v. परमेश्वर का अनुसरण करना क्या है और मनुष्य का अनुसरण करना क्या है

बाइबल से उद्धृत परमेश्वर के वचन

“मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं; मैं उन्हें जानता हूँ, और वे मेरे पीछे पीछे चलती हैं” (यूहन्ना 10:27)

“ये वे ही हैं कि जहाँ कहीं मेम्ना जाता है, वे उसके पीछे हो लेते हैं” (प्रकाशितवाक्य 14:4)

अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन

परमेश्वर का अनुसरण करने में प्रमुख महत्व इस बात का है कि हर चीज आज परमेश्वर के वचनों के अनुसार होनी चाहिए : चाहे तुम जीवन प्रवेश का अनुसरण कर रहे हो या परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर रहे हो, सब कुछ आज परमेश्वर के वचनों के आसपास ही केंद्रित होना चाहिए। यदि जो तुम संवाद और अनुसरण करते हो, वह आज परमेश्वर के वचनों के आसपास केंद्रित नहीं है, तो तुम परमेश्वर के वचनों के लिए एक अजनबी हो और पवित्र आत्मा के कार्य से पूरी तरह से परे हो। परमेश्वर ऐसे लोग चाहता है जो उसके पदचिह्नों का अनुसरण करें। भले ही जो तुमने पहले समझा था वह कितना ही अद्भुत और शुद्ध क्यों न हो, परमेश्वर उसे नहीं चाहता और यदि तुम ऐसी चीजों को दूर नहीं कर सकते, तो वो भविष्य में तुम्हारे प्रवेश के लिए एक भयंकर बाधा होंगी। वो सभी धन्य हैं, जो पवित्र आत्मा के वर्तमान प्रकाश का अनुसरण करने में सक्षम हैं। पिछले युगों के लोग भी परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलते थे, फिर भी वो आज तक इसका अनुसरण नहीं कर सके; यह आखिरी दिनों के लोगों के लिए आशीर्वाद है। जो लोग पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य का अनुसरण कर सकते हैं और जो परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलने में सक्षम हैं, इस तरह कि चाहे परमेश्वर उन्हें जहाँ भी ले जाए वो उसका अनुसरण करते हैं—ये वो लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त है। जो लोग पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य का अनुसरण नहीं करते हैं, उन्होंने परमेश्वर के वचनों के कार्य में प्रवेश नहीं किया है और चाहे वो कितना भी काम करें या उनकी पीड़ा जितनी भी ज़्यादा हो या वो कितनी ही भागदौड़ करें, परमेश्वर के लिए इनमें से किसी बात का कोई महत्व नहीं और वह उनकी सराहना नहीं करेगा। आज वो सभी जो परमेश्वर के वर्तमान वचनों का पालन करते हैं, वो पवित्र आत्मा के प्रवाह में हैं; जो लोग आज परमेश्वर के वचनों से अनभिज्ञ हैं, वो पवित्र आत्मा के प्रवाह से बाहर हैं और ऐसे लोगों की परमेश्वर द्वारा सराहना नहीं की जाती। ... “पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण” करने का मतलब है आज परमेश्वर की इच्छा को समझना, परमेश्वर की वर्तमान अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने में सक्षम होना, आज के परमेश्वर का अनुसरण और उसके प्रति समर्पण करने में सक्षम होना और परमेश्वर के नवीनतम कथनों के अनुसार प्रवेश करना। केवल यही ऐसा है, जो पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण करता है और पवित्र आत्मा के प्रवाह में है। ऐसे लोग न केवल परमेश्वर की सराहना प्राप्त करने और परमेश्वर को देखने में सक्षम हैं बल्कि परमेश्वर के नवीनतम कार्य से परमेश्वर के स्वभाव को भी जान सकते हैं और परमेश्वर के नवीनतम कार्य से मनुष्य की धारणाओं और उसके विद्रोह को, मनुष्य की प्रकृति और सार को जान सकते हैं; इसके अलावा, वो अपनी सेवा के दौरान धीरे-धीरे अपने स्वभाव में परिवर्तन हासिल करने में सक्षम होते हैं। केवल ऐसे लोग ही हैं, जो परमेश्वर को प्राप्त करने में सक्षम हैं और जो सचमुच में सच्चा मार्ग पा चुके हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो

चाहे परमेश्वर के कार्य के बारे में तुम्हारी कितनी भी धारणाएँ और कल्पनाएँ क्यों न हों, और चाहे तुमने पहले अपनी मर्जी के मुताबिक जैसे भी काम किया हो और परमेश्वर के खिलाफ़ जैसे भी बग़ावत की हो, अगर तुम वास्तव में सत्य की तलाश करते हो, और परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करते हो, और परमेश्वर के वचनों द्वारा काट-छाँट और निपटारे को स्वीकार करते हो; अगर, परमेश्वर द्वारा आयोजित हर चीज में, तुम उसके अनुरूप चलने में सक्षम होते हो, परमेश्वर के वचनों को मानते हो, उसकी इच्छा को महसूस करना सीखते हो, उसके वचनों और उसके इरादों के अनुसार अभ्यास करते हो, समर्पण की कोशिश करने में सक्षम होते हो, और अपनी समस्त इच्छाओं, अभिलाषाओं, विचारों, इरादों को छोड़ सकते हो, और परमेश्वर का विरोध नहीं करते हो, केवल तभी तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो! तुम कह सकते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन तुम जो भी करते हो, वह सब अपनी मर्जी के मुताबिक करते हो। तुम्हारे हर क्रियाकलाप में, तुम्हारे अपने उद्देश्य, तुम्हारी अपनी योजनाएँ होती हैं; तुम इसे परमेश्वर पर नहीं छोड़ते। तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हारा परमेश्वर है? नहीं, वह तुम्हारा परमेश्वर नहीं है। यदि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तो जब तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तब क्या ये खोखले शब्द नहीं होते हैं? क्या ऐसे शब्द लोगों को बेवकूफ़ बनाने की कोशिश नहीं हैं? तुम कह सकते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन तुम्हारे सारे कार्य और कर्म, जीवन और मूल्यों को लेकर तुम्हारा दृष्टिकोण, और विभिन्न मामलों से निपटने के लिए तुम्हारा रवैया और सिद्धांत, सभी शैतान से आते हैं—तुम इन सबसे पूरी तरह से शैतान के नियमों और तर्कों के अनुसार निपटते हो। तब, क्या तब तुम परमेश्वर के अनुयायी होते हो? ...

... परमेश्वर में आस्था की व्याख्या का सबसे सरल तरीका है इस भरोसे का होना कि एक परमेश्वर है, और इस आधार पर, उसका अनुसरण करना, उसका आज्ञा-पालन करना, संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकारना, उसके वचनों पर ध्यान देना, उसके वचनों के अनुसार जीवन जीना, हर चीज को उसके वचनों के अनुसार करना, एक सच्चा सृजित प्राणी बनना, और परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना; केवल यही परमेश्वर में सच्ची आस्था होना है। परमेश्वर के अनुसरण का यही अर्थ होता है। तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन, अपने हृदय में, तुम परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करते, और उनके प्रति एक शंकालु रवैया रखते हो, और तुम उसकी संप्रभुता, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार नहीं करते हो। यदि परमेश्वर जो करता है उसके बारे में तुम हमेशा धारणाएँ रखते हो, और गलतफहमियों के शिकार रहते हो, और इसके बारे में शिकायत करते हो, हमेशा असंतुष्ट रहते हो, और वह जो भी करे उसे तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का उपयोग करके मापते और देखते हो; अगर तुम्हारे पास हमेशा अपने खुद के विचार और समझ होती है—तो यह परेशानी का कारण बनेगा। यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव करना नहीं हुआ, और यह उसका सच्चा अनुसरण करने का तरीका नहीं है। यह परमेश्वर में आस्था रखना नहीं है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता

कुछ लोग सत्य में आनंदित नहीं होते, न्याय में तो बिल्कुल भी नहीं। इसके बजाय, वे सामर्थ्य और संपत्तियों में आनंदित होते हैं; ऐसे लोग सामर्थ्य चाहने वाले कहे जाते हैं। वे केवल दुनिया के प्रभावशाली संप्रदायों को, और सेमिनरीज से आने वाले पादरियों और शिक्षकों को खोजते हैं। हालाँकि उन्होंने सत्य के मार्ग को स्वीकार कर लिया है, फिर भी वे केवल अर्ध-विश्वासी हैं; वे अपने दिलो-दिमाग पूरी तरह से समर्पित करने में असमर्थ हैं, वे कहने को तो परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की बात करते हैं, लेकिन उनकी नजरें बड़े पादरियों और शिक्षकों पर गड़ी रहती हैं, और वे मसीह की ओर फेर कर नहीं देखते। उनके हृदय प्रसिद्धि, वैभव और महिमा पर ही टिके रहते हैं। वे इसे असंभव समझते हैं कि ऐसा छोटा व्यक्ति इतने लोगों पर विजय प्राप्त कर सकता है, कि इतना साधारण व्यक्ति लोगों को पूर्ण बना सकता है। वे इसे असंभव समझते हैं कि ये धूल और घूरे में पड़े नाचीज लोग परमेश्वर द्वारा चुने गए हैं। वे मानते हैं कि अगर ऐसे लोग परमेश्वर के उद्धार के पात्र होते, तो स्वर्ग और पृथ्वी उलट-पुलट हो जाते और सभी लोग हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते। उनका मानना है कि अगर परमेश्वर ने ऐसे नाचीज लोगों को पूर्ण बनाने के लिए चुना होता, तो वे सभी बड़े लोग स्वयं परमेश्वर बन जाते। उनके दृष्टिकोण अविश्वास से दूषित हैं; अविश्वासी होने से भी बढ़कर, वे बेहूदे जानवर हैं। क्योंकि वे केवल हैसियत, प्रतिष्ठा और सामर्थ्य को महत्व देते हैं, और केवल बड़े समूहों और संप्रदायों को सम्मान देते हैं। उनमें उन लोगों के लिए बिल्कुल भी सम्मान नहीं है, जिनकी अगुआई मसीह करता है; वे तो बस ऐसे विश्वासघाती हैं, जिन्होंने मसीह से, सत्य से और जीवन से मुँह मोड़ लिया है।

तुम मसीह की विनम्रता की प्रशंसा नहीं करते, बल्कि विशेष हैसियत वाले उन झूठे चरवाहों की प्रशंसा करते हो। तुम मसीह की मनोहरता या बुद्धि से प्रेम नहीं करते, बल्कि उन व्यभिचारियों से प्रेम करते हो, जो संसार के कीचड़ में लोटते हैं। तुम मसीह की पीड़ा पर हँसते हो, जिसके पास अपना सिर टिकाने तक की जगह नहीं है, लेकिन उन मुरदों की तारीफ करते हो, जो चढ़ावे हड़प लेते हैं और ऐयाशी में जीते हैं। तुम मसीह के साथ कष्ट सहने को तैयार नहीं हो, लेकिन खुद को उन धृष्ट मसीह-विरोधियों की बाँहों में प्रसन्नता से फेंक देते हो, जबकि वे तुम्हें सिर्फ देह, शब्द और नियंत्रण ही प्रदान करते हैं। अब भी तुम्हारा हृदय उनकी ओर, उनकी प्रतिष्ठा, उनकी हैसियत, उनके प्रभाव की ओर ही मुड़ता है। अभी भी तुम ऐसा रवैया बनाए रखते हो, जिससे मसीह के कार्य को गले से उतारना तुम्हारे लिए कठिन हो जाता है और तुम उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुममें मसीह को स्वीकार करने की आस्था की कमी है। तुमने आज तक उसका अनुसरण सिर्फ इसलिए किया है, क्योंकि तुम्हारे पास कोई और विकल्प नहीं था। बुलंद छवियों की एक शृंखला हमेशा तुम्हारे हृदय में बसी रहती है; तुम उनके किसी शब्द और कर्म को नहीं भूल सकते, न ही उनके प्रभावशाली शब्दों और हाथों को भूल सकते हो। वे तुम लोगों के हृदय में हमेशा सर्वोच्च और हमेशा नायक रहते हैं। लेकिन आज के मसीह के लिए ऐसा नहीं है। तुम्हारे हृदय में वह हमेशा महत्वहीन और हमेशा भय के अयोग्य है। क्योंकि वह बहुत ही साधारण है, उसका बहुत ही कम प्रभाव है और वह ऊँचा तो बिल्कुल भी नहीं है।

बहरहाल, मैं कहता हूँ कि जो लोग सत्य को महत्व नहीं देते, वे सभी गैर-विश्वासी और सत्य के प्रति विश्वासघाती हैं। ऐसे लोगों को कभी भी मसीह का अनुमोदन प्राप्त नहीं होगा। क्या अब तुमने पहचान लिया है कि तुम्हारे भीतर कितना अविश्वास है, और तुममें मसीह के प्रति कितना विश्वासघात है? मैं तुमसे यह आग्रह करता हूँ : चूँकि तुमने सत्य का मार्ग चुना है, इसलिए तुम्हें खुद को संपूर्ण हृदय से समर्पित करना चाहिए; दुविधाग्रस्त या अनमने न बनो। तुम्हें समझना चाहिए कि परमेश्वर इस संसार का या किसी एक व्यक्ति का नहीं है, बल्कि उन सबका है जो उस पर सचमुच विश्वास करते हैं, जो उसकी आराधना करते हैं, और जो उसके प्रति समर्पित और निष्ठावान हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम परमेश्वर के सच्चे विश्वासी हो?

किसी अगुआ या कार्यकर्ता का कोई भी स्तर हो, अगर तुम लोग सत्य की समझ और कुछ गुणों के लिए उनकी आराधना करते हो और मानते हो कि उनके पास सत्य की वास्तविकता है और वे तुम्हारी मदद कर सकते हैं, और अगर तुम सभी चीजों में उन पर श्रद्धा रखते हो और उन पर निर्भर रहते हो, और इसके माध्यम से उद्धार प्राप्त करने का प्रयास करते हो, तो तुम मूर्ख और अज्ञानी हो, और अंत में इन सबका कोई फल नहीं निकलेगा, क्योंकि प्रस्थान-बिंदु ही अंतर्निहित रूप से गलत है। कोई कितने भी सत्य समझता हो, मसीह का स्थान नहीं ले सकता, और चाहे वे कितने भी प्रतिभाशाली हों, इसका यह मतलब नहीं कि उनके पास सत्य है—और इसलिए लोगों की आराधना, श्रद्धा और अनुसरण करने वाले सभी अंततः त्याग दिए जाएँगे, वे सभी निंदित होंगे। जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो वे केवल परमेश्वर की ही आराधना और उसका ही अनुसरण कर सकते हैं। अगुआ और कार्यकर्ता, चाहे वे किसी भी श्रेणी के हों, फिर भी आम लोग ही होते हैं। अगर तुम उन्हें अपना निकटतम वरिष्ठ समझते हो, अगर तुम्हें लगता है कि वे तुमसे श्रेष्ठ हैं, तुमसे ज़्यादा सक्षम हैं, उन्हें तुम्हारी अगुआई करनी चाहिए, वे हर तरह से बाकी सबसे बेहतर हैं, तो तुम गलत हो—यह एक भ्रम है। और इस भ्रम के तुम पर क्या परिणाम होंगे? यह तुम्हें अनजाने ही अपने अगुआओं को उन अपेक्षाओं के बरक्स मापने के लिए प्रेरित करेगा जो वास्तविकता के अनुरूप नहीं हैं; और तुम्हें उनकी समस्याओं और कमियों से सही तरह से पेश आने में असमर्थ बना देगा, साथ ही, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम उनके हुनर, खूबियों और क्षमताओं की ओर गहराई से आकर्षित भी होने लगोगे, इस हद तक कि तुम्हें पता भी न चलेगा और तुम उनकी आराधना कर रहे होगे, और वे तुम्हारे परमेश्वर बन जाएँगे। वह मार्ग, जबसे वे तुम्हारे आदर्श और तुम्हारी आराधना के पात्र बनना शुरू होते हैं, तबसे उस समय तक जब तुम उनके अनुयायियों में से एक बन जाते हो, तुम्हें अनजाने ही परमेश्वर से दूर ले जाने वाला मार्ग होगा। धीरे-धीरे परमेश्वर से दूर जाते हुए भी, तुम यह विश्वास करोगे कि तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो, तुम परमेश्वर के घर में हो, तुम परमेश्वर की उपस्थिति में हो, जबकि वास्तव में, तुम्हें शैतान के नौकरों, मसीह-विरोधियों ने उससे दूर कर दिया होगा। तुम्हें इसका पता भी नहीं चलेगा। यह एक बहुत खतरनाक स्थिति है। यह समस्या हल करने के लिए एक ओर मसीह-विरोधियों की प्रकृति और सार समझने में सक्षम होना, मसीह-विरोधियों के सत्य से घृणा करने और परमेश्वर का विरोध करने वाले कुरूप चेहरे की असलियत देखने में सक्षम होना आवश्यक है, और साथ ही मसीह-विरोधियों द्वारा लोगों को बहकाने और फँसाने के लिए आम तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकों को जानना, और साथ ही उनके काम करने के तरीके से परिचित होना आवश्यक है। दूसरी ओर, तुम लोगों को परमेश्वर के स्वभाव और सार के ज्ञान का अनुसरण करना चाहिए, तुम्हें यह स्पष्ट होना चाहिए कि केवल मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है, और किसी व्यक्ति की आराधना करने से तुम पर विपत्ति और दुर्भाग्य आएगा। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि केवल मसीह ही लोगों को बचा सकता है, और पूरी आस्था के साथ मसीह का अनुसरण और आज्ञापालन करना चाहिए। केवल यही मानव-अस्तित्व का सही मार्ग है। कुछ लोग कह सकते हैं : “हाँ, मेरे अपने दिल में अगुआओं की आराधना करने के कारण हैं, मैं हर प्रतिभावान व्यक्ति की स्वाभाविक रूप से आराधना करता हूँ, मैं हर उस अगुआ की आराधना करता हूँ जो मेरी धारणाओं के अनुरूप है।” तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हुए भी मनुष्य की आराधना करने पर क्यों तुले हुए हो? ये सब कुछ हो जाने के बाद, तुम्हें कौन बचाएगा? कौन है जो सचमुच तुम से प्रेम करता है और तुम्हारी रक्षा करता है—क्या तुम सचमुच नहीं देख पाते? अगर तुम परमेश्वर पर विश्वास और उसका अनुसरण करते हो, तो तुम्हें उसके वचन सुनने चाहिए, और अगर कोई सही तरीके से बोलता है और कार्य करता है, और यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है, तो क्या सत्य का पालन करना सही नहीं है? तुम इतने नीच क्यों हो? अनुसरण के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करने की ज़िद पर क्यों अड़े रहते हो जिसकी तुम आराधना करते हो? तुम शैतान के गुलाम क्यों बनना चाहते हो? इसके बजाय, तुम सत्य के सेवक क्यों नहीं बनते? यह दिखाता है कि किसी व्यक्ति में समझदारी और गरिमा है या नहीं। तुम्हें खुद से शुरू करना चाहिए : खुद को विभिन्न प्रकार के सत्यों से लैस करो, विभिन्न मामलों और लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों की पहचान करने में सक्षम बनो, जानो कि विभिन्न लोगों में जो अभिव्यक्त होता है उसकी प्रकृति क्या है और उनमें कौन-सा स्वभाव प्रकट होता है, विभिन्न प्रकार के लोगों के सार पहचानना सीखो, इस बारे में स्पष्ट रहो कि तुम्हारे आसपास किस तरह के लोग हैं, तुम किस तरह के व्यक्ति हो, और तुम्हारा अगुआ किस तरह का व्यक्ति है। जब तुम यह सब स्पष्ट रूप से देख लो, तो तुम्हें इन लोगों से सत्य के सिद्धांतों के अनुसार सही तरीके से व्यवहार करने में सक्षम होना चाहिए : अगर वे भाई-बहन हैं तो तुम्हें उनका प्यार से सामना करना चाहिए, और अगर वे भाई-बहन नहीं हैं तो तुम्हें उन्हें छोड़ देना चाहिए और उनसे दूरी बनाकर रखनी चाहिए; अगर वे ऐसे लोग हैं जिनमें सत्य की वास्तविकता है, तो भले ही तुम उन पर श्रद्धा रखो, तुम्हें उनकी आराधना नहीं करनी चाहिए। मसीह का स्थान कोई नहीं ले सकता, केवल मसीह ही वास्तविक परमेश्वर है। अगर तुम ये चीजें स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, तो तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद है, और तुम्हारे मसीह-विरोधियों द्वारा ठगे जाने की आशंका नहीं है, और न ही तुम्हें इस बात से डरने की आवश्यकता है कि तुम मसीह-विरोधियों द्वारा ठगे जाओगे।

—वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद छह

जब कोई व्यक्ति परमेश्वर में विश्वास रखकर उसका अनुसरण करता है, तो उसे जिस बात का सबसे ज्यादा डर होना चाहिए वह है उसका परमेश्वर के वचनों और सत्य से दूर होकर इंसानी कामकाज और उद्यमों से जुड़ जाना। ऐसा करना अपने खुद के रास्ते की ओर भटक जाना है। उदाहरण के लिए कहें कि एक कलीसिया ने एक अगुआ का चुनाव किया। इस अगुआ को सिर्फ धर्म-सिद्धांत के वचनों और वाक्यांशों का प्रचार करना आता है, और वह सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे पर ध्यान देता है। वह जरा भी व्यावहारिक कार्य नहीं करता। फिर भी तुम देखते हो कि वह धर्म-सिद्धांत के वचनों और वाक्यांशों का प्रचार अच्छी तरह से करता है, सत्य के अनुरूप करता है और सब-कुछ सही कहता है, इसलिए तुम उसे बहुत सराहते हो, तुम्हें लगता है कि वह एक अच्छा अगुआ है। तुम उनकी सारी बातें मानते हो, और आखिरकार, तुम उसका अनुसरण करते हो, पूरी तरह उसे समर्पण कर देते हो। फिर क्या तुम एक नकली अगुआ द्वारा छले और नियंत्रित नहीं किए जा रहे हो? और वह कलीसिया क्या एक धार्मिक समूह नहीं बन गयी है जिसका प्रमुख एक नकली अगुआ है? एक नकली अगुआवाले धार्मिक समूह के सदस्य अपना कर्तव्य निभाते-से लग सकते हैं, मगर क्या वे सच में अपना कर्तव्य निभा रहे हैं? क्या वे सच में परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं? (नहीं।) अगर ये लोग परमेश्वर की सेवा नहीं कर रहे हैं या अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे हैं, तो क्या परमेश्वर से उनका कोई संबंध है? जिस दल का परमेश्वर से कोई संबंध नहीं, वह उसमें विश्वास रखता है? बताओ भला, क्या एक नकली अगुआ के अनुयायियों या एक मसीह-विरोधी के नियंत्रण वाले लोगों में पवित्र आत्मा का कार्य है? यकीनन नहीं। और भला किस कारण से उनमें पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है? वे परमेश्वर के वचनों से विचलित हो चुके हैं, वे परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानते या उसकी आराधना नहीं करते, मगर नकली चरवाहों और मसीह-विरोधियों की बातें मानते हैं—इसलिए परमेश्वर उनसे घृणा कर उन्हें ठुकरा देता है और उन पर कोई कार्य नहीं करता। वे परमेश्वर के वचनों से विचलित हो गए हैं, और उसने उनसे घृणा कर उन्हें ठुकरा दिया है, और उन्होंने पवित्र आत्मा का कार्य खो दिया है। तो क्या वे परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकेंगे? (नहीं।) नहीं बचाए जा सकते, यानी दिक्कत होगी। इसलिए कलीसिया में चाहे जितने भी लोग अपना कर्तव्य निभा रहे हों, उनका बचाया जाना अहम तौर पर इस बात के भरोसे होता है कि क्या वे सच में मसीह का अनुसरण करते हैं या किसी व्यक्ति का, क्या वे सच में परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर रहे हैं और सत्य का अनुसरण कर रहे हैं, या धार्मिक गतिविधियों, इंसानी कामकाज और उद्यमों में शामिल हो रहे हैं। यह अहम तौर पर इस बात के भरोसे है कि क्या वे सत्य को स्वीकार कर उसका अनुसरण कर सकते हैं, और क्या वे समस्याओं का पता चलने पर उन्हें सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हैं। ये बातें सबसे ज्यादा अहम हैं। लोग किसका अनुसरण करते हैं और वे किस मार्ग पर चलते हैं, वे वास्तव में सत्य स्वीकारते हैं या उसे त्याग देते हैं, परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं या उसका विरोध करते हैं—परमेश्वर लगातार इन सब बातों पर नजर रखता है। परमेश्वर हर कलीसिया और हर व्यक्ति पर नजर रखता है। कलीसिया में चाहे कितने ही लोग अपना कोई कर्तव्य क्यों न निभा रहे हों, या परमेश्वर का अनुसरण क्यों न कर रहे हों, जैसे ही वे परमेश्वर के वचनों से भटकते हैं, जैसे ही वे पवित्र आत्मा के कार्य से वंचित होते हैं, वे परमेश्वर के कार्य को अनुभव नहीं कर पाते, और उनका और उनके द्वारा निभाए जाने वाले कर्तव्य का परमेश्वर के कार्य से कोई संबंध या इसमें कोई हिस्सेदारी नहीं रह जाती। ऐसे मामले में कलीसिया धार्मिक समूह बन जाते हैं। अच्छा बताओ, अगर कलीसिया एक धार्मिक समूह बन जाए तो उसके क्या परिणाम होते हैं? क्या तुम लोग यह नहीं कहोगे कि ये बहुत बड़े खतरे में हैं? कोई समस्या आने पर वे कभी भी सत्य की खोज नहीं करते, और सत्य के सिद्धांतों के आधार पर नहीं चलते, बल्कि वे मनुष्य की व्यवस्थाओं और तिकड़मों में फंस जाते हैं। बहुत-से ऐसे भी हैं जो अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी प्रार्थना या सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं करते; वे सिर्फ दूसरों से पूछकर उनके अनुसार चलते रहते हैं, उनकी भाव-भंगिमा देखकर सब कुछ करते रहते हैं। दूसरे लोग उन्हें जो करने को कहते हैं, वे वही करते हैं। उन्हें लगता है कि अपनी समस्याओं के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करना और सत्य की खोज एक अस्पष्ट-सी और मुश्किल चीज है, इसलिए वे कोई सीधा-सादा और आसान हल तलाशते हैं। उन्हें लगता है कि दूसरों पर निर्भर रहना और उनके अनुसार चलते रहना आसान और कहीं ज्यादा व्यावहारिक है, और इसलिए, वे वही करते हैं जो जो दूसरे लोग कहते हैं, हर काम में दूसरों से पूछते रहते हैं और वैसा ही करते रहते हैं। परिणामस्वरूप, वर्षों के विश्वास के बाद भी, जब भी उन्हें किसी समस्या का सामना करना पड़ा, उन्होंने कभी भी परमेश्वर के सम्मुख आकर प्रार्थना नहीं की और उसकी इच्छा और सत्य को जानने की कोशिश नहीं की, ताकि उन्हें सत्य की समझ आ सके, और वे परमेश्वर की इच्छानुसार कार्य और व्यवहार कर सकें—उन्हें कभी भी ऐसा कोई अनुभव नहीं हो पाया। क्या ऐसे लोग सचमुच परमेश्वर में आस्था का अभ्यास करते हैं? मैं सोचता हूँ : ऐसा क्यों है कि कुछ लोग एक धार्मिक समूह में प्रवेश करने के बाद, परमेश्वर में विश्वास रखना छोड़ किसी व्यक्ति में विश्वास रखने को, परमेश्वर का अनुसरण करना छोड़ एक व्यक्ति का अनुसरण करने को बाध्य हो जाते हैं? वे इतनी जल्दी कैसे बदल जाते हैं? अनेक वर्ष तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, क्या वे हर बात में अभी भी एक व्यक्ति की बात मानकर उसका अनुसरण करेंगे? इतने वर्षों की आस्था के बावजूद उनके दिलों में परमेश्वर के लिए कभी भी कोई स्थान नहीं रहा। वे जो कुछ भी करते हैं उसमें से किसी भी काम का परमेश्वर से कोई संबंध नहीं होता। उनकी कथनी और करनी, जीवन, दूसरों से सरोकार, मामले सँभालना, यहाँ तक कि उनका कर्तव्य निर्वाह और परमेश्वर का सेवा कार्य, उनके सारे कर्म, उनका पूरा व्यवहार, उनसे निकली हर सोच और विचार—किसी का भी परमेश्वर में विश्वास से या उसके वचनों से कोई संबंध नहीं होता। क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर का एक ईमानदार विश्वासी है? क्या परमेश्वर की आस्था में बिताए उसके वर्षों की संख्या उस व्यक्ति का आध्यात्मिक कद तय कर सकती है? क्या यह साबित कर सकती है कि परमेश्वर से उसका संबंध सामान्य है? बिल्कुल नहीं। क्या कोई व्यक्ति ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखता है, यह देखने के लिए इस बात पर गौर करना सबसे अहम है कि क्या वह परमेश्वर के वचनों को दिल से स्वीकार कर सकता है, और क्या वह उसके वचनों के बीच जी सकता है और उसके कार्य का अनुभव कर सकता है।

—वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर का भय मानकर ही इंसान उद्धार के मार्ग पर चल सकता है

उन लोगों के लिए, जो परमेश्वर का अनुसरण करने का दावा करते हैं, अपनी आँखें खोलना और इस बात को ध्यान से देखना सर्वोत्तम रहेगा कि दरअसल वे किसमें विश्वास करते हैं : क्या यह वास्तव में परमेश्वर है जिस पर तू विश्वास करता है, या शैतान है? यदि तू जानता कि जिस पर तू विश्वास करता है वह परमेश्वर नहीं है, बल्कि तेरी स्वयं की प्रतिमाएँ हैं, तो फिर यही सबसे अच्छा होता यदि तू विश्वासी होने का दावा नहीं करता। यदि तुझे वास्तव में नहीं पता कि तू किसमें विश्वास करता है, तो, फिर से, यही सबसे अच्छा होता यदि तू विश्वासी होने का दावा नहीं करता। वैसा कहना कि तू विश्वासी था ईश-निंदा होगी! तुझसे कोई ज़बर्दस्ती नहीं कर रहा कि तू परमेश्वर में विश्वास कर। मत कहो कि तुम लोग मुझमें विश्वास करते हो, मैं ऐसी बहुत सी बातें बहुत पहले खूब सुन चुका हूँ और उन्हें दुबारा सुनने की इच्छा नहीं है, क्योंकि तुम जिनमें विश्वास करते हो वे तुम लोगों के मन की प्रतिमाएँ और तुम लोगों के बीच के स्थानीय गुण्डे हैं। जो लोग सत्य को सुनकर अपनी गर्दन ना में हिलाते हैं, जो मौत की बातें सुनकर अत्यधिक मुस्कराते हैं, वे शैतान की संतान हैं; और उन्हें बाहर निकाल दिया जाएगा। ऐसे कई लोग कलीसिया में मौजूद हैं, जिनमें कोई विवेक नहीं है। और जब कुछ गुमराह करने वाला घटित होता है, तो वे अप्रत्याशित रूप से शैतान के पक्ष में जा खड़े होते हैं। जब उन्हें शैतान का अनुचर कहा जाता है तो उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। यद्यपि लोग कह सकते हैं कि उनमें विवेक नहीं है, वे हमेशा उस पक्ष में खड़े होते हैं जहाँ सत्य नहीं होता है, वे संकटपूर्ण समय में कभी भी सत्य के पक्ष में खड़े नहीं होते हैं, वे कभी भी सत्य के पक्ष में खड़े होकर दलील पेश नहीं करते हैं। क्या उनमें सच में विवेक का अभाव है? वे अनपेक्षित ढंग से शैतान का पक्ष क्यों लेते हैं? वे कभी भी एक भी शब्द ऐसा क्यों नहीं बोलते हैं जो निष्पक्ष हो या सत्य के समर्थन में तार्किक हो? क्या ऐसी स्थिति वाकई उनके क्षणिक भ्रम के परिणामस्वरूप पैदा हुई है? लोगों में विवेक की जितनी कमी होगी, वे सत्य के पक्ष में उतना ही कम खड़ा हो पाएँगे। इससे क्या ज़ाहिर होता है? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि विवेकशून्य लोग पाप से प्रेम करते हैं? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि वे शैतान की निष्ठावान संतान हैं? ऐसा क्यों है कि वे हमेशा शैतान के पक्ष में खड़े होकर उसी की भाषा बोलते हैं? उनका हर शब्द और कर्म, और उनके चेहरे के हाव-भाव, यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि वे सत्य के किसी भी प्रकार के प्रेमी नहीं हैं; बल्कि, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से घृणा करते हैं। शैतान के साथ उनका खड़ा होना यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि शैतान इन तुच्छ इब्लीसों को वाकई में प्रेम करता है जो शैतान की खातिर लड़ते हुए अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं। क्या ये सभी तथ्य पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं? यदि तू वाकई ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है, तो फिर तेरे मन में ऐसे लोगों के लिए सम्मान क्यों नहीं हो सकता है जो सत्य का अभ्यास करते हैं, तो फिर तू तुरंत उनके मात्र एक इशारे पर ऐसे लोगों का अनुसरण क्यों करता है जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं? यह किस प्रकार की समस्या है? मुझे परवाह नहीं कि तुझमें विवेक है या नहीं। मुझे परवाह नहीं कि तूने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है। मुझे परवाह नहीं कि तेरी शक्तियाँ कितनी बड़ी हैं और न ही मुझे इस बात की परवाह है कि तू एक स्थानीय गुण्डा है या कोई ध्वज-धारी अगुआ। यदि तेरी शक्तियाँ अधिक हैं, तो वह शैतान की ताक़त की मदद से है। यदि तेरी प्रतिष्ठा अधिक है, तो वह केवल इसलिए है क्योंकि तेरे आस-पास बहुत से ऐसे लोग हैं जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं; यदि तू निष्कासित नहीं किया गया है, तो इसलिए कि अभी निष्कासन-कार्य का समय नहीं है; बल्कि यह समय बाहर निकालने के कार्य का है। तुझे निष्कासित करने की अभी कोई जल्दी नहीं है। मैं तो बस उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ, जब हटा दिए जाने के बाद, मैं तुझे दंडित करूंगा। जो कोई भी सत्य का अभ्यास नहीं करता है, उसे हटा दिया जायेगा!

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी

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पिछला: iv. क्या धार्मिक पादरी और एल्डर वास्तव में परमेश्वर द्वारा स्थापित हैं, और क्या पादरियों और एल्डरों की आज्ञा का पालन करना परमेश्वर का आज्ञापालन तथा अनुसरण करना है

अगला: vi. क्य़ा धार्मिक जगत के फरीसियों और मसीह-विरोधी लोगों से धोखा खाए और उनके द्वारा नियंत्रित लोग परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकते हैं

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1. प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

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