी रक्षा करने की कोशिश नहीं की, मैं शांत रही, उसे असफल होते देखने को बेताब थी ताकि मैं उस पर हँस सकूँ। मैं परमेश्वर के घर के काम को नुकसान होते देखने को भी तैयार थी। नाम और पद के पीछे भागते हुए, मैं परमेश्वर-विरोध के मार्ग पर चल रही थी। उस समय मेरे दिल में डर बैठ गया और मैं जान गई कि अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया, नाम और पद के पीछे भागकर, परमेश्वर के घर के काम को बाधित करती रही, तो मैं अपना काम गँवा बैठूँगी, इससे भी बुरा यह होगा कि मैं एक मसीह-विरोधी के तौर पर कलीसिया से निकाल दी जाऊँगी। मेरे उद्धार का अवसर चला जाएगा। यह देखकर मैंने परमेश्वर का बहुत आभार माना। मैंने कभी नाम और रुतबे का सार या उनके पीछे भागने से होने वाला नुकसान नहीं देखा था, और इनके पीछे कभी भागना नहीं छोड़ा था। इस बार परमेश्वर ने मेरे लिए एक वास्तविक स्थिति का निर्माण किया था ताकि मैं शैतान की ताकत के अधीन रहने का दर्द अनुभव कर सकूँ, उसके पीछे भागने का घिनौना सच देख सकूँ। परमेश्वर के वचनों के न्याय से उसके अपराध न सहने वाले स्वभाव का भी अनुभव कर सकूँ। मैं पहले नकारात्मक और कमजोर महसूस करती थी, जैसे मैं इतनी भ्रष्ट हूँ कि बदल नहीं सकती, मुझमें सत्य का अनुसरण करने का विश्वास नहीं था। पर फिर मैंने समझा कि भले ही मैं नाम और रुतबे को बहुत महत्व देती हूँ, लेकिन अगर मुझे सत्य का अनुसरण कर अपने में बदलाव लाना है, तो सत्य को समझने में, उन बेड़ियों को तोड़कर उद्धार के मार्ग पर चलने में परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन करेगा।
तब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "जब लोग हमेशा दूसरों से बेहतर बनने की कोशिश करते हैं, जब वे हमेशा उनसे आगे निकलने की कोशिश करते हैं, जब वे हमेशा भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करते हैं, तो यह कैसा स्वभाव होता है? (एक अभिमानी स्वभाव।) यह परमेश्वर के दायित्व के प्रति विचारशील होना नहीं है—परमेश्वर यह नहीं कहता कि तुम इस तरह विचारशील बनो। कुछ लोग कहते हैं कि यह उनका प्रतिस्पर्धी होना है। प्रतिस्पर्धी होना अपने आप में एक नकारात्मक बात है। यह शैतान के अभिमानी स्वभाव का एक प्रकटन—एक अभिव्यक्ति है। जब तुम्हारा ऐसा स्वभाव होता है, तो तुम हमेशा दूसरों को नीचे रखने की कोशिश करते हो, हमेशा उनसे आगे निकलने की कोशिश करते हो, हमेशा धोखा देते हो, हमेशा लोगों से लेने की कोशिश करते हो। तुम अत्यधिक ईर्ष्यालु होते हो, तुम किसी का आज्ञापालन नहीं करते, और तुम हमेशा खुद को अलग दिखाने की कोशिश करते हो। यह समस्या है; ऐसे तो शैतान काम करता है। अगर तुम वास्तव में परमेश्वर का प्राणी बनना चाहते हो, तो ऐसी चीजों के लिए प्रयास मत करो। प्रतिस्पर्धी होना, अपनी क्षमताओं का दिखावा करना—ये अच्छी चीजें नहीं हैं; केवल आज्ञाकारी होना सीखना ही समझदारी प्रदर्शित करता है।" "तुम लोगों के आचरण के कौन-से सिद्धांत हैं? तुम्हारा आचरण तुम्हारे पद के अनुसार होना चाहिए, अपने लिए सही पद खोजो और उस पर डटे रहो। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोग एक पेशे में अच्छे होते हैं और उसके सिद्धांतों को समझते हैं, उस संबंध में अंतिम जाँच उन्हें करनी चाहिए; कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने विचार और अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं, जिससे हर व्यक्ति उनके विचार पर आगे कार्य करने और अपने कर्तव्य का बेहतर तरीके से पालन करने में सक्षम हो पाता है—तो फिर उन्हें अपने विचार साझा करने चाहिए। यदि तुम अपने लिए सही पद खोज सकते हो और अपने भाई-बहनों के साथ सद्भाव से कार्य कर सकते हो, तो तुम अपना कर्तव्य पूरा करोगे, और तुम अपने पद के अनुसार आचरण करोगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। इससे मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। परमेश्वर हर किसी को अलग-अलग प्रतिभा और क्षमता प्रदान करता है। वह आशा करता है कि हम उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर अपने कौशल और पद का सदुपयोग करेंगे। बहन यू मुझसे अधिक योग्य थी और असली समस्याएँ संभाल सकती थी। उसका प्रभावी टीम अगुआ होना एक अच्छी बात थी। मुझे उसकी खूबियों से सीखकर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए था। यही एकमात्र उचित दृष्टिकोण था। लेकिन मुझे अयोग्य कहलाने से डर लगता था। मैं अहंकारी थी और खुद को नहीं समझती थी। मुझे अपनी जगह पता ही नहीं थी। बहन यू का ध्यान जीवन प्रवेश पर था, दूसरों के लिए उसके मन में प्रेम था। जब उसका ध्यान मेरी समस्याओं पर गया, तो उसने मेरी भी मदद की, इसलिए मुझे उसके साथ काम करने के अवसर को संजोना चाहिए और परमेश्वर द्वारा निर्मित परिवेश में खुद को जानने पर ध्यान देना चाहिए। इससे मेरे जीवन प्रवेश में मदद मिलेगी। इस तरह सोचकर मुझे आज़ादी महसूस हुई। उसके बाद, मैंने उसके प्रति अपनी ईर्ष्या त्याग दी, सभाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने और उसके साथ सहयोग करने लगी, संगति में पूरी मेहनत करने लगी और कोशिश करती कि लोगों की भरपूर मदद करूँ। इन बातों का अभ्यास करने से मुझे अपूर्व शांति मिली। परमेश्वर सक्षम भाई-बहनों को मेरे साथ रखता है ताकि मैं उनकी खूबियों से सीख सकूँ और अपनी कमियाँ दूर कर सकूँ। तभी मैं जीवन में तेजी से आगे बढ़ती हूँ। यह अमूल्य वरदान है।
इस अनुभव से मुझे अपनी भ्रष्ट प्रकृति को समझने में मदद मिली। मैंने जाना कि शैतान ने मुझे कितनी बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है, मैं नाम और रुतबे के लिए किसी भी हद तक जा सकती थी, मैं सच में कपटी थी। मैंने परमेश्वर के उद्धार का भी अनुभव किया। रुतबे की लड़ाई में फँसना, ईर्ष्या करना वाकई पीड़ादायी है, परमेश्वर के वचनों के न्याय ने मुझे अपने कुकृत्यों का सार दिखाया, मुझे भ्रष्टाचार के बंधन से मुक्त कराया ताकि मैं आज़ादी से जी सकूँ। मैं तहेदिल से परमेश्वर के उद्धार की आभारी हूँ!