66. एक अमिट फैसला

बाई यांग, चीन

जब मेरी उम्र 15 साल थी, अचानक बीमारी के कारण मेरे पिताजी का देहान्त हो गया। इस सदमे को मेरी माँ झेल नहीं पाई और वह बहुत बीमार हो गई। किसी भी नाते-रिश्तेदार ने हमारी सहायता नहीं की क्योंकि उन्हें डर था उन्हें हमें पैसे देने पड़ेंगे, और मैं बहुत निराश महसूस कर रही थी। मेरे पिताजी गुजर चुके थे, अगर मेरी माँ को भी कुछ हो गया, तो मेरा और मेरी बहन का पता नहीं क्या होगा। बाद में, किसी ने हमें प्रभु यीशु का सुसमाचार सुनाया। प्रभु के अनुग्रह से, मेरी माँ सिर्फ दो ही सभाओं में भाग लेने के बाद ठीक हो गई। इस तरह हम प्रभु पर विश्वास करने लगे। जब मैंने जाना कि मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए उसे सलीब पर चढ़ाया गया था, तो परमेश्वर के महान प्रेम ने मुझे काफी प्रभावित किया। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से कहा था : “मेरे पीछे हो ले(यूहन्ना 1:43), और “मैं ने ये बातें तुम से इसलिये कहीं हैं कि तुम्हें मुझ में शान्ति मिले। संसार में तुम्हें क्लेश होता है, परन्तु ढाढ़स बाँधो, मैं ने संसार को जीत लिया है(यूहन्ना 16:33)। इन वचनों ने मुझे बहुत सांत्वना दी। जब मैंने पश्चिमी मिशनरियों के अनुभवों के बारे में सुना, जिन्होंने अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर दिया था, तो मुझे विशेष प्रेरणा मिली, इसलिए मैंने स्वयं को प्रभु के लिए खपाने व कई और लोगों में सुसमाचार फैलाने का संकल्प लिया। उस समय, मुझे लगा कि किसी भी सांसारिक ध्येय का कोई उद्देश्य नहीं है। केवल प्रभु का अनुसरण करना, उसके लिए काम करना और उपदेश देना, और अधिक लोगों को उसके सामने लाना ही सार्थक और उद्देश्यपूर्ण है, ऐसा लगा। मैं अक्सर उस दिन का इंतजार करती रहती थी जब मैं प्रभु के लिए प्रचार और काम करने के लिए घर छोड़ सकूँगी। जब मेरी माँ को यह पता चला, तो उसने मुझे डाँटा, “तुम इतनी बेवकूफ कैसे हो सकती हो? तुमने ऐसी चीज के लिए प्रार्थना क्यों की? माना तुम्हें प्रभु पर विश्वास करना चाहिए, पर तुम अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ सकती! तुम अभी-अभी हाई स्कूल में आई हो, तुम्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देना चाहिए। यदि तुम सफल नहीं हुई तो हमारे सगे-संबंधी तुम्हारे बारे में क्या सोचेंगे!” इससे मैं सोच में पड़ गई। मैंने सोचा, “वह सही है। मेरे परिवार की सारी उम्मीदें मेरे कंधों पर हैं। अगर मैं सुसमाचार का प्रचार करने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दूँ, तो मेरी माँ बहुत दुखी होगी। हमारा भरण-पोषण करना उसके लिए काफी कठिन रहा है, मैं उसे और पीड़ा नहीं पहुँचा सकती।” इसलिए मैंने प्रभु के लिए काम करने और उसका प्रचार करने की अपनी इच्छा को चुपचाप दबा दिया।

जुलाई 2001 में, मैंने कॉलेज की प्रवेश परीक्षा दी ही थी कि मेरी मुलाकात कुछ भाइयों और बहनों से हुई जो राज्य का सुसमाचार फैला रहे थे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मेरी बहन और मैंने यह निश्चय किया कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही लौटे हुए प्रभु यीशु थे। मैं रोमांचित थी। जिस प्रभु का मैं काफी समय से इंतजार कर रही थी, वह आखिरकार वापस आ गया है, और यह वास्तव में परमेश्वर का असीम अनुग्रह था कि उसने मुझे अपने कानों से उसकी आवाज सुनने दी और उसके व्यक्तिगत मार्गदर्शन और उद्धार को स्वीकार करने दिया। बाइबल पढ़ते समय, मुझे प्रभु के शिष्यों से ईर्ष्या होती थी कि वे जब चाहें उसकी शिक्षाएँ सुन सकते थे। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं भी उनके जैसी भाग्यशाली हो पाऊँगी। लेकिन बहुत-से लोग जो प्रभु के प्रकटन के लिए तरस रहे थे, वे अब भी नहीं जानते थे कि वह लौट आया है। चूँकि मैंने उनसे पहले यह बड़ी खुशखबरी सुनी थी इसलिए मैं जानती थी कि मुझे राज्य का सुसमाचार फैलाने के लिए जल्दी करनी होगी। मैंने सोचा : “यदि मुझे कॉलेज में प्रवेश न मिले तो बहुत अच्छा रहेगा। तब मेरे पास अपनी माँ को यह बताने का उत्तम कारण होगा कि मैं सुसमाचार का प्रचार करने जा रही हूँ।”

एक सप्ताह के बाद, मेरे शिक्षक मुझे यह बताते हुए बहुत खुश थे कि मुझे एक अच्छे कॉलेज में प्रवेश मिल गया है। मेरे सहपाठियों ने मेरी प्रशंसा की और कहा, “उस कॉलेज में हजारों आवेदकों में से हमारे प्रांत से केवल दस लोगों को प्रवेश मिला है। उस कॉलेज में प्रवेश पाकर तुमने बहुत अच्छा काम किया है।” यह सुनकर मेरी माँ बहुत खुश हुई, लेकिन मुझे बहुत बुरा लगा। मैं पक्का जानती थी कि वह सुसमाचार फैलाने के लिए मुझे अपनी पढ़ाई छोड़ने की अनुमति नहीं देगी। जब हमारे सगे-संबंधियों को पता चला कि मुझे कॉलेज में दाखिला मिल गया है, तो वे सभी मुझे बधाई देने आए। जब मैंने देखा कि माँ उनके साथ खुशी-खुशी बातें कर रही है, तो मैं जान गई कि हमारे सगे-संबंधी उसका पहले से अधिक सम्मान करने लगे थे क्योंकि मैं कॉलेज में पहुँच गई थी, और उसे मुझ पर बहुत गर्व था। अगर मैंने फैसला किया कि मैं कॉलेज नहीं जाऊँगी, तो माँ निश्चित रूप से हताश होगी और हमारे सभी नाते-रिश्तेदार फिर से हमारे परिवार को हेय दृष्टि से देखने लगेंगे, जैसा कि वे पहले करते थे। जब मुझे याद आया कि कैसे मेरी माँ अक्सर इस बात का दुःख जताया करती थी कि किस तरीके से हमारे सगे-संबंधी हमारा तिरस्कार किया करते थे, तो मैंने सोचा : “माँ ने बड़ी मुश्किल से हमारा पालन-पोषण किया है। अगर मैं वैसा नहीं करती हूँ जैसा वह चाहती है, तो क्या मैं वास्तव में उसे निराश नहीं करूँगी?” और इसलिए, मुझे लगा कि मेरे पास कोई विकल्प नहीं है : मुझे कॉलेज जाना ही होगा। जब मैं कॉलेज जाने लगी तो मुझे पता लगा कि निर्धन और धनी छात्रों में बहुत अंतर था। धनी परिवारों के बच्चे निर्धन छात्रों को हेय दृष्टि से देखते थे और उन पर हुक्म चलाते थे। मेरे सहपाठी बस धोखा देकर एक-दूसरे को इस्तेमाल कर रहे थे, और वहाँ ऐसा कोई भरोसेमंद व्यक्ति नहीं था जिससे मैं ईमानदारी से बात कर सकूँ या जिसे विश्वासपात्र बना सकूँ। मुझे इन सबसे घृणा होने लगी, मुझे कलीसियाई जीवन और भाई-बहनों की और भी अधिक याद आने लगी। मेरी दिली इच्छा थी कि कॉलेज छोड़ कर पुनः उनके पास लौट जाऊँ।

कॉलेज में तीन महीने से अधिक संघर्ष करने के बाद, शीतकालीन अवकाश आ गया, और मैं फिर से कलीसियाई जीवन में लौट गई। मैं बहुत खुश थी, और मैंने माँ को यह बताने का मन बना लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए मैं स्कूल छोड़ रही हूँ।

घर वापस आकर पहले दिन ही, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक भजन सुना : “शुद्ध प्रेम बिना दोष के।”

1  “प्रेम” ऐसे स्नेह को कहते हैं जो शुद्ध और निष्कलंक है, जहाँ तुम प्रेम करने, महसूस करने और विचारशील होने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हो। प्रेम में कोई शर्त, कोई बाधा और कोई दूरी नहीं होती। प्रेम में कोई संदेह, कोई कपट और कोई चालाकी नहीं होती। प्रेम में कोई व्यापार नहीं होता और उसमें कुछ भी अशुद्ध नहीं होता। यदि तुम प्रेम करते हो, तो तुम धोखा नहीं दोगे, शिकायत, विश्वासघात, विद्रोह नहीं करोगे, कुछ छीनने, पाने या ज्यादा माँगने की कोशिश नहीं करोगे।

2  “प्रेम” ऐसे स्नेह को कहते हैं जो शुद्ध और निष्कलंक है, जहाँ तुम प्रेम करने, महसूस करने और विचारशील होने के लिए अपने हृदय का उपयोग करते हो। प्रेम में कोई शर्त, कोई बाधा और कोई दूरी नहीं होती। प्रेम में कोई संदेह, कोई कपट और कोई चालाकी नहीं होती। प्रेम में कोई व्यापार नहीं होता और उसमें कुछ भी अशुद्ध नहीं होता। यदि तुम प्रेम करते हो, तो खुशी-खुशी खुद को समर्पित करोगे, खुशी-खुशी कष्ट सहोगे, मेरे अनुरूप हो जाओगे, मेरे लिए अपना सर्वस्व त्याग दोगे, तुम अपना परिवार, अपना भविष्य, अपनी जवानी और अपना विवाह छोड़ दोगे। वरना तुम लोगों का प्रेम, प्रेम बिल्कुल नहीं होगा, बल्कि कपट और विश्वासघात होगा!

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बुलाए बहुत जाते हैं, पर चुने कुछ ही जाते हैं

परमेश्वर के वचनों ने मुझे झकझोर दिया और बहुत प्रेरित किया, लेकिन मुझे पश्चाताप और अपराध-बोध भी महसूस हुआ। मैंने जीवन भर परमेश्वर का अनुसरण करने, उसके बारे में जानने और उससे प्रेम करने का संकल्प लिया था। प्रेम में कोई धोखा या विश्वासघात नहीं होता। यदि तुम वास्तव में उससे प्रेम करते हो, तो तुम खुद को उसके प्रति समर्पित कर दोगे और उसके लिए सब कुछ त्याग दोगे। लेकिन परमेश्वर के लिए मेरा प्रेम सिर्फ शाब्दिक था। जब असल चीज की बात आई, तो मैंने केवल अपने परिवार और माँ के साथ अपने भावनात्मक संबंधों के बारे में सोचा। उसमें प्रेम कहाँ था? मैं बस परमेश्वर को धोखा दे रही थी और उसके साथ विश्वासघात कर रही थी। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “परमेश्वर से प्रेम करने की चाह रखने वाले व्यक्ति के लिए कोई भी सत्य अप्राप्य नहीं है, और ऐसा कोई न्याय नहीं जिस पर वह अटल न रह सके। तुम्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए? तुम्हें परमेश्वर से कैसे प्रेम करना चाहिए और इस प्रेम का उपयोग करके उसकी इच्छा को कैसे संतुष्ट करना चाहिए? तुम्हारे जीवन में इससे बड़ा कोई मुद्दा नहीं है। सबसे बढ़कर, तुम्हारे अंदर ऐसी आकांक्षा और कर्मठता होनी चाहिए, न कि तुम्हें एक रीढ़विहीन और निर्बल प्राणी की तरह होना चाहिए। तुम्हें सीखना चाहिए कि एक अर्थपूर्ण जीवन का अनुभव कैसे किया जाता है, तुम्हें अर्थपूर्ण सत्यों का अनुभव करना चाहिए, और अपने-आपसे लापरवाही से पेश नहीं आना चाहिए। यह अहसास किए बिना, तुम्हारा जीवन तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा; क्या उसके बाद तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करने का दूसरा अवसर मिलेगा? क्या मनुष्य मरने के बाद परमेश्वर से प्रेम कर सकता है? तुम्हारे अंदर पतरस के समान ही आकांक्षाएँ और चेतना होनी चाहिए; तुम्हारा जीवन अर्थपूर्ण होना चाहिए, और तुम्हें अपने साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए! एक मनुष्य के रूप में, और परमेश्वर का अनुसरण करने वाले एक व्यक्ति के रूप में, तुम्हें इस योग्य होना होगा कि तुम बहुत ध्यान से यह विचार कर सको कि तुम्हें अपने जीवन के साथ कैसे पेश आना चाहिए, तुम्हें अपने-आपको परमेश्वर के सम्मुख कैसे अर्पित करना चाहिए, तुममें परमेश्वर के प्रति और अधिक अर्थपूर्ण विश्वास कैसे होना चाहिए और चूँकि तुम परमेश्वर से प्रेम करते हो, तुम्हें उससे कैसे प्रेम करना चाहिए कि वह ज्यादा पवित्र, ज्यादा सुंदर और बेहतर हो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। मैंने उसके वचनों के माध्यम से मनुष्य के लिए परमेश्वर की आशाओं को महसूस किया। परमेश्वर से मिलन जीवनकाल में एक बार भी दुर्लभ है। दो हजार साल पहले, प्रभु यीशु के शिष्य उससे मिले थे, और अब, दो हजार साल बाद, परमेश्वर मुझे उसका अनुसरण करने, उसके बारे में जानने और उससे प्रेम करने काजीवन में एक बार मिलने वाला दुर्लभ अवसर दे रहा था। अगर मैं माँ के साथ अपने भावनात्मक संबंधों से ऊपर नहीं उठ पाई और उसे आहत करने से डरते हुए शैतान के लौकिक मार्ग पर चलती रही, तो क्या मैं अपना वक्त जाया नहीं कर रही होऊँगी? मैंने पतरस के बारे में सोचा। उसके माता-पिता भी चाहते थे कि वह एक अधिकारी बने लेकिन वह उनसे भावनात्मक संबंधों से बंधा हु्आ नहीं था। उसने परमेश्वर का अनुसरण करना चुना और परमेश्वर से प्रेम करना चाहा और अंत में, प्रभु ने उसे पूर्ण बनाया। मैं जानती थी कि मुझे पतरस की मिसाल पर चलते हुए परमेश्वर का ज्ञान और प्रेम पाने के लिए प्रयास करना चाहिए। वही सबसे सार्थक जीवन है। उसके बाद, मुझे माँ के साथ अपने भावनात्मक संबंधों के कारण बेबसी महसूस नहीं हुई।

स्कूल दोबारा शुरू होने से एक दिन पहले, मैंने बहुत संजीदगी से माँ से कहा, “मैं कॉलेज वापस नहीं जाना चाहती।” जब उसने यह सुना, तो उसने तुरंत मुझे डाँटते हुए कहा, “मैं जानती हूँ कि तुम स्कूल छोड़ना चाहती हो और इसके बजाय परमेश्वर में विश्वास करना चाहती हो, लेकिन तुम ऐसा नहीं कर सकती, इसलिए इस विचार को भूल जाओ!” मैंने कहा, “हम सब को परमेश्वर ने बनाया है। हमें उसकी आराधना करनी चाहिए। स्वर्ग द्वारा यही सही ठहराया गया है। बाइबल भी हमें यही सिखाती है : ‘तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो। यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उसमें पिता का प्रेम नहीं है’ (1 यूहन्ना 2:15)। हम परमेश्वर में विश्वास रखने वालों को भौतिक संभावनाओं की खोज में सांसारिक मार्ग पर नहीं चलना चाहिए। यह परमेश्वर की इच्छा नहीं है। मैं परमेश्वर का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।” तब माँ ने कहा, “हम बाकी परिवारों की तरह नहीं हैं। तुम्हारे पिताजी का जवानी में ही देहान्त हो गया था, हमारे पास पैसे नहीं हैं, और हमारे सगे-संबंधी हमें हेय दृष्टि से देखते हैं। मैं इतने वर्षों से इतने कष्ट झेल रही हूँ और इतनी थक चुकी हूँ, यह सब आखिर किस लिए? मैंने यह सब इसलिए किया था ताकि तुम कॉलेज जा सको, सफल व्यक्ति बन सको और अच्छा जीवन जी सको! मेरे लिए यह बहुत मुश्किल था। अब जब तुम बिल्कुल समाप्ति रेखा पर हो, तो दौड़ से पीछे हटना चाहती हो! तुम मुझे इस तरह से आहत कैसे कर सकती हो?” जब उसने ऐसा कहा तो मैं कमजोर पड़ने लगी। मैंने सोचा : “वह सही है। अगर मैं कॉलेज खत्म कर लूँ और एक अच्छी नौकरी पा लूँ, तो हमारे परिवार के पास पैसा होगा और हमारे सगे-संबंधी मेरी माँ को हेय दृष्टि से नहीं देखेंगे।” लेकिन फिर मैंने सोचा : “हम अच्छा भौतिक जीवन जी सकते हैं और अन्य लोगों से सम्मान भी पा सकते हैं, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा, तो यह शैतान की दुनिया नष्ट हो जाएगी। केवल मसीह का राज्य ही रह जाएगा, और सभी सुख और निस्‍सार चीजें एक झटके में खत्म हो जाएँगी।” इसलिए मैंने माँ से कहा, “हम यहाँ पृथ्वी पर बस प्रवासी हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कितनी मेहनत करते हैं, या कितना अच्छा जीवन जीते हैं, जब परमेश्वर का उद्धार का कार्य समाप्त हो जाएगा, तो मानव जाति को बड़ी आपदाओं का सामना करना पड़ेगा और हमारे ये ‘अच्छे’ जीवन नष्ट हो जाएँगे। चाहे हमारे पास कितना भी पैसा हो, हम उसका आनंद नहीं उठा पाएँगे। प्रभु यीशु ने कहा था : ‘यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्‍त करे, और अपने प्राण की हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा? या मनुष्य अपने प्राण के बदले क्या देगा?(मत्ती 16:26)।” माँ ने मेरी बात काटते हुए कहा, “मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं है कि तुम परमेश्वर में विश्वास करती हो। बस इस बारे में इतना गंभीर मत बनो। तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास करना चाहिए, लेकिन संसार को पूरी तरह से मत त्यागो, वरना तुम सुखी जीवन कैसे जी पाओगी? मैं पैसा नहीं कमाती तो तुम दोनों का पालन-पोषण कैसे कर पाती?” जब उसने यह कहा, तो मुझे एहसास हुआ कि प्रभु में उसका विश्वास सिर्फ शाब्दिक था। उसके पैर दो नावों में थे : वह परमेश्वर में विश्वास करके आशीष प्राप्त करना भी चाहती थी, साथ ही वह यह दुनिया भी चाहती थी। मैं बस यह कहकर उसे समझाने की कोशिश ही कर सकती थी, “परमेश्वर के आशीष के बिना, कोई धनी नहीं बन सकता, चाहे कितनी भी मेहनत कर ले। परमेश्वर नियत करता है कि हमारे जीवन में कितना धन होगा, और धन चाहे कितना भी हो, सत्य के बिना व्यर्थ है।” उसने मेरी बात नहीं सुनी और वह मेरी इच्छाओं का विरोध करने पर आमादा थी। फिर उसने मेरे सगे-संबंधियों को फोन किया और उनसे कहा कि वे आकर मुझसे बात करें। यह देखकर कि माँ टस से मस नहीं हो रही थी, मुझे सचमुच बहुत निराशा हुई। मुझे नहीं पता था कि आगे क्या होगा, इसलिए मैंने जल्दी से परमेश्वर से एक मौन प्रार्थना की, मैंने उससे कहा कि मेरी रक्षा कर ताकि मैं अपनी बात पर कायम रह सकूँ।

कुछ ही समय में सारे सगे-संबंधी आ गए। जैसे ही मेरे मामा आए, उन्होंने गुस्से से कहा, “तुमने यह परमेश्वर-परमेश्वर क्या लगा रखा है? इतनी अंधविश्वासी होने के लिए तुम अभी बहुत छोटी हो!” मामी ने कहा, “तुम्हारी माँ वही चाहती है जो तुम्हारे लिए सबसे अच्छा है।” वे सभी एक-एक कर मुझे डाँटने लग गए। मुझे पता था कि वे नास्तिक हैं और मेरी बात नहीं सुनेंगे, चाहे मैं कुछ भी कहूँ। अगर मैं कुछ बोलती, तो वे परमेश्वर के बारे में और अधिक निन्दनीय और प्रतिरोधी शब्द कहते, इसलिए मैं कुछ नहीं बोली। मुझे उम्मीद नहीं थी कि मामा अचानक माँ से इतने उग्र तरीके से बात करेंगे, “यह परमेश्वर में विश्वास करती है क्योंकि इसे आपदाओं में मरने का डर है, इसलिए इसे आपदाओं से पहले ही मरने दो। पुलिस को बुलाओ और इसे बिजली के डंडों से पिटने दो, फिर देखो क्या यह तब भी परमेश्वर में विश्वास करती है!” मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे अपने मामा ऐसी घृणित बात कहेंगे। मैंने सोचा : “यह मेरा रिश्तेदार है, या शैतान?” मैं यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि माँ ने भी उनका साथ देते हुए कहा, “इसे अनुशासन की जरूरत है, यह बिल्कुल बात नहीं मानती!” माँ को उनका पक्ष लेते और मुझे अपनी आस्था छोड़ने के लिए मजबूर करने की कोशिश करते देखकर मेरा दिल टूट गया। तब मेरे ममेरे भाई ने कहा, “यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर दो और पढ़ाई पर ध्यान दो, तो हम सभी तुम्हारा साथ देंगे। हम तुम्हारी माँ की देखभाल करने में तुम्हारी मदद करेंगे और तुम्हारी बहन के लिए अच्छी नौकरी ढूँढने में मदद करेंगे। लेकिन अगर तुमने परमेश्वर में आस्था बरकरार रखी, तो हम तुम्हारे परिवार से सारे संबंध तोड़ लेंगे, और उसके बाद, तुम्हें चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ें, हम तुम लोगों में से किसी की भी मदद नहीं करेंगे। तब हम एक परिवार नहीं रहेंगे। इस पर ध्यान से विचार करो!” मैं पक्का जानती थी कि वह बस इतना चाहते हैं कि मैं मसीह का अनुसरण करना बंद कर दूँ। जब मैं तीन साल तक हाई स्कूल में पढ़ रही थी तो उनमें से किसी ने भी हमारी मदद नहीं की थी! अब मैं परमेश्वर का अनुसरण करना चाहती हूँ और सही मार्ग पर चलना चाहती हूँ, तो वे सभी मुझे रोकने आ गए, मुझे गुमराह करने के लिए “अच्छी-अच्छी” बातें कहने लगे। यह शैतान की चाल थी, और मैं उसके झाँसे में नहीं आ सकती। लेकिन फिर मैंने सोचा : “अगर मैं सचमुच कॉलेज नहीं लौटी, तो मेरी माँ बहुत दुखी होगी। गुजरे सालों में उसने बहुत कष्ट सहे हैं। अगर मैं उसे और अधिक कष्ट पहुँचाऊँगी तो मैं कैसे जी पाऊँगी?” यह सोचकर मैंने जल्दी से परमेश्वर से एक मौन प्रार्थना की, “प्रिय परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि तुम्हारे पीछे चलना और सत्य का अनुसरण करना ही सही रास्ता है, लेकिन जब मैं माँ के बारे में सोचती हूँ तो दुविधा में पड़ जाती हूँ। मैं नहीं जानती कि मुझे क्या करना चाहिए। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और मेरी मदद करो।” फिर मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा जो कहते हैं : “किसी व्‍यक्ति को जितना भी दुख भोगना है और अपने मार्ग पर जितनी दूर तक चलना है, वह सब परमेश्वर ने पहले से ही तय किया होता है, और इसमें सचमुच कोई किसी की मदद नहीं कर सकता(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मार्ग ... (6))। मैं अचानक समझ गई। मैंने सोचा “हाँ, परमेश्वर निर्धारित करता है कि हर व्यक्ति कितना कष्ट सहेगा। यह ऐसा कुछ नहीं है जिसे कोई भी व्यक्ति तय कर सकता है, और मैं ढेर सारा पैसा कमाकर और उसे अपनी माँ को सौंपकर उसकी पीड़ा नहीं हर सकती, न ही उसकी पीड़ा कम कर सकती हूँ। हमारी पीड़ा का मूल कारण शैतान का भ्रष्टाचार और हमारे भीतर मौजूद शैतानी जहर और जंगली इच्छाएँ हैं। यदि लोग शुद्ध होने के लिए परमेश्वर की आराधना नहीं करेंगे और उसका न्याय स्वीकार नहीं करेंगे, तो वे कभी भी पीड़ा से मुक्त नहीं होंगे। लेकिन जब लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और सत्य को पाने का प्रयास करते हैं, भले ही उन्हें थोड़ी शारीरिक पीड़ा सहनी पड़े, यदि वे सत्य समझ सकते हैं, परमेश्वर के लिए खुद को खपा सकते हैं, परमेश्वर के लिए गवाही दे सकते हैं, शाँति और आनंद पा सकते हैं, शैतान द्वारा मूर्ख बनना और भ्रष्ट होना बंद कर सकते हैं, और स्वतंत्रता और मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, तो उनका जीवन सबसे खुशहाल जीवन होगा। मैं सोचती थी कि कड़ी मेहनत से पढ़ाई करने, ढेर सारा पैसा कमाने और दूसरों से सम्मान पाने से मेरी माँ की पीड़ा कम हो जाएगी। लेकिन यह बिल्कुल बेतुकी बात थी। मैं शैतान के जाल में फंसने ही वाली थी।” इन विचारों से मेरा संकल्प दृढ़ हो गया। चाहे उन्होंने कितनी ही ईश-निंदनीय और बदनाम करने वाली बातें कहीं, उनका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। माँ को यह देखकर बहुत गुस्सा आया कि इतना सब होने का बावजूद भी मैं शाँत रही। उसने मुझे धक्का देकर मेरे बिस्तर पर गिरा दिया। मैं हैरान थी कि वह मेरे साथ ऐसा करेगी। मैं सचमुच परेशान हो गई और रोने से खुद को नहीं रोक पाई। मैं चुपचाप परमेश्वर से मेरे साथ रहने के लिए प्रार्थना करती रही, ताकि मैं इन परिस्थितियों में भी अपनी गवाही पर दृढ़ रह सकूँ और अपने परिवार के सामने हार न मानूँ। मैंने सोचा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर क्या कहता है : “युवा लोगों में उस सत्य के मार्ग पर बने रहने की दृढ़ता होनी चाहिए, जिसे उन्होंने अब चुना है—ताकि वे मेरे लिए अपना पूरा जीवन खपाने की अपनी इच्छा साकार कर सकें। उन्हें सत्य से रहित नहीं होना चाहिए, न ही उन्हें ढोंग और अधर्म को छिपाना चाहिए—उन्हें उचित रुख पर दृढ़ रहना चाहिए। उन्हें सिर्फ यूँ ही धारा के साथ बह नहीं जाना चाहिए, बल्कि उनमें न्याय और सत्य के लिए बलिदान और संघर्ष करने की हिम्मत होनी चाहिए। युवा लोगों में अँधेरे की शक्तियों के दमन के सामने समर्पण न करने और अपने अस्तित्व के महत्व को रूपांतरित करने का साहस होना चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, युवा और वृद्ध लोगों के लिए वचन)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे मेरे चुने गए रास्ते पर कायम रहने के लिए आस्था, शक्ति और आत्मविश्वास दिया।

उसके बाद, माँ ने काम पर जाना बंद कर दिया और घर पर रहकर मुझपर और मेरी बहन पर कड़ी निगरानी रखने लगी। उसने परमेश्वर के वचनों की किताबें और भजनों को कैसेट खोजने के लिए मेरी चीजों की तलाशी ली और गुस्से से कहा, “आगे से, तुम दोनों में से कोई भी सभाओं में नहीं जाएगा। मैं घर पर ही रहकर तुम पर नजर रखूँगी और तुम जहाँ भी जाओगी, मैं तुम्हारा पीछा करूँगी। मैं तुम्हारी सभा स्थली ढूँढकर रहूँगी!” मुझे ऐसा लगा कि मैं घर में नजरबंद हूँ। मैं परमेश्वर के वचनों को नहीं पढ़ पाई और मैंने अपनी बहन से हमारी आस्था के बारे में बात करने की हिम्मत भी नहीं कर सकी, कलीसियाई जीवन जीना तो दूर की बात है। यह बहुत कष्टदायी था। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, उससे कहती रही कि हमें इससे बाहर निकलने का रास्ता दिखाए। कुछ दिनों बाद दोपहर में, जब मेरी माँ बाथरूम में थी, मैं मौके का फायदा उठा कर सिस्टर तांग हुई के घर भाग गई जो कि हमारी कलीसिया की अगुआ थी। मैंने उसे बताया कि मेरे साथ क्या हुआ और इसके बारे में मैं क्या सोचती हूँ। मैंने कहा, “परमेश्वर का अनुसरण करना प्रकाश और उद्धार का मार्ग है। मैं कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ, लेकिन माँ मुझे रोकने और मेरे इस काम में बाधा डालने की कोशिश करती रहती है। मैं और मेरी बहन अब सामान्य रूप से सभाओं में शामिल नहीं हो पाते। मैं बहुत परेशान हूँ। ये सब हमारे साथ ही क्यों होता रहता है?” तब तांग हुई ने मेरे साथ धैर्यपूर्वक संगति करते हुए कहा, “जब कोई व्यक्ति अपने परिवार के सदस्यों द्वारा दबाया जाता है, तो हकीकत में यह शैतान का व्यवधान और छल होता है। हम खुद को परमेश्वर के लिए खपाना चाहते हैं, लेकिन शैतान हमें रोकने के लिए हमारे ही परिवार के लोगों का उपयोग करता है और हम पर हमला करने के लिए हमारी कमजोरियों का फायदा उठाता है ताकि हम परमेश्वर को धोखा दें और उद्धार का मौका खो दें। हमें शैतान की चाल समझने के लिए परमेश्वर पर विश्वास करना चाहिए।” फिर उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर सुनाया : “परमेश्वर द्वारा मनुष्य के भीतर किए जाने वाले कार्य के प्रत्येक चरण में, बाहर से यह लोगों के मध्य अंतःक्रिया प्रतीत होता है, मानो यह मानव-व्यवस्थाओं द्वारा या मानवीय विघ्न से उत्पन्न हुआ हो। किंतु पर्दे के पीछे, कार्य का प्रत्येक चरण, और घटित होने वाली हर चीज, शैतान द्वारा परमेश्वर के सामने चली गई बाजी है, और लोगों से अपेक्षित है कि वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग बने रहें। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब को आजमाया गया था : पर्दे के पीछे शैतान परमेश्वर के साथ दाँव लगा रहा था, और अय्यूब के साथ जो हुआ वह मनुष्यों के कर्म थे, और मनुष्यों का विघ्न था। परमेश्वर द्वारा तुम लोगों में किए गए कार्य के हर कदम के पीछे शैतान की परमेश्वर के साथ बाजी होती है—इस सब के पीछे एक संघर्ष होता है। ... जब परमेश्वर और शैतान आध्यात्मिक क्षेत्र में संघर्ष करते हैं, तो तुम्हें परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करना चाहिए, और किस प्रकार उसकी गवाही में अडिग रहना चाहिए? तुम्हें यह पता होना चाहिए कि जो कुछ भी तुम्हारे साथ होता है, वह एक महान परीक्षण है और ऐसा समय है, जब परमेश्वर चाहता है कि तुम उसके लिए गवाही दो(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। इन वचनों ने मुझे सुझाया कि अगर मैं इस अंधेरी और दुष्ट दुनिया में मसीह का अनुसरण करना चाहती हूँ, तो यह मार्ग आसान नहीं होगा। यह आध्यात्मिक लड़ाइयों से भरा होगा और मुझे कठिन चुनाव करने पड़ेंगे। अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर का न्याय का कार्य, मनुष्य को शुद्ध करने और बचाने के उसके कार्य का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण चरण है। परमेश्वर उम्मीद करता है कि हर कोई उससे सत्य और जीवन प्राप्त करेगा, कि हम सभी बचाए जाएँगे और जीवित बचे रहेंगे। लेकिन इसके लिए वह लोगों पर दबाव नहीं डालता, वह हमें स्वयं चयन करने देता है। मेरी माँ को शैतान ने गुमराह किया था और मूर्ख बनाया था, इसलिए वह यह नहीं देख सकी कि पद और प्रतिष्ठा की खोज कितनी खोखली है, और मुझे कॉलेज जाने, पढ़ाई करने और सफल होने के लिए मजबूर करती रही। मैं उसकी तरह गलत रास्ता नहीं चुन सकती थी। तांग हुई ने संगति करते हुए बताया, “तुम देख सकती हो कि ज्ञान और भविष्य की संभावनाओं का पीछा करना कितना निरर्थक है, तुमने स्वयं को परमेश्वर के लिए खपाने की शपथ ली है, और तुमने सत्य का अनुसरण करने का मार्ग चुना है। इससे परमेश्वर प्रसन्न होता है। लेकिन जीवन में अपने लिए तुम कौन-सा रास्ता चुनती हो, यह तुम पर निर्भर करता है, और तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए और इस बारे में और अधिक जानने की कोशिश करनी चाहिए।” मैंने सोचा, “हालाँकि मैंने मसीह का अनुसरण करने की शपथ ली है, अभी माँ मुझपर कड़ी नजर रख रही है, और कहती है कि वह पता लगाएगी कि हम कहाँ सभा करते हैं। अगर मैं कॉलेज वापस न जाने की जिद करूँ, तो वह निश्चित रूप से भाइयों और बहनों के लिए परेशानी का सबब बनेगी।” और इसलिए, मैंने अपनी माँ से वादा किया कि मैं कॉलेज वापस जाऊँगी।

जब मैं वहाँ पहुँची, तो मैंने अपनी पढ़ाई स्थगित करने के लिए कॉलेज में आवेदन दिया। कॉलेज ने मेरे आवेदन को मंजूरी तो दे दी, लेकिन मुझे अभी भी अपने अभिभावक की सहमति चाहिए थी। जब माँ को इसका पता लगा तो उसने इसका सख्त विरोध किया। वह बार-बार रोती रही और कहती रही कि उसे कितने कष्ट झेलने पड़े, मुझे और मेरी बहन को पालने में कितनी मेहनत करनी पड़ी, और उसने मुझे अपनी पढ़ाई स्थगित नहीं करने दी। उसकी यह प्रतिक्रिया देखकर मैं सच में परेशान हो गई, और मैंने सोचा, “माँ ने हमें बड़ा करने के लिए सच में संघर्ष किया है और मैं उसकी ऋणी हूँ। यदि मैं जैसा वह चाहती है वैसा नहीं करती हूँ, तो क्या मैं सच में उसे निराश नहीं करूँगी?” मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की और कहा, “प्रिय परमेश्वर, मुझे क्या करना चाहिए? कृपया मुझे बता और मेरी मदद कर।” तभी, मेरे दिमाग में परमेश्वर के वचनों का एक अंश आया : “जब वसंत की गर्माहट आएगी और फूल खिलेंगे, जब स्वर्ग के नीचे सब कुछ हरियाली से ढक जाएगा और पृथ्वी पर हर चीज़ यथास्थान होगी, तो सभी लोग और चीजें धीरे-धीरे परमेश्वर की ताड़ना में प्रवेश करेंगी, और उस समय पृथ्वी पर परमेश्वर के समस्त कार्य का अंत हो जाएगा। फिर परमेश्वर पृथ्वी पर कार्य नहीं करेगा या नहीं रहेगा, क्योंकि परमेश्वर का महान कार्य पूरा हो गया होगा। क्या लोग इतने से समय के लिए अपनी देह की इच्छाओं को अलग रखने के काबिल नहीं हैं? कौन सी बातें मनुष्य और परमेश्वर के प्रेम में दरार पैदा कर सकती हैं? कौन है जो मनुष्य और परमेश्वर के बीच के प्रेम को अलग कर सकता है? क्या माता-पिता, पति, बहनें, पत्नियाँ या पीड़ादायक शोधन ऐसा कर सकते हैं? क्या अंतःकरण की भावनाएँ मनुष्य के अंदर से परमेश्वर की छवि को मिटा सकती हैं? क्या एक-दूसरे के प्रति लोगों की कृतज्ञता और क्रियाकलाप उनका स्वयं का किया है? क्या इंसान उनका समाधान कर सकता है? कौन अपनी रक्षा कर सकता है? क्या लोग अपना भरण-पोषण कर सकते हैं? जीवन में बलवान लोग कौन हैं? कौन मुझे छोड़कर अपने दम पर जी सकता है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 24 और अध्याय 25)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के अधीन है। मुझे लगा कि माँ ने मुझे पाला तो है लेकिन हकीकत में हमारा जीवन परमेश्वर से ही आता है। यह परमेश्वर ही है जो हमारा भरण-पोषण करता है और हमारा पालन-पोषण करता है। अपने बच्चों का पालन-पोषण करके, माता-पिता केवल एक मानवीय जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे हैं—किसी का किसी पर कोई ऋण नहीं है। परमेश्वर ने जीवित रहने के लिए आवश्यक हर चीज मुझे प्रदान की है और ऐसे लोगों, घटनाओं और चीजों की व्यवस्था की है कि मैं कदम दर कदम उसके सामने जा सकूँ और उसके उद्धार को स्वीकार कर सकूँ। परमेश्वर का प्रेम कितना महान है! परमेश्वर से मुझे इतनी देखभाल, इतनी सुरक्षा और इतने प्रावधान मिले हैं, लेकिन मैंने उसे वापस कुछ भी नहीं लौटाया। और जब मुझ पर कुछ कठिनाइयाँ आईं, तो मैंने परमेश्वर से जो वादा किया था वह भूल गई। यह सृष्टिकर्ता परमेश्वर ही है, जिसकी मैं सच में ऋणी हूँ। यह सोचते हुए कि पृथ्वी पर परमेश्वर का वर्तमान कार्य, ठीक प्रभु यीशु के कार्य की तरह हीछोटा होगा, मैं जान गई कि एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे अपना कर्तव्य निभाने और उसके प्रेम का बकाया चुकाने का यह दुर्लभ अवसर है जिसे मुझे संजोना होगा। और जब मैंने मसीह का अनुसरण करने का निर्णय लिया, तो चीजें अप्रत्याशित रूप से बदल गईं। माँ को पता लगा कि अगर मैं बहुत ज्यादा कक्षाएँ मिस करूँगी तो मुझे कॉलेज से निकाल दिया जाएगा, और उसे डर था कि मैं अब कॉलेज नहीं जा पाऊँगी, इसलिए उसने मुझे अपनी पढ़ाई स्थगित करके घर आने दिया। जब मैं घर पहुँची, तो उसने मुझे चेतावनी दी, “अब तुम्हें परमेश्वर में विश्वास करने की अनुमति नहीं है। तुम्हें स्वयं का व्यवहार सुधारना होगा, आसपास कोई नौकरी ढूँढो, और एक साल तक वहाँ काम करने के बाद बात मानकर कॉलेज लौटो।” मैंने उससे वादा किया था कि मैं ऐसा ही करूँगी, लेकिन मैंने मन में सोचा, “परमेश्वर ने नियत किया है कि मैं अब मसीह का अनुसरण करूँ, और मैंने इसे ही चुना है। मैं इसे आसानी से नहीं छोड़ूँगी।”

इसलिए, मैंने एक नौकरी ढूँढी, मैंने वहाँ काम भी किया और कलीसिया की सभाओं में भी शामिल होती रही, और खाली समय में अन्य भाइयों और बहनों के साथ सुसमाचार का प्रचार करती रही। परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करके, मुझे धीरे-धीरे कुछ सत्य समझ में आने लगे और मुझे एहसास हुआ कि सत्य का अनुसरण करना ही सबसे सार्थक जीवन है, और मुझे परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए और अधिक आस्था मिली। मुझे पता ही नहीं चला कि कब स्कूल लौटने का समय हो गया, मुझे अपना अंतिम निर्णय लेना था : मैंने परमेश्वर में आस्था का चयन किया! उस दिन जब मैं घर पहुँची तो मैंने पाया कि माँ अपना सामान पैक कर रही थी। मुझे पता चला कि एक पड़ोसी ने मेरी माँ से एक आदमी का परिचय करवाया था और वह उस आदमी से शादी करने जा रही थी। मैं बहुत ही आश्चर्यचकित और आहत थी, और मैंने उससे पूछा कि क्या वह अब हमें नहीं चाहती। उसने कहा, “समस्या यह नहीं है कि मैं तुम्हें नहीं चाहती, समस्या यह है कि तुम परमेश्वर में विश्वास करने के लिए दृढ़-संकल्प हो और मैं अब तुम पर भरोसा नहीं कर सकती। मैं तुम्हें एक आखिरी मौका देती हूँ। यह मेरे मंगेतर का फोन नंबर है। यदि तुम स्कूल वापस जाती हो, तो छुट्टियों में जब घर आओ तो इस नंबर पर कॉल कर लेना, हम तुम्हें लेने आ जाएँगे। परन्तु यदि तुम और तुम्हारी बहन अपनी आस्था पर अड़े रहे, तो मैं तुम्हारी और मदद नहीं करूंगी।” इससे पहले कि मैं इस बारे में और सोच पाती, माँ हमें स्कूल जाने वाली बस में ले गई। रास्ते में मैंने बहुत सोचा। सिर्फ एक दिन में, मैं और मेरी बहन सड़क पर आ गए थे और अब हमारे पास कोई आसरा नहीं था। यह सचमुच कष्टदायक था। मेरी बहन ने असहाय होकर कहा, “माँ अब हमें नहीं चाहतीं। अगर तुम स्कूल वापस नहीं जाओगी तो हम क्या करेंगे?” मेरी बहन के शब्द सीधे मेरे दिल के सबसे मर्म हिस्से पर चुभ गए। मैंने सोचा, “हाँ, अब हमारे सगे-संबंधियों ने हमें छोड़ दिया है, और माँ किसी और से शादी कर रही है। यदि मैं परमेश्वर पर आस्था रखूँगी तो हम जियेंगे कैसे? हमें कहाँ जाना चाहिए? मुझे क्या करना चाहिए?” मुझे वास्तव में पीड़ा और कमजोरी महसूस हुई, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने कहा, “प्रिय परमेश्वर, वास्तव में हालत मेरे नियंत्रण में नहीं हैं। मैं तुम्हें संतुष्ट करना चाहती हूँ, लेकिन मुझमें अब आगे बढ़ने की ताकत और आस्था नहीं है। मुझे पता है कि तुमने मेरे लिए बहुत कुछ किया है, लेकिन मैं बहुत कमजोर हूँ। मैं तुम्हारे उद्धार के योग्य नहीं हूँ।” तभी, परमेश्वर के वचनों का एक अंश मेरे दिमाग में स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ : “जब इस कार्य को फैलाने का दिन आएगा, और तुम उसकी संपूर्णता को देखोगे, तब तुम्हें अफसोस होगा, और उस समय तुम भौंचक्के रह जाओगे। आशीषें हैं, फिर भी तुम्हें उनका आनंद लेना नहीं आता, सत्य है, फिर भी तुम्हें उसका अनुसरण करना नहीं आता। क्या तुम अपने-आप पर अवमानना का दोष नहीं लाते? ... उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। यह सच था। परमेश्वर का कार्य शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा और मुझे सच्चा मार्ग दिखाई दे चुका था। चूँकि मैं कष्ट सहन नहीं कर सकती थी, इसलिए यदि मैं अपनी देह को संतुष्ट करने का विकल्प चुनती हूँ तो परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाने पर सत्य प्राप्त करने का जीवन में एक बार मिलने वाला दुर्लभ मौका मैं चूक जाऊँगी, और मुझे निश्चित रूप से इसका पछतावा होगा। मैंने पिछले वर्ष के बारे में सोचा जो मैंने कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाते हुए बिताया था। परमेश्वर के वचनों से सिंचित और पोषित होकर, मैंने कुछ सत्यों को समझा और धीरे-धीरे कई सांसारिक चीजों के बारे में अंतर्दृष्टि प्राप्त की। मैंने जाना कि केवल सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन ही लोगों को शुद्ध कर सकते हैं और बचा सकते हैं, और जाना कि मसीह का अनुसरण प्रकाश और उद्धार का पथ है। मैं हमेशा झिझकती नहीं रह सकती। मुझे यह जीवन परमेश्वर से मिला है और उसने मुझे सब कुछ दिया है। एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है! माँ ने मेरी आस्था का समर्थन नहीं किया और वह चाहती थी कि मैं ज्ञान प्राप्त करूँ और सफल बनूँ। यदि मैंने वैसा ही किया जैसा कि वह चाहती थी और गलत मार्ग चुना, तो शैतान मुझे और भी अधिक भ्रष्ट कर देगा, और अंत में मुझे दंड मिलेगा और मैं नष्ट हो जाऊँगी। ज्ञान मेरे भ्रष्ट स्वभावों से मुझे मुक्त नहीं कर सकता, न ही मुझे शुद्ध करके परिवर्तित कर सकता है। केवल परमेश्वर ही है जो हमें बचा सकता है। यदि मेरा परिवार मुझे नहीं भी चाहता, तब भी परमेश्वर मेरे पास है। जब मैंने पीछे मुड़कर जो कुछ हुआ था उसे देखा, तो मुझे एहसास हुआ कि जब-जब मैंने निराश और कमजोर महसूस किया, तो परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने मेरा समर्थन किया, मेरी मदद की थी और मुझे ताकत दी थी। जब मैं अपने सबसे कष्टपूर्ण और कमजोर क्षणों में परमेश्वर से दूर होने ही वाली थी, तो उसके वचनों ने मेरे हृदय को झकझोर दिया। इस संसार में, मेरे लिए केवल परमेश्वर का प्रेम ही सच्चा है! जब मैंने यह सोचा तो मेरी आस्था लौट आई। मैंने अपने आँसू पोंछे और अपनी बहन से कहा, “एकमात्र परमेश्वर ही है जिस पर हम भरोसा कर सकते हैं। हमें विश्वास होना चाहिए कि वह हमारा मार्गदर्शन करेगा। आओ, भाई-बहनों के पास लौट चलें।” अगले दिन हमें घर वापस जाने के लिए बस मिल गई और फिर हमने अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर दिया। परमेश्वर का धन्यवाद! परमेश्वर के वचनों ने मुझे दैहिक कमजोरी पर काबू पाने और जीवन में इस उज्ज्वल और सही मार्ग को चुनने के लिए प्रेरित किया।

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