26. अपने कर्तव्य को कैसे देखें

झोंगचेंग, चीन

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास की सबसे मूलभूत आवश्यकता यह है कि उसका हृदय ईमानदार हो, और वह स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दे, और सच्चे अर्थ में आज्ञापालन करे। मनुष्य के लिए सबसे कठिन है सच्चे विश्वास के बदले अपना संपूर्ण जीवन प्रदान करना, जिसके माध्यम से वह समूचा सत्य प्राप्त कर सकता है, और परमेश्वर का सृजित प्राणी होने के नाते अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। "कर्तव्य परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपे गए काम हैं; वे लोगों द्वारा पूरा करने के लिए विशेष कार्य हैं। लेकिन, एक कर्तव्य निश्चित रूप से तुम्हारा व्यक्तिगत व्यवसाय नहीं है, और न ही वह भीड़ में बेहतर दिखने का एक माध्यम है। कुछ लोग कर्तव्यों का उपयोग अपने प्रबंधन के लिए और गिरोह बनाने के लिए करते हैं; कुछ अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए करते हैं; कुछ अपने अंदर के खालीपन को भरने के लिए करते हैं; और कुछ भाग्य पर भरोसा करने वाली अपनी मानसिकता को संतुष्ट करने के लिए करते हैं यह सोचकर कि जब तक वे अपने कर्तव्यों को पूरा करते रहेंगे, तब तक परमेश्वर के घर में और परमेश्वर द्वारा मनुष्य के लिए व्यवस्थित अद्भुत गंतव्य में उनका भी एक हिस्सा होगा। कर्तव्य के बारे में इस तरह के दृष्टिकोण गलत हैं; वे परमेश्वर को घिनौने लगते हैं और उन्हें तत्काल दूर किया जाना चाहिए"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?')। परमेश्वर के वचन हमें बताते हैं कि कर्तव्य मानवजाति के लिए परमेश्वर का आदेश है और हमें अपने कर्तव्य को सच्चे दिल से निभाना चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अपने हितों को अलग रखकर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए भरसक कोशिश करें। हमें अपने कर्तव्य के प्रति ऐसा ही रवैया रखना चाहिए। लेकिन अतीत में, मैंने अपने कर्तव्य को अपना उपक्रम माना और इससे फायदा उठाकर खुद को अलग दिखाने और दूसरों की प्रशंसा हासिल करने का माध्यम समझा। मेरा ध्यान सत्य को व्यवहार में लाने पर केंद्रित नहीं था, बल्कि मैं यही सोचता रहता था कि मुझे क्या हासिल हो रहा है और क्या नुकसान। इससे कलीसिया का कार्य बाधित हुआ। लेकिन परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से गुजरने पर मुझे उस तरह से अपने कर्तव्य को निभाने की प्रकृति और परिणामों की थोड़ी-बहुत समझ हासिल हुई, और अब इस पर मैंने अपना दृष्टिकोण बदल दिया है।

2017 में, कलीसिया में मेरा काम कागजात का संपादन करना था। बाद में कलीसिया के अगुआ ने मेरे साथ भाई लिन के काम करने की व्यवस्था कर दी और मुझसे कहा कि मैं उसकी पूरी मदद करूँ। मैंने खुशी से यह सोचते हुए हाँ कर दी, "मैंने सुना है, भाई लिन में वाकई काबिलियत है। अगर वह सिद्धांतों को जल्दी समझ जाए, तो हमारी टीम के काम में हमें ज़्यादा से ज़्यादा सफलता मिलेगी। अगुआ को लगेगा कि मैं योग्य हूँ और वह मेरी बड़ी कद्र करेंगे, इसलिए मुझे जितना हो सके उसकी मदद करनी चाहिए।" मैंने वे सभी संबंधित सिद्धांत भाई लिन को पढ़ने को दिये जो मैंने उसके लिए इकट्ठा किये थे, ताकि वह सारी ज़रूरी बातें जल्द से जल्द समझ ले। जब भी उसे काम में कोई अड़चन आती, तो मैं सब्र के साथ उससे संगति करता और उसकी समस्याओं को हल करने में मदद करता। कुछ समय बाद, वह कुछ सिद्धांतों को समझ गया और उसने अपने काम में कुछ अच्छे नतीजे हासिल किये। उसे जल्दी तरक्की करते देख मैं बहुत खुश था। उसने इतनी जल्दी बातें समझ लीं तो मुझे लगा कि वह सच में काबिल है! हमारी टीम और अधिक कुशल हो गई और मेरा काम काफी कम हो गया। मुझे समझ में आ गया कि भाई लिन को थोड़ा और प्रशिक्षण देने के बाद हमारे काम में और भी बेहतर नतीजे मिलेंगे।

एक दिन, अगुआ ने कहा कि एक कलीसिया को किसी ऐसे व्यक्ति की सख्त ज़रूरत है जो लेखन कार्य की जिम्मेदारी निभा सके, और भाई लिन इसमें अच्छा है और ज़िम्मेदार भी है, तो उसे अपना कर्तव्य निभाने के लिए उस कलीसिया में भेज दिया जाएगा। मैं यह सुनकर चौक गया और सोचने लगा, "क्या? आप उसका ट्रांसफर कर रहे हैं? आप ऐसा नहीं कर सकते। मैंने उसे काम और सिद्धांत समझाने में इतनी मेहनत की है, हमारी टीम का काम अभी तो बढ़ना शुरू हुआ है। अगर अभी उसका ट्रांसफर हो गया, तो हमारा काम ज़रूर बाधित होगा। फिर लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वे कहेंगे मैं योग्य नहीं हूँ।" इस बारे में मैं जितना सोचता उतना ही परेशान होता। अगुआ ने कहा कि भाई लिन के जाने के बाद मैं किसी और को प्रशिक्षित कर सकता हूँ। मैंने एक शब्द भी नहीं कहा, लेकिन मैं इसके विरोध में था। मैंने सोचा, "आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे यह छोटी बात है। क्या आपको लगता है कि प्रशिक्षण देना इतना आसान है? इसमें बहुत समय और मेहनत लगती है! इसके अलावा, भाई लिन के जाने के बाद सारी ज़िम्मेदारी फिर से मुझ पर आ पड़ेगी। वैसे ही इतनी व्यस्तता है, एक आदमी के कम हो जाने से हमारे काम को ज़रूर नुकसान होगा।" इस बारे में मैं जितना सोचता उतना ही इसका विरोधी होता जाता। दो दिन बाद अगुआ ने मुझे भाई लिन का मूल्यांकन देने के लिए कहा। मैंने सोचा, "मैं उसकी अच्छी बातों पर नहीं बल्कि उसकी कमजोरियों और भ्रष्टता पर ज़ोर डालूंगा। शायद तब अगुआ उसे कहीं और नहीं भेजेंगे।" मूल्यांकन लिखने के बाद मैं थोड़ा दोषी महसूस कर रहा था, और सोच रहा था कि कहीं मैं बेईमानी तो नहीं कर रहा। लेकिन फिर मैंने सोचा कि मैं तो बस टीम के काम का ख्याल कर रहा हूँ। मैंने अपना मूल्यांकन अगुआ को सौंप दिया। कुछ दिनों बाद भी अगुआ का कोई जवाब नहीं आया, तो मैं परेशान होकर सोचने लगा, "कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्होंने वह देखा ही नहीं और अभी भी भाई लिन को भेजने वाले हैं? नहीं, मैं ढीला नहीं पड़ सकता। उसे रखने का कोई और तरीका सोचना होगा।" मैंने टोह लेने की कोशिश करते हुए भाई लिन से पूछा, "किसी दूसरी कलीसिया में संपादन कार्य की ज़िम्मेदारी लेने के बारे में आप क्या सोचते हैं?" बिना एक पल गंवाए उसने कहा, "मैं कलीसिया की व्यवस्थाओं को समर्पित हूँ। मैं जाने को तैयार हूँ।" मैंने फौरन जवाब दिया, "संपादन कार्य की ज़िम्मेदारी में सिद्धांतों को समझना और योग्य होना ज़रूरी है। बिना उसके काम में प्रगति नहीं हो पाएगी। मुझे लगता है कि आपके लिए काम यहीं जारी रखना बेहतर होगा।" मुझे ताज्जुब हुआ कि भाई लिन पर इसका कोई असर नहीं हुआ, उसने विश्वास के साथ कहा, "अगर मौका आया तो मैं परमेश्वर पर विश्वास करके जाने को तैयार हूँ।" अपना मकसद पूरा न होने से मुझे निराशा हुई और मैं उससे थोड़ा नाराज हो गया। एक बार मैंने देखा कि उसके काम में कुछ समस्याएं हैं, इस पर मैं अपना गुस्सा नहीं रोक पाया और उसे काफी कुछ सुना दिया। इस दौरान, जब कभी मैं भाई लिन के दूसरी जगह जाने की बात सोचता तो बहुत घबरा जाता था। मुझे अपने काम में शांति नहीं मिल पा रही थी। काम के मसलों पर भी मेरे पास अंतर्दृष्टि नहीं थी। मैं निरंतर अनिश्चय की स्थिति में जी रहा था। मैं वाकई बहुत परेशान था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर निवेदन किया कि वह मेरा मार्गदर्शन करे जिससे मैं खुद को जान सकूं।

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "लोग कभी-कभार ही सत्य का अभ्यास करते हैं; वे अक्सर सत्य से अपना मुंह मोड लेते हैं, और ऐसे भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीते रहते हैं, जो स्वार्थपूर्ण और घिनौना होता है। वे सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा, साख, रुतबे और हितों को देखते हैं, उन्हें सत्य की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए उनके कष्ट बहुत बड़े होते हैं, उनकी चिंताएँ बहुत ज्यादा होती हैं, और उनकी बेड़ियाँ अनगिनत होती हैं"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जीवन में प्रवेश अपने कर्तव्य को निभाने का अनुभव करने से प्रारंभ होना चाहिए')। "वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में तुममें सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य-वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो इसमें कोई शक नहीं कि तुम कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को किस नज़र से देखता है? तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हरा पाते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और ऐसे निशानों से भरे पड़े हैं जिनसे परमेश्वर शर्मिंदा होता है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुम परमेश्वर के लिये अपने आपको खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि तुम अपने फ़ायदे के लिये काम कर रहे हो। 'अपने फ़ायदे के लिए' से क्या अभिप्राय है? शैतान के लिये काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, 'हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।' परमेश्वर की नज़र में तुमने अच्छे कर्म नहीं किये हैं, बल्कि तुम्हारा व्यवहार दुष्टों वाला हो गया है। तुम्हें पुरस्कार नहीं दिया जाएगा और परमेश्वर तुम्हें याद नहीं रखेगा। क्या यह पूरी तरह से व्यर्थ नहीं है?"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए मुझे एहसास हुआ कि लोग अच्छे काम कर रहे हैं या बुरे, इसका निर्णय परमेश्वर इससे नहीं करता कि वे ऊपर-ऊपर से खुद को कितना खपाते हैं, कितना दर्द सहते हैं या कितनी कीमत चुकाते हैं, बल्कि इससे करता है कि लोगों के इरादे क्या हैं और उनके काम परमेश्वर के लिए हैं या उनके स्वयं के लिए, और इससे कि वे सत्य का अभ्यास करते हैं या नहीं। उस दौरान की अपनी अवस्था पर मैंने विचार किया और देखा कि मेरा भाई लिन को सिद्धांत समझने में मदद करना, कलीसिया के काम के लिए नहीं था। मैं तो उसके जरिए बस टीम की दक्षता सुधारना चाहता था ताकि मैं अच्छा दिख सकूँ। जब मैंने देखा कि उसे कहीं और भेजा जा रहा है, तो मुझे लगा कि इससे टीम का काम रुकेगा और मेरे नाम और हैसियत को नुकसान होगा, इसलिए मूल्यांकन लिखते समय मैंने जानबूझकर उसकी गलतियां गिनाकर अगुआ को गुमराह करने की कोशिश की। काम को लेकर उसके उत्साह को कम दिखाने के लिए मैंने कुछ नकारात्मक बातें भी कहीं। यह सत्य का अभ्यास करना और कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? मैं स्वार्थ के साथ अपना कर्तव्य कर रहा था और मुझे कलीसिया के संपूर्ण काम की नहीं, बस उस काम की चिंता थी जिसके लिए मैं ज़िम्मेदार था। मुझे मेरी प्रतिष्ठा और हैसियत को होने वाले नुकसान की परवाह थी। मैं धोखेबाज़ भी था और मैंने अगुआ द्वारा व्यवस्थित किए गए कलीसिया के काम में रुकावट डाली थी। परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालने वाला मैं ही था जो दुष्टता और परमेश्वर का विरोध कर रहा था! जब मैंने अपनी खतरनाक अवस्था को देखा तो मैंने परमेश्वर से यह प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं स्वार्थी और घृणा योग्य हूँ। अपने हित के लिए मैंने परमेश्वर के घर के काम में रुकावट डाली है। परमेश्वर, मैं पश्चाताप करना चाहता हूँ।"

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा के बारे में मननशील होना चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन चीज़ों पर बार-बार विचार कर, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। मैंने परमेश्वर के वचनों में अभ्यास का पथ पाया। मुझे कर्तव्य में अपने इरादों को सुधारना है, परमेश्वर की जांच को स्वीकारना है, निजी हितों को छोड़कर परमेश्वर के घर के काम की मर्यादा रखनी है। भाई लिन की क्षमता अच्छी है और समस्याओं को सामने पाकर वह सत्य खोजता है, अगर वह दूसरी कलीसिया में जाकर काम करेगा, तो इससे परमेश्वर के घर के काम को लाभ होगा। इस तरह अभ्यास भी ज़्यादा होगा, इसलिए मुझे उसका सहयोग करना चाहिए। फिर मैंने अगुआ को ढूंढा और उसे अपने स्वार्थी और धूर्त इरादे बता दिए और उसे भाई लिन का निष्पक्ष मूल्यांकन दे दिया। उसे दूसरी कलीसिया में भेज दिया गया, आखिरकार मुझे भी कुछ शांति का अनुभव हुआ।

उस समय, मुझे लगा था कि मैं थोड़ा बदल गया हूँ। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि दोबारा वैसी ही परिस्थिति आने पर, मेरी शैतानी प्रकृति फिर से सामने आ जाएगी।

2018 की सर्दी में, भाई चेन और मैं, दोनों टीम अगुआ के तौर पर साथ काम कर रहे थे। हम एक दूसरे की कमियों को पूरा करते थे, परमेश्वर के मार्गदर्शन से, हमारे काम में निरंतर बेहतर नतीजे मिल रहे थे। मुझे भाई चेन के साथ काम करना वाकई अच्छा लगता था। एक बार सभा के बाद, अगुआ ने मुझसे कहा कि दूसरी टीम को मदद की ज़रूरत है और शायद भाई चेन को वहाँ भेजा जाए। मुझे लगा कि भाई चेन की क्षमता अच्छी है, वह सत्य जल्दी समझ जाता है और अपने कर्तव्य में ज़िम्मेदार है, इसलिए वह हमारी टीम का काम आगे बढ़ाने में बहुत मददगार है। अगर वह चला गया तो हमारा काम प्रभावित होगा, फिर अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं अपने काम में नकारा हूँ? मैं भाई चेन को जाने नहीं देना चाहता था, लेकिन कलीसिया के काम को देखते हुए मुझे सहमत होना पड़ा। मुझे बड़ी हैरानी हुई जब अगुआ ने मुझे बताया कि कलीसिया में एक और ज़रूरी काम था जिसके लिए वे चाहते थे कि टीम की एक और सदस्य बहन लू भी मदद के लिए जाएं। यह सुनकर मेरा कलेजा मुँह को आ गया। मैंने सोचा, "आप बहन लू को ले जा रहे हैं? पहले भाई चेन को हटा दिया, अब बहन लू भी जा रही हैं। हमारी टीम के दो मुख्य लोग चले जाएंगे, तो हमारे काम पर ज़रूर असर पड़ेगा। बिल्कुल नहीं! मैं आपको बहन लू को ले जाने नहीं दे सकता।" लेकिन फिर मुझे ख्याल आया, "अगर मैंने सीधे नकार दिया, तो क्या वे मुझे स्वार्थी नहीं कहेंगे?" फिर मैंने एक दूसरी बहन का नाम सुझाया जो उतनी काबिल नहीं थी। सोच-विचार करने के बाद भी अगुवा को लगा कि बहन लू ही बेहतर रहेंगी, और उन्होंने मुझसे बहन के साथ कर्तव्य के इस बदलाव के बारे में संगति करने को कहा। मैंने हाँ तो कर दी, पर दिल से मैं इसके बिलकुल खिलाफ था। उसके बाद मैंने दूसरे भाई से अगुआ के बारे में यह शिकायत की कि उन्हें मेरी परेशानियों की कोई परवाह नहीं है, अचानक उन्होंने दो मुख्य लोगों को ट्रांसफर कर दिया। टीम अगुआ के तौर पर मैं अपना काम करूँ भी तो कैसे? मैं बोलता ही जा रहा था कि अचानक मुझे एहसास हुआ कि मैं गलत हूँ। क्या अपनी शिकायतें सुना कर मैं इस भाई को अपने पक्ष में करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ? परमेश्वर के लिए यह अपमानजनक है। जितना मैं इस बारे में सोचता मुझे उतना ही बुरा लगता। मैं फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की और खुद पर विचार किया। प्रार्थना करने के बाद मैंने सोचा, जब भी मेरे दायरे में आने वाले किसी व्यक्ति को दूसरी जगह भेजा जाता है, तो मैं पूरा जोर लगाकर उसे रोकने में क्यों लग जाता हूँ? इस तरह के आचरण के पीछे असली प्रकृति क्या है?

मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "कर्तव्य परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपे गए काम हैं; वे लोगों द्वारा पूरा करने के लिए विशेष कार्य हैं। लेकिन, एक कर्तव्य निश्चित रूप से तुम्हारा व्यक्तिगत व्यवसाय नहीं है, और न ही वह भीड़ में बेहतर दिखने का एक माध्यम है। कुछ लोग कर्तव्यों का उपयोग अपने प्रबंधन के लिए और गिरोह बनाने के लिए करते हैं; कुछ अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए करते हैं। ... कर्तव्य के बारे में इस तरह के दृष्टिकोण गलत हैं; वे परमेश्वर को घिनौने लगते हैं और उन्हें तत्काल दूर किया जाना चाहिए"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?')। "आज के कार्य के संदर्भ में, लोग अभी भी उसी प्रकार की चीज़ें करेंगे, जो इन वचनों में दर्शाई गई हैं, 'मंदिर परमेश्वर से बड़ा है।' उदाहरण के लिए, लोग अपना कर्तव्य निभाने को अपने कार्य के रूप में देखते हैं; वे परमेश्वर के लिए गवाही देने और बड़े लाल अजगर से युद्ध करने को प्रजातंत्र और स्वतंत्रता के लिए मानवाधिकारों की रक्षा हेतु किए जाने वाले राजनीतिक आंदोलनों के रूप में देखते हैं; वे अपने कर्तव्य को अपने कौशलों का उपयोग आजीविका में करने की ओर मोड़ देते हैं, और वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने को और कुछ नहीं, बल्कि धार्मिक सिद्धांत के एक अंश के पालन के रूप में लेते हैं; इत्यादि। क्या ये व्यवहार बिलकुल 'मंदिर परमेश्वर से बड़ा है' के समान नहीं हैं? सिवाय इसके कि दो हज़ार वर्ष पहले लोग अपना व्यक्तिगत व्यवसाय भौतिक मंदिरों में कर रहे थे, जबकि आज लोग अपना व्यक्तिगत व्यवसाय अमूर्त मंदिरों में करते हैं। जो लोग नियमों को महत्व देते हैं, वे नियमों को परमेश्वर से बड़ा समझते हैं; जो लोग हैसियत से प्रेम करते हैं, वे हैसियत को परमेश्वर से बड़ी समझते हैं; जो लोग अपनी आजीविका से प्रेम करते हैं, वे आजीविका को परमेश्वर से बड़ी समझते हैं, इत्यादि—उनकी सभी अभिव्यक्तियाँ मुझे यह कहने के लिए बाध्य करती हैं : 'लोग अपने वचनों से परमेश्वर को सबसे बड़ा कहकर उसकी स्तुति करते हैं, किंतु उनकी नज़रों में हर चीज़ परमेश्वर से बड़ी है।' ऐसा इसलिए है, क्योंकि जैसे ही लोगों को परमेश्वर का अनुसरण करने के अपने मार्ग के साथ-साथ अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने या अपना व्यवसाय या अपनी आजीविका चलाने का अवसर मिलता है, वे परमेश्वर से दूरी बना लेते हैं और अपने आप को अपनी प्यारी आजीविका में झोंक देते हैं। जो कुछ परमेश्वर ने उन्हें सौंपा है, उसे और उसकी इच्छा को बहुत पहले ही त्याग दिया गया है। इन लोगों की स्थिति और दो हज़ार वर्ष पहले मंदिर में अपना व्यवसाय करने वाले लोगों की स्थिति में क्या अंतर है?" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III)

परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मुझे अपने कार्यों के सार पर अधिक स्पष्टता मिली। जब भी मेरी टीम से अगुआ किसी को ट्रांसफर करते थे तो मैं विरोधी बनकर रास्ते में खड़ा हो जाता था, क्योंकि मैं अपने कर्तव्य को अपने निजी उपक्रम के रूप में देखता था। मैं उन भाई-बहनों को अपने द्वारा प्रशिक्षित लोग मानता था, इसलिए उन्हें मेरे दायरे में ही काम करना चाहिए और मेरी टीम के काम को ही आगे बढ़ाना चाहिए, उन्हें कहीं और नहीं भेजा जाना चाहिए। मेरी सोच बहुत ही बेतुकी और वाहियात थी। भाई-बहनों की क्षमता और सामर्थ्य परमेश्वर द्वारा उसके कार्य के लिए पूर्व निर्धारित थी। उन्हें परमेश्वर के घर में जहाँ भी ज़रूरत हो वहाँ रखा जाना चाहिए। यह तो स्पष्ट है। लेकिन मैं उन्हें अपने नियंत्रण में रखना चाहता था, उनके साथ ऐसा व्यवहार करता था जैसे वे मेरे लिए सेवा और श्रम करने वाले साधन हों। जो भी किसी को ट्रांसफर करना चाहता था मैं उसका विरोधी बन जाता था, मैं पीठ पीछे आलोचना करता और गुटबाजी करने की कोशिश भी करता था। मैं उन फरीसियों से अलग कैसे हूँ जिन्होंने प्रभु यीशु का विरोध किया था? फरीसी मंदिर को अपना प्रभाव क्षेत्र मानते थे और वे विश्वासियों को उसे छोड़कर प्रभु यीशु का अनुसरण नहीं करने देते थे। विश्वासियों पर उनका काबू बना रहे इसके लिए उन्होंने जो हो सका वह किया ताकि उनकी हैसियत और कमाई बची रहे, और बेशर्मी से दावा किया कि विश्वासी उनकी बपौती हैं। जहाँ तक मेरी बात है, मैंने भाई-बहनों को अपने नियंत्रण में रखा और नहीं चाहा कि परमेश्वर का घर उन्हें कहीं और भेजें। क्या मैं अपने प्रभाव-क्षेत्र को बढ़ाकर परमेश्वर का विरोध नहीं कर रहा था? मैं मसीह-विरोधी रास्ते पर चल कर परमेश्वर का विरोध कर रहा था और उसके स्वभाव का अपमान कर रहा था! इस विचार ने मुझे डरा दिया, मैं अपने स्वार्थ और नीचता से नफरत करने लगा। पश्चाताप से भरकर मैं तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना की। बहन लू से उसके ट्रांसफर के बारे में बात करने के बाद, मैंने जिस भाई को धोखा दिया था उससे बात की। मैंने जो कहा था उसकी प्रकृति और नतीजों पर संगति की और उसका विश्लेषण किया ताकि उसे कुछ विवेक मिल सके। आखिरकार मुझे कुछ शांति मिली।

बहन लू और भाई चेन के ट्रांसफर के बाद हमारी टीम में बहन ली आयीं। उनकी क्षमता अच्छी थी और वह चीजों को जल्दी समझ लेती थीं। टीम के काम में कोई देरी नहीं हुई। मैंने सच में अनुभव किया कि अपने मतलब के लिए नहीं बल्कि परमेश्वर के घर के फ़ायदे के लिए कर्तव्य निभाना, परमेश्वर की आशीषों को देखने का असल तरीका है। परमेश्वर काम के लिए सही लोगों की व्यवस्था करेगा। वह अपने काम को बनाए रखेगा। इसके तीन महीने बाद, एक दिन जब मेरे काम की सहभागी बहन लिन एक सभा से वापस आयीं, तो उन्होंने मुझे बताया कि पास की एक कलीसिया सुसमाचार का अच्छा कार्य कर रही है और वहाँ नवागंतुकों की सिंचाई के लिए लोगों की ज़रूरत है। अगुआ ने सुझाव दिया कि बहन ली सिंचाई की ज़िम्मेदारी लें। मैं फिर से थोड़ा चिढ़ गया, लेकिन तुरंत मुझे लगा कि मेरी सोच गलत है। मुझे पहले के समय का ख्याल आया जब मैंने अपने नाम और हैसियत के लिए परमेश्वर के घर के हितों को नजरअंदाज किया था। मुझे बहुत बुरा लगा और गलती का एहसास हुआ, और परमेश्वर के ये वचन मेरे मन में आए : "एक कर्तव्य तुम्हारा निजी मामला नहीं है, और इसे पूरा करके तुम अपने लिए कुछ नहीं कर रहे हो या अपना निजी व्यवसाय नहीं संभाल रहे हो। परमेश्वर के घर में, तुम चाहे जो भी करते हो, वह तुम्हारा अपना निजी उद्यम नहीं है; यह परमेश्वर के घर का काम है, यह परमेश्वर का काम है। तुम्हें इस ज्ञान को लगातार ध्यान में रखना होगा और कहना होगा, 'यह मेरा अपना मामला नहीं है; मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ और अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर रहा हूँ। मैं परमेश्वर के घर का काम कर रहा हूँ। यह काम मुझे परमेश्वर ने सौंपा है और मैं इसे उसके लिए कर रहा हूँ। यह मेरा अपना निजी मामला नहीं है।' अगर तुम्हें लगता है कि यह तुम्हारा निजी मामला है, और तुम इसे अपने इरादों, सिद्धांतों और उद्देश्यों के अनुसार करोगे, तो तुम मुसीबत में पड़ने वाले हो"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?')। परमेश्वर के वचनों ने और भी स्पष्ट कर दिया कि मेरा कर्तव्य मेरे लिए परमेश्वर का आदेश है, मेरा निजी उपक्रम नहीं। अपने निजी हितों को संतुष्ट करने के लिए मैं मनमर्जी नहीं कर सकता। मुझे परमेश्वर के घर के हितों की, सत्य खोजने और परमेश्वर की अपेक्षानुसार कार्य करने की परवाह करनी चाहिए। किसी भी सृजित प्राणी को अपने कर्तव्य में यही रवैया और सूझ-बूझ रखनी चाहिए। मैं हमेशा अपने हितों की सोचा करता था, और मैंने ऐसे बहुत से काम किए थे जो परमेश्वर-विरोधी हैं और उसके घर के हितों को नुकसान पहुंचाते हैं। मैं जान गया था कि अब मैं वैसे नहीं जी सकता। मुझे अपनी स्वार्थी इच्छाएं छोड़कर सत्य का अभ्यास करना होगा। उस समय मुझे चिंता मुक्त होने का एहसास हुआ। मैंने बहन लिन से कहा, "अगुआ ने परमेश्वर के घर के काम में मदद के लिए यह व्यवस्था की है। हमें फौरन बहन ली से काम के इस बदलाव के बारे में बात करनी चाहिए। हम परमेश्वर के घर के काम को प्रभावित नहीं होने दे सकते।"

कर्तव्य में अपने हितों को छोड़ना, परमेश्वर के घर के कार्य की सोचना, अपनी जगह पहचानना, ज़मीर और विवेक रखना सीखना, सब कुछ परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने से आता है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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